Wednesday, December 29, 2010

यह चीज हमें असफलता से बचाएगी Source: पं. विजयशंकर मेहता

सीधी सी बात है यदि खड़े रहना चाहते हैं तो धरती पर थोड़ी सी जगह चाहिए और यदि चलना चाहते हैं तो मार्ग। ये दोनों बातें जीवन में होती रहे इसके लिए अध्यात्म ने एक शब्द दिया है श्रद्धा। श्रद्धा जीवन की निरूद्देश्यता पर प्रतिबंध लगाती है।
बुद्ध ने एक जगह कहा था हमारी एक ऐसी प्रकृति होती है जो हिरण की कल्पना जैसी रहती है। हिरण को प्यास के दबाव के कारण रेगिस्तान में वहां पानी दिखता है जहां होता नहीं है। इसे मृग-मरीचिका कहा गया है। जो है नहीं उसे मान लेना, देख लेना। हमने परमात्मा के साथ ऐसा ही किया। वह बैठा है भीतर हम ढूंढ रहे हैं बाहर। जहां नहीं है वहां ढूंढने पर एक नुकसान यह होता है कि जहां वह है वहां हम नहीं पहुंच पाते।
इस मामले में बुद्ध जैसे संत तो और गहरे निकल गए। वे कहते हैं जिसे तुमने खोया ही नहीं उसे क्या ढूंढना। उसका हमारे भीतर होना ही पर्याप्त है। खोजने की जगह महसूस करना ज्यादा महत्वपूर्ण है। ऊपर वाला जब भी किसी इन्सान को धरती पर भेजता है तो स्वयं को उसमें स्थापित करके ही भेजता है। मैन्यू फेक्चरिंग डिफेक्ट जैसा काम उसके यहां नहीं होता।
वह पहली पैदाईश से ही कम्पलीट उतारता है। संसार में आते ही अबोध होते में गड़बड़ हमारे लालन-पालन करने वाले और होश संभालते ही हम स्वयं शुरु करते हैं। अपने भीतर बेहतर जोडऩे से ज्यादा अच्छा घटाने का काम हम ही शुरु कर देते हैं। ऐसे में श्रद्धा वह तत्व है जो मृग मरीचिका की वृत्ति से हमें बचाएगी।




सुमन-नमन

ऊर्जा सुमन-नमन सुमन अर्थात अपना सुंदर मन। जिसमें प्रेम हो वह सुमन है। तो सुमन भगवान को समर्पित करें और फिर नमन करें। नमन करने से व्यक्ति न-मन होता है। भगवान ने मन मांगा है। तो भगवान ने हमको न-मन किया। हम सिर झुकाते हैं प्रभु के चरणों में। यह जो हमारा मन है, वह प्रभु के पास चला जाए। नमन दो प्रकार से होता है- एक स्वार्थवश और दूसरा स्नेहवश। चाहे जैसे नमन करें, नारायण को नमन करें। कारण, वास्तव में हमारे सकल स्वार्थो की पूर्ति नारायण ही करेंगे। जब स्वार्थो की पूर्ति हो जाएगी, तो जिनके द्वारा स्वार्थो की पूर्ति हुई है, उन नारायण में हमारा स्नेह हो जाएगा। भगवान को तीन प्रकार से जानना है- स्वरूप से, स्वभाव से और साम‌र्थ्य से। विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय करने की साम‌र्थ्य है भगवान में। भगवान को नमन करने से वह हमारे तीनों प्रकार के तापों-आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक को नष्ट कर देते हैं। स्वरूप के परिचय में तीन बातें हैं-सत, चित्त और आनंद। असत्य का अस्तित्व नहीं है और सत्य का कहीं अभाव नहीं है। एक स्थान तो ऐसा बताओ जहां परमात्मा न हो। सर्वत्र हैं और सर्वदा हैं। वह परम चैतन्य रूप हैं। आनन्द स्वरूप हैं। सत के अंश में कर्म होता है। चित के अंश में ज्ञान होता है और आनंद के अंश में भक्ति होती है। जब हम एक दूसरे से मिलते हैं तो पहले नमन करते हैं। यही हमारे संस्कार हैं। हम केवल हाथ ही नहीं जोड़ते, प्रभु का नाम भी लेते हैं। जब हम किसी से भी मिलते हैं, तो प्रभु को बीच में रखकर मिलते हैं। जब प्रभु को साथ में रखकर मिलेंगे तो हमारे संस्कारों से सामने वाला प्रभावित होगा। कल्याण दोनों का होता है। नमस्कार नारायण से जोड़ने वाला है। प्रभु आपने मुझे मानव जन्म दिया। आपकी कृपा से ही यह जीवन चल रहा है। आपके अनंत उपकार हैं। मैं कृतज्ञ हूं। मैं वंदन करता हूं, कोटिश: नमन करता हूं। दो हाथ दिए हैं भगवान ने, तो प्रणाम करो, वंदन करो, नमस्कार करो। इसी में कल्याण है।
रमेश गुप्ता
साभार :-दैनिक जागरण

सीजर की पत्नी का एतराज

प्रधानमंत्री पद को पाक-साफ बताने के मामले में सीजर की पत्नी के उदाहरण को अनुपयुक्त मान रहे हैं राजीव सचान
रोमन शासक जूलियस सीजर की पत्नी ने उस समय अपनी कब्र में अवश्य करवट ली होगी जब कांग्रेस महाधिवेशन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक तरह से खुद की तुलना उससे करते हुए कहा कि उसे संदेह से परे होना चाहिए। आम आदमी को यह तुलना भले ही समझ न आई हो, लेकिन इतना स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री यह कहना चाहते थे कि इस पद पर बैठे व्यक्ति को संदेह से परे होना चाहिए। इसी मंच से उन्होंने कहा कि वह स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच करने वाली लोक लेखा समिति (पीएसी) के समक्ष पेश होने को तैयार हैं और इसके लिए इस समिति को पत्र लिखने भी जा रहे हैं। उन्होंने पत्र लिख भी दिया। पता नहीं पीएसी उन्हें बुलाने की आवश्यकता समझेगी या नहीं, लेकिन उनकी इस अप्रत्याशित पहल से इस सवाल का जवाब नहीं मिलता कि पौने दो लाख करोड़ रुपये के स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से क्यों नहीं हो सकती? यदि कहीं कुछ छिपाने-दबाने का इरादा नहीं है तो फिर जेपीसी के गठन में क्या परेशानी है? कांग्रेस और केंद्र सरकार की ओर से जेपीसी का गठन न करने को लेकर इतने बहाने बनाए जा चुके हैं कि उनकी गिनती करना मुश्किल है। कभी कहा जाता है कि यह समिति सही तरह जांच करने में सक्षम नहीं और कभी यह कि विपक्ष प्रधानमंत्री को इस समिति के सामने तलब करना चाहता है। यदि प्रधानमंत्री पीएसी के सामने हाजिर होने को तैयार हैं तो फिर जेपीसी के सामने क्यों नहीं? कांग्रेस देश को यह कहकर आतंकित करना चाहती है कि आखिर विपक्ष प्रधानमंत्री पर उंगली कैसे उठा सकता है? नि:संदेह प्रधानमंत्री की निष्ठा और उनकी ईमानदारी पर संदेह नहीं जताया जा सकता, क्योंकि उनका अतीत बेदाग है, लेकिन यदि किसी को इस पर संदेह है कि वह अपने इर्द-गिर्द के भ्रष्ट तत्वों पर लगाम लगाने अथवा उनके खिलाफ कार्रवाई करने में समर्थ नहीं रहे तो उसे सवाल उठाने-पूछने का हक है। लोकतंत्र में कोई भी न तो पवित्र गाय हो सकता है और न ही देवदूत। प्रधानमंत्री विनम्र-विद्वान और नेक इरादों वाले शख्स हैं, लेकिन क्या उनसे भूल-चूक नहीं हो सकती और यदि भूल-चूक नहीं हुई तो उनकी आंखों के सामने इतना बड़ा घोटाला कैसे हो गया? क्या कारण है कि राष्ट्रमंडल खेलों में तैयारियों के नाम पर घोटाला होता रहा और वह उसे देखते रहे? क्या कोई यह दावा कर सकता है कि वह गठबंधन राजनीति की विसंगतियों और घटक दलों की जोर-जबरदस्ती की राजनीति से मुक्त हैं? यदि प्रधानमंत्री घपले-घोटालों पर लगाम लगाने में समर्थ होते तो संसद सत्र के बाधित होने और विपक्ष के सड़कों पर उतरने की नौबत ही क्यों आती? यह देश तो उस परंपरा का वाहक है जहां संत-महात्माओं तो क्या खुद ईश्वरीय अवतार कहे जाने वाले राम को एक अदद प्रजा केसंदेह-सवाल पर सीता की अग्निपरीक्षा लेनी पड़ी थी। जिस देश में मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिष्ठित राम अपनी पत्नी की अग्निपरीक्षा लेने को विवश हुए हों वहां सीजर की पत्नी का उदाहरण देने से बात बनने वाली नहीं है-और फिर ऐसा कोई उदाहरण तो वह दे सकता है जिसके पास घपले-घोटाले करने वाले फटकते तक न हों अथवा जो ऐसे तत्वों को सलाखों के पीछे पहुंचा कर दम लेता हो। दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री ऐसा कुछ भी नहीं कर सके हैं-न पिछले कार्यकाल में और न वर्तमान कार्यकाल में। जब बोफोर्स तोप सौदे के बदनाम दलाल ओट्टावियो क्वात्रोची के लंदन स्थित बैंक खातों पर लगी रोक गुपचुप तरीके से हटा ली गई थी और इसका रहस्योद्घाटन होने पर सरकार सबके निशाने पर थी तो खुद प्रधानमंत्री ने देश को यह आश्वासन दिया था कि वह सच्चाई का पता लगाएंगे, लेकिन यह आज भी एक रहस्य है कि क्वात्रोची पर मेहरबानी किसने दिखाई? इसी तरह का एक रहस्य यह भी है कि मनमोहन सरकार के विश्वास मत के दौरान संसद के भीतर नोटों के बंडल पहुंचाने के पीछे किसका हाथ था? प्रधानमंत्री ने इस मामले की भी सच्चाई का पता लगाने का आश्वासन दिया था, लेकिन एक बार फिर उनका यह आश्वासन खोखला निकला। यदि संस्थाओं की साख नापने-जांचने का कोई पैमाना होता तो वह यही बता रहा होता कि पिछले कुछ वर्षो में सीबीआइ की साख गिरी है। देश अच्छी तरह जानता है कि यह संस्था प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन काम करती है और उसके स्वायत्त एवं स्वतंत्र होने की बातें सफेद झूठ के अलावा और कुछ नहीं। सीबीआइ पर निगरानी रखने वाली संस्था सीवीसी की तब तक थोड़ी-बहुत साख थी जब तक उसके मुखिया पीजे थॉमस नहीं बने थे। थॉमस को सीवीसी किसने बनाया? मनमोहन सिंह और गृहमंत्री चिदंबरम ने और वह भी उच्चतम न्यायालय द्वारा तय प्रक्रिया का उल्लंघन करके। स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मनमोहन सरकार के ऐसे रिकार्ड को देखने वाली सीजर की पत्नी यदि जीवित होती तो वह उस तुलना पर एतराज जताती जो कांग्रेस महाधिवेशन में की गई। संभवत: यह एतराज जोरदार होता, क्योंकि वह इससे अवगत होतीं कि शशी थरूर तब मंत्री पद से हटाए गए थे जब विपक्ष सिर के बल खड़ा हो गया था। वह इससे भी अवगत होती कि राजा को हटाने के पहले खुद प्रधानमंत्री ने ही उन्हें क्लीनचिट दी थी और इससे तो सारा जहां परिचित है कि सरकार थॉमस को हटाने का साहस अब भी नहीं कर पा रही है? यदि सीजर की पत्नी जीवित होती तो वह सीबीआइ के इन दावों पर ठहाके लगाती कि उसे स्पेक्ट्रम और राष्ट्रमंडल घोटाले में शामिल माने जा रहे लोगों के ठिकानों पर महत्वपूर्ण दस्तावेज हाथ लगे हैं। यदि सीबीआइ सही है तो इसका मतलब है कि जिनके यहां छापे पड़े वे महत्वपूर्ण दस्तावेज अपने पास रखकर इस जांच एजेंसी के अफसरों का इंतजार कर रहे थे। इस तथ्य से परिचित होने के बाद तो शायद सीजर की पत्नी जान ही दे देती कि नीरा राडिया के फोन टैप कराने वाली सरकार उनके लीक होने का इंतजार करती रही।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

अभिमान-अवमान

ऊर्जा अभिमान-अवमान इस संसार में पाप की अनेक किस्में हैं। धोखा, चोरी, लूट, ठगी, हिंसा, ढोंग, हत्या, शोषण, झूठ, छल, विश्वासघात, कृतघ्नता, मद्यपान आदि अनेक पातक गिनाए जा सकते हैं। इन सभी प्रकार के पापों के दो कारण शास्त्रों ने बताए हैं, पहला अभिमान और दूसरा अवमान। अभिमान का फल क्रोध और अवमान का प्रतिफल लोभ को जन्म देता है। अभिमान और अवमान आध्यात्मिक पाप हैं, जिनके कारण विभिन्न प्रकार के मानसिक, शारीरिक व सामाजिक पापों का जन्म होने लगता है। अभिमान वह पाप है जिसमें व्यक्ति मदहोश होकर अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझता है। वह चाहता है कि लोग उसकी खुशामद करें और श्रेष्ठ समझें, बात मानें, जब इसमें कोई कमी आती है तो वह अपमान समझ क्रोध से भर जाता है। वह नहीं चाहता कि कोई मुझसे धन में, विद्या में, प्रतिष्ठा में आगे या बराबर का हो, वह जिस किसी को सुखी-सम्पन्न देखता है, ईष्र्या कर बैठता है। साथ ही अहंकार की पूर्ति हेतु अपनी सम्पन्नता बढ़ाना चाहता है। परंतु अभिमानग्रस्त व्यक्ति सीधे मार्ग पर चलने के बजाय बेईमानी व अनीति के रास्ते पर चला जाता है। अवमान का अर्थ है आत्मा की गिरावट। अपने को अयोग्य, असमर्थ समझने वाला व्यक्ति संसार में दीन-हीन बनकर रहता है। उसकी प्रतिभा कुंठित हो जाती है। वह न तो समृद्ध बन पाता है और न अन्याय के चंगुल से छूट पाता है। इस समस्या से बचने के लिए उसे निर्बलतापरक अनीतियों का आश्रय लेना पड़ता है। चोरी, ठगी, छल, कपट, दंभ, झूठ, पाखंड, खुशामद जैसे अपराधों को करना पड़ता है। आत्मसम्मान और आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए मानवोचित मार्ग अपनाना, यह जीवन का सतोगुणी स्वाभाविक गुण है। यह श्रृंखला जब विपरीत स्वरूप लेती है तो आत्मिक संतुलन बिगड़ जाता है। आत्मज्ञान को प्राप्त करने वाले और आत्मसम्मान की रक्षा करने वाले ही पाप से बचते हैं। वे लोग जीवन का उद्देश्य पूरा करते हैं। अभिमान व अवमान से बचकर व्यक्ति को आत्मिक संतुलन बनाने का प्रयास करना चाहिए।
डा। विजयप्रकाश त्रिपाठी
साभार:-दैनिक जागरण

विलक्षण राजनीतिक विचारधारा

राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी के सकारात्मक तथा सर्वसमावेशी योगदान को रेखांकित कर रहे हैं तरुण विजय
भारत के सार्वजनिक जीवन में आज कलह और कलुष के काले बादल छाए हंै। राजनीति, पत्रकारिता, न्यायपालिका और प्रशासन के स्तंभ ढहते दिख रहे हैं। इस वातावरण का एक परिणाम चतुर्दिक अविश्वास तथा निम्नस्तरीय भाषा में उछलने वाले आरोपों के रूप में हुआ है। शालीनता और भद्रता का स्थान चुगलखोरी तथा मुहल्ला-स्तरीय आक्रामकता ने ले लिया है। जो देश दुनिया में अपने अध्यात्म एवं दर्शन के साथ वर्तमान युग में ज्ञान-विज्ञान की असीम प्रगति के लिए जाना जाता रहा है, उसे आज सबसे भ्रष्ट देश के नाते पहचाना जा रहा है। इस कलुषमय वातावरण में दो दिन पहले अटल बिहारी वाजपेयी का 86वां जन्मदिन सबको राजनीति के सकारात्मक तथा सर्व समावेशी रूप की सुगंध दे गया। इस दिन संसद के एनेक्सी में अटल के गत तीन दशकों में लिए गए सर्वश्रेष्ठ साक्षात्कारों की मेरी पुस्तक का लोकार्पण किया गया। इस अवसर पर विभिन्न विचारधाराओं के श्रेष्ठ विचारकों के एक मंच पर आने का कारण बना अटलजी का अजातशत्रु व्यक्तित्व। उपस्थित लोगों ने एक ही बात कही-अटल बिहारी वाजपेयी राजनीतिक शत्रुता एवं अस्पृश्यता के प्रबल विरोधी थे। वह अपनी विचारनिष्ठा से समझौता किए बिना एकदम विपरीत राजनीतिक धु्रव के विरोधियों से भी मित्रता का हृदय रखते हैं। इसी कारण उनके प्रधानमंत्रित्व काल में न केवल अन्यथा शत्रु पड़ोसी देशों के साथ भारत के मैत्री संबंध पुष्ट हुए, बल्कि घरेलू आतंकवादी और विद्रोही गुटों के साथ समाधान के नए आयाम खुले। आज भारतीय सार्वजनिक जीवन में ऐसे अजातशत्रु एवं जनता में लोकप्रिय मान्यता रखने वाले लोगों की बेहद कमी है। नफरत, कटुता, विद्वेष तथा तेजाबी आक्रामकता का यह दौर हमारे लोकतंत्र के चारों स्तंभों के प्रति जनता में असम्मान और अविश्वास पैदा कर रहा है। इस संदर्भ में एक घटना का उल्लेख समीचीन होगा। जब डॉ. मनमोहन सिंह पहली बार प्रधानमंत्री बने तो मैं पांचजन्य का संपादक था, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचार नीति का समर्थक एवं पोषक साप्ताहिक माना जाता था। मैंने नए प्रधानमंत्री से भेंट का समय मांगा, उन्होंने तुरंत बुलाया और चर्चा में गरीबी निवारण के संदर्भ में नव-भारत निर्माण की विराट आर्थिक विकासोन्मुख योजना का मैंने सुझाव दिया, जो बाद में भारत निर्माण नाम से स्वीकार की गई। उस भेंट का वृत्त पांचजन्य में छपने पर मीडिया में तूफान मच गया कि कांग्रेस के प्रधानमंत्री ने संघ धारा के संपादक से कैसे मुलाकात की। डॉ. मनमोहन सिंह ने अत्यंत शालीनता और संयम का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उस भेंट का बचाव किया और वह मेरी दृष्टि में अधिक सम्मानित हो उठे। दुख इस बात है वर्तमान परिस्थिति में ऐसे सर्व समावेशी नेताओं को मीडिया भी आलोचना का शिकार बनाती है। प्रश्न उठता है कि क्या वैचारिक मतभेद शत्रुता एवं निजी वैमनस्य में परिणत होने चाहिए? क्या लोकतांत्रिक वैचारिक धाराओं का वैविध्य हमारे संविधान तथा सभ्यता की परंपरा के अनुरूप नहीं है? फिर क्यों हम अपेक्षा करें कि सारे देश में सिर्फ एक जैसी वैचारिक साम्यता हो। जैसा पूर्व सोवियत संघ में था या वर्तमान चीन में है? वैचारिक एकरूपता एवं भिन्न विचारों के प्रति विशेष लगाव भारत की विरासत और ज्ञान-धारा का कभी भी अंग नहीं रहा है। न ही राज्यसत्ता सिर्फ एक विचार को प्रोत्साहन देती है या एक मजहब को मानती है जैसे कि अरब देशों व पाकिस्तान में होता है। यह हमारे समाज को कभी मान्य रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी इस संदर्भ में बताते थे कि केवल सम्राट अशोक के समय बौद्ध पंथ को राज्य का धर्म माना गया और शेष इतिहास दुनिया का सबसे सेक्युलर या सर्वपंथ समभाव वाला रहा है। हम हिंदू राज्य के समर्थक नहीं हैं और हिंदू राष्ट्र की हमारी संकल्पना न केवल सांस्कृतिक है, बल्कि सर्व समावेशी एवं सर्व के प्रति समभाव वाली है। यही समभाव आज विलुप्त हो रहा है। ऐसे परिदृश्य में देश में पुन: उस वैचारिक धारा को मजबूत बनाने की जरूरत महसूस की जा रही है जो अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व और कृतित्व का अंग रही है। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ विचारनिष्ठ अधिकारियों यथा भाऊराव देवरस और रज्जू भैया से जो परिपक्वता का पाठ सीखा उसने उन्हें राजपुरुषों में अन्यतम बना दिया। वह पं. दीनदयाल उपाध्याय और डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के अनन्य प्रिय सहयोगी और शिष्य रहे। यद्यपि डॉ. मुखर्जी के साथ उनका सानिध्य कम रहा, पर उन्होंने युवा अटल में अपार संभावनाएं देखी थीं। यह अटल बिहारी वाजपेयी की राष्ट्रभक्ति और विचारनिष्ठा का ही प्रतिफल था कि यदि उन्होंने इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ सत्याग्रही संघर्ष किया तो बांग्लादेश युद्ध में भारत की विजय के लिए सदा उनकी प्रशंसा भी की। पोखरण-2 के बाद अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों की परवाह किए बिना अपनी नीतियां चलाना, सुपर कंप्यूटर के निर्माण को प्रोत्साहन, कारगिल-विजय, सैनिकों का योग्य एवं अभूतपूर्व सम्मान, दूरसंचार क्रांति और राष्ट्रीय राजमार्गो के जाल जैसे विराट विकास कार्यो को करते हुए राजनीतिक भ्रष्टाचार या कलुष को निकट न आने देना ही वाजपेयी-राजनीति का उजला रूप है। आज पुन: उसी भारत-निष्ठ नीति का अवलंबन सार्वजनिक जीवन में सौहार्द और विश्वास को कायम कर सकता है।
(लेखक राज्यसभा के सदस्य हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

मानव जीवन

ऊर्जा मानव जीवन सच्चरित्रता आत्मा की भाषा है, मानव हृदय की भाषा है। जब हम चारित्रिक रूप से निर्मल और उत्कृष्ट होंगे तभी हममें दूसरों के चरित्र को देखने की दृष्टि विकसित होगी। यह हमारा दृष्टिकोण ही है कि हम दूसरों में दोष ढूंढ़ते फिरते हैं। व्यक्ति सदैव निर्दोष रहता है, उसके अवगुण ही उसे दोषी बनाते हैं। यदि हम अपने को दोषों से मुक्त कर लें तो हम सभी के प्रिय होने के साथ ही प्रभु के भी प्रिय हो जाएंगे। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है-निर्मल मन जन सो मोंहि पावा, मोंहि कपट छलछिद्र न भावा। हमारा चरित्र एक स्वच्छ तालाब की भांति है, यदि हम उस तालाब के जल को स्नानादि करके या वस्त्रादि धोकर दूषित करेंगे तो जल अवश्य दूषित होगा। साथ ही उपयोग करने लायक भी न होगा। मानव जीवन अपने में असीम शक्ति एवं साम‌र्थ्य समेटे होने के साथ ही उसकी व्यापकता भी असीम है, जिससे समाज को अपेक्षाएं भी हैं और उन अपेक्षाओं में प्रतिबद्धता के साथ खरा उतरना है। तभी मानव जीवन की सार्थकता है। यह जीवन केवल अपने लिए ही नहीं है। महानता कर्र्मो से मिलती है। हमारे कर्म जितने ही महान होंगे हम उतने ही महानता के शिखर की ओर अग्रसर होंगे, जो हमारे जीवन की वास्तविक पूंजी होगी। जीवन सतत् गतिशील रहता है, एक पल के लिए भी रुकता नहीं। तमाम लोग हमसे जुड़ते रहते हैं इन सबको हमसे अपेक्षाएं भी रहती हैं और होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि इन सबके भरण-पोषण का दायित्व भी हम पर ही रहता है। कभी-कभी जिम्मेदारियों का बोझ उठाते-उठाते जीवन की संध्या भी हो जाती है और हम आशाओं के सहारे जीवन गुजार देते हैं। जब अवसर आता है तब विडंबना यह होती है कि हम नहीं होते। हमें निज स्वार्थ से ऊपर उठकर उदारता, स्नेह, सेवा, सद्भावना, सहनशीलता, दया, करुणा जैसे मानवीय अलंकरणों को अंगीकार करना होगा। यही आज की आवश्यकता भी है। संकीर्ण स्वार्थपरता हमारा सबसे बड़ा दुर्गुण है जो हमें अपनों से दूर करता है। इसे हमें मानवता की परिधि से दूर रखना ही होगा। इसी में हम सबका कल्याण है।
डॉ। राजेन्द्र दुबे
साभार:-दैनिक जागरण

फिर महंगाई की मार

महंगाई को लेकर संप्रग सरकार के रवैये को आम जनता के प्रति उसके संवेदनहीन आचरण का प्रमाण मान रहे हैं संजय गुप्त
एक बार फिर प्याज आम आदमी को तो रुला ही रहा है, केंद्र सरकार के सामने भी संकट बनकर खड़ा हो गया है। एक सप्ताह पहले तक जो प्याज 25-30 रुपये किलो बिक रहा था वह अचानक 70-80 रुपये में बिकने लगा। वैसे तो प्याज के बिना भी खाना खाया जा सकता है, लेकिन भोजन को स्वादिष्ट बनाने में उसका अपना महत्व है। यदि भोजन में प्याज की महत्ता और उसके औषधीय प्रभाव को दरकिनार कर दिया जाए तो भी उसके बगैर भारतीय रसोई अधूरी सी रहती है। प्याज मुख्य फसल नहीं है और यह देश के सभी हिस्सों में नहीं उगाई जाती, लेकिन बावजूद इसके यह आम और खास आदमी के लिए आवश्यक है। प्याज राजनीतिक दृष्टि से एक संवेदनशील फसल है। कुछ वर्षो पहले केवल प्याज के बढ़े दामों ने दिल्ली की भाजपा सरकार को पराजित करने का काम किया था। प्याज कई बार राजनीतिक मुद्दा बन चुका है, लेकिन देश में सब्जियों और अनाज की आपूर्ति पर नजर रखने वाला केंद्रीय खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय प्याज के मामले में एक बार फिर हाथ पर हाथ धरे बैठे नजर आया और वह भी तब जब यह मंत्रालय उन शरद पवार के पास है जिनके गृह राज्य महाराष्ट्र में प्याज का बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है। यह भी ध्यान रहे कि पवार के पास कृषि मंत्रालय का भी प्रभार है। यह पहली बार नहीं जब पवार अपने दायित्वों के निर्वहन में असफल साबित हुए हों। वह ऐसी ही असफलता चीनी और दालों के दामों को नियंत्रित करने के मामले में भी दिखा चुके हैं। यह आश्चर्यजनक है कि जब प्याज के दामों में अप्रत्याशित वृद्धि की खबर मीडिया में आई तो प्रधानमंत्री ने इस पर हैरानी जताई कि ऐसा कैसे हो गया? बाद में उन्होंने यही सवाल खुद शरद पवार से भी पूछा। इसका मतलब है कि खाने-पीने की वस्तुओं की आपूर्ति एवं उनके मूल्यों में नियंत्रण रखना केंद्र सरकार के एजेंडे में ही नहीं। विडंबना यह है कि यही सरकार आम आदमी के हितों की सबसे ज्यादा दुहाई देती है। जिस देश में आम आदमी को दो जून की रोटी का जुगाड़ करने में एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है वहां खाद्य पदार्थों के दामों में बेतहाशा तेजी के बाद सरकार से सिर्फ कोरे आश्वासन मिलना सत्ता का संवेदनहीन आचरण ही कहा जाएगा। प्याज के दाम जिस तरह रातों-रात आसमान छूने लगे उससे यही संकेत मिलता है कि कहीं न कहीं दाल में कुछ काला है। प्याज के दामों में उछाल आने के पहले उसका जमकर निर्यात किया जा रहा था और वह भी तब जब सरकार को यह सूचना थी कि नासिक में प्याज की 20-30 प्रतिशत फसल खराब हो गई है। आखिर जो प्याज प्रमुख मंडियों में 20-30 रुपये में उपलब्ध है वह आम आदमी तक पहुंचते-पहुंचते 70-80 रुपये किलो कैसे हो जाता है? यह जो मुनाफाखोरी हो रही है उस पर सरकार लगाम लगाने में अक्षम क्यों है? उसकी ओर से ऐसी कोई व्यवस्था क्यों नहीं बनाई गई जिससे फल-सब्जियों और खाद्यान्न की जमाखोरी न होने पाए? चूंकि प्याज के दाम सारे देश में तेजी से बढ़े इसलिए यह स्पष्ट है कि मुनाफाखोरों का ऐसा कोई जाल है जिससे जमाखोर भी जुड़े हुए हैं। आश्चर्य नहीं कि इन तत्वों को किसी न किसी स्तर पर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त हो। यह निराशाजनक है कि आम आदमी के हित की बातें करने वाली संप्रग सरकार के शासनकाल में महंगाई हमेशा मुंह बाए नजर आती है। सरकार महंगाई पर लगाम लगाने के जितने दावें करती है वह उतनी ही बेकाबू होती जाती है। इस वर्ष चार-छह हफ्तों को छोड़कर खाद्य मुद्रास्फीति दहाई के नीचे नहीं रही। अब तो वह 12 प्रतिशत के ऊपर चली गई है और आशंका है कि यह सिलसिला कायम रहेगा। एक तथ्य यह भी है कि आम उपभोग की जिन वस्तुओं के दाम आसमान छूने लगते हैं वे सामान्य स्तर पर कभी नहीं आ पाते। देश जानना चाहेगा कि बेहतर मानसून और अच्छी उपज के बावजूद खाद्य मुद्रास्फीति बेकाबू क्यों है? देश को इस सवाल का भी जवाब चाहिए कि जब कृषि एवं खाद्य मंत्री इससे परिचित थे कि नासिक में बारिश के कारण प्याज की कुछ फसल खराब हो गई है तब फिर उनकी ओर से आवश्यक कदम क्यों नहीं उठाए गए? क्या कारण है कि जब प्याज दोगुने दामों में बिकने लगा तब उसका निर्यात रोका गया? हालांकि पाकिस्तान से प्याज का आयात किया जा रहा है, लेकिन फिलहाल यह कहना कठिन है कि शीघ्र ही प्याज के दाम सामान्य स्तर पर आ आएंगे। अब तो प्याज के साथ-साथ अन्य फल-सब्जियों के दाम भी बढ़ते दिख रहे हैं। टमाटर प्याज की तरह रंग दिखा रहा है। नि:संदेह यह नहीं कहा जा सकता कि फल-सब्जियों के बढ़े मूल्यों का लाभ किसानों को मिलता है। सच तो यह है कि किसानों को अपनी उपज का जो मूल्य मिलता है और वह उपभोक्ताओं को जिस मूल्य पर उपलब्ध होती है उसमें भारी अंतर रहता है। कभी-कभी तो यह 80 से 200 प्रतिशत तक नजर आता है। इस अंतर के पीछे कृषि उपज को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने में होने वाला खर्च कदापि नहीं हो सकता। स्पष्ट है कि इस अंतर के पीछे कोई गोरखधंधा है। यह गोरखधंधा तब जारी है जब सरकारें और राजनीतिक दल किसानों की बदहाली पर आंसू बहाते नहीं थकते। यह ठीक है कि सरकार ने कुछ फसलों के न्यूनतम खरीद मूल्य बढ़ाए हंै, लेकिन उससे किसानों को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ है। अब यह आवश्यक हो गया है कि खाद्य एवं आपूर्ति विभाग किसी सजग और दूरदर्शी व्यक्ति के हवाले किया जाए। इसके साथ ही फल-सब्जियों एवं खाद्यान्न के भंडारण और वितरण की व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन भी आवश्यक है और किसानों की सुधि लेना भी, क्योंकि अभी वे उतना उत्पादन मुश्किल से कर पा रहे हैं जिससे देश की आबादी का पेट आसानी से भर सके। अब तो यह माना जाने लगा है कि हमें अपनी आवश्यकता भर अनाज पाने के लिए विदेशों में खेती करनी पड़ेगी। मंत्रियों के एक समूह ने तो इसकी सिफारिश भी की है। ऐसा नहीं है कि केंद्र सरकार कृषि की मौजूदा स्थिति से अवगत न हो, लेकिन यह समझना कठिन है कि वह खेती-किसानी के तौर-तरीकों में बदलाव के लिए कोई ठोस प्रयास क्यों नहीं कर रही है। ऐसे प्रयासों का अभाव खाद्यान्न की भंडारण व्यवस्था में भी नजर आता है और वितरण व्यवस्था में भी। यही कारण है कि प्रतिवर्ष हजारों टन अनाज सरकारी गोदामों में सड़ जाता है। इस वर्ष भी ऐसा हुआ। ऐसे कृषि प्रधान देश का कोई मतलब नहीं जहां राजनीतिक दल किसानों को सब्जबाग भी दिखाएं और उनकी उपेक्षा भी करें। राजनीतिक दलों का यह रवैया किसानों को ठगने वाला तो है ही, देश की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालने वाला भी है।
साभार:-दैनिक जागरण

गंगा की दिखावटी देखभाल

जिस गंगा को हम सदियों से पूजते आए हैं और जिसके किनारे हमारी सभ्यता और संस्कृति का विकास हुआ, जिसके अस्तित्व से हमारा अस्तित्व है वही गंगा आज संकट के कगार पर है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह संकट किसी और ने नहीं, बल्कि हमने खुद पैदा किया है। लगातार कल-कारखानों और घरों से निकलने वाले जहरीले पदार्थ और प्रदूषित जल गंगा में बहाए जाने से आज इसका जल इतना प्रदूषित हो गया है कि इसे कई जगहों पर पीना तो दूर सिंचाई के लिए भी उपयोग नहीं किया जा सकता। 1981 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक गंगा नदी के जल में ई-कोली का स्तर दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। यह मानव मल अथवा पशुओं के पेट में पाया जाता है, जो जल को जहरीला और अस्वास्थ्यकर बना देता है, जिससे इस जल का उपयोग करने वाले लोगों को कई तरह की गंभीर बीमारियां होने का खतरा होता है। देश के करीब 300 शहर इस नदी के किनारे स्थित हैं, जिनसे प्रतिदिन लाखों टन मल और गंदगी गंगा में बहाया जा रहा है तो दूसरी तरफ मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिए हानिकारक रासायनिक पदार्थो को गंगा के जल में औद्योगिक इकाइयों द्वारा बहाया जा रहा है। इसका सम्मिलित प्रभाव यह हुआ है कि कभी न सड़ने वाला गंगा का स्वास्थ्यवर्धक जल आज यदि कुछ दिनों के लिए घर में रख दिया जाए तो इससे दुर्गध महसूस की जा सकती है। एक तरफ औद्योगिक प्रदूषण से इस नदी का जल लगातार प्रदूषित और नष्ट किया जा रहा है तो दूसरी ओर ग्लोबल वार्मिग के कारण भी इसे खतरा पैदा हो गया है। वैज्ञानिकों की मानें तो तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर के कारण कुछ दशकों में इस नदी को जल मिलना ही बंद हो जाएगा, जिससे यह नदी सूख सकती है। इस स्थिति से सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि तब हमारे शहरों का अस्तित्व किस तरह बचेगा और खेती कैसे होगी? हमारे नेता और नीति-नियंता इतना क्यों अनजान हैं कि वर्तमान के थोड़े से स्वार्थ के लिए पूरी मानव सभ्यता को ही अंधकार में डुबो देना चाहते हैं। 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने जहरीला प्रदूषण फैला रही इकाइयों को तत्काल बंद करने का निर्देश दिया था, लेकिन सच्चाई यही है कि आज पूरे देश में करीब दो लाख छोटी-बड़ी ऐसी इकाइयां हैं जिनसे गंगा में प्रतिदिन लाखों टन जहरीले प्रदूषक बहाए जा रहे हैं। कानपुर और बनारस में स्थिति अकल्पनीय है, लेकिन वहां अभी भी कई इकाइयां सरकार की अनदेखी के कारण चल रही हैं। जब अदालत की फटकार पड़ती है तो सरकार कुछ दिन के लिए जाग जाती है, लेकिन समय बीतने के साथ ही अधिकारी इन इकाइयों से पैसा लेकर उन्हें अनापत्ति प्रमाण पत्र देते हैं और ये चलती रहती हैं। यदि हम लोहारीनागपाला परियोजना की ही बात करें तो प्रो। बीडी अग्रवाल के आमरण अनशन और देशव्यापी दबाव बनाए जाने पर सरकार ने इस तरह की परियोजनाओं को तत्काल रोकने के लिए अपनी सहमति दे दी, लेकिन अब फिर से एनटीपीसी योजना आयोग और सरकार के पास इसे शुरू कराने के लिए प्रयासरत है। इससे तो यही साबित होता है कि सरकार ने बांधों के काम को रोका है, छोड़ा नहीं है। टिहरी बांध पूरी तरह धंस गया है, जिससे काफी नुकसान हुआ, लेकिन इससे कोई सबक सीखने को तैयार हो, ऐसा लगता नहीं। सितंबर 1985 में गंगा को बचाने के लिए गंगा अथॉरिटी का गठन हुआ था और गंगा की सफाई के लिए अब तक करीब 3000 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं, लेकिन रिपोर्ट बताती हैं कि गंगा के जल का प्रदूषण स्तर आज भी उतना ही है जितना पहले था। 22 सितंबर, 2008 को गंगा को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करते हुए सरकार ने इसे राष्ट्रीय नदी की संज्ञा दी। 2020 तक गंगा को पूरी तरह साफ किए जाने के लिए 15 हजार करोड़ रुपये खर्च किए जाने हैं। अभियान को समग्रता देने के लिए सरकार ने गंगा अथॉरिटी की जगह अब नया नामकरण नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी (एनआरजीबीए) बनाया है, जिसके प्रमुख खुद प्रधानमंत्री हैं। यह एक नितांत अव्यावहारिक कदम है, क्योंकि प्रधानमंत्री के पास कई काम होते हैं और उन्हें इतना समय कभी नहीं होता कि वह इन कार्यो की निगरानी अथवा जानकारी कर सकें। इससे यही जाहिर होता है कि सरकार गंगा सफाई के नाम पर विश्व बैंक और सरकारी कोष से आने वाले पैसे के उपयोग के प्रति ईमानदार नहीं है। यदि ऐसा है तो बेहतर होगा कि पावन नदी गंगा की देखभाल और सफाई आदि के लिए किसी पूर्णकालिक आयोग का गठन किया जाए, जिसका कोई स्थायी उप प्रमुख अथवा सचिव हो, जो यथार्थ के धरातल पर इन कार्यो की सतत निगरानी कर सके। यदि ऐसा कुछ नहीं किया जाता है तो गंगा की सफाई के नाम पर एक और बड़ा घोटाला आने वाले समय में देश देखे तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। (लेखक मैग्सेसे पुरस्कार विजेता पर्यावरणविद हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

अधूरी उम्मीदों का साल

कृषि और किसानों की बुनियादी समस्याओं के साथ एक और वर्ष गुजरता देख रहे हैं देविंदर शर्मा
2010 तो इतिहास बनने जा रहा है। मैं सशंकित हूं कि क्या नया साल किसानों के लिए कोई उम्मीद जगाएगा? अनेक वर्षो से मैं नए साल से कहले क्रार्थना और उम्मीद करता हूं कि कम से कम यह साल तो किसानों के चेहरे कर मुसकान लाएगा, किंतु दुर्भाग्य से ऐसा कभी नहीं हुआ। साल दर साल किसानों की आर्थिक दशा बद से बदतर होती जा रही है। साथ ही कृषि भूमि किसानों के लिए अलाभकारी होकर उनकी मुसीबतें बढ़ा रही है। रासायनिक खाद के अत्यधिक इस्तेमाल से मिट्टी जहरीली हो रही है। अनुदानित हाइब्रिड फसलें मिट्टी की उर्वरता को नष्ट कर रही हैं और भूजल स्तर को गटक रही हैं। इसके अलावा इन फसलों में बहुतायत से इस्तेमाल होने वाले रासायनिक कीटनाशक न केवल भोजन को विषाक्त बना रहे हैं, बल्कि और अधिक कीटों को पनपने का मौका भी दे रहे हैं। परिणामस्वरूप किसानों की आमदनी घटने से वे संकट में फंस रहे हैं। खाद, कीटनाशक और बीज उद्योग किसानों की जेब से पैसा निकाल रहा है, जिसके कारण किसान कर्ज में डूबकर आत्महत्या जैसे कदम उठाने को मजबूर हैं। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि किसानों के खूनखराबे के लिए सबसे अधिक दोषी कृषि अधिकारी और विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक हैं। रोजाना दर्जनों किसान रासायनिक कीटनाशक पीकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेते हैं। पिछले 15 वर्षो में कृषि विनाश का बोझ ढोने में असमर्थ दो लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर ली है। यह सिलसिला रुकता दिखाई नहीं देता। पुरजोर प्रयासों के बावजूद करोड़ों किसान अपनी पीढि़यों को विरासत में कर्ज देने को मजबूर हैं। सरकार और कृषि विश्वविद्यालयों को अकारण दोषी नहीं ठहराया जा रहा है, किंतु एक हद तक किसान भी इस संकट के लिए जिम्मेदार हैं। जल्दी से जल्दी पैसा कमाने का लोभ उन्हें गैरजरूरी प्रौद्योगिकियों की ओर खींच रहा है, जो अंतत: उनके हितों के खिलाफ हैं। लंबे समय से किसान उपयोगी कृषि व्यवहार से विमुख होते जा रहे हैं और कृषि उद्योग व्यापार के जाल में फंसते जा रहे हैं। उद्योग उन्हें एक सपना बेच रहा है-जितनी अधिक उपज प्राप्त करोगे, उतनी ही कमाई होगी, जबकि असलियत में उद्योग जगत का मुनाफा बढ़ रहा है, किसानों को तो मरने के लिए छोड़ दिया गया है। हरित क्रांति के 40 साल बाद 90 प्रतिशत से अधिक किसान गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। मानें या न मानें, देश भर में किसान परिवार की औसत आय 2400 रुपये से भी कम है। यह भी तब जब किसान अधिक आय के चक्कर में तमाम प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस प्रकार अनेक रूपों में किसानों के साथ जो श्राप जुड़ गया है उसके लिए वे भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। जरा इस पर विचार करें कि क्या किसानों को कृषि संकट के लिए दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए? आप कब तक सरकार और कृषि विश्वविद्यालयों के सिर ठीकरा फोड़ते रहेंगे। आप कृषि से दीर्घकालिक और टिकाऊ तौर पर अधिक आय हासिल क्यों नहीं करते? कृपया यह न कहें कि यह असंभव है। अगर किसान अपने परंपरागत ज्ञान का इस्तेमाल कृषि में करें तो वे इस लक्ष्य को आसानी से हासिल कर सकते हैं। महाराष्ट्र के यवतमल जिले के डरोली गांव के ­­­सुभाष शर्मा से मिलिए। वह उस विदर्भ पट्टी से हैं जहां बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या करते हैं, लेकिन वह कृषि से अच्छी-खासी आमदनी हासिल कर रहे हैं। सुभाष शर्मा कोई बड़े किसान नहीं हैं। उनके पास 16 एकड़ जमीन है। देश में अधिकांश किसानों की तरह वह भी कर्ज के जाल में फंसे हुए थे। सुभाष के अनुसार, 1988 से 1994 के बीच का समय मेरे लिए सबसे बड़ी परेशानी का समय था। तब मैंने इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने का उपाय ढूंढा और कर्ज का जुआ उतार फेंका। मैंने रासायनिक खाद और कीटनाशकों की कृषि पद्धति को तिलांजलि दे दी और ऑर्गेनिक कृषि को अपना लिया। इससे एक नई शुरुआत हुई। वह कहते हैं कि कर्ज के इस भयावह चक्र से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है कि किसान हरित क्रांति के कृषि मॉडल का त्याग कर दें। हरित क्रांति कृषि व्यवस्था में मूलभूत खामियां हैं। इसमें कभी भी किसान के हाथ में पैसा नहीं टिक सकता। अब वह देश भर में कार्यशाला आयोजित कर किसानों को जागरूक कर रहे हैं कि प्राकृतिक कृषि के तरीकों से कर्ज के जाल को कैसे काटा जा सकता है। कृषि संवृद्धि और देश की खाद्यान्न सुरक्षा का जवाब इसी में निहित है। सुभाष शर्मा की आर्थिक स्थिति इतनी सुदृढ़ हो गई है कि उन्होंने कामगारों के लिए 15 लाख का आपात कोष भी जुटा लिया है। किसी की मृत्यु होने पर या फिर बेटी के विवाह के अवसर पर उनके सामाजिक सुरक्षा कोष से कुछ राहत मिल जाती है। वह श्रमिकों के बच्चों की शिक्षा का खर्च भी उठाते हैं। इसके अलावा उन्हें बोनस और छुट्टी यात्रा का भत्ता भी देते हैं। चौंकिए मत, सुभाष शर्मा अपने 51 कामगारों को प्रतिवर्ष 4।5 लाख रुपये का बोनस देते हैं, जो प्रति व्यक्ति 9000 रुपये बैठता है। वह अपने श्रमिकों को साल में एक बार घूमने के लिए छुट्टी देते हैं। प्रत्येक कामगार को साल में पचास दिन की छुट्टियां मिलती हैं। एक ऐसे समय में जब शायद ही किसी दिन श्रमिकों के साथ अमानवीय अत्याचार की खबरें न आती हों, इस तरह का रवैया सुखद आश्चर्य में डालने वाला है। जहां तक कीटनाशकों का सवाल है, हरियाणा के जींद जिले में चुपचाप एक क्रांति हो रही है। यहां के किसान बीटी कॉटन पैदा नहीं करते, बल्कि प्राकृतिक परभक्षियों पर भरोसा करते हैं। ये परभक्षी कीट नुकसानदायक कीटों को चट कर जाते हैं। उन्होंने कपास में लगने वाले प्रमुख कीट मिली बग का प्राकृतिक उपाय खोज निकाला है। जींद के सुरेंद्र दलाल ने बड़े परिश्रम के बाद मिली बग को काबू में करने में सफलता प्राप्त कर ली है। उन्होंने इस विषय पर काफी शोध किया और इस नतीजे पर पहुंचे कि नुकसान न पहुंचाने वाली आकर्षक लेडी बीटल इन मिली बगों को चट करने के लिए काफी हैं। यह इन मिली बग को बड़े चाव से खाती है, जिससे किसानों का महंगे कीटनाशकों पर पैसा खर्च नहीं होता। उन्होंने महिला पाठशाला भी शुरू की है। इन दो किसानों ने कृषि क्षेत्र में नया अध्याय लिख दिया है। अब सही समय है कि आप इनकी सफलता से सबक लें और कृषि का खोया हुआ गौरव वापस लौटा दें। निश्चित तौर पर आप यह कर सकते हैं। इसके लिए बस दृढ़ निश्चय की आवश्यकता है। तभी हम उम्मीद कर सकते हैं कि किसानों के लिए नया वर्ष नया हर्ष लेकर आएगा। (लेखक कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

लक्ष्य से भटकी कांग्रेस

पूरे देश में भ्रष्टाचार और महंगाई विरोध की आंधी झेल रही कांग्रेस के महाधिवेशन से देश को उम्मीद थी कि कुछ नए और ठोस जवाब के साथ उसका नया नेतृत्व उभर कर सामने आएगा। बिहार की जनता ने राहुल नेतृत्व को पूरी तरह नकार दिया है। उत्तर प्रदेश की जनता तो उन्हें पहले ही अस्वीकार कर चुकी है। फिर भी उन्हीं को थोपने की मंशा से सिद्ध हो जाता है कि कांग्रेस अपनी कमियों को नजरंदाज कर आगे बढ़ने की कोशिश ही नहीं कर रही है। अभी तक आतंकवाद को पंथ और जाति से परे बताने वाली कांग्रेस ने सम्मेलन में इसका वर्गीकरण बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक के रूप में कर दिया। फिर कांग्रेस इतिहास के प्रति जबावदेह भी नहीं है। 80 के दशक में लिट्टे उग्रवादियों को देहरादून में प्रशिक्षण देकर श्रीलंका भेजना और उन्हीं का दमन करने के लिए भारत की शांति सेना को श्रीलंका भेजना किस वर्ग का आतंकवाद था। इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी हिंसा में देश भर में हजारों सिख मारे गए, अरबों की संपत्ति लूटी गई। आज भी कांग्रेसी उन दंगों का इल्जाम झेल रहे हैं। वह किस वर्ग का आतंकवाद था। सम्मेलन के मंच पर खामोश प्रधानमंत्री कांग्रेस अध्यक्ष के अभिनंदन के पात्र थे। उनका भाषण सुनने, उनके विचार सुनने में किसी की रुचि नहीं थी। उन्हें सफाई तो देश को देनी होगी कि पूरे देश को उन्होंने वचन दिया था कि दिसंबर तक महंगाई समाप्त हो जाएगी। प्याज के दाम 80 रुपये किलो पहुंच गए हैं। पेट्रोल व चीनी के दाम पहले ही बढ़ा दिए गए थे। दूध का दाम उसी दिन दो रुपये लीटर बढ़ा था। इस महंगाई का असर न तो गरीबों के हमदर्द राहुल को परेशान कर रहा था न ही प्रधानमंत्री को। हां, गृहमंत्री चिदंबरम को राहुल के दार्शनिक अंदाज में दिए भाषण में राजीव की झलक नजर आ रही थी। वह प्रतिनिधियों से उनके भाषण का अर्थ निकालने की अपील कर रहे थे। शायद इसमें उनकी खुद की सफाई निहित थी क्योंकि राजीव की शहादत के बाद वह तमिल मनीला कांग्रेस बनाकर जी।के. मूपनार के साथ चले गए थे और देवगौड़ा, गुजराल सरकारों के चहेते वित्तमंत्री बन गए थे। सहसा उनकी खुली अर्थव्यस्था की पोथी कम्युनिस्टों की बंद अर्थव्यवस्था की पोषक हो गई थी। इसकी सफाई तो देनी ही थी क्योंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ऐसे लेागों की खूब खबर ली थी और राहुल ने उनकी पीठ थपथपाई थी। चिदंबरम का समय अपनी सफाई में चला गया। आतंकवाद, नक्सलवाद, कानून-व्यवस्था को उन्होंने छुआ ही नहीं। वित्तमंत्री का पूरा भाषण भ्रष्टाचार के मुद्दे पर संयुक्त समिति बनाने के विरोध में था। देश की आर्थिक दशा को दूर से भी नहीं छुआ गया। सोनिया गांधी व राहुल इमला पढ़ने के अभ्यस्त हैं। नेहरू-इंदिरा के खानदानी होते हुए उनके पास न तो सोच है न ही दृष्टि। फिर देश क्या सुने और क्या जाने। प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार के बिंदु पर पब्लिक एकाउंट्स कमेटी के सामने हाजिरी की गुहार लगा दी, फिर जे.पी.सी. क्यों नहीं। प्रधानमंत्री लगातार राज्यसभा के सदस्य हैं। लोकसभा संकट में थी और वह विदेश यात्रा पर थे। संसद के प्रति इतना आदर है तो संकट में एक बार भी विपक्ष से बात करने का समय निकालते। आखिर उन पर तो भ्रष्टाचार के आरोप लगे नहीं किंतु उनकी जानकारी में देश की मूल्यवान संपत्ति लूटी जा रही थी। उसके लिए क्या किया? पी.ए.सी के सामने केवल अधिकारियों की पेशी होती है। लोकसभा अध्यक्ष की पूर्व अनुमति के बिना किसी मंत्री को पी.ए.सी. के सम्मन की तामील नहीं की जा सकती। प्रधानमंत्री राज्यसभा के सदस्य हैं। उन पर लोकसभा अध्यक्ष का कोई अधिकार नहीं है। आखिर प्रधानमंत्री ने इस बिंदु पर भी फिर से देश को गुमराह कर ही दिया। इससे साफ हो जाता है प्रधानमंत्री खुद राजनीतिक भ्रष्टाचार पर पर्दा डाल रहे हैं। अभी तक सीबीआइ गैर कांग्रेसी नेताओं के यहां छापा डाल चुकी है, कांग्रेसियों के घर क्यों नहीं? विदेशों में लाखों करोड़ का कालाधन वापस लाने के बारे में सरकारी आश्वासनों का क्या हुआ? अधिवेशन ने सिद्ध किया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलने में कांग्रेस असमर्थ है क्योंकि राजनीति के शीर्ष में व्याप्त भ्रष्टाचार ही कांग्रेस की पूंजी है। कांग्रेस अपने संगठनात्मक ढांचे के बारे में कोई संदेश नहीं दे सकी। 15 हजार प्रतिनिधियों में एक हजार भी निर्वाचित नहीं थे। मनोनयन के रोग से ग्रस्त कांग्रेस कभी संगठनात्मकर चुनाव नहीं करा सकती। इस अधिवेशन से देश की उत्सुक जनता को नई रोशनी नहीं मिली। कांग्रेसजनों को भी कुछ नया नहीं मिला। बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों से प्रतिनिधियों को अपनी बात कहने का मौका ही नहीं मिला। सम्मेलन को संघ परिवार का भूत सताता रहा। कांग्रेस पार्टी की लचर नीतियों से ही देश में सांप्रदायिकता की विषबेल फली-फूली है। कांग्रेस फिर से देश को सांप्रदायिक खेमेबंदी में बांटने की साजिश रच रही है। आंध्र में कांग्रेस पर संकट आया तो नरसिंहा राव का भूत निकल आया। ऐसी दिग्भ्रमित कांग्रेस की अवनति होनी ही है। कांग्रेस में सोच, संकल्प और नेतृत्व तीनों गायब हैं जो किसी दल के आगे बढ़ने के लिए जरूरी हैं। (लेखक सपा के महासचिव हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

घोटालों का गणतंत्र

घरेलू राजनीतिक और आर्थिक तंत्र में भ्रष्टाचार को देश की सुरक्षा के लिए खतरा बता रहे हैं ब्रह्मा चेलानी

घोटालों का गणतंत्र भारत राष्ट्रीय सुरक्षा की अनेक चुनौतियों से जूझ रहा है। किंतु इनमें से केवल एक- राजनीतिक भ्रष्टाचार ने भारतीय राष्ट्र के सामने अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। आज राष्ट्र वास्तव में बड़े घोटालों के गणतंत्र में तब्दील हो चुका है। व्यक्तिगत लाभ के लिए सरकारी पदों के दुरुपयोग का घुन राष्ट्र की शक्ति को खोखला कर रहा है। जब हथियारों की खरीद से लेकर नीतिगत बदलाव जैसे महत्वपूर्ण फैसले अकसर भ्रष्ट निहितार्थो से प्रभावित होते हैं, तब राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ समझौता होने की आशंका बढ़ जाती है। अगर आज भारत को एक शिथिल राष्ट्र के तौर पर देखा जा रहा है, तो इसके लिए प्रमुख रूप से दोषी भ्रष्टाचार है। भारत की इस ढिलाई से उन लोगों की बांछें खिल गई हैं जो इसकी सुरक्षा पर निशाना साधना चाहते हैं। एक पुरानी कहावत, सड़ी मछली का सिर नीचा से भारत की हालत जाहिर हो जाती है। यानी सिर उसी का झुकता है जिसका शरीर स्वस्थ नहीं होता। वास्तव में सरकार के तमाम अंगों में प्रत्येक स्तर पर भ्रष्टाचार का पहिया खुद--खुद घूमता रहता है। यह भारत की आंतरिक सुरक्षा की कमजोर कड़ी बन गया है। जैसा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश ने पिछले साल कहा था कि मुंबई धमाकों को अधिक घातक बनाने के लिए जो प्लास्टिक के विस्फोटक इस्तेमाल किए गए थे, देश में उनकी तस्करी स्थानीय भ्रष्ट प्रशासन के कारण संभव हो सकी थी। किंतु जो तत्व भारतीय गणतंत्र को जर्जर बना रहा है वह है उच्च पदों पर संस्थागत भ्रष्टानीति भ्रष्टाचार से गंभीर रूप से संक्रमित हो तो विदेश नीति दमदार हो ही नहीं सकती। विडंबना है कि आर्थिक उदारीकरण ने व्यक्तिगत लोभ को बढ़ाया है और इसकी वजह से समाज में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार फैला है। यहां तक कि विभिन्न परियोजनाओं को पर्यावरण मंत्रालय द्वारा मंजूरी प्रदान करने से पुराने जमाने के लाइसेंस राज की याद ताजा हो जाती है। अब भारत में भ्रष्टाचार राष्ट्रीय लूट में बदल चुका है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि भारत संस्थागत रूप से दुर्बल होता जा रहा है। यहां इतने घोटाले होने लगे हैं कि लोगों का गुस्सा कुछ ही समय में ठंडा पड़ जाता है। वास्तव में, किसी बड़े घोटाले के खुलासे के बाद लोगों का गुस्सा शांत करने के लिए इसके बाद के छोटे घोटाले को उछाला जाता है। भ्रष्टाचार के घोटाले अब तो जैसे टीवी धारावाहिक बन गए हैं। उतने ही दिलचस्प और नाटकीय। जनता का ध्यान हटाने के लिए सरकार घोटाले की जांच प्रक्रिया की बात आगे बढ़ा देती है। इसमें सुनिश्चित किया जाता है कि घोटाले से लाभ उठाने वाले बच निकलें और लूट की रकम भी वसूल हो पाए। किसी भुलावे में रहें। मॉरिशस जैसे सुरक्षित आश्रयों से अंतरराष्ट्रीय वित्त का देश में प्रवाह साफ-साफ आपराधिक कृत्य की श्रेणी में आना चाहिए। जब आर्थिक अनुबंधों पर हस्ताक्षर होते हैं या फिर नीतिगत फैसले लिए जाते हैं तो घूसखोरी के कारण राष्ट्रीय हितों पर कुठाराघात से परहेज नहीं किया जाता। भारत उन देशों में शीर्ष पर है जिनकी राष्ट्रीय संपदा चुराकर स्विस बैंकों में जमा की जा रही है। फिर भी, किसी भी भारतीय राजनेता को देश के खिलाफ जंग छेड़ने के आरोप में फांसी पर नहीं लटकाया गया है। भारत दो प्रकार के आतंक का हमला झेल रहा है। ये हैं जिहादी और इसके खुद के राजनेता द्वारा की जा रही राष्ट्रीय धन के साथ लूट-खसोट। भ्रष्टाचार की संस्कृति का घातक प्रभाव राष्ट्रीय क्षमताओं में Oास से परिलक्षित होता है। भारत की आर्थिक गतिशीलता की जड़ें निजी क्षेत्र के नेतृत्व में होने वाले विकास में हैं। किंतु चीन के विपरीत, भारत में जिस भी क्षेत्र में सरकार भागीदार है, वहां प्रदर्शन बहुत खराब है। राष्ट्र की अधोगति भारत को अपने हित सुरक्षित रखने में सबसे बड़ी बाधा है। इसी कारण राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा नेपथ्य में चला जाता है। आज, आत्मप्रशंसित अतुल्य भारत की कोई सुनियोजित राष्ट्रीय सुरक्षा नीति या सुपरिभाषित रक्षा नीति, या फिर घोषित आतंक विरोधी सिद्धांत नहीं है। भारत विश्व की एकमात्र ऐसी बड़ी शक्ति है, जो मूलभूत रक्षा जरूरतों के लिए अन्य शक्तियों पर निर्भर है। उच्च श्रेणी के सामरिक पहुंच वाले हथियारों अन्य सुविधाओं का निर्माण करने के बजाए भारत ने हथियार जुटाने के लिए पैसे लुटाने का रास्ता अपनाया हुआ है। परिणामस्वरूप, पिछले दशक में भारत विश्व का सबसे बड़ा हथियारों का आयातक देश बन गया है, जबकि युद्ध में निर्णायक जीत हासिल करने की इसकी क्षमता धीरे-धीरे खत्म हो रही है। क्या कोई अन्य देश भारत से अधिक अतुल्य हो सकता है! भारत की सुरक्षा अनंत घोटालों में तब्दील हो गई है। यहां तक कि नियंत्रक और महालेखापरीक्षक द्वारा हथियारों की खरीद के तरीके पर उंगली उठाए जाने के बाद भी इसमें कोई परिवर्तन नहीं आया है। इस प्रकार के आयात अकसर खुली निविदा और पारदर्शिता के बिना ही होते हैं। यह राजनीतिक भ्रष्टाचार का प्रमुख श्चोत है। भारत ने सिद्ध कर दिया है कि जितना भ्रष्ट तंत्र होगा, उतने ही शक्तिशाली भ्रष्टाचार करने वाले तत्व होंगे। एक भ्रष्ट व्यवस्था इसमें शामिल होने वालों को तेजी से भ्रष्ट बना देती है। इस प्रकार के भ्रष्टाचार से सरकारी या राजनीतिक दलों के स्तर से नहीं निपटा जा सकता। आखिरकार, भ्रष्टाचार का बड़ा हिस्सा राजनेताओं की जेबों में ही पहुंचता है और उनके लोभ को और भड़का देता है। अन्य राष्ट्रीय चुनौतियों की तरह भ्रष्टाचार का प्रमुख कारण कुशल नेतृत्व और सुशासन का लोप है। ईमानदार नेतृत्व को प्रोत्साहन, शासन में सुधार, राजकोषीय पारदर्शिता सुनिश्चित करने के उपाय, रिश्वतखोरी के खिलाफ तंत्र की मजबूती, सरकार की जवाबदेही और जनता के सक्रिय योगदान से ही भ्रष्टाचार पर लगाम कसी जा सकती है। राजनीति और व्यापार में भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए स्वतंत्र जांच एजेंसियों का गठन अनिवार्य शर्त है। भारत में ये एजेंसियां ऐसे लोगों द्वारा नियंत्रित हैं, जिनमें से अधिकांश खुद भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद आज महामारी का रूप ले चुके हैं। ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति के बाद भी भारत में साम्राज्यवादी सिद्धांतों पर आधारित घरेलू राजनीतिक वर्ग विकसित हुआ है, जो अब भी साम्राज्यवादी तौर-तरीकों से संचालित हो रहा है। शोषण और लूट-खसोट से मुक्ति पाने के लिए भारत को स्वतंत्रता के दूसरे संघर्ष से गुजरना होगा। (लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
साभार:-दैनिक जागरण