Saturday, July 16, 2011

मीडिया और मनमोहन



प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने प्रिंट मीडिया के कुछ संपादकों के साथ बातचीत में अपने और सरकार के बारे में व्याप्त गलतफहमी पर जो स्पष्टीकरण दिया उससे यह तो साफ है कि उनकी नीयत पर उंगली नहीं उठाई जा सकती, लेकिन विभिन्न मुद्दों पर उनके मत से सभी का सहमत होना संभव नहीं। हालांकि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद वह अपनी सरकार चला रहे हैं और आम तौर पर लोग यह मानते हैं कि देश का नेतृत्व ऐसे हाथों में है जिसकी व्यक्तिगत निष्ठा पर संदेह नहीं किया जा सकता, लेकिन लोगों के मन में ये सवाल कौंधते ही रहते हैं कि क्या वह वास्तव में सक्षम प्रधानमंत्री हैं और क्या सोनिया गांधी के दबाव से मुक्त हैं? प्रधानमंत्री ने फिर यह कहा कि वह कमजोर नहीं हैं और सोनिया गांधी से उनके रिश्ते मधुर हैं। सोनिया गांधी से उनके मधुर रिश्तों के बारे में कोई संदेह नहीं हो सकता, क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो वह प्रधानमंत्री पद पर बने नहीं रह सकते थे। जहां तक उनके मजबूत प्रधानमंत्री होने की बात है तो वह खुद स्वीकार कर चुके हैं कि उन्हें गठबंधन राजनीति की मजबूरियों का सामना करना पड़ता है। शायद इसीलिए 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले सामने आए। स्पेक्ट्रम घोटाले समेत अन्य अनेक घपले सरकार की अकर्मण्यता को ही रेखांकित करते हैं और इसके लिए किसी न किसी स्तर पर प्रधानमंत्री भी जिम्मेदार ठहराए जाएंगे। चूंकि अभी घोटालों की जांच चल रही है इसलिए अंतिम तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता कि उनके लिए कौन कितना दोषी है और शायद इसीलिए प्रधानमंत्री ने यह कहा कि मीडिया को फैसले सुनाने का काम नहीं करना चाहिए, लेकिन अभी तक जो तथ्य सामने आए हैं उनसे स्पष्ट है कि कहीं न कहीं सरकार के स्तर पर गड़बड़ी हुई है। बात चाहे राष्ट्रमंडल खेल घोटालों की हो या स्पेक्ट्रम घोटाले की या फिर आदर्श सोसाइटी घपले की-ये सब सोच-समझ कर किए गए और इसीलिए उनकी आंच में प्रधानमंत्री को भी झुलसना पड़ा। यह मानना कठिन है कि जब इन घोटालों को अंजाम दिया जा रहा था तब उनकी भनक प्रधानमंत्री को नहीं लगी होगी। उन्होंने उसी समय कड़ी कार्रवाई नहीं की। शायद यही कारण है कि उन पर कमजोर प्रधानमंत्री का तगमा लगा है। इसी माहौल का फायदा उठाते हुए अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने दबाव की रणनीति अपनाई हुई है। हालांकि उनकी रणनीति को सरकार ने कंुद कर दिया है, लेकिन बावजूद इसके प्रधानमंत्री को सफाई देनी पड़ रही है। ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार का उभार अभी हुआ है। वह वर्षो से व्याप्त है। सवाल यह है कि लोकपाल बनाने या कालेधन की रोकथाम के लिए कानूनों का निर्माण करने के बारे में पहले क्यों नहीं सोचा जा सका? ऐसा क्यों हुआ कि जब सरकार भ्रष्टाचार में गले तक डूबी नजर आने लगी तब लोकपाल विधेयक पारित कराने और काले धन पर अंकुश लगाने की पहल की जा रही है? जनता तो यह पूछेगी ही कि संप्रग सरकार सात वर्ष तक क्या करती रही? लोगों के मन में ऐसे ही कुछ सवाल आधारभूत ढांचे का समुचित विकास न होने और युवाओं को गुणवत्ता प्रधान शिक्षा एवं कौशल प्रदान करने वाली व्यवस्था का निर्माण न होने के कारण भी उठ रहे हैं। इन सवालों पर बहस तो खूब होती है, लेकिन उनका समाधान नहीं दिखता। समाधान खोजने के नाम पर या तो राजनीति होती है या फिर समय खपाने वाला विचार-विमर्श। ऐसे में जनता का व्याकुल होना और विपक्ष द्वारा सरकार की टांग खींचना स्वाभाविक है। इन स्थितियों में यदि मीडिया सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहा है और उस पर प्रधानमंत्री को खराब लग रहा है तो फिर देश की जनता ही यह तय करे कि दोष मीडिया का है या सरकार का या फिर उन परिस्थतियों का जिनके तहत मनमोहन सिंह को कार्य करना पड़ रहा है? देश को आज ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो दायरे से बाहर निकले। आखिर जनता सुधारों का इंतजार कब तक करेगी? क्या नए कानून के निर्माण में देरी के लिए जनता जिम्मेदार है? संप्रग सरकार खुद ही अपने पैरों में बेडि़यां डालकर तमाम सुधार कार्यक्रमों को रोके बैठी है। ऐसे में माहौल में निराशा तो छाएगी ही। अगर इस माहौल के लिए प्रधनमंत्री मीडिया पर ठीकरा फोड़ेंगे तो यह ठीक नहीं। आखिर मीडिया का तो काम ही समस्याओं को उजागर करना और उनकी जड़ की पहचान करना है। मौजूदा माहौल के लिए मीडिया उन्हें ही कठघरे में खड़ा करेगा जो इसके लिए उत्तरदायी दिखेंगे। भारत नौजवानों का देश है, इसे खुद प्रधानमंत्री स्वीकार रहे हैं। उन्हें इसकी अनुभूति होनी चाहिए कि नौजवानों में बुजुर्गो जैसा धैर्य नहीं होता। चूंकि आज का नौजवान सूचनाओं और विचारों से लैस है इसलिए वह और अधीर है। क्या मीडिया उनकी अधीरता की अनदेखी कर दे? शीर्ष पदों पर बैठे हमारे नेता अपनी उम्र के इतने सावन देख चुके हैं कि वे तो अब अधीर होने से रहे, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे गंभीर मसलों पर भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। वे पेचीदा मसलों पर भी फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं, लेकिन सरकार के अंदर के नौजवान नेता विचलित हैं। यही अधीर नेता राहुल को प्रधानमंत्री बनाने की मांग कर रहे हैं। यह मांग मीडिया नहीं कर रहा। शायद इन अधीर नेताओं को राहुल में उम्मीद दिखती है, क्योंकि वह भी सामाजिक विकास को लेकर चिंतित हैं। क्या ये नेता सिर्फ गांधी परिवार की चापलूसी के कारण राहुल को प्रधानमंत्री बनाने की मांग कर रहे हैं या इसलिए कि वरिष्ठ नेता समय के साथ कदमताल नहीं कर पा रहे? जब भी राहुल को प्रधानमंत्री बनाने की मांग उठती है तो मनमोहन सिंह असहज हो उठते हैं। वैसेराहुल अभी स्वयं को इतना परिपक्वनहीं मान रहे कि इस कुर्सी पर आसीन हों और संभवत: सोनिया गांधी भी इस पद की गरिमा को देखते हुए राहुल के नाम को आगे नहीं बढ़ा रही हैं, अन्यथा युवा कांग्रेसियों ने तो उन्हें न जाने कब प्रधानमंत्री बना दिया होता । मनमोहन सिंह एक धीर-गंभीर और सज्जन-विद्वान राजनेता की छवि से लैस हैं। उनकानाम इसलिए स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा, क्योंकि वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने ही भारत की डूबती नैया किनारे लगाई थी, लेकिन पता नहीं क्यों अब वह अपनी छाप नहीं छोड़ पा रहे। यदि उन्हें बार-बार यह कहना पड़ रहा है कि वह कमजोर प्रधानमंत्री नहीं तो फिर मीडिया इसके कारणों का विश्लेषण करेगा ही। शायद प्रधानमंत्री को मीडिया के ये विश्लेषण स्वीकार नहीं। उन्हें मीडिया के विश्लेषणों को खारिज करने का अधिकार है, लेकिन मौजूदा स्थितियों में यह सवाल कायम रहेगा कि क्या वह उस निर्णायक नेतृत्व क्षमता के साथ काम कर पा रहे रहे हैं जिसकी संविधान उन्हें इजाजत देता है?

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