Wednesday, August 24, 2011

अभी तो महज शुरुआत है

सरकार के तौर-तरीके मुझे हमेशा हैरान कर देते हैं। जब महंगाई की मार पड़ती है तब या तो सरकार इसे नजरअंदाज कर देती है या वह ऐसे मूर्खतापूर्ण स्पष्टीकरण देती है कि उसकी स्वयं की स्थिति हास्यास्पद हो जाती है।

सरकार बहुत कम अंतराल में ग्यारह बार ईंधन की कीमतें बढ़ाती है और इससे हम सबके लिए हालात और बदतर हो जाते हैं। जब समाज में भ्रष्टाचार का घुन लग जाता है और वह उस लोकतंत्र की बुनियाद को खोखला करने लगता है, जिस पर हमें नाज है, तो सरकार तब तक आरोपों से इनकार करती रहती है, जब तक सर्वोच्च अदालत या कैग के हस्तक्षेप के बाद उसे कोई कार्रवाई करने को विवश न होना पड़े।

सरकार की कार्रवाइयां हिचकिचाहट भरी होती हैं। हस्तक्षेप करने पर वह गुर्राती है। वह दलील देती है कि कैग जैसी संस्थाओं को भ्रष्टाचार के मसले पर अंगुली उठाने का अधिकार नहीं है, लेकिन हकीकत यह है कि उसके पास कहने को कुछ भी विशेष नहीं होता। यहां तक कि आतंकवाद या अन्य बड़ी आपराधिक वारदातों के मौके पर भी सरकार सबसे सुस्त साबित होती है।

लेकिन जब बात जनता या जनता के प्रतिनिधियों पर क्रूरतापूर्ण जोर-आजमाइश करने की हो, तब सरकार बहुत चुस्त और चाक-चौबंद हो जाती है। तब उसे किसी सर्वोच्च अदालत या कैग के हस्तक्षेप की दरकार नहीं होती। जाहिर है क्रूरतापूर्ण कार्रवाइयां करने में सरकार को किसी किस्म की कोई तकलीफ नहीं होती।

अन्ना हजारे आपकी और मेरी ही तरह एक आम आदमी हैं। हममें और उनमें एक अंतर शायद यह है कि उन्होंने एक असमझौतावादी और कठोर जीवन बिताने का प्रयास किया है। उन्होंने जमीनी स्तर पर बदलाव लाने की कोशिशें कीं, जिसके कारण हमारे कुछ जाने-माने (और बेहद अमीर) राजनेताओं से उनकी ठन गई।

राजनेताओं ने अपनी तरफ से भरसक प्रयास किए कि अन्ना और उनके आंदोलन को ठीक वैसे ही कुचल दिया जाए, जैसे वे इससे पहले कई अन्य व्यक्तियों और आंदोलनों को कुचल चुके हैं। लेकिन अन्ना अडिग बने रहे। सरकार की बातों का उन पर कोई असर नहीं हुआ। न ही उन्होंने अपनी छवि पर कोई दाग लगने दिया, जबकि उनके बारे में अनेक अफवाहें फैलाने का प्रयास किया गया था।

इसीलिए जब देश निर्विवाद रूप से हमारी अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन करने के लिए किसी नेता की बाट जोह रहा था, तब अन्ना हजारे एक उपयुक्त व्यक्ति साबित हुए। नहीं, भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान की शुरुआत अन्ना हजारे ने नहीं की, यह शुरुआत हजारों देशवासियों ने की है। अन्ना तो बस केवल उन आम देशवासियों का चेहरा बनकर उभरे हैं।

सवाल यह नहीं है कि जनलोकपाल बिल सही है या नहीं। लाखों भारतीयों का मानना है कि यह सही है, अलबत्ता सरकार ऐसा नहीं सोचती। लेकिन बहस का मुद्दा यह नहीं है। भारत की जनता जनलोकपाल बिल के लिए इसलिए एकजुट हुई है, क्योंकि वह उसे एक ऐसी समस्या के संभावित जवाब के रूप में देखती है, जिसके कारण उसका जीना दुश्वार हो गया है। यह समस्या है : यत्र-तत्र-सर्वत्र व्याप्त भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचार केवल देश के सबसे गरीब लोगों को ही नुकसान नहीं पहुंचाता।

अब यह स्थिति आ गई है कि यह सभी देशवासियों के लिए समान रूप से नुकसानदेह और घातक बन गया है, सिवाय कुछ चुनिंदा राजनेताओं और अफसरों के, जो भ्रष्टाचार का फायदा उठा रहे हैं। यहां तक कि राजनीतिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला व्यावसायिक समुदाय भी अब भ्रष्टाचार से तंग आ चुका है।

तो सवाल यह नहीं है कि क्या अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ने के लिए हमारे सर्वश्रेष्ठ नेता हैं? सवाल यह भी नहीं है कि क्या जनलोकपाल बिल यह लड़ाई लड़ने का सबसे आदर्श हथियार है? सवाल यह भी नहीं है कि हम भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में कभी कामयाब हो पाएंगे या नहीं, क्योंकि कई लोग अक्सर इस तरह की निराशावादी बातें करते हैं।

सवाल केवल इतना है कि क्या हमें यह अवसर गंवा देना चाहिए? अचानक पूरा देश भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुहिम में एकजुट हो गया है और अन्ना हजारे इस संघर्ष का चेहरा बन गए हैं। क्या हम यह मौका चूक जाएं या हम इसका लाभ उठाएं? बुनियादी सवाल यह है और हम सभी को आज खुद से यही सवाल पूछना चाहिए।

आज हमारा सबसे बड़ा दुश्मन अगर कोई है, तो वह है सिनिसिज्म। निराशावाद और नकारात्मकता। हम खुद में भरोसा गंवा चुके हैं। हम नहीं मानते कि हम कुछ कर सकते हैं। अन्ना हमारे इस निराशावाद का जवाब हैं। गांधी टोपी पहनने वाला यह आदमी हमें प्रभावित कर सकता है या नहीं भी कर सकता है। हमारा देश बहुत बड़ा है। हम सभी देशवासियों का अपना एक दृष्टिकोण है कि भारत कैसा हो सकता है या उसे कैसा होना चाहिए।

लोकतंत्र का यही मतलब है: सभी दृष्टियों का सम्मान करना और एक सशक्त राष्ट्र के रूप में सहअस्तित्व की राह पर चलना। लेकिन अपने तमाम भेदों को भुला देने और भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठ खड़े होने का यही सबसे सही समय है। यह अन्ना का मजबूती के साथ समर्थन करने का समय है।

यह इस बात को साबित कर देने का समय है कि जब बात देश की रक्षा की आती है तो हम अपने अलग-अलग नजरियों को दरकिनार कर एकजुट हो जाते हैं। हो सकता है हम यह जंग जीत जाएं या हो सकता है हम नाकाम साबित हों, लेकिन हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि सरकार को बता दें कि जनमत की ताकत क्या होती है। हो सकता है यह ताकत देखकर भ्रष्टाचारी खुद को अपमानित महसूस करें। शायद इसी से बदलाव के एक नए दौर की शुरुआत हो।
Source: प्रीतीश नंदी | Last Updated 00:06(18/08/11)
साभार:-दैनिक भास्कर
http://www.bhaskar.com/article/ABH-now-is-just-the-beginning-2359919.html


इस मुनादी में महज जनलोकपाल नहीं

रात साढ़े बारह बजे तिहाड़ जेल के गेट नंबर तीन पर अचानक एक व्यक्ति ने पीछे से हाथ पकड़ते हुए मराठी में कहा, ‘मी शरद पोटले। रालेगन सिद्दि हूण आलो (मैं शरद पोटले। रालेगन सिद्दि से आया हूं)। मुझे 1991 में महाराष्ट्र में अन्ना का वह आंदोलन याद आ गया जो नौकरशाही के भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन की शुरुआत कर उन्होंने राज्य सरकार से सीधे कहा था कि भ्रष्ट अधिकारी हटाओ वरना अनशन जारी रहेगा। हफ्ते भर में ही जैसा समर्थन आम लोगों से अन्ना को मिला उससे उस वक्त की कांग्रेस सरकार इतने दबाव में आ गई कि उसने समयबद्ध जांच करवाने के आदेश दे दिए और 40 भ्रष्ट नौकरशाह बर्खास्त कर दिए गए।’

उस आंदोलन में अन्ना हजारे को अनशन के बाद नींबू-पानी का पहला घूंट पिलाने वाला यही शरद पोटले थे। शरद ने उसी वर्ष स्कूल से कॉलेज में कदम रखा था और अन्ना ने पूछा था, बनना क्या चाहते हो। शरद ने पढ़-लिखकर बड़ा बाबू बनने की इच्छा जताई थी। बीस वर्ष बाद जब तिहाड़ जेल के सामने शरद पोटले से पूछा कि कहां बाबूगीरी कर रहे हो तो उसने बताया कि खेती कर रहा हूं। और बाबू बनने का सपना उसने तब छोड़ा जब 199९ में अन्ना ने महाराष्ट्र के भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा और उस वक्त की शिवसेना सरकार अन्ना की जान के पीछे पड़ गई। तब रालेगन सिद्दि के पांच लोगों में एक शरद भी था जो उन अपराधियों को अन्ना की सच्चाई बताकर उनकी जान की कीमत बताई थी जिन्हें अन्ना को जान से मारने की सुपारी दी गई थी।

और फिर अन्ना पर कोई अपराधी हाथ नहीं उठा सका। लेकिन पहली बार 16 अगस्त को दिल्ली पहुंचे शरद ने अन्ना की गिरफ्तारी देखी तो उसे लगा कि दिल्ली में अपराध की परिभाषा बदल जाती है। मगर रात होते-होते जब तिहाड़ जेल के बाहर युवाओं का जुनून देखा तो मराठी में बोला कि अब सवाल अन्ना का नहीं देश का है। लेकिन शरद के इस जवाब ने बीते 20 घंटों की सियासी चाल और संसद से लेकर राजनीतिक दलों की पहलकदमी ने पहली बार सवाल यह भी खड़ा किया कि अन्ना हजारे की जनलोकपाल के सवाल को लेकर शुरू हुई लड़ाई अब संसदीय लोकतंत्र को चुनौती दे रही है और राजनीति अन्ना को या तो अपना प्यादा बनाने पर आमादा है या फिर आंदोलन को हड़पने की दिशा में कदम बढ़ा रही है।

सरकार ने चाहे अन्ना की हर शर्त मानते हुए रिहाई का रास्ता साफ किया, लेकिन प्रधानमंत्री से लेकर संसद के भीतर किसी सांसद ने अन्ना हजारे की मांग को मान्यता नहीं दी। मनमोहन सिंह ने अन्ना हजारे को संसदीय लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा भी बताया और अपनी विकास अर्थव्यवस्था के खांचे को पटरी से उतरने के लिए अन्ना के आंदोलन के पीछे अंतरराष्ट्रीय साजिश के संकेत भी दिए। यही नहीं, कमोबेश हर पार्टी के सांसद ने अन्ना को मजाक में बदलने की कोशिश की। संसद में बुधवार की बहस से सारे संकेत यही निकले कि पहली बार संसदीय राजनीति को सड़क के आंदोलन से खतरा तो लग ही रहा है। इसलिए अन्ना की महक 1974 के जेपी या 1989 के वीपी आंदोलन में खोजना भूल होगी। यह भूल ठीक वैसी ही है, जैसे महात्मा गांधी ने 1923 में अपनी गिरफ्तारी के विरोध में एक रुपए की जमानत लेने से भी इंकार कर दिया था और जज को यह कहना पड़ा कि ‘अगले निर्णय तक बिना जमानत ही एमके गांधी को रिहा किया जा रहा है।’

ठीक वैसे ही अन्ना ने 16 अगस्त को जमानत लेने से इंकार कर दिया और सरकार के निर्देश पर बिना जमानत ही अन्ना को रिहा कर दिया गया। दरअसल समानता तो यह भी है कि गुजरात में महंगाई के खिलाफ नवनिर्माण आंदोलन से जेपी ने संघर्ष शुरू किया। मामला भ्रष्टाचार तक गया। गिरफ्त में बिहार आया। अंत में वह आंदोलन सत्ता परिवर्तन के बाद ही थमा। हो सकता है जंतर-मंतर से तिहाड़ तक जा पहुंचे, आंदोलन का रुख भी अब महज भ्रष्टाचार का नहीं रहे और आंदोलन धीरे-धीरे उस दिशा में बढ़ता चला जाए, जहां संसदीय राजनीति को चुनौती देते हुए संसदीय राजनीति में बड़े सुधार की बात शुरू हो जाए। लेकिन समझना यह भी होगा कि 74 में जेपी या 89 में तत्कालिक प्रधानमंत्री राजीव गांधी को चुनौती देकर सड़क पर उतरे वीपी सिंह दोनों की पहचान राजनीतिक थी।

अन्ना राजनीतिक नहीं हैं। आंदोलन के लिए रणनीति बनाती अन्ना की टीम राजनीतिक नहीं है। इससे पहले के दोनों दौर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बेहद महीन तरीके से हड़पा और इस बार भी उज्जैन के चिंतन शिविर से 24 घंटे पहले 16 अगस्त को ही हर स्वसंसेवक को यह निर्देश भी दे दिया गया कि उसकी भागीदारी आंदोलन में सड़क पर बैठे लोगों के बीच न सिर्फ होनी चाहिए बल्कि संघर्ष का मैदान खाली न हो इसके लिए हर तरह का संघर्ष करना होगा। यह निर्देश भाजपा के कार्यकर्ता और युवा विंग को भी है। जो सांसद अन्ना को बेमानी मानते रहे और जो उन्हें संसदीय लोकतंत्र को चुनौती देने वाला मानते हैं, वे अन्ना से इसलिए सहमे हुए हैं क्योंकि पहली बार सड़क पर अन्ना आंदोलन के समर्थन में देश भर में लोग जुटे हैं। ऐसे मौके पर अगर प्रधानमंत्री संसद में अपने भाषण में कहते हैं, ‘हम जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हैं और हम अपने लोकतंत्र पर आंच आने नहीं देंगे।’ तो शरद पोटले की बात याद आ जाती है कि अब सवाल अन्ना का नहीं देश का है। और देश में पहली बार लोकतंत्र के मामले में संसद और सड़क की राहें अलग-अलग हैं।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)

Source: पूण्‍य प्रसून बाजपेयी | Last Updated 09:55(18/08/11)
साभार:-दैनिक भास्कर

http://www.bhaskar.com/article/ABH-poonya-prasoon-bajpayee-article-2361637.html?ZX3-V

जब योग्यता से आगे बढ़ जाए सत्ता..

पंद्रह अगस्त 1947 की मध्यरात्रि की ओर बढ़ते हुए जवाहरलाल नेहरू का शानदार उद्बोधन लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं के इतिहास में मील का पत्थर बनी इस यादगार रात के लिए अन्य महान भारतीयों के योगदान से अभिभूत था। 64 वर्ष के बाद, आइए हम तत्कालीन संयुक्त प्रांत से चुने गए सदस्य, दार्शनिक-शिक्षक और बाद में राष्ट्रपति बने डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को भी सुनें। वे इस चमत्कारिक उपलब्धि पर हर्षविभोर थे, परंतु उन्होंने आगे आने वाले खतरों के प्रति आगाह भी किया था।

उन्होंने दोषारोपण की संस्कृति, जो कि भारतीयों का पसंदीदा बहाना है, को सिरे से खारिज कर दिया। उन्होंने कहा, ‘अन्य (यानी ब्रिटिश) हमारी कमजोरियों से खेलने में सक्षम थे, क्योंकि हमने उन्हें ऐसा करने दिया।’ आगे आने वाली कमजोरियां भी उतनी ही खतरनाक रहीं: ‘जब सत्ता-शक्ति योग्यता को पीछे कर देती है, हम अंधकार में गिर जाते हैं।’ अगर अकेली इस बात को ही पद की शपथ का हिस्सा बना दिया जाता, तो जो इसे समझने में सक्षम हैं, उन पर इसका हितकारी प्रभाव हो सकता था।

डॉ. राधाकृष्णन ने चेताया था कि एक धनलोलुप और बिकाऊ शासक वर्ग स्वप्न को दु:स्वप्न में बदल सकता है: ‘जब तक कि हम शीर्ष स्थानों से भ्रष्टाचार को खत्म न कर दें, भाई-भतीजावाद, सत्ता लोलुपता, मुनाफाखोरी और काला बाजारी की हर जड़ को न उखाड़ फेंकें, जिन्होंने हमारे महान देश के नाम को खराब किया है..’। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद तो भारतीय प्रशासन के अवलंब बन चुके हैं।

लोकतंत्र की निपुणता उसकी इस योग्यता में निहित है, जो निराशा के दौर में नवीनीकरण की पेशकश करती है। अन्ना हजारे ने कल के भारत को आकार देने वाले बच्चों से यही वादा तो किया है। अन्ना, जो कल तक गुमनाम थे, पर आज अविस्मरणीय हैं। जब सत्तारूढ़ दल एक सामान्य आदमी और उसकी प्रेरणा से उठ खड़े हुए लोकप्रिय आंदोलन के खिलाफ सत्ता के दुरुपयोग पर उतारू हो जाता है, तो उसे मूर्खता के रसातल में बर्बाद होना ही है।

पीलू मोदी, तुम्हें इस दौर में रहना था! या, कम से कम हमें 1970 के दशक के इस अद्भुत सांसद को याद करने में सक्षम होना चाहिए। यह उस सरकार के खिलाफ देशव्यापी रोष का पिछला दौर था, जिसका सत्तामद उसकी योग्यता से भी आगे बढ़ गया था।

किसी की शख्सियत को जीवन की सीमाओं से बड़ा बताना चलन से बाहर हो चुका मुहावरा है। और शब्द महज दिखाई देने तक सीमित नहीं होते। पीलू के पास एक गर्जना थी, जो सत्ता के गलियारों में लगातार गूंजती रहती थी और हाजिर जवाबी थी, जो शक्ति और पद के अहंकार में खुद को आम लोगों से श्रेष्ठ मानने वालों को आईना दिखा सकती थी। इन दिनों राशिद अल्वी जैसे कांग्रेस प्रवक्ता ‘सीआईए’ का उल्लेख करने में थोड़े अनिच्छुक लगते हैं, लेकिन 1970 के दौर में सीआईए जनता के लिए दैत्य का पर्याय थी।

जो कोई भी कांग्रेस की तेजस्विता पर सवाल उठाने की हिमाकत करता, तत्काल सातवें नर्क में धकेल दिया जाता था। ऐसे ही समय में 1974 के अल्वियों ने जनता के आसमानी रोष को नेतृत्व देने वाले जयप्रकाश नारायण जैसे प्रखर देशभक्त की अवहेलना की थी। जब सीआईए को निंदा के लिए अपर्याप्त समझा गया, तो उन्होंने ‘आरएसएस’ का ठप्पा भी जोड़ दिया, मानो यह ऐसा दोष हो, जिससे मुक्ति संभव ही नहीं।

किसी तानाशाह सरकार को ठहाके से ज्यादा और कुछ आतंकित नहीं करता। पीलू मोदी जानते थे कि कैसे हंसना है। एक दिन वे एक बिल्ला लगाए हुए लोकसभा में पहुंचे, जिस पर लिखा था, ‘मैं सीआईए का एजेंट हूं’। सरकार कभी उबर नहीं पाई।

चूंकि अभी हमारे आसपास कोई पीलू मोदी नहीं हैं, अन्ना के सुरक्षा घेरे को मजबूती प्रदान करने वाले बच्चों ने हास्य को अपना प्राथमिक हथियार बनाया है। अगर सरकार अन्ना हजारे को लेकर चिंतित नहीं है, तो उसे उनके आसपास उभरने वाले व्यंग्योक्तिपूर्ण, तीक्ष्ण और कभी-कभी बेहद मजाकिया स्लोगनों को लेकर गंभीर रूप से चिंतित होना चाहिए। कांग्रेस के आइकॉन भले ही यह सोचें कि वे खुद को अपने नासमझ प्रवक्ताओं के विषवमन से अलग दिखा सकते हैं। लेकिन यह एक भ्रम ही है। लोग जानते हैं कि प्रवक्ता तो केवल कठपुतलियां ही हैं।

अन्ना हजारे ठीक उसी तरह का प्रतीक बन गए हैं, जैसे जयप्रकाश नारायण 1974 में थे। उनकी खास मांगें उतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितना कि उनके द्वारा उन मांगों को उठाया जाना। किसी ज्यादा योग्य सरकार ने अन्ना की शुरुआती मांग मान ली होती, लोकपाल मसौदे के उनके ड्राफ्ट को लोकसभा में रख दिया होता और लंबी वैधानिक प्रक्रिया चलने दी होती। इससे आधिकारिक तौर पर प्रतिक्रिया देने की जिम्मेदारी सभी राजनीतिक दलों तक पहुंच जाती, बजाय व्यापक तौर पर कांग्रेस संगठन के। अगर अभी जनता का रोष कांग्रेस पर केंद्रित है, तो खुद पार्टी ही दोषी है।

एक स्लोगन 1974 में जेपी के आंदोलन की डराने वाली याद की तरह है: ‘ये अंदर की बात है, पुलिस हमारे साथ है।’ 40 साल पहले इसे राजद्रोह बताकर इसकी निंदा की गई थी। दुनिया ऐसे जड़ नुस्खे से आगे बढ़ चुकी है। यह सीआईए या आरएसएस की बात नहीं है। भ्रष्टाचार न तो विदेशी एजेंट है, न ही विभाजनकारी शक्ति। यह ऐसा दानव है, जिसके बारे में दूरद्रष्टा डॉ। राधाकृष्णन ने 15 अगस्त 1947 को ही अनुमान लगा लिया था।
Source: एम।जे. अकबर | Last Updated 00:11(21/08/11)
साभार:-दैनिक भास्कर
http://www.bhaskar.com/article/ABH-power-exceeds-the-qualifications-2367654.html


अब कुछ भारतीयों से आजादी दिलाएं

हमने 15 अगस्त, 1947 को पटकथा का केंद्रीय भाव खो दिया था। हमने सोच लिया कि एडविना और लॉर्ड लुईस माउंटबेटन के महल पर तिरंगा लहराना ही महात्मा गांधी द्वारा 1919 में शुरू की गई स्वतंत्रता परियोजना के अंत का प्रतीक है। यह तो एक दूसरे और उतने ही मुश्किल स्वातं˜य संघर्ष की शुरुआत थी। पहला ब्रिटिशों के विरुद्ध रहा था। दूसरा भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष साथी भारतीयों के खिलाफ होगा।

जब मैं उन बेशुमार चीजों पर मनन करता हूं, जिनसे हमें अब भी आजादी की जरूरत है, तो वर्तमान और अतीत अपनी प्रमुखता के लिए होड़ करते नजर आते हैं। इस सूची में सबसे ऊपर की तरफ है, भूख। हमें इस भूख को ग्रामीण और जनजातीय भीतरी क्षेत्रों में नहीं खोजना होगा, जहां माओवादियों ने जनसमूह को विचारधारा नहीं, मानव अधिकारों के नाम पर जुटाया है : इसकी दरकार एक कृशकाय और उत्पीड़ित आत्मा को केवल जोड़े रखने के लिए महज पर्याप्त खाने के अधिकार से ज्यादा बड़ी हो सकती है? माओवादियों की गोलाबारी अब भी केवल टरटराहट ही है। यह भूख अब तक गुस्से में तब्दील नहीं हुई है। उस दिन- और रात उदासीन अमीर व आत्मसंतुष्ट मध्यवर्ग को भगवान बचाए, जब गरीब ने तय कर लिया कि जिनके पास कुछ नहीं है, उनके पास खोने को भी कुछ नहीं है।

गरीब कोई बहुत दूर की हकीकत नहीं हैं। वे भारत के सबसे ज्यादा बिगड़ैल और आत्मसंतुष्ट शहर, दिल्ली की राहों और किसी छोटे-मोटे शहर को खरीद सकने की कीमत पर बने गगनचुंबी अपार्टमेंट्स के सामने जमीन पर सोते हैं। गलियां बच्चों की उन पीढ़ियों का एकमात्र घर हैं, जो भीख नहीं मांग रहे होते, तब हंसने की कुव्वत रखते हैं। बेघर बच्चे के लिए उध्र्वगति क्या हो सकती है? कालकोठरी की छत? तिहाड़ जेल पहुंचने वाले 90 फीसदी किशोरों के पास कुछ भी नहीं होता- पहनी हुई शर्ट के अलावा दूसरी शर्ट भी नहीं। आजादी के साढ़े छह दशकों के बाद, कालकोठरी ही एकमात्र घर है, भारत उनके लिए जिसकी पेशकश करता है।

मैं अनावश्यक रूप से कड़वाहट भरा नहीं लगना चाहता। हमें 1947 में एक ऐसा भारत मिला, जहां पूरब में तीन बरस के भीतर 40 लाख लोग अकाल के कारण काल कलवित हो चुके थे। इसकी सबसे ज्यादा मार बंगाल पर थी। हमने अंग्रेजी आर्थिक नीतियों के नतीजे, अकाल को पीछे छोड़ दिया है- पीड़ादायक स्मृति, जो अब करोड़ों परिवारों के व्यक्तिगत इतिहास तक सीमित है। लेकिन यह उन आधा अरब लोगों के लिए मामूली सांत्वना ही है, जो अब भी अभाव में जीते हैं। उनकी उम्मीदें 20 की उम्र में उड़नछू हो जाती हैं और दांत 40 में चले जाते हैं। और उनकी जिंदगियां बहुत लंबे समय तक कुम्हलाई हुई नहीं रह पातीं। यह आजादी की परियोजना है, जिस पर अगले दशक के दौरान समूचे भारत का ध्यान होना चाहिए। यह आखिरी मौका है और आखिरी जिम्मेदारी, उस पीढ़ी की, जिसे अंग्रेजों के जाने के बाद 1947 में जन्म लेने का सौभाग्य मिला।

आधी रात की पीढ़ी की ये संतानंे अपनी जीवन संध्या पर हैं और उनके इरादे एकदम साफ हैं। वे भ्रष्ट भारतीयों से आजादी चाहते हैं। यह विश्वास करना मूखर्तापूर्ण होगा कि सिर्फ दूसरे लोग ही भ्रष्ट हैं। अगर भ्रष्टाचार सिर्फ शक्तिशाली मंत्रियों तक ही सीमित होता, तो जेलों में अपराधियों के लिए काफी जगह खाली होती। भ्रष्टाचार मारक है, क्योंकि इसकी जड़ें प्राधिकार के सबसे निचले स्तर तक व्याप्त हो चुकी हैं। पासपोर्ट कार्यालय का क्लर्क, जो आपके दुख से भी सौ रुपए का नोट दुह लेता है।

जिला मजिस्ट्रेट के कार्यालय का बाबू, जो आपको कानूनी तौर पर मिलने वाली चीज भी आपकी जेब से कुछ फीसदी लिए बगैर नहीं देता। कॉन्स्टेबल, जो हर नियम-कायदे को अपने फायदे के रूप में देखता है। हर गड्ढा, जो आप देखते हैं, वह भ्रष्टाचार की अंगूठा निशानी है : क्या आपको हैरानी होती है कि क्यों हमारी सड़कें पहली ही बारिश के बाद युद्ध का मैदान बन जाती हैं, जहां हमें हर पल जूझना होता है? क्यों बारिश लंदन, इस्तांबुल या सिंगापुर की सड़कों की गत नहीं बिगाड़ती, जहां दरअसल हर दोपहर बारिश होती है?

मुक्ति की सूची काफी लंबी है। भारतीय असमानता, पाखंड, चापलूसी और मूर्खता से आजादी चाहते हैं। चापलूसी का धूर्त और मक्कार भ्रष्टाचार इन बीमारियों में संभवत: बदतरीन है, क्योंकि यह नेता के अभिमान की पुष्टि के लिए सत्य को तोड़-मरोड़ देता है। एक दृष्टांत तत्काल मन में आता है, लेकिन इस युवा आशा को ही बार-बार रटना भी अन्याय ही होगा। हर पार्टी इस अधमता की बराबर दोषी है।

महात्मा गांधी, जिन्होंने 15 अगस्त को संभव कर दिखाया, उस दिन का जश्न मनाने के लिए नैतिक इच्छा नहीं जुटा सके, जब हमारे तिरंगे ने यूनियन जैक की जगह ली थी। वे दिल्ली में मग्न मौजियों के बीच नहीं थे। वे कोलकाता में थे- भारतीयों को भारतीयों से बचा रहे थे। जब बीबीसी ने बेलगाछिया के एकांत बसेरे में उनका इंटरव्यू लिया, तो वे जश्न का एक वाक्य तक नहीं ढूंढ़ पाए। गांधी 1919 और 1920 में कहीं ज्यादा खुश व्यक्ति थे। वे जानते थे कि जब लोग उठ खड़े हुए, तो सवाल सिर्फ यह रह जाएगा कि आजादी कब मिलेगी, न कि यह मिलेगी या नहीं। वे एक-चौथाई सदी आगे देख सकते थे। शायद 1947 में गांधी आधी सदी आगे देख सकते थे। गांधी आधुनिक भारत की महान उपलब्धियों पर मुस्कराहट की नजर डाल चुके होंगे, लेकिन उन्होंने तब तक हमें शांति से सोने नहीं दिया होता, जब तक भूख और भ्रष्टाचार मातृभूमि को परेशान किए हुए हैं।

लेखक द संडे गार्जियन के संपादक और इंडिया टुडे के एडिटोरियल डायरेक्टर हैं।

Source: एम।जे. अकबर | Last Updated 02:02(14/08/11)
साभार:-दैनिक भास्कर
http://www.bhaskar.com/article/ABH-indian-independence-august-2353938.html

लौट जाती है उधर को भी नजर

पाकिस्तान की युवा व ग्लैमरस विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार का भारत दौरा गलत वजहों से सुर्खियां बना गया। तीन बच्चों की मां हिना सुंदर और युवा होने के साथ पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान से अपने करीबी रिश्तों और अपनी संपन्न पारिवारिक हैसियत के लिए जानी जाती हैं। पाकिस्तान के अमीर खानदानों की परंपरानुसार उन्होंने विदेश से होटल मैनेजमेंट की तालीम हासिल की है, उनकेपति बड़े व्यवसायी हैं और खुद वे पाकिस्तान के एक जाने-माने होटल और पोलो के कई घोड़ों समेत बड़ी संपत्ति की मालकिन हैं।

कूटनीतिक शिष्टता की दृष्टि से उनसे हुर्रियत के अलगाववादी नेताओं से रस्मी भेंट के अलावा कोई बड़ी भूल-चूक हुई हो, ऐसा भी नहीं। उल्टे दौरे की शुरुआत में जब उन्होंने कहा था कि पार्टिशन के साठ साल बाद आज के युवा भारत-पाक नेतृत्व के लिए इतिहास के इस मुकाम पर आकर अपने विगत इतिहास को भुलाना ही बेहतर होगा, तो उन्होंने मीडिया से सराहना भी हासिल की थी। फिर भी उनके दौरे को भारत से लेकर अमेरिकी मीडिया तक में गंभीरता से न लिए जाने की वजह क्या हो सकती है?

एक वजह तो हिना ने स्वदेश वापसी पर इस बाबत पाक मीडिया को दिए अपने चिड़चिड़े जवाब में गिनाई कि महिला होने के नाते भारत के मीडिया की नजर में उनका राजनयिक महत्व हल्का था, उनकी फैशनपरस्त कीमती पोशाक और धूप के इटालियन चश्मे या डिजायनर हैंडबैगों पर विस्तृत टिप्पणियां शरारतन उनका राजनयिक कद कम करने की दृष्टि से की गईं। अगर उनकी जगह कोई पुरुष होता तो उसके सूट या टाई के रस ले-लेकर इतने चर्चे थोड़े ही किए जाते। पर यह आंशिक वजह हो सकती है।

असल वजहें दूसरी हैं और वे छह दशक पुराने भारत-पाक टकराव ही नहीं, 9/11 और फिर 26/11 की संगीन आतंकी वारदातों और फिर पाकिस्तान में आतंकी सरगना ओसामा की मौत से मिले अलकायदा, तालिबान और पाक सेना प्रतिष्ठान के करीबी रिश्तों के अकाट्य प्रमाणों तक फैली हैं। अपनी आर्थिक क्षमता और लोकतांत्रिक तेवरों से भारत ने आज विश्व बिरादरी में जहां ऊंचा स्थान हासिल कर लिया है, वहीं पाकिस्तान में चंद भ्रष्ट परिवारों की जागीर बने लोकतंत्र के ढांचे का आईएसआई और तालिबान के बढ़ते दोहरे दबावों तले बुरा हाल है।

अंतरराष्ट्रीय नजरों में पाक परमाणु बटन पर अलकायदा और कट्टरपंथियों के बढ़ते साये भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए खतरा हैं। ऐसे में भला आसिफ अली जरदारी की सरकार ने क्या सचमुच बेहद कमउम्र और तीन सालों से भी कम का राजनयिक अनुभव वाली हिना रब्बानी खार को विदेश मंत्री बनाकर इस दौरे के मार्फत भारत-पाक राजनय में क्रांतिकारी सुधार लाने की कोई गंभीर उम्मीद की होगी? कहने को कहा जा सकता है कि हिना बुद्धिमती, पढ़ी-लिखी महिला हैं और पाक सत्ता में फातिमा जिन्ना और शेरी रहमान से लेकर बेनजीर तक कई समझदार और राजनीतिक रूप से परिपक्व युवा महिलाएं रही हैं।

पर सच तो यह है कि पाक राजनीति के शीर्ष पर महिलाओं की मौजूदगी और पाक संसद में उनकी (40 प्रतिशत) तादाद सुनने में प्रभावशाली भले लगे, लेकिन अनुभव बताता है कि पाक कूटनीति के कंप्यूटरों में जब भी सक्षम महिलाएं घुसीं, तो प्रोग्राम को मानो वायरस लग गया। पाक सत्ता में महिलाएं अपने दम-खम पर नहीं, पारिवारिक रिश्तों के बूते ही सेना और सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा चुनी जाती रही हैं और सत्ता के असल संचालक उनको गूंगी गुड़िया के ही रूप में कैद रखने के इच्छुक होते हैं।

तनिक भी आजादखयाली और दिलेरी दिखाते ही सेना ने हर महिला को सत्ता से दरबदर कर दिया। अयूब खां की आलोचना के बाद फातिमा जिन्ना के आखिरी दिन अकेलेपन में गुजरे, बेनजीर ने मुशर्रफ को हटाकर लोकतंत्र बहाली की जिद ठानी तो जान की कीमत चुकाई और शेरी रहमान ने जब से उदारवादी गवर्नर सलमान तासीर की हत्या के बाद कट्टरपंथिता का विरोध किया, वे राजनीति से बेदखल हो भूमिगत रहने को बाध्य हैं।

आर्मी के ऐन पड़ोस में अमेरिकी कमांडो हमले में ओसामा की मौत के बाद से सभी समझदार लोग पीपीपी (पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी) नीत सरकार के संभावित पतन के डर से उससे कन्नी काट रहे हैं। इस नाजुक समय में विदेश मंत्रालय को अपने कब्जे में रखने की इच्छुक सेना को अपने पुराने खैरख्वाह और पंजाब के (मूलत: अपनी जमीनी मिल्कियत और सात शादियों के लिए मशहूर) पूर्व गवर्नर गुलाम मुस्तफा खार की भतीजी को विदेश मंत्री बनाना रास आया और जरदारी को भी।

इस कमसिन और स्वघोषित तौर से फैशनपरस्त खानदानी महिला से उसके आका स्वामिभक्ति और पाक विदेश नीति की पिटी-पिटाई लीक पर चलने की उम्मीद कर रहे हैं। हिना की दामी वार्डरोब व गरीबी भरे देश में उसकी जीवन शैली को लेकर भारत का मीडिया चाहे उन्हें हल्केपन से ले, उनकी यही छवि उसके सरपरस्तों को आश्वस्त करती है कि पोलो खेलने और लंदन में शॉपिंग करने वाली यह सोशलाइट लड़की खतरनाक जनवादी-समाजवादी विचारों को नहीं पोसेगी और भरसक उनकी बताई लकीर पर ही चलेगी। बात कड़वी हो, मगर सच है।

लौट जाती है उधर को भी नजर क्या कीजै/अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै?

2011 में भारत के साथ सीमा रेखा पर गंभीर मोल-तोल करने या भरोसाबहाली की कवायद करने को पाक प्रतिष्ठान के पास ठोस मुद्दे नहीं बचे हैं। न तो वह 26/11 के प्रमाण स्वीकार सकता है और न ही चिह्न्ति आतंकियों के प्रत्यर्पण या उनके सेना में पैठे हैंडलर्स पर कार्रवाई करने की उसकी कोई मंशा है। सीमा पर खर्चीली साझा परियोजनाओं या दीर्घकालिक व्यापारिक समझौतों को साकार करने में भी उसकी सच्ची रुचि नहीं।

अलबत्ता अभी भी रो-झींककर या ब्लैकमेलिंग द्वारा वह अपने घर का राशन-पानी अमेरिका से धरवा रहा है। अत: अमेरिकी दबाव उसे नेकनीयती का नाटक करने को मजबूर कर रहा है। भारत के साथ पाक का सम्मानजनक वार्तालाप संभव है और दोस्ती भी, लेकिन उसके लिए दोनों तरफ अनुभवी, परिपक्व और खुदमुख्तार राजनयिक जरूरी हैं। पल्लू और अलकावलि संभालती रब्बानी सरीखी मंत्री की छवि इस मायने में बहुत सकारात्मक कैनवास नहीं रचती।
Source: मृणाल पाण्डे | Last Updated 00:06(03/08/11)
साभार:-दैनिक भास्कर
http://www.bhaskar.com/article/ABH-he-seems-to-have-returned-2319111.html


देश को क्या दे सकता हूं मैं?

प्यारे दोस्तो, एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत 64 वर्षो का सफर तय कर चुका है। यह हम सभी के लिए गौरव और खुशी का क्षण है। साथ ही हमें एक राष्ट्र के रूप में अपने विचारों को पुनर्जीवित करने, अपनी प्रगति की समीक्षा करने और उन चुनौतियों का सामना करने के लिए नई रणनीतियां बनाने की भी जरूरत है, जो 21वीं सदी के भारत के समक्ष मुंह बाए खड़ी हैं। मेरा मानना है कि ऊर्जा और प्रेरणा से भरे युवा हमारी सबसे बड़ी संपदा हैं।

भारत के पास ऐसे 60 करोड़ से भी अधिक युवा हैं और देश के समक्ष स्थित चुनौतियों का सामना करने, उपलब्ध संसाधनों का उपयुक्त दोहन करने और वर्ष २क्२क् तक आर्थिक रूप से विकसित भारत का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए वे हमारी सबसे बड़ी उम्मीद हैं। यहां मैं विशेष रूप से दो युवाओं के बारे में बताना चाहूंगा, जो इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण हैं कि प्रेरणा से भरे युवा किस तरह खुद को और समाज को बदल सकते हैं।

मैं कर सकता हूं : दोस्तो, जब मैं भारत का राष्ट्रपति था, तब 28 अगस्त 2006 को मैं आंध्रप्रदेश के आदिवासी विद्यार्थियों के एक समूह से मिला। मैंने उन सभी से एक ही सवाल किया : ‘तुम क्या बनना चाहते हो?’ कई छात्रों ने इस सवाल का अपनी तरह से जवाब दिया, लेकिन नौवीं कक्षा में पढ़ रहे एक दृष्टिबाधित लड़के ने कहा कि ‘मैं भारत का पहला दृष्टिबाधित राष्ट्रपति बनूंगा।’ मुझे उसकी महत्वाकांक्षा अच्छी लगी, क्योंकि अपने लिए छोटे लक्ष्य तय करना एक अपराध है।

मैंने उसे शुभकामनाएं दी। इसके बाद उस लड़के ने कड़ी मेहनत की और 10वीं की परीक्षा में 90 फीसदी अंक पाए। बारहवीं की परीक्षा में उसने और अच्छा प्रदर्शन करते हुए ९६ फीसदी अंक पाने में कामयाबी हासिल की।

उसका अगला लक्ष्य था एमआईटी कैम्ब्रिज में इंजीनियरिंग की पढ़ाई। उसकी कड़ी मेहनत और लगन के कारण उसे न केवल एमआईटी कैम्ब्रिज में सीट मिली, बल्कि उसकी फीस भी माफ कर दी गई। उसकी प्रतिभा को देखते हुए जीई (जनरल इलेक्ट्रिक) के वालंटियर्स ने उसकी अमेरिका यात्रा के लिए आर्थिक मदद की।

जब जीई ने उसका ग्रेजुएशन पूरा होने पर उसके समक्ष जॉब का प्रस्ताव रखा, तो उसने जवाब दिया कि यदि वह भारत का राष्ट्रपति नहीं बन पाया तो जरूर इस पर विचार करेगा। इस लड़के का आत्मविश्वास अद्भुत है। संकल्प और दृढ़ता एक दृष्टिबाधित लड़के के जीवन में भी व्यापक बदलाव ला सकते हैं।

सपनों से सोच, सोच से हकीकत : 7 जनवरी २क्११ को मैं मीनाक्षी मिशन हॉस्पिटल में पीडियाट्रिक ऑन्कोलॉजी कैंसर यूनिट का शुभारंभ करने मदुरै गया था। कार्यक्रम के दौरान अचानक मैंने देखा कि एक व्यक्ति मेरी तरफ बढ़ा चला आ रहा है। मुझे उसकी शक्ल जानी-पहचानी लगी।

करीब आने पर मैंने देखा कि वह मेरा पूर्व ड्राइवर था। 1982 से 1992 के दौरान जब मैं हैदराबाद में डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट लैब का डायरेक्टर था, तब वह मेरे लिए काम किया करता था। उसका नाम था वी काथिरेसन। उन दस सालों के दौरान मैंने गौर किया था कि जब वह कार में मेरी प्रतीक्षा किया करता था तो वह उस समय का उपयोग कुछ न कुछ पढ़ने में करता था।

मैंने उससे पूछा तुम फुर्सत के क्षणों में कुछ न कुछ पढ़ते क्यों रहते हो? उसने जवाब दिया कि उसके बच्चे उससे बहुत सवाल पूछते हैं। इसलिए उसने पढ़ना शुरू कर दिया है, ताकि उनके सवालों का कुछ तो जवाब दे पाए। पढ़ाई के प्रति उसकी इस लगन ने मुझे प्रभावित किया।

मैंने उससे कहा कि वह पत्राचार पाठ्यक्रम के जरिये फिर से पढ़ाई की शुरुआत करे और बारहवीं पास करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए तैयारी करे। उसने इसे एक चुनौती की तरह लिया। बीए पास करने के बाद उसने इतिहास में एमए किया। इसके बाद उसने राजनीति विज्ञान में एमए के साथ ही बीएड व एमएड भी किया।

फिर उसने डॉक्टोरल स्टडीज के लिए पंजीयन कराया और वर्ष 2001 में उसने पीएचडी कर ली। तमिलनाडु सरकार के शिक्षा विभाग में उसने कई वर्षो तक सेवाएं दी। वर्ष 2010 में वह मदुरै के निकट मेल्लुर में शासकीय कला महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक बन गया।

हाल ही में, लगभग दस दिन पहले कोविलपट्टी तमिलनाडु के यूपीएमएस स्कूल में मेरी फिर प्रोफेसर काथिरेसन से भेंट हुई। मैंने सभी से उनका परिचय कराया और बताया कि किस तरह वे दो दशक की कड़ी मेहनत के बाद पीएचडी ग्रेजुएट और यूनिवर्सिटी प्रोफेसर बन पाए हैं। उनकी प्रेरक कहानी ने युवा श्रोताओं को बहुत प्रभावित किया।

निष्कर्ष : ‘मैं क्या कर सकता हूं’ : दोस्तो, हमारा देश आजादी के 65वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। इस मौके पर मैं आपसे एक बहुत अहम बिंदु पर बात करना चाहता हूं, जो वर्ष 2020 तक आर्थिक रूप से विकसित देश के निर्माण के हमारे लक्ष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

यकीनन, हम सभी क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रगति कर रहे हैं, जिसके कारण हमारा देश आठ फीसदी की विकास दर के साथ आगे बढ़ रहा है। लेकिन हमारे समक्ष कई गंभीर चुनौतियां भी हैं।

ये हैं भ्रष्टाचार और नैतिक पतन, पर्यावरण को क्षति और समाज में बढ़ती संवेदनहीनता। कुछ बुराइयां हैं, जिन्हें युवावस्था की भलाइयों से परास्त किया जा सकता है। ऐसी बुराइयां आखिर आती कहां से हैं? तमाम बुराइयों की जड़ है अंतहीन लोभ।

भ्रष्टाचार मुक्त और नैतिक समाज और स्वच्छ पर्यावरण के लिए ‘मैं क्या ले सकता हूं’ के स्थान पर ‘मैं क्या दे सकता हूं’ की भावना आनी चाहिए। देश के नागरिकों और खास तौर पर युवाओं को खुद से यह सवाल बार-बार पूछना चाहिए : ‘मैं अपने देश को क्या दे सकता हूं।’

क्या मैं पर्यावरण के लिए कुछ कर सकता हूं? क्या मैं इस धरती और इस पर रहने वाले मनुष्यों की रक्षा पर्यावरण की क्षति से होने वाली आपदाओं से कर सकता हूं? अरबों लोगों के लिए अरबों वृक्ष, इस बात को ध्यान में रखते हुए आज हम यह तय कर सकते हैं कि हम सभी पांच-पांच पौधे रोपेंगे और उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेंगे।

या क्या मैं कुछ संवेदनाओं का परिचय दे सकता हूं? क्या मैं उन लोगों की सेवा कर सकता हूं, जो कष्ट में हैं और उनकी मदद करने वाला कोई नहीं है? हम किसी अस्पताल जाकर उन मरीजों को थोड़ी-सी खुशी दे सकते हैं, जिनसे मिलने कोई नहीं आता। आप फूल दे सकते हैं, फल दे सकते हैं, उनके मन में कुछ उत्साह जगा सकते हैं।

या फिर क्या मैं मुस्कराहटें बांट सकता हूं? क्या मैं अपने देशवासियों के लिए कुछ ऐसा कर सकता हूं कि उनके जीवन में मुस्कराहटें खिल जाएं? आज के दिन हर युवा यह शपथ ले सकता है कि मैं अपनी मां को खुशियां दूंगा। मां खुश होंगी तो घर खुश होगी, घर खुश होगा तो समाज खुश होगा और समाज खुश होगा तो पूरा देश खुश होगा।

या क्या मैं गांवों की स्थिति सुधारने के लिए ही कुछ प्रयास कर सकता हूं? क्या मैं प्रोवाइडिंग अर्बन एमेनेटीज इन रूरल एरियाज (पीयूआरए) कार्यक्रम के जरिये अपने गांव और देशभर के गांवों की तस्वीर बदल सकता हूं?

दोस्तो, मैं चाहूंगा कि यह लेख पढ़ने वाला हर व्यक्ति ‘मैं क्या दे सकता हूं’ अभियान (www.whatcanigive.info) का एक हिस्सा बने। मैंने और मेरी युवा टीम ने अभियान के लिए नौ चेप्टर तय किए हैं, जो कई महत्वपूर्ण सामाजिक, नैतिक और पर्यावरणगत प्रश्नों का सामना करते हैं। इस अभियान के केंद्र में हैं देश के युवा।

‘मैं क्या दे सकता हूं’ अभियान का लक्ष्य है नैतिक रूप से संपन्न युवाओं की पीढ़ी तैयार करना। हम युवाओं को बदल पाए तो देश को भी बदल पाएंगे। पाठकों को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं।

लेने के बजाय देने का भाव

भ्रष्टाचार मुक्त समाज के लिए ‘मैं क्या ले सकता हूं’ के स्थान पर ‘मैं क्या दे सकता हूं’ की भावना आनी चाहिए। देश के नागरिकों और खास तौर पर युवाओं को खुद से यह सवाल पूछना चाहिए : ‘मैं देश को क्या दे सकता हूं।’

डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम
लेखक
भारत के पूर्व राष्ट्रपति हैं।
साभार:-दैनिक भास्कर
Source: डॉ. एपीजे अब्दुल कल� | Last Updated 00:24(15/08/11)
http://www.bhaskar.com/article/ABH-what-can-i-give-to-the-country-2355147.html

संसद से लेकर सड़क तक

अन्ना हजारे की गिरफ्तारी ने कई सवाल खड़े कर दिए। आखिर सरकार ने अन्ना को तिहाड़ जेल क्यों भेजा? अगर अन्ना से खतरा था तो उसी दिन शाम तक उन्हें रिहा करने का फैसला क्यों लिया? अगर अन्ना पहले ही अनशन पर बैठ जाते, तो कौन-सा पहाड़ टूट जाता? क्या सरकार को, कांग्रेस पार्टी को अंदाजा नहीं था कि अन्ना को जेल भेजने की देश में इतनी जबरदस्त प्रतिक्रिया होगी? क्या इसी से डरकर रातों-रात अन्ना को छोड़ने का फैसला लिया गया?

1975 में जब जयप्रकाश नारायण को इसी तरह सरकार के खिलाफ आवाज उठाने के लिए गिरफ्तार किया गया था तो उन्होंने कहा था, ‘विनाशकाले विपरीत बुद्धि’। इस बार भी वही हुआ। अन्ना हजारे को इसलिए गिरफ्तार किया गया, क्योंकि इस सरकार के पास राजनैतिक सवालों के वकीलों वाले समाधान हैं। प्रधानमंत्री के सलाहकार मंत्री वे वकील हैं, जो हर समस्या के निदान के लिए कानून की किताब देखते हैं। जिस लड़ाई को कांग्रेस को सड़क पर लड़ना चाहिए था, वह सीआरपीसी और पुलिस के जरिए लड़ी जा रही है।

चिदंबरम और कपिल सिब्बल ने अन्ना की गिरफ्तारी के बाद जो बातें कहीं, उनके आधार पर चलें, तो कांग्रेस को उत्तरप्रदेश में मायावती के खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए भी उन्हीं से अनुमति मांगनी पड़ेगी। मायावती तय करेंगी कि कांग्रेस के कितने व्यक्ति प्रदर्शन करें, कितने घंटे करें, कहां करें। अगर येदियुरप्पा के खिलाफ कांग्रेस को आवाज उठानी होगी, तो सदानंद गौड़ा से पूछेंगे कि बता दें किस तारीख को और कहां धरना दें?

लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन के लिए अनुमति लेनी पड़े, ये मजाक की बात है।

मुझे लगता है सरकार में बैठे लोगों को जरा भी अंदाजा नहीं था कि अन्ना का आंदोलन इतना विशाल रूप ले लेगा। हर जगह लोग सड़कों पर उतर आए। इनमें बड़ी संख्या नौजवानों की है। प्रदर्शनकारियों में ऐसे युवा भी हैं, जिनका राजनीति से कोई वास्ता नहीं है। इसका असर राहुल गांधी की राजनीति पर पड़ सकता है, क्योंकि वे नौजवानों के नेता बनने के लिए जुटे हुए हैं।

कांग्रेस के नेताओं को भी अंदाजा नहीं था कि लोग भ्रष्टाचार से इतने परेशान हैं। पिछले साल भर में जिस तरह एक के बाद घोटाले सामने आए, उससे लोग गुस्साए हुए थे। अन्ना इसी गुस्से को जाहिर करने का बहाना बन गए हैं। यही अन्ना की ताकत है। जो लोग महंगाई और भ्रष्टाचार से परेशान हैं, अन्ना उनकी नाराजगी का प्रतीक बन गए हैं, इसीलिए तिहाड़ जेल के बाहर, इंडिया गेट से लेकर जंतर-मंतर तक, छोटे-बड़े शहरों में लोग इस अभियान में अन्ना-अन्ना करते नजर आ रहे हैं।

सवाल ये है कि अगर अन्ना पहले दिन ही अनशन कर लेते, तो क्या हो जाता? सरकार क्यों इतनी बौखला गई? मुझे लगता है इसकी वजह है सरकार में बैठे कुछ लोगों का अहंकार। वे लोग, जो कुछ दिन पहले अन्ना हजारे और रामदेव के सामने नतमस्तक हो गए थे, उन्हें अचानक लगा कि अन्ना और रामदेव से बात करके गलती कर दी। सरकार का इकबाल तो डंडे से कायम होता है, इसीलिए पुलिस की आड़ में डंडा चलाने का फैसला किया गया। मजे की बात ये है कि जब डंडा फेल हो गया तो अपनी दुर्गति के लिए सरकार ने मीडिया को जिम्मेवार बता दिया।

कपिल सिब्बल की सुनें तो अन्ना हजारे को मीडिया ने हीरो बना दिया है। अगर टीवी चैनल न होते, तो इस आंदोलन का असर नहीं होता। लेकिन मुझे लगता है कि अगर जनता भ्रष्टाचार से परेशान न होती और सरकार इतना अहंकार न दिखाती तो टीवी कैमरों का इतना असर नहीं होता। फर्क ये है कि टीवी कैमरे आम आदमी का दर्द दिखा रहे हैं और इस सरकार के सबसे ज्यादा बोलने वाले मंत्री इस दर्द को छुपा रहे हैं।

इससे ज्यादा शर्म की बात क्या हो सकती है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने वाले अन्ना को उसी जेल में रखा गया, जहां राजा और कलमाडी कैद हैं। अन्ना अपराधी नहीं हैं। उन्होंने कोई कानून नहीं तोड़ा, किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया। उन्हें जेल भेजना कानूनन सही हो सकता है, लेकिन राजनीति की भाषा में इसे आत्मघाती कदम कहा जाएगा। आपातकाल में भी जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी को गिरफ्तार करके गेस्ट हाउस में रखा गया था, क्योंकि वे अपराधी नहीं थे।

मजे की बात ये है कि सरकार सब कुछ करने के बाद कह रही है कि अन्ना को गिरफ्तार करना पुलिस का फैसला है। क्या चिदंबरम लोगों को मूर्ख समझते हैं? क्या ऐसा हो सकता है कि पुलिस अन्ना को बिना गृह मंत्री की अनुमति के गिरफ्तार कर ले? ये भी नहीं हो सकता कि चिदंबरम को जानकारी न हो कि अन्ना कहां हैं? एक बच्चा भी जानता है कि पुलिस कमिश्नर गृह मंत्री से पूछे बिना सांस भी नहीं ले सकते।

कपिल सिब्बल और चिदंबरम की इस गैरराजनीतिक शैली का नुकसान हुआ कांग्रेस को। एक तरफ तो लगा कि कांग्रेस के पास कोई दिशा नहीं है। कभी अन्ना के साथ पांच-पांच मंत्री बैठकर बिल बनाते हैं, फिर उसी अन्ना को सिर से पांव तक भ्रष्ट बताते हैं। कभी उन्हें जेल भेजते हैं, कभी सिर पर बिठाते हैं, कभी उन्हें खतरा बताते हैं, कभी उनसे खुद डर जाते हैं।

अब मुसीबत ये है कि अन्ना के सवाल पर कांग्रेस की विरोधी पार्टियां एक हो गई हैं। लेफ्ट के नेताओं ने भाजपा के साथ मिलकर प्रधानमंत्री से जवाब मांगा। चंद्रबाबू और मुलायम साथ हो गए। विरोधी दलों की एकता सरकार को भारी पड़ सकती है। दूसरी तरफ कांग्रेस के सहयोगी दल खामोश हैं। वे इसे सिर्फ कांग्रेस की लड़ाई मान रहे हैं।

यह गठबंधन की सरकार के लिए अच्छा संकेत नहीं है। संसद में विपक्ष और सड़क पर जनता, सरकार किस-किस को रोकेगी? अन्ना की गिरफ्तारी के बाद सवाल अब लोकपाल बिल तक ही सीमित नहीं रह गया है। सवाल ये है कि इस मुल्क में लोकतंत्र रहेगा या नहीं?

सवाल ये है कि आम आदमी को अपनी आवाज उठाने के लिए क्या सरकार से इजाजत लेनी होगी? क्या सत्ता के अहंकार में डूबे मंत्री हर आवाज उठाने वाले को भ्रष्ट करार देते रहेंगे? अगरये हुआ तो इतिहास 1970 के दशक की संपूर्ण क्रांति को दोहराएगा। देश का नौजवान फिर ‘दिनकर’ की कविता गाएगा : ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है..।’


सरकार की दिशाहीनता इसी से जाहिर होती है कि कभी अन्ना के साथ पांच-पांच मंत्री बैठकर बिल बनाते हैं, फिर उसी अन्ना को सिर से पांव तक भ्रष्ट बताते हैं, कभी उन्हें जेल भेजते हैं, कभी सिर पर बिठाते हैं, कभी उन्हें खतरा बताते हैं, कभी उनसे खुद डर जाते हैं।
rajat.sharma@indiatvnews.com
लेखक इंडिया टीवी के चेयरमैन और एडिटर-इन-चीफ हैं
साभार:-दैनिक भास्कर
Source: रजत शर्मा | Last Updated 00:47(19/08/11)
http://www.bhaskar.com/article/ABH-up-the-road-from-parliament-2362627.html

महाभियोग पर मायावी राजनीति

राज्यसभा में पश्चिम बंगाल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन के खिलाफ लाया गया महाभियोग प्रस्ताव पास हो गया है| न्यायमूर्ति सेन पर 1990 के दशक में लगभग 33.23 लाख रुपये के गबन का आरोप है|


उस वक़्त वे वकील थे और कलकत्ता उच्च न्यायालय ने उन्हें एक विवाद सुलझाने के लिए रिसीवर नियुक्त किया था| यह विवाद स्टील कार्पोरेशन आफ इंडिया और शिपिंग कार्पोरेशन के बीच था| सेन पर आरोप है कि उन्होंने 33.23 लाख रुपये की रकम कोर्ट को सौंपने की बजाय निजी खाते में जमा कर ली थी|


2003 में हाईकोर्ट में न्यायाधीश बनने के बाद भी उन्होंने अदालत को इसकी जानकारी नहीं दी| हालांकि 2006 में उन्होंने हाईकोर्ट के आदेश के बाद पूरी रकम ब्याज समेत अदालत को लौटा दी थी|


बुधवार से जारी बहस की समाप्ति के बाद गुरूवार हो हुई वोटिंग में बहुजन समाज पार्टी को छोड़ सभी दल सेन के खिलाफ खड़े नजर आये| गौरतलब है कि राज्यसभा में हुई वोटिंग में महाभियोग के पक्ष में 189 ओर विरोध में 17 मत पड़े| एक सांसद वोटिंग के वक़्त मौजूद नहीं था|


कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन देश के दूसरे ऐसे न्यायाधीश हैं जिन पर महाभियोग की कार्रवाई की गई है| इससे पहले 1993 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी.रामास्वामी के खिलाफ लोकसभा में महाभियोग लाया गया था| मगर राजनीतिक कारणों से वह प्रस्ताव राजनीति की भेंट चढ़ गया था|


उस वक़्त कांग्रेस ने महाभियोग के लिए प्रस्तावित मतदान में भाग ही नहीं लिया था| इसके पीछे कांग्रेस के सियासी हित आड़े आ रहे थे| वरिष्ठ अधिवक्ता और वर्तमान में केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने उस समय लोकसभा में वी. रामास्वामी का जमकर बचाव किया था|


दरअसल, वी. रामास्वामी दक्षिण भारतीय थे और कांग्रेस को लगा कि यदि उनके खिलाफ महाभियोग पारित हो गया तो इससे पार्टी का दक्षिण भारत में जनाधार घट सकता है| अतः कांग्रेस ने ही इस महाभियोग की हवा निकाल दी थी|


राज्यसभा में सेन के खिलाफ पेश महाभियोग में उनके पक्ष में मतदान करने बाबत बहुजन समाज पार्टी का मत है कि सेन के खिलाफ लगे हुए आर्थिक अनियमितताओं के आरोप साबित नहीं होते हैं| ऐसा लगता है बहुजन समाज पार्टी किसी दूरगामी परिणाम के तहत सेन का बचाव कर रही है|


हाल ही में कई मामलों में न्यायपालिका ने "माया" सरकार को जबर्दस्त झटके दिए हैं; शायद यही वजह है कि बहुजन समाज पार्टी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर महाभियोग का सामना कर रहे न्यायाधीश सौमित्र सेन के पक्ष में मतदान कर अलग सन्देश देने की कोशिश की है|


राज्यसभा में सौमित्र सेन पर महाभियोग की चर्चा के दौरान बहुजन समाज पार्टी के नेता सतीश मिश्र ने महाभियोग के औचित्य पर ही सवालिया निशान लगा दिए हैं| मंतव्य साफ़ है कि पार्टी न्यायपालिका से अपने बिगड़े रिश्ते सुधारना चाहती है|


हाल के वर्षों में भ्रष्टाचार जिस तरह देश के लिए नासूर बना है, न्यायपालिका भी उससे अझूती नहीं रही है| हो सकता है बहुजन समाज पार्टी के रुख से कई भ्रष्ट न्यायाधीश और वकील खुलकर "माया" सरकार के पक्ष में खड़े नज़र आये| देश के लिए ऐसी स्थिति बड़ी ही चिंताजनक है|


खैर सौमित्र सेन ने भी अपने बचाव में तर्क दिया है कि यह मामला उस वक़्त का है जब वे वकील थे और इस आधार पर उन पर महाभियोग नहीं चलाया जा सकता| दो घंटे तक सदन में जिरह करने के पश्चात भी सदन ने उनके खिलाफ महाभियोग पारित कर ही दिया|


वरिष्ठ कानूनविद और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने भी सेन के बचाव के तर्कों को तथ्यों के आधार पर ही ख़ारिज कर दिया| अब सौमित्र सेन का मामला लोकसभा में पेश होगा और यदि वहां भी यह बहुमत से पारित होता है तो सेन को हटाने के लिए राष्ट्रपति के पास अनुमोदन हेतु भेजा जाएगा|


इस प्रकार सौमित्र सेन देश के पहले ऐसे न्यायाधीश होंगे जिन्हें महाभियोग के तहत हटाया जाएगा| हालांकि यह इतना आसान भी नहीं दिखता मगर जिस तरह भ्रष्टाचार पर जनता सरकार समेत नेताओं की नाक में दम किए हैं, लगता नहीं कि कोई भी दल जनता की भावनाओं के खिलाफ जाना चाहेगा|


सौमित्र सेन के खिलाफ चलाये जा रहे महाभियोग से निश्चित ही न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में मदद मिलेगी| राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार से आम आदमी त्रस्त है और यदि समाज के अंग न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार घर कर गया तो जनता का जीना मुश्किल हो जाएगा|


उम्मीद है सौमित्र सेन पर चलाये जा रहे महाभियोग से न्यायपालिका के अन्य सदस्य भी सबक लेंगे|

Source: सिद्धार्थशंकर गौतम | Last Updated 04:50(21/08/11)
साभार:-दैनिक भास्कर
http://www.bhaskar.com/article/ABH-impeachment-on-the-elusive-politics-2367619.html


अन्ना का समर्थन समय की मांग..

भ्रष्ट आचरण के खिलाफ अन्ना हजारे का आंदोलन प्रासंगिक है और इसे समर्थन देना समय की मांग है। आने वाले पीढ़ी के बेहतर भविष्य के लिए सभी को उसे उसूलन समर्थन देना चाहिए। उनके आंदोलन से भ्रष्टाचार का खात्मा होता है कि नहीं, यह बाद की बात है।

अहम तो यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठ रही है। शुरुआत ऐसे ही होती है। अंग्रेजों के विरुद्ध भी ऐसा ही हुआ। पहले मंगल पांडे, फिर झांसी की रानी और उसके बाद फिर और कोई.. और इसी तरह एक चिंगारी दावानल बन गई।

तजुर्बे बताते हैं कि एक डर को हटाने की बात रहती है बस, जहां डर हटा, आंदोलन शुरू हो जाता है। ‘वेक अप इंडिया’ फिल्म में मैंने अटल बिहारी वाजपेयी से प्रेरित किरदार निभाया है। अटलजी को एक जेनुइन नेता माना जाता है, लेकिन वर्तमान में अनेक राजनीतिज्ञ ‘नेता’ नहीं, बल्कि ‘पॉलिटिशियन’ के रूप में काम कर रहे हैं।

मेरे द्वारा अभिनीत किरदार कहता है- ‘मैं पॉलिटिशियन नहीं, नेता हूं। पॉलिटिशियन तो इंसानियत से बड़ा होता है।’ कहने का मतलब,‘पॉलिटिशियन’ के लिए राजनीति बिजनेस है, जबकि ‘नेता’ के लिए इसके मायने सेवा है।

अन्ना हजारे भी नेता हैं, उनका उद्देश्य सेवा है, अपना कोई निजी स्वार्थ-प्राप्ति नहीं। मेरा तो यहां तक मानना है कि अपने राजनीतिक तकाजों के चलते प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मजबूर हैं, अन्यथा वे भी अन्ना को समर्थन देते।

इसी तरह मेरी लालू प्रसाद यादव पर आधारित किरदार निभाने की भी बहुत इच्छा है। फिल्म या टीवी के अपने सामाजिक सरोकार हैं, यह दीगर बात है कि वे इस पर अपेक्षाकृत कम ध्यान देते हैं। पहले 80 के दशक में जैसे दूरदर्शन में काम हुए, वैसा काम अब नहीं दिखता है।

अब तो आलम यह है कि अप्रशिक्षित लोग आकर क्रिएटिव हेड का काम देख रहे हैं। जिन्हें कहानी से मतलब नहीं है। वे टीआरपी के लिए कई दफे मूलकथा में बदलाव करते रहते हैं। हालांकि अब भी अच्छा काम करने वाले लोग हैं, पर पहले के अनुपात में कम।

दूरदर्शन के जमाने में कामकाज को लेकर लोग ज्यादा सीरियस थे। पहले पैसे की कमी थी, इसलिए कम पैसे में बेहतर करने का दबाव रहता था और लोग इसमें जुटे रहते थे। वर्तमान में बड़ी कंपनियां ढेर सारा पैसा लगा रही हैं।

सारा गणित उनके अनुसार तय होता है। वैसे इन दिनों टीवी पर चला सीरियल ‘बालिका वधू’ सामाजिक प्रतिबद्धताओं को पूरा करने वाला सीरियल है, इसमें बालविवाह और अन्य सामाजिक कुप्रथाओं के संबंध में दिखाया गया है।
Source: अंजन श्रीवास्तव | Last Updated 00:10(21/08/11)
साभार:-दैनिक भास्कर
http://www.bhaskar.com/article/ABH-anna-supports-the-need-of-the-hour-2367660.html

लोकपाल की राह में चुनौतियां

लोकपाल वही भूमिका निभा सकता है, जो एंटीबायोटिक्स निभाते हैं। लेकिन एंटीबायोटिक्स तभी कारगर साबित होते हैं, जब उन्हें आपात स्थिति में उचित मात्रा में दिया जाए।

देश अन्ना हजारे और उनकी टीम का कृतज्ञ रहेगा। उन्होंने भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन-मन में पैठे आक्रोश को आवाज दी और उसे एक दृढ़ आंदोलन का स्वरूप प्रदान करने में सफलता पाई। आज हमारे सामने तीन प्रस्तावित लोकपाल हैं : एक तो टीम अन्ना का जनलोकपाल, दूसरा सरकार का लोकपाल और तीसरा अरुणा रॉय के नेतृत्व वाले एनसीपीआरआई का लोकपाल। यह इतना महत्वपूर्ण कानून है कि उसे तुरत-फुरत पारित करना उचित नहीं होगा। भारत पहले ही कई लचर कानूनों के बोझ तले दबा है, जो अपना लक्ष्य तो प्राप्त कर नहीं पाए, उलटे प्रताड़ना और अत्याचार का एक सुविधापूर्ण उपकरण बन गए। जहां सरकारी लोकपाल को ‘जोकपाल’ बताया गया है और यह उचित भी है, वहीं टीम अन्ना द्वारा प्रस्तावित बिल में भी कुछ खामियां हैं।

यदि यूपीए सरकार विवेकशील है तो उसे संसद से अपना बिल वापस ले लेना चाहिए और एक टास्क फोर्स का गठन करना चाहिए, जिसमें समाज के विभिन्न वर्गो का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति हों। इन व्यक्तियों के पास लोकतांत्रिक शक्तियां हों और वे देशभर के लोगों से राय-मशविरा करते हुए भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए एक सशक्त कानून पर एकमत हों। हमारे समाज में एड्स वायरस की तरह फैली घूसखोरी, छीना-झपटी और अत्याचार की संस्कृति से निजात पाने के लिए कोई एक संस्था या कोई एक कानून काफी नहीं हो सकता। इसके लिए सरकार के हर महकमे, हर दफ्तर में सुधार लाना होगा। एक नागरिक बुनियादी ढांचे का निर्माण करना होगा और ऐसे नियम-कायदों और कानूनों को चिह्न्ति करना होगा, जो अफसरों और राजनेताओं के हाथों में असीमित शक्तियां सौंप देते हैं। मौजूदा प्रशासनिक तंत्र केवल दो सिग्नल समझता है : ऊपर से मिलने वाली चेतावनी और नीचे से मिलने वाली घूस।

यह स्थिति तब तक नहीं बदल सकती, जब तक कि अधिकारियों और कर्मचारियों को एक निश्चित समय सीमा में काम पूरा करने के लिए उत्तरदायी न बनाया जाए। ऐसा न कर पाने की स्थिति में उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए और जनता के पास भी यह अधिकार होना चाहिए कि वह उनसे जवाबतलब कर सके। मिसाल के तौर पर नगर निगम के अधिकारी लोगों को भारी-भरकम हाउस टैक्स बिल भेज देते हैं। कई साल पहले साउथ दिल्ली के एक डबल बेडरूम फ्लैट में रहने वाले मेरे एक पड़ोसी को १.६५ लाख रुपए का हाउस टैक्स बिल मिला था। वे चिंतित हो गए और एक स्थानीय राजनीतिक कार्यकर्ता से जाकर मिले, जो यह दावा करता था कि नगर निगम अधिकारियों से उसके अच्छे ‘कनेक्शन’ हैं। वह कार्यकर्ता दफ्तर पहुंचा और संबंधित बाबुओं से बात की। मेरे पड़ोसी से कहा गया कि १.६५ लाख के बिल को घटाकर ७क्क्क् रुपए प्रति वर्ष कर उत्तरदायित्व करने के लिए उन्हें २५ हजार रुपयों का भुगतान करना होगा। मेरे पड़ोसी ने इसे ‘फायदे का सौदा’ मानते हुए खुशी-खुशी यह प्रस्ताव स्वीकार लिया। इस तरह की घटनाएं आम हैं। देश के तकरीबन हर मकान मालिक को इस तरह के ब्लैकमेल का सामना करना पड़ता है, क्योंकि वे नहीं चाहते कि फर्जी बिलों के आधार पर उनकी संपत्ति सील कर दी जाए और वे अदालतों में अंतहीन मुकदमे लड़ते रहें।

भ्रष्टाचार का यह दुर्ग तब महज एक आघात में धराशायी हो गया था, जब वर्ष २क्क्४ में अहमदाबाद, पटना और बेंगलुरू की राह पर चलते हुए दिल्ली नगर निगम ने भी संपत्ति कर की गणना और संग्रह की प्रणाली में सुधार किया और स्पष्ट मानकों के साथ एक स्वनिर्धारण योजना लागू की। जनता की सुविधा के लिए वेबसाइट पर विवरण डाले गए। आज दिल्ली में कोई भी व्यक्ति इंटरनेट पर एमसीडी के पेमेंट पोर्टल के मार्फत संपत्ति कर का भुगतान कर सकता है। इससे भ्रष्टाचार के अवसर कम हो जाते हैं। वास्तव में आज मेरे पड़ोसी उसी संपत्ति के लिए ३८क्क् रुपए से अधिक कर का भुगतान नहीं करते, जिसके लिए उन्हें पहले १.६५ लाख का बिल भेजा गया था। एक और उदाहरण है मानुषी संगठन के प्रयासों से साइकिल रिक्शा चालकों के साथ होने वाले भ्रष्टाचार और र्दुव्‍यवहार में आई गिरावट। लाइसेंस के बिना रिक्शा चलाना गैरकानूनी है, लेकिन मोटरयान के विपरीत रिक्शा चालक मांग के आधार पर लाइसेंस नहीं पा सकते। लाइसेंस के लिए आवेदन करने के बाद लंबे समय इंतजार करना पड़ता है और इस ढीलपोल के लिए निगम अधिकारी किसी तरह से जवाबदेह नहीं होते। लेकिन उनके पास यह अधिकार जरूर है कि वे बिना ऑनर्स और पुलर्स लाइसेंस के संचालित हो रहे रिक्शा जब्त कर लें। किसी व्यक्ति के पास एक से अधिक कारें, ट्रक या हवाई जहाज भी हो सकते हैं, लेकिन एक से अधिक रिक्शा होना गैरकानूनी है। साथ ही रिक्शा को किराये पर भी नहीं दिया जा सकता। इस तरह के बेतुके कानूनों के कारण रिक्शा चालक भ्रष्टाचार के शिकार हो जाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक दिल्ली के रिक्शा चालक पुलिस व नगर निगम अधिकारियों को एक साल में ३५क् करोड़ से भी अधिक रुपए घूस के रूप में चुकाते हैं। वहीं अकेले दिल्ली में ही स्ट्रीट वेंडर्स प्रतिवर्ष घूस के रूप में ५क्क् करोड़ रुपए चुकाते हैं।

लोकपाल ज्यादा से ज्यादा वही भूमिका निभा सकता है, जो एंटीबायोटिक्स निभाते हैं। लेकिन एंटीबायोटिक्स केवल तभी कारगर साबित होते हैं, जब उन्हें आपात स्थिति में उचित मात्रा में संक्रमित रोगी को दिया जाए, अन्यथा रोगी के शरीर पर उसका प्रभाव समाप्त हो जाता है। ओवरडोज जहर भी साबित हो सकती है और मरीज की जान भी ले सकती है। अच्छे से अच्छा लोकपाल भी तब तक रोजमर्रा के भ्रष्टाचार को समाप्त नहीं कर सकता, जब तक बुनियादी कानूनों में बदलाव न लाया जाए। सबसे जरूरी बात है पुलिस, राजनेताओं और अपराधियों के गठजोड़ को ध्वस्त करना और पुलिस प्रणाली में दूरगामी सुधार लाना, ताकि नागरिकों को आश्वस्त किया जा सके कि लोकपाल में शिकायत दर्ज कराने से उनकी जान को कोई खतरा नहीं होगा।
Source: मधु किश्वर | Last Updated 00:32(23/08/11)
साभार:-दैनिक भास्कर
http://www.bhaskar.com/article/ABH-problem-in-the-way-of-lokpal-2371906.html


सरकार तो है मगर ‘अफसोस’ के साथ

अन्ना हजारे और उनके समर्थकों के साथ दिल्ली में लालकिले की नाक के नीचे जो कुछ भी मंगलवार को हुआ उसके लिए गृहमंत्री ने ‘अफसोस’ व्यक्त किया है पर साथ ही यह भी जोड़ा है कि ऐसा करना जरूरी हो गया था। चार जून की आधी रात को दिल्ली के रामलीला मैदान में पुलिस के बल प्रयोग के बाद भी सरकार ने ऐसा ही अफसोस जाहिर किया था और कहा था कि ऐसा करना जरूरी हो गया था। देश में चलने वाले किसी भी शांतिपूर्ण आंदोलन के प्रति सरकार का यह एक स्थायी स्पष्टीकरण बन गया है।
सरकार का कहना है कि वह धरनों और आंदोलनों के खिलाफ नहीं है पर सबकुछ निर्धारित शर्तो के मुताबिक होना चाहिए। हुकूमत का कामकाज संवैधानिक शर्तो, मानदंडों, आदर्शो और चुनावों के दौरान जनता से किए गए वायदों के हिसाब से चाहे न चले, उसके प्रति उठने वाली विरोध की कोई भी आवाज, फिर वह चाहे अहिंसक भी क्यों न हो।
उसे शर्तो के दायरे में ही व्यक्त की जाने की इजाजत दी जाएगी। यह तानाशाही को लोकतंत्र के मुखौटे में पेश करने का ही दुस्साहस है। पर जो लोग सत्ता में इस समय फैसले ले रहे हैं उनके सारे आकलन इस मायने में उलट गए कि जनता ने सरकार की शर्तो और उसकी सफाई दोनों को स्वीकार करने से न सिर्फ इनकार कर दिया, बल्कि जनलोकपाल की स्थापना की मांग को लेकर प्रारंभ की गई अपनी लड़ाई को अब समग्र परिवर्तन के संघर्ष में बदल दिया है।समूचे घटनाक्रम में आपातकाल के पदचाप इस तरह से ढूंढ़े जा सकते हैं कि तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर की बर्खास्तगी की मांग को लेकर प्रारंभ हुए बिहार में छात्रों के आंदोलन की परिणति अंतत: श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार के पतन में हुई थी। और वर्तमान सरकार चाहती तो इतिहास से सबक लेते हुए अन्ना की मांगों पर सहानुभूतिपूर्ण रुख अपनाते हुए भूल सुधार की सूचना मीडिया में प्रकाशित करवा सकती थी।
पर चूंकि देश को अभी पता नहीं है कि सरकार के लिए असली फैसले कौन ले रहा है, अन्ना पर चाबुक चमकाने के लिए कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह और मनीष तिवारी जैसे नेताओं को खुला छोड़ दिया गया। अन्ना को तो अनशन करने के लिए शर्तो की जंजीरों में कैद कर दिया गया पर उनके प्रति कांग्रेस के प्रवक्ताओं के अविश्वसनीय आरोपों और भाषा के इस्तेमाल पर सामान्य शिष्टाचार की शर्तें भी लागू नहीं की गईं। परिणाम सामने है।
अन्ना हजारे रातोंरात अन्ना हजारों और अन्ना लाखों में तब्दील होकर देश की सड़कों पर फैल गए। देश की जिस युवा शक्ति के दिलों पर राहुल गांधी अपनी अगुवाई में राज करना चाहते थे, वही पलक झपकते एक बूढ़े अन्ना के चमत्कार पर फिदा होकर अपना सबकुछ लुटाने को तैयार हो गई। नीति- निर्धारकों की अदूरदर्शिता और असीमित अहंकार के चलते प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के लिए बैठे-ठाले अपने बचे हुए कार्यकाल की प्राथमिकताएं बदल दी गईं।
अब अनुमान लगाना मुश्किल है कि आंदोलन अगर अनियंत्रित होकर अप्रत्याशित हाथों में पहुंच गया तो उसके परिणाम क्या होंगे। इस तरह की आशंकाओं को निर्मूल साबित करना बहुत जरूरी है। अन्ना के आंदोलन को बजाए जनलोकपाल की स्थापना की मांग के चश्मे में कैद करने के इस नजरिए से देखा जाना जरूरी है कि कानून-व्यवस्था के नाम पर परिवर्तन की संभावनाओं की पगडंडियों पर भविष्य के लिए अधिनायकवादी व्यवस्थाओं के नुकीले पत्थर नहीं बिछाए जाने चाहिए।
जनता को अगर बार-बार अपने तलुओं को लहूलुहान करने की आदत पड़ जाएगी तो फिर उनकी यात्राएं कहां जाकर खत्म होंगी, कभी पता ही नहीं चलेगा। सरकार को जनता के सामने इसलिए झुकने की आदत डालनी चाहिए कि दो-ढाई साल बाद उसे उसी के आगे हाथ जोड़ना है। अन्ना उसी जनता के लिए संभावनाओं के सर्वमान्य प्रतिनिधि होकर उभरे हैं।
अन्ना के लिए हिरासत की कोई भी अवधि अब कोई मायने नहीं रखती। उनके प्रति उमड़ रहा समर्थन अगर इसी तरह बढ़ता रहा तो फिर अधिकृत जेलों में तो जगहें नहीं बचेगी और फिर समूचे देश को ही एक खुली जेल करना पड़ेगा। वैसी स्थिति में सरकार को अपने लिए किसी और जनता का चुनाव करना पड़ेगा।

साभार:-दैनिक भास्कर

Source: श्रवण गर्ग | Last Updated 06:27(17/08/11)
http://www.bhaskar.com/article/ABH-government-but-sorry-with-2358260.html

रस्सी बस जली भर है बल वैसे ही कायम हैं

तिहाड़ जेल से बाहर निकलने के बाद अन्ना हजारे रामलीला मैदान में उमड़ने वाले जन-सैलाब की आसमानी उम्मीदों को कैसे पूरी करने वाले हैं? देश की जनता को उसके समर्थन के लिए धन्यवाद देने के बाद क्या अन्ना यही सूचना देने वाले हैं कि जन लोकपाल की स्थापना को लेकर सरकार के साथ उनकी टीम का समझौता हो गया है? और कि उनके साथी जन लोकपाल के दायरे से प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को बाहर रखने पर तैयार हो गए हैं? अगर यह सही है तो फिर रामलीला मैदान को आगे के आंदोलन के लिए तैयार करवाने की जरूरत नहीं बची थी।

सरकार के साथ समझौते की बात अगर गलत है तो फिर न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े के कथन से यही अर्थ निकालना पड़ेगा कि टीम अन्ना की सोच में दरारें पड़ गई हैं। अगर ऐसा नहीं है तो उस सरकार की समझ में पन्द्रह दिनों में क्या फर्क पड़ जाएगा जो अन्ना और उनकी टीम को ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचारी करार दे चुकी है? क्या गारंटी है कि अन्ना की लड़ाई उनके अनशन के पन्द्रह दिनों में सफल हो जाएगी और फिर देश से पैंसठ प्रतिशत भ्रष्टाचार के खत्म हो जाने का भरोसा मिल जाएगा।

और अंत में यह कि पन्द्रह अगस्त की रात दिल्ली के कन्स्टीट्यूशन क्लब में देश के नाम अपने संदेश में अन्ना ने कहा था कि लड़ाई अब जनलोकपाल की स्थापना तक सीमित नहीं रही बल्कि लड़ाई देश में परिवर्तन की मांग को लेकर चलने वाली है- पिछले तीन दिनों से अपना खाना-पीना भूलकर जेल के दरवाजों पर पलक पावड़े बिछाए बैठे हुए हजारों समर्थकों को अन्ना अब देश में किस तरह के परिवर्तन का सपना बांटकर भाव-विभोर करने की तैयारी तिहाड़ में कर रहे हैं? देश अन्ना से जानना चाहेगा कि जिस परिवर्तन की बात उन्होंने की थी वह सत्ता के परिवर्तन की नहीं बल्कि व्यवस्था के परिवर्तन की थी।

अन्ना की टीम से देश की जनता उसी व्यवस्था परिवर्तन के घोषणापत्र की मांग करने वाली है। वे लोग गलती कर रहे हैं जो ऐसा मानकर चल रहे हैं कि सरकार अन्ना के आगे झुक गई है। हकीकत यह है कि रस्सी केवल जली भर है। उसके सारे बल वैसे ही कायम हैं। केवल विशेषण बदले हैं, संबोधन के तेवर नहीं। सरकार को कहीं से उम्मीद नहीं थी कि अन्ना को समर्थन के बादल इस कदर फट पड़ेंगे कि जन सैलाब में उसका सारा अहंकार गले-गले तक डूब जाएगा और उसकी आवाज को ही बदल देगा। पर उम्मीद तो अन्ना को भी नहीं रही होगी कि इतिहास का ऐसा कोई क्षण उन्हें रालेगण सिद्धि जैसे छोटे से गांव से उठाकर देश की राजधानी की राजनीतिक छाती पर इस तरह से पोस्टर ब्वॉय के रूप में चस्पा कर देगा और जनता उनके चश्मे के भीतर गांधी और जयप्रकाश की आंखें तलाशने लगेगी।

सरकार तो केवल अन्ना को तिहाड़ के दरवाजे के बाहर छोड़कर अपनी जिम्मेदारी और अपने अपराध से मुक्त होने की राह जोह रही है। जेल से बाहर आते ही समर्थकों की भीड़ और उसका उत्साह अन्ना की जिम्मेदारी बन जाएंगे। अन्ना का अब तक का आंदोलन तो फिल्म का प्रोमो भर था। ‘इंडिया अंगेस्ट करप्शन’ की बॉक्स ऑफिस पर सफलता और अन्ना के शब्दों में कहें तो देश में ‘लोकशाही’ का भविष्य तो अब रामलीला मैदान में वैसे ही तय होने वाला है जैसा कि 25 जून 1975 को जयप्रकाश नारायण की ऐतिहासिक सभा में हुआ था।

इतिहास में सबकुछ दर्ज है कि उस सभा के बाद क्या हुआ था। अन्ना भी जानते होंगे कि सरकार इस समय केवल डरी हुई है, उनसे सहमत नहीं है। अन्ना के समक्ष चुनौती सरकार का डर नहीं बल्कि उसकी असहमति ही है।

Source: श्रवण गर्ग | Last Updated 00:39(19/08/11)
साभार:-दैनिक भास्कर
http://www.bhaskar.com/article/ABH-shravan-garg-anna-hajare-2362604.html

अनशन पर अन्ना, सेहत सरकार की खराब

अनशन अन्ना हजारे कर रहे हैं, जान सरकार की दांव पर लगी है। कड़कती धूप में शरीर अपना आंदोलनकारी जला रहे हैं, पसीना वातानुकूलित कमरों में चहलकदमी कर रही सरकार का बह रहा है। सरकार की चिंता आंदोलनकारियों के लगातार तेज होते नारे नहीं, अन्ना की लगातार धीमी पड़ती आवाज है।

अब उसके सारे प्रयास इसी दिशा में हैं कि अनशन तोड़ने के लिए ‘किसी भी तरह से’ अन्ना को मना लिया जाए। अन्ना तैयार नहीं हो रहे हैं। सरकार की नजरें आंदोलनकारियों की बढ़ती हुई संख्या और देश में फैलते समर्थन पर कम और अन्ना के मेडिकल बुलेटिन पर ज्यादा है। डाक्टरों की जितनी बड़ी फौज अन्ना की हिफाजत के लिए लगाई गई है उसका एक-चौथाई भी उनके समूचे गांव रालेगण सिद्धि में कभी नहीं पहुंचा होगा। सरकार केवल अन्ना से बात करना चाहती है, उनकी कोर कमेटी से नहीं। देश की जनता से भी नहीं।

सरकार इस तरह की गलतफहमी के अंधेरे में समझौतों की मोमबत्तियां जलाना चाह रही है कि अन्ना अगर जरा सी भी हां कर देंगे तो उसके लिए सबकुछ ठीक हो जाएगा, सत्ता के गलियारों में रोशनी ही रोशनी फैल जाएगी। ईमानदारी की बात करें तो अब आंदोलन और आंदोलनकारी अन्ना के हाथों से निकलकर रामलीला की तरह ही देशव्यापी हो गए हैं। उन पर अब किसका वास्तविक नियंत्रण और नेतृत्व है, किसी को पक्की जानकारी नहीं है।

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपना सिक्का हवा में उछाल दिया है। उन्होंने मांग कर डाली है कि सरकार ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है, वह इस्तीफा दे और नया जनादेश प्राप्त करे। उन्होंने यह घोषणा नहीं की कि भाजपा अन्ना की मांगों और जन लोकपाल का समर्थन करती है और सरकार को उन्हें भाजपा के समर्थन से 30 अगस्त तक पूरा कर देना चाहिए। नौ-दस पार्टियों के तीसरे मोर्चे द्वारा आहूत देशव्यापी विरोध प्रदर्शन आज लड़ाई के बचे हुए मुद्दे भी तय कर देगा। जन लोकपाल बिल का भविष्य जो कुछ भी बने, विपक्षी दलों ने तो अपने भविष्य की तैयारियां प्रारंभ कर दी हैं। सही पूछा जाए तो सरकार इस समय अन्ना के आंदोलन से नहीं बल्कि चुनावों का सामना करने से डर रही है।

देश के नागरिकों को ज्यादा चिंता इस बात की नहीं है कि अन्ना का आंदोलन व्यापक होता जा रहा है। खौफ इस सच्चाई से ज्यादा है कि सरकार टोपी पर टोपी धरे बैठी है और केवल अन्ना से बातचीत की खिड़कियां खोलने की कोशिश में उन लोगों के लिए दरवाजे बंद कर रखे हैं जिनके कि वास्तविक प्रभाव में अन्ना इस वक्त हैं। दूसरे यह कि सरकार अन्ना को अभी भी केवल एक ‘मराठी मानुस’ समझने की गलती करते हुए उन्हीं मध्यस्थों को खंगाल रही है जो महाराष्ट्र से संबंध रखते हैं।

सरकार इसी मुगालते में आंदोलन से निपटना चाहती है कि फैलती हुई आग को केवल अन्ना को समझा बुझाकर ही ठंडा कर लिया जाएगा। अन्ना तो अब परिवर्तन के प्रतीक बन गए हैं, फैसले तो कहीं और होने हैं। और फैसलों में जनता की भागीदारी भी सरकार को सुनिश्चित करनी पड़ेगी। अन्ना के संकल्प को चूंकि उमड़ती हुई भीड़ के समर्थन ने एक जिद में तब्दील कर दिया है, इसलिए इस मुद्दे पर अब बहस बेमानी है कि वे और उनके साथी सरकार को ब्लैकमेल और संसद की अवमानना कर रहे हैं। अन्ना जब प्रधानमंत्री और दस जनपथ के दरवाजे खटखटा रहे थे तब सरकार भी उनके साथ सौदेबाजी में लगी हुई थी।

देश के सामने दांव पर इस समय यही है कि अन्ना को कुछ नहीं होना चाहिए। इतिहास का कमाल कहें या कुछ और कि अन्ना वास्तव में भी देश बन गए हैं और ईमानदारी तथा विश्वसनीयता के मामले में उन्हें प्रधानमंत्री से ज्यादा नम्बर मिल सकते हैं। परेशानी इस बात को लेकर है कि कांग्रेस अपनी सरकार बचाने की जुगाड़ में है जबकि चिंता उसे देश को बचाने की होनी चाहिए। ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि प्रधानमंत्री स्वयं रामलीला मैदान पहुंचकर अन्ना से बातचीत करने का साहस दिखा दें? मुमकिन है ऐसा करने से कोई नया रास्ता निकल आए और सरकार की छवि भी जनता की नजरों में बढ़ जाए। अब सरकार के स्वास्थ्य को अन्ना की गिरती हालत से अलग करके नहीं देखा जा सकता। अन्ना के स्वास्थ्य की जांच में लगे डाक्टर तो निश्चित ही नहीं बता पाएंगे कि इस हालत के लिए सरकार के लोग ही वास्तव में जिम्मेदार हैं।
Source: श्रवण गर्ग | Last Updated 00:48(23/08/११)
http://www.bhaskar.com/article/ABH-anna-shravan-garg-hearing-2371931.html






महज छुट्टी का एक दिन

राष्ट्रीय पर्व को लेकर निरुत्साह पर रोहित कौशिक की टिप्पणी

15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस की सुबह किसी काम से घर से बाहर निकला तो देखा कि पड़ोस में रहने वाले मेरे एक मित्र अपने घर के बाहर टहल रहे हैं। वह डिग्री कॉलेज में प्राध्यापक हैं। जब मैंने उनसे पूछा कि आज आप ध्वजारोहण के लिए कॉलेज क्यों नहीं गए तो उन्होंने उत्तर दिया-भाई साहब, देश को आजाद हुए 60 साल से ज्यादा हो गए हैं, लेकिन ध्वजारोहण की औपचारिकता आज भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है। इस दिन भाषणबाजी के अलावा होता भी क्या है? ये विचार देश के एक शिक्षक के हैं, उसी शिक्षक के जो समाज को सही रास्ता दिखाता है और जिसे गुरु के रूप में भगवान से भी बड़ा दर्जा प्राप्त है। यह कटु सत्य है कि इस दौर में हम सभी को ध्वजारोहण के लिए अपने विभाग या संस्थान जाना भारी दिखाई देने लगा है। सवाल यह है कि क्या कारगिल जैसे युद्ध के समय एक आम भारतीय का खून खौल जाना ही देशभक्ति है? अकसर देखा गया है जब भी किसी दूसरे देश से जुडे़ आंतकवादी या फौजी हमारे देश पर किसी भी तरह से हमला करते हैं तो हमारा खून खौल उठता है। लेकिन बाकी समय हमारी देशभक्ति कहां चली जाती है? हम बडे़ आराम से देश की संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं, भ्रष्टाचार के सागर में गोते लगाकर शहीदों का अपमान करते हैं तथा अपना घर भरने के लिए किसी भी हद तक गिरने को तैयार रहते हैं। ऐसे समय में क्या हम देशभक्त कहलाने लायक है। स्पष्ट है कि मात्र बाहरी आक्रमण के समय हमारा खून खौल उठना ही देशभक्ति नहीं है। बाहरी आक्रमण के साथ-साथ देश को विभिन्न तरह के आंतरिक आक्रमणों से बचाना ही सच्ची देशभक्ति है। देश पर आंतरिक आक्रमण कोई और नहीं बल्कि हम ही कर रहे हैं। पिछले 60 वषरें में हमने भौतिक विकास तो किया, लेकिन आत्मिक विकास के मामले में पिछड़ गए। स्वतंत्रता को हमने इतना महत्वहीन बना दिया कि 15 अगस्त और 26 जनवरी को शहीदों को श्रद्धांजलि देना भी हमें बकवास लगने लगा। इस दौर में हम शहीदों का बलिदान और स्वतंत्रता का महत्व भूल चुके हैं। तभी तो आज हमारे लिए स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस कोई मायने नहीं रखता है। मुझे आश्चर्य तब हुआ जब मैंने कुछ विद्यार्थियों से स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस का अर्थ पूछा और अधिकांश विद्यार्थी ठीक-ठाक उत्तर नहीं दे पाए। मुझे याद आता है अपना बचपन जब लगभग प्रत्येक घर में परिवार के अधिकतर सदस्य 26 जनवरी की परेड देखने के लिए टीवी से चिपके रहते थे। आज हम स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को ढो भर रहे हैं। विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या यह वही आजादी है जिसकी परिकल्पना हमारे शहीदों ने की थी? क्या अपनी ही जड़ों को खोखला करने की आजादी के लिए ही हमारे शहीदों ने बलिदान दिया था? सवाल यह है कि ऐसे दिवसों और आयोजनों से भारतीय जनमानस का मोहभंग क्यों हुआ है? दरअसल हमारे जनप्रतिनिधि लोगों की अपेक्षाओं और उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे हैं। यही कारण है कि आज हमने स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को मात्र एक छुटटी का दिन मान लिया है। ध्वजारोहण के लिए एक-दो घंटे कार्यालय जाने पर छुट्टी का मजा किरकिरा हो जाता है। ऐसा सोचते हुए हम भूल जाते हैं कि हम जिस मजे की बात कर रहे हैं वह शहीदों की शहादत का ही सुफल है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हम आजाद हवा में सांस लेने को मजा मानते ही नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि पराधीन भारत के दर्द को न तो हमने भोगा है और न ही इस दौर में उसे महसूस करने की संवेदना हमारे अंदर बची है। इसीलिए हमारे मजे की परिभाषा में देर तक सोना, फिल्में देखना या फिर बाहर घूमने-फिरने निकल जाना ही शामिल है। व्यावसायिकता के इस दौर में हम इतना तेज भाग रहे हैं कि अपने अतीत को देखना ही नहीं चाहते हैं। शायद इसीलिए हम और हमारे विचार भी तेजी से बदल रहे हैं। लेकिन इस तेजी से बदलती दुनिया में जो हम खो रहे हैं उसका अहसास हमें अभी नहीं है। भविष्य के लिए बदलना जरूरी है लेकिन अपने अतीत को दांव पर लगाकर नहीं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111718950274153272

गुलाम नबी फई की चालें

कश्मीर पर दुष्प्रचार की साजिश पर एसके सिन्हा के विचार

भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक गुलाम नबी फई इन दिनों अमेरिका, भारत और पाकिस्तान में सुर्खियों में है। वह हाईप्रोफाइल सेमिनारों और अमेरिकी सीनेटरों तथा कांग्रेस सदस्यों को प्रभावित करने के जरिये कश्मीर पर पाकिस्तान की सोच को प्रचारित करने के लिए आइएसआइ से करोड़ों डॉलर हासिल किए थे। करीब दो दशक से वह इस काम में लगा था। अभी वह एक लाख डॉलर के मुचलके पर जमानत पर अपने घर में नजरबंद है। पाकिस्तान ने उसका समर्थन करते हुए कहा है कि कश्मीरी होने के नाते उसे कश्मीर मुद्दे का समर्थन करने का पूरा हक है। सीआइए को उसकी गतिविधियों की पूरी तरह जानकारी रही होगी और पुराने और भरोसेमंद साथी पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंधों के चलते उसने पहले आंखें मूंद रखी थी। ओसामा के मारे जाने बाद हालात बदल गए हैं और अब इन दो सहयोगियों के संबंधों में ठहराव आ गया है। इतने लंबे समय से फई की गतिविधियों से भारतीय खुफिया एजेंसियों का फई की शरारतों से अनभिज्ञ रहना मुमकिन नहीं लगता। उसे पता था इन बड़े-बड़े सेमिनारों में असल में क्या होता था? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हमारी सरकार कश्मीरी अलगाववादियों को न केवल दिल्ली, कोलकाता और चंडीगढ़ में, बल्कि वाशिंगटन, लंदन और ब्रुसेल्स में भी खुलेआम भारत-विरोधी विचार व्यक्त करने की छूट देती रही है। यह तुष्टिकरण का ही परिचायक है। हमारे देश के बहुसंख्यक वर्ग से खास तौर से चुने गए प्रख्यात नागरिकों को फई ने अमेरिका में कश्मीर पर अपने सेमिनारों में बुलाया ताकि उन सेमिनारों की विश्वसनीयता स्थापित की जा सके। इन लोगों को एग्जीक्यूटिव श्रेणी में विमान यात्रा, पंचसितारा होटल निवास और उदारता से अन्य सुविधाएं प्रदान की गई। इनमें से कुछ ने इन सेमिनारों में भारतीय दृष्टिकोण भी रखा, लेकिन उसे सेमिनार में पारित प्रस्तावों में स्थान नहीं दिया गया। माना जा सकता है कि एक बार जाने वाले लोगों के साथ धोखा हुआ होगा, लेकिन जो लोग बार-बार वहां गए उनके बारे में क्या कहा जाए? जम्मू के एक वरिष्ठ पत्रकार तो सत्रह बार इन सेमिनारों में गए। वह कश्मीर के बारे में भारतीय दृष्टिकोण के खिलाफ लगातार लिखते रहे हैं। इस पूरे प्रकरण पर भारत सरकार मौन ही रही। विवेकशीलता का तकाजा तो यह था कि इन सेमिनारों में जाने वाले अपने प्रख्यात नागरिकों के बारे में हम सतर्कता बरतते। 1983 में सेना से इस्तीफा देकर जब मैं पटना में अपने घर रह रहा था तो मैंने पटना का गौरवपूर्ण नाम पाटलिपुत्र रखने का आंदोलन शुरू किया। एक हजार साल तक यह दुनिया का एक अग्रणी शहर और भारत की राजधानी रहा था। हमने पटना के एक लाख नागरिकों के हस्ताक्षरों से युक्त एक ज्ञापन दिया। बिहार सरकार ने हमारे ज्ञापन की अनुशंसा की और मंजूरी के लिए इसे भारत सरकार के पास भेज दिया। वोट बैंक के कारणों से भारत सरकार ने इसे मंजूरी नहीं दी। हमने अशोक चिह्न को अपना प्रतीक चुना था और अशोक धर्म चक्र को अपने राष्ट्रीय ध्वज में स्थान दिया था, लेकिन अशोक की इस राजधानी को उसका मूल नाम देने में हमें आपत्ति है। तब मुझे बड़ी हैरानी हुई जब मॉरीशस में विपक्ष के नेता पॉल ब्रेजनर ने मुझे एक अतिथि के रूप में मॉरीशस आने का न्यौता दिया। उन्होंने मॉरीशस के एक शहर का नाम पाटलिपुत्र रखने और उसे पटना से जोड़ने का प्रस्ताव किया था। मॉरीशस में बिहारियों की अच्छी-खासी तादाद है। निश्चित ही वे भी इस बात का राजनीतिक फायदा उठाना चाहते थे। मेरा मन किया कि मैं उनका निमंत्रण स्वीकार कर लूं। भ्रमणीय स्थान की यात्रा के साथ-साथ इससे मेरी प्रिय परियोजना को भी बल मिल सकता था। मैंने विदेश मंत्रालय को पत्र लिखकर उनकी सलाह मांगी। जवाब मिला कि हमारी सरकार के प्रधानमंत्री अनिरुद्घ जगन्नाथ के साथ बहुत अच्छे संबंध हैं और मेरे लिए विपक्ष के नेता का अतिथि बनना उचित नहीं होगा। मैं भी एक बार अमेरिका पर गया था, लेकिन ऐसे कार्यक्रमों से दूर रहा। (लेखक सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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न्याय की प्रतिमूर्ति

जस्टिस संतोष हेगड़े के विचारों से अवगत करा रहे हैं डॉ। महेश परिमल

जस्टिस संतोष हेगड़े और कर्नाटक के लोकायुक्त ने अपनी सेवानिवृत्ति से पहले राज्य में चल रहे अवैध खनन का पर्दाफाश करते हुए रिपोर्ट सौंपी, जिससे पूरे देश में हड़कंप मच गया। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येद्दयुरप्पा को राज्य में होने वाले अवैध खनन में सहभागी और संरक्षक बताया था। इस कारण येद्दयुरप्पा को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। संतोष हेगड़े अपनी ईमानदारी और न्यायप्रियता के लिए जाने जाते हैं। वह टीम अन्ना के भी सदस्य हैं और जनलोकपाल का मसौदा तैयार करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं। 1999 में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडियाना जज के रूप में संतोष हेगड़े का चयन हुआ। जब देश में आपातकाल लागू किया गया, तो उन्होंने इसका विरोध किया था। इसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा। उन्हें भारत का चीफ जस्टिस नहीं बनाया गया। जबकि वह इस पद के प्रबल दावेदार थे। इसके विरोध में हेगड़े ने इस्तीफा सौंप दिया। इसके बाद बार की ओर से 1999 में ही उनका चयन सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में किया गया। 2005 में वह सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति पद से निवृत्त हुए। अपने लंबे अनुभव के आधार पर हेगड़े कहते हैं कि भारत में लोकतंत्र की व्याख्या बदल रही है। देश की सरकार चुने गए लोगों द्वारा चुने गए लोगों के हित में चल रही है, आम आदमी के लिए नहीं। जस्टिस हेगड़े कहते हैं कि निर्वाचित लोगों ने देश के संविधान को काफी नुकसान पहुंचाया है। चुनाव आयोग के तमाम कायदे-कानूनों की धज्जियां इन्हीं निर्वाचित लोगों द्वारा उड़ाई जाती है। उदाहरण हमारे सामने है कि चुनाव आयोग ने चुनाव लड़ने के लिए अधिकतम राशि निर्धारित की हुई है। पर हम सभी जानते हैं कि प्रत्याशी इससे कई गुना अधिक खर्च करते हैं। इस तरह से नेता चुनाव में अपनी पूंजी का निवेश करते हैं, उसके बाद संसद में जाकर क्या करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। लोकसभा के पिछले सत्र में केवल 107 सांसद ही बोलने के लिए खड़े हुए थे। ऐसे न जाने कितने सांसद हैं, जो अपने 5 साल के कार्यकाल में केवल 6 बार ही बोलने के लिए खड़े हुए हैं। संसद में आपराधिक प्रवृत्ति के सांसदों में 17।5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। ये सभी रातो-रात करोड़पति कैसे बन गए हैं, यह भी किसी से छिपा नहीं है। जस्टिस हेगड़े कहते हैं कि न्यायमूर्तियों की नियुक्ति के लिए जो अर्हताएं और नियम-कानून अपनाए जाते हैं, वे भी चिंताजनक हैं। पहले न्यायाधीशों की नियुक्ति में गुणवत्ता और निष्ठा का समावेश होता था, अब हालात पूरी तरह से बदल गए हैं। उनका मानना है कि भ्रष्टाचार के जितने मामले दर्ज किए गए हैं, उसका समाधान एक वर्ष में ही हो जाना चाहिए। इसके लिए विशेष न्यायालयों का गठन किया जाना चाहिए। अभी तो ये हाल है कि भ्रष्टाचार के एक मामले को निपटाने में ही दस वर्ष का समय लग जाता है। इसके पीछे आखिर परेशानी आम आदमी को ही उठानी पड़ती है। वह कहते हैं कि बेल्लारी में किस तरह से अवैध खनन हो रहा है और खुलेआम भ्रष्टाचार हो रहा है, जो उसे देख लेगा, उसका कानून से विश्र्वास ही उठ जाएगा। हेगड़े का कहना है कि निर्वाचित प्रतिनिधि सत्ता के नशे में अपने आपको देश का सुपरसिटीजन मानने लगे हैं। वे स्वयं को सबसे अलग मानते हैं। उनकी वाणी, उनके व्यवहार में अहंकार साफ दिखाई देता है। यह मेरी चेतावनी है कि यदि लोकतंत्र प्रणाली में लोगों ने अपना विश्र्वास खो दिया, तो भविष्य में कोई भी व्यक्ति लोकतंत्र को बचा नहीं सकता। उस युवा की बातों पर गौर करना चाहिए, जो जस्टिस हेगड़े की सेवानिवृत्ति के दिन उनके कार्यालय के बाहर खड़ा था और कह रहा था कि जस्टिस हेगड़े मेरे रोल मॉडल हैं, राज्य में चल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ मैं भी विद्यार्थियों का एक संगठन तैयार करूंगा। अन्ना हजारे ने यह बताने की एक कोशिश की है कि सत्याग्रह से बहुत कुछ हो सकता है। चाहिए तो बस संकल्पशक्ति और ईमानदार कोशिश। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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सुलह की एक राह

लोकपाल पर सरकार और सिविल सोसाइटी को गतिरोध तोड़ने का एक फार्मूला दे रहे हैं बीआर लाल
लोकपाल के मसले पर पूरी बहस और बेचैनी इस अनुभूति के आधार पर आरंभ हुई कि सरकार अपने नियंत्रण वाली विभिन्न एजेंसियों को उच्च पदस्थ लोगों के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच की अनुमति नहीं दे रही है और इसका परिणाम यह है कि वे मनमाने तरीके से देश को लूटने में लगे हैं। बड़े-बड़े घपले-घोटाले हो रहे हैं, लेकिन किसी को भी कानून के कठघरे में नहीं लाया जा रहा है। स्पष्ट है कि बहस का केंद्र-बिंदु जांच एजेंसियों को कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त करना है-प्रशासनिक तरीके से भी और राजनीतिक तरीके से भी। लोगों का विश्वास है कि सरकार उस तरह जांच एजेंसियों को स्वायत्तता देने के लिए तैयार नहीं जिस तरह जनलोकपाल में कहा जा रहा है। अन्ना हजारे के नेतृत्व में जनसैलाब सख्त लोकपाल के लिए आंदोलनरत है और यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि एक के बाद एक सरकारों ने इस संदर्भ में अपनी संवेदनहीनता प्रदर्शित की है। इसके चलते लोगों के पास इसके अलावा अन्य कोई उपाय नहीं रह गया कि वे अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतरें। सरकार और सिविल सोसाइटी के अपने-अपने रुख पर कायम रहने के कारण जो गतिरोध उत्पन्न हो गया है उसे तत्काल दूर करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि जो कानून बने वह पूरी तरह सुविचारित हो। जाहिर है, विधायी प्रक्रिया में कुछ समय लग सकता है। सरकार को नए विधेयक में कुछ निश्चित सिद्धांतों पर ध्यान देने की गारंटी देनी होगी और टीम अन्ना को भी उन प्रावधानों को हटाने पर सहमत होना होगा जिन्हें कुछ ज्यादा ही कठोर माना जा रहा है। गतिरोध तोड़ने के लिए निम्नलिखित सिद्धांत प्रस्तुत किए जा सकते हैं, उन पर चर्चा हो सकती है और उनके आधार पर नया बिल तैयार किया जा सकता है। 1। भ्रष्टाचार और आर्थिक अपराधों से निपटने वाली तमाम एजेंसियों को पूरी तरह सरकार व कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त कर दिया जाना चाहिए। उन्हें फिर किसी एक व्यक्ति अथवा नामित या नियुक्त समूह के अधीन नहीं रखना चाहिए। ये एजेंसियां सात या 11 सदस्यीय समिति के अधीन रहें। सदस्यों का चयन ठोंक-बजाकर किया जाए। इनकी विश्वसनीयता पर निगरानी रखने के लिए एक व्यवस्था हो। गड़बड़ी करने वाले सदस्य को उपराष्ट्रपति की अध्यक्षता वाली एक कमेटी द्वारा बर्खास्त किया जा सकता है, जिसके अन्य सदस्यों में प्रधानमंत्री और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष होने चाहिए। 2। भ्रष्टाचारी के खिलाफ कार्रवाई में पद के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। चपरासी से प्रधानमंत्री तक को समान मानना चाहिए। इसके लिए प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाना जरूरी है। इसी प्रकार संयुक्त सचिव और इससे नीचे के अधिकारियों में कोई अंतर नहीं होना चाहिए। सीवीसी एक्ट की धारा 26 के तहत जांच करने तथा धारा 18 के तहत मामला चलाने की अनुमति लेने की आवश्यकता का प्रावधान खत्म किया जाना चाहिए। 3। विभाजन कामकाज के आधार पर होना चाहिए और विभिन्न संगठनों को इसकी जिम्मेदारी देनी चाहिए। 4। न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में लाना उचित नहीं है। एक लोकतंत्र में न्यायपालिका अंतिम निर्णायक और कानून व संविधान की व्याख्याता होती है। हां, न्यायपालिका की जवाबदेही के लिए अलग तंत्र-राष्ट्रीय न्यायिक आयोग खड़ा किया जाना चाहिए। इसका फैसला अंतिम होना चाहिए। 5। हमारे संविधान ने शक्तियों के विभाजन का सिद्धांत दिया है, जबकि प्रस्तावित जनलोकपाल में जांच, नियोजन, निगरानी और प्रशासकीय शक्तियां एक ही संस्था को देने का प्रावधान है। यहां तक कि कुछ हद तक दंडित करने का अधिकार भी जनलोकपाल के पास है। वर्तमान में इनमें से अधिकांश शक्तियां सरकार के पास हैं। इन शक्तियों के कारण ही सरकार भ्रष्ट और अनियंत्रित हो गई है। 6। सीबीआइ के भ्रष्टाचार रोधी और आर्थिक अपराध शाखा (ईओडब्ल्यू) को अलग-अलग एजेंसियों के अधीन नहीं किया जाना चाहिए, जैसा कि जन-लोकपाल बिल में निर्दिष्ट है। ये दोनों एजेंसियां एक ही मामले के दो विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करती हैं। ये दोनों साथ-साथ मामले की जांच कर सकती हैं। ईओडब्ल्यू और एंटी करप्शन को अलग-अलग करने से आर्थिक अपराधों पर अंकुश लगने के बजाए और वृद्धि हो जाएगी। होना तो यह चाहिए कि आर्थिक मामलों की ही जांच करने वाले प्रवर्तन निदेशालय को इनके साथ जोड़ दिया जाए। 7. प्रवर्तन निदेशालय को सीबीआइ के साथ मिला देना चाहिए और तमाम जांचों की जिम्मेदारी इनकी ही होनी चाहिए। लोकपाल के जिम्मे प्रशासकीय निगरानी का काम सौंपना चाहिए, जो आजकल सीवीसी के जिम्मे है। वर्तमान में सीवीसी बेहद कमजोर संस्थान है। स्वतंत्र जनलोकपाल को इसका स्थान ले लेना चाहिए। 8. भ्रष्टाचार और काले धन संबंधी कानूनों को काफी सख्त बनाए जाने की जरूरत है। भ्रष्टाचार निरोधक एक्ट के तहत दंड श्रेणीबद्ध होना चाहिए। जितनी अधिक राशि का भ्रष्टाचार हो, उतना ही कड़ा दंड हो। यह दंड आजीवन कारावास तक होना चाहिए। 9. कानून में शिकायतकर्ता के हितों की रक्षा होनी चाहिए। 10. भ्रष्टाचार की पूरी राशि दोषी और उसके परिवार से वसूल की जानी चाहिए, क्योंकि भ्रष्टाचार के फल भी तो पूरा परिवार चखता है। समाधान की राह पर चलने के लिए निम्नलिखित तरीके से काम किया जा सकता है। सरकार विचार-विमर्श के लिए लिखित आश्वासन दे और सिविल सोसाइटी उस पर सहमति व्यक्त करे। एक तीन सदस्यीय समिति गठित की जाए, जिसमें एक-एक सदस्य सरकार और सिविल सोसाइटी से नामांकित किया जाए। दोनों पक्ष वार्ता करने वाली मौजूदा टीम के किसी सदस्य को न लें। तीसरा सदस्य, जो कि समिति का अध्यक्ष भी होगा सुप्रीम कोर्ट द्वारा नामित किया जाएगा और यह सुप्रीम कोर्ट का मौजूदा जज अथवा सेवानिवृत जज हो सकता है या फिर प्रधान न्यायाधीश। समिति अब तक सामने आए सभी विधेयकों पर विचार करेगी और नए सुझावों पर भी गौर कर अपना एक मसौदा पेश करेगी। संसद में यही मसौदा पेश किया जाएगा और इसे संसद की किसी समिति को संदर्भित नहीं किया जाएगा। समिति अपना काम खत्म करने के लिए चार सप्ताह से अधिक नहीं लेगी और इस पर विचार करने तथा नया बिल पारित करने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाया जाएगा। जैसे ही सरकार ऊपर बताए गए सिद्धांतों के आधार पर समझौते पर हस्ताक्षर कर देती है और अगले दिन समिति का गठन कर देती है, अन्ना को अपना अनशन समाप्त कर देना चाहिए। (लेखक सीबीआइ के पूर्व संयुक्त निदेशक हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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विकास से जन्मी असमानता

असमानता को आर्थिक विकास की विसंगति बता रहे हैं भरत झुनझुनवाला

देश की जनसंख्या में प्रतिवर्ष लगभग 165 लाख की वृद्धि हो रही है। अनुमानत: इनमें 40 प्रतिशत श्रम बाजार में प्रवेश कर रहे हैं। तदानुसार प्रत्येक वर्ष लगभग 65 लाख श्रमिक श्रम बाजार में प्रवेश कर रहे हैं। इस विशाल जनसंख्या के सामने रोजगार नगण्य संख्या में उत्पन्न हो रहे हैं। वित्त मंत्रालय द्वारा प्रकाशित आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार 1991 से 2008 के बीच औसतन एक वर्ष में 1 लाख 27 हजार श्रमिकों को संगठित क्षेत्रों में रोजगार मिले हैं। शेष 64 लाख श्रमिक असंगठित क्षेत्र में रिक्शा चालक, खेत मजदूर अथवा कंस्ट्रक्शन वर्कर के रूप में जीवनयापन करने को मजबूर हैं। यह परिस्थिति उस हालत में है जब हमारी आर्थिक विकास दर 7 प्रतिशत पर सम्मानजनक रही है। साथ-साथ अरबपतियों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। अकेले वर्ष 2009 में भारत में एक अरब डॉलर से अधिक संपत्ति के मालिकों की संख्या 27 से बढ़कर 52 हो गई है। भारत में अरबपतियों की संख्या जर्मनी, इंगलैंड एवं जापान से अधिक है। स्पष्ट है कि तीव्र आर्थिक विकास का लाभ चंद अमीरों को ही मिल रहा है। मुट्ठी भर संगठित श्रमिकों को भी कुछ लाभ हासिल हो रहा है, किंतु देश की विशाल जनसंख्या इस ग्रोथ स्टोरी से वंचित है। आर्थिक विकास का तार्किक परिणाम असमानता में वृद्धि है। आर्थिक विकास से उत्पादन बढ़ता है, परंतु श्रम की मांग में वृद्धि होना जरूरी नहीं है। कारण यह कि उद्यमी ऑटोमैटिक मशीनों का प्रयोग कर सकते हैं। ऑटोमैटिक मशीनों का उपयोग ज्यादा लाभप्रद होता जाता है। आर्थिक विकास के कारण अर्थव्यवस्था में पूंजी की उपलब्धता बढ़ती है। इससे ब्याज दरों में गिरावट आती है। इससे उद्यमी के लिए महंगी ऑटोमैटिक मशीन लगाना सुलभ हो जाता है। दूसरी तरफ आर्थिक विकास से आम आदमी के जीवन स्तर में मामूली सुधार होता है। श्रम का वेतन बढ़ता है। ब्याज दर घटने एवं श्रम के मूल्य के बढ़ने से उद्यमी के लिए अधिक मात्रा में पूंजी एवं न्यून संख्या में श्रमिकों का उपयोग करना लाभप्रद हो जाता है। इसलिए उत्पादन बढ़ता जाता है, जबकि रोजगार नहीं बढ़ते हैं। श्रमिक की मांग में कुछ वृद्धि हो तो भी श्रम के मूल्य में वृद्धि होना अनिवार्य नहीं है। कारण यह कि श्रम की सप्लाई में वृद्धि ज्यादा हो जाती है। कुशल श्रमिकों की आय में भी दीर्घकालीन वृद्धि होना जरूरी नहीं है। जैसे आइटी प्रोफेशनल के वेतन अब गिरने लगे हैं। पांच साल पहले इनकी मांग में भारी वृद्धि हुई थी। इनके वेतन भी बढ़े थे, परंतु शीघ्र ही हर छोटे शहर में आइटी कालेजों की स्थापना होने लगी। आइटी प्रोफेशनल की सप्लाई इतनी बढ़ गई कि आज ये भी दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्ति्रयों का मानना है कि आर्थिक विकास दर में वृद्धि के कारण सरकार के राजस्व में वृद्धि होगी। इस राजस्व का उपयोग सरकार द्वारा कल्याणकारी योजनाओं को चलाने में किया जा सकता है। मध्यान्ह भोजन एवं इंदिरा आवास के अंतर्गत मकान उपलब्ध कराकर गरीबी को दूर किया जा सकता है। बात सही है। मनरेगा जैसी योजनाओं से ग्रामीण क्षेत्रों में वेतन में वृद्धि हुई है और गरीबी में कमी आई है, परंतु यह गरीबी की बात है। गरीबी में गिरावट के साथ असमानता में वृद्धि हो सकती है। जैसे गरीब का वेतन 100 से बढ़कर 150 रुपये हो जाए, परंतु अमीर की आय एक करोड़ से बढ़कर पांच करोड़ हो जाए तो गरीबी में गिरावट और असमानता में वृद्धि साथ-साथ हो सकती है। वास्तव में मनमोहन सिंह का फार्मूला बढ़ती असमानता पर आधारित है। समस्या का हल वर्तमान पश्चिमी अर्थशास्त्र के चौखटे में नहीं निकल सकता है। अमीरों द्वारा सादा जीवन और धर्मादे को अपना कर संभवत: हल निकल सकता है। सरकारी एवं व्यक्तिगत पुनर्वितरण में मौलिक अंतर है। सरकारी पुनर्वितरण अमीर की अमीरियत के प्रदर्शन एवं सार्वजनिक होने पर निर्भर है, जबकि व्यक्तिगत पुनर्वितरण में अमीर की अमीरी पर्दे के पीछे रहती है। इस समस्या का हल नहीं खोजा गया तो केवल भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व में सामाजिक वैमनस्य का विस्तार होगा। (लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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जनता, सरकार और संसद

लोकपाल के मुद्दे पर बातचीत करने के संकेत देने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अब जिस तरह तर्कसंगत वार्ता करने की पेशकश की उससे तो ऐसा ध्वनित होता है कि अन्ना हजारे और उनके सहयोगी कुतर्क कर रहे हैं। इसमें संदेह है कि इस तरह की पेशकश से दोनों पक्षों के बीच खुले मन से वार्ता का माहौल तैयार करने में मदद मिलेगी। क्या इससे अधिक निराशाजनक और कुछ हो सकता है कि जब समय हाथ से निकलने वाली स्थिति हो तब बातचीत की प्रक्रिया को जटिल बनाने का काम किया जाए? आखिर जो बात मध्यस्थों के जरिये हो रही है वह सरकारी प्रतिनिधियों के माध्यम से क्यों नहीं हो सकती? पिछले दरवाजे से बातचीत की जरूरत तो तब पड़ती है जब सीधी वार्ता के विकल्प समाप्त हो जाते हैं। सरकार अपनी निष्कि्रयता से हालात खराब करने के अलावा और कुछ नहीं कर रही। केंद्रीय सत्ता की निष्कि्रयता उसकी संवेदनहीनता का भी परिचायक बन गई है। जब केंद्र सरकार न तो वक्त की नजाकत समझने के लिए तैयार है, न जन भावनाओं को और न ही अपने दायित्वों को तब टीम अन्ना के लिए यह और आवश्यक हो जाता है कि वह खुद को संयमित बनाए रखे। निष्कि्रयता का जवाब आक्रामकता से देने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। इसमें संदेह नहीं कि यह सरकार तभी काम करती है जब उस पर चारों ओर से दबाव पड़ता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि अन्ना हजारे दबाव बनाने के लिए उन तौर-तरीकों का भी इस्तेमाल करें जो लोकतंत्र का हिस्सा नहीं। वह जनलोकपाल पर सरकार और संसद से विचार करने की मांग कर सकते हैं, इससे अधिक नहीं। लोकतंत्र में किसी को यह अधिकार नहीं कि वह जो कुछ कह रहा है वही अंतिम सत्य है। अन्ना हजारे के आंदोलन की ताकत उसका संयमित और अनुशासित स्वरूप ही है। इस स्वरूप को हर हाल में बरकरार रखा जाना चाहिए। यह स्वरूप तब बिगड़ता नजर आता है जब यह कहा जाता है कि 30 अगस्त तक जनलोकपाल विधेयक पारित किया जाना चाहिए। यह चिंताजनक है कि जब सत्तापक्ष अपनी जिम्मेदारी का पालन करने के लिए सक्रिय और सजग नहीं तब विपक्ष भी अपनी भूमिका का निर्वाह सही ढंग से नहीं कर रहा और वह भी तब जब संसद का सत्र जारी है। विपक्ष सत्तापक्ष को संसद में घेरने की तैयारी तो कर रहा है, लेकिन यह समय उसकी खामियां उजागर करने भर का नहीं है। क्या यह विचित्र नहीं कि एक ओर सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों मिलकर संसद की सर्वोच्चता और पवित्रता का बखान करने में लगे हैं और दूसरी ओर यही संसद ऐसी कोई राह नहीं सुझा पा रही जिससे लोकपाल को लेकर जारी गतिरोध दूर हो सके। यदि संसद जन आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली सर्वोच्च संस्था है तो फिर वह देश को संतुष्ट करने में सक्षम क्यों नहीं? क्या संसद भी सरकार की ही तरह यह आभास नहीं कर पा रही कि बढ़ते भ्रष्टाचार से आम जनता आजिज आ चुकी है और केंद्रीय सत्ता की निष्कि्रयता के चलते वह अपना संयम खो रही है? आखिर संसद ऐसा कोई प्रस्ताव क्यों नहीं पारित कर सकती जिससे जनता को यह भरोसा हो सके कि उसकी भावनाओं की परवाह की जा रही है? यदि संसद इन विषम परिस्थितियों में भी सरकार को घेरने तक सीमित रही तो उसकी गरिमा भी प्रभावित हो सकती है।
साभार:-दैनिक जागरण
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जनता को चिढ़ाती सरकार

जब सरकार अपनी निष्कि्रयता से देश को चिढ़ाने पर आमादा हो तब अन्ना को आक्रामक होने से बचने की सलाह दे रहे हैं राजीव सचान

जनलोकपाल के लिए अन्ना हजारे के आंदोलन को लेकर केंद्र सरकार सक्रियता दिखाने के नाम पर जो कुछ कर रही है उसे निष्कि्रयता के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। वह अन्ना से बात तो करना चाहती है, लेकिन चोरी-छिपे। वह लेन-देन के संकेत दे रही है, लेकिन सरकारी लोकपाल विधेयक वापस लेने से इंकार कर रही है। प्रधानमंत्री ने बातचीत के दरवाजे तो खोल दिए, लेकिन इन दरवाजों के पीछे कोई नजर नहीं आ रहा। टीम अन्ना सरकार पर दबाव इसलिए बढ़ा रही है, क्योंकि उसे और कोई भाषा समझ में नहीं आती। वह हर मामले और खासकर भ्रष्टाचार के मामले में तभी कोई कदम उठाती है जब चौतरफा घिर जाती है और उसकी थू-थू होने लगती है। राजा और कलमाड़ी के खिलाफ तब कार्रवाई हुई जब सरकार के पास और कोई चारा नहीं रह गया था। पीजे थॉमस और दयानिधि मारन की छुट्टी तब की गई जब सरकार उनका बचाव करने की स्थिति में नहीं रह गई थी। सभी को याद होगा कि शशि थरूर से भी तभी इस्तीफा लिया गया जब सरकार चारों ओर से घिर गई थी। मनमोहन सरकार संभवत: दुनिया की सबसे असहिष्णु लोकतांत्रिक सरकार है। उसकी असहिष्णुता तानाशाही सरकारों को भी मात करने वाली है। वह जन भावनाओं की परवाह करने के बजाय तर्कसंगत ढंग से अपनी बात कहने वालों को पहले हर संभव तरीके से गलत ठहराती है। इससे भी काम नहीं चलता तो उन्हें बदनाम करती है। इससे भी बात नहीं बनती तो वह उनके खिलाफ पुलिसिया कार्रवाई करती है। अन्ना हजारे के साथ यही किया गया। अभी भी उन्हें बदनाम करने और उन पर बेजा आरोप लगाने का सिलसिला कायम है। ऐसा नहीं है कि अन्ना हजारे आलोचना से परे हैं और उनका रवैया शत-प्रतिशत सही है, लेकिन उनके पीछे अमेरिका से लेकर आरएसएस का हाथ देखना निपट मूर्खता है। सरकार के साथ-साथ तमाम ऐसे बुद्धिजीवी भी अपने कुतर्को के साथ अन्ना के विरोध में उतर आए हैं जो उनसे सहमत नहीं। अन्ना के अनशन-आंदोलन को लेकर तमाम तर्कपूर्ण सवाल खड़े किए जा सकते हैं और अनेक लोग खड़े भी कर रहे हैं, लेकिन इनमें कुछ कुतर्कवादी भी हैं। कुतर्कवादियों का यह समूह पूछ रहा है कि आखिर अन्ना सिंगुर, नंदीग्राम, लालगढ़ पर कुछ क्यों नहीं बोले थे? वह पास्को परियोजना, एसईजेड, किसानों की आत्महत्याओं, गुजरात की समस्याओं पर कुछ क्यों नहीं कहते? किसी को इससे परेशानी हो रही है कि इस बार उनके मंच से भारत माता की तस्वीर गायब क्यों है? किसी को कुछ नहीं मिल रहा तो इस पर आपत्ति जता रहा है कि अन्ना वंदेमातरम, भारत माता की जय के नारे क्यों लगा रहे हैं? कोई इस चिंता में दुबला है कि अन्ना के साथियों में कोई दलित-पिछड़ा क्यों नहीं? ये सारे सवाल इसलिए मूर्खतापूर्ण हैं, क्योंकि अन्ना न तो कोई भाईचारा बढ़ाओ आंदोलन चला रहे हैं और न ही उन्होंने देश की समस्त सेवाओं का ठेका ले रखा है। वह ले भी नहीं सकते। वह तो सिर्फ भ्रष्टाचार पर एक बड़ी हद तक अंकुश लगाने वाले जन लोकपाल की बात कर रहे हैं। अन्ना विरोधी एक ओर यह सवाल उठा रहे हैं कि आखिर यह सिविल सोसाइटी क्या है और दूसरी ओर यह भी चाह रहे हैं कि वह देश की अन्य अनेक समस्याओं पर कोई टिप्पणी क्यों नहीं कर रही? कुतर्कवादी जैसे बेढब सवाल उठा रहे हैं उससे कल को वे यह भी पूछने लगें तो आश्चर्य नहीं कि आखिर वह सेना के आधुनिकीकरण में देरी, मिडडे मील में मिलावट, ऑनर किलिंग, बढ़ती शिशु मृत्युदर अथवा भारत की विदेश नीति पर कुछ क्यों नहीं कहते? अन्ना से ऐसे सवाल तो तब पूछे जा सकते हैं जब वह किसी राजनीतिक दल या सरकार के मुखिया होते। अन्ना से जो सवाल पूछे जाने चाहिए वे ऐसे ही हो सकते हैं कि आखिर 30 अगस्त तक जनलोकपाल विधेयक पारित करने की मांग लोकतांत्रिक कैसे है? वह भारी जन समर्थन जुटाकर अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर सकते हैं, लेकिन उसके जरिये सरकार को अपनी बात मानने के लिए मजबूर कैसे कर सकते हैं? यदि सरकार बात नहीं करना चाहती तो आप उससे जबरन बात कैसे कर सकते हैं? अन्ना हजारे ने अपने समर्थकों से जिस तरह सांसदों के घर के बाहर धरना देने का आ ान किया वह ठीक नहीं। ऐसी आक्रामकता उनके आंदोलन के लिए अहितकारी हो सकती है, क्योंकि सांसदों को अपने तर्को से सहमत करने और उन पर दबाव डालने में अंतर है। यह सही है कि सरकार ने टीम अन्ना के साथ-साथ देश की जनता से छल किया है, लेकिन वह कितनी भी गलत, संवेदनहीन और चालबाज क्यों न हो उससे जबरदस्ती कोई काम नहीं कराया जा सकता। टीम अन्ना की मानें तो सरकार चाह ले तो जन लोकपाल विधेयक आनन-फानन में पारित हो सकता है। यह सही है कि अतीत में कई बार सरकार ने विधेयक एक तरह से रातोंरात पारित करा लिए। सारे विधेयक न तो स्थायी समिति जाते हैं, न उन पर व्यापक बहस होती है और न ही उन पर जनता से राय मांगी जाती है। बावजूद इसके जन लोकपाल विधेयक उस तरह पारित कराने की सलाह देना ठीक नहीं जैसे आपातकाल संबंधी विधेयक पारित किया गया था। देश पर आपातकाल थोपने वाला विधेयक तो जनता के साथ अन्याय था। सरकार की निष्कि्रयता का जवाब यह नहीं है कि अन्ना अपनी आक्रामकता बढ़ाते जाएं और इस क्रम में अलोकतांत्रिक होते जाएं। सवाल उठेगा कि जब सरकार नरमी बरतने को तैयार नहीं तब फिर अन्ना क्या करें? अन्ना ने जनलोकपाल बिल लाओ या जाओ का नारा लगाकर इस सवाल का जवाब देने की कोशिश की है। चूंकि कोई भी सरकार इस तरह के अनशन-आंदोलन से नहीं जा सकती इसलिए वह आम चुनाव का इंतजार करें और तब तक मनमोहन सरकार को उखाड़ फेंकने का आ ान करें। लोकतंत्र उन्हें इतनी ही इजाजत देता है।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111719348874264760

आक्रोश बढ़ाती निष्कि्रयता

इससे अधिक चिंताजनक और कुछ नहीं हो सकता कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश को आंदोलित करने वाले अन्ना हजारे और उनके साथियों से बातचीत के संकेत देने के बावजूद केंद्र सरकार हाथ पर हाथ रखकर बैठ गई। उसने बातचीत के दरवाजे तो खोल दिए, लेकिन पता नहीं क्यों उनमें दाखिल होने से इंकार कर रही है? आखिर इसका क्या मतलब? क्या उसमें देश का सामना करने का साहस नहीं रह गया है? यदि यह उसकी कोई रणनीति है तो इससे बुरी रणनीति और कोई नहीं हो सकती। जनलोकपाल को लेकर अकेले दिल्ली में लाखों लोगों के सड़क पर उतरने और शेष देश में जगह-जगह धरना-प्रदर्शन होने के कारण जो हालात उत्पन्न हो गए हैं उनका समाधान सरकार और सिविल सोसाइटी में संवाद से ही हो सकता है, लेकिन सरकार आगे बढ़ने के बजाय ठिठकी हुई दिखाई दे रही है। संभवत: यही कारण है कि सिविल सोसाइटी भी लचीला रवैया अपनाने से इंकार कर रही है। सरकार सिविल सोसाइटी और उसके आंदोलन में जिस तरह खोट निकालने की कोशिश में है वह उसके नकारात्मक और संवेदनहीन रवैये का ही परिचायक है। अपने इस रवैये से सरकार न केवल खुद की निष्कि्रयता का संदेश दे रही है, बल्कि जाने-अनजाने आम जनता के आक्रोश को बढ़ाने का भी काम कर रही है। यदि उसे अभी भी यह समझ में नहीं आ रहा है कि निष्कि्रयता दिखाने अथवा संसद की आड़ लेने से हालात संभलने वाले नहीं हैं तो फिर उसका भगवान ही मालिक है। अभी हाल में जब इंग्लैंड में दंगे भड़के तो ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने एक क्षण गंवाए बिना संसद का विशेष सत्र बुला लिया, लेकिन भारत सरकार संसद का सत्र चालू होने के बावजूद उस मुद्दे पर चर्चा करने से कतरा रही है जो देश का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है। नि:संदेह 30 अगस्त तक जनलोकपाल विधेयक को पारित करने की मांग न तो उचित है और न ही संभव, लेकिन यह समझना कठिन है कि जनलोकपाल पर संसद में विचार-विमर्श क्यों नहीं हो सकता? इसी तरह यह भी अबूझ है कि हर स्तर पर खारिज हो चुके सरकारी लोकपाल विधेयक को वापस लेने में क्या कठिनाई है? क्या सरकार अथवा संसद का यह दायित्व नहीं कि वह जनता की भावनाओं के अनुरूप कदम उठाए? जब संप्रग सरकार नैतिक सत्ता खो चुकी है और देश का सामना करने से मुंह चुरा रही है तब फिर विपक्ष का यह दायित्व बनता है कि वह सरकार को सही राह पर चलने के लिए विवश करे, लेकिन वह भी अपने दायित्व का निर्वहन करने से इंकार कर रहा है। विपक्षी दल अन्ना हजारे के आंदोलन से उपजी परिस्थितियों को तो भुनाने में लगे हैं, लेकिन उन्हें दूर करने में योगदान देने से बच रहे हैं। यदि हालात और अधिक बिगड़ेंगे तो इसके दुष्परिणाम सत्तापक्ष के साथ-साथ विपक्ष को भी भोगने पड़ेंगे। चूंकि सरकार राजधर्म का पालने करने से इंकार कर रही है इसलिए सिविल सोसाइटी की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि जनलोकपाल के समर्थन में उसका आंदोलन संयमित और शांतिपूर्ण बना रहे। यह इसलिए और भी आवश्यक हो जाता है, क्योंकि सरकार इसी ताक में दिख रही है कि कैसे कुछ गड़बड़ हो तो उसे सिविल सोसाइटी को खारिज करने का अवसर मिले।
साभार:-दैनिक जागरण
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संसद को चुनौती नहीं दे रही सिविल सोसाइटी

लोकपाल की व्यवस्था पर सरकार बनाम सिविल सोसाइटी के मुद्दे पर जागरण के सवालों के जवाब दे रहे हैं वरिष्ठ भाजपा नेता अरुण जेटली

लोकपाल विधेयक पर सिविल सोसाइटी और सरकार के बीच टकराव बढ़ता जा रहा है। ऐसे में सबकी जितनी नजरें सरकार पर हैं उससे ज्यादा विपक्ष के रुख पर। सरकारी लोकपाल बनाम जनलोकपाल की लड़ाई जिस तरह से भ्रष्टाचार के खिलाफ महासमर की स्थिति तक पहुंच गई है, उसमें मुख्य विपक्षी दल भाजपा अपनी क्या भूमिका देख रही है और इसका क्या समाधान है? फिलहाल भाजपा का शीर्ष नेतृत्व उज्जैन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ तमाम आंतरिक और बाहरी मुद्दों पर मंथन भी कर रहा है। उज्जैन में मौजूद वरिष्ठ भाजपा नेता और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली से राजकिशोर ने सिविल सोसाइटी बनाम सरकार मुद्दे पर लंबी बातचीत की। पेश हैं वार्ता के प्रमुख अंश: अन्ना अनशन पर और जनता सड़कों पर। पूरे हालात के लिए कौन जिम्मेदार है? पूरी तरह से सरकार जिम्मेदार है। यूपीए सरकार के कार्यकाल के इन वषरें में भ्रष्टाचार सारी सीमाएं पार कर चुका है। ऐसे भ्रष्टाचार को देखते हुए एक स्वतंत्र और निष्पक्ष मजबूत लोकपाल की मांग बिल्कुल जायज है। सरकार कह रही है कि उसने तो मजबूत लोकपाल के लिए ईमानदारी से प्रयास किए। मसौदा तैयार करने के लिए सिविल सोसाइटी के साथ संयुक्त ड्राफ्ट कमेटी बनाई और वायदे के मुताबिक संसद में लोकपाल विधेयक भी लेकर आ गई। सरकार के इस तर्क से कितना सहमत हैं? (हंसी के साथ) सब कुछ एक छलावा है। सरकार ने संयुक्त समिति बनाई तो किसी मजबूत लोकपाल कानून के लिए नहीं, बल्कि सिविल सोसाइटी के लोगों को उसमें फंसाने के लिए। फिर बातचीत तोड़ी और बगैर किसी को विश्वास में लिए एक कमजोर विधेयक पेश कर दिया। सरकार के इस रवैये पर प्रतिक्रिया फैली तो वह दमन पर उतारू हो गई। इसलिए सरकार की नीयत पर समाज को शक है और पूरे देश में बना माहौल विश्वास के इसी संकट का नतीजा है। अभी तक भाजपा ने भी लोकपाल के बारे में पत्ते नहीं खोले हैं। कहीं आप भी अनिर्णय की स्थिति में तो नहीं? कतई नहीं। लोकपाल के मसले पर जो प्रमुख बिंदु हैं भाजपा उन पर अपनी राय सामने रख चुकी है। सर्वदलीय बैठक के बाद हमारे वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और अध्यक्ष नितिन गडकरी ने इस बारे में खुलकर राय रखी थी। मैंने भी एक आलेख लिखकर मजबूत, प्रभावी और निष्पक्ष लोकपाल के चुनने की प्रक्रिया से लेकर उसके अधिकारों पर राय व्यक्त की थी। क्या आप सिविल सोसाइटी के जनलोकपाल बिल से सहमत हैं? क्या प्रधानमंत्री और न्यायपालिका लोकपाल की जांच के दायरे में होने चाहिए? देखिए॥लोकपाल की नियुक्ति में सरकारी दखल और प्रभाव न हो। नियुक्ति के लिए बाकायदा एक सशक्त और वैज्ञानिक तंत्र हो। अच्छे और प्रभावी लोकपाल के लिए उसकी नियुक्ति निष्पक्ष तरीके से हो, यह पहली शर्त है। हम यह सुनिश्चित कराने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों को छोड़कर प्रधानमंत्री लोकपाल दायरे में हों, यह हम पहले ही कह चुके हैं। जहां तक न्यायपालिका की बात है तो उसके लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग होना चाहिए, जिसके जरिए न्यायिक भ्रष्टाचार पर नियंत्रण का तंत्र बने। हमने जो बातें कहीं है वह संस्थागत फेसगार्ड हैं। टीम अन्ना न्यायपालिका के भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए न्यायिक उत्तरदायित्व विधेयक भी खुद ही ड्राफ्ट करने की बात कर रही है। क्या यह बात ठीक है? अंत में जो बिल संसद में आएगा वही पारित होगा। समाज का हर वर्ग राय दे सकता है और सरकार का काम भी यही है कि वह सबसे सलाह करके चले। फिर सिविल सोसाइटी भी ऐसा सिर्फ इसलिए कर रही है, क्योंकि बार-बार सरकार ने सबका भरोसा तोड़ा, जिससे संदेश गया कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मजबूत कानून बनाने की उनकी नीयत ही नहीं है। संसद में पेश किए गए लचर लोकपाल कानून से लोगों की इस धारणा को बल मिला है। प्रधानमंत्री ने कहा कि बदलाव के रास्ते खुले हैं। क्या संसदीय समिति के सामने टीम अन्ना को हाजिर होकर बदलाव के लिए अपनी बात रखनी चाहिए? बेहतर होगा कि ये प्रश्न आप टीम अन्ना से पूछें। वैसे अगर सरकार का लोकपाल विधेयक तार्किक और ईमानदार होता तो शायद यह नौबत ही नहीं आती। टीम अन्ना के प्रमुख सदस्य अरविंद केजरीवाल कह रहे हैं कि सरकारी विधेयक को फाड़कर फेंक देना चाहिए और संसदीय समिति उसे वापस लौटा दे, अपना समय बर्बाद न करे। ये शब्दावली मैं नहीं प्रयोग करूंगा। जैसा कि मैंने पहले कहा कि जनता को सरकार की नीयत पर शक है। यह सरकार की जिम्मेदारी है कि पहले वह भरोसा तो कायम करे। टीम अन्ना पर संविधान और संसद की अवमानना के आरोप लग रहे हैं। आप कितने सहमत हैं? मैं मानता हूं कि सिविल सोसाइटी कैंपेनर है। उनको अपनी बात कहने का अधिकार है। संसद उस पर चर्चा कर कानून को अंतिम रूप देगी। संसद के इस अधिकार को तो सिविल सोसाइटी भी खारिज नहीं कर रही। वे एक अच्छे और मजबूत कानून की बात कर रहे हैं तो इसमें हर्ज क्या है। सिविल सोसाइटी के दूसरे सदस्य मसलन एनएसी में सदस्य अरुणा राय सरीखे लोग टीम अन्ना के खिलाफ उतर गए हैं? इसके पीछे क्या सरकार का इशारा माना जाए? मैं किसी पर आरोप नहीं लगाता हूं। सबको अपनी बात रखने का अधिकार है। अंत में निर्णय संसद करेगी। लोकपाल विधेयक पर संयुक्त ड्राफ्ट कमेटी से विपक्ष को सरकार ने बाहर रखा। क्या अब सरकार की तरफ से फिर कोई पहल शुरू होती है तो क्या आप जाएंगे? इस विषय का हल हो और निष्पक्ष और मजबूत लोकपाल विधेयक आए, यह हमारी प्राथमिकता है। इस पर फिलहाल यही कह सकता हूं। क्या उज्जैन में बैठक के दौरान आरएसएस ने भाजपा पर दबाव डाला है जनलोकपाल के समर्थन के लिए? क्योंकि उसके बाद पार्टी खुलकर समर्थन में आ गई? वह सिर्फ समन्वय बैठक थी। अन्ना के अनशन को छह दिन हो गए। सरकार भी झुकती नजर नहीं आती। अब भाजपा की रणनीति क्या है? सवाल रणनीति का नहीं है। भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर कानून और व्यवस्था के हम समर्थक हैं। सरकार को चाहिए कि वह जनभावनाओं को समझ सही दिशा में बढ़े। न कि किसी पर हल्के आक्षेप लगाकर सही सवाल उठाने वालों का मानमर्दन करने की कोशिश करे। हम जिम्मेदार विपक्ष होने के नाते यह सुनिश्चित करने की कोशिश करेंगे कि जनता की आवाज दबाई न जा सके।
साभार:-दैनिक जागरण
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