Monday, July 18, 2011

अतार्किक फैसला

अगर अपने किए अच्छे कामों पर भी बदनामी बटोरनी हो, तो यह कला यूपीए सरकार से सीखी जा सकती है! सूचना का अधिकार कानून इस सरकार की सबसे प्रमुख उपलब्धियों में है, लेकिन समय-समय पर वह इसे भोथरा करने की कोशिश में नजर आने लगती है।

ताजा मामला सीबीआई को इस कानून के दायरे से बाहर करने का फैसला है। जिस समय लोकपाल बिल पर सरकार की मंशा गहरे संदेह के घेरे में है, उसी वक्त यह कदम पारदर्शिता एवं भ्रष्टाचार से लड़ने के उसके इरादे को कितना संदिग्ध बना देगा, इसे शायद सरकार के कर्ता-धर्ताओं ने महसूस नहीं किया है।

फिर यह पहला मौका नहीं है। पहले फाइल नोटिंग्स के सवाल पर सरकार पारदर्शिता के खिलाफ खड़ी नजर आ चुकी है। फिर उसने ‘तुच्छ’ आवेदनों पर सूचना न देने, हर सूचना के लिए अलग आवेदन देने और आवेदन को 250 शब्दों तक सीमित करने के प्रावधान लागू करने की कोशिश की।

इन सभी मौकों पर उसे भारी जन दबाव के आगे झुकना पड़ा। अब प्रस्तावित नेटग्रिड और राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) के साथ सीबीआई को भी इस कानून के दायरे से बाहर करने का विवादास्पद फैसला किया गया है।

यह फैसला कितना अतार्किक है, यह इसी से जाहिर है कि सीबीआई के दो पूर्व निदेशकों ने लिखित रूप से कहा था कि ऐसा करने की जरूरत नहीं है। सीबीआई आम जांच एजेंसी और खुफिया एजेंसी- दोनों भूमिकाओं में काम करती है।

खुफिया एजेंसी के रूप में किए अपने कार्यो को गोपनीय रखने की मांग वह आरटीआई की संबंधित धारा के तहत करने में सक्षम है। मगर आम जांच एजेंसी के रूप में उसके काम भी आमजन की जानकारी में न आएं, इसे इस दौर में स्वीकार नहीं किया जा सकता।

इसलिए बेहतर है कि सरकार जल्द से जल्द इस फैसले को पलट दे। यह जितना आरटीआई के कारगर औजार बने रहने के लिए जरूरी है, उतना ही सरकार की साख के लिए भी।



Source: भास्कर न्यूज Last Updated 00:03(24/06/11)

No comments: