Wednesday, July 27, 2011

पश्चिम में पसरता दक्षिणपंथ

जैसे न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमलों की विभीषिका ने सारी दुनिया में हड़कंप मचा दिया था, वैसे ही ओस्लो के भीषण नरसंहार ने समूची दुनिया को दहला दिया है। लेकिन इन दोनों घटनाओं में एक बुनियादी फर्क है।

फर्क यह है कि नॉर्वे की राजधानी ओस्लो में किसी इस्लामी जिहादी आतंकवादी ने यह कुकृत्य नहीं किया है। लगभग एक सौ लोगों को मौत के घाट उतारने वाला वह 32 वर्षीय युवक ईसाई है और उसने अपने इस घृणित कर्म को सही सिद्ध करने के लिए ईसाइयत की ओट ली है।

एंडर्स बेहरिंग ब्रेविक नामक इस युवा ने पहले ओस्लो में प्रधानमंत्री कार्यालय के पास एक बम विस्फोट किया और उसके दो घंटे बाद 35 किलोमीटर दूर उतोया नाम के एक टापू पर जाकर अंधाधुंध गोलियां चलाईं। गोलियां उन 600 लोगों पर चलाई गई थीं, जो एक बहुजातीय या बहुसांस्कृतिक सम्मेलन में भाग लेने आए थे।

इनमें कई एशियाई मूल के लोग भी थे, जिनमें हिंदुओं, बौद्धों और मुस्लिमों का होना स्वाभाविक है। इस तरह का युवा सम्मेलन इस रमणीक द्वीप पर हर साल होता है और इसका आयोजन नॉर्वे के सत्तारूढ़ दल लेबर पार्टी द्वारा करवाया जाता है।

इस तरह की घटना भारत, पाकिस्तान या अफगानिस्तान में होती तो दुनिया का ध्यान उस पर भी जाता, लेकिन वह शीघ्र ही हाशिये पर चली जाती, क्योंकि ऐसी घटनाएं यहां होती ही रहती हैं। लेकिन नॉर्वे तो शांति और स्वतंत्रता का स्वर्ग माना जाता है।

नॉर्वे स्कैंडिनेविया में है और इस क्षेत्र के देशों को सबसे अधिक सुरक्षित और शांत होने की मिसाल के तौर पर बताया जाता है। इन देशों की पुलिस को हथियार रखने की जरूरत ही नहीं पड़ती। ऐसे किसी देश में कोई युवक लगभग सौ लोगों को मौत के घाट उतार दे और अपने कुकृत्य को सही ठहराने के लिए सिद्धांत और तर्क झाड़ने लगे तो मानना होगा कि यह बेहद खतरनाक घटना है। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। यह किसी पागल या सिरफिरे व्यक्ति द्वारा अचानक अंजाम दिया हुआ हादसा नहीं है।

ब्रेविक ने अपनी वेबसाइट पर अपना घोषणा पत्र पहले से ही डाल रखा था। 1500 पृष्ठों के इस घोषणा पत्र को उसने 2003: ए यूरोपियन डिक्लेरेशन ऑफ इंडिपेंडेंस’ शीर्षक से प्रचारित किया है। इसमें उसने 2086 तक यूरोप को पूरी तरह आजाद करने की बात कही है।

आजाद किससे? उनसे जो बहुसंस्कृतिवाद, जातीय विविधता, स्त्री मुक्ति आदि ‘मूर्खतापूर्ण’ बातों का समर्थन करते हैं। ब्रेविक के मुताबिक इस लक्ष्य की प्राप्ति हिंसा और आतंक के बिना नहीं हो सकती। उसका अनुमान था कि कम से कम 45 हजार लोग मारे जाएंगे। सारे गैर-यूरोपियन और गैर-ईसाई तत्वों को यूरोप से खदेड़ दिया जाएगा और प्राचीन ईसाई योद्धाओं की तरह तलवार के जोर पर सत्ता हथिया ली जाएगी।

ब्रेविक घनघोर मार्क्‍सवाद विरोधी है, लेकिन वह नाजी और फासीवादी विचारधारा को भी रद्द करता है। तो क्या वह सचमुच किसी ईसाई विचारधारा का समर्थन या प्रतिपादन करता है? नहीं, बिल्कुल नहीं। ईसा तो शांति के मसीहा थे। ईसाई धर्म में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। ब्रेविक बिल्कुल वैसे ही ईसाइयत की ओट ले रहा है, जैसे जिहादी इस्लाम की ओट लेते हैं। कुछ यूरोपियन विद्वानों का कहना है कि ब्रेविक प्रेम में असफल होने पर चिड़चिड़ा और असंतुलित हो गया।

प्रतिशोध की भावना से भर गया। वरना वह तो बहुत ही शांत और सामान्य-सा युवक था। उसके इस कुकर्म की कोई वैचारिक व्याख्या न की जाए और इसे यूरोप में उभरे नए दक्षिणपंथ से भी नहीं जोड़ा जाए। लेकिन उनका यह तर्क गले नहीं उतरता है।

पहली बात तो यह कि नॉर्वे की घोर दक्षिणपंथी ‘प्रोग्रेस पार्टी’ के सदस्य के तौर पर ब्रेविक 1999 से 2006 तक अत्यंत सक्रिय रहा। वह उग्रवादी युवा मंच के नेता के तौर पर काम करता रहा। दूसरा, पिछले एक-डेढ़ दशक में यूरोप में प्रवास करने वाले एशियाई और अफ्रीकी मूल के लोगों के खिलाफ जो लहर उठ रही है, ब्रेविक उसका खुला समर्थन करता रहा है।

उसने अपने घोषणा पत्र में लिखा है कि अगर मुस्लिमों को यूरोप से खदेड़ा नहीं गया तो वहां दर्जनों पाकिस्तान उठ खड़े होंगे। उसने पाकिस्तानी समाज की भी कड़ी निंदा की है। वह अपने राजनीतिक विचारों के बारे में इतना कट्टर है कि उसने ओस्लो की कोर्ट से कहा है कि सुनवाई खुले में हो ताकि उसके विचारों का बड़े पैमाने पर प्रचार हो। शायद इसीलिए उसने यह हत्याकांड रचाया हो।

असली बात तो यह है कि जो उग्र विचार ब्रेविक ने उछाले हैं, वे सब बीज रूप में पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर, जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल, फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी और अन्य यूरोपियन नेता पहले ही कह चुके हैं।

ज्यादातर यूरोपियन नागरिक इस बात से सहमत हैं कि मिली-जुली संस्कृति की बात विफल हो चुकी है। यूरोप में धीरे-धीरे दो अलग-अलग समाज बनते चले जा रहे हैं। इसीलिए यूरोप के कई प्रमुख देशों में यूरोपवादी उग्रपंथी दक्षिणपंथी पार्टियां या तो सत्तारूढ़ हो गई हैं या फिर प्रमुख विपक्षी पार्टियां बन गई हैं। ब्रेविक जैसे नरपशुओं का जन्म इसी तरह के माहौल में होता है।

यूरोप की हालत देखकर हमें भारत पर गर्व होता है। भारत का समाज कितना सहिष्णु और सर्वसमावेशी है। यूरोप अपनी जमीन पर उन लोगों को भी जरा बर्दाश्त करने को तैयार नहीं, जिनका खून पी-पीकर वह समृद्ध और शक्तिशाली बना है।

गोरों और ईसाइयों की नब्बे फीसदी से अधिक जनसंख्या पांच-दस प्रतिशत विजातीय जनसंख्या को नहीं पचा सकती तो उसके बारे में क्या माना जाए? क्या दो-दो महायुद्धों के आयोजक यूरोप को हम सचमुच एक सभ्य और सशक्त समाज मान सकते हैं? सारे संसार पर अपना औपनिवेशिक जाल बिछाने वाला यूरोप पिछले पांच दशक से अपने हथियारों की बिक्री द्वारा हिंसा फैलाता आ रहा है। अब वह खुद हिंसा की चपेट में आ गया है।
Source: वेदप्रताप वैदिक
http://www.bhaskar.com/article/ABH-west-pasrta-right-2295927.html

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