Monday, July 18, 2011

राहुल के नाम एक खुला खत

प्रिय राहुल! चूंकि आप मीडिया से यदा-कदा ही बातें करते हैं, इसलिए आपसे बात करने के लिए खुले खत के सिवा कोई चारा न था। पिछले हफ्ते उत्तरप्रदेश के भट्टा पारसौल में आपके द्वारा की गई यात्रा सुर्खियों में रही।

विद्वेषियों ने आपकी यात्रा को पब्लिसिटी स्टंट बताया और यह भी कहा कि यह सब अगले साल उत्तरप्रदेश में होने वाले चुनाव के मद्देनजर किया जा रहा है। भले ही आपकी गिरफ्तारी एक सुप्रबंधित फोटो अपॉचरूनिटी की तरह लगी और भट्टा पारसौल में हुई हत्याओं व बलात्कारों के संबंध में आपके द्वारा किए गए दावों को चुनौती दी गई, लेकिन कम से कम आप हिंदी पट्टी के लिए होने वाली जंग की जद्दोजहद में शरीक तो हुए।

लेकिन क्या आक्रोशित ग्रामीणों के साथ बैठकर चाय की चुस्कियां लेना बेलछी जैसी ही एक घटना बन पाएगी? क्या इससे लोगों को फिर याद आ पाएगा कि आपकी दादी इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी की शुरुआत 70 के दशक के अंत में बाढ़ग्रस्त बेलछी में हाथी पर सवार होकर पहुंचने के साथ ही हुई थी?

संभव है इस सवाल का जवाब विधानसभा चुनाव परिणामों में छिपा हो, जो किसी भी युवा राजनेता के लिए सबक हो सकते हैं। ममता बनर्जी का ही उदाहरण लें। पिछले लगभग तीन दशकों से वे वन वूमैन आर्मी की तरह सशक्त वाम साम्राज्य को चुनौती देती रहीं।

कई राजनीतिक पराजयों के बावजूद उन्होंने एक बार भी मार्क्‍सवादी साम्राज्य को ध्वस्त करने की अपनी इकलौती आकांक्षा को डांवाडोल नहीं होने दिया। वे कई भट्टा पारसौलों की साक्षी रही हैं। वे संघर्ष करती रहीं, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी।

उन्होंने सत्ता विरोधी नायिका के रूप में अपनी छवि निर्मित की और नतीजा यह रहा कि जब बंगाली मतदाता लेफ्ट से तंग आ गए तो वे आसानी से बदलाव का प्रतीक बन गईं।

तमिलनाडु में विजेताओं की जीत से ज्यादा हम पराजितों की हार से सीख सकते हैं। द्रमुक किसी जमाने में एक गौरवशाली सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन था, लेकिन विगत पांच वर्षो में वह वंशवाद से ग्रस्त राजनीतिक दल बनकर रह गया था।

भारतीय मतदाता अब सामंती मूल्यों में विश्वास नहीं करते। करुणानिधि और उनके परिवार ने यह भूल की कि उन्होंने मतदाताओं को हल्के में लिया। उन्होंने मान लिया कि वोट के लिए नोट ही जीत का स्थायी टिकट है। तमिल मतदाताओं ने टीवी तो ले लिया, लेकिन वे भुलावे में न आए।

जबकि वास्तव में यह दांव उल्टा ही पड़ा, क्योंकि राज्य के प्रशासनिक तंत्र पर एक परिवार के वर्चस्व की टीवी छवियों ने औसत मतदाताओं के मन में प्रतिरोध की भावना को और बलवती कर दिया। केरल में वास्तविक विजेता यकीनन वीएस अच्युतानंद थे।

87 वर्षीय यह वयोवृद्ध राजनेता, जो अपने राज्य की कमान संभालने के लिए ‘बहुत उम्रदराज’ थे, एक बड़े चुनावी उलटफेर से महज दो सीट दूर रह गए। हममें से कई लोग सक्रिय राजनीति में युवाओं की अधिक भागीदारी चाहते हैं, लेकिन हम कभी-कभी यह भूल जाते हैं कि हमारा मतदाता आज भी अपने नेता में नैतिक साधुता के पुरातन गुणों को ही देखना चाहता है।

देशभर के लिए अच्युतानंद भले ही एक थके हुए नेता थे, लेकिन केरलवासियों के लिए वे प्रतिबद्धता और आमजन के संघर्षो के प्रतीक थे। उन्होंने भी अपने राजनीतिक जीवन में कई भट्टा पारसौल देखे। 40 के दशक में श्रमिकों को एकजुट करने से लेकर हाल ही में इंडोसल्फान पर प्रतिबंध लगाने के लिए किए गए संघर्ष तक उन्होंने कई आंदोलनों की अगुवाई की है।

यहां तक कि असम में कांग्रेस के विजेता तरुण गोगोई ने भी एक आजमाए हुए भरोसेमंद नेता के महत्व की पुष्टि ही की है। जैसा कि उन्होंने स्वयं सरलता के साथ स्वीकारा कि उनकी जीत की वजह यह थी कि उन्हें ‘थोपे गए नेता’ के स्थान पर एक असमिया मुख्यमंत्री माना गया था।

लेकिन ये सभी किसी ऐसे व्यक्ति के राजनीतिक भविष्य को कैसे प्रभावित कर सकते हैं, जिसके बारे में एक तरह से यह पूर्वनियत है कि उसे देश का नेतृत्व करना है? जवाब बहुत सरल है। क्योंकि हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे बताते हैं कि भारत के मतदाताओं की अपेक्षाएं अब पहले की तुलना में कहीं बढ़ी-चढ़ी हैं।

अब चालू नारों या प्रतीकों से काम नहीं चल सकता। अब पारिवारिक वंशवाद सफलता की गारंटी नहीं हो सकता और न ही टीवी पर नाटकीय उपस्थिति दर्ज कराने से वोट मिलते हैं। देश के मतदाताओं को ऐसे नेता चाहिए, जिनसे वे स्वयं को जोड़ सकें।

जिनकी भाषा वे समझ सकें। जो अच्छे-बुरे वक्त में उनके साथी हों। पैराशूट पॉलिटिक्स के दिन अब लद चुके, जैसा कि आप बिहार में पहले ही देख चुके हैं।

इसीलिए भट्टा पारसौल महज एक दिन का ‘इवेंट’ नहीं हो सकता। यह जनआधारित मुद्दों के प्रति एक गहरी प्रतिबद्धता का एक हिस्सा होना चाहिए। अगर भूमि अधिग्रहण के मसले पर बहस की जा रही हो तो यह केवल ग्रेटर नोएडा तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि इसके दायरे में कांग्रेस शासित राज्य भी आने चाहिए।

आपको आंध्रप्रदेश के श्रीकाकुलम के किसानों के आंसू पोंछने को भी इतना ही तत्पर रहना चाहिए, वरना आप पर दोहरे मानदंडों का आरोप लगाया जा सकता है। मैं आपको एक ठोस सुझाव देना चाहूंगा। कुछ साल पहले आपने एक भाषण में उत्तरप्रदेश को अपनी ‘कर्मभूमि’ बताया था।

अगले साल उत्तरप्रदेश में चुनाव होने जा रहे हैं और कई लोगों का मानना है कि ये चुनाव उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के भविष्य का फैसला कर देंगे। ऐसे में आप दिल्ली के सत्ता सुख को त्यागकर बारह माह के लिए लखनऊ क्यों नहीं चले जाते?

किसी दलित परिवार में कभी-कभी एकाध रात बिताने के बजाय देश के इस सर्वाधिक आबादी वाले प्रदेश में एक साल काम करें और मतदाताओं को समझाएं कि मायावती और मुलायम की तुलना में कांग्रेस क्यों उनके लिए एक बेहतर विकल्प है।

इतना ही नहीं, आप स्वयं को उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के ‘चेहरे’ की तरह क्यों नहीं प्रस्तुत करते? एक ऐसा व्यक्ति, जो चुनाव में पार्टी की जीत होने पर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने को तैयार हो। मायावती और मुलायम से उनके घरेलू मैदान पर मुकाबला करना मुश्किल तो होगा, लेकिन अगर आपने इसे एक चुनौती की तरह लिया तो आप अपने पर लगे अमूल बेबी के टैग को हमेशा के लिए उतार फेंकने में कामयाब हो पाएंगे।

Rajdeep Sardesai
http://www.bhaskar.com/article/ABH-rahuls-called-an-open-letter-2117753.html

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