Monday, July 18, 2011

अंग्रेजी के साथ हमारी लाग-डांट

मृणाल पाण्डे Last Updated 00:08(02/02/11)

हिंदुस्तान के आम आदमी के मन में खास आदमी की भाषा अंग्रेजी को लेकर आकर्षण और अलगाव का एक अजीब रिश्ता है। और यह आज की ही बात नहीं, तीनेक हजार बरसों से भारत पर देश के गिने-चुने दो-तीन फीसदी लोगों का राज रहा है और अखिल भारतीय रौबदाब रखने वाला कुलीन वर्ग संस्कृत, फारसी या अंग्रेजी, जो भी भाषा बोलता था, वही राज-काज की मुख्य भाषा के रूप में मान्य हुई। भले ही अधिसंख्य लोग उससे अनजान हों। भारत में अंग्रेजी बोलने वालों और हिंदी भाषियों के बीच आज जैसी लाग डांट चलती है, कभी वैसी ही फारसी और हिंदवी बोलने वालों और उससे भी पहले चले जाएं तो अपभ्रंश और संस्कृत बोलने वालों के बीच भी कायम थी। पर गणतंत्र में साठेक बरस तक अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार भोगने के बाद यह ठंडे दिमाग से सोचने की बात है कि मजबूत सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हैसियत वालों के अन्याय और भ्रष्टाचार के खिलाफ नाखुशी दर्ज कराने को किसी भाषा विशेष की रचनात्मक समृद्धि और क्षमता को कतई भुला देने में क्या तुक है? खासकर तब, जब अधिकतर आम नागरिक अपने बाल-बच्चों को वह भाषा सिखाने के लिए पेट काटकर पैसा बचा रहे हों? और उस भाषा के किसी भारतीय मूल के लेखक को नोबेल या बुकर सरीखा पुरस्कार मिलने पर हम सब गर्व महसूस करते हों?

अभी हाल में जयपुर में आयोजित साहित्य उत्सव में कई बार यह सवाल मन में उठा। दुनिया के कई देशों से आए साहित्यकारों और समीक्षकों के इस जमावड़े में इस बार भारतीय भाषाओं, खासकर हिंदी को अच्छा प्रतिनिधित्व देने को लेकर आयोजकों ने लगता है काफी सजगता बरती थी। इसलिए सिर्फ हिंदी साहित्य ही नहीं, बल्कि हिंदी के ब्लॉग लेखन, संस्कृत से अनुवाद, फिल्मों और विज्ञापन जगत में उभरते हिंदी के नित नए स्वरूपों और दलित लेखन पर भी अलग-अलग सत्रों में खुली और अच्छी बहस हुई। लेकिन कुछेक लोगों की राय में एलीट वर्ग तथा अंग्रेजी ही इस समारोह पर छाए रहे और भारतीय भाषाओं को उनकी मजबूत लोकतांत्रिक जड़ों के बावजूद हाशिये पर रखा गया। पर अगर भारतीय भाषाओं या जनता का सही प्रतिनिधित्व यहां नहीं था तो यह लोग क्यों नहीं भारतीय भाषाओं के साहित्य के लिए ऐसा या इससे भी बेहतर समारोह आयोजित करने का बीड़ा उठाते? जनवाद पर क्षुद्र विवादों और उठापटक में व्यस्त हिंदी प्रतिष्ठान हिंदी विभागों और अधिकारियों की विशाल फौज के बावजूद इसका कोई देसी विकल्प क्यों तैयार नहीं करता? क्या दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी भाषा हिंदी के सोना उगलते बड़े अखबारों, प्रकाशन संस्थानों, फिल्मों और उपभोक्ता उत्पाद निर्माता कंपनियों के बीच खोजने पर उसे प्रायोजक नहीं मिलेंगे?

दूसरी शिकायत भी पिटी-पिटाई थी कि अंग्रेजी इसलिए त्याज्य है कि यह साम्राज्यवादी पूंजीपति धड़े की भाषा है और इसके तमाम लेखक प्रायोजक शोषक वर्ग के प्रतिनिधि हैं। इसी समारोह में एक सत्र का विषय था साम्राज्यवादी अंग्रेजी (इंपीरियल इंग्लिश)। इसमें शिरकत करते हुए दक्षिण अफ्रीकी मूल के नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक कोएट्जी का कहना था कि उनकी भी पहली भाषा अंग्रेजी नहीं, अफ्रीकन थी। लेकिन अगर कोई लेखक अंग्रेजी के मार्फत अपने समाज के मूक वर्गो की आवाज की सटीक अभिव्यक्ति कर सके तो उसे अंग्रेजी में भी लिखने से कोई संकोच क्यों हो? उन्होंने रूसी मूल के लेखकों सॉल बेलो और व्लादीमीर नबोकोव का भी जिक्र किया, जिनकी मातृभाषा रूसी होते हुए भी पराए देशों में बसे इन लेखकों ने अंग्रेजी में लिखा और बहुत खूब लिखा। सो सवाल यह नहीं है कि लेखक किस भाषा में लिखता है, बल्कि यह है कि वह कैसा लिखता है? यदि साहित्य की कसौटी पर वह लेखन बेहतरीन है तो फिर आखिर तकलीफ क्या है?

अंग्रेजी के साम्राज्यवादी विगत को कोई नहीं नकारेगा। लेकिन त्रेतायुग में हमारे यहां वायुयान थे और हमारे लिच्छवि गणतंत्र में यह होता था, वह होता था जैसी लचर अपुष्ट बातों को छोड़कर मानना होगा कि प्रजातंत्र, संविधान, बुनियादी अधिकार, सर्वोच्च न्यायालय, बंदी प्रत्यक्षीकरण, लोकसेवा आयोग जैसी अवधारणाएं अपनी वर्तमान शक्ल में हमारे यहां ब्रिटेन से बरास्ते अंग्रेजी आई हैं। वैसे ही जैसे कि मांटेसरी से लेकर सिविल इंजीनियरिंग, डॉक्टरी या मैनेजमेंट प्रशिक्षण तक के कोर्स। लिहाजा हम चाहें या नहीं, पाश्चात्य संस्कृति आज हर आमोखास भारतवासी की जिंदगी में है।

1947 में हमारी 32 करोड़ की आबादी का नब्बे फीसदी भाग निरक्षर था। आज आबादी एक अरब से अधिक है और 96 फीसदी से अधिक बच्चे स्कूलों में हैं, जिनके अभिभावकों की सबसे बड़ी मांग अंग्रेजी पढ़ाई की है। क्या अब भी हम ज्ञान को प्रादेशिक और रोजगारविमुख बनाए रखने की जिद पाले रहें? या कि अब हमारे सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी और हिंदी को बहते पानी की तरह अपना सहज स्तर पा लेने दिया जाए? ज्ञान के अंतरराष्ट्रीयकरण के युग में अंग्रेजी सायास बाहर रखने से तो हमारे साक्षर युवा ही नए रोजगारों से वंचित न होंगे, रोजी-रोटी कमाने दूरदराज के अहिंदीभाषी क्षेत्रों में जा रहे भारतीय भी जरूरी बातचीत और कामकाजी रिश्ते कायम करने से रह जाएंगे?

एक सक्षम भाषा की कड़ी बहुत मजबूत होती है। विगत में मुट्ठीभर सवर्णो की भाषा कहलाने वाली संस्कृत ने पूरे देश को सांस्कृतिक रूप से बांधे रखा था और आज अंग्रेजी को हम भले ही कुलीनों की भाषा मानें, क्या उसके बिना शेष दुनिया और अहिंदीभाषी भारतीयों से हमारा सार्थक संवाद संभव है? रही साम्राज्यवादी तेवर की बात, सो हम क्या भुला सकते हैं कि तमिलनाडु से बंगाल तक यही विशेषण हिंदी के लिए भी इस्तेमाल किया जाता रहा है? पूर्वग्रह भुलाकर अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं के बीच सहज बराबरी का रिश्ता कायम करने से भारत की बहुधर्मी संस्कृति और अभिव्यक्ति की क्षमता और आजादी मजबूत ही होंगी।

मृणाल पाण्डे
लेखिका जानी-मानी साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार हैं।

http://www.bhaskar.com/article/ABH-english-with-our-log---scolding-1808600.html

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