Monday, July 18, 2011

सियासी वंशवाद के करुणानिधि

जिस शाम वर्ष 2009 के आम चुनाव के परिणाम आए, तब सुहेल सेठ ने डीएमके का यह अर्थ बतलाया था : ‘देहली मनी फॉर करुणानिधि’। केंद्र में सत्ता का हिस्सा रहने के बाद भी यह लगता है कि डीएमके की ब्रांडिंग एक ऐसी क्षेत्रीय पार्टी के रूप में की जाती है, जो दिल्ली में अपनी ताकत का इस्तेमाल चुनावी रसद तैयार करने के लिए करती है। अब जब डीएमके तमिलनाडु में करो या मरो की लड़ाई लड़ रही है, तब 2जी घोटाले ने मीडिया में पार्टी की इस छवि को पुष्ट ही किया है कि वह राजनीतिक भ्रष्टाचार का प्रतिमान है।

डीएमके परिवार के वयोवृद्ध संरक्षक एम करुणानिधि की भूमिका एक कद्दावर राजनीतिक गॉडफादर की है। एक ऐसे राजनेता, जो नई पीढ़ी में शक्ति का वितरण कर बदलाव के एक सफल दौर को सुनिश्चित करना चाहते हैं। उनकी संतानें भी आपस में द्रविड़ साम्राज्य का विभाजन करती देखी जाती हैं। उनके पुत्र और उत्तराधिकारी एमके स्टालिन के हाथ में चेन्नई की कमान है, जबकि उनके दूसरे पुत्र एमके अलागिरी दक्षिण तमिलनाडु की बागडोर संभाले हुए हैं। २जी स्पेक्ट्रम घोटाले से पहले तक करुणानिधि की अंग्रेजीदां पुत्री कनिमोझी को दिल्ली में डीएमके का युवा चेहरा माना जाता था, लेकिन घोटाले ने उनकी विश्वसनीयता को चोट पहुंचाई है। यहां शिष्ट और सुसंस्कृत दयानिधि मारन को नहीं भूलना चाहिए, जिन्होंने एक व्यावहारिक और जानकार केंद्रीय मंत्री की छवि बनाई।

ये सारी परिस्थितियां एक कसी हुई पारिवारिक कहानी की बुनियाद तैयार करती हैं, जो वास्तव में देश की अधिकांश क्षेत्रीय पार्टियों की हकीकत है। डीएमके अकेली ऐसी क्षेत्रीय ताकत नहीं है, जिसका निर्माण एक कद्दावर व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द हुआ है। लालू यादव की आरजेडी और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस भी इसी के उदाहरण हैं। डीएमके की जड़ें परिवर्तन की राजनीति, सामाजिक न्याय के सिद्धांतों, तर्कवाद और समानता के आदर्शो, जिसने जस्टिस पार्टी की रूपरेखाओं का निर्माण किया था और तमिलनाडु में 20 के दशक में हुए द्रविड़ आंदोलन में पैठी हुई हैं। डीएमके का इतिहास ईवी रामास्वामी ‘पेरियार’ के सशक्त सुधार आंदोलनों में निहित है, जिन्होंने स्वतंत्रता से पूर्व गैरब्राह्मण आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया था।

करुणानिधि (या कलाइंगर, जिसका अर्थ होता है साहित्य का संरक्षक) सुधारवादी तमिल समाज की इसी महान परंपरा का एक हिस्सा हुआ करते थे। उनके द्वारा लिखी गई फिल्मों की पटकथाएं और उत्साहपूर्ण गद्य रचनाएं उनके राजनीतिक आदर्शवाद को प्रदर्शित करती हैं, जिसके आधार में थी एक समतावादी समाज के निर्माण की कामना। विधवा पुनर्विवाह और धार्मिक पाखंड जैसे विषयों पर आधारित फिल्मों ने उन्हें सामाजिक परिवर्तन की धारा के अग्रदूत की प्रतिष्ठा प्रदान की, जिसके वे हकदार भी थे। 50 और 60 के दशक में तमिल आंदोलनों का नेतृत्व करने वाले और 1975 में आपातकाल के दौरान जेल की सैर करने वाले करुणानिधि को साहसी और सिद्धांतवादी राजनेता के रूप में देखा जाता था।

इसके बावजूद, अपने लंबे और प्रतिष्ठित सार्वजनिक जीवन की सांझ में करुणानिधि को आज एक राजनीतिक कैरीकेचर बना दिया गया है। उन्हें एक ऐसे नेता के रूप में देखा जाने लगा है, जिसने परिवार के हित के लिए अपनी विचारधारा को ताक पर रख दिया। डीएमके के मंत्रियों को मालदार महकमे दिलाने की जिद, समय-समय पर केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने की धौंस, महत्वपूर्ण पदों पर अपनी संतानों का राज्याभिषेक करने की चाह के चलते करुणानिधि ने सुधारवादी आदर्शो की एक ऐसी समृद्ध परंपरा का अवमूल्यन किया, जो एक समय उनकी राजनीति में गहराई तक पैठी हुई थी। वे खुद को एक वंशवादी राजनेता बनने से नहीं बचा पाए।

इस पर विश्वास कर पाना वास्तव में कठिन है कि 2जी घोटाले के सूत्रधार ए राजा और उनके मित्र थे और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री को इस बारे में कोई खबर ही न थी। इस पर भी विश्वास नहीं किया जा सकता कि धनराशि का स्थानांतरण दिल्ली से चेन्नई नहीं हुआ हो। मई 2009 में करुणानिधि ने जिस तरह यह जिद पकड़ ली थी कि टेलीकॉम मंत्रालय डीएमके के पास ही रहे, वह इस बात पर विश्वास करने के लिए पर्याप्त है कि ताकत की उस जोर-आजमाइश के पीछे लूट का भागीदार होने की इच्छा थी। डीएमके जैसी पार्टियों में ए राजा की भूमिका केवल वफादार पारिवारिक सहयोगी जैसी होती है, जबकि खेल के नियमों का निर्धारण हमेशा परिवार के बुजुर्गवार द्वारा ही किया जाता है।

इसीलिए यह तर्कसंगत होगा कि तमिलनाडु के आगामी विधानसभा चुनाव में डीएमके को कड़ी हार का सामना करना पड़े। दुर्भाग्य से चुनाव परिणामों में तर्क हमेशा कारगर साबित नहीं होता, न ही व्यक्तिगत भ्रष्टाचार सुप्रशासन में बाधा बनता है या मतदाताओं का रुझान तय करता है। हाल ही में हुए एक तुलनात्मक सर्वेक्षण में तमिलनाडु को सामाजिक विकास में अव्वल पाया गया था। पिछले चुनाव के दौरान करुणानिधि ने दो बड़े वादे किए थे। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत दो रुपए में एक किलो चावल और हर ऐसे घर को मुफ्त रंगीन टीवी, जिसके पास रंगीन टीवी नहीं था। ये दोनों योजनाएं बेहद कामयाब रहीं। गर्भवती स्त्रियों और बेरोजगारों की सहायता के लिए बनाई गई योजनाओं के क्रियान्वयन में प्रशासनिक मशीनरी की अहम भूमिका थी।

इसलिए महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि सार्वजनिक हित की वस्तुओं के दक्ष वितरण के कारण क्या जनता भ्रष्टाचार की भी अनदेखी करने को तैयार हो जाती है? यह धारणा बेबुनियाद नहीं है। दिवंगत वायएस राजशेखर रेड्डी और उनके परिवार के बारे में यह माना जाता था कि आंध्रप्रदेश में मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने खूब पैसा कमाया, लेकिन गरीबों के लिए हितकारी योजनाओं के कारण उन्होंने चुनाव जीतकर सत्ता में वापसी भी की। क्या तमिलनाडु में वायएसआर मॉडल कारगर साबित होगा या करुणानिधि पारिवारिक भ्रष्टाचार की कीच में धंसकर रह जाएंगे? इस प्रश्न के जवाब पर न केवल डीएमके बल्कि केंद्र में यूपीए का भविष्य भी टिका हुआ है।

राजदीप सरदेसाई
लेखक आईबीएन 18 के एडिटर-इन-चीफ हैं।

http://www.bhaskar.com/article/ABH-karunanidhis-political-dynasty-1923346.html

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