Monday, November 30, 2009

अयोध्या आंदोलन का असर

रामजन्मभूमि आंदोलन को राष्ट्र जीवन की चेतना जागृत करने वाले अभियान के रूप में याद कर रहे हैं तरुण विजय




लिब्रहान आयोग ने वही किया जो लालू प्रसाद यादव की पहल पर बनर्जी आयोग ने गोधरा कांड के बारे में किया था। सदियों विदेशी, विधर्मी आघातों का अनवरत सिलसिला झेलने के बाद भी हिंदुओं के लिए अपमान और तिरस्कार का दौर खत्म नहीं हुआ। जो लोग ऊंचे पदों पर बैठे प्रभावशाली हिंदुओं को देखकर प्रतिवाद करना चाहते हैं उन्हें अंग्रेजों के जमाने के रायबहादुर और मुगलों के समय के बीरबल याद करने चाहिए। सत्ता और सम्मान के हिस्सों के लिए अपने ही हितों पर चोट करना हमारा पुराना इतिहास रहा है। भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने वाले ऐसे ही रायबहादुर हुआ करते थे। आज के भारत पर नजर दौड़ाकर कोई भी समझ सकता है कि हम मुट्ठीभर अंग्रेजों द्वारा इतने वर्षो तक गुलाम कैसे बनाए गए थे। जब सारा देश शहीदों की याद में सिर झुकाए नमन कर रहा था और आतंकवादियों के खिलाफ एकजुटता का प्रदर्शन कर रहा था उस समय देश के प्रधानमंत्री वाशिंगटन में ओबामा के शानदार डिनर का लुत्फ उठा रहे थे। हो सकता है कि उन्होंने इस बहाने कुछ काम की बातें भी की हों, पर शासन व्यवस्था और राजनीति छवि पर ज्यादा निर्भर होती है। चीन यात्रा में ओबामा ने बीजिंग के प्रति बराबरी का व्यवहार दिखाया और भारत को एक शानदार डिनर से खुश किया। जिस समय भारत के शीर्ष नेतृत्व को मुंबई में जनता के साथ मिलकर अपनी श्रद्धांजलि देनी चाहिए थी, विपक्ष आपसी मारकाट में उलझा था। माओवादी पेज तीन के वैसे ही रोमांटिक मसाले बनाए जा रहे हैं जैसे कसाब को बनाया गया है। इस देश की सुप्त आत्मा को संन्यासी समान जीवन की आहुति देकर जिलाने वाले संघ आंदोलन के उपहास और उनके कार्यकर्ताओं के तिरस्कार का वह सिलसिला अभी तक जारी है जो अंग्रेजों के समय चला था। लिब्रहान ने अपनी रपट में अनेक भूलें भी की हैं और विषय भ्रम तो अपार है, जैसे इसमें देवरहा बाबा पर कारसेवा का आरोप लगाया गया है, जबकि उनकेएक ज्येष्ठ अनुयायी शिव कुमार गोयल ने बताया कि बाबा तो 19 जून, 1990 को ही ब्रह्मलीन हो गए थे, जबकि ढांचा गिरा 6 दिसंबर, 1992 को। लिब्राहन ने अयोध्या का प्रसंग उठाया है तो उसका हिसाब चुकाना ही होगा। अयोध्या सिर्फ एक मंदिर के निर्माण का प्रश्न नहीं, बल्कि राष्ट्र जीवन की चेतना के जागरण का आंदोलन था, जो सोमनाथ रक्षा के हिंदू संघ की सेनाओं की भांति भीतरी छल का शिकार हुआ। उसमें इस देश का सामान्यजन पूरी निष्ठा के साथ जुड़ा था। इस आंदोलन ने पहली बार देश में जाति की सीमाएं तोड़कर अद्भुत ज्वार पैदा किया था। बरसों की गुलामी की मानसिकता का बंधन टूटने लगा था। अपने पूर्वजों में श्रीराम को भी शामिल करने वाले मुस्लिम बंधु भी इस आंदोलन से जुड़े थे, जो बाबर को विदेशी हमलावर मानते थे। इस आंदोलन ने देश की राजनीति का कलेवर और दिशा बदल दी। कांग्रेस भी इस ज्वार को समझती थी। उसने ताला खुलवाने से लेकर शिलान्यास तक पूरा सहयोग किया। राजीव गांधी द्वारा अयोध्या से चुनाव प्रचार का श्रीगणेश और रामराज्य का वायदा बेमतलब राजनीति नहीं थी। लिब्रहान ने अयोध्या की गलियों में बहे कारसेवकों के खून की पुन: याद दिला दी। राम कोठारी और शरद कोठारी जैसे निहत्थे कारसेवक जय श्रीराम कहते-कहते क्यों मार डाले गए, कोई इसका कभी जवाब मांगेगा? जिन पुलिस अफसरों ने निष्काम सत्याग्रही कारसेवकों को गोलियां मारीं उन्हें किनके हाथों पुरस्कार दिए गए, इसका भी कोई तो कभी हाल लिखेगा। किसने कारसेवकों को उत्तेजित कर ढांचा ढहाने तक ले आने की सुनियोजित कार्यनीति बनाई, यह कांग्रेस कब तक छिपा सकती है। रज्जू भैया बार-बार नरसिंह राव से अनुरोध करते रहे कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला जल्दी दिलवाइए, ताकि 6 दिसंबर को अयोध्या जाने वाले कारसेवक अविवादित भूमि पर कारसेवा कर सकें और प्रतीकात्मक कारसेवा के बाद शांतिपूर्वक लौट सकें, पर क्या कारण रहा कि घोषित तिथि के बावजूद फैसला टाला गया। हंसराज भारद्वाज की इलाहाबाद यात्रा का क्या मकसद था? ये सब प्रश्न तब सामने आएंगे जब सत्ता की राजनीति में अपना घर जलाकर भी हिंदू हितों के साथ छल न करने वाले लोग आएंगे। इस देश की कोख ऐसे वीर राजनेताओं को जन्म देगी ही। कब तक? यह समय के गर्भ में छिपा माना जाना चाहिए। सैन्य शक्ति से देश नहीं बनते, गिरोह बन सकते हैं। देश बनता है स्वाभिमान, सभ्यता और चरित्र से। जो अपने पूर्वजों का नहीं हो सकता वह अपनी मातृभूमि का कैसे हो सकता है? प्रसिद्ध शायर इकबाल ने श्रीराम को इमामे हिंद कहा था और बाबर महज एक लुटेरा हमलावर था। संपादक एवं सांसद नरेंद्र मोहन ने अपनी पुस्तक हिंदुत्व में विवादित ढांचे के गिराए जाने से असहमति प्रकट करते हुए लिखा था-जिस ढांचे को गिराया गया उसकी क्या पृष्ठभूमि थी? क्या वह ढांचा या भवन वास्तव में एक मस्जिद के रूप में प्रयुक्त हो रहा था? आज निर्भीक तथ्यपरक लेखन पर कुहासा छाया हुआ है। अयोध्या आंदोलन इसी कुहासे के अंत का प्रयास था। उसमें हिंदू, मुसलमान, सभी वगरें के लिए राष्ट्रीयता की भावना को साथ में लेकर चलने का संदेश था। गंदे तीर्थस्थल, जातिवाद का विष, आपसी फूट के कारण विदेशी तत्वों का प्रभाव, दमित, शोषित वर्ग को उपकरण बनाकर सत्तारोहण, इन सबके विरुद्ध एक सुधारवादी और नवीन भविष्य को गढ़ने का नाम था अयोध्या। उस आंदोलन के बाद देश-विदेश के अत्यंत महत्वपूर्ण लोग हिंदुत्व आंदोलन से जुड़े, जिनमें पत्रकार गिरिलाल जैन, जनरल जैकब, जनरल कैनडेथ, प्रो. एमजीके मेनन, अभिनेता विक्टर बनर्जी के अलावा वीएस नायपाल जैसे विश्वविख्यात नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक भी थे। क्या वह सब निष्फल जाएगा? अयोध्या आंदोलन अपनी दीप्ति और आभा के साथ पुन: देश को आलोकित करेगा, यह विश्वास लेकर ही चलना चाहिए। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

Wednesday, November 25, 2009

मन और बुद्धि

मन और बुद्धि वास्तव में जीवन में हर पल हर बात में संकल्प-विकल्प का भ्रमजाल फैला हुआ है। ऊपर से हमारी रचना जिसमें कभी मन बुद्धि पर हावी होता है तो कभी बुद्धि मन पर। संसार में रहते हुए हमें स्वयं एक दृष्टिकोण विकसित करना होगा कि निर्णय हमेशा अनुचित-उचित का ध्यान रखते हुए विवेकपूर्ण हो। हम स्वयं लापरवाही हैं या यूं कहें कि हमारी स्वयं की सजगता में कमी है। जिस कारण हम सही फैसले पर नहीं पहुंचते और अपनी मनमानी से गलत कदम उठा लेते हैं। जब बुद्धि की नहीं सुनते तब सिर्फ पछतावे के साथ हाथ मलते रह जाते हैं। जीवन में बुद्धि की अहमियत रहती है तो मन की मनमानी पर उसका नियंत्रण रहता है। हमारे शरीर के पीछे मन है और मन से सूक्ष्म बुद्धि है, बुद्धि से सूक्ष्म जीव है, जीव से सूक्ष्म अहंकार है। जब अहंकार मिटता है तो मन स्वत: बुद्धि में स्थिर हो जाता है। गीता के दूसरे अध्याय में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- बुद्धियुक्तो जहातीत उभे सुकृत दुष्कृते- बुद्धि मन को अलग-अलग विषयों में ले जाती है जिसके कारण मन उलझा रहता है। किंतु बुद्धि के स्थिर होते ही वह निश्चयात्मक हो जाता है, तब उसके परिणाम सुखद, विवेक से परिपूर्ण होते हैं निर्णय लेने में। मन जब क्रियाशील होता है तो संकल्प में भी विकल्प खोजता रहता है। वह खुद नहीं जानता कि उसे क्या करना है। किन्तु बुद्धि जब क्रियाशील है तो वह जीवन की अहमियत को समझती है, कैसे आगे बढ़ना और लक्ष्य को सिद्ध करना है। मन राग से भरा होता है तो सब अच्छा प्रतीत होता है। वहीं द्वेष के आते ही सारे गुण अवगुण में बदल जाते हैं। व्यक्ति विशेष तो रागी-द्वेषी हो ही नहीं सकता, क्योंकि जो आपके लिए बुरा है, वह किसी और के लिए प्रिय हो सकता है। किसी ने कहा भी है- मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। जब हम मन के साथ चलते हैं तो हमारे अंदर विकल्प रहते हैं, जब हम बुद्धि के साथ होते हैं तो निश्चय के साथ आगे बढ़ते हैं। अत: मनमानी बनने के बजाय क्यों न बुद्धिमान बनें, विवेक, विचार, प्रसन्नता और आनंद एवं बुद्धि से सम्पन्न बनें, अशंाति के सारे स्त्रोतों को ही समाप्त कर दें। तो क्यों न मनरूपी ताले की चाबी अपने स्वयं के हाथ में रखें और जिधर चाहें उधर घुमाएं, तो फिर शांति ही शांति मिलेगी।
साभार :- दैनिक जागरण

Tuesday, November 17, 2009

लूट के लोकतांत्रिक तरीके

मधु कोड़ा और ए. राजा के भ्रष्टाचार के मामलों पर केंद्र सरकार के रवैये को शर्मनाक मान रहे हैं राजीव सचान मधु कोड़ा दो हजार करोड़ रुपये कीकाली कमाई करने में सक्षम रहे तो इसके लिए उन्हें और उनके साथियों को केंद्रसरकार को खास तौर पर साधुवाद देना चाहिए, क्योंकि बगैर उसके सहयोग के वह 23माह में करीब 24 खदानों को पट्टे पर देने का काम मनमाने तरीके से नहीं करसकते थे। यह रहस्यमय है कि जब कोड़ा कोयला और लौह खदानों को पट्टे पर देने कीदनादन सिफारिश कर रहे थे तब केंद्र सरकार उन पर आंख मूंदकर मोहर क्यों लगारही थी? क्या इसलिए कि कोड़ा की काली कमाई का एक हिस्सा कांग्रेसजनों की जेबमें भी पहुंच रहा था? कांग्रेसजन ऐसे किसी आरोप से इनकार करेंगे, लेकिन यहमानने के पर्याप्त परिस्थितिजन्य कारण हैं कि निर्दलीय होते हुए भी कोड़ा 23महीने तक सिर्फ इसलिए सरकार चलाते रहे, क्योंकि उनकी काली कमाई से उन्हेंसमर्थन देने वाले राजनीतिक दल-कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल और झारखंडमुक्तिमोर्चा भी लाभान्वित हो रहे थे। कोड़ा ने एक बार कहा भी था कि पैसे काखेल नहीं होता तो वह एक दिन के लिए भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठे रहसकते थे। स्पष्ट है कि कोड़ा की ओर से की गई लूट-खसोट के लिए अकेले वही दोषीनहीं हैं, लेकिन मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था में भारत की कोई भी सरकारीएजेंसी इसके सबूत नहीं जुटा सकती। यह भी समय बताएगा कि कोड़ा को उनके किए कीसजा मिल पाती है या नहीं, क्योंकि वह एक राजनेता हैं और अब तक का अनुभव यहीबताता है कि भारत में राजनेताओं के खिलाफ जांच-पड़ताल तो होती है और वेअदालतों के चक्कर भी काटते हैं, लेकिन उन्हें सजा नहीं मिलती। झारखंड मेंविधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। यदि कोड़ा अपने दो-तीन साथियों समेत जीतजाते हैं और त्रिशंकु सदन की स्थिति बनती है तो वह सरकार गठित करने वाले दलके लिए फिर से आदरणीय-प्रात: स्मरणीय बन सकते हैं। यदि झारखंड में किसी तरहकांग्रेस सरकार बनाने में सफल हो जाए और उसे मधु कोड़ा के भीतरी या बाहरीसमर्थन की जरूरत पड़े तो आयकर विभाग, केंद्रीय जांच ब्यूरो, प्रवर्तननिदेशालय आदि को सांप सूंघ सकता है। यकीन न हो तो केंद्र सरकार के उस रवैयेपर गौर करें जो उसने 60 हजार करोड़ रुपये का चूना लगाने वाले दूरसंचार मंत्रीए. राजा के प्रति अपना रखा है। इस पर खास तौर पर गौर करना चाहिए कि उन्हेंकोई और नहीं खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्लीनचिट देने की कोशिश कर रहेहैं। क्या इससे अधिक शर्मनाक और कुछ हो सकता है कि राजा का जो कृत्य स्वत:घोटाला होने के प्रमाण दे रहा है उसका बचाव खुद प्रधानमंत्री कर रहे हैं?माना कि कांग्रेस को अपने नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता चलानी है और इसके लिएद्रमुक का सहयोग जरूरी है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि देश जीतीमक्खी निगल ले। यद्यपि प्रधानमंत्री सीबीआई को बड़ी मछलियां पकड़ने की सलाहदे चुके हैं और भ्रष्टाचार को एक गंभीर समस्या बता चुके हैं, लेकिन कोई नहींजानता कि वह बिहार सरकार के उस विधेयक के प्रति गंभीर क्यों नहीं जो केंद्रसरकार की हरी झंडी का इंतजार कर रहा है और जिसमें भ्रष्ट सेवकों की संपत्तिजब्त करने का प्रावधान है? मधु कोड़ा और ए.राजा के कारनामे यह भी बताते हैंकि ठगी-गबन करने वालों अथवा खुले आम डाका डालने वालों को अब राजनीति मेंप्रवेश कर मंत्री-मुख्यमंत्री पद पाने की कोशिश करनी चाहिए। इसके बाद वह राजाजैसी हरकत भी कर सकते हैं और मधु कोड़ा जैसी भी। गठबंधन राजनीति के इस दौरमें वे इसके प्रति आश्वस्त रह सकते हैं कि उनके भ्रष्ट आचरण के बावजूद उन्हेंकोई न कोई समर्थन देने के लिए उठ खड़ा होगा। आश्चर्य नहीं कि ऐसा करने वालोंमें खुद प्रधानमंत्री भी हों। देश के नीति-नियंताओं को यह देखकर चुल्लू भरपानी की तलाश करनी चाहिए कि कोई दो हजार करोड़ के वारे-न्यारे कर रहा है औरकोई 60 हजार करोड़ के। एक ऐसे देश में जहां करोड़ों लोग महज 30-40 रुपयेप्रतिदिन पर गुजर-बसर करने के लिए विवश हैं वहां हजारों करोड़ की हेराफेरी एकझटके में हो रही है और सत्ता के शीर्ष केंद्र में एक पत्ता तक नहीं खड़कता।जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसा होता हो उसे धिक्कार, लेकिन जो शासक यह सबहोते हुए भी मौन धारण किए हों उन्हें धिक्कारने से कोई लाभ नहीं, क्योंकि वेया तो संवेदनहीन हो चुके हैं या फिर भ्रष्ट तत्वों के संरक्षक-समर्थक। सवालसिर्फ कोड़ा और राजा की कारगुजारियों का ही नहीं है, सत्ता के गलियारों मेंउनके जैसे लोगों का ही बोलबाला है। अब इसमें संदेह नहीं कि खोटे सिक्कों नेअच्छे सिक्कों को निष्प्रभावी बना दिया है। ए. राजा का बचाव प्रधानमंत्रीमनमोहन सिंह ही नहीं, कांग्रेस के अन्य अनेक नेता भी कर रहे हैं। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी कह रहे हैं कि भ्रष्टाचार के आरोप का यह मतलब नहीं किभ्रष्टाचार हुआ है। आखिर क्या मतलब है इस कथन का? कहते हैं कि कोड़ा खदानोंका पट्टा देने के एवज में 150-200 करोड़ वसूलते थे। चूंकि कोड़ा दो हजारकरोड़ रुपये की संपत्ति इकट्ठा करने में सफल रहे इसलिए यह स्वत: सिद्ध होजाता है कि देशी-विदेशी कंपनियों ने उन्हें खुशी-खुशी भारी भरकम रिश्वत दी।इसका एक अर्थ यह भी है कि उन्हें खदानों के पट्टे कौडि़यों के मोल मिल गए? येवे स्थितियां हैं जिनमें नक्सलियों को अपने समर्थक जुटाने के लिए जहमत उठानेकी जरूरत ही नहीं। नि:संदेह हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकती, जो किनक्सलियों की रणनीति का प्रमुख अंग बन गई है, लेकिन क्या सत्ता के शिखरों परबैठे लोगों के पास इसका कोई जवाब है कि देश में कुछ लोग रातों-रात करोड़ोंरुपये क्यों बटोर ले रहे हैं? ऐसा करने वालों में कोड़ा एवं राजा तो उदाहरणभर हैं, क्योंकि न जाने कितने लोग ऐसे हैं जो अनुचित-अनैतिक तरीके सेतिजोरियां भर रहे हैं और हमें-आपको पता नहीं।
साभार:-दैनिक जागरण

इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन के कुछ स्याह पहलुओं पर प्रकाश डाल रहे हैं कुलदीप नैयर

यदि केंद्र और राज्यों की कांग्रेसी सरकारों के जोरदार प्रचार से इंदिरा गांधी पर लगा कुशासन का कलंक मिटना होता तो बहुत पहले ही ऐसा हो गया होता। उनके निधन के 25 वर्ष बाद उन्हीं सूत्रों द्वारा वही कसरत करने की आवश्यकता न पड़ती और न ही करोड़ों रुपये नाली में बहाने पड़ते। ये सारे प्रयास विफल रहे, क्योंकि न तो आत्मालोचना की गई और न ही खेद व्यक्त किया गया। इंदिरा गांधी का सबसे बड़ा पाप आपातकाल थोपना नहीं था, बल्कि राजनीति से नैतिकता का उन्मूलन करना था। उन्होंने सही और गलत, नैतिक और अनैतिक के बीच की महीन रेखा मिटा दी थी। यह विभाजक रेखा आज भी मिटी हुई है। स्वतंत्रता के बाद के पहले 19 वर्षो में जवाहर लाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री ने राष्ट्र को सत्ता की बलिवेदी पर चढ़ने से बचाए रखा था। उन्हें अपने पद का उपयोग राष्ट्र सेवा के लिए किया था। उन्होंने क्षुद्रता या प्रतिशोध की भावना को हावी नहीं होने दिया। किंतु इंदिरा गांधी तो अलग ही थीं। उन्होंने सत्ता को ही साध्य मान लेने में तनिक भी संकोच नहीं किया। जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चुनाव में अनियमितताओं के कारण उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया तो उन्हें नैतिक आधार पर त्यागपत्र दे देना चाहिए था, किंतु विधि के शासन का पालन करने के बजाए वह खुद को ही कानून मान बैठी थीं।अपनी खाल बचाने के लिए उन्होंने आपातकाल थोप कर पूरी व्यवस्था ही उलट दी। अयोग्यता के अवरोधों को हटाने के लिए संसद उनके प्रभाव में थी। उन्होंने मंत्रिमंडल से सलाह लेना भी उचित नहीं समझा, जिसकी बैठक आपातकाल की उद्घोषणा की पुष्टि के लिए बुलाई गई थी तथा जिस पर राष्ट्रपति ने पूर्व रात्रि में ही हस्ताक्षर कर दिए थे। इंदिरा गांधी प्रेस से कभी भी खुश नहीं रहीं। आपातकाल थोपने के बाद उन्होंने सबसे पहले प्रेस का ही गला घोंटा। इस घटना के 34 वर्ष बाद भी मीडिया संतुलन कायम नहीं कर पाया है। अब उसने सत्तारूढ़ दल के दक्षिण की ओर खड़े होने का गुण विकसित कर लिया है। महात्मा गांधी ने राष्ट्र को निर्भीक होने की सीख दी थी। इंदिरा गांधी ने लोगों को भयाक्रांत करने का काम किया। प्रेस, न्यायपालिका और नौकरशाही, सभी भय के कारण झुक गए थे। उनके कृत्यों से सबसे पहले देश को धक्का लगा। 1969 में जब उन्होंने कांग्रेस को विभाजित किया तो लोगों ने उनके कारनामों के निहितार्थ को नहीं समझा। जब तक राष्ट्र उनकी नीतियों के प्रति सजग हुआ, तब तक कीटाणु राजनीति की काया में फैल चुका था। लोगों को स्वतंत्रता छिन गई थी। इंदिरा गांधी ने निष्पक्ष नौकरशाही को चोट पहुंचाई। वह दबाव से दरक गई थी। आत्मरक्षा की आकांक्षा सरकारी कर्मचारियों के कार्य-व्यवहार का एकमात्र प्रेरक सूत्र रह गया था। धमकी की आशंका से ही वे सहम जाते थे। वे बिना सवाल उठाए इंदिरा गांधी के आदेशों का पालन कर रहे थे। नैतिक आग्रहों और परंपरागत मूल्यों के लिए नौकरशाहों के पास कोई जगह नहीं थी। वे इंदिरा गांधी के अत्याचारों का उपकरण बन कर रह गए थे। आपातकाल की घोषणा से काफी पहले नौकरशाहों की वफादारी का आकलन करने के लिए इंदिरा गांधी ने एक शब्द गढ़ा था- प्रतिबद्धता। उनमें से कुछ ने कहा कि उनकी प्रतिबद्धता तो भारत के संविधान के प्रति है। ऐसे लोगों की पदोन्नति में या तो अपेक्षा हुई अथवा उन्हें महत्वहीन पदों पर भेज दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि जो प्रशासनिक अधिकारी निर्भीकता से फाइलों पर टिप्पणियां लिखते थे, वे हताशा से भर गए। नौकरशाहों की रगों में आज भी इंदिरा गांधी द्वारा भरा हुआ जहर दौड़ रहा है। वे अपनी वफादारी नए शासकों के सत्तासीन होने के साथ-साथ बदल लेते हैं। न्यायपालिका भी प्रतिबद्धता के दबाव को महसूस करती है। इंदिरा गांधी ने अपने आदमी को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के तीन जजों की वरिष्ठता को लांघ दिया था। वे जज ही उस समय उनके तारणहार बने जब आपातकाल की संपुष्टि का केस न्यायालय के समक्ष आया। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने 11-1 के बहुमत से आपातकाल के पक्ष में फैसला दिया था। जिस एकमात्र न्यायाधीश ने इसके विरोध में मत दिया था, वह वरिष्ठतम न्यायाधीश थे, जिन्हें उनकी बारी आने पर भी मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया गया था। इंदिरा गांधी ने अपने 18 वर्ष के शासनकाल में सबसे अधिक क्षति उन संस्थानों को पहुंचाई, जिन्हें उनके पिता ने स्थापित और संरक्षित किया था। दल के विभाजन के फलस्वरूप जब लोकसभा में वह अपना बहुमत गंवा बैठी थीं, तब भी उन्होंने संसद में जोड़-तोड़ की। उन्होंने कांगे्रस और उसके वैचारिक अधिष्ठान को इतना कमजोर कर दिया कि जनता पार्टी केंद्र में सत्तासीन हो गई। एक समय था, जब यह असंभव माना जाता था। अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत में इंदिरा गांधी दूसरे की बात सुनती थीं और अंतिम व्यक्ति तक से संवाद स्थापित करती थीं। वह धर्म और क्षेत्र के मामले में पूरी तरह सेक्युलर थीं। बाद में उनके ये गुण विभिन्न गठबंधनों और जोड़-तोड़ में नजर आए। उन्होंने गरीबी हटाओ नारा दिया था। यह नारा कारगर रहा था। उन्होंने बैंकों और बीमा कंपनियों के राष्ट्रीयकरण जैसे कदम उठाए, जिससे उन्हें लोकप्रियता मिली। किंतु उन कदमों से आम आदमी को राहत नहीं मिल पाई। किसी हद तक कुछ नए पहलुओं ने भी उनकी दृष्टि और सोच को संकुचित किया। उनके पुत्र संजय गांधी संविधानेत्तर अधिसत्ता बन गए थे। उन्होंने भटके और दिशाहीन युवकों के लिए द्वार खोल दिए थे। उन्होंने जो ढांचा बनाया, वह आज भी शासन में नजर आता है। इंदिरा गांधी ने अपना विरोध करने वालों को तोड़ने के लिए हरसंभव उपाय किए। मुझे इस पर आश्चर्य होगा यदि इतिहास के फुटनोट में भी उनका उल्लेख हो पाएगा। यदि उल्लेख होगा तो शायद आपरेशन ब्लू स्टार के कारण, जिसकी इंदिरा गांधी को बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं) इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन के कुछ स्याह पहलुओं पर प्रकाश डाल रहे हैं कुलदीप नैयर
साभार:-दैनिक जागरण

Friday, March 13, 2009

आज के सवाल
बहुत समय के बाद आज कुछ लिखने के लिए बैठा हूँ. मन में बहुत सारे सवाल पैदा हो रहे हैं आज के ताज़ा हालत पर।आप सब से भी मैं ये विनती करूंगा कि इस विषय को गम्भीरता से लें और ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच इसकी चर्चा करें।REPUBLIC OF INDIA (भारतीय गणतन्त्र ) के संविधान के अनुसार हर भारतीय के लिए कुछ मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। समानता,स्वतंत्रता,शोषण का विरोध, धार्मिक आजादी,शिक्षा, संस्कृति , संवैधानिक , जीने और व्यक्तिगत आजादी का अधिकार इनमें मुख्य हैं। हम लोग जिसे आजादी का नाम देकर जश्न मानते हैं , क्या बदलाव महसूस करते हो गुलामी और आज की आजादी में। मेरे विचार से कुछ भी तो नहीं बदला है आज में और 62 साल पहले के भारत में ( भारतीयों के मौलिक अधिकारो के संदर्भ में ) . आम नागरिक के साथ आज भी वही भेदभाव , शोषण हो रहा है , पहले अंग्रेज करते थे अब उनकी विरासत के वारिस काले अंग्रेज करते हैं. धार्मिक आजादी के नाम पर किसी धर्म विशेष का प्रयोग वोट के लिए किया जाता है और किसी को सांप्रदायिकता करार दिया जाता है. धार्मिक उन्माद फैलाकर आपसी भाईचारे को खत्म किया जाता है. आम नागरिक को सरकारी स्तर पर शिक्षा मुहैया कराने की बात कहाँ तक खरी उतरती है . हर शहर और कस्बे में निजी स्कूलों और कालेजों की दुकानदारी खुलेआम चल रही है. एक बहुत बड़ा माफियाओं का समूह शिक्षा के नाम पर तथाकथित देश के नेताओं से सांठगांठ करके अपनी तिजोरियाँ भरने में लगे हुए हैं . संस्कृति की तो बात करना ही दकियानूसी और किसी पिछड़ेपन की पहचान लगने लगी है. आजकल का युवा और तथाकथित 21वी सदी के पक्षधर संस्कृति की बात करने वालों को किसी दूसरे ग्रह का प्राणी समझते हैं. कहने के लिए हर भारतीय को संवैधानिक अधिकार मिले हुए हैं. कानून की देवी की आँखों पर पट्टी बांधकर यह संदेश देने का झूठा प्रचार किया जाता है कि संविधान की नजर में सभी नागरिक समान हैं , जबकि सत्य इसके बिल्कुल विपरीत है . ' समरथ को नहीं दोष गुसाईं ' यह बात रामचरितमानस् में गोस्वामी तुलसीदास जी बहुत समय पहले ही वर्णित कर चुके हैं. जब भी कोई घोटाला या षड्यंत्र का भंडाफोड़ होता है तो हरेक शासन करने वाली पार्टी के मंत्री का एक ही बयान होता है ' किसी भी व्यक्ति को बख्शा नहीं जाएगा चाहे वो कितने ही बड़े पद पर क्यों न हो.' C.B.I. जैसी देश की उच्चतम केंद्रीय संस्था का आज तक का इतिहास इस बात का गवाह है ,उपरोक्त बयान कहाँ तक सही है ? देश के आम नागरिक को न्याय पाने के लिए न्यायलयों के चक्कर काटते-काटते अपना पूरा जीवन बीत जाने के बाद भी न्याय नहीं मिलता . हर भारतीय के जीवन की रक्षा और स्वास्थ्य के लिए शायद किसी दूसरे देश या लोक की ज़िम्मेवारी है . भारतीय नेता तो यही सोचकर बैठे हैं . चाहे आम नागरिक की सुरक्षा का मामला हो या उसकी बीमारियों के लिए उपचार के लिए आधारभूत साधनों का . शासन करने वाले अपनी सुरक्षा के लिए करोड़ों रूपये खर्च कर देतें हैं,परन्तु आम जनता मरती रहे इनको कोई फर्क नहीं पड़ता . या फिर उच्च और हाई प्रोफ़ाइल लोगों पर हमला होता है तो सरकार तुरन्त हरकत में आ जाती है .मुम्बई ताज होटल का हमला इसका उदाहरण है अगर ये हमला किसी आम जगह पर होता तो शायद इतना शोरशराबा नहीं होता . लोग अपने स्वास्थ्य के लिए भी निजी और बड़े-बड़े कार्पोरेट सेक्टर के अस्पतालों पर निर्भर हैं. सभी को इस बात का पता है कि इन अस्पतालों में चिकित्सा के नाम पर कितनी बेदर्दी से लोगों का आर्थिक शोषण किया जाता है . इस क्षेत्र में भी बहुत बड़े-बड़े लोग सरकारों के साथ मिलकर सरेआम कानून का मखौल उड़ाते हुए आम लोगों के शरीर और भावनाओं तथा संवेदनाओं को मारने के पाप में संलिप्त हैं . जहाँ तक हर व्यक्ति के जीने के लिए आधारभूत सुविधाओं की बात है ( बिजली ,पानी, स्वच्छ हवा , सड़क , परिवहन ,आवास ,भोजन ) तो आप देश के किसी भी कोने में चले जाइए हर जगह उपरोक्त सुविधाओं के लिए शासन के खिलाफ लोगों में एक आक्रोश मिलेगा . सरकार ने योजना आयोग बनाकर अपनी ज़िम्मेदारी को निभाने का नाटक रचा रखा है . क्या इनको कोई अनुमान नहीं होता कि आने वाले 20 साल बाद किसी शहर या कस्बे में कितनी बिजली,पानी,सड़क,आवास की आवश्यकता होगी . अगले साल 2010 में देश की राजधानी में कॉमनवेल्थ गेम होंगे . उसके लिए फटाफट योजनाएँ बनकर कम चालू हो जाता है (नये होटलों का निर्माण , बिजलीघरों का निर्माण ,खेल स्टेडियम ) कोई इनसे पूछे इस काम के लिए इनके पास इच्छाशक्ति और धन कहाँ से आ जाता है ? अगर ये गेम ना होते तो ये लोग धन का रोना रोकर या और कोई बहाना बनाकर टाल जाते . बहुत से शहरों में दूषित जल की आपूर्ति की शिकायतें मिलती रहती हैं . मिलावटी खाद्य वस्तुएं बेचने पर दुकानदारों को दोषी मानकर उनपर कानूनी कार्यवाही की जाती है .उपभोक्ताओं को दैनिक उपयोग की सामग्री सही दुकानदार से खरीदने का विकल्प भी होता है.लेकिन स्थानीय दूषित जलापूर्ति का नागरिकों के लिए कोई विकल्प नहीं होता और दूषित जलापूर्ति के लिए न ही किसी अधिकारी या मंत्री पर कानूनी कार्यवाही होती है . देश के कई हिस्सों में लोग भूख से मर रहे हैं और कई जगह अनाज सरकारी गोदामों में सड़ रहा है.देश की किसी भाग में सूखे के कारण अकाल होता है तो किसी कोने में अतिवृष्टि से बाढ़ का प्रकोप होता है .जब किसी दूसरे देश से तेल की पाईपलाइन लाई जा सकती है तो क्या एक ही देश के सूखे क्षेत्र में बाढ़ पीड़ित क्षेत्र का पानी नहीं लाया जा सकता . दोनों क्षेत्रों में जो जानमाल और राष्ट्रीय सम्पति का नुकसान होता है उसका उपयोग अन्य बहुत सी योजनाओं को पूरा करने के लिए किया जा सकता है. आवास के अभाव में ठंड और गर्मी से बहुत से लोग मरते हैं , लाखों की संख्या में मन्दिर और धर्मशालाएँ बनी हुई और अब भी बहुत से तीर्थस्थानों पर बनती ही जा रही हैं . लेकिन इस देश की विडम्बना देखिए धनाड्य और संपन्न वर्ग भी इन भ्रष्ट राजनैतिक पार्टियों को चन्दा देने में नहीं हिचकते ,लेकिन इन सड़क पर जीवन बसर करने वाले असहाय गरीबों को सहारा देने में शर्म आती है . ऐसा नहीं है कि उपरोक्त सभी समस्याओं का राजनैतिक पार्टियों के पास कोई समाधान ना हो. सभी पार्टियाँ जानबूझ कर इन्हें बनाए रखती हैं ताकि इनके नाम पर अपना वोट का खेल जारी रख सकें .अगर इन सबका हल हो जाए तो फिर ये किस बात पर जनता को गुमराह करेंगी . जिस प्रकार से अंग्रेजों की नीति थी 'फुट डालो और राज करो ' उसी नीति पर आज की राजनैतिक पार्टियाँ कम कर रही हैं. इन्होने अपनी राजनैतिक आकांक्षा पूरी करने के लिए समाज को हद से ज्यादा तोड़ने का काम किया है. हरेक राजनैतिक पार्टी में भ्रष्ट और अपराधिक पृष्ठभूमि की छवि के लोगों की भरमार है. हर पार्टी का नैतिक और चारित्रिक पतन हो चुका है. ऐसे में इन लोगों से कोई भी उम्मीद करना निरर्थक है . आज समय की जरूरत है कि देश कि जनता में जागरूकता लाई जाए और सही मायने में आजादी को परिभाषित किया जाए.