Wednesday, July 27, 2011

शब्द सीमा से स्मृति शेष होते विचार

भाई साब! एक अच्छा-सा पीस तो भिजवा दीजिए। बस शब्द सीमा का ध्यान रखिएगा। आपको पता ही है, स्पेस ज्यादा नहीं है।

स्पेस की झंझट है हर कहीं। अखबारों में, मैगजीन में, रिश्तों और जिंदगी में तो खैर है ही, शाश्वत समस्या की तरह। और हमारी समस्या है कि हम दिए गए स्पेस में कह और रह दोनों ही नहीं पाते हैं।

लेखन जगत में अपनी बात कहने के लिए बड़ी फिक्स-सी जगह होती है। यानी स्पेस का ताबूत पहले से बना होता है, अब विचारों की लाश भी इसी साइज में चाहिए। न लंबी! न छोटी! बिल्कुल फिट साइज की।

ऐसा न हो तो विचारों की उन्मुक्त उड़ान को कैंची मारकर धड़ाम से जमीन पर गिरा दिया जाता है। फिर बेचारा घायल विचार फड़फड़ाता रहता है। इन घायल विचारों के कारण पूरी सोसाइटी ही दिशाशून्य-सी हो रही है। कई बार आपने विचार लिया।

उसे दिमाग की देग में पकाना शुरू ही किया था कि पता चला शब्द सीमा समाप्त। विचार असमय ही दिवंगत। अच्छे भले थे, एकाएक हॉर्टअटैक आया। नहीं रहे। स्पेस की कमी से जाम हो गईं धमनियां। कालजयी दिशा में जाता एक विचार असमय स्मृति शेष हो गया।

स्पेस का दबाव ही ऐसा है। मितव्ययिता चाहिए सोचने में। विस्तार का तंबू मत तानिए। सीधे अपनी बात कह दीजिए। वरना फिर टांगें छांटनी पड़ेंगी। तब फिट हो पाएंगे ताबूत में। भले ही कटी-फटी शक्ल निकले, विषय भी पहचानने में न आए!

और अलंकार! अनुप्रास! शब्द सामथ्र्य! भाषा सौष्ठव! भाड़ में जाने दीजिए। टुंडा विचार भी चलेगा! मिसाल भैंगी हो रही है जनाब। कोई बात नहीं भैंगी ही चलेगी! अरे भाई अभी तो माहौल ही नहीं खेंच पाए थे। मिट्टी डालिए माहौल पर, आप तो सीधे-सीधे द एंड पर पहुंच जाइए! पाठक समझदार हैं, बीच का माहौल खुद ही बना लेंगे।

अभी तो पार्क में छोरा-छोरी मिले ही थे। प्यार की पींगे बढ़ा ही रहे थे कि स्पेस के विलेन ने झाड़ियों से लात मार दी। औंधे मुंह गिर पड़े कालजयी रचना के विचार। सो अब हर तरह का लेखक माहौल नहीं खेंच पा रहा है। जल्दी में सब निपटा देता है।

लेखन में दम नहीं बचा है? सुनने में आ रहा है इन दिनों। क्योंकि! विचारों का अधकच्च फल लद्द से जमीन पर गिरता है। लेखक पर स्पेस का दबाव था। विचार कृत्रिम तरीके से पकाना पड़ा। अधकच्च ही मार्केट में चला दिया। रंग-रूप-स्वाद में पुरानी बात नहीं रही, जैसी शिकायतें आने लगती हैं।

स्वाद कहां से आएगा? स्पेस का दबाव रहा। विचारों का नवजात अठमासा ही बाहर आ गया। कई बीमारियां लेकर। रचना के बाप और साख दोनों पर भी अलग ही संकट खड़ा कर गया।
हैं! बहन जै का भया है?

ऐसी आवाजें प्रसूति की कमजोरी झेल रहे लेखक का मनोबल और तोड़ देती हैं। फिर लेखक हिम्मत नहीं जुटा पाता है अपना जाया देखने की। दूसरे लेखक का जाया यूं भी कोई लेखक देखता नहीं है। तो फिर? पैदा होते हैं टुंडे विचार! आती है सोसाइटी में दिशाशून्यता! बौरायापन!

हालांकि स्पेस में कमी तो खैर हर जगह आ रही है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। दायरे सिकुड़ रहे हैं। रिश्ते सिमट-से गए हैं। हम-तुम के स्पेस में मां-बाप तक नहीं समा पा रहे हैं।

यहीं देख लीजिए, अपनी बात कहने का ढंग से माहौल भी नहीं बना पाया कि लीजिए खर्च हो गई जगह। मुंह की मुंह में रह गई बात। हालांकि इतने के बाद भी उम्मीद है, वो दिन कभी तो आएगा, जब हम खाल में रहना और स्पेस में कहना सीख पाएंगे।
Source: अनुज खरे
http://www.bhaskar.com/article/ABH-term-limits-are-considered-relic-2295921.html

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