Wednesday, March 28, 2012

एनजीओ का काला सच

विकास परियोजनाओं में अड़ंगे लगा रहे और मतांतरण में लिप्त एनजीओ पर सख्ती की जरूरत जता रहे हैं बलबीर पुंज
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की आपाधापी और रेल बजट प्रस्तुत होने के बाद उपजे राजनीतिक बवाल के बीच एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम दब-सा गया। पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखते हुए उस सच को स्वीकार किया है जो कल तक भारत में मतांतरण गतिविधियों में संलग्न चर्च और अलगाववादी संगठनों की ढाल बनने वाले स्वयंभू मानवाधिकारी गुटों के संदर्भ में राष्ट्रनिष्ठ संगठन उठाते आए हैं। यह वह कड़वा सच है जिसे सेक्युलर दल भाजपा का सांप्रदायिक एजेंडा बताकर अब तक नकारते आए थे। प्रधानमंत्री ने कहा था कि तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु परियोजना और कृषि क्षेत्र में वृद्धि के लिए जेनेटिक इंजीनियरिंग के प्रयोग का विरोध करने के पीछे विदेशों से वित्तीय सहायता पाने वाले गैर सरकारी संगठनों का हाथ है। पिछले दिनों सरकार ने राज्यसभा में बताया था कि 2007 से 2010 के बीच भारत में सक्रिय 65,500 एनजीओ को विदेशों से 31,000 करोड़ रुपये से अधिक की वित्तीय सहायता दी गई। यह राशि किन कायरें में खर्च होती है? महाराष्ट्र के जैतापुर और तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु बिजली परियोजना का विरोध करने वाले संगठन वस्तुत: भारत के विकास को बाधित करने वाली अंतरराष्ट्रीय शक्तियों के मुखौटे हैं। पिछले कुछ दशकों के घटनाक्रमों का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ऊर्जा के क्षेत्र में भारत द्वारा किए जा रहे प्रयासों को लगातार बाधित करने की कोशिश की गई है। अस्सी के दशक में पनबिजली परियोजना का विरोध तो नब्बे के दशक में इसी मंशा से ताप विद्युत परियोजनाओं का विरोध किया गया। करीब दो दशकों तक नर्मदा बचाओ के नाम पर सरदार सरोवर बांध परियोजना को अधर में लटकाने का प्रयास किया गया, जिसके कारण परियोजना लागत व्यय में तीन सौ गुना वृद्धि हुई, किंतु गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने हार नहीं मानी। आज गुजरात और राजस्थान के मरुस्थल के आसपास रहने वाले लाखों लोगों की आर्थिक स्थिति में उस परियोजना के कारण क्रांतिकारी बदलाव आया है। अब कुछ विकसित देशों के इशारे पर परमाणु बिजली परियोजनाओं को ठप करने का प्रयास किया जा रहा है। इस देशघाती गतिविधि में संलग्न संगठन वस्तुत: अलगाववादी ताकतों के सतह पर दिखाई देने वाले चेहरे हैं। गृह मंत्रालय द्वारा प्रधानमंत्री को भेजी गई एक रिपोर्ट में बताया गया है कि कुछ एनजीओ विकलांग लोगों की मदद और कुष्ठ रोग उन्मूलन जैसे सामाजिक सेवा के कायरें के लिए विदेशों से धन प्राप्त करते हैं और उसका उपयोग कुडनकुलम जैसी परियोजना के खिलाफ अभियान चलाने में किया जाता है। एक अनुमान के अनुसार मिशनरी गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए 10,000 करोड़ से अधिक की धनराशि प्रतिवर्ष भारत भेजी जाती है। मिशनरी संगठनों के पितृ संगठन-इवेंजेलिकल फेलोशिप ऑफ इंडिया से ऐसे 35,000 चर्च सूचीबद्ध हैं, किंतु नए चचरें की वास्तविक संख्या आंक पाना कठिन होने के कारण विदेशों से भेजी जाने वाली राशि का अनुमान भी दुष्कर है। विदेशों से धन प्राप्त करने वाले करीब 75 प्रतिशत से अधिक संगठन ईसाई संगठन हैं। चर्च से संबद्ध ऐसे संगठन सामाजिक सेवा के नाम पर वस्तुत: मतांतरण अभियान के सहायक ही हैं। सीबीआइ कुडनकुलम में सक्रिय जिन चार एनजीओ-तूतीकोरिन डायासेसन एसोसिएशन, रूरल अपलिफ्ट सेंटर, गुडविजन चैरिटेबल ट्रस्ट और रूरल अपलिफ्ट एंड एजुकेशन की जांच कर रही है उन्हें सन 2006 से 2011 के बीच विदेशों से 36-37 करोड़ रुपये मिले थे। कुडनकुलम में चर्च के कार्डिनल और बिशपों द्वारा जो जन विरोध खड़ा किया गया वह वस्तुत: चर्च की घबराहट को रेखांकित करता है। उन्हें भय है कि कुडनकुलम जैसी बड़ी परियोजना से न केवल स्थानीय लोगों का भला होगा, बल्कि आसपास के दूरदराज के इलाकों के लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बेहतर होगी। पिछड़ों और वंचितों को कथित स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा देने के नाम पर देश के पिछड़े इलाकों में सक्रिय चर्च के कार्यो पर सरकार द्वारा समय-समय पर गठित की गई समितियों ने गंभीर प्रश्न खड़े किए हैं, किंतु सेक्युलर सत्ता अधिष्ठान चर्च के मतांतरण अभियान पर लगाम लगाने के बजाए राष्ट्रनिष्ठ संगठनों को ही कठघरे में खड़ा करता आया है। कुछ साल पूर्व गुजरात के डांग जिले में जब चर्च के इस तरह के मतांतरण का खुलासा हुआ तो सेक्युलरिस्टों ने भारतीय जनता पार्टी पर चर्च के उत्पीड़न का आरोप मढ़ने में देर नहीं की। ऐसी मानसिकता भारत की बहुलतावादी संस्कृति के लिए घातक है। हाल ही में कश्मीर घाटी में मुसलमानों का मत परिवर्तन कराने वाले पादरियों को शरीयत अदालत के आदेश पर प्रशासन ने गिरफ्तार किया था, किंतु विडंबना यह है कि देश के अन्य हिंदू बहुल भागों में सक्रिय चर्च के इस मतांतरण अभियान पर प्रश्न खड़ा होता है तो सेक्युलरिस्ट और स्वयंभू मानवाधिकारी संगठन चर्च के समर्थन में खड़े हो जाते हैं और उपासना के अधिकार का प्रश्न खड़ा किया जाता है। ग्राहम स्टेंस के कथित हत्यारे दारा सिंह की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने भी चर्च के मतांतरण अभियान को लेकर बहुत कटु टिप्पणी की थी। मध्य प्रदेश में मिशनरी गतिविधियों की शिकायतों को देखते हुए इन आरोपों की जांच के लिए 14 अप्रैल, 1955 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने पूर्व न्यायाधीश डॉ. भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी। समिति की प्रमुख संस्तुतियां मतांतरण के उद्देश्य से आए विदेशी मिशनरियों को बाहर निकालने और उनके प्रवेश पर पाबंदी लगाने की थी। उन्होंने कहा था कि बल प्रयोग, लालच, धोखाधड़ी, अनुचित श्रद्धा, अनुभवहीनता, मानसिक दुर्बलता का उपयोग मतांतरण के लिए नहीं हो। न्यायमूर्ति रेगे समिति (1954), न्यायमूर्ति वेणुगोपाल आयोग (1982) और न्यायमूर्ति वाधवा आयोग (1999) ने भी नियोगी आयोग की संस्तुतियों को उचित ठहराया है। बाहरी शक्तियों की कठपुतली बन भारत की विकास परियोजनाओं का विरोध करने वाले गैर सरकारी संगठनों व स्वनामधन्य मानवाधिकारियों के वित्तीय श्चोतों की जांच स्वागत योग्य है, किंतु सरकार को आत्मा के कारोबार में लीन चर्च और उसके सहयोगी संगठनों पर भी लगाम लगानी चाहिए। इसके लिए छलकपट और प्रलोभन के बल पर होने वाले मतांतरण पर प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है।
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

राजनीति का कृष्ण पक्ष

मध्यावधि चुनाव की चर्चाओं के बीच राजनीति की दिशा-दशा पर निगाह डाल रहे हैं डॉ. गौरीशंकर राजहंस
जब से उत्तर प्रदेश में सपा को विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत मिला है, पूरे देश में यह चर्चा हो रही है कि क्या इस मौके का फायदा उठाकर समाजवादी पार्टी देश में मध्यावधि चुनाव करा सकती है? सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह ने पहले तो राम मनोहर लोहिया की जन्म शताब्दी के अवसर पर कहा कि उनके कार्यकर्ता इसके लिए तैयार रहें कि मध्यावधि चुनाव 2014 के पहले भी हो सकते हैं। इसके ठीक बाद उन्होंने कहा कि सपा को केंद्र में सरकार बनाना है और यह तभी संभव है जब उत्तर प्रदेश की सारी सीटें सपा जीत ले। इसमें अधिक संदेह नहीं कि यदि उत्तर प्रदेश की तीन-चौथाई लोकसभा की सीटें भी सपा को मिल गई तो अन्य पार्टियों के साथ जोड़-तोड़ करके वह केंद्र में सरकार बना सकती है। आखिर इस देश में देवगौड़ा और गुजराल भी तो प्रधानमंत्री हुए हैं जिनकी पार्टियों को कोई मजबूत आधार प्राप्त नहीं था। अब ऐसा प्रतीत होता है कि चाहे मध्यावधि चुनाव हों या नियत समय पर 2014 में, किसी भी पार्टी को इतना बहुमत नहीं मिल सकता है कि वह अकेले सरकार बनाए। उसे निश्चित रूप से गठबंधन की सरकार बनानी होगी और गठबंधन सरकार में अलग-अलग पार्टियों के अलग-अलग एजेंडे होते हैं। मध्यावधि चुनाव के पक्ष और विपक्ष में कई तर्क दिए जा रहे हैं। कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि यदि कुछ महीनों के अंदर मध्यावधि चुनाव हो जाएं तो सपा को विधानसभा चुनाव में जो लोकप्रियता हासिल हुई है उसका लाभ उठाकर उसे लोक सभा में अधिक से अधिक सीटें मिल सकती हैं। देर होने पर सपा की लोकप्रियता घटने लगेगी और बहुत संभव है कि उसे उतनी भी सीटें नहीं मिलें जितनी उसे पहले मिली थीं। चुनाव में जाने के पहले सपा ने ऐसी घोषणाएं कर दीं जिसको पूरा करने के लिए हजारों करोड़ चाहिए। उत्तर प्रदेश सरकार का खजाना खाली है, फिर वह आखिर इतना पैसा कहां से लाएगी? दूसरी बात है कि जब से उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव हुआ है, पूरे राज्य में जगह-जगह सपा और बसपा के कार्यकर्ताओं में मारपीट हो रही है। इस कारण आम जनता को यह डर हो रहा है कि कहीं फिर से उत्तर प्रदेश में गुंडा राज कायम नहीं हो जाए। राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि आम जनता को रोजी-रोटी और मकान चाहिए। वह लैपटॉप और टैबलेट लेकर क्या करेगी? यह बात विशेषकर युवा वर्ग के लोगों के बारे में कही जाती है। सपा ने चुनाव के पहले यह घोषणा की थी कि बेरोजगार युवकों को 1000 रुपये महीना बेरोजागरी भत्ता दिया जाएगा। यह खबर आई है कि इस बेरोजगारी भत्ते के लिए जगह-जगह आवेदकों ने हंगामा मचा दिया और कई जगह तो उनकी अधिकारियों से मारपीट भी हो गई। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या का घनत्व बहुत अधिक है। ऐसे में लाखों लोगों को नियमित रूप से बेरोजगारी भत्ता सरकार कैसे दे पाएगी? यह योजना निश्चित रूप से फेल हो जाएगी और उस स्थिति में पहुंचने के पहले ही सपा चाहेगी कि मध्यावधि चुनाव हो जाए। साथ ही यह भी सही है कि तृणमूल का संबंध कांग्रेस के प्रति सौहार्दपूर्ण नहीं रह गया है। ऐसे में यदि किसी दिन सपा और बसपा ने समर्थन वापस ले लिया तो सरकार निश्चित रूप से गिर जाएगी। गठबंधन सरकार की मजबूरियां साफ झलक रही हैं। श्रीलंका से भारत का संबंध हाल तक निकटतम था। वहां गृहयुद्व में बुनियादी ढांचे का जो नुकसान हुआ था उसके पुनर्निर्माण में भारत जी जान से जुटा हुआ है, परंतु इस मामले में चीन भारत से कहीं आगे निकल गया है। श्रीलंका में चीन के बढ़ते हुए प्रभुत्व के कारण भारत सरकार पहले से चिंतित थी। अब द्रमुक और अन्नाद्रमुक के दबाव में श्रीलंका के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान कर भारत ने श्रीलंका को अप्रसन्न कर दिया है। गठबंधन सरकार की मजबूरियों के कारण केंद्र सरकार कई महत्वपूर्ण आर्थिक मामलों में कोई साहसपूर्ण कदम नहीं उठा पा रही है। संसार के कई देशों में गठबंधन सरकारें चल रही हैं, परंतु वहां जनता बार-बार सरकार पर दबाव डाल रही है कि वह ऐसा कोई काम नहीं करें जिससे मध्यावधि चुनाव की नौबत आ जाए। दूसरी ओर अपने देश में दुर्भाग्यवश हमारे राजनेता इस सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। वे जल्दी से जल्दी मध्यावधि चुनाव कराकर सत्ता में आना चाहते हैं। यदि मध्यावधि चुनाव हुए तो काला धन पानी की तरह बहेगा और देश में इतनी भयानक महंगाई आ जाएगी जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। गत रविवार को जंतर मंतर पर अन्ना हजारे ने केंद्र के खिलाफ हल्ला बोल दिया है और यह भी ऐलान किया है कि यदि उनके अनुसार 14 दागी केंद्रीय मंत्रियों पर एफआइआर दर्ज नहीं किया गया तो वे अगस्त से जेल भरो आंदोलन शुरू कर देंगे। उन्होंने और उनके समर्थकों ने जनलोकपाल बिल और चुनाव सुधारों की भी चर्चा की, परंतु सबसे अधिक खेद का विषय यह है कि अन्ना तो अपने भाषण में शालीन भाषा का प्रयोग करते रहे, परंतु उनके समर्थकों ने बदजुबानी की और राजनेताओं के खिलाफ ऐसी टिप्पणियां कर दीं जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। अनुभव यह बताता है कि लोगों को उभारना बहुत आसान होता है, परंतु उनको उभारने से अराजकता आ जाएगी। बाद में उन पर नियंत्रण पाना बहुत ही कठिन है। जेपी आंदोलन में भी 1977 में यही हुआ था। जनता की भावनाओं को उभार दिया गया था, लेकिन जो नेता जेपी आंदोलन की उपज थे उनमें से अधिक जब सत्ता में आए तब उन्होंने दोनों हाथों से जनता को लूटा। इसलिए जनभावना को उत्तेजित करने के पहले अन्ना को अपने समर्थकों को यह सीख देनी चाहिए कि वे अपनी जुबान पर नियंत्रण रखें और देश में कोई ऐसी स्थिति नहीं पैदा कर दें जिससे देश अराजकता के भंवर में फंस जाए। (लेखक पूर्व सांसद एवं पूर्व राजदूत हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

निर्धनता की शर्मनाक अनदेखी

गरीबी के संदर्भ में योजना आयोग के आंकड़ों के आधार पर नीति-नियंताओं की नीयत पर सवाल खड़े कर रहे हैं डॉ. निरंजन कुमार
योजना आयोग द्वारा गरीबी रेखा के नए निर्धारण से उठे ताजा विवाद को पूरे परिप्रेक्ष्य में समझने के पहले गरीबी और गरीबी के अनुभव की कथा से इस लेख की शुरुआत करना चाहता हूं। दो पक्षों की इस कथा में एक तरफ भारतीय मूल के दो युवक हैं, जिन्होंने अमेरिका में उच्च शिक्षा प्राप्त की और देश की सेवा के लिए वापस आते हैं। वे गांधीजी का अनुकरण करते हुए उस भारत को समझना चाहते हैं जो असली भारत की तस्वीर है। गांधीजी ने कहा था कि लोगों की सेवा के लिए सिर्फ सहानुभूति ही नहीं समानुभूति भी जरूरी है। इसीलिए अमेरिका रिटर्न दो भारतीय नौजवान तुषार वशिष्ठ और मैथ्यू चेरियन गरीबी रेखा के लिए निर्धारित अत्यल्प पैसे में जीवन गुजारने का प्रयोग करते हैं। दूसरी तरफ गगनचुंबी अट्टालिकाओं के एयर कंडीशनर में बैठे हुए योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे हमारे नीति-निर्धारक हैं, जिन्हें देश की गरीबी और गरीबों पर इतनी शर्म आ रही है कि गरीबी हटाने के लिए जैसे गरीबों को ही हटाने का कार्यक्रम बना लिया है। अहलूवालिया ने कहा कि कुछ लोग देश को जानबूझकर गरीब दिखाना चाहते हैं, जबकि देश में गरीबों की संख्या तो बहुत कम हो गई है। वर्तमान विवाद योजना आयोग के इस दावे से उठा कि 2004-05 से 2009-10 में गरीबी में पर्याप्त कमी आई है और यह 7.4 प्रतिशत घटकर अब 29.8 प्रतिशत तक रह गई है और इस नकली कमी को दिखाने के लिए गरीबी रेखा की सीमा को ही शर्मनाक रूप से बहुत कम कर दिया। यह सीमा रेखा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति 22.42 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 28.65 रुपये तय की गई। अहलूवालिया जैसे हमारे नीति-निर्धारकों को शायद सपने में भी नहीं अहसास है कि गरीबी क्या होती है। अभी कुछ ही महीनों पहले सुप्रीम कोर्ट और सामजिक कार्यकर्ताओं के साथ- साथ सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के कुछ सदस्यों की फटकार से योजना आयोग और सरकार तब बैकफुट पर आ गई थी जब मोंटेक सिंह ने गरीबी रेखा को 32 और 26 (वर्तमान से कुछ ज्यादा ही) रुपये तय किया था, लेकिन लगता है कि सरकार उस घटना से सबक नहीं लेना चाहती है। उस समय की गरीबी रेखा के निर्धारण के बाद तुषार और मैथ्यू ने इतने कम रुपये में जीवन जीने का प्रयोग किया। शुरुआत उन्होंने 100 रुपये प्रतिदिन खर्च से की। एक महीने इस जिंदगी के बाद उन्होंने महसूस किया कि 100 रुपये में सिर्फ खाने, पहनने, रहने के साथ अति साधारण जीवन ही जिया जा सकता है। उत्तम शिक्षा, स्वास्थ्य, अच्छा जीवन स्तर और उच्च सामजिक गतिशीलता फिर भी एक सपना ही है। फिर इन दोनों ने एक गांव में जाकर 26 रुपये प्रतिदिन में जीने का प्रयोग किया। एक महीने का यह अनुभव अत्यंत मर्मातक सिद्ध हुआ। इन्होंने पाया कि इस पैसे में वे सिर्फ 1100 से 1200 कैलोरी का भोजन कर सकते थे। एक सामान्य इंसान को 2100 से 2400 कैलोरी भोजन की जरूरत होती है (जबकि मेहनतकश लोगों को तो 3000 से भी ज्यादा कैलोरी चाहिए)। इनका न केवल ग्लूकोज स्तर घट गया, बल्कि जीवन की बुनियादी सुविधाएं खाने-रहने-पहनने को वे तरसने लगे थे। सारा समय वे सिर्फ खाने के बारे में सोचते थे। उत्तम शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, अच्छे जीवन की कल्पना और जीवन में आगे बढ़ने की तमन्ना तो सपने में भी नहीं आती थी। मेहनत करने की क्षमता नहीं के बराबर रह गई थी। शायद कुछ ऐसी ही है भारत के गरीबों के लिए हमारे योजना आयोग की योजना, जिसे बहुसंख्य भारतीयों की समस्याओं से जैसे कोई मतलब ही न हो। संप्रग सरकार के ही द्वारा गठित अन्य आयोगों और समितियों के निष्कर्ष कुछ और ही हैं। अप्रैल 2009 में आई अर्जुनसेन गुप्ता रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 77 प्रतिशत से ज्यादा लोग प्रतिदिन 20 रुपये से कम पर जिंदगी बसर कर रहे हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित एनसी सक्सेना समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि भोजन कैलोरी के आधार पर 50 प्रतिशत से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। इसी तरह ऑक्सफोर्ड पावर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनिशिएटिव ने 2010 में यूनाइटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम के लिए मल्टी डाइमेंशनल पावर्टी इंडेक्स तैयार किया, जिसमे बताया गया है कि 53.7 प्रतिशत भारतीय लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं। आज सरकार का समर्थन कर रहे सपा जैसे दल भी योजना आयोग के आंकड़ों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। सरकार और योजना आयोग पिछली बार फटकारे जाने के बाद भी फिर ऐसा क्यों कर रहे हैं? इसके कई कारण हैं। एक तो यह कि गरीबों की कम संख्या दिखाकर ये वाहवाही लूटना चाहते हैं तो दूसरी तरफ विभिन्न योजनाओं के तहत गरीबों पर खर्च की जाने वाली राशि, खास तौर से प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के माध्यम से होने वाले व्यय में सरकार कटौती करना चाहती है। तीसरे, इस तरह सरकारी धन को बचाकर आर्थिक सुधार के नाम पर कारपोरेट जगत को दी जाने वाली सब्सिडी में वृद्धि करना चाहती है और अंतत: गरीबी दूर करने में असफलता के लिए जिम्मेदार विभिन्न घोटालों, भ्रष्टाचार, नीतिगत नाकामियों, नेताओं और अफसरों के निकम्मेपन और देश के संसाधनों के दुरुपयोग आदि पर पर्दा डालना चाहती है, लेकिन इन्हें अहसास नहीं कि उनके इन कदमों से क्या सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक दुष्परिणाम हो रहे हैं। एक तरफ यह सामाजिक असंतोष को जन्म दे रहा है और देश में बढ़ते हुए अपराध, नैतिक गिरावट आदि के लिए एक हद तक जिम्मेदार है तो दूसरी तरफ आर्थिक रूप से भी यह नुकसानदेह है। तीसरे, राजनीतिक रूप से भी यह स्थिति खतरनाक है। देश में चल रहे नक्सलवादी जैसे विभिन्न उग्रपंथी आंदोलनों की जड़ में भी ऐसी ही जनविरोधी नीतियां हैं। (लेखक दिल्ली विवि में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

सनसनीखेज

थलसेना प्रमुख जनरल वीके सिंह का यह कथन सनसनीखेज अवश्य है कि उन्हें एक सौदे को मंजूरी देने के एवज में 14 करोड़ रुपये की रिश्वत की पेशकश की गई थी, लेकिन अविश्वसनीय नहीं। नि:संदेह जनरल वीके सिंह की ओर से यह स्पष्ट करने की जरूरत है कि वह तत्काल ही इस मामले को सामने क्यों नहीं लाए, लेकिन उनका खुलासा इसलिए सच के करीब और सामान्य सा नजर आता है, क्योंकि रक्षा संबंधी सौदों में दलाली के लेन-देन की सुगबुगाहट जारी ही रहती है। यह हथियारों, उपकरणों से लेकर अन्य सामग्रियों की खरीद को लेकर भी सुनाई देती रहती है। यह तब है जब पारदर्शिता और जवाबदेही का ढोल पीटने के साथ यह दावा भी किया जाता है कि रक्षा संबंधी सौदों में बिचौलियों की भूमिका खत्म कर दी गई है। क्या यह माना जाए कि बिचौलियों की भूमिका केवल दूसरे देशों से किए जाने वाले रक्षा सौदों में ही खत्म की गई है? यह घोर लज्जाजनक है कि स्वतंत्रता के तुरंत बाद यानी 1948 में जीप घोटाले से दो-चार होने वाले देश को अब यह सुनने को मिल रहा है कि किसी की ओर से ट्रक घोटाले को अंजाम देने की कोशिश की गई। इससे साफ पता चलता है कि उन तौर-तरीकों को दूर करने के लिए कहीं कोई कोशिश नहीं की गई जिससे घपलों-घोटालों को रोका जा सके। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि जनरल वीके सिंह के बयान के बाद रक्षा मंत्री एके एंटनी ने उन्हें रिश्वत की पेशकश किए जाने के मामले की जांच सीबीआइ को सौंपने के आदेश दिए हैं, क्योंकि यह प्रश्न अनुत्तरित है कि जब सेनाध्यक्ष ने उसी समय रक्षा मंत्री को इस प्रकरण से अवगत करा दिया था तो फिर जांच कराने का निर्णय अब क्यों लिया जा रहा है? क्या रक्षा मंत्री इसका इंतजार कर रहे थे कि सेना प्रमुख मामले को सार्वजनिक करें? सवाल यह भी है कि सेना प्रमुख ने रिश्वत की पेशकश के इस मामले को यूं ही क्यों छोड़ दिया था? इन सवालों का जवाब चाहे जो हो, यह स्पष्ट है कि हमारा सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार से निपटने की कोई इच्छाशक्ति नहीं रखता। यह शर्मनाक है कि देश में ऐसे हालात हैं कि सीधे सेनाध्यक्ष को रिश्वत की पेशकश की जा सकती है। जिस तरह सेनाध्यक्ष के सामने उपस्थित होकर रिश्वत की पेशकश की गई उससे घोटालेबाजों के दुस्साहस का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। क्या कोई यह भरोसा दिलाने के लिए तैयार है कि सेना की जरूरतों को पूरा करने के लिए समय-समय पर जो तमाम सौदे होते रहते हैं वे ऐसे घोटालेबाजों के बगैर ही होते हैं? यह विचित्र है कि थलसेना प्रमुख के आरोप सार्वजनिक होने के बाद संसद के दोनों सदनों में हंगामा हुआ। आखिर यह हंगामा किस कारण? क्या संसद सदस्य यह नहीं जानते हैं कि सरकारी तंत्र घोटालेबाजों से घिरा हुआ है और इसका एक प्रमुख कारण उन्हें हतोत्साहित और साथ ही दंडित करने के लिए उपयुक्त नियम-कानूनों का अभाव है। यदि केंद्र सरकार सेना प्रमुख के आरोपों को वास्तव में गंभीर मान रही है तो तात्कालिक सक्रियता दिखाकर मामले को शांत करने के बजाय कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि उन कारणों का निवारण किया जाए जिनके चलते घपले-घोटाले थम नहीं पा रहे हैं। रक्षा सौदों में घपले-घोटालों को रोकने के लिए तो विशेष प्रयास होने चाहिए, क्योंकि कई बार कुछ सामान्य प्रकरण भी गोपनीयता के आवरण में ढके रहते हैं।
साभार :- दैनिक जागरण

खोखली प्रतिबद्धता का प्रदर्शन

बजट में शिक्षा के लिए किए गए आवंटन के आधार पर केंद्र सरकार की प्राथमिकता पर सवाल खड़े कर रहे हैं जगमोहन सिंह राजपूत
देश में यह बोर्ड परीक्षाओं का समय है। कपिल सिबल भले ही कहते रहें कि उन्होंनें बच्चों में परीक्षाओं का भय ग्रेड प्रणाली लागू कर समाप्त कर दिया है, बच्चे तथा उनके माता-पिता आज भी परीक्षाओं के दबाव तथा भय से उबर नहीं पाए हैं। सरकारी तंत्र तो आदेश देने के बाद निश्चिंत हो जाता है और मान लेता है कि मई 2009 के बाद शिक्षा से जुड़ी सभी समस्याओं का समाधान उसने कर लिया है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के 13 बिल लंबित हैं और आगे भी स्थिति सुधरने की कोई संभावना नहीं है। शिक्षा की प्राथमिकता कितनी पीछे है, इसका पहला उदाहरण था कपिल सिब्बल को एक अत्यंत जटिल मंत्रालय का भी अतिरिक्त भार। दूसरा और उससे भी सटीक उदाहरण है 2012-13 का बजट। आंकड़ों में यह कितना लुभावना लग सकता है कि वित्तमंत्री ने शिक्षा का बजट 61,427 करोड़ तक पहुंचा दिया है-यानी पिछले वर्ष के मुकाबले 18 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी। 22 करोड़ बच्चे स्कूलों में हैं और एक करोड़ के आसपास ऐसे हैं जो नामांकन तक नहीं पहुंच पाते हैं। यह है वह स्थिति जिसमें शिक्षा के मूल अधिकार का अधिनियम लागू किया गया है। संविधान में दिए हुए वायदों के अनुसार सरकार का सभी बच्चों को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा तथा आवश्यक जीवन-कौशल प्रदान करने है। सामान्य धारणा यह है कि सरकारी स्कूलों की बदहाली बढ़ती ही जा रही है। प्राइवेट पब्लिक स्कूलों की संख्या जिस तेजी से बढ़ रही है उसी तेजी से सरकारी स्कूलों की साख गिरती जा रही है। सरकारी दस्तावेजों में अब गुणवत्ता सुधार का जिक्र लगातार आने लगा है, मगर वह कागजों में ही सिमट कर रह जाता है। सरकारी स्कूलों में संख्याओं का बढ़ना ही प्रगति का द्योतक मान लिया जाता है। इस सोच में स्कूली शिक्षा में बजट आवंटन को 45,969 करोड़ पर पिछले वर्ष के 38957 के मुकाबले लाना क्या प्रगति का परिचायक है? क्या यह व्यावहारिक रूप में यथास्थिति ही नहीं बनाए रखेगा? शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के दो वर्ष बाद भी उसका प्रभाव दिखाई नहीं पड़ रहा है। आशा थी कि इस दिशा में विशेष प्रयास किया जाएगा और अनेक बड़े राच्यों की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए बजट आवंटन को उचित अनुपात में बढ़ाया जाएगा। ऐसा कुछ भी शायद सरकार के जेहन में भी नहीं आया है। पिछले कुछ महीनों में प्रथम नामक संस्था तथा एक अंतरराष्ट्रीय मूल्यांकन अध्ययन के नतीजों पर बड़ी चर्चा चली। कक्षा पांच के आधे से अधिक विद्यार्थी कक्षा 2 के स्तर पर भी नहीं पाए गए। देश में 70 प्रतिशत बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हंै या यो कहें कि पढ़ने को बाध्य है। उन्हें अपेक्षित स्तर से नीचे की शिक्षा ही मिलती है। देश में लगभग 15 लाख स्कूल अध्यापकों के पद रिक्त हैं। इसकी बड़ी जिम्मेदारी राच्यों की है, मगर क्या केंद्र सरकार इस भयावह स्थिति से आंख मूंद सकती है। लगता तो यही है कि बजट का सारा ध्यान यथास्थिति बनाए रखने तक ही सीमित हो गया है। यदि ऐसा न होता तो केंद्र सरकार उच्च शिक्षा से लगातार अपना हाथ पीछे नहीं खींचती जाती, जैसा कि पिछले दशक में बेहिचक किया गया है। कपिल सिब्बल बार-बार दोहराते हैं कि उच्च शिक्षा में उपयुक्त आयु वर्ग की वर्तमान में 10-11 प्रतिशत की भागीदारी को 2020 तक दो गुने से ज्यादा करना है। इसका खोखलापन पूरी तरह उजागर होता है जब उच्च शिक्षा का आवंटन जो पिछले वर्ष 13,103 करोड़ था, केवल 15,458 करोड़ तक ले जाया जाता है। इससे क्या सुधार होंगे, क्या गुणवत्ता बढ़ेगी और क्या उच्च शिक्षा में युवाओं की भागीदारी दो गुनी से अधिक बढ़ाने की त्वरित आवश्यकता की आंशिक पूर्ति की तरफ कदम बढ़ सकेंगे? आश्चर्य और भी है। राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा मिशन के लिए 3124 करोड़ के आवंटन से शिक्षा की गुणवत्ता कैसे सुधर पाएगी या लगातार बढ़ रहे प्रवेशार्थियों को कैसे समाहित कर सकेगा। माध्यमिक शिक्षा वह स्तर है जहां कौशलों को लाना आवश्यक है-वे जीवन कौशल जो जीवन को सार्थकता, सृजनात्मकता तथा सहजता से जीने के लिए नई पीढ़ी को तैयार करते हैं। सरकार इसे केवल जीविकोपार्जन की तैयारी मानती है और उसमें भी कोताही करने में हिचकती नहीं है। वह केवल एक हजार करोड़ का आवंटन राष्ट्रीय कौशल विकास कोष के नाम पर करती है और यह अपेक्षा करती है कि इससे शिक्षा तथा कार्य जगत में प्रवेश के बीच की खाई पट जाएगी। जैसे-जैसे शिक्षा अधिक लोगों तक पहुंची है, लोगों में शैक्षिक भेदभाव को विश्लेषणात्मक ढंग से देखने की क्षमता बढ़ी है। लोग अब कठिन प्रश्न पूछने लगे हैं। जब नवोदय विद्यालय लगभग हर जिले में हैं या केंद्रीय विद्यालय हैं तो अब 6000 मॉडल स्कूल ब्लाक स्तर पर बनाने का औचित्य समझ पाना आसान नहीं है। सरकार जिस बिंदु पर चुप्पी साधे है वह यह है शिक्षा के लिए 6 प्रतिशत जीडीपी का आवंटन। कोठारी कमीशन के वाद 1968 में बनी शिक्षा नीति के बाद से लगातार हर सरकार यह आश्वासन देती रही है कि शिक्षा के आवंटन को इस प्रतिशत पर लाया जाएगा। केवल 2001 में यह चार प्रतिशत से कुछ ऊपर गया था अन्यथा सदा ही चार प्रतिशत से नीचे ही रहा है। इस समय सरकार की नीतिगत तथा कार्यगत शिथिलता निम्नतम स्तर पर है और ऐसे में भविष्यदृष्टी समझ की अपेक्षा तो उससे की ही नहीं जा सकती थी। फिर यह बजट शिक्षा में किसी भी प्रगति का कोई संकेत तक नहीं देता है। जब शिक्षा में एक और वर्ष की शिथिलता जारी रहने दी जाती है तो उसका नकारात्मक प्रभाव पीढि़यों तक दिखाई देता है।
(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

नए भंवर में भाजपा

अंशुमान मिश्रा मामले से भाजपा के सामने साख और नैतिकता का संकट उभरता देख रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता
पिछले सप्ताह भाजपा संसदीय दल की बैठक में यशवंत सिन्हा के भड़कने पर भाजपा को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए। अगर सिन्हा का गुस्सा नहीं फूटता तो इसकी पूरी संभावना थी कि एनआरआइ व्यवसायी अंशुमान मिश्रा और पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व के एक तबके के घालमेल से झारखंड पर एक बार फिर अवसरवाद का दाग लग जाता। इस बार दोषी भाजपा होती। पिछले कुछ दिनों से, खासतौर पर जब से भाजपा को पिछले दरवाजे से अंशुमान मिश्रा को राज्यसभा में भेजने से पीछे हटने को मजबूर होना पड़ा है, बौखलाए हुए अंशुमान मिश्रा अनेक समाचार चैनलों के स्टूडियो में अपनी भड़ास निकाल रहे हैं। उनकी बयानबाजी बेहद चौंकाने वाली है और केंद्रीय भाजपा नेतृत्व के संबंध में होने वाली अफवाहों की पुष्टि कर रही है। सर्वप्रथम, अंशुमान मिश्रा की निर्दलीय उम्मीदवारी को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और कुछ अन्य नेताओं का सक्रिय समर्थन हासिल था। मिश्रा के निर्वाचन पत्रों पर भाजपा विधायकों के हस्ताक्षर के अलावा, झारखंड और उड़ीसा के पूर्णकालिक संगठन मंत्री पर्चा भरवाने उनके साथ गए थे। पार्टी के आलाकमान से संकेत मिले बिना ये दोनों काम संभव ही नहीं थे। दूसरे, अंशुमान मिश्रा की उम्मीदवारी का भाजपा संसदीय बोर्ड ने अनुमोदन नहीं किया था। यह सब निजी व्यवस्था के तहत हो रहा था। इससे सवाल उठता है कि अंशुमान मिश्रा में ऐसी क्या खूबी थी कि उन्हें किसी भी तरह से राज्यसभा में भेजने का प्रयास किया जा रहा था, यहां तक कि चोरी-छिपे भी। तीसरे, अंशुमान मिश्रा के शुरुआती विचार के विपरीत कि वह भाजपा में युवा भावनाओं के संवाहक हैं, अब उन्होंने खुद ही स्वीकार कर लिया है कि वह राजनीतिक वरदहस्त के इच्छुक व्यापारियों और भाजपा नेतृत्व के बीच की कड़ी के रूप में सक्रिय थे। उनका यह दावा राजनीतिक तूफान खड़ा करने की सोची-समझी चाल है कि उन्हें टेलीकॉम कंपनियों और 2जी स्पेक्ट्रम मामले की जांच कर रही लोकलेखा समिति के अध्यक्ष के बीच बैठक आयोजित कराने के लिए कहा गया था। भाजपा के शीर्ष नेता को निशाना बनाने को मिले इस नायाब अवसर को कांग्रेस हाथ से नहीं निकलने देने वाली। अंशुमान मिश्रा का कहना है कि वह लंदन से टपके कोई अजनबी नहीं हैं, बल्कि सालों से पार्टी को पैसा देते आ रहे हैं। यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि यह धनराशि भाजपा को चंदे के रूप में दी गई या फिर कुछ नेताओं की जेब गरम करने को? यह एक महत्वपूर्ण अंतर है। इस राशि का श्चोत क्या था? अपनी विचारधारात्मक परिकल्पाओं की पूर्ति के लिए उनके पास कोई भारी-भरकम उद्योग नहीं है, जहां से उनके पास मोटा पैसा आता हो। अंशुमान की खूबी व्यावसायियों को भाजपा के राजनेताओं के करीब लाना है। पश्चिम में इस प्रकार के बिचौलियों को लॉबिस्ट कहा जाता है। भारत में इस प्रकार के बिचौलियों को दलाल के नाम से संबोधित किया जाता है। इन सब सवालों के जवाब हमेशा अपुष्ट रहेंगे और अकसर काफी हद तक काल्पनिक भी। हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अगर अंशुमान मिश्रा जैसे व्यक्तियों को राज्यसभा में भेजने के लिए राष्ट्रीय राजनीतिक दल प्रयास करेंगे तो इससे भारतीय राजनीति की गुणवत्ता में सुधार नहीं होने वाला। अंशुमान को राज्यसभा में भेजने के प्रयास से भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के मूल्यों के बारे में पता चलता है। क्या उन्हें नहीं पता है कि चंदे के बदले राज्यसभा में भेजना उन लाखों लोगों के विश्वास को तोड़ना है, जो पार्टी से जुड़े हुए हैं। अंशुमान मिश्रा ने खुद को अनावृत कर दिया है। उनकी भावनाओं को ठेस लगी है कि जिस क्लब की सदस्यता के लिए वह पैसा दे चुके हैं उसकी सदस्यता से उन्हें वंचित कर दिया गया है, किंतु जिन्होंने राजनीतिक जगत में अंशुमान मिश्रा जैसे लोगों के प्रवेश की अनुमति दी है अब खुद को निर्दोष सिद्ध करने का कपटी प्रयास कर रहे हैं। वे अंशुमान मिश्रा को राज्यसभा में भेजने के प्रयास के आरोप से पल्ला झाड़ रहे हैं। अंशुमान मिश्रा जैसे जीवों के प्रायोजकों को इस कृपादृष्टि का जवाब देना होगा। स्मरण रहे कि कुछ साल पहले ही भाजपा ने चोरी-छिपे अपने एक नेता के उम्मीदवार को उत्तर प्रदेश से निर्दलीय के रूप में राज्यसभा में भेजने का प्रयास किया था। इस व्यक्ति ने विधायकों का समर्थन हासिल करने के लिए उन्हें प्रलोभन देने का प्रयास किया था। यह प्रयास तो विफल हो गया, किंतु वह महानुभाव भाजपा में बने रहे और चुनाव के दौरान महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संभालते रहे हैं। राजनीतिक पतन पर केवल भाजपा का ही एकाधिकार नहीं है। कांग्रेस इस दौड़ में काफी आगे है, किंतु यह तथ्य चौंकाने वाला है कि भाजपा भी अपनी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पार्टी की भाषा बोल रही है। कभी भाजपा साफ-सुथरी छवि की बातें करती थी, जो सार्वजनिक जीवन में मूल्यों की स्थापना के इच्छुक लोगों को काफी आकर्षित करती थी। जैसाकि लालकृष्ण आडवाणी कहा करते हैं, भाजपा राजनीति की एके हंगल है। खुद को कांग्रेस की बराबरी पर लाने के प्रयास में भाजपा अनैतिक लोकप्रियता की शिकार बन गई है। आज नेतृत्व के कुछ विशेषाधिकार हो गए हैं। अगर उन्होंने ईमानदारी की आमदनी के बल पर शानशौकत वाली जीवनशैली अपनाई हो तो किसी को कोई शिकायत नहीं होगी, किंतु वे इन सुविधाओं पर खुद का पैसा नहीं लगाते, बल्कि यह अपेक्षा रखते हैं कि कोई और आकर उनकी सेवा-सत्कार करेगा। ऐसे प्रायोजकों की कमी नहीं है। व्यवस्था में फिक्सरों की अहमियत तोहफों और मुफ्त की चार्टर्ड हवाई यात्राओं तक बढ़ गई है, किंतु चूंकि मुफ्त में कुछ नहीं मिलता इसलिए नेताओं को तब परेशान नहीं होना चाहिए जब राज्यसभा के चुनाव से पहले ही उनके समक्ष मांग रख दी जाती है। राजनीतिक सत्ता के विखंडन के दुष्परिणामों में एक यह है कि दलाल केवल सत्तारूढ़ दल तक ही सीमित नहीं रह गए हैं। विपक्षी दलों के पास भी अपनी उपस्थिति दर्शाने के लिए पर्याप्त ताकत है। इसीलिए एक चुनाव में हार से राजनेताओं की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे पता चलता है कि भाजपा में क्यों सत्ता की भूख मरती जा रही है? आखिर विपक्ष में रहकर भी तो लोगों पर कृपा की जा सकती है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

अधूरे आश्वासन

भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने वालों की सुरक्षा के लिए सक्षम कानून बनाने को लेकर अन्ना हजारे के एक दिनी अनशन पर दिल्ली और शेष देश की प्रतिक्रिया कुछ भी हो, इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि उन कानूनों के निर्माण में अनावश्यक विलंब हो रहा है जो भ्रष्ट तत्वों को हतोत्साहित करने में सहायक हो सकते हैं। अन्ना हजारे के इस एक दिनी अनशन पर कांग्रेस प्रवक्ता के इस कथन का कोई मतलब नहीं कि कानून बनाना संसद का काम है। क्या किसी ने यह कहा है कि संसद को कानून नहीं बनाना चाहिए? सच तो यह है कि हर कोई इससे परिचित है कि कानून बनाना विधायिका का काम है, लेकिन बेहतर हो कि जो लोग विधायिका का हिस्सा हैं उन्हें यह अहसास हो कि वे अपना काम सही तरह से नहीं कर पा रहे हैं और इसका सबसे बड़ा उदाहरण लोकपाल विधेयक का पारित न हो पाना है। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि संसद में इस विधेयक को पारित करने का देश को जो आश्वासन दिया गया था वह पूरा नहीं हो सका? निराशाजनक यह है कि संसद का एक और सत्र शुरू हो जाने के बावजूद यह कहना कठिन है कि आने वाले दिनों में देश का राजनीतिक नेतृत्व एक कारगर लोकपाल व्यवस्था का निर्माण करने में सक्षम हो सकेगा। व्हिसल ब्लोअर एक्ट के संदर्भ में इस तथ्य का उल्लेख करने मात्र से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं कि सरकार भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने वालों की हिफाजत के लिए एक प्रभावी तंत्र बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। देश जानना चाहेगा कि आखिर यह प्रतिबद्धता कब पूरी होगी? यह सवाल इसलिए, क्योंकि व्हिसल ब्लोअर एक्ट को पारित कराना उतना जटिल नहीं जितना लोकपाल विधेयक को पारित कराना हो गया है। यह समझना कठिन है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने में सबसे आगे रहने का दावा करने वाली कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता उन नियम-कानूनों के संदर्भ में इतनी सुस्त क्यों है जो घपले-घोटालों पर अंकुश लगाने के लिए आवश्यक माने जा रहे हैं? निश्चित रूप से प्रतिबद्धता निष्कि्रयता का पर्याय नहीं हो सकती, लेकिन केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता और निष्कि्रयता में फर्क करना मुश्किल होता जा रहा है। वह जो कुछ कहती है उसे अमल में नहीं ला पाती। दुर्भाग्य से यह स्थिति केवल भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के कानूनों के निर्माण के मामले में ही नहीं, बल्कि अन्य अनेक मामलों में भी नजर आ रही है। केंद्र सरकार की निष्कि्रयता के चलते देश-दुनिया को यही संदेश जा रहा है कि वह निर्णयहीनता से इतनी अधिक ग्रस्त हो चुकी है कि उसे कुछ सूझ ही नहीं रहा है। निश्चित रूप से मुद्दा यह नहीं है कि भ्रष्टाचार की रोकथाम के मामले में अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों के विचार क्या हैं? मुद्दा तो यह है कि उन सवालों को उठाने के लिए अन्ना हजारे, उनके साथियों और समर्थकों को बार-बार आगे क्यों आना पड़ रहा है जो कथित तौर पर केंद्रीय सत्ता की प्राथमिकता सूची में हैं? केंद्र सरकार को यह अधिकार है कि वह अन्ना हजारे, उनकी गतिविधियों और उनके बयानों की अनदेखी कर सकती है, लेकिन इसकी उपेक्षा नहीं कर सकती कि उसने देश को जो आश्वासन दिए थे वे पूरे नहीं हो पा रहे हैं।
साभार :- दैनिक जागरण

गंगा की मनोवैज्ञानिक शक्ति

मोक्षदायिनी गंगा नदी पर बनाए जा रहे सभी बांधों को रोकने की मांग को उचित ठहरा रहे हैं डॉ. भरत झुनझुनवाला
स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद जब गंगा पर बनाए जा रहे बांधों को रोकने की मांग को लेकर आमरण अनशन पर बैठे तो सरकार उनकी मांग को पूरा न सही आंशिक रूप से मानने पर सहमत हुई, जिस पर उन्होंने अपना अनशन समाप्त किया, लेकिन बाद में इस पर कोई अमल न होते देख वह पुन: अनशन के लिए विवश हुए। एक बार फिर सरकार ने देर से उनके अनशन की सुधि ली और उनकी मांगों पर विचार का आश्वासन दिया। इसके फलस्वरूप उन्होंने अपना अनशन वापस ले लिया है। ऐसे में कुछ मूल प्रश्नों पर विचार करना आवश्यक हो गया है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? सरकार के सामने जनता को बिजली उपलब्ध कराने की समस्या है। इस लिहाज से गंगा पर बनाए जा रहे बांधों के निर्माण को रोकना उचित नहीं प्रतीत होता। मैदानी क्षेत्र में कृषि उत्पादन बढ़ाने और जनता का पेट भरने के लिए गंगा के पानी को नहरों में डालना जरूरी है। गंगा के किनारे बसे तमाम शहरों के गंदे पानी का ट्रीटमेंट करने में हजारों करोड़ रुपये लगेंगे, जिसके लिए अतिरिक्त टैक्स लगाना होगा। दोनों ही पक्ष जनहित के नाम पर अपना-अपना तर्क दे रहे हैं इसलिए दोनों के जनहित के अंतर को समझना होगा। मनोविझान में मनुष्य की चेतना के दो प्रमुख स्तर हैं-चेतन व अचेतन। सामान्य भाषा में चेतन को बुद्धि तथा अचेतन को मन बताया जाता है। सुखी व्यक्ति की बुद्धि तथा मन में सामंजस्य होता है। सुख का सीधा फॉर्मूला है कि बुद्धि को मन के अनुरूप दिशा दी जाए, लेकिन मन को पहचानना काफी कठिन काम है। बुद्धि और मन का यह विभाजन ही तमाम रोगों और सांसारिक समस्याओं की जड़ भी है। जैसे युवा का मन टैक्सी ड्राइवर बनने का है, परंतु दोस्तों की बात मानकर वह दुकान में बैठ जाए तो वह व्यापार में घाटा खाता है। इसका कारण यही है कि दुकान में बैठा उसका मन वास्तव में वहां नहीं होता। उसकी कुल मानसिक शक्ति का आधा चेतन हिस्सा ही क्रियाशील रहता है, जिस कारण वह ग्राहक के मनोभाव को नहीं समझ पाता है। मन को जगाने का कठिन कार्य गंगाजी करती हैं, ऐसा माना जाता है। करोड़ों लोग अपने जीवन भर की कमाई को गंगा में एक डुबकी लगाने के लिए खर्च कर देते हैं। देव प्रयाग, ऋषिकेश और हरिद्वार में गंगा स्नान के लिए हर वर्ष आने वाले तीर्थयात्रियों के सर्वेक्षण में 77 प्रतिशत यात्रियों ने बताया या कि गंगा स्नान करने से उन्हें मानसिक शांति मिलती है। इसका कारण यही है कि स्नान से मन जागृत हो जाता है और बुद्धि मन के अनुसार दिशा पकड़ लेती है। इस बारे में पूछे जाने पर 26 प्रतिशत तीर्थयात्रियों ने बताया कि उन्हें केवल स्वास्थ्य लाभ हुआ। इसका भी कारण यही है कि मन की ऊर्जा जागृत होने से फेफड़े, हृदय आदि अंग सही-सही काम करने लगते, जिससे व्यक्ति का शरीर खुश होता है। 14 प्रतिशत ने बताया कि उन्हें व्यापार में और 12 प्रतिशत ने बताया कि उन्हें नौकरी में लाभ हुआ। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि मन की ऊर्जा जाग्रत होने पर इनके मन ने सही दिशा पकड़ी, जिससे अच्छे परिणाम मिले। गंगा की मन को जागृत करने की यह अदृश्य शक्ति बद्रीनाथ एवं केदारनाथ के पवित्र तीर्थ स्थलों से होकर बहने, पहाड़ी बहाव में गंगाजल में तांबा, क्रोमियम तथा थोरियम आदि के घुलने और कालीफाज नामक विशेष लाभकारी बैक्टीरिया के कारण आती है। जापान के वैज्ञानिक मसारू इमोटो ने अपने अध्ययन में पाया कि बहती नदी में पानी के अणु षट्कोणीय आकर्षक झुंड बना लेते हैं। संभवत: इन्हीं आणविक झुंडों के कारण गंगा के जल में मन को प्रभावित करने की शक्ति आती है। इमोटो ने पाया कि बहते पानी को बांध में रोक देने से इन झुंडों का सौंदर्य नष्ट हो जाता है। जलविद्युत टर्बाइन के पंखों से टकराने के बाद जल के षट्कोणीय झुंड बिखर जाएंगे और इससे वह लाभ नहीं मिलेगा जो गंगा के अबाध बहाव से मिलता है। उत्तरकाशी स्थित संस्था द्वारा टिहरी बांध के ऊपर एवं नीचे के पानी के नमूनों का स्विट्जरलैंड स्थित संस्था में परीक्षण कराया गया, जिसमें पाया गया कि टिहरी के ऊपर षट्कोणीय झुंडों में ऊर्जा के केंद्र दिखते हैं, जो बांध के नीचे बहाव वाले पानी में लुप्त हो जाते हैं। गंगा के बहाव को सुरंग तथा झील में बहाने से पत्थरों का घर्षण समाप्त हो जाएगा और तांबा आदि जल में नहीं घुलेंगे। पानी को टर्बाइन में डालने के पहले सभी वनस्पतियां निकाल दी जाती हैं। इससे लाभकारी बैक्टीरिया को भोजन नहीं मिल पाता और वे कालकवलित हो जाते हैं। मूल प्रश्न है कि गंगा की मनोवैज्ञानिक शक्तियों से अधिक जनहित हासिल होगा या बिजली से? बिजली के अन्य विकल्प भी हैं, जैसे कोयला एवं सौर ऊर्जा। सिंचाई के भी अन्य विकल्प हैं, जैसे गेहूं के स्थान पर जौ और चने की खेती करना, परंतु गंगा का दूसरा कोई विकल्प नहीं है। इसलिए ज्ञान स्वरूप सानंद की मांग जायज है और गंगा पर बन रहे सभी बांधों को रोकने के साथ-साथ पूर्व में बने टिहरी बांध को भी हटाने की पहल होनी चाहिए। इन बातों को न समझने के कारण ही भारत की जनता बांधों का समर्थन कर रही है। सरकार और जल विद्युत कंपनियां अपने लाभों के लिए गंगा को नष्ट करने पर आमादा हैं। कहा जा रहा है कि आमरण अनशन लोकतांत्रिक राजनीति के विपरीत है, लेकिन जब सरकार पर जलविद्युत कंपनियों का वर्चस्व हो तो गंाधीजी के इस अस्त्र का उपयोग करना सही प्रतीत होता है। यह सही है कि अनशन से बुद्धि को कुछ समझ नहीं आता है, परंतु अनशन से जनता केमन का भाव बदलता है, जो कि संवाद का एक तरीका है। यहां यह कहना सही नहीं होगा कि ज्ञानस्वरूप सानंद किसी तरह की राजनीति कर रहे हैं। श्री अरविंद तथा विवेकानंद जैसे मनीषियों की मानें तो विश्व में भारत की भूमिका आध्यात्मिक है और इस भूमिका का निर्वाह हम गंगा की मानसिक शक्ति का Oास करके नहीं कर सकेंगे।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

गरीबों के साथ धोखाधड़ी

निर्धन आबादी के संदर्भ में योजना आयोग के ताजा आंकड़ों का खोखलापन उजागर कर रहे हैं डॉ. विशेष गुप्ता
गरीबी निर्धारण के तौर-तरीकों पर नए सिरे से फजीहत का सामना करने के बाद केंद्र सरकार विशेषज्ञों का एक समूह गठित करने जा रही है, जो गरीबी रेखा के मानक निर्धारित करने के मौजूदा मानदंडों की समीक्षा करेगा। दरअसल योजना आयोग ने गरीबों की घटती तादाद को लेकर जो ताजा आंकड़े प्रस्तुत किए हैं उससे एक बार फिर देश में कोहराम मच गया है। इन आंकड़ों से ऐसा जाहिर होता है जैसे योजना आयोग गरीबी की वास्तविकता से मुंह मोड़ रहा है। योजना आयोग के द्वारा गरीबी से जुड़े जो आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं उसमें कहा गया है कि देश में गरीबों की तादाद घट रही है। इस संबंध में योजना आयोग के आंकड़े बताते हैं कि 2004-2005 में भारत में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली आबादी जो 37.2 फीसदी थी वह 2009-2010 में घट कर 29.8 रह गई है। साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी का अनुपात 8 फीसदी घटकर 41.8 फीसदी की जगह 33.8 फीसदी पर तथा शहरी इलाकों में 5 साल पहले जो गरीबी 25.7 फीसदी थी वह अब 4.8 फीसदी घटकर 20.9 फीसदी पर आ गयी है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि सरकारी आंकड़ों के आधार पर अब देश के गांव में हर तीन में से एक व्यक्ति गरीब है, जबकि नगरों में थोड़ी बेहतरी के साथ वहां हर 5 में से एक व्यक्ति गरीबी की श्रेणी में आता है। योजना आयोग ने गरीबी से जुड़े आंकड़ों से भी एक कदम आगे बढ़कर लोगों की आमदनी के आधार पर गरीबी का जो पैमाना विकसित किया है वह निश्चित ही जमीनी हकीकत से कोसों दूर है। उसमें स्पष्ट कहा गया है कि शहर में प्रतिदिन 28.65 रुपये और गांव में 22.42 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। योजना आयोग ने इसी पैमाने के आधार पर माना है कि देश में गरीबी घट गई है। जरा स्मरण करें इसी संप्रग सरकार ने सितंबर 2011 में सुप्रीम कोर्ट में जो हलफनामा प्रस्तुत किया था उसमें स्पष्ट कहा गया था कि शहरों में प्रतिदिन 32 रुपये और गांव में 26 रुपये खर्च करने वाले को गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को मिलने वाली सुविधाएं लेने का अधिकार नहीं है। उस समय भी गरीबी मापने के इस पैमाने को अव्यावहारिक बताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी योजना आयोग को लताड़ लगाई थी। सरकार को इस विषय में कई सफाई देनी पड़ी थीं। इसके बावजूद भी योजना आयोग ने गरीबी मापने का जो पैमाना प्रस्तुत किया है वह पहले से अधिक अतार्किक और हास्यास्पद जान पड़ता है। आज योजना आयोग द्वारा प्रस्तुत गरीबी से जुड़े आंकड़ों के साथ-साथ गरीबी रेखा निर्धारण की भी बहुत आलोचना हो रही है। उसका कारण भी साफ है कि देश के कई जाने-माने अर्थशास्त्री यह मानते हैं कि 70 के दशक में गरीबी रेखा का पहली बार निर्धारण करते समय एक सामान्य भारतीय के लिए जितनी कैलोरी का भोजन जरूरी माना गया था अब गरीबी रेखा के स्तर पर रहते हुए उससे भी काफी कम कैलोरी मिल रही है। ग्रामीण इलाकों में कैलोरी की यह गिरावट आठ फीसदी तथा शहरी क्षेत्रों में यह तीन फीसदी रही है। इसलिए यहां इस कड़वे सच को कहने में कोई हिचक नहीं कि भारत में गरीबी रेखा अब धीरे-धीरे भुखमरी की रेखा बनकर उभर रही है। अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारे आज के योजनाकार आखिर किस विरोधाभासी युग में जी रहे हैं और आखिर कौन सी उनको यह मजबूरी है? गरीबी के इन आंकड़ों में क्षेत्रीय असमानताएं भी बहुत अधिक उजागर हुई हैं। गरीबी के मामले में कुछ राज्यों में हालात सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं। प्रदेशों के स्तर पर गरीबी से जुड़ी क्षेत्रीय असमानताओं से साफ संकेत मिलते हैं कि उत्तर प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में गरीबी नहीं घटी है। इन आंकड़ों में पूर्वोत्तर भारत की दशा तो और भी बदतर रही है। इससे भी अधिक चिंताजनक मामला दिहाड़ी के मजदूरों से जुड़ा है। आज यह गंभीर चिंतन का विषय है कि गांव व शहर के गरीबों के लिए अनेक योजनाओं के संचालन के बावजूद भी देश की आजादी के बाद गरीबों के आंकड़ों में कोई बहुत भारी कमी नहीं आई है। ऐसा लगता है कि देश के योजनाकारों ने गरीबी मापन का जो स्केल तैयार किया है उसमें गरीबी को मापने की जगह गरीबी को छिपाने का प्रपंच अधिक है। 2004-2005 में योजना आयोग ने कहा था कि देश में केवल 27 फीसदी लोग गरीब हैं। 2009 में सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली समिति ने कहा कि 37 फीसदी गरीब हैं। इसी बीच अर्जुन सेनगुप्ता की एक अन्य समिति ने अपनी रिपोर्ट में कुल आबादी के 78 फीसदी हिस्से के गरीब होने का अनुमान प्रस्तुत किया था। इसके बाद एनसी सक्सेना की अध्यक्षता वाली समिति ने 56 फीसदी आबादी को गरीबी की श्रेणी में रखा था। अब योजना आयोग ने 2009-2010 के अंाकड़ों के आधार पर गरीबी का अनुपात घटाकर 29.8 फीसदी रहने का अनुमान जारी किया है। यह 21वीं सदी की चमचमाती दुनिया का विद्रूप चेहरा ही कहा जाएगा कि जहां एक ओर आक्रामक उपभोग का विस्फोट है तो दूसरी ओर अभावग्रस्त जीवन फटेहाल जिंदगी जीने को मजबूर है। आज अधिकतर लोग गरीबी की श्रेणी में इसलिए हैं, क्योंकि उनका वास्तविक हक उन्हें नहीं मिल पा रहा है। भारत की गरीबी की समस्या का हल केवल गरीबी से जुड़े आंकड़ों पर ध्यान केंद्रित करने से नहीं हो सकता। यहां मुख्य प्रश्न गरीब और अमीर के बीच संसाधनों में गैर-बराबरी और असमान वितरण से जुड़ा है। इसलिए हमें देश में लगातार बढ़ रही अमीरी पर भी सवाल उठाने होंगे। तभी हम गरीबी दूर करने की अपनी प्राथमिकता पूरी कर सकते हैं।
(लेखक समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

संघवाद पर सही दृष्टिकोण

प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन के सुझाव की वकालत कर रहे हैं एस. शंकर
झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने अखिलेश यादव के शपथ ग्रहण के अवसर पर एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव दिया। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री का जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन होना चाहिए। यह नि:संदेह एक रचनात्मक प्रस्ताव है, जिस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। यह देश में सच्चे संघवाद और अधिक उत्तरदायी शासन की भावना से जुड़ा है। इसके लिए समय भी उपयुक्त है, क्योंकि लगातार ऐसी अनेक घटनाएं घट रही हैं, जो संघीय शासन प्रणाली की आत्मा को कचोट रही हैं। उत्तराखंड में जिस तरह मुख्यमंत्री का चयन हुआ उससे मुख्यमंत्री पद की फजीहत हो रही है। यह दिखाता है कि स्थानीय जनता और प्रतिनिधियों को दिल्ली स्थित कांग्रेस आलाकमान कुछ नहीं समझता। दिल्ली भरोसे खड़ा मुख्यमंत्री प्रदेश में कितना स्वतंत्र निर्णय ले सकेगा, यह सोचने वाली बात है। हैरत है कि पिछले दो दशकों के अनुभव से कांग्रेस आकाओं ने कुछ नहीं सीखा। इंदिरा गांधी के समय में जिस तरह विभिन्न राज्यों में कांग्रेस मुख्यमंत्रियों को पौधों की तरह उखाड़ा-लगाया जाता था, वह बड़ा कारण था कि आंध्र, बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक आदि प्रदेशों में कांग्रेस उजड़ गई। उन प्रदेशों की जनता तथा स्थानीय कांग्रेसियों को भी आलाकमान की उस प्रवृत्ति से हताशा होती थी। देवराज अर्स, गुंडु राव, भागवत झा आजाद जैसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री भी अकारण रातोरात हटा दिए जाते थे। इससे प्रशासन और नीति-निर्माण बुरी तरह प्रभावित होता था। अच्छे नेताओं, अधिकारियों का मनोबल गिरता था। यह सब प्रदेशों का शासन रिमोट कंट्रोल से दिल्ली से मनमाने-चलाने की जिद के कारण होता था। वस्तुत: उन सभी प्रांतों में क्षेत्रीय दलों का उदय और वर्चस्व स्थानीय स्वाभिमान की भावना का भी प्रतिफल था। दिल्ली के तुगलकी फरमानों से लोग खीझ चुके थे। उत्तर प्रदेश के चुनावी भाषणों में केंद्रीय कांग्रेसियों ने पुन: दोहराया कि यदि कांग्रेस जीती तो राहुल गांधी रिमोट से शासन चलाएंगे! यह अपने ही पैर कुल्हाड़ी मारने वाला बयान था। परिवार-केंद्रित कांग्रेस आलाकमान अभी भी उसी लालसा में है। उत्तराखंड में दिल्ली से भेजे जनाधार विहीन व्यक्ति को सत्ता सौंपना वही बात है। कांग्रेसी आलाकमान समझने को तैयार नहीं कि जो मुख्यमंत्री 10 जनपथ का खिलौना होगा वह प्रदेश को कैसे उत्साहित करेगा! इस तरह दिल्ली स्थित कांग्रेस आलाकमान उत्तराखंड की जनता, वहां अपनी पार्टी और मुख्यमंत्री पद की भी फजीहत कर रहा है। यह लोकतंत्र और संघवाद का खुला हनन है। कांग्रेस की विकृत केंद्रीयता से केवल केंद्र-राज्य संबंधों की संरचना ही नहीं बिगड़ी, बल्कि कई संवैधानिक संस्थाओं का भी भितरघात होता रहा है। पूरी सत्ता पर स्थायी कब्जा बनाए रखने की चाह में कांग्रेस आकाओं ने राज्यपाल, सीबीआइ, चुनाव आयोग, सीएजी, केंद्रीय आयोगों और उच्चतर न्यायपालिका समेत अनेकानेक संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा भी गिराई। सब जगह अपने आदमी रखने से शासन उत्तरोत्तर भ्रष्ट हुआ। उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान जिस तरह कई केंद्रीय कांग्रेसी नेताओं ने मंत्रिपद से चुनाव आयोग का मजाक बनाया वह भी संवैधानिक संस्थाओं को जानबूझकर चोट पहुंचाने का ही उदाहरण है। उसी तरह कई क्षेत्रीय दलीय नेताओं पर सीबीआइ की कार्रवाई केंद्र में कांग्रेसी सत्ताधारियों से दूरी या नजदीकी के अनुरूप बढ़ती-घटती है। संघवाद की उपेक्षा की बीमारी कांग्रेस से भाजपा आलाकमान को भी लगी है। उत्तराखंड में खंडूड़ी को बीच-रास्ते अकारण हटाने, फिर कुछ समय बाद वापस लाने में उसी अहमन्यतावादी प्रवृत्ति का दोहराव था, जो पहले झारखंड में भी देखा गया था। यही उत्तर प्रदेश, दिल्ली, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में भाजपा सरकारों के दौरान भी होता रहा है। स्थानीय पार्टी या जनता की पसंद की उपेक्षा करते हुए मुख्यमंत्री को कुछ केंद्रीय नेताओं की मर्जी या गुटबाजी की दया पर छोड़ना घातक है। संयोग है कि नरेंद्र मोदी बच गए, नहीं तो दस वर्ष पहले भाजपा के एक-दो केंद्रीय नेताओं की इच्छा से उनका भी हटना तय था। इस परिस्थिति में मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री का जनता द्वारा सीधे निर्वाचन एक दूरदर्शी उपाय होगा। इस एक कदम से शासन अधिक उत्तरदायी और स्थिर बनेगा, केंद्र-राज्य संबंध स्वस्थ होगा, जोड़-तोड़ की क्षुद्र राजनीति करने वाले स्वार्थी तत्वों का प्रभाव घटेगा, संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग कम होगा तथा शासन के हर स्तर पर योग्य लोगों को प्रोत्साहन मिलेगा। इससे वस्तुत: किसी दल को हानि नहीं होगी, बल्कि सबके बीच स्वस्थ प्रतियोगिता विकसित होगी। सभी अच्छे से अच्छे चेहरों को अपनी पार्टी में बढ़ावा देंगे। प्रधानमंत्री और मुख्य मंत्रियों का प्रत्यक्ष निर्वाचन जनभावना के भी अनुरूप है, क्योंकि लोग संभावित मुख्य प्रशासक का चेहरा और चरित्र देख कर निर्णय करना चाहते हैं। यदि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री सीधे निर्वाचित हों तो वे अपने सहकर्मी चुनने के लिए भी अधिक स्वतंत्र होंगे। जरूरत होने पर वे दूसरे दल तथा निर्दलीय योग्य व्यक्तियों को भी मंत्री आदि बना सकेंगे। यह सहमतिपूर्ण, स्थिर और कुशल शासन के लिए भी लाभकारी होगा। दो कार्यकाल की सीमा प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को अधिक जिम्मेदार बनाएगी। साथ ही वह दलीय, विखंडनकारी, स्वार्थी नेताओं के दबाव से भी मुक्त रहेगा। इन सब कारणों से संवैधानिक संस्थाओं में छेड़छाड़ और गलत नियुक्तियों पर भी लगाम लगेगी। इसलिए, देश में सच्चे संघवाद और लोक-भावना के अनुरूप राजनीतिक सुधार की दिशा में पहल जरूरी है। सभी राजनीतिक दलों को कम से एक बार केवल देशहित में विचार कर सहमत होना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

कमजोर-लाचार नेतृत्व

सत्ता के प्रमुख के रूप में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कामकाज पर निगाह डाल रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित
कमजोर और मजबूर हाथों से सत्ता नहीं चलती। भारत ने बहुत सोच-समझकर इतिहास के प्रमुख शासक अशोक के स्तंभ से अपना राजचिह्न अशोक चक्र अपनाया। अशोक की तुलना मारकस आरेलियस, कोस्टेटाइन, सोलोमन और खलीफा उमर जैसे विश्व नायकों से होती है। इतिहासकार एचसी राय चौधरी ने लिखा है, उनमें चंद्रगुप्त की ऊर्जा थी, समुद्रगुप्त का तेज था, लेकिन कमजोर हाथों वाले उत्तराधिकारी प्राचीन मौर्य साम्राज्य को संगठित बनाए रखने में अक्षम रहे। राष्ट्र-राज्य कमजोर हाथों से मजबूत नहीं होते। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कमजोर हैं। कमजोरी की ही परिणति है मजबूरी। प्रधानमंत्री ने लोकसभा में कहा, गठबंधन की मजबूरियों के चलते मुश्किल फैसले और मुश्किल हो जाते हैं। गठबंधन सरकारों में घटक दलों से समन्वय बनाना बेशक प्रधानमंत्री की व्यावहारिक मजबूरी होती है, लेकिन असल बात है उनकी व्यावहारिक कमजोरी। वह कांग्रेस संसदीय दल के स्वाभाविक निर्वाचित नेता नहीं हैं। उन्हें प्रधानमंत्री बनाया है सोनिया गांधी ने। संविधान के अनुसार वह संसद के प्रति जवाबदेह हैं, लेकिन असलियत में वह सोनिया गांधी की कृपा से ही प्रधानमंत्री हैं। ममता बनर्जी ने रेलमंत्री हटवाने के सवाल पर कड़वा सच ही कहा है, सोनिया प्रधानमंत्री चुन सकती हैं तो अपनी पार्टी की नेता होने के कारण रेलमंत्री मैं ही चुनूंगी। रेल ममता की है, प्रमुख सत्ता सोनिया की। भारत के लोगों का यहां क्या है? न प्रधानमंत्री और न अन्य मंत्री। प्रधानमंत्री कमजोर और मजबूर हैं। संविधान में मंत्रिमंडल के सामूहिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत है। डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में सामूहिक उत्तरदायित्व की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री पर ही डाली थी। उन्होंने कहा था कि सामूहिक उत्तरदायित्व प्रधानमंत्री के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल रूपी मेहराब के बीच का मुख्य पत्थर है। यहां मुख्य पत्थर ही कमजोर है तो सामूहिक उत्तरदायित्व कैसा? प्रधानमंत्री की मजबूरी से भारत का संसदीय ढांचा ध्वस्त हो गया है। दिनेश त्रिवेदी प्रधानमंत्री की संस्तुति पर रेलमंत्री बने। उन्होंने लोकसभा में रेल बजट रखा। रेल बजट की प्रशंसा प्रधानमंत्री ने भी की थी। फिर ममता का दबाव आया। कमजोर हाथ जुड़ गए। प्रधानमंत्री ने सिर झुकाया और अपने रेलमंत्री का सिर ममता को सौंपा। ममता ने मुकुल राय को रेलमंत्री बनाने का निर्देश दिया। रेल राज्यमंत्री रह चुके इन्हीं मुकुल राय ने असम रेल दुर्घटना के समय इन्हीं प्रधानमंत्री का निर्देश नहीं माना था। मंत्री को प्रधानमंत्री का विश्वासपात्र होना चाहिए, लेकिन विश्वासपात्र दिनेश त्रिवेदी को हटाने और स्वयं प्रधानमंत्री का भी निर्देश न मानने वाले मुकुल राय को रेलमंत्री बनाने की सिफारिश प्रधानमंत्री ने ही की है। सामूहिक उत्तरदायित्व का संवैधानिक सिद्धांत अपनी मौत मर गया। दिनेश त्रिवेदी गलत थे तो प्रधानमंत्री सहित पूरी मंत्रिपरिषद की जिम्मेदारी है। नेतृत्व प्रधानमंत्री ही करता है, वह त्यागपत्र देता है तो सबका त्यागपत्र अपने आप हो जाता है। वह हटता है तो सब हटते हैं। प्रधानमंत्री सत्ता का प्रमुख है। वह देश की अर्थनीति, समाजनीति, संस्कृति और राजव्यवस्था का सर्वोच्च प्रतिनिधि है। वही प्रमुख शासनकर्ता है। मनमोहन सिंह विश्व इतिहास के प्रथम प्रधानमंत्री हैं जो दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र में राज करते हैं, लेकिन शासन नहीं करते। उन्होंने ममता के सामने सिर झुकाया। उन्होंने द्रमुक की इच्छानुसार संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का समर्थन किया। वह शासन नहीं करते। विशेषाधिकार की कौन कहे, वह प्रधानमंत्री के संवैधानिक प्राधिकार की भी रक्षा नहीं करते। मजबूरी का नाम प्रधानमंत्री-मनमोहन सिंह ने यही सिद्ध किया है। वह दूसरी दफा प्रधानमंत्री हैं। प्रधानमंत्री के रूप में उनका कोई निर्णय यादगार नहीं बनता। मनमोहन सिंह के समय चीन ने अरुणाचल को लेकर गलतबयानी की। पाकिस्तान ने कई दफा अपमानजनक टिप्पणियां कीं। वह प्रतिकार नहीं कर सके। संप्रग घटक दलों के नेता भी प्रधानमंत्री से सीधी बात नहीं करते। मनमोहन सिंह का अब तक का पूरा कार्यकाल दयनीय है। देश के भविष्य को लेकर उनका स्वप्न क्या है? वह क्या करना चाहते थे? पता नहीं चला, वह जो नहीं करना चाहते थे, वही करते दिखाई पड़े। उनके सहयोगी मंत्री घोटालों में फंसे, घोटाले दर घोटाले हुए। उन्हें पता नहीं चला। केंद्रीय सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति को लेकर भी वह वीतराग रहे। वह हमेशा आत्मसमर्पण की मुद्रा में रहे। बहुत मजबूर हैं मनमोहन सिंह। मनमोहन सिंह का आत्मसमर्पण भारत की मुख्य चिंता नहीं है। मुख्य चिंता है देश की सर्वोच्च शासन संस्था की साख और गरिमा। प्रधानमंत्री देश का राजमुकुट और संप्रभुता का प्रतिमान हैं। वही परतंत्र, मजबूर और लाचार हैं तो देश का क्या होगा? संविधान के अनुसार मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं, सर्वोच्च शासक हैं, उन्हें अपने मंत्री चुनने का अधिकार है लेकिन वस्तुत: उनका अपना अस्तित्व भी सोनिया गांधी के पास है और उनके मंत्रियों के प्राण भी दलीय नेताओं के पास। प्रधानमंत्री ही सरकार का मुखिया नहीं रहा। मंत्री के नाम दूसरे बताते हैं, प्रधानमंत्री हां करते हैं। मंत्री हटाने के निर्देश भी दूसरे देते हैं, प्रधानमंत्री उनके निर्देश मानने को मजबूर हैं। प्रधानमंत्री ने गठबंधन की मजबूरी की चादर में सारा सच ढक दिया है। क्या 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला गठबंधन की मजबूरी था? सीएजी की रिपोर्ट में 2-जी से कई गुने बड़े कोयला घोटाले की चर्चा है। घोटाले के समय कोयला विभाग प्रधानमंत्री के पास ही था। ढेर सारे घोटाले गठबंधन की ही मजबूरी नहीं हो सकते। असली सच है-हर हाल में सत्ता में बने रहने की कांग्रेसी पिपासा। कांग्रेस संवैधानिक संस्थाओं को बेइज्जत करते हुए ही सत्ता में है। ठीक है कि तृणमूल कांग्रेस संप्रग का एक घटक है, लेकिन कांग्रेस उससे बड़ा घटक है। कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस के साथ संवैधानिक मर्यादाओं के पालन की भी साझेदारी क्यों नहीं की? संप्रग के घटक कांग्रेस की सत्ता-कमजोरी का ही लाभ उठाते हैं। वे आंख दिखाते हैं, कांग्रेस झुक जाती है। वे धौंस देते हैं, कांग्रेस डर जाती है। वे डांट देते है, कांग्रेस आत्मसमर्पण कर देती है। मनमोहन सिंह यही सब करने-कराने के लिए प्रधानमंत्री हैं। उनके आचरण से विश्व में भारतीय प्रधानमंत्री की साख को बट्टा लगा है। वास्तविक प्राधिकार से विहीन प्रधानमंत्री के राज में भारत का भविष्य और राष्ट्र का स्वाभिमान दांव पर है। प्रधानमंत्री की मजबूरी समझी जा सकती है, लेकिन प्राधिकारविहीन प्रधानमंत्री बने रहने की उनकी मजबूरी आखिरकार क्या है?
(लेखक उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

गरीबों के साथ फिर गड़बड़ी

योजना आयोग ने जिस तरह गरीबी निर्धारण के मानदंड तय करने के लिए विशेषज्ञों के एक समूह के गठन का फैसला लिया उससे एक बार फिर केंद्र सरकार की फजीहत ही हुई है। इस फजीहत के लिए वही जिम्मेदार है। केंद्र सरकार इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकती कि कुछ समय पहले जब योजना आयोग के आकलन के आधार पर उसने शपथपत्र देकर यह कहा था कि गांवों में 26 और शहरों में 32 रुपये प्रतिदिन व्यय करने वाले लोग निर्धन नहीं माने जा सकते तो उसका हर स्तर पर विरोध हुआ था। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस विरोध के बावजूद केंद्र सरकार ने योजना आयोग की उस रपट को स्वीकार कर लिया जिसमें यह माना गया है कि गांवों में 22 और शहरों में 28 रुपये प्रतिदिन खर्च कर सकने वाले लोग गरीब नहीं माने जाने चाहिए। देश के लिए यह समझना कठिन है कि आखिर चंद महीनों में गरीबी रेखा तय करने के मानदंड बदल कैसे सकते हैं? इससे भी अधिक आश्चर्यजनक यह है कि आय संबंधी गरीबी का पैमाना घटाया कैसे जा सकता है? इससे तो यह लगता है कि न तो योजना आयोग ने अपना काम सही ढंग से किया और न ही केंद्र सरकार ने। गरीबी निर्धारण में जिस तरह एक बार फिर गड़बड़ी हुई उससे नए सिरे से इसकी पुष्टि होती है कि केंद्र सरकार और उसके नीति-नियंता जमीनी यथार्थ से पूरी तरह कट गए हैं। केंद्र सरकार की ओर से किसी को यह बताना चाहिए कि किन कारणों से योजना आयोग के इस आकलन को स्वीकार कर लिया गया कि गांवों में 22 और शहरों में 28 रुपये प्रतिदिन से अधिक आय वाले लोग गरीब नहीं कहे जाएंगे? क्या केंद्र सरकार को इसका अहसास नहीं था कि उसके लिए इन मानदंडों को उपयुक्त ठहराना टेढ़ी खीर साबित होगा? इस पर आश्चर्य नहीं कि विपक्ष तो योजना आयोग पर हमलावर है ही, खुद सत्तापक्ष के प्रतिनिधि भी उसका बचाव नहीं कर सके। यदि विपक्षी दल योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया के साथ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं तो इसके लिए किसी अन्य को दोष नहीं दिया जा सकता। फिलहाल यह कहना कठिन है कि गरीबी निर्धारण के तौर-तरीके तय करने के लिए योजना आयोग के तहत जो विशेषज्ञ समूह गठित किया जाना है वह किस नतीजे पर पहुंचेगा, लेकिन आम जनता यह महसूस करने के लिए विवश है कि केंद्र सरकार जानबूझकर गरीबी निर्धारण के ऐसे तौर-तरीकों को मान्यता प्रदान करना चाहती है जिससे यह साबित किया जा सके कि निर्धन परिवार कम आय में भी गुजर-बसर करने में समर्थ हैं। केंद्र सरकार इस यथार्थ की अनदेखी नहीं कर सकती कि भारत में एक बड़ी आबादी निर्धनता के दलदल में फंसी हुई है। केंद्र सरकार गरीबों की संख्या के बारे में चाहे जैसे दावे क्यों न करे, एक नहीं अनेक स्तरों पर यह सामने आ चुका है कि भारत मानव विकास सूचकांक के लिहाज से दयनीय स्थिति में है। केंद्र सरकार को यह समझना ही होगा कि सच्चाई की अनदेखी करने से उसका काम आसान होने वाला नहीं है। यदि एक बड़ा तबका निर्धनता में गुजर-बसर करता रहता है तो देश का समग्र विकास नहीं होने वाला। आवश्यक केवल यह नहीं है कि केंद्र सरकार गरीबी निर्धारण के तौर-तरीकों के मामले में ईमानदारी का परिचय दे, बल्कि यह भी है कि उसे उन उपायों पर भी ध्यान देना चाहिए जिससे एक सामान्य परिवार अपना जीवन यापन सही तरह से कर सके।
साभार :- दैनिक जागरण

घटक दलों का रवैया

गठबंधन के कारण कड़े फैसले लेने में मुश्किल पेश आने संबंधी प्रधानमंत्री के बयान पर केंद्रीय कृषि मंत्री और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख शरद पवार की नाराजगी इस आधार पर कुछ जायज हो सकती है कि उनके दल ने सरकार के लिए कभी कोई परेशानी नहीं खड़ी की, लेकिन क्या इससे इंकार किया जा सकता है कि संप्रग सरकार को अपने दूसरे कार्यकाल में महत्वपूर्ण फैसले लेने में नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं? क्या यह विचित्र बात नहीं कि संप्रग के घटक दल राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर भी एकमत नहीं हो पा रहे हैं? आखिर इस तरह केंद्रीय सत्ता का संचालन कैसे हो सकता है? इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि इस तरह देश के हितों की रक्षा कैसे हो सकती है? यह ठीक नहीं कि घटक दल एक ओर सरकार को समर्थन देने की कृपा प्रदर्शित करते रहें और दूसरी ओर उसे वे फैसले भी न लेने दें जो आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य हो चुके हैं और जिनके अटके रहने के कारण राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ रही है। अब तो यह भी स्पष्ट है कि घटक दल अपनी ही भागीदारी वाली केंद्रीय सत्ता की फजीहत कराने में भी संकोच नहीं कर रहे हैं। आखिर वे यह अहसास क्यों नहीं कर पा रहे हैं कि केंद्र सरकार की नाकामी उनके हिस्से में भी आ रही है? सुधारवादी रेल बजट पेश करने वाले रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी को प्रधानमंत्री के न चाहने के बावजूद जिस तरह एक प्रकार से जबरन हटाया गया उससे केंद्र सरकार की प्रतिष्ठा को तो जबरदस्त चोट पहुंची ही है, उसके और साथ ही संसद के अधिकारों का भी हनन हुआ है। नि:संदेह बात केवल दिनेश त्रिवेदी के हटाए जाने की ही नहीं, बल्कि उनके स्थान पर नए रेल मंत्री मुकुल राय की नियुक्ति की भी है। अभी सभी को यह स्मरण है कि तृणमूल कांग्रेस ने ऐसा ही रवैया खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश के फैसले पर भी अपनाया था। यह कैबिनेट का फैसला था, लेकिन ममता बनर्जी के दबाव में केंद्र सरकार को उससे पीछे हटना पड़ा। कैबिनेट से मंजूर भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक के साथ-साथ अन्य अनेक विधेयक सिर्फ इसलिए अटके हुए हैं, क्योंकि घटक दल उन्हें हरी झंडी देने से इंकार कर रहे हैं। अब यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि संप्रग के घटक दल संकीर्ण राजनीतिक हितों के कारण राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित नहीं कर पा रहे हैं। वे कई बार केंद्र सरकार के उचित फैसलों का सिर्फ इसलिए विरोध करने लगते हैं, क्योंकि उनके राज्य में सक्रिय विरोधी दल भी ऐसे फैसलों के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे होते हैं। राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर क्षेत्रीय दलों का रवैया उनके विरोधी दलों के तौर-तरीकों पर निर्भर करने से राज्य विशेष के हित तो सध सकते हैं, लेकिन राष्ट्रीय हितों की रक्षा नहीं होने वाली। यह संभव है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का नेतृत्व कर रही कांग्रेस शरद पवार के गम और गुस्से को दूर करने में सफल हो जाए, लेकिन ऐसा ही कुछ अन्य घटकों के बारे में नहीं कहा जा सकता। घटक दलों के असहयोग से आजिज आई सरकार ने उनके साथ निरंतर बैठकें करने का जो फैसला किया है वह बहुत उम्मीद नहीं जगाता, क्योंकि तथ्य यह है कि संप्रग सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में बिना किसी समन्वय समिति के काम कर रही है।
साभार :- दैनिक जागरण

राजनीति की विचित्र करवट

पिछले आठ सालों के दौरान कांग्रेस-सपा के नफरत-प्यार भरे संबंधों के बहाने राजनीतिक हालात का जायजा ले रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य
अखिलेश यादव के शपथग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री ने संसदीय कार्यमंत्री पवन बंसल के हाथों बधाई संदेश भेजा। सोनिया गांधी के दूत के रूप में वयोवृद्ध कांग्रेस नेता मोतीलाल वोरा ने भी समारोह में शिरकत की। इस घटना से 2004 के चुनाव के तत्काल बाद की एक घटना याद आ गई। समाजवादी पार्टी ने स्वयं अगुआई कर कांग्रेस को बिना शर्त समर्थन का पत्र राष्ट्रपति को भेज दिया था। इसके बावजूद सोनिया गांधी द्वारा गठबंधन में शामिल और सहयोग देने वालों को दिए गए रात्रिभोज में समाजवादियों को आमंत्रित नहीं किया। फिर भी सपा के तत्कालीन महामंत्री अमर सिंह माकपा नेता हरकिशन सिंह सुरजीत के साथ भोज में पहुंच गए। उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। उसके बाद जब परमाणु संधि के मसले पर वामपंथी दल सरकार से अलग हो गए तो कांग्रेस ने पलटी मारते हुए सपा को पुचकारने में जरा भी विलंब नहीं किया। अमर सिंह ने सरकार बचाने के लिए क्या-क्या किया, इसका खुलासा अब अदालत में हो रहा है। प्रश्न उठता है कि जिस पार्टी के प्रतिनिधि को कांग्रेस ने 2004 में भोज से बाहर निकाल दिया था, आज उस दल में कौन सा आकर्षण पैदा हो गया है? जो दिग्विजय सिंह मुलायम के गुंडाराज से उत्तर प्रदेश को बचाने के लिए राहुल गांधी के साथ जी-जान से जुटे थे, आज सपा को केंद्रीय सरकार में शामिल होने का निमंत्रण दे रहे हैं। सवाल यह भी उठता है कि मुलायम सिंह की ऐसा क्या कमजोरी है कि 2004 के अपमान के बाद भी जब-जब संप्रग सरकार संकट में घिरी, वह उसके पक्ष में खड़े हो गए? जैसे कांग्रेस महात्मा गांधी के प्रति प्रतिबद्धता का राग अलाप कर गांधी परिवार की दास भर बनकर रह गई है, वैसे ही समाजवादी पार्टी भी नाम लेने भर को ही लोहियावादी बनी हुई है। सैद्धांतिक निष्ठा और आचरणीय शुचिता के मामले में सभी राजनीतिक संगठनों ने रंग बदलने में गिरगिट को भी मात दे दी है। डॉ. लोहिया का गैर कांग्रेसवाद तो उनके अंतिम अनुयायी जनेश्वर मिश्र के जाने के काफी पहले ही तिरोहित हो चुका था और महात्मा गांधी की मृत्यु के साथ ही कांग्रेस ने उनके दर्शन को भी दफन कर दिया था। सत्ता की प्रधानता राजनीतिक दलों का मुख्य ध्येय हो गई है। कांग्रेस उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद इस नतीजे पर संभवत: पहुंच गई है कि अब उसके भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी उसकी नैया पार नहीं लगा सकते। राहुल गांधी देश को दिशा देने के लिए पिछले दो वषरें से मुखरित रहने के बाद अब चुप हैं। कांग्रेस की प्राथमिकता किसी भी जुगाड़ से 2014 तक सरकार चलाते रहने की है। राज्यों के अधिकार क्षेत्र पर अतिक्रमण को उतारू संप्रग सरकार से क्षुब्ध मुख्यमंत्रियों की अभिव्यक्ति ने चौथे मोर्चे की चर्चा को उभारा है। पता नहीं तीसरा मोर्चा कहां है। मंचीय प्रदर्शन के बावजूद वह कभी अस्तित्व में नहीं आया, लेकिन वामपंथियों को लग रहा है कि एक बार फिर से क्षेत्रीय पार्टियों के सहारे खड़े हो सकते हैं। इसके लिए उन्होंने मुलायम सिंह पर दांव लगाना शुरू कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी कुछ महत्वाकांक्षी व्यक्तियों की जकड़न से अपने को मुक्त नहीं कर पा रही है, लेकिन उसे विश्वास है कि 2014 के निर्वाचन में वे क्षेत्रीय पार्टियां उसके साथ मिलकर सरकार बनाने के लिए एकजुट हो जाएंगी, जिनका कांग्रेस से सीधा विरोध है। मनमोहन सरकार के 2014 तक चलने की संभावना है। ममता बनर्जी साथ छोड़ देती हैं तो भी वर्तमान सरकार के गिरने का खतरा नहीं है। लेकिन जिस चुनौती के लिए वह सर्वाधिक परेशान है वह है इसी वर्ष होने वाला राष्ट्रपति चुनाव। उसके पास पहली बार राष्ट्रपति पद के लिए अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए संख्याबल कम है। भाजपा और कांग्रेस के मतदाताओं अर्थात सांसदों और विधायकों की संख्या में बहुत कम अंतर है। उत्तर प्रदेश का मतदाता जिस ओर करवट लेगा वही निर्णायक होगा क्योंकि यहां के विधायकों के मतों का मूल्य अन्य राज्यों के विधायकों से कहीं ज्यादा है। जहां भाजपा और कांग्रेस दोनों ही इसका मूल्य समझकर मुलायम सिंह के प्रति उदार हैं, वहीं मुलायम सिंह अपनी इस हैसियत से बेखबर नहीं हैं। क्या कांग्रेस सिर्फ रामगोपाल यादव को राज्यसभा का उपसभापति बनाकर मुलायम सिंह का समर्थन हासिल कर सकती है? यह तो बहुत ही छोटा मूल्य होगा। ममता बनर्जी के गठजोड़ से बाहर जाने के बाद कांग्रेस को समाजवादी सांसदों का सहयोग लेने के लिए मूल्य भी चुकाना होगा- मुलायम सिंह को उप प्रधानमंत्री बनाकर। मुलायम सिंह अब खाली आश्वासन से संतुष्ट नहीं हो सकते। अब कांग्रेस की हैसियत पहले वाली नहीं है। उसके पास संख्या बल तो कम है ही, उसकी साख भी रसातल में पहुंच गई है। कांग्रेस और मुलायम सिंह दोनों ही इस समय उंगली पकड़कर पाहुंचा पकड़ने की जुगत में लगे हैं। जहां कांग्रेस राष्ट्रीय मसलों पर अब आम सहमति की बात करने लगी है वहीं मुलायम सिंह चुप्पी साधकर अनुकूलता का आकलन कर हैं। ममता ही नहीं द्रमुक और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी कांग्रेस को कदम पीछे हटाने के लिए बाध्य कर रही हैं। ऐसे में मुलायम सिंह कांग्रेस की डूबती नैया को किनारे पहुंचाने में अपनी शक्ति लगाएंगे या चौथे मोर्चे के कयास को बल देंगे या फिर अपनी शक्ति बढ़ाकर 2014 में निर्णायक भूमिका निभाने की तैयारी में जुट जाएंगे? यह स्पष्ट हो सकेगा जुलाई के राष्ट्रपति निर्वाचन के समय। राष्ट्रपति चुनाव दिशा संकेत दे सकता है, लेकिन जहां तक 2014 के निर्वाचन का सवाल है वह तो संप्रग और राजग के बीच ही होगा। क्षेत्रीय दलों को सौदेबाजी का अवसर निर्वाचन के बाद संख्या बल के आधार पर मिलेगा।
(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

उतर गया गांधी परिवार का जादू

विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की दुर्गति को गांधी परिवार के रसूख के खत्म होने का संकेत मान रहे हैं प्रदीप सिंह
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों ने कई राजनीतिक दलों के पैरों के नीचे की जमीन खिसका दी है। लेकिन एक और बात हुई है जो समाजवादी पार्टी की जीत, अखिलेश यादव के युवा नेतृत्व और बसपा की अप्रत्याशित (कुछ लोगों के लिए) हार की चर्चा के बीच दब गई। या यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि महत्व के लिहाज से उसकी चर्चा नहीं हुई। वह है अमेठी, रायबरेली और सुल्तानपुर में कांग्रेस की हार। इन तीन संसदीय क्षेत्रों की पंद्रह विधानसभा सीटों में से कांग्रेस के हाथ केवल दो सीटें लगीं। इसके बावजूद कि राहुल, सोनिया, प्रियंका सहित पूरे गांधी परिवार ने इन तीनों संसदीय क्षेत्रों में काफी सघन चुनाव प्रचार किया। एक सवाल हवा में है क्या गांधी परिवार का करिश्मा खत्म हो रहा है? करिश्मा उस जादू की तरह है जो सिर चढ़कर बोले। यानी करिश्मे से प्रभावित व्यक्ति तार्किक ढंग से सोचना छोड़ देता है। वह सही-गलत का फैसला नहीं करता। करिश्माई नेता के पीछे जनता चल पड़ती है। वह यह मानने को तैयार नहीं होती कि नेता जो कह रहा है उसके अलावा कोई सच हो सकता है। चुनावी राजनीति में आने के बाद राहुल गांधी पहली बार अमेठी, रायबरेली से निकलकर पूरे उत्तर प्रदेश में घूमे। सोनिया गांधी पहले से ही पूरे प्रदेश में चुनाव अभियान चलाती रही हैं। पहली बार प्रियंका गांधी मां और भाई के चुनाव क्षेत्र से बाहर निकलकर चुनाव प्रचार करने के लिए न केवल तैयार दिखीं बल्कि विपक्षी दलों को परोक्ष धमकी भी दी कि क्या वे यह चाहते हैं मैं राजनीति में आऊं? इसके बावजूद गांधी परिवार को अपने राजनीतिक घर में समर्थन नहीं मिला। अमेठी, रायबरेली और सुल्तानपुर संसदीय क्षेत्रों के चुनाव नतीजे गांधी परिवार के लिए भले ही चौंकाने वाले हों पर इसके संकेत चुनाव के दौरान ही मिलने लगे थे। इस बार प्रियंका दीदी को लोगों ने चुपचाप नहीं सुना। उनसे सवाल भी किए। लोग यह मानने को तैयार नहीं थे कि इन तीनों क्षेत्रों जो कुछ खराब है उसके लिए केवल विधायक जिम्मेदार हैं, सांसदों की कोई जिम्मेदारी नहीं है। अमेठी और रायबरेली दो ऐसे चुनाव क्षेत्र हैं जिनका प्रतिनिधित्व फिरोज गांधी, इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी और अब सोनिया व राहुल गांधी कर रहे हैं। फिर भी इनकी हालत उत्तर प्रदेश के दूसरे चुनाव क्षेत्रों से बहुत अच्छी नहीं है। देश में दो तरह के निर्वाचित जन प्रतिनिधि हैं। एक जो अपने चुनाव क्षेत्र के विकास के लिए अपनी क्षमता से अधिक प्रयास करते हैं और दूसरे जो निर्वाचन क्षेत्र के विकास के बजाय प्रतीकों और नारों की राजनीति से लोगों को संतुष्ट रखना चाहते हैं। गांधी-नेहरू परिवार दूसरी श्रेणी में आता है। यह परिवार गरीबी और गरीबों को सहेजकर रखता है। जवाहर लाल नेहरू सत्रह साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे और इस दैरान उनका चुनाव क्षेत्र फूलपुर रहा। राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव अभियान की शुरुआत फूलपुर से की। इस उम्मीद में कि लोगों को नेहरू की याद आ जाएगी। वह यह भूल गए कि नेहरू के साथ ही लोगों को क्षेत्र की बदहाली भी याद रहेगी। राहुल गांधी ने गरीबी नहीं देखी है। उनके लिए गरीबी कौतूहल का विषय है। दलित की झोपड़ी में रात बिताना उनके लिए वैसा ही एडवेंचर है जैसा उस दलित के लिए किसी पांच सितारा होटल में रात बिताना। दोनों के जीवन की यह हकीकत नहीं है। राहुल गांधी के सलाहकारों को लगता है कि दलित की झोपड़ी में रात बिताना कृष्ण का सुदामा के घर जाने जैसा है। फर्क यह है कि दलित सुदामा की तरह अभिभूत नहीं हुए क्योंकि दोनों में कोई सखा भाव नहीं है। और यह राजा-महाराजाओं का दौर नहीं है कि राजा को अपनी कुटिया में देखकर प्रजा धन्य-धन्य हो जाए। राहुल गांधी के लिए गरीब के झोपड़े में जाना पर्यटन का एक नया स्वरूप है। जनवरी 2009 में ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश मंत्री डेविड मिलीबैंड भारत आए थे। राहुल गांधी उन्हें अमेठी ले गए। यह दिखाने को कि ग्रामीण भारत में लोग क्या कर रहे हैं। अमेठी में मिलीबैंड ने एक गरीब के घर रात गुजारी। खबर पढ़कर मैं कई दिन तक सोचता रहा कि राहुल गांधी ने आखिर ऐसा क्यों किया? क्या यह दिखाने के लिए कि देखो, मुझसे पहले जिस चुनाव क्षेत्र (अमेठी) का प्रतिनिधित्व मेरे चाचा, पिता और मेरी मां कर चुकी हैं उसकी गरीबी हमने खत्म नहीं होने दी है। गांधी परिवार का करिश्मा पंजाब में भी नहीं चला। जहां हर चुनाव में सरकार बदलने के इतिहास को झुठलाते हुए मतदाता ने अकाली दल और भाजपा गठबंधन को फिर सत्ता सौंप दी। गोवा में भाजपा और उसके ईसाई उम्मीदवारों की जीत का क्या अर्थ निकाला जाए? सोनिया गांधी के पार्टी की कमान थामने के बाद से ऐसा होता रहा है कि पार्टी में किसी मुद्दे या नेता को लेकर कोई भी विवाद उनके फैसले के साथ ही खत्म हो जाता था। उत्तराखंड में पहली बार ऐसा हुआ कि सोनिया गांधी के तय करने के बाद बगावत शुरू हुई। हाईकमान के सामने लोग झुके नहीं अपनी प्रतिष्ठा (विजय बहुगुणा) बचाने के लिए हाई कमान को झुकना पड़ा। करिश्मा और इकबाल कायम रखने के लिए जरूरी है कि नेतृत्व सबको समान अवसर दे और न्याय करते हुए दिखे। राजनीति में कार्यकर्ता और नेता का संबंध परस्पर सहजीवी का होता है। जब रेवड़ी बांटने के समय नेता अंधे की तरह व्यवहार करने लगे तो उसके पद का इकबाल चला जाता है और कार्यकर्ता की नजर में उसका कद भी घट जाता है। उत्तर प्रदेश में पार्टी की हार के बाद सोनिया गांधी ने कहा कि प्रत्याशियों के चयन में गलती और नेताओं की अधिकता के कारण पार्टी की हार हुई। सवाल है कि उनका चयन किसने किया? इसके लिए जिम्मेदार कौन है? दूसरों की तरफ उंगली उठाते समय सोनिया गांधी भूल गईं कि चार उंगलियां उनकी तरफ भी उठी हुई हैं। राहुल गांधी जब उत्तर प्रदेश में रैली दर रैली बोल रहे थे कि हाथी पैसा खाता है तो लोगों को अपेक्षा थी कि केंद्र में पैसा खाने वालों के बारे में भी वह अपने विचारों का इजहार करेंगे। भारतीय राजनीति में यह हाईकमान संस्कृति के क्षरण का दौर है। सिर्फ पद के आधार पर रसूख का दौर खत्म हो रहा है। गांधी परिवार अब चुनाव में वोट की गारंटी नहीं है। अमेठी और रायबरेली में भी नहीं। चुनाव के बाद भी उसके फैसलों पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

Monday, March 5, 2012

कांग्रेस का सत्ता अहंकार

संप्रग सरकार, विशेषकर कांग्रेस की कार्यप्रणाली में राजवंशी मानसिकता की झलक देख रहे हैं बलबीर पुंज
उत्तर प्रदेश में यदि कांग्रेस की सरकार नहीं आई तो राष्ट्रपति शासन लागू होगा, केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल का यह बयान क्या रेखांकित करता है? कांग्रेस केंद्रीय सत्ता में 40 वषरें से अधिक समय तक काबिज रही है और खासकर सन 1947 से लेकर 1969 तक न केवल केंद्र में, बल्कि अधिकांश राज्यों में भी उसका ही अबाधित राज रहा है। इस लंबे राजपाट के कारण उसके अंदर स्वाभाविक तौर पर सत्ता का अहंकार भी घर कर गया। इस अवधि में जहां कहीं भी गैरकांग्रेसी सरकारें आईं, कांग्रेस ने वैधानिक प्रावधानों का दुरुपयोग कर उन्हें चलता करने में देर नहीं लगाई। सत्ता की हनक में कांग्रेस वस्तुत: लोकतांत्रिक मूल्यों को तिलांजलि देती आई है। जायसवाल का बयान उसी सनक की पुष्टि करता है। इस मानसिकता के निर्माण में कांग्रेस की वंशवादी राजनीति का भी बड़ा योगदान है। विजय लक्ष्मी पंडित की पुत्री नयनतारा सहगल ने इंदिरा गांधी के ऊपर लिखी अपनी पुस्तक में इस विकृति का खुलासा करते हुए लिखा है, पंडित नेहरू के वंशज यह मानते हैं कि उनका जन्म राज करने के लिए हुआ है और कांग्रेस पार्टी उनकी खानदानी जागीर है। इंदिरा गांधी के जमाने में तो यह अहंकार और परवान चढ़ा। चाटुकारों की मंडली ने तो तब इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा का नारा ही गढ़ दिया था। यह अतिशयोक्ति नहीं कि सत्तासीन होने पर कांग्रेस निरंकुश हो जाती है और वह चाहती है कि पूरे देश में केवल उसकी ही राजनीतिक विचारधारा का वर्चस्व रहे। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में उनके वामपंथी विश्वासपात्र मोहन कुमारमंगलम ने प्रतिबद्ध न्यायपालिका, यानी ऐसी न्यायपालिका जो संविधान की बजाए सत्ताधारी दल अर्थात कांग्रेस की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध हो, की वकालत की थी। इसी विचार के कारण तब सर्वोच्च न्यायालय के तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की वरीयता की अनदेखी कर एक कनिष्ठ न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया गया था। आपातकाल के दौरान संजय गांधी की मंडली का प्रिय नारा एक राष्ट्र, एक पार्टी और एक नेता था। इंदिरा गांधी के पूरे कार्यकाल में राष्ट्रीयता का अर्थ नेहरू परिवार का यशोगान था। राष्ट्रभक्ति पंडित नेहरू से शुरू होकर गांधी परिवार में समाप्त होती थी। इंदिरा गांधी का विरोध करने वाला प्रत्येक व्यक्ति उनके लिए देशद्रोही था। परिवारवाद की पूजा का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों की नामावली में लालबहादुर शास्त्री का नाम विपक्षियों के एतराज के कारण राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में शामिल किया गया था। विभाजन के बाद दिल्ली में अधिकांश कॉलोनियों के नाम नेहरू परिवार के ऊपर यथा मोती नगर, कमला नगर, स्वरूप नगर, नेहरू नगर, नेहरू विहार, इंदिरा विहार आदि हैं। अब तो जीतेजी दिल्ली में सोनिया विहार भी आबाद है। राजीव गांधी और उनके बाद अधिकांश सरकारी योजनाओं का नाम नेहरू-इंदिरा-राजीव के नाम को समर्पित है। सन 2004 में केंद्रीय सत्ता में कांग्रेस की वापसी होते ही सत्ता का अहंकार प्रधानमंत्री पद की लोलुपता लिए लौटा। वर्तमान गांधी (सोनिया गांधी) ने विदेशी मूल की अड़चन पैदा होने पर सत्ता की कुंजी हथियाने के लिए लोकतंत्र के साथ एक नया प्रयोग कर डाला। 2004 से देश में एक ऐसा प्रधानमंत्री स्थापित है, जिसके पास पद तो है, किंतु शक्तियां कहीं और केंद्रित हैं। कांग्रेस अध्यक्ष के पास मंत्रिमंडल का कोई भी विभाग नहीं है, किंतु पूरा मंत्रिमंडल उनकी परिक्रमा लगाता है। यह अहंकार युवराज राहुल गांधी के चुनावी भाषणों में भी झलकता है। केंद्र सरकार से राज्यों को भेजी जाने वाली केंद्रीय सहायता के लिए वह ऐसे जुमलों का प्रयोग करते हैं, मानो निजी मिल्कियत से खैरात दे रहे हों। यह अहंकार संप्रग सरकार की कार्यप्रणाली में चारो ओर परिलक्षित हो रहा है। देश पिछले 42 सालों से भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था कायम करने के लिए लोकपाल कानून की प्रतीक्षा कर रहा है। अन्ना हजारे के नेतृत्व में पूरा देश इसके लिए आंदोलित हुआ। सरकार ने पहले अन्ना का हश्र योगगुरु बाबा रामदेव की तरह करना चाहा था। काले धन की वापसी की मांग कर रहे बाबा रामदेव के आंदोलन का दमन पुलिसिया तंत्र के बूते किया गया, जिसका संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को पिछले दिनों कड़ी फटकार भी लगाई है। अन्ना हजारे की गिरफ्तारी पर जब जनज्वार सड़कों पर उतरने लगा तो सरकार ने पैर पीछे खींच लिए। देश से एक सशक्त लोकायुक्त कानून बनाने का वादा किया गया, किंतु लोकायुक्त कानून को लेकर कांग्रेस ने जिस तरह लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाईं वह सारा देश देख चुका है। युवराज राहुल गांधी का अहंकार जन अपेक्षाओं पर हावी रहा और विगत 29-30 दिसंबर की मध्य रात लोकतंत्र की हत्या कर दी गई। पिछले दिनों के कुछ घटनाक्रम कांग्रेस के सत्ता दर्प के साथ भारत के जनसंघीय स्वरूप और लोकतांत्रिक निकायों के प्रति उसके नजरिए का खुलासा करते हैं। स्वच्छ और निष्पक्ष पारदर्शी चुनाव कराने के लिए संविधान निर्माताओं ने चुनाव आयोग का प्रावधान रखा। चुनाव के दौरान आयोग द्वारा निर्धारित आचार संहिता का पालन करने की अपेक्षा सभी राजनीतिक दलों से की जाती है। इसलिए उत्तर प्रदेश चुनाव में मुस्लिमों को कांग्रेस के पाले में करने के लिए जब केंद्रीय विधिमंत्री सलमान खुर्शीद ने मजहबी आधार पर आरक्षण देने की घोषणा की तो आयोग को हस्तक्षेप करना पड़ा, किंतु खुर्शीद सत्ता के मद में थे। पहले तो उन्होंने आयोग को चुनाव के बेसिक फंडे की जानकारी नहीं होने की बात की, फिर आयोग से नसीहत मिलने के बावजूद सत्ता के मद में यहां तक कह डाला कि आयोग चाहे तो फांसी दे दे, किंतु आरक्षण दिलाकर रहेंगे। इसके बाद एक अन्य केंद्रीय मंत्री ने आयोग पर हमला बोला। युवराज को आचार संहिता के उल्लंघन का नोटिस क्या मिला, कांग्रेस ने आचार संहिता का मामला ही आयोग से छीनकर न्यायालय के अधीन करने की तैयारी कर डाली। फिलहाल इस पर विराम लग गया है, किंतु वंशवादी कांग्रेस की राजवंशी मानसिकता पर कोई लगाम नहीं है। गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों से केंद्र सरकार का टकराव इसी मानसिकता का द्योतक है। खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश, लोकायुक्त कानून और अब एनसीटीसी के मामले में केंद्र सरकार राज्य सरकारों के अधिकारों का अतिक्रमण करने पर आमादा है। अब सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) को पूरे देश में तलाशी लेने और गिरफ्तार करने का अधिकार देने की तैयारी में है। भारत के संविधान ने केंद्र व राज्यों के अधिकारों की एक स्पष्ट विभाजक रेखा खींच रखी है। उस लक्ष्मण रेखा को जानबूझ कर बार-बार लांघने की मानसिकता वस्तुत: कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार की अहंकारी प्रवृत्ति के कारण ही है।
(लेखक राज्यसभा सदस्य हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

त्रासदी का विचित्र तमाशा

विकास और सुशासन के बावजूद गुजरात को हमेशा 2002 के दंगों के लिए याद किए जाने पर निराशा जता रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता
यह कटु लग सकता है, किंतु जिस तरह मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भयावह गुजरात दंगों की दसवीं वर्षगांठ को पीडि़तों के उत्सव में बदला है वह बेहद घृणित है। पीडि़तों को गले लगाने के लिए दिग्गज पत्रकार अहमदाबाद की दौड़ लगा रहे थे। दंगों में अपनी जान बख्शने की गुहार लगा रहे कुतुबुद्दीन अंसारी के दुर्भाग्यपूर्ण अति-प्रचारित फोटोग्राफ का दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से दोहन किया गया। यह हिंसा को इतिहास के कूड़ेदान में फेंकने का संकल्प लेने का एक उचित अवसर हो सकता था, किंतु इसके बजाय यह महज तमाशा बनकर रह गया। हंगामेदार टीवी वार्ताओं में इसका पटाक्षेप हो गया। घटनाओं के इस बदसूरत मोड़ के कारण स्पष्ट हैं। दस साल पहले गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस पर हुए जघन्य हमले से गुजरात में हिंसा भड़की। इस पूरे प्रकरण में न्याय का राजनीतिक दोषारोपण में रूपातंरण हो गया। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस मुद्दे को जिंदा बनाए रखा। अब मुद्दा दंगाइयों और अमानवीय कृत्य के जिम्मेदार लोगों को दंडित करने का नहीं रह गया है, बल्कि एक व्यक्ति-मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राजनीतिक निशाना बनाना भर रह गया है। यह माना जा रहा है कि अगर मोदी पर व्यक्तिगत रूप से दंगों को बढ़ावा देने के आरोप में मामला दर्ज हो जाता है तो न्याय हासिल हो जाएगा। एक अतिरिक्त लाभ के रूप में मोदी राजनीतिक परिदृश्य से गायब भी हो जाएंगे। परिणामस्वरूप अगले लोकसभा चुनाव में उनके प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की संभावना भी खत्म हो जाएगी। संक्षेप में, अगर आप नरेंद्र मोदी को हरा नहीं सकते, तो उन्हें अयोग्य ठहरा दो। अगर नरेंद्र मोदी राजनीतिक रूप से कमजोर हो जाते तो उनके खिलाफ न्यायिक संघर्ष भी दम तोड़ देता। 2002 या 2007 के चुनाव में अगर मोदी हार जाते तो उससे यह आत्मतुष्ट निष्कर्ष निकाल लिया जाता कि गुजरात ने भी उसी तरह प्रायश्चित कर लिया जिस तरह उत्तर प्रदेश ने अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद भारतीय जनता पार्टी को नकारकर किया था। एक्टिविस्टों का शिकंजा इसलिए कसता चला गया, क्योंकि इस बीच मोदी बराबर खुद को मजबूत करते चले गए और कांग्रेस एक प्रभावी चुनौती खड़ी करने की स्थिति में भी नहीं रही। परिणामस्वरूप, मोदी से निपटने का एकमात्र रास्ता यह रह गया कि उन्हें राजनीति से ही किनारे कर दिया जाए। एक और पहलू गौरतलब है। पिछले दस वर्षो में नरेंद्र मोदी ने गुजरात का कायापलट कर दिया है। 2002 में सांप्रदायिक माहौल में चुनाव जीतने के बाद उन्होंने अपना ध्यान गुजरात के तीव्र विकास पर केंद्रित किया। गुजरात हमेशा से ही आर्थिक रूप से सशक्त राज्य रहा है और उद्यमिता तो जैसे गुजरातियों के डीएनए में समाई हुई है। मोदी के प्रयासों से गुजरात की विकास दर दहाई में प्रवेश कर गई। उन्होंने प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त किया, राज्य की राजकोषीय स्थिति को सुधारा, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया और सरकारी योजनाओं को ईमानदारी से चलाया। मोदी एक आदर्श प्रशासक हैं, जो कम से कम खर्च में प्रभावी शासन का मंत्र जानते हैं। 2007 में उनकी चुनावी जीत हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का परिणाम नहीं थी। इस जीत का श्रेय उनके सुशासन को जाता है। दूसरे, मोदी ने मुद्दे को सफलतापूर्वक हिंदू गौरव से गुजराती गौरव में बदल दिया। पिछले एक दशक में गुजरातियों के जनमानस में बड़ा बदलाव आया है। दरअसल, 1969 के दंगे के बाद से गुजरात एक दंगा संभाव्य राज्य बन गया था। 1969 के दंगे के बाद, 1971, 1972 और 1973 में गुजरात में भीषण दंगे हुए। इसके बाद लंबे अंतराल के बाद जनवरी 1982, मार्च 1984, मार्च से जुलाई 1985, जनवरी 1986, मार्च 1986, जनवरी 1987, अप्रैल 1990, अक्टूबर 1990, नवंबर 1990, दिसंबर 1990, जनवरी 1991, मार्च 1991, अप्रैल 1991, जनवरी 1992, जुलाई 1992, दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 में दंगे हुए। इस दौरान गुजरात कफ्र्यू, सामाजिक असुरक्षा और हिंदू-मुस्लिम समुदायों में घृणा का साक्षी रहा। दंगों का यह सिलसिला पूरे गुजरात में चलता रहा। 1993 में सूरत में भीषण दंगे हुए थे। मार्च 2002 के बाद से गुजरात में कोई दंगा नहीं हुआ है। वहां कफ्र्यू अतीत की बात बन गया है। इस असाधारण रूपांतरण का क्या कारण है? मोदी में बुराई ढूंढने वाले सेक्युलरिस्ट बिना सोचे-समझे इसका सतही जवाब यह देते हैं कि 2002 के दंगों के बाद गुजरात के मुसलमान इतने भयभीत हो गए हैं कि वे हिंदुओं के अत्याचारों का विरोध कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। इस प्रकार काी व्याख्या से तो यही लगता है कि दंगे मुस्लिम समुदाय के एक वर्ग द्वारा शुरू किए जाते थे। इसका सही कारण यह है कि गुजरात में पिछले एक दशक में बड़े आर्थिक और प्रशासकीय बदलाव हुए हैं। पहला बदलाव तो यह हुआ कि प्रशासकीय और राजनीतिक नेतृत्व, दोनों ने 2002 के दंगों में भड़की हिंसा से निपटने की अक्षमता से सबक लिया है। पुलिस को सत्तारूढ़ दल के छुटभैये नेताओं की दखलंदाजी से मुक्त करते हुए खुलकर काम करने का मौका दिया गया है। अवैध शराब व्यापार और माफिया पर शिकंजा कसा गया है। इसके अलावा एक अघोषित समझ यह भी विकसित हुई है कि राज्य एक और दंगे की राजनीतिक कीमत नहीं चुका पाएगा। इसीलिए, वहां हिंदू उग्रवाद पर अंकुश लगाने के लिए विशेष ध्यान दिया गया है। गुजरात में सबसे बड़ा परिवर्तन सामाजिक स्तर पर आया है। आज गुजरात एक ऐसा समाज है जो पैसा बनाने और आर्थिक अवसरों का लाभ उठाने में लगा हुआ है। खुशनुमा वर्तमान और संभावनाओं से भरे भविष्य ने गुजरातियों के मन में भर दिया है कि दंगे धंधे के लिए सही नहीं हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि दोनों समुदायों के बीच अतीत की कटुता खत्म हो गई है और उसका स्थान सौहा‌र्द्र ने ले लिया है। अब भी सांप्रदायिक टकराव होते हैं, किंतु सांप्रदायिक टकराव और सांप्रदायिक हिंसा में फर्क होता है। अगर आर्थिक और राजनीतिक अंकुश रहे तो सांप्रदायिक टकराव हमेशा सांप्रदायिक हिंसा में नहीं बदलते। गुजरात के मुसलमानों को अब राजनीतिक वरदहस्त हासिल नहीं है, जो उन्हें कांग्रेस के राज में हासिल था, किंतु इसकी क्षतिपूर्ति समृद्धि के बढ़ते स्तर से हो गई है। 2002 के दंगे भयावह थे, किंतु अब इस पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि जनसंहार के बाद के दस सालों में गुजरात में अमनचैन कायम है और वह अभूतपूर्व विकास की राह पर अग्रसर है। उत्सव इसी बात का मनाया जाना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण




आर्थिक मोर्चे की चुनौतियां

संप्रग सरकार के आर्थिक दृष्टिकोण में खामियों के कारण विकास दर नीचे जाते देख रहे हैं संजय गुप्त
हाल ही में विकास दर के जो आंकड़े सामने आए उनसे केंद्र सरकार और साथ ही कांग्रेस की नींद टूट जानी चाहिए। संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल में आर्थिक विकास की दर लगातार गिरती जा रही है। अब वह 6.1 प्रतिशत पर आ टिकी है और अगली तिमाही में भी ऐसे ही नतीजे सामने आने के आसार हैं। इतनी कम विकास दर से देश का काम चलने वाला नहीं है। सभी क्षेत्रों और वर्गो के समुचित विकास और विशेष रूप से निर्धनता, कुपोषण और अशिक्षा से मुक्ति के लिए आर्थिक वृद्धि दर 8 प्रतिशत से ऊपर ही रहनी चाहिए। सच तो यह है कि यह वृद्धि दर और अधिक बढ़ने और दशकों तक जारी रहने की आवश्यकता है। संप्रग सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में आम आदमी के लिए शासन करने का जो वायदा किया था उसके तहत उसने मनरेगा और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन को न केवल विस्तार दिया, बल्कि इन लोक-लुभावन योजनाओं के मद में धन का आवंटन भी बढ़ाया। इसके बाद खाद्य सुरक्षा कानून बनाने की तैयारी की गई और अभी हाल में स्वास्थ्य क्षेत्र में कुल जीडीपी का ढाई प्रतिशत खर्च करने की घोषणा की गई। इसके अलावा समय-समय पर कर्ज माफी की अनेक घोषणाएं की गईं। इसमें संदेह नहीं कि जनकल्याणकारी योजनाओं में ज्यादा धन खर्च करने से गरीबों को एक हद तक लाभ मिला है, लेकिन यह भी सही है कि ये योजनाएं भारी भ्रष्टाचार से ग्रस्त हो गई हैं। एक तथ्य यह भी है कि इनसे वास्तविक विकास नहीं हो पा रहा है। शायद यही कारण है कि मनरेगा को तो खत्म करने की मांग तेज होती जा रही है। मनरेगा के संदर्भ में इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि घर बैठे पैसा मिलने के कारण मजदूरों ने मेहनत करना और काम की खोज में अन्य राज्यों में जाना बंद कर दिया है। इसके चलते कुछ राज्यों में कृषि उत्पादन के साथ-साथ औद्योगिक उत्पादन प्रभावित हो रहा है। मनरेगा के चलते मजदूरों के अपने गांव-घर से बाहर न निकलने के कारण कृषि एवं औद्योगिक प्रधान राज्यों में, जहां उनकी मांग रहती थी, उत्पादकता प्रभावित होने के आंकड़े तो नहीं हैं, लेकिन इस संदर्भ में जो आवाजें उठ रही हैं उन्हें अनसुना नहीं किया जा सकता। संप्रग सरकार के नीति-निर्माता और खासकर आर्थिक सलाहकार अपनी सामाजिक योजनाओं के लिए खुद की पीठ भले ही ठोकें, लेकिन वे बढ़ते राजकोषीय घाटे की उपेक्षा नहीं कर सकते। बढ़ते राजकोषीय घाटे और महंगाई से एक ओर उद्योग जगत खासा परेशान है और दूसरी ओर शिक्षा, स्वास्थ्य समेत आधारभूत ढांचे में कोई उल्लेखनीय सुधार होता नहीं दिखता। बावजूद इसके सरकार लोक-लुभावन योजनाओं की विसंगतियों को दूर करने को तैयार नहीं। वित्त मंत्री लगातार कह रहे हैं कि बढ़ती सब्सिडी और साथ ही उसके दुरुपयोग से उनकी नींद उड़ी हुई है, लेकिन सरकार वोट बैंक के फेर में सब्सिडी बढ़ाने वाली योजनाओं को आगे बढ़ाने पर तुली हुई है। वह इन योजनाओं को अपना राजनीतिक हथियार मानने लगी है। यह बात और है कि अब यही हथियार उसके लिए खतरा बनता जा रहा है। यदि आर्थिक प्रबंधन को दुरुस्त नहीं किया गया तो भारत के सामने यूरोपीय देशों जैसा संकट खड़ा हो सकता है। बेहतर हो कि सरकार के नीति-नियंता समझें कि उनके आर्थिक दृष्टिकोण में तमाम खामियां हैं। केंद्र सरकार के सामने आर्थिक चुनौतियों के साथ-साथ राजनीतिक चुनौतियां भी बढ़ती जा रही हैं। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे मंगलवार को आ रहे हैं। यदि इन राज्यों और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में महंगाई और भ्रष्टाचार के कारण कांग्रेस को बेहतर नतीजे नहीं मिले तो ठीकरा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित कुछ केंद्रीय मंत्रियों पर फूटेगा, जबकि तथ्य यह है कि मौजूदा आर्थिक हालात और सरकार की छवि के लिए प्रधानमंत्री पूरी तौर पर जिम्मेदार नहीं। यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि सरकार पर वे नेता हावी हैं जो लोक-लुभावन घोषणाओं को जारी रखना चाहते हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि खाद्य सुरक्षा कानून एक तरह से सरकार पर थोपा जा रहा है। देश में आर्थिक सुधारों के जरिये एक नए युग की शुरुआत करने वाले मनमोहन सिंह अब आर्थिक चुनौतियों से पार क्यों नहीं पा रहे हैं, यह समझना कठिन हो रहा है? क्या आर्थिक मामलों में उनकी नहीं चल पा रही है? सच्चाई जो भी हो, पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद आम बजट की बारी है। चुनावी आचार संहिता के कारण बजट थोड़ी देर से आ रहा है। यह बजट केंद्र सरकार के आर्थिक कौशल की परीक्षा लेगा। केंद्र सरकार की समस्या इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि विपक्षी दलों और राज्य सरकारों ने सहयोग देने के नाम पर उससे मुंह मोड़ लिया है। विपक्षी दलों को लग रहा है कि सरकार के इस बुरे दौर में ही उनका बेहतर भविष्य निहित है। शायद इसी कारण कई मुद्दों पर केंद्र-राज्य आमने-सामने खड़े हैं। हाल ही में सभी विपक्षी दलों के मजदूर संगठनों ने मिलकर एक दिन की हड़ताल का आयोजन किया, जिससे देश को दस हजार करोड़ का नुकसान हुआ, लेकिन इस नुकसान की चिंता किसी को नहीं। वामदलों की मानें तो उन्होंने देश के 37 करोड़ मजदूरों एवं कर्मचारियों की मांगों को लेकर हड़ताल की, लेकिन जब श्रम सुधारों की बात आती है तो यही वामदल पीछे हट जाते हैं। वामदल इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि देश के खराब होते आर्थिक हालात में श्रमिकों की कार्यकुशलता का स्तर भी कम जिम्मेदार नहीं है। श्रमिक संगठन केवल अपने हित देख रहे हैं और इसीलिए श्रम सुधारों से पीछे हट रहे हैं। वे यह अच्छे से जानते हैं कि भारतीय श्रमिकों की औसत उत्पादकता अंतरराष्ट्रीय स्तर से बहुत कम है और इसके दुष्परिणाम उद्योग जगत को भोगने पड़ रहे हैं, लेकिन वे इस पर चर्चा नहीं करना चाहते। हालांकि प्रधानमंत्री और कुछ केंद्रीय मंत्री लगातार इस पर जोर दे रहे हैं कि पुराने श्रम कानूनों से काम चलने वाला नहीं है और उनमें आमूल-चूल परिवर्तन करना ही होगा, लेकिन कांग्रेस के साथ-साथ अन्य राजनीतिक दल इस मुद्दे पर श्रमिक संगठनों जैसा रवैया अपनाए हुए हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि श्रमिक और कर्मचारी, वे चाहे जिस क्षेत्र के हों, अब एक वोट बैंक में तब्दील हो चुके हैं और कोई दल उन्हें नाराज नहीं करना चाहता। चुनाव नतीजे कुछ भी हों, यदि आर्थिक मामलों में राजनीति जारी रही और वित्तीय नियमों को ताक पर रखकर लोक-लुभावन योजनाओं को इसी तरह बढ़ाया जाता रहा तो आने वाला समय और अधिक संकट भरा हो सकता है। यह समय की मांग है कि कम से कम कांग्रेस और उसके सहयोगी दल प्रधानमंत्री को आर्थिक सुधारों के मामले में वैसा ही समर्थन दें जैसा उन्हें 1991 में तब मिला था जब वह वित्तमंत्री थे। यदि राजनीतिक लाभ अर्थात वोट बैंक मजबूत करने के लिए ऐसा नहीं किया जाता तो हालात और बिगड़ेंगे और इसकी सबसे ज्यादा जिम्मेदारी केंद्रीय सत्ता का संचालन कर रही कांग्रेस पर होगी।
साभार :- दैनिक जागरण

सवालों भरी गिरफ्तारी

उत्तर प्रदेश में पांच हजार करोड़ वाले एनआरएचएम घोटाले में मुख्यमंत्री मायावती के करीबी रहे तत्कालीन परिवार कल्याण मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा की गिरफ्तारी का समय कई सवाल खड़े करने वाला है। उत्तर प्रदेश में मतदान का आखिरी चरण समाप्त होते ही कुशवाहा की गिरफ्तारी से देश को यही संदेश गया है कि केंद्रीय जांच ब्यूरो चुनाव खत्म होने का इंतजार कर रहा था। क्या यह महज संयोग है कि जैसे ही मतदान की समय सीमा खत्म हुई, सीबीआइ को कुशवाहा को गिरफ्तार करने की जरूरत पड़ गई? क्या सीबीआइ के पास इस कथित संयोग से बचने और देश की जनता को गलत संदेश देने से बचने का कोई उपाय नहीं था? यदि कुशवाहा की गिरफ्तारी जरूरी हो गई थी तो फिर मतदान का आखिरी चरण खत्म होने का इंतजार क्यों किया गया? क्या चुनाव के कारण कुशवाहा की गिरफ्तारी को जानबूझकर टाला गया? क्या नेताओं के भ्रष्टाचार के मामलेमें अब सीबीआइ को यह भी देखना पड़ता है कि संबंधित राज्य में चुनाव हो रहे हैं या नहीं? यदि यूपी में चुनाव नहीं हो रहे होते तो क्या कुशवाहा बहुत पहले ही गिरफ्तार हो चुके होते? अगर चुनाव के कुछ और चरण बाकी होते तो क्या वह गिरफ्तारी से बचे रहते? दरअसल ये वे सवाल हैं जिनके जवाब सामने आने ही चाहिए-इसलिए और भी, क्योंकि ऐसे ही सवाल सीबीआइ की साख को प्रभावित करते हैं। इस संदर्भ में इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि नेताओं से जुड़े भ्रष्टाचार में सच्चाई का पता लगाने और दोषियों को दंड दिलाने में सीबीआइ का रिकार्ड बहुत ही निराशाजनक है। इस जांच एजेंसी को इस पर चिंतन-मनन करना ही होगा कि नेताओं से जुड़े घपले-घोटालों में वह सही ढंग से जांच क्यों नहीं कर पाती? सच तो यह है कि इस सवाल का जवाब देने की जिम्मेदारी बहुत कुछ केंद्रीय सत्ता पर भी है। केंद्र सरकार लाख कहे कि सीबीआइ एक स्वायत्त संस्था है और उसके कामकाज में उसका कहीं कोई दखल नहीं, लेकिन तथ्य कुछ और ही कहानी बयान करते हैं। सच्चाई यह है कि सीबीआइ पूरी तरह स्वायत्त नहीं और उसे विभिन्न मामलों में सरकार के कई विभागों का मुंह ताकना पड़ता है। इसमें दो राय नहीं कि एनआरएचएम घोटाले में बाबू सिंह कुशवाहा की गिरफ्तारी अपेक्षित थी, लेकिन इसकी कल्पना नहीं की जा रही थी कि उनकी गिरफ्तारी का फैसला राजनीतिक लाभ-हानि के नजरिए से किया जाएगा। बाबू सिंह कुशवाहा की गिरफ्तारी पर भाजपा की आपत्ति स्वाभाविक है, लेकिन उसका कोई विशेष मूल्य इसलिए नहीं, क्योंकि एनआरएचएम घोटाले के समय वह परिवार कल्याण मंत्री थे और अनेक फैसले उनके ही जरिये हुए। बाबू सिंह कुशवाहा की इस दलील में कुछ दम हो सकता है कि घोटाले के लिए अन्य लोग भी जिम्मेदार हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उन्हें निर्दोष मान लिया जाए। इस घोटाले में बाबू सिंह कुशवाहा के रूप में यह पहली बड़ी गिरफ्तारी है। देखना यह है कि सीबीआइ इस घोटाले में शामिल माने जा रहे अन्य बड़े कद वाले लोगों पर कब हाथ डालती है? यह सही है कि पिछले कुछ समय से सीबीआइ ने अपनी सक्रियता तेज की है, लेकिन यह कहना कठिन है कि वह समय रहते दूध का दूध और पानी का पानी कर सकने में सक्षम होगी।
साभार :- दैनिक जागरण

सरकारी धन से पार्टी प्रचार

चुनाव के पहले सरकारी विज्ञापनों पर रोक लगाने के सुझाव पर अमल की जरूरत जता रहे हैं एस. शंकर
भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाइ कुरैशी ने इधर एक सारगर्भित बयान दिया कि चुनाव के छह महीने पहले से सरकारी विज्ञापन छपने बंद हो जाने चाहिए, क्योंकि यह पार्टी प्रचार के सिवा कुछ नहीं होता। यह बड़ी गहरी बात है। वस्तुत: यह स्वयं चुनाव आयोग पर ही भारी जिम्मेदारी डाल देती है, क्योंकि सर्वविदित है कि सत्ताधारी पार्टियां चुनाव के साल भर पहले से उसकी तैयारी शुरू कर चुकी होती हैं। इस प्रकार आयोग के तर्क से सार्वजनिक धन से पार्टी प्रचार का चलने लगता है, लेकिन इस बयान से कुछ दूसरे तथ्यों पर भी ध्यान जाना आवश्यक है। यदि मामला सार्वजनिक धन से पार्टी प्रचार करने का है तो इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि कांग्रेसी सत्ताधारी केवल एक साल में अपने नेताओं की फोटो छपवाने, प्रचारित करने में जनता का जितना पैसा नष्ट करते हैं उतना बसपा पांच साल में भी नहीं कर सकी। तब चुनाव आयोग ने केवल हाथी और मायावती की मूर्तियां ढकने का निर्देश क्यों दिया? तर्क था कि इससे चुनावी लड़ाई की जमीन बराबर होगी। अर्थात वोटर की नजर दूसरे दलों के मुकाबले बसपा प्रतीकों पर ज्यादा न पड़े। चुनावी दृष्टि से जमीन तो तब बराबर होती जब सार्वजनिक धन से बनीं नेहरू-गांधी परिवार की सारी मूर्तियां, राजमार्ग-सड़क-चौक-स्टेडियम आदि के नामकरण और उनमें खुदीं सोनिया-राजीव-इंदिरा आदि की सभी तस्वीरों पर भी पर्दा डाला गया होता। सूचना और प्रसारण मंत्री ने आधिकारिक रूप से बताया है कि राजीव गांधी और इंदिरा गांधी के जन्म-दिन पर विज्ञापनों में 7 करोड़ रुपये खर्च किए गए। यह केवल जन्म-दिन का हिसाब है। अन्य अवसरों पर भी नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों की तस्वीरें, कथन आदि उद्धृत करने के बहाने पार्टी प्रचार चलता है। विषय अंतरिक्ष विज्ञान हो या स्वास्थ्य का, मगर किसी विशेषज्ञ के बदले नेहरू-गांधी की तस्वीरें ही निरंतर प्रचारित की जाती हैं। यह सब नि:संदेह पार्टी-प्रचार है। सवाल यह है कि जब आयोग यह जानता है कि विगत कई माह से सारे सरकारी विज्ञापन पार्टी प्रचार थे तो उसने इन्हें रोका क्यों नहीं? केवल उन अखबारी विज्ञापनों का ही हिसाब करें तो पार्टी हित में जनता के धन की बेतरह बर्बादी का दृश्य उभरता है। एक अनुमान के मुताबिक पिछले वर्ष केवल राजीव गांधी की पुण्यतिथि पर जनता के धन के 60-70 करोड़ रुपये खर्च कर डाले गए। इस हिसाब से हर वर्ष नेहरू-गांधी परिवार के चार नेताओं से संबंधित महत्वपूर्ण तिथियों पर ही विज्ञापनों में 500 से 600 करोड़ रुपये खर्च किए जाते हैं। क्या इससे कांग्रेस पार्टी को अनुचित रूप से ऊंची जमीन नहीं मिली रहती है? मुख्य चुनाव आयुक्त ने सही कहा है कि यह पार्टी प्रचार है। नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस का प्रचार होशियारी से किया जाता है। उसमें निष्ठावान बुद्धिजीवियों, प्रोफेसरों और पत्रकारों के एक वर्ग को भी शुरू से ही शामिल रखने की चतुराई रखी गई। इसलिए वहां पार्टी-प्रचार का आरोप नहीं लगाया जाता। मगर मामला वही है। अत: सत्ता और सार्वजनिक धन के दुरुपयोग से पार्टी-हित साधने की पूरी प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की जरूरत है। वस्तुत: सरकारी धन से दलीय राजनीति चमकाने की प्रवृत्ति पर खुली चर्चा होनी चाहिए और समरूप राष्ट्रीय नीति बनाने का निश्चय होना चाहिए, क्योंकि यदि एक की छवि ढकवाई जाए और दूसरे की खुली रहे है तो इससे राजनीतिक अखाड़े में समतल जमीन नहीं बनेगी। आज नहीं तो कल यह भी तय करना पड़ेगा कि सार्वजनिक धन से बनने वाले भवनों, संस्थाओं, सड़कों आदि के नामकरण का पैमाना क्या हो? पिछले कई दशकों से नेहरू-गांधी परिवार के नाम भवनों, सड़कों, चौकों, विश्वविद्यालयों, स्टेडियमों और सबसे बढकर गांव-गांव में पैसा बांटने वाली योजनाओं के नामकरण के पीछे दलीय उद्देश्य साधना रहा है। एक आकलन के अनुसार केवल पिछले 18 वर्ष में इस परिवार के नाम पर 450 केंद्रीय और प्रांतीय परियोजनाओं और संस्थाओं के नाम रखे गए हैं। इधर कोलकाता में इंदिरा भवन का नाम कवि नजरुल इस्लाम के नाम से बदलने पर कांग्रेसियों ने जो आपत्ति की वह ध्यान देने योग्य है। कांग्रेस नेता दीपा दासमुंशी ने अपने बयान से उजागर कर दिया कि देश भर में भवनों, सड़कों, योजनाओं आदि के नाम केवल नेहरू-गांधी परिवार के नाम से रखने के पीछे सोची-समझी रणनीति रही है कि एक परिवार को कांगेस का और कांग्रेस को देश का पर्याय बना दिया जाए। इसलिए सार्वजनिक धन से पार्टी-प्रचार करने की पूरी परंपरा पर रोक लगना जरूरी है। सार्वजनिक योजनाओं, भवनों, राजमार्गो आदि का नामकरण उसी योजना से जुड़े अधिकारियों और जानकारों की किसी समिति के माध्यम से हो। वे दलीय पक्षपात से परे होकर समुचित नामकरण करें और उसका उपयुक्त कारण लिखित रूप में दर्ज करें। उस कारण को समाचार पत्रों में प्रकाशित भी करना अनिवार्य हो। यदि मामला राष्ट्रीय महत्व का हो तो विभिन्न दलों के लोग भी समिति में रहें। जहां तक सैकड़ों भवनों, सड़कों, योजनाओं को एक ही परिवार के व्यक्तियों के नाम कर दिए जाने का मामला है तो दक्षिण अफ्रीका की तरह यहां भी एक पुनर्नामाकरण आयोग बनाने की जरूरत है जो नामों को समुचित रूप से बदलने के लिए सार्वजनिक सुनवाई करे। दुनिया भर में देश, काल, सत्ता, न्याय के अनुसार नाम पुन:-पुन: बदलते रहे हैं, इसलिए उसमें कोई बाधा नहीं है। हर हाल में जब एक विशेष कांग्रेस-परिवार को सरकारी नामकरणों का एकाधिकार खत्म होगा तभी वास्तव में राजनीतिक रूप से समतल जमीन बनेगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण