Monday, July 18, 2011

इस लोकतंत्र के प्रायोजक हैं..

दुनिया के एक करोड़ चालीस लाख तिब्बतियों के निर्विवाद और इकलौते राजनेता और धर्मगुरु दलाई लामा ने एलान कर दिया है कि वे अपनी राजनीतिक भूमिका त्याग रहे हैं। समय आ गया है कि राजनीति में स्वतंत्र रूप से चुने गए जननेता ही तिब्बतियों का लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व करें। खुद वे एक धर्मगुरु के बतौर सदैव स्वतंत्र तिब्बत के पक्षधर और अपने लोगों के आध्यात्मिक संरक्षक बने रहेंगे। उनका यह बयान निर्वासित तिब्बतियों ही नहीं, पूरे तिब्बत की राजनीति का मिजाज बदल सकने वाला ‘गेम चेंजर’ स्ट्रोक बन सकता है, जिसकी पंखुरियां पूरी तरह समय के साथ ही खुलेंगी। जानकारों को अभी से इसमें तमाम दूसरे एशियाई देशों की तरह तिब्बतियों को भी स्वदेश पर काबिज चीन के दमनकारी तंत्र को हटाने और (लोकतंत्र बहाली के लिए) आगे आने का आह्वान सुनाई दे रहा है। घोषणा सुनते ही चीन के कान खड़े भी हो गए हैं, जिसके साठ साल पहले तिब्बत पर कब्जा कर लेने के बाद 1959 में अपने अनुयायियों के साथ दलाई लामा ने भारत में शरण ले ली थी।

बीसवीं सदी के शुरुआती सालों में भारत व चीन के बीच स्थित तिब्बत तीन महाशक्तियों - रूस , इंग्लैंड और चीन के बीच सियासी दांव-पेंचों का अशांत अखाड़ा बना हुआ था। 1947 में भारत अंग्रेजी शासन से मुक्त हुआ और 1949 में चीन में केंद्रीय सरकार कायम हुई। इसके तुरंत बाद चीन ने तिब्बत में सेना भेजकर उसकी आधी-अधूरी स्वायत्तता खत्म करा दी और फिर 1954 में भारत से एक महत्वपूर्ण संधि के तहत मनवा लिया कि किसी गुमशुदा बच्चे की तरह सीमा पर एक सिरदर्द बने तिब्बत का चीनी प्रभाव क्षेत्र में लिया जाना सही है। इसके बाद पांच बरस तक चीन ने भारतीय नक्शों में दर्शाई दोनों देशों के बीच की मैकमोहन सीमारेखा पर कोई सवाल तो नहीं उठाया, लेकिन अपनी बृहत्तर योजना के तहत गुपचुप 1957 तक भारत की सीमा में अक्साई चिन तक सड़क बना ली। कुछ लोग 1959 में तिब्बतियों की विफल बगावत और उसके बाद दलाई लामा और शरणार्थी तिब्बतियों के भारत में पनाह लेने को भारत-चीन रिश्तों में खटास की वजह बताते हैं। लेकिन यह सड़क प्रमाण है कि सीमा रेखा को लेकर चीन की नीयत 1957 में भी साफ नहीं थी। 1959 के बाद तो उसने जहरबुझी भाषा में पत्राचार शुरू कर भारत पर आरोप लगाना शुरू कर दिया कि वह दलाई लामा को शरण देकर अंग्रेजों की फूटपरस्त साम्राज्यवादी नीति को ही आगे बढ़ा रहा है। हठात भारत को भौचक्का करते हुए 1962 में उसने 2600 मील लंबी सीमा पर जंग छेड़ी और देखते-देखते सौम्य इलाकाई एकजुटता का घटश्राद्ध कर दिया।

भारत में रहते हुए दलाई लामा लगातार तिब्बत की आजादी की मुहिम की कमान थामे हुए हैं। 1960 में निर्वासित तिब्बतियों के लिए उन्होंने धर्मशाला में संसद का गठन किया और 2001 में सीधे चुनाव द्वारा 145000 निर्वासित तिब्बतियों के लिए एक प्रधानमंत्री का चुनाव करवाया। यह सभी कदम साम्यवादी चीन के निशाने पर रहे हैं और ताजा घोषणा को चीन ने दुनिया को धोखा देने के लिए किया गया प्रचार बता दिया है। यूं 76 वर्षीय दलाई लामा एक अर्से से सक्रिय राजनीति से हटने की इच्छा जताते रहे हैं और चीन तथा प्रवासी तिब्बती समाज, दोनों में उनके उत्तराधिकारी के चुनाव पर भीतरी विचार-विमर्श भी होता रहा है। पर जलावतन तिब्बतियों के लिए वे ही धर्म और राजनीति दोनों क्षेत्रों के निर्विवाद गुरु रहे हैं।

तिब्बती परंपरा के अनुसार दलाई लामा का उत्तराधिकारी उनका ही कोई बाल अवतार हो सकता है, जिसकी खोज दलाई लामा की मृत्यु के बाद कुछेक बुजुर्ग धार्मिक नेता खास धार्मिक परीक्षाओं तथा लक्षणों के आधार पर करते हैं। खुद वर्तमान दलाई लामा का चयन 2 साल की उम्र में ही कर लिया गया था, जिसके बाद उनकी शिक्षा-दीक्षा और लालन-पालन का काम परंपरानुसार मठ के बुजुर्गो की देख-रेख में किया गया। फिलवक्त हालात को देखते हुए तिब्बतियों का यह डर निराधार नहीं कि अगर अब दलाई लामा की मृत्यु के बाद अगले धर्मगुरु का चयन हुआ तो चीन सरकार चयन के दौरान तिकड़मी हथकंडे अपनाकर अपनी किसी कठपुतली को इस पवित्र पद पर ला बिठाएगी। बीजिंग द्वारा पंचन लामा की विवादास्पद नियुक्ति में इसका पूर्व संकेत मिल भी चुका है, जिसे अधिकतर तिब्बती नहीं मानते हैं।

पर जहां दलाई लामा लोकतंत्रीकरण को समय की मांग कहकर खुद को राजनीति से हटा रहे हैं, वहीं तिब्बत में चीन द्वारा नियुक्त गवर्नर पद्मा चोलिंग का कहना है कि मौजूदा दलाई लामा को अगले दलाई लामा का धार्मिक तरीके से पारंपरिक चयन रद्द करने का कोई हक नहीं है। यह बड़ा अटपटा है। तिब्बत की पुरानी धार्मिक परंपराओं को सामंती व प्रतिगामी ठहराने और यह बात बार-बार दोहराने के बाद कि तिब्बती लोग ही अपने देश के असली मालिक हैं, लोकतांत्रिक चुनाव से अगला तिब्बती नेता चुने जाने को लेकर चीन को इतना परहेज क्यों? दरअसल दलाई लामा का राजनीतिक मैदान से हटना कुछ वैसा ही है, जैसे महाभारत के पहले कृष्ण की घोषणा कि वे युद्ध में किसी पक्ष विशेष के लिए हथियार उठाने की बजाय सिर्फ पार्थ के सारथी बनकर उनका रथ हांकेंगे, उनकी अक्षौहिणी प्रतिपक्ष में जा खड़ी हो और लड़े, सो लड़े, इस नटवरी निहत्थेपन की कूटनीतिक काट क्या हो? यह लाल अक्षौहिणी का स्वामी चीन तय नहीं कर पा रहा।

जब तक दलाई लामा के प्रतिनिधि उनसे बात करते रहे, तब तक चीन के लिए विश्व बिरादरी के आगे निर्वासित सरकार की तिब्बत से जुड़ी हर मांग या प्रदर्शन को दलाई लामा की कुटिल साजिश कहकर नकार देना बड़ा आसान था, पर तिब्बतियों पर आज भी कतई भरोसा न होने के बावजूद जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों को लेकर जनवादी चीन ऐसे तर्क नहीं दे पाएगा। अगर तिब्बत के धार्मिक गुरु का दिशा-निर्देश बेकार और नाटकीय है तो अफगानिस्तान और पाकिस्तान के धार्मिक कट्टरपंथियों को हथियार देने वाले क्या बड़े अक्लमंद और ईमानदार साबित होते हैं?

मृणाल पाण्डे
लेखिका जानी-मानी साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार हैं।

http://www.bhaskar.com/article/ABH-the-sponsors-of-democracy-1937151.html

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