Monday, July 18, 2011

सरकार नहीं समाज का राज

हम एक बेहद दिलचस्प समय में जी रहे हैं और हमारे समय की सबसे दिलचस्प घटना है अन्ना हजारे का राष्ट्रीय परिदृश्य पर उदय। हालांकि मैं उनकी प्रणाली से सहमत नहीं हूं, लेकिन करोड़ों भारतीयों में भ्रष्टाचार के प्रति आक्रोश की जो भावना है, उसमें जरूर मेरी सहभागिता है।

जो दंभी राजनेता निजी जेट विमानों और चमचमाते वाहनों में बैठकर अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पर कीचड़ उछालने का प्रयास कर रहे हैं, वे भारत में राजनीतिक सत्ता की सीमाओं को अभी समझ नहीं सके हैं। उन्हें यह समझने की जरूरत है कि भारत में आमतौर पर समाज राज्यसत्ता पर हावी रहता है।

लेकिन दो सवाल मुझे सता रहे हैं: पहला यह कि एक उदार, भद्र व्यक्ति ने किस तरह सरकार को घुटने टेकने को मजबूर कर दिया? और दूसरा यह कि हमारा राज्यतंत्र इतना अशक्त और नाकारा क्यों है कि वह अपने ही कानूनों को लागू नहीं कर सकता और जिसके कारण भ्रष्टाचार का रोग फैलकर अब कैंसर बन गया है?

भारत में हमेशा ही सशक्त समाज और अशक्त राज्यतंत्र रहा है। चूंकि भारत में राजनीतिक सत्ता आम जनजीवन से बहुत दूर या उसके लिए लगभग अप्रासंगिक थी, इसलिए भारतीय समाज ने कभी भी उसे चीन की तरह इतना एकीकृत नहीं होने दिया कि वह मूलभूत सामाजिक संस्थाओं को बदल सके।

चीन या रूस में जिस तरह की निरंकुश सरकारें उभरीं, वे दक्षिण एशिया में अस्तित्व में नहीं आ सकती थीं। इसीलिए भारत का इतिहास तुलनात्मक रूप से राजनीतिक विखंडन का इतिहास रहा है, जबकि चीन का इतिहास सशक्त साम्राज्यों का इतिहास रहा है।

हैरानी नहीं होनी चाहिए कि स्वतंत्रता के बाद भारत अराजक लोकतंत्र बन गया। भारत का बहुलतावादी समाज अपनी सरकार को अधिनायकवादी नहीं बनने दे सकता था, जैसा कि तीसरी दुनिया के बहुतेरे मुल्कों में हुआ। औपनिवेशिकता के बंधनों से मुक्त होते ही वे तानाशाहों के शिकंजे में फंस गए।

60 के दशक में अर्थशास्त्री गुन्नार मिर्डल ने भारत को ‘सॉफ्ट स्टेट’ कहा था। उन्हें यह देखकर खीझ होती थी कि भारत में कानूनों का पालन नहीं किया जा रहा है, सरकारी अधिकारियों में उत्तरदायित्व की भावना नहीं है और तंत्र में भ्रष्टाचार पैठा हुआ है।

आज लग रहा है कि भारत एक आधुनिक, लोकतांत्रिक और बाजार आधारित भविष्य की ओर बढ़ रहा है और वह भी राज्यतंत्र की अधिक सहायता के बिना। यह चीन से ठीक विपरीत है, जिसकी सफलता की दास्तान एक ऐसे राज्यतंत्र द्वारा लिखी गई है, जिसने वहां एक सशक्त बुनियादी ढांचे का निर्माण किया है।

जब भारत के लोग चीन जाते हैं तो वहां चमचमाते हाईवे, सुपरफास्ट ट्रेनें और विशाल हाइड्रोइलेक्ट्रिक परियोजनाओं को देखकर हैरान रह जाते हैं। आज अगर चीन की प्रति व्यक्ति जल संग्रहण क्षमता भारत की तुलना में पांच गुना अधिक है तो इसके लिए उसकी बांध और सिंचाई परियोजनाएं जिम्मेदार हैं।

जब चीन की सरकार कोई नई सड़क या फैक्टरी बनाने के लिए बुलडोजर चलाने का निश्चय कर लेती है तो वह बलप्रयोग करती है। भारत में सरकार को कई प्रतिरोधों का सामना करना पड़ता है और उसकी निर्णय क्षमता पंगु हो जाती है।

हालांकि दूसरे लोकतांत्रिक देशों में बुनियादी ढांचे का निर्माण करने के नियम पारदर्शितापूर्ण और सशक्त हैं, इसलिए वे भारत की तुलना में अधिक तेजी से विकास के पथ पर अग्रसर हैं।

जिस एक बात ने भारत को सदियों तक एक सूत्र में बांधे रखा, वह था उसका सशक्त सामाजिक ढांचा। जवाहरलाल नेहरू ने द डिस्कवरी ऑफ इंडिया में भारतीय समाज को तीन शब्दों में परिभाषित किया था : गांव, जाति और परिवार।

भारतीय समाज में पांच लाख से भी ज्यादा स्वायत्त, आत्मनिर्भर गांव हैं, दो हजार से अधिक जातियां या उपजातियां हैं और संयुक्त परिवार हैं। भारत का विचार यह है कि व्यक्ति से अधिक समाज महत्वपूर्ण है।

आज भारतीय समाज तेजी से बदल रहा है और सत्ता का हस्तांतरण परंपरागत समाज से सिविल सोसायटी में हो रहा है। भारतीय समाज एक जनजातीय समुदाय से विकसित हुआ था। भूमि पर राजा का नहीं, बल्कि कुलों का अधिकार था।

जनजातीय राजा ‘समकक्षों में श्रेष्ठ’ था, लेकिन यह जरूरी नहीं था कि उसका वारिस उसका बेटा ही हो। राजा के बाद राज्य की कमान उस व्यक्ति को सौंपी जाती, जिसका चयन कुल द्वारा उसकी शारीरिक क्षमताओं और नैतिक मूल्यों के आधार पर किया गया हो।

जब ईसा पूर्व छठी सदी में मगध जैसे साम्राज्यों का उदय हुआ, तब जाकर राजा के अधिकार बढ़े और वंशानुगत उत्तराधिकार की परिपाटी स्थापित हुई। लेकिन तब भी धर्म या विधि के सम्मुख राजा की शक्तियां सीमित थीं।

चीन के विपरीत भारत में राजा नियम-कायदों को निर्धारित नहीं करता था। राजा नियम-कायदों से ऊपर नहीं था। राजा का कार्य नियमों की रक्षा करना था। धर्मशास्त्रों में यह स्पष्टत: वर्णित है। महाभारत में धर्म का उल्लंघन करने वाले राजा को पागल श्वान की संज्ञा दी गई है।

एक सफल राष्ट्र के लिए प्रभावी राज्यतंत्र और सामाजिक ढांचे का होना जरूरी है। दुर्बल राज्यतंत्र भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लगा पाता, लोगों के मन में अनिश्चय की स्थिति निर्मित कर देता है और कानून व्यवस्था को शिथिल कर देता है।

लोग कानून का पालन इसलिए करते हैं क्योंकि वे इसे उपयुक्त मानते हैं और उन्हें लगता है कि यह सभी के लिए समान है, लेकिन जब उन्हें पता चलता है कि पुलिस, मंत्री और न्यायाधीश तक बिक सकते हैं तो कानून में उसकी आस्था डगमगाने लगती है।

ए राजा और सुरेश कलमाडी की गिरफ्तारी और कनिमोझी के विरुद्ध चार्जशीट दायर होना भारत में कानून व्यवस्था के भविष्य के लिए शुभ संकेत हैं। अब जरूरी यह है कि दोषियों को जल्द से जल्द सजा दी जाए।

आज दुनिया के 140 देशों में लोकपाल या ओम्बड्समैन हैं, जिनके पास यह शक्ति होती है कि वे दोषी लोकसेवकों पर मुकदमा चला सकें। लोकपाल बिल भले ही रामबाण न हो, लेकिन सही दिशा में उठाया गया एक कदम जरूर है।

अन्ना हजारे के प्रस्तावित लोकपाल में कई खामियां थीं। इसके बावजूद हमें उनकी आलोचना करने के बजाय देश में कानून व्यवस्था और लोकतंत्र को सशक्त करने के उनके प्रयासों के लिए उनकी सराहना करनी चाहिए।

http://www.bhaskar.com/article/ABH-not-the-governments-secret-society-2087250.html

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