Sunday, July 24, 2011

निर्धनता के साथ मजाक

सुप्रीम कोर्ट के इस सवाल पर हमारे नीति-नियंताओं को शर्मिदा होना चाहिए कि आखिर 10-20 रुपये में कोई पौष्टिक भोजन कैसे हासिल कर सकता है? सुप्रीम कोर्ट को योजना आयोग से यह सवाल इसलिए पूछना पड़ा, क्योंकि उसने एक हलफनामा दायर कर यह कहा था कि ग्रामीण क्षेत्र में 17 और शहरी इलाके में 20 रुपये में 2400 कैलोरी युक्त अर्थात पर्याप्त पौष्टिक भोजन हासिल किया जा सकता हैं। इसे निर्धन लोगों के साथ किए जाने वाले मजाक के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। चिंताजनक यह है कि ऐसा मजाक किसी और ने नहीं, बल्कि योजना आयोग ने किया और उसने इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देने में भी संकोच नहीं किया। योजना आयोग को कम से कम गरीबों के साथ तो आंकड़ेबाजी का खेल खेलने से बाज आना चाहिए। योजना आयोग का यह आकलन यही बताता है कि या तो वह जमीनी हकीकत से परिचित नहीं या फिर उसे निर्धन तबके की परवाह नहीं। यदि ऐसा कुछ नहीं है तो फिर यह बताया ही जाना चाहिए कि वह इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचा कि 17 अथवा 20 रुपये में 2400 कैलोरी का भोजन प्राप्त किया जा सकता है? हालांकि उसके पास आड़ लेने के लिए तेंदुलकर कमेटी की सिफारिश है, लेकिन सवाल यह है कि क्या वह हर तरह की सिफारिशों को आंख मूंदकर स्वीकार कर लेता है? आश्चर्य नहीं कि नीति-निर्माताओं के इसी रवैये के कारण देश में कुपोषित लोगों और विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों की संख्या कम होने का नाम नहीं ले रही है। देश के कुछ इलाकों में निर्धन तबके की महिलाओं और बच्चों में कुपोषण का स्तर अनेक अफ्रीकी देशों से भी गया बीता है। यह समझना कठिन है कि केंद्र सरकार ऐसे अविश्वसनीय आंकड़ों के जरिए क्या हासिल करना चाहती है? हो सकता है कि आंकड़ेबाजी का सहारा लेकर वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत वितरित किए जाने वाले खाद्यान्न में कटौती करने अथवा देश में कुपोषण के स्तर को कम करके दिखाने में सक्षम हो जाए, लेकिन इससे हालात बदलने वाले नहीं हैं। केंद्र और राज्य सरकारें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के संदर्भ में चाहे जो दावा करें, सच्चाई यह है कि वे उसमें सुधार करने के लिए गंभीर नहीं। इसका एक प्रमाण तो इससे ही मिल जाता है कि उच्चतम न्यायालय को सार्वजनिक वितरण प्रणाली की खामियों को दूर करने की पहल करनी पड़ रही है। यह आश्चर्यजनक है कि एक ओर खाद्य सुरक्षा विधेयक के जरिए ज्यादा से ज्यादा लोगों को सस्ती दरों पर खाद्यान्न देने की तैयारी की जा रही है और दूसरी ओर किसी को भी हजम न होने वाले आंकड़े पेश किए जा रहे हैं। यदि केंद्र सरकार खाद्य सुरक्षा विधेयक को लेकर तनिक भी गंभीर है तो उसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त करना ही होगा। यह तब होगा जब राज्य सरकारें अपने दायित्वों को समझने के लिए तैयार होंगी। राज्य सरकारें अपने यहां निर्धन तबके के लोगों की संख्या कम करने की केंद्र सरकार की पहल को लेकर तो ऐतराज कर रही हैं, लेकिन वे इसके लिए कोई ठोस कदम उठाने के लिए तैयार नहीं जिससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली दुरुस्त हो। ज्यादातर राज्य सरकारें जिस तरह इस प्रणाली की खामियों को लाइलाज बताने में जुटी हुई हैं उससे उनकी अगंभीरता का ही पता चलता है, क्योंकि तथ्य यह है कि तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में यह प्रणाली संतोषजनक ढंग से काम कर रही है।
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