Tuesday, July 26, 2011

असमानता पर उदासीनता

आर्थिक विकास के साथ-साथ अमीरों-गरीबों के बीच अंतर बढ़ते जाने के कारणों की तह में जा रहे हैं भरत झुनझुनवाला
संप्रग सरकार अति प्रसन्न है। हाल में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार गरीबी में गिरावट आई है। 2005 में 37 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे थे, जबकि 2010 में इनकी संख्या घटकर 32 प्रतिशत रह गई है। इसे खुले बाजार की आर्थिक नीतियों का परिणाम बताया जा रहा है, लेकिन दो समस्याएं हैं। पहली यह कि गरीबी में गिरावट की गति धीमी हुई है। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के प्रो। प्रणब बर्धन के अनुसार सत्तर और अस्सी के दशक में गिरावट की गति अधिक थी, जो आर्थिक सुधारों के बाद धीमी हुई है। दूसरी समस्या है कि असमानता में भारी वृद्धि हुई है। एशियाई विकास बैंक द्वारा किए गए अध्ययन में बताया गया है कि आर्थिक सुधारों से पहले असमानता घट रही थी। 1994 के बाद इसमें वृद्धि हो रही है। योजना आयोग के सदस्य प्रो। अभिजित सेन कहते हैं कि असमानता बढ़ रही है और संपत्ति के भद्दे संग्रह को रोकने के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है। चुनिंदा अमीर लोगों के पास निजी विमान जैसी विलासिता की महंगी वस्तुओं का भंडार बढ़ता जा रहा है, जबकि गरीब की हालत में मामूली सुधार हुआ है। कस्बे में मर्सिडीज कार दिखने लगे तो स्कूटर का सुख जाता रहता है। इसी प्रकार अमीरी में भारी बढ़त के सामने गरीब की स्थिति में जो सुधार हुआ है वह धूमिल पड़ जाता है। आर्थिक सुधारों के पूर्व असमानता नियंत्रण में थी, परंतु आर्थिक विकास दर न्यून थी। आर्थिक सुधारों के बाद आर्थिक विकास दर में वृद्धि हुई है, परंतु असमानता में भी उतनी ही तीव्रता से वृद्धि हो रही है। गरीबी की गिरावट की चाल भी घट रही है। अत: संप्रग सरकार को इस गिरावट से प्रसन्न होने का कोई कारण नहीं है। दरअसल, हम गरीबी के कुएं से निकल कर असमानता की खाई में गिर रहे हैं। असमानता का पहला कारण कल्याणकारी योजनाओं की घटती कार्यकुशलता है। वर्तमान समय में गरीब को आगे बढ़ाने में शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण है। गरीब सरकारी स्कूलों पर निर्भर हैं। इनमें फीस नहीं भरनी पड़ती, साथ ही मुफ्त में भोजन और किताबें भी मिल जाती हैं, पर इन स्कूलों के रिजल्ट खराब होते जा रहे हैं। फलस्वरूप गरीब अच्छी शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम का कहना है कि भारत के मानव विकास सूचकांक में शिक्षा की असमानता का संज्ञान लेने पर 43 प्रतिशत की गिरावट आती है। दूसरे देशों की तुलना में भारत में यह असमानता अधिक है। दूसरी तरफ रोजगार गारंटी एवं ऋण माफी से लाभ हुआ है। मेरा आकलन है कि शिक्षा एवं स्वास्थ्य कार्यक्रमों के घटिया क्रियान्वयन से जितना नुकसान हुआ है उसकी आंशिक भरपाई ही रोजगार गारंटी से हुई है। कुल मिलाकर यह घाटे का सौदा रही है। विशेष यह कि इन खचरें को वहन करने के लिए सरकार ने टैक्स अधिक वसूल किया है। दर घटाने के बावजूद टैक्स की अधिक वसूली का कारण है कि अमीरियत बढ़ी है। देश में बड़ी संख्या में अरबपति पैदा हो गए हैं। बड़ी कंपनियों के अधिकारियों को करोड़ों रुपये का वार्षिक पैकेज दिया जा रहा है। यानी कल्याणकारी खचरें में वृद्धि का आधार असमानता में बढ़ोतरी है। अमीरी बढ़ने पर ही अमीर लोग ज्यादा टैक्स अदा करेंगे और तब ही सरकारी कल्याणकारी खचरें में वृद्धि हो सकेगी। उदाहरण के तौर पर मजदूर के वेतन में दस रुपये की वृद्धि तब ही होती है जब मालिक को दस लाख रुपये का लाभ हो। असमानता बढ़ने का दूसरा कारण यह है कि खुले बाजार की नीति में शेयर बाजार, प्रापर्टी तथा सोने में निवेश करने वाले विशेष तौर पर लाभान्वित हुए हैं। कपड़ा उद्योग और चमड़ा उद्योगों के निर्यातों से कुछ अर्धकुशल श्रमिकों के वेतन में वृद्धि अवश्य हुई है, परंतु शेयर बाजार से हुई आय की तुलना में यह तुच्छ है। फरीदाबाद के निर्यात कारखानों में कार्यरत श्रमिक पिछले वर्ष चार हजार रुपये प्रतिमाह पाते थे तो इस वर्ष पांच हजार रुपये पाते हैं, परंतु प्रापर्टी में निवेश करने वाले को पिछले साल चार लाख का लाभ हुआ था तो इस साल दस लाख का। इसलिए आर्थिक विकास दर बढ़ने के साथ-साथ असमानता भी बढ़ रही है। असमानता में वृद्धि को वैश्वीकरण पर नहीं थोपना चाहिए। वैश्वीकरण के साथ-साथ बड़े औद्योगिक घरानों का वर्चस्व बढ़ना आर्थिक विकास की मौलिक प्रक्रिया है। वे और बड़े होने लगते हैं, परंतु श्रम की आपूर्ति लगभग असीमित रहने से श्रमिक के वेतनमानों में कम ही वृद्धि होती है। जैसे मजदूर दो मंजिला मकान बनाए या 21 मंजिला, उसका वेतन समान रहता है, जबकि बिल्डर के लाभ में भारी वृद्धि होती है। अत: बढ़ती असमानता के लिए संप्रग सरकार को जिम्मेदार बताना गलत होगा। संप्रग सरकार की गलती मात्र इतनी है कि असमानता में वृद्धि की मौलिक प्रकृति पर लगाम कसने के लिए कारगर प्रयास नहीं किए गए हैं। वैश्वीकरण का एक और प्रभाव पड़ा है। सॉफ्टवेयर आदि क्षेत्रों में शिक्षित कर्मियों की मांग बढ़ी है और उनके वेतन भी बढ़े हैं। आज सामान्य इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र को 3-4 लाख रुपये का वार्षिक पैकेज मिलना आम बात हो गई है। यह सुखद उपलब्धि है। इससे निचले मध्यम वर्ग के तमाम लोगों को अच्छे वेतन मिले हैं, परंतु इससे असमानता की मूल समस्या का हल नहीं होता है। वित्त मंत्रालय द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार निजी संगठित क्षेत्र में कुल श्रमिकों की संख्या में प्रति वर्ष लगभग चार लाख की वृद्धि हो रही है। इसके सामने श्रम बाजार में प्रवेश करने वालों की संख्या में प्रति वर्ष लगभग 40 लाख की वृद्धि हो रही है। अत: जितने व्यक्तियों को उच्चकोटि के रोजगार मिल रहे हैं, गरीबों की संख्या में उससे दस गुना वृद्धि हो रही है। ये रोजगार असमानता की समस्या का समाधान नहीं हैं। तथापि भविष्य इसी प्रकार के रोजगारों का है। इनमें तीव्र वृद्धि की जरूरत है। ऐसा आम जनता को अच्छी शिक्षा पहुंचाने से ही संभव होगा। इसमें मुख्य बाधा स्वार्थी सरकारी तंत्र की सशक्त लॉबी है। अंतिम आकलन इस प्रकार है। आर्थिक विकास की प्रक्रिया में असमानता का बढ़ना स्वाभाविक है। इस पर लगाम लगाने के प्रयास के प्रति सरकार उदासीन है। इससे समाज में विघटन बढ़ेगा। हल यह है कि अमीरों द्वारा अपनी संपत्ति के भद्दे प्रदर्शन पर रोक लगाई जाए। धन कमाना अच्छा है, परंतु उसके भद्दे प्रदर्शन से अमीर और गरीब, दोनों की हानि होती है। अमीर यदि सामाजिक आक्रोश से बचना चाहता है तो उसे सादगी से जीना सीखना पड़ेगा अन्यथा आने वाले समय में उसकी अमीरी पर संकट पैदा होगा। (लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
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