Tuesday, June 29, 2010

दो राष्ट्रीय दलों की सीख

स्वस्थ राजनीतिक परंपराओं को दफन करने के मामले में कांग्रेस-भाजपा को एक जैसा बता रहे हैं राजीव सचान
कांग्रेस और भाजपा दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े राजनीतिक दल हैं, लेकिन इन दोनों दलों में प्राय: अद्भुत समानता दिखने लगती है। आम तौर पर ऐसा तब अधिक होता है जब इन दलों को अपने राजनीतिक स्वार्थो का संधान करना होता है। हाल में गोवा की कांग्रेस सरकार ने अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत करने के लिए जो कुछ किया वह ठीक वैसा ही था जैसा कुछ समय पहले कर्नाटक में भाजपा ने किया था। 24 जून की सुबह गोवा के निर्दलीय विधायक और स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणे ने विधायक और मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया, दोपहर को वह कांग्रेस में शामिल हो गए और शाम को उन्हें मंत्री पद की शपथ दिला दी गई। विश्वजीत राणे के पहले यूनाइटेड गोवा डेमोक्रेटिक पार्टी के विधायक और शिक्षा मंत्री ए।मोंसेराते ने भी इसी तरह कांग्रेस का दामन थामा था। ये दोनों नेता शीघ्र ही अपनी रिक्त सीटों से विधानसभा चुनाव लड़ेंगे और इस तरह कांग्रेस पहले से मजबूत हो जाएगी। विश्वजीत राणे और मोंसेराते के पिछले दरवाजे से कांग्रेस और सरकार में शामिल होने पर एक पत्ता भी नहीं खड़का। दरअसल कांगे्रस को इस पर कुछ कहने की जरूरत नहीं थी और भाजपा इसलिए नहीं बोली, क्योंकि वह इसी तरीके से बहुमत हासिल करने की कवायद को कर्नाटक में अंजाम दे चुकी है। जब येद्दयुरप्पा ने कर्नाटक में इसी तरह अपना बहुमत मजबूत किया था तो कांग्रेस ने उसे लोकतंत्र विरोधी और न जाने क्या-क्या करार दिया था। अब यदि कल को कोई गैर कांग्रेस और गैर भाजपा सरकार इसी तरह का कदम उठाती है तो न तो कांगे्रस के पास कहने के लिए कुछ होगा और न भाजपा के पास। यदि कोई कुछ कहेगा भी तो उक्त सरकार के पास यह एक मजबूत तर्क होगा कि हमने वही किया जो कांगे्रस और भाजपा कर चुकी हैं। एक तरह से कांग्रेस और भाजपा ने एक नई राजनीतिक परंपरा की शुरुआत कर दी। इस पर गौर किया जाना चाहिए कि इस परंपरा का निर्माण दलबदल रोधी कानून में छिद्र कर और साथ ही संविधान की इस रियायत का दुरुपयोग करते हुए किया गया कि किसी गैर निर्वाचित सदस्य को छह माह के लिए मंत्री बनाया जा सकता है। संविधान निर्माताओं ने यह सोचा भी नहीं होगा कि उनके द्वारा बनाई गई इस व्यवस्था का ऐसा बेजा इस्तेमाल किया जाएगा। इसी तरह दलबदल विरोधी कानून में संशोधन करते समय शायद ही किसी ने यह सोचा हो कि निर्दलीय विधायकों को कोई सत्तारूढ़ दल इस तरह अपने दल में शामिल करेगा। राजनीतिक शुचिता और लोकतांत्रिक मर्यादाओं का निरादर करने वाले तौर-तरीकों ने परंपरा का रूप इसी तरह लिया है। पहले एक राजनीतिक दल गलत उदाहरण पेश करता है। बाद में दूसरा दल भी उसका अनुसरण करता है और इस तरह एक परंपरा बन जाती है। कई बार यह भी होता है कि गलत उदाहरण का अनुकरण कहीं भद्दे तरीके से किया जाता है, लेकिन इस तर्क के साथ कि हमने तो वही किया जो फलां ने इसके पहले किया था। कभी-कभी कोई राजनीतिक दल अतीत में किए गए अपने ही गलत आचरण को और गलत तरीके से दोहराता है। हाल ही में मणिशंकर अय्यर राष्ट्रपति की ओर से नामित होने वाले राज्य सभा सदस्यों की सूची में शामिल होकर उच्च सदन में आ गए और किसी ने चूं तक नहीं की। इसलिए नहीं की, क्योंकि विगत में ऐसा हो चुका है। यानी लोकसभा चुनाव हारने वाले नेताओं को समाजसेवी, बुद्धिजीवी वगैरह बताकर राष्ट्रपति के कोटे से राज्यसभा ले आया गया है। सबसे पहला उदाहरण वैजयंती माला बाली का था। मणिशंकर अय्यर को बुद्धिजीवी या समाजसेवी बताने में कोई हर्ज नहीं, लेकिन तथ्य यह है कि वह लोकसभा चुनाव हार गए थे और कांगे्रस को जब उन्हें राज्यसभा में लाने का कोई उपाय नजर नहीं आया तो पिछले दरवाजे यानी राष्ट्रपति के कोटे का सहारा लिया गया। हाल ही में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती फिर से विधान परिषद के लिए निवार्चित हुईं। वह उत्तर प्रदेश की पहली ऐसी मुख्यमंत्री हैं जो विधान परिषद की सदस्यता के सहारे इतने लंबे अर्से से इस पद पर बनी हुई हैं। फिलहाल ऐसे कोई आसार नहीं हैं कि वह विधानसभा का चुनाव लड़ने का इरादा रखती हैं। शायद वह अपना कार्यकाल इसी तरह गुजार देंगी। इस पर किसी राजनीतिक दल को आपत्ति भी नहीं है कि वह विधानसभा की सदस्य क्यों नहीं हैं? इसकी एक वजह तो यह है कि भाजपा के रामप्रकाश गुप्त 11 माह तक विधान परिषद का सदस्य रहते हुए मुख्यमंत्री रह चुके हैं और दूसरी वजह, जो कहीं वजनदार है, यह है कि मनमोहन सिंह छह साल से लोकसभा का चुनाव लड़े बगैर प्रधानमंत्री पद पर आसीन हैं। उन्होंने न तो अपने पहले कार्यकाल में लोकसभा का चुनाव लड़ने में दिलचस्पी दिखाई और न ही इस कार्यकाल में दिखा रहे हैं। वह एक मात्र ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं। नि:संदेह संविधान इसकी अनुमति देता है कि राज्यसभा का सदस्य भी मंत्री अथवा प्रधानमंत्री बन सकता है, लेकिन मनमोहन सिंह के पहले परंपरा यह थी कि जो नेता लोकसभा का सदस्य न रहते हुए प्रधानमंत्री पद पर पहुंचे उन्होंने लोकसभा का चुनाव अवश्य लड़ा। इसके पीछे मान्यता यह थी कि जो राजनेता लोकसभा के बहुमत से प्रधानमंत्री बनता है उसे इस सदन का सदस्य तो होना ही चाहिए। अब यदि कोई नेता विधान परिषद का सदस्य रहते हुए मुख्यमंत्री बना रहता है तो कोई भी यह कहने का साहस नहीं जुटा सकता कि उसे विधानसभा का चुनाव लड़कर आना चाहिए। जो ऐसा कहेंगे भी उनकी बोलती बंद करने के लिए मनमोहन सिंह का नाम लेना भर पर्याप्त होगा। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

Friday, June 25, 2010

लोकतंत्र को तानाशाही में बदलने वाली कांग्रेस

आपातकाल के दौरान संविधान के साथ हुए खिलवाड़ का स्मरण कर रहे हैं ए सूर्यप्रकाश
25 जून आपातकाल की वर्षगांठ है। आपातकाल जिसे दूसरे शब्दों में तानाशाही भी कह सकते हैं, 19 महीने तक जारी रहा। कांग्रेस के विरोधी राजनेताओं को जेल में डाल दिया गया था, मूल अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था, मीडिया पर सेंसरशिप थोप दी गई थी और लोकतंत्र पर पर्दा डाल दिया गया था। कांग्रेस द्वारा फैलाए गए आतंक ने संसद को रबर स्टांप बना दिया था और यहां तक कि न्यायपालिका भी इस अत्याचार के खिलाफ खड़ी नहीं हुई थी। आपातकाल की कहानी बहुत लंबी है, जिसे एक अध्याय में नहीं समेटा जा सकता। इसकी व्याख्या राष्ट्र के प्रत्येक अंग से संबंधित अध्यायों में अलग की जा सकती है। फिलहाल हम मात्र एक घटक-संविधान पर आघात की चर्चा कर रहे हैं। आपातकाल की कहानी न्यायाधीश जगमोहन सिन्हा के एक फैसले से शुरू होती है, जिन्होंने 1971 में रायबरेली लोकसभा चुनाव के दौरान इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध करार दिया और उन्हें छह साल के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया। न्यायाधीश ने पाया कि उन्होंने निर्वाचन कानूनों के बहुत से प्रावधानों का उल्लंघन किया है। इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की, जहां से उन्हें सशर्त स्टे मिल गया। न्यायाधीश वीआर कृष्णा अय्यर ने उन्हें संसद में जाने की तो अनुमति दे दी, किंतु बहस और मतदान में भाग लेने से प्रतिबंधित कर दिया। उन्होंने यह मामला बड़ी पीठ के पास भेज दिया। अब इंदिरा गांधी के पास यही चारा रह गया था कि पीठ का फैसला आने तक वह इस्तीफा दे दें, किंतु अपने परिजनों और खुशामद करने वालों के कहने पर उन्होंने न्यायपालिका को चुनौती देने की ठान ली। संविधान के एक कभी इस्तेमाल न किए जाने वाले प्रावधान का दुरुपयोग करते हुए उन्होंने आंतरिक उपद्रव से निपटने के नाम पर आपातकाल थोप दिया। उन्होंने राष्ट्रपति से संवैधानिक अधिकार स्थगित करने और संघीय सरकार को असीमित अधिकार देने की घोषणा करवा ली। राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री के साथ देर रात वार्ता के बाद अधिघोषणा जारी की। इस संबंध में मंत्रिमंडल में कोई विचार-विमर्श नहीं किया गया, बल्कि अगली सुबह मंत्रिमंडल को मात्र सूचना दी गई। 27 जून, 1975 को राष्ट्रपति ने आदेश जारी किया, जिसमें नागरिकों को मूल अधिकारों के उल्लंघन पर अदालत में जाने से वंचित कर दिया गया। ये मूल अधिकार अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समता और संरक्षण), अनुच्छेद 21 (कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित न करना) और अनुच्छेद 22 (आधार की सूचना दिए बिना गिरफ्तारी) के तहत आम आदमी को दिए गए हैं। इस आदेश के प्रभाव से नागरिकों से जीवन और स्वतंत्रता का मूलाधिकार छीन लिया गया। बाद में उन्होंने अनुच्छेद 19 के तहत स्वतंत्रता की बहाली के लिए अदालत में जाने के अधिकार को भी स्थगित कर दिया। इस तरह तानाशाही की बुनियाद रख दी गई। इसके तुरंत बाद 38वें संशोधन द्वारा संविधान पर आघात जारी रखा गया, जिसने राष्ट्रपति की घोषणाओं और मूलाधार का उल्लंघन करने वाले केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों पर अदालती हस्तक्षेप खत्म कर दिया। तब 39वां संशोधन आया, जिसने सुप्रीम कोर्ट को प्रधानमंत्री के निर्वाचन पर सुनवाई से रोक दिया। इसे पारित करने में बेहद जल्दबाजी की गई। यह संशोधन भारत के इतिहास में सबसे तेजी के साथ किए गए संशोधन के रूप में कुख्यात है। इसे 7 अगस्त, 1975 को लोकसभा में पेश किया गया और उसी दिन मात्र दो घंटे की बहस के बाद यह पारित हो गया। 8 अगस्त, 1975 को राज्यसभा में पेश किया गया और फिर से उसी दिन पारित कर दिया गया। 9 अगस्त, शनिवार को तमाम प्रदेश विधानसभाओं का सत्र बुलाया गया और इस पर मुहर लगवा ली गई। 10 अगस्त, 1975 को रविवार के दिन इसे राष्ट्रपति की सहमति मिल गई। इस तेज रफ्तार का राज यह था कि कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट को 11 अगस्त, 1975 को इंदिरा गांधी के मामले में सुनवाई से रोकना चाहती थी। अफसोस की बात यह है कि इस रफ्तार पर अंकुश लगाने के लिए कोई संवैधानिक नियंत्रण मौजूद नहीं था। अपने नेता को कानून से ऊपर स्थापित करने के लिए कांग्रेस इतनी बेकरार थी कि इसने लापरवाही और निरंकुशता की सभी हदें पार कर दीं। राज्यसभा में 39वां संशोधन पारित होने के अगले ही दिन 9 अगस्त को सरकार ने 41वें संशोधन को पेश कर दिया। इस दौरान संसद एक बंधक विधायी मशीन बनकर रह गई, जो एक व्यक्ति-प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पक्ष में संविधान संशोधन पर मुहर लगाती चली गई। इस संशोधन द्वारा प्रधानमंत्री को हास्यास्पद रूप से कानून से ऊपर स्थापित करने की अवधारणा ने जन्म लिया। इसमें कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति के कृत्यों के खिलाफ अदालती कार्यवाही नहीं की जा सकती जो प्रधानमंत्री है या रह चुका है। ये कृत्य कार्यकाल के दौरान या इससे पहले के हो सकते हैं। इस संशोधन ने हमारे संविधान की बुनियाद ही हिला डाली, क्योंकि कानून के समक्ष समता और सभी कानूनों को समान रूप से लागू करना लोकतांत्रिक संविधान का मूल ढांचा है। राज्यसभा द्वारा अनावश्यक जल्दबाजी दिखाते हुए इस संशोधन को पारित करने के बावजूद सौभाग्य से इस पर पुनर्विचार हुआ और निचले सदन में इसे पेश नहीं किया जा सका। इसी दौरान 40वां संशोधन भी पारित हुआ, जिसने मीडिया विरोधी कानून बनाया। 42वें संशोधन ने लोकतांत्रिक संविधान के ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी। इसका प्राथमिक उद्देश्य न्यायपालिका के पर कतरना था। इसमें कहा गया कि संविधान में संशोधन का संसद को असीमित अधिकार है और किसी भी अदालत में किसी भी आधार पर इसे चुनौती नहीं दी जा सकती। इसका मतलब यह हुआ कि संसद को संविधान को कायम रखने या नष्ट करने का निरंकुश अधिकार हासिल है। 42वें संशोधन के दो और आपत्तिजनक पहलू थे। एक तो इसने संविधान संशोधन के लिए निर्धारित न्यूनतम समर्थन का प्रावधान खत्म कर दिया। इस प्रकार मुट्ठीभर कांग्रेस सांसदों के लिए यह संभव हो गया कि वे देर रात को संसद में बैठकर अपनी मर्जी से देश के लिए कानून बनाते रहें। दूसरे, इसने राष्ट्रपति को कार्यकारी आदेश द्वारा संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन की शक्ति दे दी। इतिहास गवाह है कि हिटलर और मुसोलिनी उन लोगों में शामिल थे, जिन्होंने संविधान की इस प्रकार की शक्तियों को हासिल किया था। इन संशोधनों के द्वारा संविधान की आत्मा कुचल दी गई और भारत में तानाशाही का सूत्रपात हुआ। सौभाग्य से, मार्च 1977 में लोगों ने कांग्रेस को उखाड़ फेंका। सत्तारूढ़ जनता पार्टी ने इन असंवैधानिक संशोधनों को वापस लेकर संविधान में लोकतांत्रिक मूल्य फिर से स्थापित किए। विडंबना यह है कि लोकतंत्र को तानाशाही में बदलने वाली कांग्रेस को अपने किए पर कोई अफसोस नहीं है। इसके विपरीत बहुत से नेता यह दलील रखते हैं कि कांग्रेस के पास आपातकाल थोपने के अलावा कोई चारा नहीं था। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

कारोबारी हितों के नीचे दबा है मीडिया

हाल ही में मैंने अलग-अलग संस्थानों से आए 500 स्नातकोत्तर विद्यार्थियों की एक सभा को संबोधित किया। उनसे जब यह पूछा गया कि उनमें से कितने मीडिया (प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक) का भरोसा करते हैं। इस जवाब में दस से भी कम हाथ उठे। अगर यह सवाल अस्सी के दशक में पूछा जाता तो ज्यादा हाथ उठते। उस समय अखबारों के सकरुलेशन की तुलना में उनकी पाठकों की संख्या का जिक्र किया जाता था। पाठकों की संख्या सकरुलेशन यानी प्रसार से छह गुना ज्यादा होती थी। आज की तारीख में सकरुलेशन बढ़ी और अखबारों की बिक्री भी। लेकिन क्या पठनीयता भी बढ़ी है। बहुत से लोग अखबार खरीदते हैं लेकिन हमेशा पढ़ते नहीं। इसकी दो वजहें है। पहली- निजी सौदेबाजी या कांर्ट्ेक्ट और दूसरा पेड न्यूज। पहले का संबंध बिजनेस की खबरों से है और दूसर का संबंध राजनीतिक खबरों से। एक राष्ट्रीय दैनिक को इस नई खोज का श्रेय जाता है। मामला बेहद आसान है। कोई मीडिया हाउस उस कंपनी में हिस्सेदारी खरीदता है जो शेयर मार्केट में पहले से सूचीबद्ध है या सूचीबद्ध होने जा रही है। बदले में मीडिया हाउस कंपनी के पक्ष में कवरज करता है। कंपनी के बार में नकारात्मक खबरों को दरकिनार कर दिया जाता है।जब से संपादकीय और विज्ञापन की बारीक रखा मिटी है, निजी सौदेबाजियों ने स्वतंत्र मीडिया की अवधारणा काफी हद तक नुकसान पहुंचाया है। न्यूज स्पेस अब बिकाऊ हो गए हैं। सेबी ने 15 जुलाई , 2009 को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को पत्र लिख कर इस प्रवृति के बार में सचेत किया था। लेकिन प्रेस काउंसिल तो कागजी शेर से ज्यादा कुछ नहीं है। करोड़ों में खेलने वाली सैकड़ों कंपनियां आजकल मीडिया फ्रैंडली बनी हुई हैं। इस एवज में मीडिया ने भी समझौतावादी रुख अपना लिया है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बार में तो जितना कम कहा जाए तो उतना अच्छा। ऐसे मीडिया के लिए एंकर इन्वेस्टर शब्द का इस्तेमाल ज्यादा प्रासंगिक रहेगा। इस समय दर्जनों विशेषज्ञ और सलाहकार पैदा हो गए हैं, जो दर्शकों को इस और उस कंपनी के शेयर खरीदने की सलाह देते रहते हैं। यहां आपको कोई द्वंद्व या विवाद नहीं दिखेगा। यह सिर्फ आपसी हितों की बात होती है।जमीनी स्तर पर तो हालात बेहद खराब हैं। प्रेस कांफ्रेंस अब लिफाफा कांफ्रेंस कही जाने लगी हैं। कंपनियां अपने पक्ष में खबर छपवाने के लिए पत्रकारों को लिफाफे में भर कर पैसे देती हैं। हालांकि हर पत्रकार के बार में ऐसा नहीं कहा जा सकता। लेकिन आप लिफाफा नहीं देते हैं तो पक्ष में खबर छपने की उम्मीद मत करिये। जब मैंने एक नामी कंपनी के अधिकारी के सामने इस पर आश्चर्य जताया तो उन्होंने कहा आप लिखने-पढ़ने की दुनिया में रमे हैं। एकेडेमिक हैं। आपको जमीनी हकीकत की जानकारी नहीं है। राजनीतिक भाषा में ऐसी खबरों को पेड न्यूज कहा जाता है। महाराष्ट्र में हाल में हुए चुनाव में पेड न्यूज के कई उदाहरण दिखे। कुछ रिपोर्टरों के दबाव व में प्रेस परिषद ने इस मामले के अध्ययन के लिए दो लोगों की कमेटी गठित की। कमेटी ने जो ड्राफ्ट रिपोर्ट पेश की उससे यह निष्कर्ष उभर कर सामने आया कि पेड न्यूज से लोकतांत्रिक मूल्य को चोट पहुंचती है। क्षेत्रीय भाषाओं की बात करें तो, वहां आपको ऐसे राजनीतक नेता मिल जाएंगे जो किसी न किसी अखबार या मीडिया हाउस के मालिक होंगे।पिछले कुछ समय से मीडिया में सुस्ती और दब्बूपन जैसी स्थिति दिखने लगी हैं। हालात दिनोंदिन और खराब ही हो रहे हैं। कुछ उदाहरणों का जिक्र करते हैं। इस देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी कांग्रेस की प्रमुख ने शायद ही किसी मीडिया हाउस को कोई इंटरव्यू दिया हो। न ही उन्होंने किसी ओपन हाउस को संबोधित किया है। यह लाइबेरिया या सोमालिया में संभव है लेकिन भारत में नहीं। लेकि न मीडिया ने इस हालात को स्वीकार कर लिया है।भोपाल त्रासदी में मीडिया ने सारा फोकस एंडरसन पर किया हुआ है। लेकिन केशब महिंद्रा के बार में क्या क हेंगे? केशब महिंद्रा को इस त्रासदी के बाद महत्वपूर्ण पद दिया गया था। लेकिन उनके साथ कोई इंटरव्यू नहीं हुआ। उनके बार में कोई बात नहीं हुई। भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड के फैक्टरी इंस्पेक्टरों का क्या हुआ। उस समय जो मंत्री और उद्योग सचिव प्रभारी थे, उनका क्या हुआ। मीडिया का फोकस कुछ इस तरह से है, मानो एंडरसन ही अकेल अमेरिका से फैक्ट्री चला रहा होगा। भ्रष्ट नौकरशाह और राजनीतिक नेताओं को बेनकाब करना चाहिए। लेकिन मीडिया इस मामले पर चुप्पी साधे हुए है।हाल में बिहार और पश्चिम बंगाल में तूफान से सैकड़ों लोग मर। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चुप रहा क्योंकि उसका सारा ध्यान आईपीएल स्कैंडल में था। कुछ अखबारों ने इन आपदाओं को अपने पन्ने पर बहुत कम जगह दी। अमेरिका और यूरोप में कुछ अखबार आर्ट, ओपेरा, थियेटर और म्यूजिक की खबरं छाप कर अप-मार्केट बने। लेकिन हमार यहां पेज 3 छाया हुआ है। मीडिया भारत को एक सभ्यता नहीं बल्कि एक बाजार मानता है। भारत में लाखों कार बिकती है। जिस दिन यह आंकड़ा चीन में कारों की बिक्री से एक भी ज्यादा हो जाएगा, उस दिन भारत का मीडिया जश्न मनाएगा। मीडिया में काम करने वाले कुछ लोग वास्तव में इस भारत के नागरिक ही नहीं हैं। होना तो यह चाहिए कि जब वे भारत की सुरक्षा पर लिखें और बोलें तो एक डिस्क्लेमर लगाना चाहिए। पारदर्शिता के लिए उन्हें इतना तो करना ही चाहिए।
Source: आर वैद्यनाथन
Published: Wednesday, June 23,२०१०

साभार:-बिजनेस भास्कर

Wednesday, June 23, 2010

राजनीतिक मूल्यों की स्थापना

राजनीतिक मूल्यों की स्थापना के लिए आम जनता और बुद्धिजीवियों का सकारात्मक हस्तक्षेप जरूरी बता रहे हैं डॉ. निरंजन कुमार
चर्चित फिल्म राजनीति एक तरह से आज की भारतीय राजनीति का आईना है। फिल्म में सत्ता के लिए जो हिंसा, छल-फरेब, पैसों का लेन-देन, नेताओं की खरीद-फरोख्त आदि दिखाई गई है, वह सच्चाई से बहुत परे नहीं है। कुछ लोगों को यह फिल्म निराश कर सकती है, लेकिन आज हमारे स्वाधीनता आंदोलन के दौर के नेताओं की खेप खत्म हो चुकी है, जिन्होंने राजनीति में कदम एक मिशन के तौर पर रखा था। तिलक, गांधी, नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद, सुभाष और अंबेडकर आदि के लिए सियासत देश सेवा का माध्यम थी। लेकिन आजादी के बाद राजनीति का धीरे-धीरे जो पतन शुरू हुआ, वह आज अपने चरम पर पहुंच चुका है। नेताओं ने राजनीति को इतना हावी कर दिया है कि हर चीज राजनीति से तय होने लगी है। हमारे नेताओं ने सभी जनतांत्रिक संस्थाओं को ध्वस्त कर दिया है, पारदर्शिता खत्म हो गई है। हर काम के लिए नेताओं के चक्कर लगाइए, जुगाड़, सिफारिश या घूस दीजिए। मुझे अपने अमेरिकी मित्र की बात याद आती है, जो हाल ही में भारत भ्रमण पर आए थे। मैंने उनसे पूछा कि भारत में उन्हें क्या खास लगा? उनका जवाब चौंकाने वाला था कि भारत जगह-जगह राजनीतिक पार्टियों के पोस्टर-बैनर या फिर राजनेताओं के बड़े-बड़े साइनबोर्ड या तस्वीर दिखाई पड़ती हैं। बरबस मुझे अमेरिका की याद आई। वहां इस तरह के पोस्टर और साइनबोर्ड आप नहीं पाएंगे। राजनीतिक-समाजशास्ति्रयों ने अपने अध्ययनों में बताया है कि जो समाज अपेक्षाकृत बंद हो, जहां जड़ता अधिक हो और आगे बढ़ने में जाति, मजहब जैसे आदिम तत्वों की भूमिका महत्वपूर्ण हो, वहां राजनीति ही सामाजिक गतिशीलता का सबसे प्रभावी माध्यम हो जाता है। फिर सियासत सामाजिक गतिशीलता तक ही सीमित न रहकर एक कुरूप चेहरा धारण करने लगती है। यह सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ-साथ, धन कमाने का भी साधन हो जाती है। राजनीतिक प्रभाव से वैध-अवैध तरीके से धन कमाना कोई गुप्त बात नहीं रह गई है। राजनीतिक प्रभाव से पेट्रोल पंप, गैस एजेंसी हासिल करने से लेकर सरकारी ठेके हथियाना और काले धंधों के द्वारा करोड़ों-अरबों का घोटाला करना आम बात हो गई है। फिर, कई मामलों में नेता-मंत्री अपने को देश के कानून-संविधान आदि से भी ऊपर समझने लगते हैं। संविधान के अनुच्छेद 14 में स्पष्ट उल्लेख है कि कानून के समक्ष सभी समान होंगे। लेकिन इस सैद्धांतिक वाक्य की पोल इसी बात से खुल जाती है कि अपवादों को छोड़ दें तो किसी भी गबन, घोटाले, अपराध, हत्या, अपहरण आदि में शामिल या लिप्त होने के बावजूद राजनेताओं का कुछ नहीं बिगड़ता। कोर्ट में मामला इस तरह उलझा दिया जाएगा, या फिर पुलिस, सीबीआई केस को इतना कमजोर कर देंगी या इतनी धीमी गति से कार्रवाई चलेगी कि मुकदमा आजीवन चलता रहेगा। अंग्रेजी उपन्यास एनीमल फार्म की तर्ज पर नेता शायद यह सोचते हैं कि सब समान हैं किंतु वे कुछ अधिक ही समान हैं। राजनेता और मंत्री इतने शक्तिशाली हो गए हैं कि तमाम सरकारी-गैर सरकारी पदों पर अवैध नियुक्तियां करवा सकते हैं। कुछ ही दिन पहले झारखंड में लोक सेवा आयोग के परिणामों के घोटाले का पर्दाफाश हुआ। सफल उम्मीदवारों में दो दर्जन नेताओं के बंधु-बांधव हैं। पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा और मधु कोड़ा, पूर्व उप मुख्यमंत्री सुदेश महतो तक के लोग इन उम्मीदवारों में हैं। सिपाही बहाली से लेकर शिक्षक-नियुक्ति तक में लाखों की रिश्वत चलती है। विश्वविद्यालयों के कुलपतियों से लेकर लोकसेवा आयोग के सदस्यों तक की नियुक्ति ये नेता ही करते हैं। यह अलग बात है कि वे खुद चाहे मिडिल पास भी न हों। इसी तरह जिंदगी में क्रिकेट का बैट चाहे न पकड़ा हो, टेनिस का रैकेट न छुआ हो, पर खेल संगठनों के सर्वोच्च पदों पर राजनेता ही विराजमान होंगे। हर जगह उन्हें वीआईपी ट्रीटमेंट मिलेगा। यह अनायास नहीं कि आज देश की संसद से लेकर विधानसभाओं में अपराधियों की संख्या बढ़ती जा रही है और बात एक पार्टी तक सीमित नहीं है। फिर नेता बनने के लिए किसी योग्यता-अर्हता की भी जरूरत नहीं। कोई कठिन परीक्षा पास नहीं करनी। अनपढ़ हों, बदमाश हों, हिस्ट्रीशीटर हों, सामाजिक-राजनीतिक जीवन का कोई अनुभव न हो; कोई बात नहीं। आपके पास धनबल, बाहुबल और जातिबल होना चाहिए; देश की भोली-भाली जनता आपको इन्हीं के आधार पर जिता देगी। कम से कम अब लोगों को समझ जाना चाहिए कि क्यों हमारा देश इतने अच्छे संविधान, अच्छी नीतियों के बावजूद पीछे है। अमेरिका में राजनीतिज्ञों का वह रुतबा नहीं है, जो भारत में है। हर काम अपने रूटीन तरीके और आसानी से हो जाता है। बिजली का कनेक्शन लेना हो या कालोनी में नाली बनवाना हो, नेताओं के चक्कर काटने के कोई जरूरत नहीं। लोकतांत्रिक और शासन संस्थाएं स्वत: और सुचारू रूप से कार्य करती हैं। अगर कोई कानून तोड़ता है तो उसे सजा जरूर मिलेगी, चाहे वह राष्ट्रपति का बेटा ही क्यों न हो। बिल क्लिंटन की बेटी को कार चलाते वक्त कानून के उल्लंघन पर सजा मिली थी। वहां राजनीति में वही जाते हैं जो सचमुच सार्वजनिक जीवन से जुड़ना चाहते हैं। इस देश को अगर आगे बढ़ना है तो आम जनता और बुद्धिजीवियों को राजनीति में सकारात्मक हस्तक्षेप करना होगा। तभी हम दुनिया के सामने अपने देश और राजनीति की वह तस्वीर पेश कर सकेंगे जो राजनीति फिल्म से अलग हो। (लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
साभार:- दैनिक जागरण

सुशासन और जवाबदेही

भोपाल गैस त्रासदी से संबंधित बहस में सुशासन का बुनियादी मुद्दा न उठने पर निराशा जता रहे हैं के. सुब्रहमण्यम
यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वारेन एंडरसन को 8 दिसंबर 1984 को भारत छोड़कर भाग जाने का मौका देने के लिए कौन जिम्मेदार था, यह सवाल भोपाल गैस त्रासदी के मामले में अदालती फैसला आने के बाद देश में चल रही बहस का केंद्र बिंदु है। लगभग 25000 लोगों की मौत का कारण बनने वाली भोपाल गैस दुर्घटना में लापरवाही का परिचय देने के कारण यूनियन कार्बाइड से जुड़े आठ लोगों को दो-दो साल कैद की मामूली सजा सुनाई गई है। इस फैसले के बाद से ही लोगों में नाराजगी व्याप्त है। मंत्रियों का एक समूह इस सवाल पर माथापच्ची कर रहा है कि अब क्या किया जा सकता है-खासकर मुआवजे और पुनर्वास को लेकर? भोपाल गैस कांड के संदर्भ में कुछ तथ्य ऐसे हैं जिनसे इनकार नहीं किया जा सकता। यूनियन कार्बाइड भोपाल में एक भीड़भाड़ वाले स्थान में अत्यधिक खतरनाक जहरीली सामग्री से संबंधित एक केमिकल प्लांट का संचालन कर रही थी। यह मानने के भी पर्याप्त कारण हैं कि सुरक्षा संबंधी मानक एकदम चाक-चौबंद नहीं थे। त्रासदी के कुछ माह पहले के समय में गैस लीक से संबंधित छोटे-मोटे हादसे हुए। खतरे के संबंध में कुछ लेख भी मीडिया में प्रकाशित हुए। मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने प्लांट का दौरा किया और विधानसभा को सूचित किया कि प्लांट सुरक्षित है। इसके बावजूद जिस तरह इतना बड़ा हादसा हुआ उससे यूनियन कार्बाइड और उसकी सहयोगी भारतीय कंपनी की लापरवाही एकदम स्पष्ट हो जाती है। इस मामले में भारत सरकार जितने मुआवजे पर सहमति हुई वह हादसे की भयावहता को देखते हुए नाममात्र का ही कहा जा सकता है। इसमें किसी को संदेह नहीं हो सकता कि दोषियों को दो-दो वर्ष के कारावास की जो सजा सुनाई गई वह न्याय के तंत्र का उपहास ही है। यह विचित्र है कि भोपाल त्रासदी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा रहा। वारेन एंडरसन, यूनियन कार्बाइड और भारतीय प्रबंधन की जवाबदेही तथा न्यायपालिका के रवैये पर सही ध्यान दिया जा रहा है, जिसने लापरवाही के आरोप घटा दिए, लेकिन इस त्रासदी का सबसे बड़ा गुनहगार तो अच्छे, प्रभावशाली और परवाह करने वाले शासन का अभाव है। दुर्भाग्य से इस पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा। जिन मुद्दों पर बहस चल रही है वे तो सुशासन के अभाव के मुख्य मुद्दे के छोटे-छोटे पहलू ही हैं। सबसे पहले तो यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि खतरनाक रसायनों का काम करने वाली फैक्ट्री को किसने इतने भीड़-भाड़ वाले इलाके में काम करने की अनुमति दी? क्या वहां बस्ती पहले से कायम थी या फिर बाद में धीरे-धीरे लोग आकर बसने लगे? फैक्ट्री के निरीक्षण और सुरक्षा से संबंधित रपटों का क्या हुआ? जब मीडिया में फैक्ट्री को लेकर खतरे की खबरें प्रकाशित हो रही हैं तब किस पर कार्रवाई की जिम्मेदारी थी? क्या वे सभी लोग इतने बड़े हादसे के जिम्मेदार नहीं हैं? सरकारी तंत्र में जिन लोगों ने अपने दायित्वों की अनदेखी की उनके खिलाफ नरसंहार का मुकदमा क्यों नहीं चलना चाहिए? हमारे कानून में ऐसे प्रावधान हैं जिनके जरिए उन गतिविधियों को रोका जा सकता है जिनसे लोगों की जान को खतरा हो। उन प्रावधानों का इस्तेमाल अधिकारियों ने क्यों नहीं किया? सुप्रीम कोर्ट ने 14 वर्ष पहले आरोपों को हल्का बना दिया था। यह साफ था कि ट्रायल कोर्ट अधिकतम दो साल की कैद की सजा ही सुना सकती है। फिर क्यों सत्ता में बैठे लोगों द्वारा भोपाल गैस के अदालती फैसले पर आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा है। यह क्यों न मान लिया जाए जो ऐसा कर रहे हैं वे वास्तव में नाटक कर रहे हैं? मुआवजे की जिस राशि पर अंतत: सहमत हुआ गया था वह 15 वर्ष बाद भी अभी तक पूरी तरह वितरित नहीं की जा सकी है। जब भोपाल गैस कांड में लापरवाही के लिए शासन-प्रशासन में बैठे लोग भी जिम्मेदार थे तो यह भारत सरकार की भी जिम्मेदारी थी कि प्रभावित लोगों को मुआवजे का ऐलान किया जाता, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। कहा जा रहा है कि लोग अभी भी विषाक्त माहौल में जी रहे हैं और दूषित जल पीने के लिए विवश हैं। इस समस्या के निदान की जिम्मेदारी तो राज्य सरकार की है। मध्य प्रदेश में एक के बाद एक राज्य सरकारें पिछले 25 वर्र्षो में अपनी इस जिम्मेदारी को क्यों पूरा नहीं कर सकीं? पिछले वर्ष किसानों की कर्ज माफी के लिए संप्रग सरकार ने 70 हजार करोड़ रुपये खर्च कर दिए। नि:संदेह यह एक सरहानीय कदम था, लेकिन इसका एक छोटा सा हिस्सा भी भोपाल गैस पीडि़तों के लिए क्यों नहीं खर्च किया गया? यह निराशाजनक है कि इस तरह के सवाल भोपाल गैस कांड पर चल रही बहस में क्यों नहीं उठते हैं? सुशासन से संबंधित मुद्दों पर बहस शुरू करने के बजाय राजनीतिक दल और एक हद तक मीडिया भी इस या उस पर उंगली उठाने में लगा हुआ है। यह विचित्र है कि भारत सरकार की असफलता पर से ध्यान बड़ी सावधानी से हटाकर वारेन एंडरसन पर केंद्रित कर दिया गया है। लोकतंत्र का एक मूलभूत गुण जवाबदेही है, लेकिन भारतीय लोकतंत्र को इतना हल्का बना दिया गया है कि राजनीतिज्ञ अपनी शक्तियां तो बढ़ाते जा रहे हैं, लेकिन वे थोड़ी-बहुत जवाबदेही के लिए भी तैयार नहीं। भोपाल गैस त्रासदी इसका ताजा उदाहरण है। जवाबदेही इसलिए नहीं आ पा रही है, क्योंकि अपने निर्वाचन की पद्धति ऐसी है कि 25-30 प्रतिशत मतदान में कोई भी उम्मीदवार 10-12 प्रतिशत मत पाकर भी लोकसभा अथवा विधानसभा का सदस्य बन सकता है। (लेखक रक्षा एवं सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
साभार:- दैनिक जागरण

सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस

कांग्रेस पर भारतीय राज्य व्यवस्था को पंगु बनाने का आरोप लगा रहे हैं कुलदीप नैयर

भारत में लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था की तब एक बार फिर पोल खुल गई जब भोपाल गैस त्रासदी का ब्यौरा उजागर हुआ। न्यायपालिका, कार्यपालिका और नौकरशाही के बीच एक साठगांठ हुई थी। इन तीनों ने ही यूनियन कार्बाइड के अध्यक्ष वारेन एंडरसन को भारत से निकल जाने देने के लिए हाथ मिलाए थे। यूनियन कार्बाइड का ही वह गैस संयंत्र था जिसमें त्रासदी घटित हुई थी। उन्होंने उस क्षतिपूर्ति राशि को भी कम कराया था जिसकी कंपनी ने पेशकश की थी और न्यायालय के निर्णय में भी 26 वर्ष की देरी हुई। यह उस आपातकाल के समान ही था जो इससे एक दशक पूर्व तब लगा था जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 को राज्य व्यवस्था को तार-तार कर दिया था-यहां तक मूलभूत अधिकारों से भी इनकार कर दिया गया था। इस मामले में भी न्यायपालिका, कार्यपालिका और नौकरशाही निरंकुश सत्ता को न्याय संगत ठहराने के लिए पंक्तिबद्ध हो गई थी। लोकतांत्रिक संविधान की भी अनदेखी सी की गई थी। दरअसल राज्य के सभी अंग-प्रत्यंग निरंकुशता के थोपे जाने में भागीदार हो गए थे। दोनों ही अवसरों पर केंद्र और मध्य प्रदेश (जहां गैस संयंत्र स्थित था) में कांगे्रस ही सत्तासीन थी और दोनों ही अवसरों पर प्रधानमंत्री पद पर कांग्रेसी ही आसीन थे अर्थात इंदिरा गांधी और उनके पुत्र राजीव गांधी। वे अपने आप में ही कानून हो गए थे और लोकतांत्रिक ढांचे पर गहरे घाव लगाए गए थे। कहा जा रहा है कि राजीव गांधी ने ही त्रासदी के समय तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह से एंडरसन को जाने देने के लिए कहा था-जिसे एक शीर्ष कांग्रेस जन ने अमेरिकी दबाव की संज्ञा दी है। बाद में उन्होंने कैबिनेट से परामर्श किया। इंदिरा गांधी ने भी अपनी चलाते हुए ही आपातकाल थोपा था और उसके बाद ही कैबिनेट से परामर्श किया था। उस समय तक तो बिना अभियोग चलाए ही हजारों लोगों को हिरासत में लिया जा चुका था। इससे भी आगे बढ़कर उन्होंने प्रेस का भी गला घोंट दिया था। भोपाल के प्रसंग में मीडिया की भूमिका अपने कर्तव्य या दायित्व के परिपालन से भी बढ़कर ही रही है। उसके द्वारा अभियान न छेड़ा जाता तो सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस उस बचाव या सफाई देने की मुद्रा में नहीं आ पाती जिसमें आज उसे आना पड़ा है। ये दोनों ही घटनाएं यह दर्शाती हैं कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और नौकरशाही को तथास्तु की भाव भंगिमा अपनाने के लिए प्रेरित करने हेतु सेना को सामने नहीं आना पड़ा। जो प्रधानमंत्री सत्ता को अपने ही हाथों में केंद्रित कर सकते हैं वे सभी उन नियम-उपनियमों की धज्जियां उड़ा सकते हैं, जिनके तहत जवाबदेही आवश्यक है। इंदिरा गांधी के निरंकुश शासन को सुप्रीम कोर्ट ने 5-1 के बहुमत से सही ठहराया था-उसी तरह जिस तरह से पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश मुनीर ने आवश्यकता के सिद्धांत द्वारा जनरल अयूब के सत्ता हथियाने को न्याय संगत ठहराया था। इस तरह के उदाहरण यह इंगित करते हैं कि जज भी नागरिक अधिकारियों के समान ही अन्य लिहाजों से प्रेरित हो बैठते हैं। मुख्य न्यायाधीश एएम अहमदी ने उस धारा को हल्का किया जिसके तहत भोपाल गैस त्रासदी के कर्ता-धर्ता बुक किए गए थे। वह थी भारतीय दंड संहिता की धारा 304, जिसमें 10 वर्ष तक की सजा का प्रावधान है। इसके बजाय उन पर धारा 304 ए लगाई गई, जिसके तहत अधिक से अधिक दो साल की सजा दी जा सकती है। जहां तक नौकरशाही का सवाल है (जिसमें सीबीआई भी शामिल है) वह भी असहाय और उपकारी सी ही हो गई, जो किसी भी उस दल की सेवा करने को तैयार है, जो सत्ता में आ जाता है। नौकरशाही वर्षो से आत्मा की आवाज तो दबा बैठी है ही, बिना भय अथवा पक्षपात के सेवा के उच्च आदर्शो को भी भुला बैठी है। इंदिरा गांधी ने जो अवैध आदेश जारी किए थे, नागरिक अधिकारियों ने उनका बिना हीला-हवाला किए पालन किया था। यही कारण है कि गांधीवादी जय प्रकाश नारायण, जिन्होंने राजनीति में नैतिकता के लिए आंदोलन का नेतृत्व किया था, को नौकरशाही, पुलिस और सेना से यह आग्रह करना पड़ा था कि वे अवैध आदेशों का पालन नहीं करें। यह सब हास्यास्पद सा ही लगता है कि वही डिप्टी कमिश्नर और पुलिस अधीक्षक जिन्होंने गैस त्रासदी के मामले में एंडरसन को गिरफ्तार किया था वे ही उन्हें अपने संरक्षण में हवाई अड्डे पर लेकर गए ताकि वह उसी विमान से उड़नछू हो सकें। यह सब अंतर मुख्यमंत्री के आदेशों का नतीजा था। दोनों में से किसी ने उस शपथ का ध्यान नहीं किया जो उन्होंने संविधान व देश की अखंडता के नाम पर खाई थी। मैने ऐसी ही घटनाएं पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल में भी देखी हंै। वहां शासकों का महत्व है, नियमों का नहीं। सरकारी कर्मचारियों में जो नैतिक सोच थी वह भी अब मंद हो गई है और कई मामलों में तो मानसिक सोच से भी परे हैं। उनके समक्ष जो भी समस्याएं आती हैं उनसे निपटने की उनकी कार्यदिशा की कुंजी है किसी भी कीमत पर अपने पद पर बने रहने की आकांक्षा। स्थिति कुछ ऐसी हो गई है कि समग्र उपमहाद्वीप में सरकारी कर्मचारी निरंकुशता के उपकरण बनकर रह गए हैं। लोकतांत्रिक प्रणाली में जो लोग मान्य नियमों का उल्लंघन करते हैं वे साफ-साफ ही नहीं छूट जाएं, इसके बारे में आश्वस्त होने की एकमात्र राह जवाबदेही ही है। मैंने कभी नहीं देखा कि एक गलती करने वाला जज, एक दागी मंत्री अथवा अपराधी सरकारी कर्मचारी दंडित हुआ हो। वे एक ही कुनबे के सदस्य जैसे हैं, जो यदि कभी किसी न्यायाधिकरण के समक्ष किसी अभियोग के सिलसिले में उपस्थित हों तो भी बच निकलने के लिए सभी हथकंडे अपनाते हैं। इंदिरा गांधी के आपातकाल के तहत दो वर्ष के शासन के दौरान जो दमन और ज्यादतियां हुईं उनके लिए उन्हें कोई सजा नहीं मिली। एंडरसन के बच निकलने के बारे में राजीव गांधी से तो कोई सवाल तक नहीं किया गया। अब उनके सचिव पीसी एलेक्जेंडर कहते हैं कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी को निश्चय ही सूचित किया गया होगा। इतने वर्षो तक एलेक्जेंडर मौन क्यों साधे रहे? मुझे जिस बात को देखकर आघात सा लगता है वह है केंद्रीय मंत्रिमंडल में उन लोगों को देखना जो आपातकाल का हिस्सा थे। प्रणब मुखर्जी, कमलनाथ, अंबिका सोनी उन लोगों में से हैं जो संजय गांधी के हाथों के उपकरण से थे। गृहमंत्री पी। चिदंबरम को प्रधानमंत्री ने मंत्रियों के समूह का प्रमुख नियुक्त किया है और वह भोपाल गैस त्रासदी की भी पड़ताल करेंगे। वित्त मंत्री के रूप में वही एक निर्णय को आगे बढ़ाने को प्रयासरत थे, जिससे डाऊ केमिकल्स (जिसने यूनियन कार्बाइड को लिया था) उसे जिम्मेदारी से मुक्त किया जा सके। हर आलोचक पर चीखकर सत्तारूढ़ कांग्रेस ने अपनी सत्ता की अकड़ को ही रेखांकित किया है। उसे दायित्व स्वीकार करना ही चाहिए और वह राष्ट्र से क्षमा भी मांगे। कांग्रेस को अपमानित होना तो सीखना चाहिए। (लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं)
saabhar:- dainik jagran

देवदूत नहींथे राजीव गांधी

राजीव गांधी की आलोचना को अपराध बताने के कांग्रेस के रवैये पर हैरत जता रहे हैं राजीव सचान
भोपाल गैस त्रासदी को लेकर गठित मंत्रियों के समूह ने प्रधानमंत्री को अपनी रपट सौंप दी। इस रपट की सिफारिशों पर चाहे जितनी तत्परता और दृढ़ता से अमल किया जाए उस क्षति की भरपाई होने वाली नहीं है जो गैस पीडि़तों की 25 वर्ष तक अनदेखी के कारण हुई? इस अनदेखी के लिए भारतीय लोकतंत्र के तीनों प्रमुख स्तंभ-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका समान रूप से जिम्मेदार हैं। यदि इन तीनों में से किसी ने गैस पीडि़तों के प्रति अपनी न्यूनतम जिम्मेदारी का निर्वाह किया होता तो शायद 7 जून 2010 को भारत को शर्मिदगी नहीं झेलनी पड़ती। इस दिन भोपाल की अदालत ने गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार माने जाने वाले लोगों को जो सजा दी उससे भारत न केवल अपने, बल्कि दुनिया के लोगों की नजरों में भी शर्मसार हुआ। वस्तुत: इस दिन भारत कलंकित हुआ। यह कलंक आसानी से धुलने वाला नहीं-भले ही वारेन एंडरसन को भारत लाकर सलाखों के पीछे क्यों न भेज दिया जाए। एक तो ऐसा करना सहज संभव नहीं और यदि लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद एंडरसन को भारत लाने में सफलता मिल भी जाती है और तब तक वह जीवित बना रहता है तो उसे कोई कठोर सजा शायद ही दी जा सके। यदि ऐसा हो भी जाए तो लाखों गैस पीडि़तों को राहत नहीं मिलने वाली। दरअसल संतोष तो तब होता जब गैस पीडि़तों को मामूली राहत देकर उनके हाल पर नहीं छोड़ दिया जाता और एंडरसन एवं अन्य लोगों को घटना के चार-छह वर्ष के अंदर पर्याप्त सजा सुना दी जाती। दुर्भाग्य से ये दोनों काम नहीं हुए। गैस पीडि़तों की अनदेखी उतनी ही पीड़ादायक है जितना यह देखना-सुनना कि गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार लोगों को 25 साल बाद दो-दो साल की सजा जमानत के साथ मिली और ऐसे लोगों में एंडरसन का नाम शामिल न होना। संभवत: देश में गुस्से की लहर इसलिए उमड़ी, क्योंकि अदालत के फैसले के साथ ही उसे यह पता चला कि एंडरसन को गुपचुप रूप से रिहा करने के बाद ससम्मान दिल्ली भेजा गया ताकि वह आसानी से अमेरिका जा सके। जब देश में गुस्से की लहर थी तब केंद्रीय सत्ता गैर जिम्मेदारी और राजनीतिक अपरिपक्वता का अभूतपूर्व प्रदर्शन कर रही थी। यह शर्मनाक प्रदर्शन अभी भी जारी है और सिर्फ इसलिए कि एडंरसन के बाहर जाने में राजीव गंाधी का नाम सामने आ रहा है। कांग्रेस के नेताओं ने इसके लिए पूरी ताकत लगा रखी है कि किसी तरह राजीव गांधी का नाम न उछलने पाए। पार्टी के प्रवक्ता से लेकर केंद्रीय मंत्री तक ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे राजीव गांधी ईश्वरीय अवतार हों और उनकी आलोचना करना ईशनिंदा करने के समान हो। जिन लोगों ने यह कहा अथवा संकेत भी किया कि एंडरसन की फरारी में राजीव गांधी की सहमति रही होगी उन्हें स्वार्थी और झूठा ही नहीं, बल्कि राष्ट्रविरोधी तक कहा गया। कांग्रेस का नजला अभी भी उन सब पर गिर रहा है जो एंडरसन की फरारी में तत्कालीन केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह यह अच्छी तरह बता सकते हैं कि एंडरसन को किसके इशारे पर छोड़ा गया, लेकिन वह सार्वजनिक रूप से कुछ कहने से बच रहे हैं। किसी स्वाभिमानी और जनता के प्रति जवाबदेह शासन वाले देश में अर्जुन सिंह या तो अब तक गिरफ्तार कर लिए गए होते अथवा उन्हें सच बयान करने के लिए विवश किया जा चुका होता। यह मजाक नहीं तो और क्या है कि अर्जुन सिंह यह कह रहे हैं कि वह सारी सच्चाई अपनी आत्मकथा में बयान करेंगे? वह कुछ भी कहें, यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि एंडरसन गिरफ्तार होने के बाद रिहा होकर देश से बाहर चला जाए और प्रधानमंत्री को इसकी भनक तक न लगे। जो यह सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं कि एंडरसन की फरारी में राजीव गांधी की कोई भूमिका नहीं थी और न हो सकती थी वह या तो देश को बेवकूफ समझ रहे हैं या बेवकूफ बना रहे हैं। सच तो यह है कि इसे एक तथ्य के रूप में प्रचारित करना राजीव गांधी के लिए कहीं अधिक अहितकर है कि उनकी जानकारी के बगैर एंडरसन देश से निकल गया। यदि एंडरसन की फरारी के पीछे केंद्र सरकार की कहीं कोई भूमिका नहीं थी, जैसा कि कांग्रेस साबित करना चाहती है तो इसका मतलब है कि अमेरिका ने तत्कालीन केंद्रीय सत्ता को दरकिनार कर मध्य प्रदेश शासन को अपने दबाव में ले लिया। यदि ऐसा कुछ हुआ था तो यह तत्कालीन केंद्रीय सत्ता के लिए और अधिक शर्मनाक है। आखिर कांग्रेस को अपनी गलती मानने में इतना कष्ट क्यों हो रहा है? क्या राजीव गांधी कोई गलती नहीं कर सकते थे? जब गांधी जी और नेहरू जी की उनकी गलतियों के लिए आलोचना की जा सकती है तो फिर राजीव गांधी की क्यों नहीं? क्या यह कहना सही होगा कि बतौर प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो कोई गलती की ही नहीं? क्या श्रीलंका में भारतीय सेनाओं को भेजने का उनका निर्णय विवादास्पद नहीं था? क्या वह प्रेस को दबाव में लाने के लिए मीडिया पर केंद्रित एक मानहानि विधेयक लाने नहीं जा रहे थे? सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने वाले लोगों को अपनी आलोचना सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए। हालांकि भारतीय परंपरा में यह एक तरह से निषेध है कि गुजरे हुए लोगों की आलोचना करने से बचा जाता है, लेकिन यह कोई नियम नहीं है और इसका प्रमाण गांधी और नेहरू पर लिखी गईं वे तमाम पुस्तकें हैं जिनमें उनकी नीतियों और निर्णयों को लेकर तीखी आलोचना की गई है। चूंकि भोपाल गैस त्रासदी के बाद जो कुछ हुआ वह किसी त्रासदी से कम नहीं इसलिए तत्कालीन केंद्र और राज्य सरकारों को खेद प्रकट करने में संकोच नहीं करना चाहिए। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)