Sunday, January 16, 2011

ओवरलोडिंग से कराहते राजमार्ग

भारत में राष्ट्रीय राजमार्ग कार्यक्रम को शुरू हुए बमुश्किल एक दशक हुआ है। इस दौरान बड़े पैमाने पर राजमार्गो का विकास हुआ है। यह निर्माण बाकायदा केंद्रीय कानून के तहत स्थापित केंद्रीय एजेंसी राष्ट्रीय राजमार्ग विकास प्राधिकरण यानी एनएचएआइ की देखरेख में हुआ है। इसके बावजूद ज्यादातर राजमार्गो यानी हाइवे की हालत खराब हो चुकी है। इनमें जगह-जगह पैचवर्क हुआ है और ड्राइविंग का मजा किरकिरा हो गया है। आखिर क्या वजह है कि इतनी छोटी सी अवधि में ही बड़े जोरशोर से बनी राष्ट्रीय सड़कों का यह हाल हो गया? मैं दुनिया के कई विकसित देशों में घूमा हूं। वहां किसी भी राजमार्ग की हालत मैंने ऐसी नहीं देखी। हर जगह लगता है मानो राजमार्ग अभी कल ही बनें हों। वहां कोई सड़क बनने के बीस-पच्चीस साल बाद तक उसमें खराबी नहीं आती। उन्हें इसी लिहाज से बनाया जाता है और तदनुरूप गुणवत्ता सुनिश्चित की जाती है। इसके अलावा सड़क बनाने से पहले यह तय होता है कि इस पर किस तरह का ट्रैफिक चलेगा, उस पर कितना लोड होगा और गति सीमा क्या होगी। सभी मोर्चो पर नियमों का कड़ाई से पालन होता है। दूसरी ओर हमारे यहां सड़कें शुरू में तो बहुत अच्छी दिखाई देती हैं, लेकिन जल्द ही उनमें टूटफूट शुरू हो जाती है। गली-मोहल्ले की सड़कों की तो छोडि़ए, कई मर्तबा महीने-दो महीने में ही सड़क का बंटाधार शुरू हो जाता है। राष्ट्रीय राजमार्गो तक का यही हाल है, जिनके लिए कई स्तरों पर जांच का प्रावधान है। इस विषय पर परिवहन विशेषज्ञों से बात करने के बाद कुछ स्पष्ट कारण समझ में आए हैं, जिनका जिक्र यहां करना उचित होगा। पहले कुछ कारण तो सड़कों के डिजाइन, निर्माण में प्रयुक्त सामग्री की गुणवत्ता, निर्माण की प्रक्रिया व तकनीकी और निर्माण पूर्व होने वाली गुणवत्ता जांच से संबंधित हैं। इन सभी मामलों की जड़ में भ्रष्टाचार है, जिसकी वजह से हर स्तर पर कोताही बरती जाती है। लेकिन, सबसे बड़ा कारण है वाहनों की ओवरलोडिंग। हमारे यहां सड़कें जिस वहन क्षमता को झेलने के लिए बनाई जाती हैं, उससे ड्योढ़ा बोझ उन पर डाला जाता है, जिसे वे ज्यादा दिनों तक झेल नहीं पातीं और दरकने-उखड़ने लगती हैं। इस मामले में सड़क बनाने वालों का दोष तो है ही, उन पर वाहन दौड़ाने वालों व इस बाबत नियम-कायदे बनाने और उनका पालन कराने के लिए जिम्मेदार विभागों तथा केंद्र व राज्य सरकारों का दोष उससे भी ज्यादा है। डिजाइन क्षमता से ज्यादा और अनियमित-असंतुलित बोझ झेलने के बाद टूटी सड़कों पर पैचवर्क करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता है। यही वजह है कि कोई भी राजमार्ग कभी पूरा परफेक्ट नहीं दिखता। उसमें सालों-साल कहीं न कहीं मरम्मत, रखरखाव का काम चलता ही रहता है। इससे वाहनों की रफ्तार तो प्रभावित होती ही है, बार-बार गियर शिफ्टिंग से ईधन खर्च के साथ वाहनों का वियर-टियर भी बढ़ता है। कुल मिलाकर सड़क खराब होने से राष्ट्रीय संपत्ति का नुकसान होता है। राजमार्गो को सबसे ज्यादा नुकसान ट्रकों से होता है, जिन पर बोझ लादने की हमारे यहां कोई सीमा नहीं है। नौ टन वाहन पर दस-बारह टन और 16 टन वाहन पर 18-20 टन वजन लादना आम बात है। इस मामले में कोई नियम-कायदा नहीं चलता। जबकि मोटर वाहन अधिनियम के तहत आरटीओ के लिए स्पष्ट प्रावधान है कि निर्धारित क्षमता से ज्यादा वजन लादने पर उस माल को चेक प्वाइंट पर उतरवा लिया जाना चाहिए। मगर व्यवहार में यह कहीं नहीं होता। उलटे जुर्माना वसूलकर वाहनों को आगे बढ़ने और सड़क का बेड़ा गर्क करने की इजाजत दे दी जाती है। इस मामले में नियम-कायदे बनाने वाली केंद्र सरकार तो कसूरवार है ही, राज्य सरकारों का रवैया भी कम खराब नहीं है, जिन्हें राजमार्गो की सुरक्षा से ज्यादा अपने राजस्व की चिंता रहती है। ज्यादातर राज्य सरकारों ने ओवरलोडिंग को राजस्व बढ़ाने का जरिया बना रखा है। वाहनों से माल उतरवाने के बजाय उनकी रुचि उनसे जुर्माना वसूलने में है। इस मामले में राजस्थान सबसे अव्वल है, जबकि इस राज्य के परिवहन मंत्री खुद राष्ट्रीय परिवहन सलाहकार परिषद के अध्यक्ष हैं। दूसरी ओर केंद्र सरकार का कसूर यह है कि ट्रांसपोर्टरों के दबाव में वह सड़क क्षेत्र से संबंधित जरूरी सुधारों को आगे नहीं बढ़ा रही। मोटर वाहन अधिनियम 1988 में संशोधन का प्रस्ताव लंबे अरसे से लटका है। जबकि कैरिज बाय रोड एक्ट 2007 के नियमों को अब तक लागू नहीं किया जा सका है। ये वे कानून हैं जिन पर राजमार्गो की दशा का सारा दारोमदार है। कैरिज बाय रोड एक्ट से संबंधित रूल बनाने का नोटिफिकेशन केंद्र ने पिछले साल 15 जुलाई को जारी किया था। इसके मुताबिक ये रूल्स 15 अगस्त तक बन जाने थे, लेकिन ताकतवर ट्रांसपोर्टर लॉबी ने हड़ताल की धमकी देकर इसमें अड़ंगा लगा दिया। अब सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय इन रूल्स को 28 फरवरी 2011 तक अधिसूचित करने की बात कर रहा है।
साभार:-दैनिक जागरण

प्रधानमंत्री के नाम खुला पत्र

प्रधानमंत्री पर घपले-घोटालों के खिलाफ यथोचित कार्रवाई करने में असफल रहने का आरोप लगा रहे हैं बीआर लाल

(आदरणीय)? प्रधानमन्त्री, आपसे अपेक्षा है कि देश को प्रभावी और दृढ़ सुशासन मिले। शुरू में हम समझ रहे थे कि आप देश को इसी रास्ते पर ले जा रहे हैं, लेकिन लक्ष्य मिलने से बहुत पहले ही उम्मीद धुंधली पड़ने लगी है। हैरत की बात है कि स्पेक्ट्रम, राष्ट्रमंडल खेल समेत तमाम घोटालों की जानकारी जनता को है, लेकिन सरकार ने अभी तक उचित कार्रवाई नहीं की। समूचा देश सरकारी खजाने से हो रही लूट को असहाय होकर देख रहा है। यदि गली-कूचे तक में लोगों को इसकी जानकारी और चर्चा है तो कोई कारण नहीं कि आप इससे अवगत हों। 2जी स्पेक्ट्रम मामले में लोगों को मालूम है कि आपने घपलेबाजी को रोकने के लिए संचार मंत्री को पत्र लिखकर निर्देश दिया था कि बिना आपकी अनुमति के आवंटन किया जाए, परंतु निर्देशों की धज्जियां उड़ाते हुए कुछ ही दिनों में आवंटन के अंतिम आदेश जारी कर दिए गए और आपको सूचित भर किया गया। स्पेक्ट्रम जैसी राष्ट्रीय संपदा को आवंटित करने का दायित्व संबंधित मंत्री पर भरोसा करके दिया गया, लेकिन उन्होंने निर्धारित प्रक्रिया और दिशा-निर्देशों का उल्लंघन किया। यह उस भरोसे के साथ विश्वासघात है जो सार्वजनिक हित के पद पर बैठे व्यक्ति से अपेक्षित होता है। अपने पद के दुरुपयोग के कारण यह एक आपराधिक मामला बनता है। प्रधानमंत्री के रूप में आपकी जिम्मेदारी बनती थी कि आप राजा के विरुद्ध तुरंत कोई निर्णय लेते। आप उन्हें तत्काल प्रभाव से मंत्रालय से मुक्त कर सकते थे ताकि वह विभाग को प्रभावित करने की स्थिति में रहते। इससे वह साक्ष्यों को मिटाने अथवा फाइलों को इधर-उधर कर पाते। आप पूरे मामले की जांच का आदेश देकर मंत्री और दूसरे जिम्मेदार लोगों के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत मामला दर्ज कर सकते थे। उनकी संपत्तियों, बैंक लॉकरों आदि की समय रहते जांच की जानी चाहिए थी। ऐसा करने से उन्हें साक्ष्यों को नष्ट करने और तमाम कागजातों बेनामी संपत्तियों को इधर-उधर करने का मौका मिल गया। इन तथ्यों की जानकारी होने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की गई। यह एक प्रधानमंत्री को प्राप्त उस कानूनी कर्तव्य निर्वहन की अवहेलना मानी जाएगी जो ऐसे अपराधों को रोकने के लिए उन्हें प्राप्त होता है। इस तरह राजा और दूसरे दोषियों को हतोत्साहित करने के लिए आइपीसी की धारा 107(3) के तहत आपराधिक मामला बनता है। इस संदर्भ में गठबंधन के तर्क भी युक्तियुक्त नहीं माने जा सकते। यह दुखद है कि सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री इतने मजबूर हैं। मुख्य सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस की नियुक्ति का मामला भी निंदनीय है। देश में सत्यनिष्ठा और नैतिकता की निगरानी के इस सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति को किसी आपराधिक मामले का आरोपी नहीं होना चाहिए। उच्च पद पर बैठे अथवा शक्तिशाली लोगों द्वारा किए गए भ्रष्टाचार के मामलों में भारत में शायद ही लोगों को दंड मिलता है। इस बारे में बहुत दुख के साथ मुझे कहना पड़ रहा है कि भ्रष्टाचार के मामलों में सभी सरकारें दोषियों के खिलाफ रक्षात्मक ही रही हैं। भ्रष्टाचार, शोषण, टैक्स चोरी, सरकारी कोष के दुरुपयोग के मामलों में रसूखदार लोगों को बचाने का ही काम किया जाता है। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं कि नौकरशाहों मंत्रियों के खिलाफ अभियोजन या मुकदमा चलाने की अनुमति मिलने में वर्षो इंतजार करना पड़ा है। यह राष्ट्र के खिलाफ अपराध है। मुख्य सतर्कता आयुक्त मामले को ही लें। आपकी अध्यक्षता में गठित नियुक्ति समिति में गृहमंत्री और नेता प्रतिपक्ष शामिल थीं। नेता प्रतिपक्ष द्वारा पीजे थॉमस के खिलाफ चल रहे मामलों को संज्ञान में लाए जाने के बावजूद उन्हें अनसुना कर दिया गया। इस तरह स्पष्ट हो जाता है कि संवैधानिक रूप से गठित यह समिति दोषपूर्ण है, क्योंकि तीन में से दो सदस्य सरकार की तरफ से होने के कारण बहुमत के आधार पर नेता प्रतिपक्ष की आपत्तियों को अनसुना कर दिया गया। यदि हम संसद में 2जी स्पेक्ट्रम को लेकर चल रहे गतिरोध को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि इसमें घोटाला हुआ है। मेरी चिंता यही है किराजनीतिक विवादों के बीच साक्ष्यों और सुबूतों को गायब और नष्ट किया जा रहा है। एक तरफ सीबीआइ को इस मामले में मुकदमा दर्ज करने और जांच करने को कहा जाता है तो दूसरी तरफ समानांतर रूप से शुंगलू समिति भी गठित कर दी जाती है। ये सभी तथ्य खोजने वाली संस्थाएं हैं, जबकि मीडिया के माध्यम से इस बारे में पहले ही जनता को सब कुछ मालूम है और सुप्रीम कोर्ट ने भी सवाल उठाए हैं। सरकार इस मामले पर जेपीसी जांच को एक राजनीतिक हथियार बताकर इनकार कर रही है, जबकि विपक्ष जेपीसी की मांग पर अड़ा है ताकि उत्तरदायित्वों के निर्वहन में हुई चूक की जांच की जा सके और ऐसी प्रक्रिया निर्धारित की जा सके जिससे भविष्य में ऐसे मामलों को दोहराया जा सके, परंतु मेरे विचार से जेपीसी समेत कोई भी जांच साक्ष्य इकट्ठे करने के बाद ही ज्यादा प्रभावी होगी। साक्ष्यों को इकट्ठा किया जाना सबसे महत्वपूर्ण है। इतिहास इस बात का गवाह है कि निहित स्वार्थो की पूर्ति के लिए अतीत में सरकारों ने सीबीआइ का दुरुपयोग किया है, जिस कारण आज इस संस्था से लोगों का विश्वास उठता जा रहा है। सीबीआइ सरकार का एक अंग होती है, इस कारण यह स्वाभाविक है कि वह सरकार के विरुद्ध नहीं जा सकती। स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच के लिए सरकार के नियंत्रण से मुक्त संस्था का गठन जरूरी है। यही कारण है अधिकांश देशों ने स्वतंत्र जांच एजेंसियों का गठन किया है।
(लेखक सीबीआइ के पूर्व संयुक्त निदेशक हैं)
साभार:-दैनिक जागरण