Friday, September 3, 2010

जनप्रतिनिधियों की अंतरात्मा

हमारे सांसदों ने स्वयं संसद में बैठकर अपने वेतन और भत्तों में तीन सौ प्रतिशत की वृद्धि कर ली है। उनका कहना है कि उन्हें जो वेतन-भत्ते मिलते हैं, वे अन्य देशों के मुकाबले बहुत कम हैं। वे अपनी तुलना उन देशों के सांसदों से करते हैं जो विकसित और समृद्ध देश हैं। वहां के आमजन उस गरीबी और कुपोषण में नहीं जीते हैं जिसमें इस देश के अधिसंख्य लोग जीते हैं। एशिया विकास बैंक की हाल ही में आई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के 75 फीसदी लोग निर्धन मध्य वर्ग में आते हैं, जिनकी मासिक आय 1035 रुपये से कम है। निम्न मध्य वर्ग, जिसकी आय 1035 से 2070 रुपये के बीच है, में लगभग 22 करोड़ लोग हैं। 2070-5177 आय वर्ग वाले मध्य-मध्य वर्ग के लोगों की संख्या पांच करोड़ से कम है। उच्च मध्य वर्ग के लगभग 50 लाख लोगों की मासिक आय 10 हजार का आंकड़ा छूती है। केवल 10 लाख लोग, जिन्हें अमीर समझा जाता है, की आय 10 हजार रुपये से अधिक है। देश के सांसद जो वेतन और भत्ते प्राप्त करने जा रहे हैं उसके अनुसार प्रत्येक सांसद की मासिक आय डेढ़ लाख रुपये मासिक से अधिक होगी। उन्हें सांसद होने के नाते जो सुविधाएं प्राप्त होंगी उनमें दिल्ली में मुफ्त आवास, 50 हजार यूनिट बिजली, 4 हजार किलोलीटर पानी, डेढ़ लाख मुफ्त काल सहित दो टेलीफोन, दो मोबाइल फोन, पति या पत्नी सहित देश के किसी भी भाग की 34 बार मुफ्त हवाई यात्रा, रेलवे के वातानुकूलित डिब्बे में असीमित यात्राएं शामिल हैं। इसके अतिरिक्त ऐसी अनेक सुविधाएं हैं जिन पर आम लोगों को हजारों रुपये खर्च करने पड़ते हैं। अनेक सांसदों का यह कहना है कि उनका वेतन सचिव स्तर के किसी भी अधिकारी से एक रुपया अधिक होना चाहिए। यह बेहूदा तर्क है। सचिव स्तर के अधिकारी का वेतन आयकर मुक्त नहीं होता। सांसद चाहते हैं उनके वेतन पर किसी प्रकार का कर न लगे। सरकारी अधिकारियों को मुफ्त आवास, बिजली, पानी, टेलीफोन सेवा, हवाई अथवा रेल सेवा की ऐसी सुविधाएं नहीं मिलतीं, जो सांसदों को हासिल हैं। किसी सरकारी कर्मचारी को किसी अन्य साधन से धन-अर्जित करने का अधिकार नहीं होता। किंतु सांसदों पर ऐसा कोई बंधन नहीं होता। भारतीय सांसदों में 300 से अधिक करोड़पति और अरबपति हैं। एक सांसद यदि पूरी अवधि तक संसद का सदस्य रहता है तो उसकी संपत्ति में चार-पांच गुणा बढ़ोतरी हो जाती है। सांसदों के वेतन को लेकर संसद के सभी सदस्यों के बीच जिस प्रकार की एकता दिखाई दी है, वह भी अद्भुत है। वामपंथी सदस्यों ने वेतन वृद्धि का विरोध अवश्य किया और इस प्रश्न पर सदन से बहिर्गमन भी किया। कुछ वर्ष पहले संविधान में संशोधन करके उसमें समाजवादी शब्द जोड़ा गया था। किंतु अपने आपको समाजवादी कहने वाले सांसदों ने वेतन वृद्धि में जितनी लोलुपता और दुराकांक्षा प्रदर्शित की है, उतनी किसी और ने नहीं की। इस अभियान में लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव सबसे आगे रहे। मुलायम सिंह यादव तो उस पार्टी के अध्यक्ष है जिसका नाम ही समाजवादी है। इस देश में आ रहे समाजवाद का हाल यह है कि 45 प्रतिशत से अधिक लोग 20 रुपये रोज से कम में गुजारा करते हैं। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) के अंतर्गत किसी भी बरोजगार मजदूर को वर्ष में 100 दिन का काम और 100 रुपये प्रतिदिन दिए जाने का प्रावधान है। राजस्थान से प्राप्त एक रिपोर्ट के अनुसार वहां इस योजना के अंतर्गत लगाए गए मजदूरों को एक रुपये से 13 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी मिली। शेष धन बिचौलिये खा गए। संसद में बैठे जनप्रतिनिधियों का ध्यान इस ओर नहीं है कि देश में कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या करोड़ों में है। ये असमय ही मौत के गाल में समा जाते हैं। बस्तर तथा अन्य आदिवासी क्षेत्रों के लोग पास के शहरों में दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में मजदूरी के लिए जाते हैं। इस प्रकार की रिपोटर्ें भी आई हैं कि उनमें से कुछ लोग रास्ते में ही भूख से तड़प कर मर गए। इन सांसदों का इससे कोई सरोकार नहीं है। इनकी मानसिकता तो यह है कि जब देश में लूट-खसोट चल ही रही है तो वे इस अवसर को हाथ से क्यों जाने दें। महीप सिंह (लेखक जाने-माने साहित्यकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

भ्रष्टाचार को मिलती मान्यता

लोकाचार में भ्रष्टाचार की प्रतिष्ठा के कारणों की पड़ताल कर रहे हैं जगमोहन सिंह राजपूत

राष्ट्रमंडल खेल तो होंगे ही, सफल भी घोषित होंगे और निश्चित रूप से इनके समाप्त होने पर आयोजन के जिम्मेदार कुछ लोगों को पुरस्कृत भी किया जाएगा। खेलों में भ्रष्टाचार की जांच के लिए कुछ जांच समितियां बना दी जाएंगी तथा उनका लिब्रहानीकरण कर दिया जाएगा। यानी जांच 16-17 वर्ष तक चल सकती है। इस देश में भ्रष्टाचार, घोटालों को उजागर करने वालों को हंसी का पात्र माना जाने लगा है। सूचना के अधिकार का प्रयोग कर तथ्य उजागर करने वालों की दिनदहाड़े हत्या कर दी जाती है। कहीं हत्या का अपराधी 66 बार जेल के बाहर जाता है, कोई दो-तीन महीने के पेरोल पर घर जाकर दादी की सेवा करता है। इस सबमें समानता का तत्व क्या है? धनबल से सत्ताबल, न्यायबल सब ढक जाता है। धनबल से सत्ता प्राप्त की जाती है। आने वाले वषरें में यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि धनबल सत्ता पर पूर्ण, स्वच्छंद अधिकार कर लेगा। स्वतंत्रता के चार दशकों बाद पंचायत राज अधिनियम बना। तब तक जनतंत्र की विकृति के आधार गांवों में पहुंच चुके थे। जाति आधारित राजनीतिक दल अपना स्थान बना चुके थे, ग्राम समाज बंट चुका था। बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक के बीच की दीवार पक्की कर दी गई थी। 1993 में पीवी नरसिंहा राव की सरकार धन के लेन-देन से बची और केंद्र व राज्य सरकारों के लिए नजीर बन गई। गोवा, पूर्वोत्तर राज्य, झारखंड इसका भरपूर उपयोग करते रहे हैं। झारखंड के मधु कोड़ा कुछ अधिक ही साहसी निकले। उन्होंने व्यक्तिगत इच्छाओं तथा सरकारी खजाने में कोई भेदभाव नहीं रखा। खुले दिल से स्वहित साधन का खुला उदाहरण रख दिया। वैसे अब चारा घोटाले की चर्चा कौन करता है? किसे याद है झारखंड की जनता के हजारों करोड़ों की? क्या उसमें से एक पैसा भी वापस आया या आएगा? आज सारा देश हतप्रभ होकर देख रहा है? कुछ सौ करोड़ का अनुमान लगाकर खेलों के आयोजन की स्वीकृति पाने वाले आज कितने हजार करोड़ों का खेल प्रस्तावित आयोजन के पहले ही खेल चुके हैं, इसका अनुमान लगाना भी कठिन है। कहने को तो हर कोई पारदर्शिता की दुहाई देता है परंतु जो जानकारियां बाहर आई हैं वे भ्रष्टाचार तथा कदाचार के नए मानक स्थापित करती हैं। आजादी के बाद उम्मीद की जा रही थी कि अब शोषण, भ्रष्टाचार, सामाजिक अपमान धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगे। प्रत्येक व्यक्ति को सत्ता में भागीदारी का न केवल अधिकार मिलेगा, बल्कि अपनी आर्थिक स्थिति का ख्याल किए बिना ही उसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने का बराबरी का अवसर भी हासिल होगा। वहां से चलते हुए केडी मालवीय, टीटी कृष्णामाचारी जैसे प्रकरण सामने आए। लोगों का विश्वास बढ़ा। इन पर व्यक्तिगत आरोप लगभग नगण्य थे। फिर लोगों के सामने रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री का इस्तीफा आया जो आंध्र में रेल दुर्घटना के बाद उन्होंने दिया था। आज केंद्रीय मंत्रिमंडल में एक मंत्री ए राजा हैं। उन पर एक लाख करोड़ से ऊपर के भ्रष्टाचार के आरोप हैं। कहा तो यही जाता है कि प्रधानमंत्री उन्हें नई सरकार में नहीं लेना चाहते थे मगर सत्ता के समीकरणों ने उन्हें मजबूर कर दिया। ए राजा न कवेल मंत्री बने हैं बल्कि उनका विभाग भी आज तक नहीं बदला जा सका है। संविधान द्वारा प्रदत्त विशेषाधिकारों का उपयोग यदि प्रधानमंत्री नहीं कर पाते हैं तो देश की जनता तथा युवा वर्ग को जो संदेश जाता है उसका असर लंबे समय तक रहेगा। उसी युवा वर्ग के प्रोत्साहन तथा मनोबल को बढ़ाने के लिए राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन हो रहा है। आज दिन-रात स्कूल-कॉलेजों तथा घरों में हर कोई इन खेलों की नहीं, इनके आयोजन में भ्रष्टाचार के नए तरीकों की बात कर रहा है। चर्चा इस पर हो रही है कि भ्रष्टाचार तो सदा रहा है, लेकिन आज भ्रष्टाचार करने वाले के चेहरे पर शिकन नहीं आती है। वे जानते हैं कि उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। यदि वे सत्ता में हैं तब तो मंत्री, मुख्यमंत्री या सरकार को सहारा देने वाले बन सकते हैं और आरोप ठंडे बस्ते में चले जाएंगे। सामाजिक मूल्यों पर जनतांत्रिक मूल्यों के Oास का जबरदस्त प्रभाव पड़ा है। चुने हुए प्रतिनिधियों की संपत्ति का ब्यौरा पांच साल में कई गुना बढ़ जाता है। सत्ता के ऊंचे पायदानों ने धनबल बढ़ाने के लिए जो कुछ किया है उसका खुला प्रदर्शन कॉमनवेल्थ खेलों में हुआ है। कहा जा रहा है कि भ्रष्टाचार उजागर करने वालों को राष्ट्रहित में खेलों के सफल आयोजन तक चुप रहना चाहिए। भ्रष्टाचार के, धन बटोरने में बेशर्मी के आरोप तो ऐसे हैं कि आयोजन से जुड़े अनेक लोगों को जेल में होना चाहिए। इस आयोजन ने सारे देश में आक्रोश की स्थिति पैदा कर दी है। युवा पीढ़ी विशेष रूप से आहत है। सब कुछ युवाओं को प्रोत्साहित करने के नाम पर हो रहा है। नैतिक पतन का ठोस उदाहरण उनके सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। युवा पीढ़ी ही इस स्थिति से देश को बाहर निकालने का रास्ता ढूंढ सकती है। आज नहीं तो कल ऐसा होगा ही। एक तरफ महंगाई करोड़ों को भूखा सुला रही है, तो दूसरी तरफ पैसे बटोरने की होड़ लगी है। महात्मा गांधी आखिरी छोर पर खड़े व्यक्ति को याद करते थे। आज के नेता चाहते हैं कि लोग राष्ट्रमंडल खेलों में देश की प्रतिष्ठा पर बट्टा लगाने वाले गुनहगारों के कारनामे भुला दें। ऐसा अधिक दिन नहीं होता है। (लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)
साभार:-दैनिक जागरण