अय्यर ने दिल्ली के जिन ठिकानों का जिक्र अपने भाषण में किया, उनकी जगह आप दूसरी पार्टियों के ठिकानों को लिख दें तो हर जगह आपको वही तस्वीर नजर आएगी, जो अय्यर ने कांग्रेस के संदर्भ में बताई है।
जिन नेताओं को पार्टी में आगे बढ़ना है, या अपना कोई काम करवाना है, उन्हें आलाकमान के आगे-पीछे घूमते हर पार्टी में देखा जा सकता है। गुजरते दशकों के साथ राजनीतिक दलों में केंद्रीकरण की प्रवृत्ति इस हद तक बढ़ गई है कि आज कोई नेता कार्यकर्ताओं के समर्थन या अपने क्षेत्र में जनाधार की ताकत से आगे बढ़ने की अधिक उम्मीद नहीं रखता।
उसे राजधानी में वरदहस्त चाहिए। अगर हम ब्रिटेन या अमेरिका जैसे देशों पर गौर करें तो वहां के लोकतंत्र में चाहे जो खामियां हों, बड़े नेताओं की चरणवंदना की ऐसी संस्कृति तो वहां नजर नहीं आती। ऐसा इसलिए है कि वहां उम्मीदवारों का चयन चुनाव क्षेत्रों या राज्यों में कार्यकर्ताओं के मतदान से होता है।
पार्टी में आगे बढ़ने के लिए पहले आपको उन कार्यकर्ताओं में लोकप्रिय होना पड़ता है। भारत में जब चुनाव सुधारों पर चर्चा तेज है, तब यह पहलू विचार-विमर्श से बिल्कुल गायब है। नेता और नीतियों का उभार जब तक नीचे से नहीं होगा, तब तक कार्यकर्ता पार्टी मुख्यालय को ‘मंदिर’ मान उसे दास भाव से देखते रहेंगे।
उनकी दिल्ली की दौड़ लगी रहेगी। इसी रुझान ने राजनीतिक पार्टियों को ‘सर्कस’ बना दिया है। मणिशंकर अय्यर की बातें खारिज करने की नहीं, बल्कि गौर करने की हैं।
Source: भास्कर न्यूज
http://www.bhaskar.com/article/ABH-mirror-of-reality-2295904.html
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