Sunday, January 29, 2012

बेजा विवाद के जरूरी सवाल

सलमान रुश्दी से संबंधित विवाद के कारण हमारे गणतंत्र की परिपक्वता पर सवालिया निशान लगता देख रहे हैं डॉ. निरंजन कुमार
63वें गणतंत्र दिवस के उत्सव में एक ऐसा एब्सर्ड ड्रामा छिप गया जिसने दुनिया के सामने हमारे गणतंत्र की परिपक्वता पर एक सवालिया निशान लगा दिया। प्रसंग जयपुर साहित्य मेले का है, जो अपने समापन के साथ कई प्रश्न भी छोड़ गया। सवाल कई हैं-अभिव्यक्ति की स्वंतंत्रता का प्रश्न, देश के राजनेताओं की विश्वसनीयता का सवाल, विभिन्न सामाजिक-धार्मिक संगठनों की समझ पर सवाल और सबसे ज्यादा भारतीय राज्य की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा का सवाल। सलमान रुश्दी भारत में जन्मे, पर अब ब्रिटिश नागरिक हैं। उनके जयपुर साहित्य मेला में आगमन के मुद्दे को लेकर जो बवेला मचा उससे कई सवाल खड़े होते हैं। प्रथम तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही है। दरअसल विवाद उनकी पुस्तक द सैटेनिक वर्सेस को लेकर है, जो 1988 में लिखी गई थी। कहा जाता है कि इस पुस्तक में इस्लाम के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब के खिलाफ आपत्तिजनक चीजें लिखी गई हैं। इसको लेकर पूरी दुनिया के मुसलमानों में एक प्रतिक्रिया हुई, बल्कि ईरान में तो उनकी मौत का फतवा भी जारी हुआ। हालांकि 1998 में ईरान सरकार ने यह फतवा एक तरह से वापस ले लिया। दरअसल मुद्दा अभिव्यक्ति की आजादी का है। भारतीय संदर्भो में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का स्पष्ट उल्लेख हमारे संविधान में उल्लिखित है और इसे मूलभूत अधिकारों में रखा गया है। संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) के तहत भारतीय नागरिकों को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। इसका अभिप्राय है कि शब्दों, लेखों, चित्रों, मुद्रण अथवा किसी अन्य प्रकार से अपने विचारों को प्रकट करना। यहां पर एक बात समझ लेना जरूरी है कि एक तो यह अधिकार सिर्फ भारतीय नागरिकों (रुश्दी भारतीय नागरिक नहीं हैं) के लिए है। दूसरे, इसी अनुच्छेद 19 की धारा (2) में स्पष्ट उल्लेख है कि राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों से मित्रतापूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार, न्यायालय की अवमानना, मानहानि, अपराध के लिए उत्तेजित करना आदि के आधार पर सरकार इस अधिकार पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगा सकती है। स्पष्टत: विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार निरंकुश और निरपेक्ष नहीं है, बल्कि विभिन्न सीमाओं और अहर्ताओं के अधीन है। द सैटेनिक वर्सेस को लेकर धार्मिक भावनाओं को ठेस लगने की जो बात कही जाती है उसके मद्देनजर भारत सरकार ने इस पर कस्टम एक्ट के तहत प्रतिबंध लगाया हुआ है। हालांकि तकनीकी रूप से यह प्रतिबंध इसके सिर्फ आयात को लेकर ही है। कानून विशेषज्ञों का मानना है कि कानूनी रूप से अभी भी इसके पढ़ने, रखने या इंटरनेट से डाउनलोडिंग पर प्रतिबंध नहीं है, लेकिन तकनीकी मामले से परे जाकर सोचें तो प्रतिबंध पुस्तक के सार्वजानिक पाठ पर ही था। इस रूप में द सैटेनिक वर्सेस का सार्वजानिक पाठ न केवल नैतिक तौर से गलत है, बल्कि धारा 19( 2) के तहत सार्वजनिक व्यवस्था के बिगड़ने के आधार पर भी अवैधानिक होगा, लेकिन इसी तर्क से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर एमएफ हुसैन द्वारा बनाए हिंदू देवी-देवताओं के नग्नचित्र को भी देखा जाना चाहिए। यह अलग बात है कि शिवसेना और बजरंग दल के सदस्यों ने उनके साथ जो बदसलूकी की उसे कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता है। यह तो कहना ही होगा कि हुसैन का देश से भागना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण था। यह सरकार का उग्रपंथियों के सामने हथियार डाल देने जैसा था। कुछ यही स्थिति सरकार की वर्तमान मुद्दे पर भी रही, जब वोट बैंक के लालच में चरमपंथी धार्मिक मुस्लिम नेताओं के दवाब में आकर रुश्दी को हिंदुस्तान आने तक देना तो छोडि़ए, उन्हें वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये भी संबोधित करने नहीं दिया गया। केंद्र की कांग्रेसनीत सरकार इसके लिए चाहे लाख पल्ला झाड़ ले, वह इस आरोप से बच नहीं सकती कि देश की राजसत्ता और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा की उसने किरकिरी कराई है। द सैटेनिक वर्सेस और इसके सार्वजानिक पाठ पर प्रतिबंध एक बात है, लेकिन रुश्दी को भारत आने ही न देना या उनके अन्य साहित्यिक विषयों पर चर्चा न करने देना एक अन्य स्थिति है। अपने खिलाफ फतवा जारी होने के बाद रुश्दी कई बार भारत आ चुके हैं और जयपुर मेला में भी शिरकत कर चुके हैं, लेकिन तब आज यह हंगामा क्यों? निश्चय ही, जैसा स्वयं रुश्दी ने कहा है कि इसके पीछे आगामी चुनाव ही कारण हैं और कांग्रेसनीत सरकार ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहती जिससे उसे मुसलमानों के वोट खोने का खतरा हो। यहां कांग्रेस या अन्य पार्टियों को समझने की जरूरत है कि मुसलमानों के वोट चाहिए तो उनके वास्तविक मुद्दों को उठाइए। यही बात हिंदू संबंधित मुद्दों पर भाजपा के लिए भी कही जा सकती है या दलितों के संदर्भ में बसपा के लिए। आज यह सिद्ध हो चुका है कि भारतीय मुसलमानों की सामाजिक-शैक्षणिक-आर्थिकस्थिति लगभग दलितों के समकक्ष ही है। यह अनायास नहीं है कि युवा-शिक्षित मुसलमान इस पूरे बवेले से अलग था। यहां कठघरे में मुसलमानों के वे धार्मिक नेता भी हैं, जो आज के आम भारतीय मुसलमानों को समझ नहीं पा रहे हैं। धार्मिक मुद्दे बेशक महत्वपूर्ण हैं, लेकिन गैरजरूरी विवाद से भारतीय मुसलमान आगे जाकर वास्तविक मुद्दों पर बात करना चाहते हैं। कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ठीक ही कहा था कि भारतीय मुसलमान सलमान रुश्दी को बहुत पीछे छोड़ चुका है। यह ठीक है कि मजहब अभी भी हमारे चेतना का बहुत गहरा हिस्सा है, लेकिन इसके दुरुपयोग और किसी भी धर्म के उग्रपंथियों को इसके नाम पर देश और जनता को बंधक बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती, क्योंकि सवाल सिर्फ नैतिकता और वैधानिकता का ही नहीं, बल्कि भारतीय राज्य के भविष्य का भी है। (लेखक दिल्ली विवि में एसोसिएटप्रोफेसर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

लोकतंत्र के सड़े फल

लोकतांत्रिक संस्थाओं, विशेषकर राजनीतिक व्यवस्था की खामियों की ओर अपेक्षित ध्यान न दिए जाने पर निराशा जता रहे हैं संजय गुप्त
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 63वें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देश के नाम जो संदेश दिया उसमें ऐसी कोई विशेष बात नहीं थी जिससे देश प्रोत्साहित होता और कमर कसकर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित होता। देश में इस समय जैसे राजनीतिक हालात हैं उनके आलोक में राष्ट्रपति ने अन्ना हजारे के अभियान को एक तरह से आक्रामक बताकर खारिज करने के साथ ही राजनेताओं को राहत देने की कोशिश अवश्य की, लेकिन देशवासी इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि राष्ट्रपति भी राजनीतिक व्यवस्था का ही अंग हैं। राष्ट्रपति ने जनता को यह कहकर आगाह किया कि खराब फल गिराने के लिए लोकतंत्र रूपी वृक्ष को इतना न हिलाया जाए कि वही गिर पड़े। यह कुछ अजीब सी उपमा है, क्योंकि कोई भी खराब फलों को गिराने के लिए पेड़ नहीं हिलाता। पेड़ तो फल और वह भी अच्छे फल की चाह में हिलाए जाते हैं। यह बात और है कि कई बार अच्छे फल नहीं गिरते। राष्ट्रपति ने यह उपमा लोकतांत्रिक संस्थाओं में सुधार के संदर्भ में आम जनता की बेचैनी को लेकर दी। यदि राष्ट्रपति यह मान रही हैं कि लोकतांत्रिक संस्थाओं में सड़े फलों जैसी कुछ खराबी-खामी आ गई है तो यह भी सही है कि राजनीतिक नेतृत्व उसे दूर करने के लिए उतना तैयार नहीं जितना होना चाहिए और जैसी जनता की अपेक्षा है। मौजूदा समय में यदि खराब फलों को परिभाषित करना हो तो वे भ्रष्टाचार के साथ-साथ राजनीतिक दलों की जाति-मजहब की मनमानी राजनीति के रूप में नजर आएंगे। अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ तो आंदोलन छेड़ रखा है, लेकिन जाति-मजहब की राजनीति की ओर किसी का ध्यान नहीं है और इसीलिए राजनीतिक दल मनमानी करने में लगे हुए हैं। फिलहाल पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की उठापटक के चलते अन्ना का आंदोलन असरहीन सा दिख रहा है और जो नजर आ रहा है वह है जाति और मजहब पर आधारित राजनीति। यदि जाति मजहब-आधारित राजनीति यानी वोट बैंक के लिए कुछ भी कर गुजरने की राजनीतिक दलों की प्रवृत्ति और भ्रष्टाचार रूपी खराब फल राजनीतिक व्यवस्था से अलग हो जाएं तो बहुत सी मुश्किलें आसान हो सकती हैं। यदि खराब फल गिराए ही नहीं जाएंगे तो अच्छे फल कहां से मिलेंगे? आम जनता को तो राहत तब मिलेगी जब खराब फल गिरें और उनकी जगह अच्छे फल लगें। दुर्भाग्य से यह उम्मीद पूरी होती नजर आती और इसका एक प्रमाण पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों की ओर से अपील, घोषणा पत्रों और विजन डाक्युमेंट के माध्यम से किए जा रहे वायदे हैं। राजनीतिक दल वोटों के लालच में आम जनता से ऐसे-ऐसे वायदे करने में लगे हुए हैं जिन्हें पूरा करना खासा मुश्किल है। राजनीतिक दल और विशेष रूप से राष्ट्रीय दल-कांग्रेस तथा भाजपा के पास इस सवाल का जवाब नहीं कि वे जैसे वायदे उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब आदि की जनता से करने में लगे हुए हैं वैसे काम उन राज्यों में क्यों नहीं कर रहे जहां शासन में हैं? विधानसभा चुनाव वाले राज्य और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश तो जाति-मजहब की राजनीति का अखाड़ा बन गया है। प्रत्येक दल खुद को कुछ खास जातीय और मजहबी समूहों का हितैषी साबित करने के लिए लालायित है। इसके लिए विशेष घोषणाएं भी की जा रही हैं। कोई आरक्षण बढ़ाने की बात कर रहा है तो कोई उसे खत्म करने की और कोई औरों से ज्यादा देने की। यह तो वह राजनीति है जिससे लोकतांत्रिक संस्थाओं में और अधिक सड़े फल लगेंगे। यदि लोकतांत्रिक संस्था रूपी वृक्ष सड़े फलों से ही आच्छादित हो गए तो फिर ऐसे वृक्ष तो अनुपयोगी होते जाएंगे। राष्ट्र के नाम संबोधन के जरिये राष्ट्रपति ने देश के समक्ष उपस्थित चुनौतियों के बारे में तो विस्तार से बताया ही, उन आवश्यकताओं को भी रेखांकित किया जिनकी पूर्ति में देरी से अनेक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। तेज गति वाले विकास के लक्ष्य को हासिल करने के लिए सामाजिक, आर्थिक कार्यक्रम को सही ढंग से आगे बढ़ाने के साथ गरीबी, भुखमरी, कुपोषण और निरक्षरता को दूर करना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। इसी तरह युवाओं को रोजगार के साथ-साथ जिम्मेदार बनाने वाली शिक्षा भी प्राथमिकता के आधार पर दी जानी चाहिए। ऐसा नहीं है कि राजनेता इस सबके बारे में बातें न करते हों, लेकिन वे अपनी कथनी को करनी में तब्दील नहीं कर पा रहे हैं और इसीलिए देश में असंतोष बढ़ रहा है। बावजूद इसके राजनेता यही कहते हैं कि स्थितियां सुधर रही हैं और वे इसके लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं। राजनेता जिन्हें कोशिश बताते हैं उन्हें आम जनता बहानेबाजी समझती है। राजनेताओं और विशेष रूप से सत्तारूढ़ नेताओं के रवैये से आजिज जनता अक्सर उन्हें सत्ता से बाहर कर देती है, लेकिन जो नए लोग सत्ता में आते हैं वे भी शासन के पुराने तौर-तरीके अपना लेते हैं और सत्ता में बने रहने की कोशिश में वोट बैंक की राजनीति में जुट जाते हैं। देश के अनेक राज्यों में बारी-बारी से वही दल सत्ता में आते हैं जिन्हें पहले ठुकराया जा चुका होता है। आखिर हमारे राजनेता कब यह समझेंगे कि वे आम आदमी की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं? वे यह क्यों नहीं देख पा रहे कि समाज का एक बड़ा तबका निरक्षरता, गरीबी और बीमारियों की चपेट में है। यह वह तबका है जो नेताओं की ओर टकटकी लगाए देख रहा है, लेकिन वे हैं कि उसे कोरे आश्वासन देने में लगे हुए हैं। लोकतंत्र रूपी जो पौधा 26 जनवरी 1950 को संविधान को अंगीकार किए जाने के रूप में रोपा गया वह अब एक वृक्ष बन गया है और उसकी जड़ें भी बहुत मजबूत हो गई हैं, लेकिन उसकी आबोहवा बदल गई है। इस आबोहवा को बदलने का काम वैश्वीकरण की ताकतों के साथ-साथ शिक्षा के प्रसार और सूचना क्रांति के दौर ने किया है। इस वृक्ष को जैसा खाद-पानी चाहिए वह उपलब्ध नहीं हो रहा। इसमें संदेह नहीं कि समय के साथ बहुत कुछ सुधार और बदलाव हुआ है, लेकिन आम जनता की बेचैनी इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि उसे इस वृक्ष में तमाम सड़े फल दिख रहे हैं। सड़े फल देर-सबेर तो गिरेंगे ही, लेकिन बेहतर है कि समय रहते उनकी पहचान कर उन्हें गिरा दिया जाए। यह कहना ठीक नहीं कि इन सड़े फलों को गिराने के लिए जो कोशिश हो रही है उससे वृक्ष ही गिर सकता है, क्योंकि हर भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाओं की महत्ता और गरिमा से परिचित है। वह भ्रष्टाचार और जाति-मजहब की राजनीति के खिलाफ लड़ाई इन संस्थाओं को मजबूत करने के लिए लड़ रहा है, न कि उन्हें कमजोर करने के लिए। अच्छा यह होगा कि राजनेता अपनी जिम्मेदारी समझें। अभी वे भ्रष्टाचार दूर करने के लिए कोई ईमानदार कोशिश करने के बजाय अपनी मनमानी राजनीति के तहत पाखंड का प्रदर्शन अधिक कर रहे हैं, जैसा कि लोकपाल विधेयक पर बहस के दौरान संसद में देखने को मिला।
साभार:-दैनिक जागरण

राहुल गांधी का दुर्भाग्यपूर्ण चिंतन

यह जितना दुर्भाग्यपूर्ण है उतना ही निराशाजनक भी कि राहुल गांधी यह मानकर चल रहे हैं कि मुस्लिम समुदाय का भला इसलिए नहीं हो पा रहा है, क्योंकि प्रशासन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समर्थक अधिकारी बैठे हुए हैं। उन्होंने ऐसे कथित अधिकारियों को सांप्रदायिक करार देते हुए यह भी सिद्ध करने की कोशिश की कि उन्हें संघ ने अपने मोहरे के रूप में फिट कर रखा है। यह तो राहुल गांधी ही बता सकते हैं कि उन्होंने उर्दू दैनिकों के संपादकों के साथ अपनी मुलाकात में भारतीय प्रशासन की यह विकृत तस्वीर किस आधार पर पेश की, लेकिन इस पर यकीन करना कठिन है कि संघ इतना समर्थ है कि वह एक खास विचारधारा वाले अधिकारियों को प्रशासनिक तंत्र में फिट करने में समर्थ है। क्या संघ किसी किस्म की भर्ती परीक्षा आयोजित करता है? राहुल गांधी ने मुसलमानों की राह का रोड़ा बनने वाले संघ के तथाकथित मोहरों के बारे में जो उदाहरण दिया वह तो और भी हास्यास्पद है। उनकी मानें तो मालेगांव विस्फोट में अदालत से बरी मुस्लिम युवकों को सांप्रदायिक मानसिकता वाले अधिकारी निर्दोष मानने को तैयार नहीं हैं। क्या वह यह कहना चाहते हैं कि ऐसे कथित अधिकारियों के सामने अदालत और कानून भी बेअसर है? इस पर गौर किया जाना चाहिए कि महाराष्ट्र में कांग्रेस का ही शासन है और मालेगांव विस्फोट के लिए मुस्लिम युवकों को जिम्मेदार बताने का काम भी कांग्रेसी सत्ता के दौरान हुआ। क्या देश यह मान ले कि महाराष्ट्र में संघ के मोहरे इतने सक्षम हैं कि उनके आगे सरकार की भी नहीं चल पा रही है? सवाल यह भी है कि यदि स्थिति इतनी गंभीर थी तो उन्होंने यह मामला संसद में क्यों नहीं उठाया और उसे सरकार के संज्ञान में क्यों नहीं लाए? क्या कारण है कि उनकी ओर से इस बारे में कोई सार्वजनिक वक्तव्य नहीं दिया गया? आखिर इतने बड़े मामले को केवल उर्दू दैनिकों के संपादकों के समक्ष उठाने का क्या मतलब? क्या इसलिए ताकि मुस्लिम समाज का खास तौर पर ध्रुवीकरण किया जा सके? मुस्लिम समाज के वोट पाने के लिए कांग्रेस जैसे हथकंडे अपना रही है उससे उसका नुकसान होना तय है, क्योंकि प्रतिक्रियास्वरूप अन्य वर्गो में धु्रवीकरण होना स्वाभाविक है। राहुल गांधी ने उर्दू अखबारों के संपादकों से अपनी मुलाकात में यह भी स्पष्ट किया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे की ओर से छेड़ा गया आंदोलन वस्तुत: संघ की साजिश है। उनके हिसाब से संघ ने अन्ना के जरिये यह आंदोलन इसलिए छेड़ा, क्योंकि बम धमाकों में अपना नाम आने से वह हताश हो गया था। ऐसे विचित्र विचारों के लिए कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह जाने जाते हैं। यह पहली बार है जब राहुल गांधी दिग्विजय सिंह की भाषा बोल रहे हैं। क्या इससे अधिक निराशाजनक और कुछ हो सकता है कि जो आंदोलन स्वत: स्फूर्त ढंग से खड़ा हुआ और जिसने सारे देश को आंदोलित किया उसे राहुल गांधी एक साजिश मान रहे हैं? उनके हिसाब से उन्होंने प्रधानमंत्री को अन्ना के आंदोलन को नजरअंदाज करने की सलाह दी थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि इसीलिए लोकपाल विधेयक तैयार करने में इतनी हीलाहवाली की गई और फिर ऐसी परिस्थितियां पैदा की गईं जिससे वह पारित ही न हो सके? सच्चाई जो भी हो, राहुल गांधी के विचार देश की जनता और विशेष रूप से युवाओं को बुरी तरह निराश करने वाले हैं। उनसे ऐसे विचारों की अपेक्षा बिलकुल भी नहीं थी।
साभार:-दैनिक जागरण

साख पर गहरा आघात

एम्स की प्रवेश परीक्षा में धांधली का मामला सामने आने से इस संस्थान की प्रतिष्ठा प्रभावित होते देख रहे हैं डॉ. गौरीशंकर राजहंस
पिछले दिनों अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में दिल्ली पुलिस ने स्नातकोत्तर चिकित्सा प्रवेश परीक्षा का प्रश्न पत्र लीक होने के रैकेट का भंडाफोड़ किया। उसे जानकर सारा देश स्तब्ध रह गया है। आधुनिकतम दूरसंचार प्रणाली की सहायता लेकर फर्जी डाक्टरों ने प्रश्नपत्र लीक किया और कहा जाता है कि इस प्रश्नपत्र के बदले अमीरजादा छात्रों ने 30-30 लाख रुपये रैकेट से जुड़े लोगों को दिए। एम्स जैसे प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थान में इस तरह का स्कैंडल होगा, इसकी लोग कल्पना भी नहीं कर सकते थे। यह तो महज संयोग था कि पुलिस ने इस रैकेट का भंडाफोड़ किया, परंतु इस स्कैंडल का भंडाफोड़ होने से अपने आप अनेक प्रश्न उठ खड़े होते हैं। जिन लोगों ने बहुचर्चित फिल्म मुन्नाभाई एमबीबीएस देखी होगी उन्हें अवश्य याद होगा कि किस तरह हेराफेरी करके मुन्नाभाई डाक्टर बन जाता है। एम्स वाली घटना का भंडाफोड़ होने से एक बात तो साबित हो गई है कि इस तरह का गोरखधंधा वर्षो से चल रहा है। यह तो महज एक संयोग था कि इस बार फर्जी परीक्षार्थी पकड़ में आ गए। हो सकता है कि इस तकनीक का फायदा उठाकर अनेक फर्जी परीक्षार्थी एमबीबीएस और एमडी भी बन गए हों। एम्स की डिग्री की सारी दुनिया में कद्र है। अमेरिका, कनाडा और यूरोप के अस्पताल यह मानकर चलते हैं कि जिस युवक ने एम्स से डाक्टर की डिग्री प्राप्त की है वह नि:संदेह बहुत दक्ष होगा। इस घटना का खुलासा होने के बाद सारे संसार में विदेशी अस्पतालों के प्रबंधकर्ताओं को जोरदार धक्का लगा होगा। पैसे के बल पर अपराधी प्रवृति के लोग चुनाव तो जीत जाते थे, परंतु वे अपना दबदबा समाज के दूसरे क्षेत्रों में भी कायम कर लेंगे, इसकी लोग कल्पना भी नहीं कर सकते थे, परंतु सच यह है कि यह मुन्नाभाई का बिजनेस वर्षो से चल रहा है। देश के विभिन्न भागों में दागी राजनेताओं ने मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज खोल रखे हैं। इन प्राइवेट कॉलेजों में दाखिले में एक एक प्रत्याशी के अभिभावक से 20-25 लाख रुपये तथाकथित डोनेशन के रूप में लिया जाता है। मुन्नाभाई की तरह की फर्जी डिग्री हासिल करने वाले लोगों की हिंदीभाषी राज्यों में भरमार है। राजनेताओं के परिवारों से ऐसे छात्र गत वषरें में उतीर्ण हुए हैं जो राजनीति विज्ञान या समाज शास्त्र में पहली बार में फेल हो गए थे, क्योंकि उस समय वे किसी मुन्नाभाई का प्रबंध नहीं कर पाए थे और जब उन्होंने दूसरी पारी में परीक्षा दी तो मुन्नाभाई की मदद से वे प्रथम श्रेणी में उतीर्ण हो गए। यही नहीं, मुन्नाभाई की मदद से एमए की परीक्षा भी वे प्रथम श्रेणी में पास कर गए और राज्य के प्रतिष्ठित कॉलेजों में लेक्चरर के रूप में उनकी नियुक्ति हो गई। स्वाभाविक है कि पढ़ाई तो उन्होंने कभी की नहीं थी। अत: वे केवल छात्रों को दूसरे प्रोफेसरों के खिलाफ या कॉलेज मैनेजमेंट के खिलाफ भड़काते रहते थे और आए दिन हड़ताल कराते थे। दागी नेताओं के परिवारों से आने वाले ये युवक धीरे-धीरे समाज के सिरमौर बन गए। एक हिंदी भाषी राज्य के एक दबंग नेता की कहानी कुछ वर्ष पहले उजागर हुई थी। अपने एक प्रोफेसर को उन्होंने कहा कि वे पीएचडी करना चाहते हैं, परंतु उनमें योग्यता तो है नहीं। प्रोफेसर साहब कुछ रास्ता निकाल दें तो वे एक मोटी रकम उन्हें दे देंगे। एक बार यदि वे डाक्टर बन गए तो समाज और राजनीति में उनकी धाक बढ़ जाएगी। प्रोफेसर साहब ने उन्हें कहा कि आजकल पीएचडी की थीसिस कोई देखता नहीं है। उन्होंने उसी राज्य के दूसरे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के एक विख्यात विद्वान की थीसिस जो उन्होंने लंदन स्कूल ऑर इकोनोमिक्स में लिखी थी और जो पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई थी उन्होंने वह लाकर अपने इस दबंग राजनेता को दे दी और कह दिया कि पूरी किताब वे अपने घर पर नकल कर टाइप करा लें। वही उनकी थीसिस बन जाएगी। केवल थीसिस का शीर्षक बदल दें। वे एक सर्टिफिकेट दे देंगे कि यह शोध इस व्यक्ति ने उनकी देखरेख में किया है। सब कुछ योजनानुसार चला। राजनेता के घर पर थीसिस टाइप हो गई और प्रोफेसर साहब ने एक मोटी रकम लेकर यह सर्टिफिकेट दे दिया कि यह शोध अमुक छात्र ने उनकी देखरेख में किया था। बात समाप्त हो गई। प्रोफेसर साहब ने अपने छात्र को यह हिदायत कर दी थी कि वे किसी तरह यूनिवर्सिटी में रखे हुए उनके थीसिस को गायब करवा दें और अपने घर में भी थीसिस की कापी नहीं रखें, क्योंकि यदि यह थीसिस किसी के हाथों में पड़ गई तो बड़ा हंगामा होगा। यूनिवर्सिटी से तो वह थीसिस गायब करवा दी गई, परंतु घर में पड़ी हुई उनकी थीसिस को उनके सुपुत्र ने छपवा कर उनके जन्मदिन पर उन्हें भेंट कर दी। यह देखकर वे सकते में आ गए, परंतु उन्होंने यही सोचा कि इस पर अब किसी का ध्यान नहीं जाएगा। उनके सुपुत्र ने राज्य की राजधानी की सारी प्रमुख पुस्तकों की दुकान में बिकने के लिए वह पुस्तक भेज दी। जब पुस्तक की समीक्षा अखबारों में निकली तो पुस्तक के मूल लेखक दौड़कर विपक्ष के नेता के पास पहुंचे। फिर तो असेंबली में भारी हंगामा हुआ और पूरे देश के समाचारपत्रों में इसकी चर्चा हुई। नेताजी जो उस समय एक दबंग मंत्री थे, ने सारी दुकानों से उस पुस्तक की सारी कापियां मंगवाकर रात में अपने घर के पिछवाड़े में जलवा दीं, परंतु अभी भी एक दो कापी कुछ लोगों के पास हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब दबंग नेताओं ने मुन्नाभाइयों को बैठाकर अपने परिवार के लोगों को बड़ी बड़ी डिग्रियां दिलाई हैं। कहने का अर्थ है कि जबरदस्ती और निर्लज्जा की कहानी केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं है। वह समाज के दूसरे क्षेत्रों में भी तेजी से फैल रही है। इसका सीधा असर है कि दबंगई के बल पर राजनेता प्रतिभाशाली और गरीब लोगों का हक मार रहे हैं। प्रश्न यह है कि समाज कब तक इस अन्याय को बर्दाश्त करेगा? (लेखक पूर्व सांसद एवं पूर्व राजदूत हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

लोकलुभावन वायदे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा की ओर से जारी घोषणा पत्र और कांग्रेस की ओर से पेश किए गए दृष्टि पत्र का मूल्य-महत्व तभी है जब ये दल सत्ता में आने में सफल होंगे। पता नहीं ऐसा होगा या नहीं, लेकिन यह समझना कठिन है कि ये दोनों दल जिस तरह उत्तर प्रदेश का उत्थान करना चाहते हैं वैसे ही उन राज्यों का क्यों नहीं कर रहे हैं जहां वे सत्ता में हैं? बात चाहे भाजपा शासित राज्यों की हो अथवा कांग्रेस शासन वाले राज्यों की-कहीं पर भी वैसे अनेक कार्य होते नहीं दिखते जैसे उत्तर प्रदेश के लिए जारी उनके घोषणा पत्र और दृष्टि पत्र में दर्ज किए गए हैं। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश की जनता से जो अनेक वायदे किए हैं उनके तहत वह किसानों को 6 प्रतिशत ब्याज पर ऋण उपलब्ध कराएगी, मुख्यमंत्री को लोकायुक्त के दायरे में लाएगी, प्रमुख नदियों को स्वच्छ व अविरल बनाएगी, हर गांव में विद्यालय और हर ढाई सौ परिवार पर इंटरमीडिएट स्कूल स्थापित करेगी। क्या कांग्रेस शासित राज्यों में इस तरह के कार्य हो रहे हैं? कुछ इसी तरह के सवाल के दायरे में भाजपा भी आएगी, जिसने अपने घोषणा पत्र में दो हजार रुपये बेरोजगारी भत्ता देने, लोकायुक्त को शक्तिशाली बनाने, पुलिस प्रशासन को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करने, कृषि कार्य के लिए 24 घंटे बिजली देने जैसी तमाम लोकलुभावन घोषणाएं की हैं। इस पर आश्चर्य नहीं कि दोनों दलों के वायदों में काफी कुछ समानता दिख रही है, क्योंकि दोनों का उद्देश्य मतदाताओं को लुभाना है। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि समाजवादी पार्टी और पंजाब में अकाली दल की तरह से भाजपा और कांग्रेस ने कंप्यूटर की उपयोगिता को महत्व दिया है। यह अच्छी बात है कि ये सभी दल छात्रों को कंप्यूटर और लैपटॉप से लैस करना चाहते हैं, लेकिन क्या उन्हें इसका आभास है कि शिक्षा का बुनियादी ढांचा कितना जर्जर है? अभी हाल में सामने आया एक सर्वेक्षण यही बता रहा है कि उत्तर भारत के राज्यों में प्राथमिक शिक्षा की दशा दयनीय बनी हुई है। इससे इंकार नहीं कि कंप्यूटर और लैपटॉप ज्ञान एवं तरक्की के माध्यम बन गए हैं, लेकिन यदि शिक्षा की बुनियाद ही ठीक नहीं होगी तो इन सुविधाओं के जरिये छात्रों का भविष्य कैसे संवरेगा? घोषणा पत्र कितने भी लोकलुभावन क्यों न हों, इसमें दो राय नहीं कि उनका मुख्य उद्देश्य आम जनता के समक्ष भविष्य की खुशनुमा तस्वीर पेश करना भर होता है। अब तक का अनुभव यही बताता है कि सत्ता में आने के बाद राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्र को ठंडे बस्ते में डालना पसंद करते हैं या फिर उनमें दर्ज घोषणाओं को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार के समक्ष हाथ फैलाते हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक ने सत्ता में आते ही अपने घोषणा पत्र में किए गए अनेक वायदों को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार से सहायता मांगनी शुरू कर दी है। राजनीतिक दलों की ओर से जिस तरह के घोषणापत्र सामने आ रहे हैं उन्हें देखते हुए अब यह आवश्यक हो चुका है कि चुनाव आयोग उन पर इस दृष्टि से विचार करे कि उनका एकमात्र उद्देश्य मतदाताओं को प्रलोभन देना होता है। चूंकि घोषणा पत्रों के संदर्भ में चुनाव आयोग का कोई जोर नहीं चल पा रहा है इसलिए अब उनमें आकाश के तारे तोड़कर लाने जैसी बातें की जाने लगी हैं।
साभार:-दैनिक जागरण

भ्रष्टाचार चुनावी मुद्दा क्यों नहीं

राजनीति के अपराधीकरण के प्रति आम जनता की उदासीनता पर अफसोस प्रकट कर रहे हैं एनके सिंह
विख्यात न्यायविद सॉलमंड ने कहा था, वह समाज जो अत्याचार होने पर भी उद्वेलित नहीं होता, उसे कानून की प्रभावी पद्धति कभी नहीं मिल सकती। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में उत्तर प्रदेश में 8800 करोड़ में से 5000 करोड़ रुपये मंत्री से लेकर संतरी तक हजम कर गए, लेकिन यह चुनावी मुद्दा नहीं बन सका। कुछ माह पहले लगा था कि भ्रष्टाचार को लेकर पूरे देश में एक जबर्दस्त जनाक्रोश फूट पड़ा है और यह आक्रोश जल्द ठंडा नहीं पड़ेगा, लेकिन उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और अन्य तीन राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में शायद ही भ्रष्टाचार एक मुद्दा बन पाया है। इसके विपरीत तमाम राजनीतिक दलों ने बड़े पैमाने पर आपराधिक छवि के लोगों को टिकट दिए हैं। बड़ी पार्टियों द्वारा खड़ा किया गया हर तीसरा उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि का है। ऐसा लगता है कि तुलसीदास के कोउ नृप होहिं हमे का हानि की मानसिकता ने हमारे विद्रोही तेवरों को ठंडा कर दिया है। हमें चिंता नहीं है कि नृप कौन होगा। हमने मान लिया है कि सत्ता सत्ताधारियों की है, लूटना उनका काम है और हमें दासत्व भाव में इस त्रासदी को जीवनपर्यंत झेलना है। वरना कोई कारण नहीं था कि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में इतने बड़े घपले के बाद भी भ्रष्टाचार मुद्दा न बनता। भ्रष्टाचारियों के हौसले और हिमाकत का यह आलम है कि जेल में हत्याएं की जा रही हैं ताकि राज न खुल सके। एक दल भ्रष्टाचार के आरोप में मंत्री को निकालता है तो अगले ही दिन शुचिता का दावा करने वाली देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी उसे गले लगा लेती है। अगर जनाक्रोश का डर होता तो कम से कम चुनाव के वक्त कोई पार्टी इस तरह का दुस्साहस नहीं कर पाती। क्या वजह है कि आज भी इन तथाकथित मुख्य पार्टियों का हर तीसरा उम्मीदवार आपराधिक छवि का है? क्या निरपराधियों के लिए राजनीति में कोई जगह नहीं बची है? सभी राजनीतिक दलों ने अपना घोषणा-पत्र जारी किया, लेकिन एक ने भी यह नहीं बताया कि भ्रष्टाचार से लड़ने का उनके पास कौन-सा नुस्खा है? किसी ने मुस्लिम आरक्षण की बात की तो किसी ने बेरोजगारों को बैठे-बिठाए भत्ता देने का वादा किया। दरअसल, हमाम में रहने का एक नियम है कि कोई किसी को नंगा नहीं कहेगा। लिहाजा कमर के ऊपर तक कपड़ा न होने को लेकर भले ही एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हों, लेकिन कमर के नीचे क्या है इसके बारे में कोई नहीं बोलता। इटली की समसामयिक राजनीतिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करने से समझ में आता है कि किस तरह माफिया गैंग कानून-व्यवस्था व सरकारों पर भारी ही नहीं पड़ते, बल्कि उनको जिस तरह चाहते हैं तोड़-मरोड़ लेते हैं। भारत में भी जिस तरह 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में ए राजा के करीबी माने जाने वाले सादिक बाचा का शव उसी के घर में फांसी के फंदे पर झूलता मिला, वह संकेत है कि भारत भी इटली के रास्ते पर चल रहा है। इसी तरह चारा घोटाला मामले में पशुपालन मंत्री भोलाराम तूफानी ने खुद को चाकू घोंपकर आत्महत्या कर ली। वह भी घोटाले में आरोपी थे। इसी तरह गाजियाबाद जिला न्यायालय के ट्रेजरी में एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर के पद पर तैनात आशुतोष अस्थाना की डासना जेल में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। पीएफ घोटाले में उन पर भी आरोप लगे थे और साथ ही इस बात का भी डर था कि इस घोटाले में आशुतोष द्वारा कई जजों के नाम उजागर किए जा सकते हैं। इसी तरह झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष शिबू सोरेन के निजी सचिव शशिनाथ झा की भी रांची के पिस्कानगरी गांव में हत्या कर दी गई। माना जाता है कि झा को अपने बॉस के बारे में बहुत कुछ मालूम था। 65 साल से इतना सब होने के बाद भी चेरी छोड़ न होउब रानी के सिंड्रोम से हम बाहर नहीं निकल सके। धर्म तेजा से राजू तक कफन-घसोट हमारी लाश से चद्दर भी ले जाते रहे पर हमने मान लिया कि जनता राजा नहीं बनाती और राजा जो चाहता है वह कर लेता है। 70 लाख करोड़ के कालेधन की कोख से उपजा भ्रष्टतंत्र भीमकाय होता रहा और अब वह इतना ताकतवर हो गया है कि समूचे समाज को मुंह चिढ़ाकर राजफाश करने वालों की हत्याएं कर रहा है। इसी बीच जो कुछ दासत्व भाव वाले गलती से शीर्ष पर पहुंच गए, उन्होंने भी नृप का चोला पहन लिया और मौसेरे भाई बन गए। इनमें से अगर कभी किसी ने अन्नाभाव में आने की कोशिश की तो या तो वह अलग-थलग पड़ गया या फिर चांदी के जूते खाकर चुप हो गया। आज खतरा यह है कि इस भ्रष्टतंत्र में लगे माफिया अब न तो उन्हे अलग-थलग करेंगे ना तो चांदी का जूता दिखाएंगे, बल्कि सिर्फ यह संदेश देंगे कि मौत कब, कहां आ जाए कोई भरोसा नहीं। आज से कुछ साल पहले तक अपराधी को यह डर रहता था कि भरे बाजार से लड़की उठाने पर लोगों का प्रतिरोध झेलना पड़ सकता है, लेकिन आजकल हम नजरें मोड़ लेने के भाव में आ गए हैं। अमेरिका में इन्हीं स्थितियों से निपटने के लिए गवाह सुरक्षा अधिनियम लाया गया ताकि हम अपराधी का प्रतिरोध न कर सकें तो कम से कम गवाही तो दे सकें। इसके ठीक विपरीत आज भारत में आम आदमी तो दूर पुलिस तक अपराधियों से अपनी जान बचा रही है। नोनन ने अपनी किताब ब्राइब में लिखा था, हमें जनजीवन में भ्रष्टाचार के बारे में अपना फैसला इस आधार पर नहीं करना चाहिए कि हमने कितने कानून बनाए और कितने लोगों को सजा दी। भ्रष्टाचार की विभीषिका का अंदाजा तब लगता है जब हम यह समझ जाएं कि समाज छोटे से छोटे भ्रष्टाचार या अनैतिकता को लेकर किस हद तक संवेदनशील हैं। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

आत्म¨चतन का पर्व

गणतंत्र को समस्त जनाकांक्षाओं की कसौटी पर खरा उतरते नहीं देख रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित
उल्लास का आकाश और निराशा की गहरी खाई। उल्लास और निराशा एक साथ नहीं आते। लेकिन गणतंत्र दिवस में दोनों एक साथ हैं। हम भारत के लोगों ने 26 नवंबर 1949 के दिन भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित व आत्मार्पित किया था। यही संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ। विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र की 63वीं वर्षगांठ का उल्लास स्वाभाविक है, लेकिन निराशा की खाइयां ढेर सारी हैं। सीमाएं अशांत हैं। चीन की आंखें लाल हैं। हमारे सत्ताधीश निष्कि्रय हैं। विदेशी घुसपैठ जारी है। आतंकवादी भारतीय गणतंत्र से युद्धरत हैं, देश के भीतर भी आतंकवादी हैं। माओवादी संविधान और गणतंत्र के विरुद्ध हमलावर हैं, देश का बड़ा हिस्सा रक्तरंजित है। अलगाववादी सक्रिय हैं। केंद्र को चुनौती देते राज्य हैं और राज्यों के अधिकारों पर आक्रामक केंद्र। संघीय ढांचे को खतरा है। राज्य विभाजन की मांगें हैं। लाखों किसान आत्महत्या कर चुके। राजनीति गणतंत्र और संविधान के प्रति निष्ठावान नहीं। संसद का तेज घटा है। कार्यपालिका भ्रष्टाचार की पर्यायवाची हो गई। संविधान में पंथ आधारित आरक्षण का नाम तक नहीं, लेकिन केंद्र ने मुस्लिम आरक्षण की घोषणा की। गणतंत्र और संविधान के शपथी ही संविधान के सामंत बन गए हैं। संविधान स्वयं में कुछ नहीं होता। संविधान पारित होने के दिन अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा में कहा था, यह संविधान किसी बात के लिए उपबंध करे या न करे राष्ट्र का कल्याण उस रीति व उन व्यक्तियों पर निर्भर करेगा जो शासन करेंगे। उन्होंने दो बातों को लेकर खेद भी व्यक्त किया, केवल दो खेद की बाते हैं। मैं विधायिका के सदस्यों के लिए कुछ योग्यताएं निर्धारित करना पसंद करता। असंगत है कि प्रशासन करने या विधि के शासन में सहायकों के लिए हम उच्च अर्हता का आग्रह करें, लेकिन विधि निर्माताओं के लिए निर्वाचन के अलावा कोई अर्हता न रखें। विधि निर्माताओं के लिए बौद्धिक उपकरण अपेक्षित हैं, संतुलित विचार करने की साम‌र्थ्य व चरित्र बल भी। दूसरा खेद यह है कि हम स्वतंत्र भारत का अपना संविधान भारतीय भाषा में नहीं बना सके। संविधान सभा की शुरुवात में ही धुलेकर ने हिंदी में संविधान बनाने की मांग की। वीएन राव द्वारा तैयार संविधान का पहला मसौदा अक्टूबर 1947 में आया। डॉ. अंबेडकर की अध्यक्षता वाली समिति का मसौदा फरवरी 1948 में आया। नवंबर 1948 में तीसरा प्रारूप आया। तीनों अंग्रेजी में थे। सेठ गोविंददास, धुलेकर आदि ने हिंदी प्रारूप के विचारण की भी मांग की। दुनिया के सभी देशों के संविधान मातृभाषा में हैं, लेकिन भारत का अंग्रेजी में बना। लेकिन विडंबनाएं और भी हैं। हमारे संविधान में देश के दो नाम हैं - इंडिया दैट इज भारत। संविधान सभा में देश के नाम पर भी बहस हुई, वोट पड़े। भारत को 38 और इंडिया को 51 वोट मिले। भारत प्राचीन राष्ट्र है। लेकिन इंडिया दैट इज भारत को राज्यों का संघ (अनुच्छेद 1) कहा गया। इस संविधान में अल्पसंख्यकों को विशेषाधिकार हैं, लेकिन अल्पसंख्यक की परिभाषा नहीं। विधि के समक्ष समता है, लेकिन तमाम वर्गीय विशेषाधिकार भी है। पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे कानून भी हैं। उद्देश्यिका में संविधान का दर्शन है, लेकिन वह प्रवर्तनीय नहीं। राज्य के नीति निर्देशक तत्व प्यारे हैं, लेकिन वे भी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं। समान नागरिक संहिता महान आदर्श है लेकिन इसके लागू होने की व्यवस्था नहीं। हिंदी राजभाषा है, पर अंग्रेजी का प्रभुत्व है। जम्मू-कश्मीर संबंधी अनुच्छेद 370 शीर्षक में ही अस्थायी शब्द है, लेकिन 63 बरस हो गए, वह स्थायी है। संविधान की मूल प्रति में श्रीराम, श्रीकृष्ण सहित 23 चित्र थे। राजनीति उन्हें काल्पनिक बताती है। केंद्र द्वारा प्रकाशित संविधान की प्रतियों में वे गायब हैं। भारत का संविधान किसी क्रांति का परिणाम नहीं है। ब्रिटिश सत्ता ने पराजित कौम की तरह भारत नहीं छोड़ा। स्वाधीनता भी ब्रिटिश संसद के भारतीय स्वतंत्रता कानून 1947 से मिली। भारतीय संविधान में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित 1935 के अधिनियम की ही ज्यादातर बाते हैं। ब्रिटिश संसद ने 1892, 1909, 1919 तक बार-बार नए अधिनियम बनाए। वे भारत पर शासन के अपने औचित्य को कानूनी व लोकतंत्री जामा पहना रहे थे। 1935 उनका आखिरी अधिनियम था। भारत ने भारत शासन अधिनियम 1935 को आधार बनाकर गलती की। आरोपों के उत्तर में डॉ. अंबेडकर ने बताया कि उनसे इसी अधिनियम को आधार बनाने की अपेक्षा की गई है। भारत की संसदीय व्यवस्था, प्रशासनिक तंत्र व प्रधानमंत्री ब्रिटिश व्यवस्था की उधारी है। भारत ने अपनी संस्कृति व जनगणमन की इच्छा के अनुरूप अपनी राजव्यवस्था नहीं गढ़ी। डॉ. अंबेडकर ने राजनीतिक चरित्र की ओर उंगली उठाई, अपने ही लोगों की कृतघ्नता और फूट के कारण स्वाधीनता गई। मोहम्मद बिन कासिम के हमले में राजा दाहर के सेनापति ने कासिम समर्थकों से घूस ली और युद्ध नहीं किया। जयचंद ने मोहम्मद गोरी को भारत पर आक्रमण करने व पृथ्वीराज से युद्ध करने का निमंत्रण दिया। शिवाजी हिंदू मुक्ति के लिए युद्ध कर रहे थे। अन्य मराठा व राजपूत सरदार मुगलों की तरफ से लड़ रहे थे। अंग्रेज सिखों को मिटा रहे थे, सिखों का मुख्य सेनापति गुलाब सिंह चुप बैठा रहा। क्या भारतवासी मत-मतांतर से राष्ट्र को श्रेष्ठ मानेंगे? अंबेडकर, गांधी, पटेल, राजेंद्र प्रसाद और ऐसे ही अन्य पूर्वज राष्ट्र सर्वोपरिता को लेकर बेचैन थे? संविधान और गणतंत्र संकट में हैं। संविधान सभा ने अपने तीन वर्ष के कार्यकाल में सिर्फ 63 लाख 96 हजार रुपये ही खर्च किये। जम कर बहस हुई, 2473 संशोधनों पर चर्चा हुई। आज संसद और विधानमंडलों के स्थगन शोरशराबे और करोड़ों रुपये के खर्च विस्मयकारी हैं। संविधान में सौ से ज्यादा संशोधन हो गए। संवैधानिक तंत्र विफल हो गया है। राजनीति भ्रष्ट उद्योग बन गई है। संविधान के शपथी जेल जा रहे हैं। अनेक जेल से चुनाव लड़ रहे हैं, जीत भी रहे हैं। निराशा की खाई गहरी है, राष्ट्रीय उत्सव अब उल्लास नहीं पाते। संवैधानिक संस्थाएं धीरज नहीं देतीं। आमजन हताश और निराश हैं। राजनीतिक अड्डों में ही गणतंत्र के उल्लास का जगमग आकाश है। 15-20 प्रतिशत लोग ही गणतंत्र के माल से अघाए हैं। बाकी 80 फीसदी लोग भुखमरी में हैं। बावजूद इसके अर्थव्यवस्था मनमोहन है और राजनीतिक व्यवस्था गणतंत्र विरोधी। गणतंत्र दिवस राष्ट्रीय आत्मचिंतन का पर्व होना चाहिए। (लेखक उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

संस्थाओं में सुधार

राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 63वें गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में संस्थाओं में सुधार लाने के लिए सतर्क रहने की जो हिदायत दी वह बिलकुल सही है। संस्थाओं और विशेष रूप से लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने वाली संस्थाओं में सुधार व्यापक विचार-विमर्श और जैसा कि राष्ट्रपति ने कहा, सतर्कता के साथ और दीर्घकालिक लक्ष्यों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए, लेकिन यह भी ठीक नहीं कि सुधार की प्रक्रिया इतनी शिथिल और जटिल हो कि वह आम जनता के धैर्य की परीक्षा लेती नजर आए। यह स्थिति इसलिए अस्वीकार्य है, क्योंकि देश यह महसूस कर रहा है कि वह अपेक्षित गति और क्षमता से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। खुद राष्ट्रपति ने यह कहा कि सामाजिक और आर्थिक एजेंडे पर आगे बढ़ने के लिए काफी जोरदारी से कार्य करने की आवश्यकता है। इससे इंकार नहीं कि एक गणतंत्र के रूप में भारत ने बहुत कुछ अर्जित किया है और इन उपलब्धियों की सराहना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी की जाती है, लेकिन अब यह भी एक स्थापित सत्य है कि हमारी संस्थाएं पर्याप्त क्षमता के साथ काम नहीं कर पा रही हैं और इसके चलते आम जनता की बेचैनी न केवल बढ़ती जा रही है, बल्कि वह विभिन्न रूपों में सामने भी आ रही है। कोई भी समाज और राष्ट्र समस्याओं से मुक्त नहीं हो सकता, लेकिन उनका सामना करने के नाम पर उनसे मुंह मोड़ते हुए भी नहीं दिखना चाहिए। आज ऐसा होता हुआ दिख रहा है और शायद इसीलिए हर चीज पर शंका करने की प्रवृत्ति सी हो गई है। नि:संदेह इस प्रवृत्ति के लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जिन पर व्यवस्था के संचालन की जिम्मेदारी है। यदि देश में यह भाव बढ़ रहा है कि इस जिम्मेदारी का निर्वाह सही तरह नहीं किया जा रहा तो इसके लिए आम जनता को दोष नहीं दिया जा सकता है। जनता यह देख भी रही है और महसूस भी कर रही है कि व्यवस्था का संचालन करने वाले उसका उपयोग अपने हित में अधिक कर रहे हैं। आखिर इस तथ्य से कौन इंकार कर सकता है कि व्यवस्था में शामिल लोगों ने सार्वजनिक रूप से बिना किसी संकोच यह कहा कि कानून बनाने का काम संसद का है और जनता को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए? इस कथन में स्पष्ट रूप से यह निहित था कि आम जनता का काम वोट देना और फिर पांच साल तक के लिए सब कुछ जनप्रतिनिधियों अथवा सरकार पर छोड़ देना है। आखिर यह कौन सा लोकतंत्र है जहां यह अपेक्षा की जा रही है कि वोट देने के बाद जनता अपने प्रतिनिधियों से सवाल-जवाब करने की भी कोशिश न करे? नि:संदेह लोकतंत्र वोट के जरिये संचालित होता है, लेकिन वोटों के लिए किसी को कुछ भी करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। जब शासन और उसकी संस्थाओं के फैसलों में आम जनता की भागीदारी होनी चाहिए तब उससे दूरी बनाने की कोशिश सामंती प्रवृत्ति के प्रदर्शन के अतिरिक्त और कुछ नहीं। बेहतर होता कि राष्ट्रपति राष्ट्र के नाम संबोधन के माध्यम से उन्हें भी कुछ हिदायत देतीं जो नीति-नियंता हैं, क्योंकि वही ऐसे वृक्ष बन गए हैं जो हिलाने के बावजूद अविचलित बने रहते हैं।
साभार:-दैनिक जागरण

अन्ना का सही सवाल

अन्ना हजारे और उनके साथियों की ओर से कांग्रेस, भाजपा और सपा, बसपा के प्रमुख नेताओं को चिट्ठी लिखकर यह जो पूछा गया कि आखिर उन्होंने भ्रष्टाचार अथवा आपराधिक मामलों में विचाराधीन लोगों को प्रत्याशी क्यों बनाया वह आम जनता का सवाल है। इस सवाल का जवाब सामने आना चाहिए, क्योंकि राजनीतिक दल चाहते तो बहुत आसानी से दागदार छवि वाले लोगों को किनारे कर सकते थे। आमतौर पर राजनीतिक दल ऐसे सवालों का सीधा जवाब देने के बजाय तरह-तरह के बहाने गढ़ते हैं। कभी कहते हैं कि जब तक अदालत किसी को दोषी न करार दे तब तक उसे चुनाव लड़ने से रोकना अन्यायपूर्ण है। कभी यह तर्क देते हैं कि जिन्हें दागदार बताया जा रहा है वह तो विरोधी दल की बदले की राजनीति का शिकार है। जब इससे भी काम नहीं चलता तो वे यह कहकर सारी जिम्मेदारी जनता के सिर डाल देते हैं कि उसके पास दागदार उम्मीदवारों को वोट न देने का अधिकार है। चूंकि ऐसे ज्यादातर प्रत्याशी जाति-उपजाति अथवा मजहब के नाम पर चुनाव लड़ते हैं इसलिए आम जनता के समक्ष उनकी अच्छी-बुरी छवि कोई मुद्दा ही नहीं होती। इसके चलते बड़ी संख्या में दागदार प्रत्याशी जाति, उपजाति, मजहब, क्षेत्र आदि का सहारा लेकर जीत हासिल करने में समर्थ हो जाते हैं। यह निराशाजनक है कि उत्तर प्रदेश में इस बार शुद्ध जातीय, मजहबी आधार पर चुनाव लड़े जा रहे हैं। इन स्थितियों में यह आवश्यक हो जाता है कि आम जनता चेते और प्रत्याशियों के चयन में सावधानी बरते। इसकी अपेक्षा करना व्यर्थ है कि राजनीतिक दल दागदार लोगों को अपने से अलग करेंगे। वे ऐसा तब तक नहीं करने वाले जब तक दागी छवि वाले लोग चुनाव जीत सकने की क्षमता से लैस बने रहेंगे। टीम अन्ना ने समाजवादी पार्टी से कुछ अलग हटकर यह सवाल भी पूछा है कि वह यह बताए कि सरकार किसके साथ मिलकर बनाएगी? यह सवाल इसलिए पूछना पड़ा, क्योंकि आम धारणा यह है कि चुनाव बाद समाजवादी पार्टी सरकार बनाने के लिए कांग्रेस से हाथ मिला सकती है। यदि ऐसा हुआ, जिसके आसार भी दिख रहे हैं तो यह आम जनता के साथ एक किस्म की धोखाधड़ी होगी। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि चुनाव प्रचार के दौरान एक-दूसरे के कट्टर विरोधी नजर आने वाले दल चुनाव परिणाम के बाद एक-दूसरे से हाथ मिला लें? भले ही इस तरह के मेलमिलाप अथवा तालमेल को गठबंधन राजनीति के आवरण से ढक दिया जाता हो, लेकिन यह राजनीतिक अवसरवादिता के अलावा और कुछ नहीं। गठबंधन राजनीति के नाम पर राजनीतिक दलों को जनादेश को ठुकराने और उसकी मनमानी व्याख्या करने की इजाजत नहीं दी सकती। इस पर आश्चर्य नहीं कि राजनीतिक दल न तो दागदार लोगों को गले लगाने से इंकार कर रहे हैं और न ही गठबंधन राजनीति के नियम-कायदे तय करने के लिए तैयार हो रहे हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि आम जनता अपने अधिकारों को लेकर उतनी सचेत नहीं हो रही जितना उसे अब तक हो जाना चाहिए। देखना है कि टीम अन्ना के सवाल उसे सचेत करने में सहायक बन सकेंगे या नहीं? यदि इस सवाल का सकारात्मक जवाब नहीं आता तो आम जनता के साथ-साथ लोकतंत्र भी घाटे में रहेगा।
साभार:-दैनिक जागरण

दम तोड़ता एक और आश्वासन

नए वर्ष में ईमानदार और सक्षम सरकार देने के प्रधानमंत्री के भरोसे को टूटता हुआ देख रहे हैं राजीव सचान

नव वर्ष की पूर्व संध्या पर जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देशवासियों को शुभकामनाएं देते हुए यह कहा था कि अब वह ईमानदार और सक्षम सरकार देंगे तो लोगों को कुछ-कुछ यह भरोसा हुआ था कि स्थितियों में बदलाव देखने को मिल सकता है। इसका एक कारण यह था कि पिछला वर्ष केंद्रीय सत्ता की नाकामी का रहा और प्रधानमंत्री का कथन कहीं न कहीं यह आभास दे रहा था कि उन्हें अपनी असफलताओं का भान है। उन्हें ऐसा आभास होना भी चाहिए था, क्योंकि भारतीय मीडिया के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए विवश था कि मनमोहन सरकार की छवि लगातार गिरती चली जा रही है, लेकिन अब इसके आसार कम ही नजर आ रहे हैं कि इस छवि में हाल-फिलहाल कोई सुधार हो सकेगा। इसके कुछ ठोस कारण हैं। बात चाहे सेनाध्यक्ष द्वारा केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट में खींचने की हो या ऊर्जा क्षेत्र से संबंधित चुनिंदा उद्योगपतियों के एक समूह की ओर से प्रधानमंत्री के समक्ष गुहार लगाने की या फिर विशिष्ट पहचान संख्या देने की परियोजना को लेकर योजना आयोग और गृहमंत्रालय के बीच छिड़ी खींचतान की-ये सारे मामले यही बता रहे हैं कि प्रधानमंत्री के लिए सक्षम सरकार देना मुश्किल हो रहा है। यदि उपरोक्त मामलों को केंद्र सरकार की नाकामी के रूप में न देखा जाए तो भी ये मामले उसकी छवि को प्रभावित करने वाले हैं। हाल के जिस एक मामले ने भारत सरकार की राष्ट्रीय से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय छवि बुरी तरह प्रभावित की है वह विख्यात लेखक सलमान रुश्दी के भारत न आ पाने का है। केंद्र सरकार और कांग्रेस की मासूम सी सफाई यह है कि अगर रुश्दी ने भारत न आने का निर्णय लिया तो इसमें हम कुछ नहीं कर सकते, लेकिन अब देश और दुनिया इससे अवगत हो गई है कि उन्हें भारत आने से रोकने के लिए हर संभव जतन किए गए-यहां तक कि उनसे झूठ भी बोला गया। रुश्दी को डराने के लिए न केवल यह कहानी गढ़ी गई कि उन्हें मारने के लिए सुपारी दे दी गई है, बल्कि सुपारी लेने वाले भाड़े के दो हत्यारों के नाम भी खोज लिए गए। रुश्दी को जयपुर पुलिस की ओर से दी गई सूचना के अनुसार, उनकी हत्या की सुपारी मुंबई के माफिया ने दी है और भाड़े के हत्यारे जयपुर के लिए निकल भी लिए हैं। रुश्दी ने जैसे ही इस सूचना को सार्वजनिक करते हुए जयपुर न आने का फैसला किया, मुंबई पुलिस ने ऐसी किसी साजिश से पल्ला झाड़ लिया। हालांकि राजस्थान के मुख्यमंत्री अपनी पुलिस का बचाव कर रहे हैं, लेकिन हर कोई जान रहा है कि वह झूठ का सहारा लेकर सच को छिपा रहे हैं। देश-दुनिया को यह संदेश जा चुका है कि भारत सरकार ने रुश्दी को जयपुर न आने देने के लिए हर संभव जतन किए और अंतत: अपने मकसद में कामयाब हुई। यह लगभग तय है कि केंद्र सरकार अभी भी यही दावा करेगी कि रुश्दी मामले से उसका कोई लेना-देना नहीं, लेकिन दुनिया को जो संदेश जा चुका है वह वापस नहीं होने वाला। इस प्रकरण से भारत सरकार के मुख पर कालिख पुत गई। नि:संदेह इसलिए नहीं कि रुश्दी भारत नहीं आ सके, बल्कि इसलिए कि उन्हें भारत आने से रोकने के लिए सरकार के स्तर पर छल किया गया। यह जांच का विषय हो सकता है कि यह छल अकेले राजस्थान सरकार ने किया या फिर उसमें केंद्र सरकार भी शामिल थी, लेकिन किसी को भी यह समझने में कठिनाई नहीं हो रही कि केंद्रीय सत्ता भी वही चाह रही थी जो राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत चाह रहे थे। अंतरराष्ट्रीय लेखक बिरादरी के लिए रुश्दी बड़े साहित्यकार हैं। मुस्लिम जगत के बीच वह जितने बदनाम हैं, बुद्धिजीवियों के संसार में उनका उतना ही नाम है। इसमें दोराय नहीं हो सकती कि अपनी विवादास्पद कृति सैटनिक वर्सेस के जरिये उन्होंने मुस्लिम समुदाय को नाराज किया है और उसे अपनी नाराजगी जाहिर करने का अधिकार अभी भी है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं हो सकता कि उन्हें अपने देश ही न आने दिया जाए। भारत सरकार ने राजस्थान सरकार की आड़ लेकर ऐसा ही किया। यह संभव है कि सलमान रुश्दी के भारत न आ पाने से उन्हें और उनके जैसे लेखकों की पुस्तकें न पढ़ने वाली भारत की विशाल जनसंख्या पर कोई असर न पड़े, लेकिन उन बुद्धिजीवियों के बीच तो मनमोहन सरकार की भद पिट ही गई जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी छीज गई छवि में कुछ पैबंद लगा सकते थे। प्रधानमंत्री और उनके सलाहकारों को यह अच्छी तरह पता होना चाहिए था कि यदि रुश्दी को भारत नहीं आने दिया गया तो इसकी देश से ज्यादा चर्चा विदेश में होगी। ऐसा हो भी रहा है और इससे मनमोहन सिंह की बची-खुची साख पर नए सिरे से बट्टा लग रहा है। हाल ही में प्रधानमंत्री ने अपना नया मीडिया सलाहकार नियुक्त किया है। हरीश खरे की जगह पंकज पचौरी ने ली है। माना जा रहा है कि हरीश खरे को इसलिए जाना पड़ा, क्योंकि वह प्रधानमंत्री की छवि का निर्माण करने में सक्षम नहीं रहे। पता नहीं सच क्या है, लेकिन यदि कोई यह सोच रहा है कि मीडिया सलाहकार साहस और निर्णय क्षमता का परिचय देने के बजाय हाथ पर हाथ रखकर बैठी रहने वाली किसी सरकार के मुखिया की छवि का निर्माण कर सकता है तो यह दिन में सपने देखने जैसा है। एक क्या सौ मीडिया सलाहकार भी वैसी सरकार के प्रमुख की छवि नहीं बचा सकते जैसी सरकार का नेतृत्व पिछले वर्ष मनमोहन सिंह ने किया है। यदि प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार उनकी छवि की रक्षा न कर पाने के लिए ही हटाए गए हैं तो यह और भी निराशाजनक है, क्योंकि इसका मतलब है कि वह यह मानकर चल रहे हैं कि उनके स्तर पर कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हो रही है। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

Sunday, January 22, 2012

राष्ट्रीय शर्म का विषय

विख्यात लेखक सलमान रुश्दी जिन कारणों से भारत नहीं आ सके वे भारत को दुनियाभर में शर्मिदा करने वाले हैं। एक सहिष्णु, पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र का भारत का दर्जा बुरी तरह प्रभावित हुआ है और इसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है केंद्रीय सत्ता। केंद्र सरकार ने अपनी अकर्मण्यता से अपने मुख पर नए सिरे से कालिख मल ली है। उसने उन परिस्थितियों को दूर करने के लिए तनिक भी कोशिश नहीं की जो सलमान रुश्दी के भारत आगमन में बाधक बन रही थीं। इसके बजाय उसने ऐसा प्रदर्शित करने की अतिरिक्त कोशिश की कि यदि रुश्दी भारत आए तो सुरक्षा व्यवस्था के लिए खतरा पैदा हो सकता है। उसने राजस्थान के मुख्यमंत्री को सार्वजनिक रूप से यह कहने की स्वतंत्रता और सुविधा प्रदान की कि रुश्दी को जयपुर साहित्य सम्मेलन में नहीं आना चाहिए। ऐसे मुख्यमंत्री को तो एक दिन के लिए भी अपने पद पर नहीं रहना चाहिए जो किसी को अपनी मातृभूमि आने से रोकने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दे। रुश्दी का भारत न आ पाना लज्जा की बात तो है ही, केंद्रीय सत्ता के कट्टरपंथ के आगे नतमस्तक होने का नया प्रमाण भी है। खेद की बात यह नहीं है कि रुश्दी जयपुर साहित्य सम्मेलन में शिरकत नहीं कर सके, बल्कि यह है कि अपने देश आने के उनके अधिकार पर कट्टरपंथी ताकतों ने कब्जा कर लिया। यह कब्जा इसलिए हुआ, क्योंकि केंद्र सरकार ने खुशी-खुशी उनके समक्ष समर्पण कर दिया। केंद्र सरकार इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकती कि सलमान रुश्दी अपनी विवादास्पद पुस्तक प्रतिबंधित होने के बाद कई बार भारत आ चुके हैं। यही नहीं वह जयपुर साहित्य सम्मेलन में भी शिरकत कर चुके हैं। सारी दुनिया यह जान रही है कि इस बार वह इस सम्मेलन में सिर्फ इसलिए नहीं आ सके, क्योंकि केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व कर रही कांग्रेस विधानसभा चुनावों में मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। इसमें दोराय नहीं कि रुश्दी विवादास्पद लेखक हैं और मुस्लिम समाज का एक बड़ा तबका उन्हें पसंद नहीं करता। इस तबके को रुश्दी को नापसंद करने, उनके लेखन को खारिज करने और यहां तक कि उनकी भारत यात्रा के विरोध में धरना-प्रदर्शन करने का अधिकार है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उसे भारतीय मूल के इस लेखक को अपने देश आने से रोकने का भी अधिकार मिल गया है। बेहतर होता कि रुश्दी भारत आने का साहस जुटाते और केंद्र सरकार उनकी सुरक्षा के हरसंभव उपाय करती। कांग्रेस यह कहकर देश को गुमराह नहीं कर सकती कि रुश्दी का भारत न आना उनका अपना निर्णय है। वह इस निर्णय पर इसलिए पहुंचे, क्योंकि केंद्र सरकार ने एक बार भी यह कहने की हिम्मत नहीं जुटाई कि वह उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करेगी। हो सकता है कि कट्टरपंथियों के मन की मुराद पूरी करने से कांग्रेस को कुछ अतिरिक्त वोट मिल जाएं, लेकिन अब उसे यह कहना बिलकुल भी शोभा नहीं देगा कि वह कट्टरपंथियों से मुकाबले को तैयार है। कांग्रेस ने अपनी बदनामी तो कराई ही है, देश की प्रतिष्ठा पर दाग लगाने का भी काम किया है। रुश्दी के भारत न आने से लेखक बिरादरी नाराज है, लेकिन यह खेदजनक है कि सरकार के रवैये पर नाराजगी जताने वाले कलम के सिपाही मुट्ठी भर भी नहीं हैं।
साभार:-दैनिक जागरण

सलमान रुश्दी के बहाने

ऐन वक्त पर रुश्दी की भारत यात्रा के रद होने को कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण का परिणाम बता रहे हैं एस शंकर

सलमान रुश्दी की सटैनिक वर्सेस 1988 में प्रकाशित हुई थी। 1989 में उसे लेकर ईरानी राष्ट्रपति अयातुल्ला खुमैनी ने रुश्दी को मार डालने का फतवा दिया। इसके बाद नौ वर्ष तक ब्रिटिश सरकार ने रुश्दी को सुरक्षा में रखा। फिर 1998 में ईरान की नई सरकार ने घोषणा की कि वह उस फतवे का अब समर्थन नहीं करती। धीरे-धीरे रुश्दी सार्वजनिक जीवन में भाग लेने लगे। अब तो लंबे समय से दुनिया के मुस्लिम जनमत ने भी उसे बीती बात मान लिया है। ऐसी स्थिति में नए सिरे से सलमान रुश्दी को जयपुर के अंतरराष्ट्रीय साहित्य सम्मेलन में भाग लेने से रोकने की दारुल उलूम की मांग कुछ विचित्र है। रुश्दी ने कोई नया अपराध नहीं किया है। 23 वर्ष पूर्व लिखी उस पुस्तक पर वह पहले ही लगभग दस वर्ष तक कैदी-सा जीवन नाहक बिता चुके हैं। अब जब उस प्रसंग को सभी पक्ष अलग-अलग कारणों से अतीत मान चुके हैं, तब यहां उलेमा द्वारा उसे उभारने का क्या अर्थ? पिछले 12 सालों में रुश्दी कई बार भारत आए-गए हैं। उन्होंने विविध मुद्दों पर लेख भी लिखे तथा उनके बयान भी आते रहे हैं। इनमें इस्लाम संबंधी बयान भी है। मसलन उन्होंने लिखा कि इस्लाम और आतंकवाद को पूरी तरह अलग-अलग करके देखने की जिद निरर्थक है। आखिर कोई चीज तो है जो इस्लामी अनुयायियों को आतंकवाद से जोड़ती है। वह क्या है? आदि। इन बातों पर भी मुस्लिम नेताओं ने कहीं हाय-तौबा नहीं मचाई। फिर अभी कौन-सा फितूर सूझा जो रुश्दी को भारत आने से रोकने की मांग की गई और सरकार के दब्बू रवैये के कारण यह मांग पूरी भी हो गई। संभवत: इसका संबंध उत्तर प्रदेश के चुनावी वातावरण से है। मुस्लिम वोटों के ठेकेदार यह समझते हैं कि अभी उनका बाजार भाव बढ़ा हुआ है। तो क्यों न अपनी शक्ति बढ़ाने की कोई जुगत भिड़ाई जाए! इसमें संदेह नहीं कि सार्वजनिक राजनीति में सांकेतिक जीतों का बड़ा महत्व होता है। रुश्दी को वीजा न देने की मांग करने वाले को इतनी भी समझ नहीं कि भारत में जन्मे और इसी मूल के होने के कारण रुश्दी को वीजा लेने की जरूरत ही नहीं। दिल्ली के एक इमाम साहब लंबे समय तक कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद को वह सलमान समझते रहे जिसने सटैनिक वर्सेस लिखी! ऐसे ही मुस्लिम नेताओं के दबाव पर हमारे कर्णधार मुंह चुरा कर उनकी ताकत और बढ़ाते हैं। रुश्दी के बहाने कुछ मुस्लिम नेता अपनी ताकत बढ़ाने में सफल होते दिख रहे हैं। उन्हें मालूम था कि इस चुनावी समय में उनका विरोध करने वाला कोई नहीं। उलटे सभी उन्हें खुश करने में लगे हैं। तब किसी लेखक को कहीं जाने से रोक देना कौन-सी बड़ी बात है! कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने पहले ही संकेत दे दिया था कि सुरक्षा कारणों से रुश्दी को जयपुर जाने से मना किया जा सकता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन मामलों पर कट्टरपंथियों को आसानी से फटकारा जा सकता था, वहां भी उनके सामने झुक कर हमारे नेता देश की मिट्टी पलीद करते हैं। अभी सरलता से कहा जा सकता था कि रुश्दी प्रसंग एक पीढ़ी से भी पुरानी बात हो चुकी। अरब विश्व में भी अब उसकी कोई बात नहीं करता। तब उसे उठाकर पुन: सांप्रदायिक वातावरण को बिगाड़ने का प्रयास नहीं होना चाहिए। किंतु ऐसे सरल मामलों में भी हमारे नेता घुटने टेक देते हैं। यह देश की सामाजिक एकता को चोट पहुंचाता है। इसमें सबसे दुखद भूमिका हमारे बुद्धिजीवियों की है। जो लोग हुसैन की गंदी पेंटिंगों, दीपा मेहता की अश्लील फिल्मों, जिस-तिस की हिंदू-विरोधी टिप्पणियों, लेखों आदि के पक्ष में सदैव तत्परता से बयान जारी करते हैं- वे सब सलमान रुश्दी पर मौन साधे बैठे हैं! वे लेखक, पत्रकार भी जो जयुपर सम्मेलन में सह-आमंत्रित हैं। यह प्रकरण फिर दिखाता है कि मुस्लिम कट्टरता पर बोलने से सभी कतराते हैं। यह सोची-समझी चुप्पी पहली बार नहीं देखी गई। इसके पीछे एक सुनिश्चित पैटर्न है। पहले भी तस्लीमा नसरीन, अय्यान हिरसी अली, सलमान तासीर, सुब्रह्ममण्यम स्वामी आदि की अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के लिए किसी सेक्युलर-लिबरल की आवाज सुनाई नहीं पड़ी। 22 वर्ष पहले भी केवल एक मुस्लिम नेता की मांग पर रुश्दी की पुस्तक किसी मुस्लिम देश से भी पहले यहां प्रतिबंधित हो गई। उसके लिए नियम-कायदों को भी ताक पर रख दिया गया। तब भी हमारे बुद्धिजीवी मौन थे। इसलिए हमें अपने बुद्धिजीवियों का दोहरापन पहचान लेना चाहिए। वे इस्लामी कट्टरवादियों के आगे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तुरत भुला देते हैं। रुश्दी, तसलीमा, हुसैन, रामानुजन आदि विविध प्रसंगों पर उनका रुख यह देख कर तय होता है कि किस समुदाय की भावना भड़की है? यदि किसी मूढ़ ने गलत समुदाय के नेताओं को क्रुद्ध कर दिया हो, तो वह कितना ही बड़ा लेखक, पत्रकार क्यों न हो- हमारे बुद्धिजीवी उसके लिए कुछ नहीं कर सकते! इस पक्षपाती रवैये से देश में सामाजिक सद्भाव बुरी तरह प्रभावित होता है। ऐसी मुंहदेखी चुप्पी से ही विभाजनकारी तत्वों को मौका मिलता है कि वे मजहब या भावना के नाम पर लोगों को बरगलाएं। हमारा राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग दोहरे मानदंड अपनाता है। इसका बार-बार प्रयोग होने से किसी समुदाय में अहंकार तो किसी में भेदभाव झेलने का रोष जमा होता है। दोरंगी दलीलें किसी को संतुष्ट नहीं करतीं। उनसे समाज पर बुरा प्रभाव पड़ता है। देश-हित में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सांप्रदायिक राजनीति पर समान मापदंड अपना कर लिखना, बोलना चाहिए। अन्यथा आज की सुविधाजनक चुप्पी कल स्वयं उनकी अपनी स्वतंत्रता को भी बाधित करेगी। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं )
साभार:-दैनिक जागरण

शिक्षा की दरकती बुनियाद

स्कूली शिक्षा की बदहाली उजागर करने वाले एक और सर्वेक्षण के बाद बड़े बदलाव की अपेक्षा कर रहे हैं डॉ. विशेष गुप्ता

विगत तीन माह में देश में स्कूली शिक्षा से जुड़ी तीन रिपोर्ट प्रस्तुत हुई हैं। उन सभी में भारतीय स्कूली शिक्षा पद्धति पर प्रश्नचिन्ह लगाए गए हैं। इनमें पहली रिपोर्ट कारपोरेट जगत यानि विप्रो और एजूकेशन इनीशिएटिव से जुड़ी है, जिसमें उन्होंने पाया कि देश के प्रसिद्ध स्कूलों तक का शिक्षा का स्तर अच्छा नहीं है, क्योंकि वे रटने-रटाने पर अधिक जोर देते हैं। दूसरी रिपोर्ट आर्थिक सहयोग और विकास संगठन की ओर से एक जांच परीक्षा के तहत प्रस्तुत की गई है। इसमें भारत को 73 देशों की सूची में अंतिम पायदान से पहले यानी 72 पर रखा गया है। इस सर्वे में भारत के आठवीं कक्षा के बच्चों का स्तर दक्षिण कोरिया के तीसरी कक्षा तक तथा चीन के दूसरी कक्षा के बच्चों के समान पाया गया। तीसरी सबसे ताजा रिपोर्ट एक गैर सरकारी संस्था प्रथम द्वारा एनुअल स्टेट्स आफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर)-2011 के रूप में तैयार की गई है। इसे हाल ही में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने जारी किया है। यह ग्रामीण भारत से जुड़े स्कूलों व उनमें अध्ययनरत बच्चों से जुड़ा देश का यह सबसे बड़ा वार्षिक सर्वेक्षण है। असर-2011 का निष्कर्ष यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूली बच्चों के नामांकन में पिछले एक साल में उल्लेखनीय वृद्धि के फलस्वरूप शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट दर्ज की गई है। हिंदी क्षेत्रों से जुड़े स्कूलों की स्थिति तो और भी चिंताजनक है। इस रिपोर्ट में साफ संकेत हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में 6 से 14 वर्ष की उम्र के 96 फीसदी से भी अधिक बच्चे स्कूलों में नामांकन कराने लगे हैं, परंतु सरकारी स्कूलों की तुलना में प्राइवेट स्कूलों में बच्चों का नामांकन लगातार बढ़ रहा है। रिपोर्ट के निष्कषरें से यह तथ्य भी संज्ञान में आया है कि ग्रामीण क्षेत्र में यदि प्राइवेट स्कूल उपलब्ध हैं तो माता-पिता वहीं बच्चों को प्रवेश दिलाना ज्यादा पसंद करते हैं। हालांकि गुजरात, पंजाब तथा दक्षिण के राज्यों में तुलनात्मक स्थिति में सुधार हुआ है। जहां तक बच्चों के गणित की समझ का प्रश्न है, इसमें सभी बच्चों का प्रदर्शन कमजोर हुआ है। यदि दक्षिण के कुछ राज्यों को छोड़ दें तो देश के अन्य राज्यों में सरकारी स्कूली शिक्षा की दशा निराशाजनक ही रही है। स्कूली शिक्षा की तीसरी सबसे बड़ी समस्या बच्चों की उपस्थिति को लेकर उजागर हुई है। बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति में 2007 की तुलना में 2011 में 7 से लेकर 9 फीसदी तक की कमी आई है। ट्यूशन पढ़ने के मामले में भी सरकारी स्कूलों की स्थिति बहुत खराब है। यह सर्वेक्षण आगे स्पष्ट करता है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षक-छात्र अनुपात में वृद्धि लगभग नगण्य रही है तथा ढांचागत सुविधाओं में भी कोई खास वृद्धि नहीं हो पाई है। स्कूलों में भवन की स्थिति आज भी ऐसी है कि जहां कई-कई कक्षाएं एक साथ लगानी पड़ रही हैं। हालांकि केंद्र सरकार ने देश में स्कूली शिक्षा की बदतर स्थिति के लिए राज्य सरकारों को दोषी ठहराया है। यह किसी हद तक इसलिए ठीक है, क्योंकि शिक्षा के ढांचे को सुधारने की जिम्मेदारी राज्यों की ही है, परंतु देखने में आया है कि शिक्षा का अधिकार कानून बनने के डेढ़ साल बाद भी राज्य सरकारें गंभीर नहीं हैं। देश में लाखों शिक्षकों के पद आज भी रिक्त पड़े हैं। ऐसी परिस्थितियों में देश में प्राथमिक शिक्षा की ढांचागत गुणवत्ता का अनुमान स्वत: ही लगाया जा सकता है। देश में प्राथमिक शिक्षा की बढ़ती मांग के अनुरूप अनुमानित बजट का जो प्रावधान किया जाता रहा है वह निश्चित ही इतना कम है कि राज्य सरकारें सदैव ही बजट की कमी का रोना रोते हुए अल्पवेतन अथवा ठेके पर शिक्षा कर्मियों की भर्ती करते हुए प्राथमिक शिक्षण की खानापूर्ति करती रही हैं। देश की आजादी के बाद हमारा यह स्वप्न था कि यहां बुनियादी शिक्षा अपने राष्ट्र की जड़ों से जुड़ते हुए अपने स्वदेशी मूल्यों, संस्कारों व परंपराओं का पोषण करेगी, परंतु यहां राष्ट्रीय विकास के लिए जिस विदेशी मॉडल का अनुकरण किया गया उससे हमारी मातृभाषा से जुड़ी प्राथमिक शिक्षा पृष्ठभूमि में चली गई और मैकाले शिक्षा पद्धति से जुड़ी अंग्रेजी शिक्षा आत्मसम्मान का साधन बन गई। यह आश्चर्य की बात है कि देश में सरकारी प्राथमिक शिक्षा की इतनी बदतर स्थिति होने के बावजूद भी देश की संसद को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून बनाने में छह दशक से भी अधिक लग गए। देश में बुनियादी शिक्षा के ढांचे के लगातार कमजोर होने का दुष्परिणाम यह हो रहा है कि उससे हमारी माध्यमिक व उच्च शिक्षा भी अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रही है। सही बात यह है कि प्राथमिक शिक्षा देश की रीढ़ है, माध्यमिक शिक्षा उस विकास की रीढ़ को स्तंभित करने का माध्यम है और उच्च शिक्षा राष्ट्र के विकास को उत्कृष्टता की ओर ले जाने वाली संस्था है। उच्च शिक्षा के स्तर पर भी भारत की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। देश के सरकारी स्कूलों से पब्लिक स्कूलों में बच्चों का लगातार पलायन तथा बढ़ती ट्यूशन की प्रवृत्ति देश की बुनियादी शिक्षा की दरकती दीवारों का संकेत है। इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि मध्यान्ह भोजन, यूनीफार्म, साइकिल और पाठ्य पुस्तकों के लालच से सरकारी स्कूलों में प्रवेश बढ़े हैं, परंतु क्या प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य मात्र स्कूलों में प्रवेश में वृद्धि तक ही सीमित रहना चाहिए। देश की प्राथमिक शिक्षा में योग्य व प्रतिबद्ध शिक्षकों और इसके बुनियादी तंत्र को श्रेष्ठता के आधार पर विकसित करने की जरूरत है। इसके अलावा पाठ्यक्रम को रोचक तथा उसे बच्चे के व्यक्तित्व तथा देश के स्वभाव के अनुकूल बनाने के साथ-साथ सड़ी गली सरकारी बुनियादी शिक्षा में नवीनता के साथ में बड़े परिवर्तन लाने की भी महती आवश्यकता है। (लेखक समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

निष्पक्षता पर सवाल

मायावती और हाथी की मूर्तियों को ढकने के चुनाव आयोग के फैसले को एकतरफा और अतार्किक मान रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश

इसमें संदेह नहीं कि निर्वाचन आयोग ने पिछले दो दशक के दौरान चुनावी प्रक्रिया को साफ-सुथरा बनाने और धनबल व बाहुबल पर अंकुश लगाने की दिशा में असाधारण कार्य किया है, लेकिन उसके हाल के कुछ निर्णयों पर ऐसे सवाल खड़े हुए हैं कि उसने राजनीतिक दलों से संबंधित मामलों में नीर-क्षीर ढंग से कार्य नहीं किया। चुनाव आयोग ने हाल में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती और बसपा के चुनाव चिह्न हाथी की मूर्तियों को ढकने का जो आदेश दिया उसकी आलोचना भी हुई और जगहंसाई भी। हाथी अगर बसपा का चुनाव चिह्न है तो साइकिल सपा का और हैंड पंप राष्ट्रीय लोकदल का। यदि हाथी को लोगों की निगाह से हटाना सही है तो साइकिल और हैंडपंप को क्यों नहीं? चुनाव आयोग का तर्क है कि मायावती की प्रतिमाओं और हाथी की मूर्तियों का निर्माण बसपा सरकार द्वारा जनता के धन से किया गया है। लिहाजा यह जरूरी है कि इन मूर्तियों को जनता की निगाहों से हटाया जाए, क्योंकि वे मतदाताओं को प्रभावित करने का काम कर सकती हैं। हैंड पंप और साइकिल इस श्रेणी में नहीं हैं। मुख्यमंत्री की मूर्तियों को ढकने के फैसले में तो कुछ तर्क हो सकता है, लेकिन हाथियों की मूर्तियों पर पर्दा डालने का आदेश देकर चुनाव आयोग कुछ ज्यादा ही दूर चला गया। आश्चर्य नहीं कि निर्वाचन आयोग का यह आदेश लोगों के बीच मजाक का विषय भी बन गया है। अगर एक क्षण के लिए यह मान भी लिया जाए कि चूंकि मायावती ने इन मूर्तियों के निर्माण में सरकारी कोष का इस्तेमाल किया है इसलिए चुनाव प्रक्रिया संपन्न होने तक उन्हें ढककर रखा जाना चाहिए ताकि इसका सत्तारूढ़ बसपा को चुनाव में अनुचित लाभ न मिल सके तो भी यह सवाल उठेगा कि यदि ये मूर्तियां सबके सामने होतीं अर्थात ढकी न गई होतीं तो क्या वास्तव में इसका अनुचित लाभ बसपा को मिलता? एक सवाल यह भी है कि यदि कोई राजनीतिक दल सत्ता में रहते हुए सार्वजनिक कोष से कोई निर्माण कराता है तो क्या उसे चुनाव के मौके पर लोगों की निगाह से दूर कर दिया जाना चाहिए? अगर वाकई ऐसा करना जरूरी है तो निर्वाचन आयोग को कांग्रेस पार्टी में कुछ गलत क्यों नजर नहीं आता जो सब कुछ नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों से जोड़ देती है? मार्च 2009 में चुनाव आयोग के समक्ष दर्ज कराई गई अपनी याचिका में मैंने आयोग का ध्यान इस ओर दिलाया था कि साढ़े चार सौ से अधिक सरकारी योजनाएं, कार्यक्रम और संस्थान एक पार्टी यानी कांग्रेस से जुड़े नेहरू-गांधी परिवार को समर्पित हैं। याचिका का मुख्य आधार यह था कि यद्यपि यह किसी सरकार का विशेषाधिकार है कि वह किसी संस्थान का नाम किसी ऐसे व्यक्ति के नाम पर रखे जिसे वह राष्ट्रीय या प्रांतीय स्तर का नेता मानती हो, लेकिन लाखों-करोड़ों लोगों के जीवन से जुड़ी सरकारी योजनाओं, जैसे पेयजल, आवास, वृद्धावस्था पेंशन, रोजगार गारंटी से संबंधित योजनाएं पूरी तरह अलग श्रेणी में आती हैं। यदि इन योजनाओं का नामकरण राजनीतिक तौर पर पूरी तरह निष्पक्ष नहीं होगा तो हमारे लोकतंत्र की पवित्रता खतरे में पड़ जाएगी और इससे राजनीतिक दल विशेष को चुनाव में अनुचित लाभ भी मिलेगा। मौजूदा समय इस तरह की योजनाओं का जैसा नामकरण होता है उससे नागरिकों को यह अनुभूति कराने की कोशिश की जाती है कि उन्हें रहने के लिए जो घर मिल रहा है अथवा बिजली या पेयजल मिल रहा है या फिर बच्चों के रहने के लिए ठिकाना या वृद्धों को पेंशन मिल रही है वह एक परिवार और एक राजनीतिक दल की कृपा के कारण है। इस स्थिति में यह दावा कैसे किया जा सकता है कि चुनाव में सभी राजनीतिक दलों को समान धरातल पर लाने के सिद्धांत का पालन किया जाएगा? चुनाव आयोग ने मेरी याचिका खारिज कर दी। आयोग ने कहा कि अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए उसके लिए यह उचित नहीं कि वह गैर-चुनावी अवधि में कल्याणकारी योजनाएं लागू करने के केंद्र अथवा राज्य सरकारों के सामान्य कामकाज पर दखल दे। चुनाव के दौरान जब आचार संहिता लागू होती है तो आयोग यह सुनिश्चित करता है कि उसका समुचित पालन हो। अगर गैर-चुनाव अवधि में कल्याणकारी योजनाओं का नामकरण केंद्र और राज्य सरकार का सामान्य कामकाज है तो यह कहने की जरूरत नहीं कि मायावती सरकार ने दलित चिंतकों और महापुरुषों के बलिदान का स्मरण करने के लिए उनकी जो मूर्तियां स्थापित कीं वह भी उसका सामान्य कामकाज है। फिर आयोग यह भी कहता है कि जब आचार संहिता लागू होती है तो वह इसका अनुपालन सुनिश्चित करने का कार्य करता है। मौजूदा मामले में आचार संहिता लागू करने के लिए आयोग ने मायावती और हाथियों की मूर्तियों को ढकने का आदेश दे दिया, लेकिन उसे इसी आधार पर केंद्र सरकार को भी यह निर्देश देना चाहिए कि वह केंद्रीय योजनाओं से नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों के नाम हटाए। यह समझना कठिन है कि हाथियों की मूर्तियां तो समान धरातल के सिद्धांत पर अमल में बाधक हैं, लेकिन राजीव गांधी और इंदिरा गांधी के नाम पर चलाई जा रही केंद्रीय योजनाओं में 1.50 लाख करोड़ रुपये का निवेश गलत क्यों नहीं है? चुनाव आयोग के तर्क के आधार पर तो उचित यह होगा कि केंद्रीय योजनाओं के लिए स्थाई तौर पर यह सुनिश्चित किया जाए कि उनका नामकरण राजनीतिक रूप से निष्पक्ष हो। मायावती सरकार इसलिए श्रेय की हकदार है कि उसने संविधान के निर्माण में महान योगदान देने वाले डा. बीआर अंबेडकर के सम्मान में स्मारकों का निर्माण कराया। केंद्र में ज्यादातर समय राज करने वाली कांग्रेस ने कभी भी उन्हें वह सम्मान नहीं दिया जिसके वह हकदार हैं। इसके विपरीत वह एक परिवार के महिमामंडन में इस हद तक आगे चली गई कि उसने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति के छात्रों को दी जाने वाली छात्रवृत्ति का नाम डा. अंबेडकर के बजाय राजीव गांधी के नाम पर रख दिया। इसमें कोई संदेह नहीं कि मायावती सरकार डॉ. अंबेडकर को दिए गए सम्मान के लिए बधाई की पात्र है, लेकिन विभिन्न स्थानों पर खुद मायावती और बसपा के चुनाव चिह्न हाथी की मूर्तियां स्थापित करने के फैसले की सराहना नहीं की जा सकती। फिर भी चुनाव आयोग को इस सवाल से जूझना ही होगा कि जब बात कांग्रेस पार्टी की आती है तो वह इतनी मजबूती से काम क्यों नहीं कर पाता? (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

सुस्ती का नया सबूत

यह शुभ संकेत नहीं कि देश के प्रमुख उद्यमियों को ऊर्जा क्षेत्र की समस्याओं के समाधान के लिए सरकार से गुहार लगानी पड़े। दुर्भाग्य से उन्हें ऐसा करना पड़ा और इससे एक बार फिर यह सिद्ध हो गया कि केंद्रीय सत्ता जरूरी आर्थिक फैसले नहीं ले पा रही है। यह विचित्र है कि ईंधन की कमी, आयातित कोयले के मूल्य निर्धारण, कोयला आधारित बिजली परियोजनाओं में देरी और पर्यावरण एवं वन मंजूरी में विलंब आदि मुद्दों पर उद्यमी तो चिंतित हैं, लेकिन सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है। इससे भी विचित्र है कि जब आर्थिक मामलों में सरकार की सुस्ती का उल्लेख किया जाता है तो ऐसा करने वालों को या तो गलत ठहराया जाता है या फिर उन्हें उतावलापन न दिखाने की नसीहत दी जाती है। हालांकि आर्थिक मामलों में केंद्र सरकार की ओर दिखाई जा रही शिथिलता को हर कोई रेखांकित कर रहा है, लेकिन सरकार के नीति-नियंता ऐसा जाहिर कर रहे हैं जैसे उनके स्तर पर कहीं कोई खामी नहीं। वे या तो वैश्विक परिस्थितियों की ओर संकेत करते हैं या फिर विपक्ष को दोष देते हैं। इससे इंकार नहीं कि अमेरिका और यूरोपीय देशों की दुर्बल आर्थिक स्थिति ने भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है और केंद्रीय सत्ता को नीतिगत आर्थिक मामलों में विपक्ष का अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पा रहा है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सरकार अपना काम सही तरीके से कर रही है। नववर्ष की पूर्व संध्या पर प्रधानमंत्री ने जिस तरह देश को यह आश्वासन दिया था कि अब वह एक ईमानदार और सक्षम सरकार देंगे उससे यही स्पष्ट हुआ था कि केंद्रीय सत्ता आर्थिक सुधारों की दिशा में आगे नहीं बढ़ सकी। इसके एक नहीं अनेक प्रमाण भी सामने आ चुके हैं। निराशाजनक यह है कि आर्थिक मामलों के साथ-साथ अन्य अनेक क्षेत्रों में भी वह जरूरी फैसले नहीं ले पा रही है। केंद्रीय सत्ता की निर्णय लेने की क्षमता उसके दोबारा सत्ता में आने के साथ ही बुरी तरह प्रभावित दिख रही है। रही-सही कसर एक के बाद एक सामने आए घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों ने पूरी कर दी। इसकी पुष्टि वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी की ओर से गत दिवस दिए गए इस बयान से भी होती है कि वह इस समय अपने आपको उसी स्थिति में पाते हैं जैसे पिछले वर्ष इसी समय थे। अब केंद्र सरकार की ओर से यह संकेत दिए जा रहे हैं कि आगामी आम बजट में सब कुछ दुरुस्त कर लिया जाएगा, लेकिन यह आसान नहीं होगा। इसका एक प्रमुख कारण तो यह है कि लंबित आर्थिक फैसलों की सूची बहुत लंबी हो गई है और दूसरे, केंद्र सरकार की अंदरूनी उठापटक समाप्त होने का नाम नहीं ले रही है। स्थिति यह है कि कुछ महत्वपूर्ण फैसले सिर्फ इसलिए अटके पड़े हुए हैं, क्योंकि संबंधित केंद्रीय मंत्रालयों में सहमति नहीं बन पा रही है। कुछ मामलों में तो मंत्रिसमूह के गठन के बावजूद सहमति नहीं बन पा रही है। अभी तक यह माना जा रहा था कि तमाम विपरीत परिस्थिति के बावजूद मौजूदा वित्त वर्ष में आर्थिक वृद्धि दर सात प्रतिशत के ऊपर रहेगी, लेकिन अब उसके सात फीसदी से कम रहने की आशंका उभर आई है। विश्व बैंक की मानें तो चालू वित्त वर्ष के दौरान भारत की आर्थिक वृद्धि दर 6.8 प्रतिशत ही रह पाएगी। इसके लिए विश्व बैंक ने जिन कारणों को रेखांकित किया है उनमें प्रमुख है नीतिगत सुधारों के मामले में भारी अनिश्चितता। सरकार चाहे जैसा दावा क्यों न करे, उसके तौर-तरीकों से यह नहीं लगता कि अनिश्चितता का यह दौर समाप्त होने वाला है।
साभार:-दैनिक जागरण

फौजी के सम्मान का सवाल

सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह की उम्र से संबंधित विवाद के लिए सरकार को जिम्मेदार मान रहे हैं प्रदीप सिंह
क्या थल सेना अध्यक्ष जनरल वीके सिंह अपने पद से इस्तीफा देंगे? क्या सरकार उन्हें बर्खास्त करेगी? क्या दोनों के बीच कोई समझैता होगा? क्या इतनी दूर तक जाने के बाद सेना अध्यक्ष किसी समझौते के लिए तैयार होंगे? या दोनों सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करेंगे। पूरा देश जानना चाहता है कि आखिर सरकार ने इस बारे में अब तक कोई फैसला क्यों नहीं लिया? क्यों उसने ऐसी परिस्थिति पैदा की कि देश के सेनाध्यक्ष को न्याय और अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए देश की सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा। क्या जो रहा है उसे टाला नहीं जा सकता था? क्या सरकार ने जो अब तक किया है उसके अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं था? ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब पूरा देश जानना चाहता है। सब तरफ सवाल हैं जवाब कहीं से नहीं आ रहा। एक सेनाध्यक्ष जिसकी बहादुरी और निष्ठा की कसम उसके विरोधी भी खाते हैं, जिसने उच्च सैन्य अधिकारियों के भ्रष्टाचार से भारतीय सेना की धूमिल होती छवि को सुधारने के लिए सख्त कदम उठाए, जो सेना के भीतर से भ्रष्टाचार से कामयाबी से लड़ रहा है उसके साथ ऐसा क्यों हो रहा है। क्या जनरल वीके सिंह अपने राजनीतिक आकाओं के लिए समस्या बन गए हैं? क्या भारत के सेना अध्यक्ष अपना कार्यकाल बढ़ाने के लिए यह सब कर रहे हैं? ऐसा मानने वालों की भी कमी नहीं हैं। ऐसा मानने वालों का आरोप है कि वे अपने निजी लाभ के लिए सेना जैसे संस्थान की प्रतिष्ठा गिरा रहे हैं। ऐसे लोगों का मानना है कि जनरल वीके सिंह को अपने पद से इस्तीफा देने के बाद मामले को अदालत में ले जाना चाहिए था। उनके करीबियों का मानना है कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया है जिसकी वजह से उन्हें इस्तीफा देना चाहिए। पूर्व सैन्य अधिकारियों का एक बड़ा वर्ग जनरल वीके सिंह के साथ खड़ा है। सरकार को भी पता है कि जनरल वीके सिंह अपनी जन्मतिथि के बारे में जो कह रहे हैं वह सही है। उनका जन्म पूना के सैनिक अस्पताल में हुआ। उनके पिता भी सेना में थे। उनके हाई स्कूल के सर्टीफिकेट में भी उनके जन्म का वर्ष 1951 ही दर्ज है। उन्हें राष्ट्रपति के जितने मेडल मिले हैं उन पर भी यही लिखा है। सेना के अधिकारियों का सारा रेकार्ड रखने वाले एजी (एडजुटेंट जनरल) ऑफिस में भी उनकी जन्मतिथि दस मई 1951 ही है। देश के चार मुख्य न्यायाधीशों (जिनमें न्यायमूर्ति जेएस वर्मा भी शामिल हैं) ने सेना को भेजी अपनी लिखित राय में जनरल वीके सिंह के पक्ष को सही माना है। सरकार का कहना है कि थल सेना अध्यक्ष बनने से पहले उन्होंने अपनी जन्मतिथि 10 मई, 1950 स्वीकार कर ली थी। अब दो सवाल उठते हैं। क्या सरकार के पास ऐसा कोई दस्तावेज है? दूसरा सवाल कि किसी की जन्मतिथि का फैसला दस्तावेजों के आधार पर होगा या उस व्यक्ति की स्वीकृति के आधार पर। सरकार ने अभी तक ऐसा कोई दस्तावेज पेश नहीं किया है- सिवाय उस पत्र के जिसमें जनरल वीके सिंह ने कहा है कि संस्था के हित में वह अपने सेनाध्यक्ष (जनरल दीपक कपूर) का आदेश मानने को तैयार हैं। यह पत्र उन्होंने उस समय लिखा था जब उनसे कहा गया कि उनके अड़ने की वजह से थल सेना में अधिकारियों की तरक्की रुक जाएगी। उन्हें आश्वस्त किया गया कि सेना की कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी के जरिए इसका न्यायोचित समाधान हो जाएगा, लेकिन उसके बाद रक्षा मंत्रालय ने इस संबंध में कुछ नहीं किया। मंत्रालय ने इस संबंध में उनकी वैधानिक याचिका खारिज कर दी। सुप्रीम कोर्ट में दायर अपनी याचिका में जनरल वीके सिंह ने कहा है कि उन्हें सम्मान के साथ रिटायर होने का अधिकार है। सरकार ने एक कैविएट दाखिल करके कहा है कि इस मामले में उसका पक्ष सुने बिना अदालत कोई फैसला न करे। अब प्रधानमंत्री खुद इस मामले को देख रहे हैं। सवाल है कि सरकार को जनरल वीके सिंह की बात मामने में ऐतराज क्या है? सरकार की ओर से कोई बात इस संबंध में नहीं कही गई है, पर अटार्नी जनरल की राय से इसका संकेत मिलता है। अटार्नी जनरल ने अपनी राय में कहा है कि जनरल वीके सिंह की जन्मतिथि 10 मई 1951 मानने से पहले से तय सक्सेशन चेन (उत्तराधिकार की श्रृंखला) गड़बड़ा जाएगी। दरअसल जनरल जेजे सिंह ने 2006 में रिटायर होने से पहले तय कर दिया था कि उत्तराधिकार की श्रृंखला क्या होगी। इसके जवाब में जनरल सिंह का प्रस्ताव था कि सरकार उत्तराधिकार की श्रृंखला को बरकरार रखे। सरकार उनकी जन्मतिथि 1951 मान ले और वह 2013 के बजाय 2012 में पद छोड़ने को तैयार हैं। जनरल वीके सिंह का कहना था कि अगर वह सरकार की बात मानकर अपनी जन्मतिथि 10 मई 1950 मान लेते हैं तो फौजियों और आम जनता की नजर में झूठे साबित हो जाएंगे। लोग कहेंगे कि वह चालीस साल तक झूठ बोलते रहे। सरकार ने इस प्रस्ताव को क्यों नहीं माना, इस बारे में कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है। केंद्र की संप्रग सरकार की समस्या यह है कि वह पहले अपने लिए गड्ढा खोदती है और उसमें गिरने के बाद निकलने के उपाय खोजती है। इस मामले में भी यही हो रहा है। पूरे देश में जिस मुद्दे पर बहस चल रही है उस पर सरकार तब जागी है जब जनरल वीके सिंह सुप्रीम कोर्ट चले गए। सरकार ने उनके सामने कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा। भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ने वाले जनरल के सम्मान को ठेस पहुंचाकर सरकार क्या संदेश देना चाहती है। सरकार और सेनाध्यक्ष की यह लड़ाई सेना बनाम नागरिक प्रशासन बनती जा रही है। यह जनतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। सरकार सेना जैसी मजबूत संस्था को तो कमजोर कर ही रही है, अपनी प्रतिष्ठा को भी चोट पहुंचा रही है। इससे सेना का मनोबल प्रभावित हो सकता है। सरकार के लिए अब जनरल वीके सिंह को बर्खास्त करना आसान नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाकर जनरल ने भी साफ कर दिया है कि वह इस मुद्दे का निपटारा होने से पहले इस्तीफा देने के मूड में नहीं हैं। जनरल वीके सिंह एक फौजी के सम्मान के लिए लड़ रहे हैं। वह उस कसम की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं जो उन्होंने हर फौजी की तरह खाई थी कि झूठ नहीं बोलेंगे, चोरी नहीं करेंगे और किसी और को ऐसा करने भी नहीं देंगे। सरकार इस बात को समझ ले तो मामला अब भी सुलझ सकता है, पर सवाल है कि क्या सरकार इसके लिए तैयार है? (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

शिक्षा के साथ खिलवाड़

ग्रामीण इलाकों में छह से चौदह वर्ष के बच्चों की शिक्षा पर जारी रपट ने जो तस्वीर पेश की है वह जितनी चिंताजनक है उतनी ही निराशाजनक। मानव संसाधन विकास मंत्री की ओर से जारी इस रपट के अनुसार कई राज्यों में कक्षा पांच के छात्र कक्षा दो की पुस्तक मुश्किल से पढ़ पा रहे हैं और तीसरी कक्षा के छात्रों को सामान्य जोड़-घटाव करने में भी कठिनाई पेश आ रही है। इसका सीधा मतलब है कि राज्य सरकारें और उनका तंत्र अपने बुनियादी दायित्व को पूरा करने के लिए गंभीर नहीं। इस पर संतोष जताने का कोई मतलब नहीं कि ग्रामीण इलाकों में 96 प्रतिशत छात्रों ने दाखिला ले लिया है, क्योंकि न तो उनकी उपस्थिति संतोषजनक है और न ही पढ़ाई-लिखाई का स्तर। पढ़ाई-लिखाई के स्तर को सुधारने की कहीं कोई गंभीर कोशिश नहीं हो रही, इसका प्रमाण यह है कि अभिभावक सरकारी स्कूलों से तौबा कर अपने बच्चों का दाखिला निजी स्कूलों में करा रहे हैं और जो ऐसा नहीं कर पा रहे वे अपने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने की जरूरत महसूस कर रहे हैं। यह शिक्षा के साथ मजाक के अतिरिक्त और कुछ नहीं कि छह से चौदह वर्ष की आयु के बच्चे ट्यूशन पढ़ने के लिए मजबूर हों। जिस देश में सरकारी स्कूलों की पढ़ाई ऐसी हो कि छोटी कक्षाओं के बच्चों को भी ट्यूशन पढ़ने के लिए विवश होना पड़े उसके भविष्य को लेकर सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता। ग्रामीण इलाकों में निजी स्कूलों की बढ़ती संख्या और सरकारी स्कूल छोड़कर उनमें दाखिला लेने की बढ़ती प्रवृत्ति यह बताती है कि राज्य सरकारें इसके प्रति तनिक भी सजग-सचेत नहीं कि शिक्षा समाज और राष्ट्र के निर्माण की पहली सीढ़ी है। हर समय अपने अधिकारों को लेकर शोर मचाने और केंद्र पर दोषारोपण करने वाली राज्य सरकारों को इसके लिए कठघरे में खड़ा ही किया जाना चाहिए कि वे शिक्षा के ढांचे को दुरुस्त करने के प्रति तनिक भी गंभीर नहीं। इस संदर्भ में मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने राज्य सरकारों पर जो दोष मढ़ा उसमें कुछ भी अनुचित नहीं। उन्होंने यह बिल्कुल सही कहा कि जब राज्य सरकारें अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं करेंगी तो हालात कैसे सुधर सकते हैं? शिक्षा के ढांचे को ठीक करने और पठन-पाठन के स्तर को सुधारने को लेकर राज्य सरकारें गंभीर नहीं, इसके एक नहीं अनेक प्रमाण सामने आ चुके हैं। ज्यादातर राज्यों में योग्य शिक्षकों का अभाव तो है ही, एक बड़ी संख्या में शिक्षकों को ठेके पर रखा जा रहा है। राज्यों की अगंभीरता का एक बड़ा प्रमाण यह है कि छह से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार कानून बनने के डेढ़ साल बाद भी अनेक राज्यों ने इस संदर्भ में आवश्यक अधिसूचना भी जारी नहीं की है। इस पर आश्चर्य नहीं कि पठन-पाठन के स्तर के मामले में दक्षिण भारत के राज्यों के मुकाबले उत्तर भारत के राज्यों की स्थिति गई बीती है, क्योंकि इन राज्यों के नीति-नियंता हर मामले में अपने सामाजिक दायित्व के निर्वहन में ढिलाई बरतने के लिए जाने जाते हैं। यदि वे शिक्षा के मामले में भी इसी तरह ढिलाई का परिचय देते रहते हैं तो इसका अर्थ है कि वे राष्ट्र की भावी पीढ़ी के साथ हो रहे अन्याय के दुष्परिणामों को समझने के लिए तैयार नहीं। केंद्र सरकार के लिए केवल इतना ही पर्याप्त नहीं कि वह राज्यों पर दोष मढ़कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ले। उसे कुछ ऐसे उपाय खोजने ही होंगे जिससे राज्य सरकारें कम से कम शिक्षा के मामले में अपने दायित्वों के प्रति चेतें।
साभार:-दैनिक जागरण

आर्थिक विकास को झटका

दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधार लागू करने में सरकार की हिचक को अर्थव्यवस्था में गतिरोध का कारण बता रहे हैं डॉ. आनंद पी. गुप्ता
उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद पिछले दो दशकों में आर्थिक विकास की दिशा में देश ने नई ऊंचाइयों को छुआ है। आज हमारी गिनती न केवल ताकतवर अर्थव्यवस्था वाले देश, बल्कि एक उभरती हुई विश्वशक्ति के रूप में भी होने लगी है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 1991 में जहां हमारा विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डॉलर भी नहीं था, आज वह बढ़कर लगभग 300 अरब डॉलर से अधिक हो गया है, लेकिन सच्चाई का स्याह पक्ष यह भी है कि अब सरकार एक ऐसे रास्ते पर चल पड़ी है जहां से हमारी आर्थिक तरक्की की रफ्तार धीमी पड़ रही है। अमेरिका और यूरोप का संकट फिलहाल खत्म होता नजर नहीं आ रहा। लेकिन देश के सामने अंतरराष्ट्रीय स्थितियों से कहीं ज्यादा बड़ा संकट सरकार की सोच, उसकी तैयारी और नीतियों में सही तालमेल के अभाव का है। अतीत के अनुभवों को देखते हुए सरकार चालू खाते के घाटे और पुनर्भुगतान के किसी भी संभावित संकट के प्रति तो सतर्क है, लेकिन विकास के लिए जरूरी दीर्घकालिक नीतियों और दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों को लागू करने से हिचक रही है। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और प्रत्यक्ष कर संहिता (डीटीसी) जैसे सुधार तत्काल लागू किए जाने की आवश्यकता है। इस दिशा में सरकार इच्छाशक्ति नहीं दिखा रही है। लगातार बढ़ती महंगाई और ब्याज दरों के कारण भी समस्या बढ़ी और औद्योगिक उत्पादन दर गिरी, लेकिन रिजर्व बैंक के पास इसके अलावा और दूसरा कोई उपाय नहीं था। यदि रिजर्व बैंक यह कदम न उठाता तो मांग बढ़ने से महंगाई और बढ़ती। रुपये की गिरती कीमत को रोकने के लिए भी रिजर्व बैंक से हस्तक्षेप की अपेक्षा ठीक नहीं, क्योंकि मात्र मौद्रिक उपाय प्रबंधन द्वारा इन गुत्थियों को सुलझाया नहीं जा सकता। इसके लिए सरकार को राजस्व घाटे पर नियंत्रण पाना होगा और नीतियों की प्राथमिकता समेत उनके सही क्रियान्वयन को सुनिश्चित करना होगा। लोक धन की बेतहासा लूट आज चिंता का विषय है। इससे लोगों में संदेश गया है कि सार्वजनिक या सरकारी धन किसी का नहीं है और इसे मनमाने तरीके से लूटा जा सकता है। मनरेगा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसी योजनाओं में बड़े पैमाने पर हुई धांधली इस बात का प्रमाण है। पिछले सात वर्षो में सरकार की प्राथमिकता सिर्फ सत्ता में बने रहने और चुनाव जीतने के लिए लोकलुभावन नीतियां लागू करने पर केंद्रित रही है। इस संदर्भ में हालिया उदाहरण खाद्य सुरक्षा बिल का है, जिसके तहत देश की करीब दो-तिहाई गरीब आबादी को सस्ते दाम में चावल, गेहूं और मोटा अनाज मिलेगा। योजना के तहत बड़ी संख्या में लोगों को दो रुपये किलो गेहूं, तीन रुपये किलो चावल और एक रुपये किलो मोटा अनाज दिया जाएगा। यहां सवाल उठता है कि जब इतना सस्ता अनाज बांटा जाएगा तो कोई अपने लिए खेती-किसानी क्यों करेगा? स्वाभाविक है कि कृषि प्रभावित होगी और देश खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता की स्थिति खो देगा। इस तरह हमें फिर से अनाज विदेशों से आयात करना होगा और विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव बढ़ेगा। यहां और भी प्रश्न हैं, जैसे गरीबों का निर्धारण व आकलन कैसे होगा, जब सार्वजनिक वितरण प्रणाली पहले ही विफल है तो इस योजना के सही क्रियान्वयन का तरीका या तंत्र क्या होगा और पैसा कहां से आएगा? इसी तरह खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का निर्णय लिए जाने से पहले दूसरे कई निर्णय लिए जाने आवश्यक थे, जिनमें ऊर्जा क्षेत्र में सुधार अत्यधिक जरूरी था। पर सरकार ने ऐसा करने की बजाय हड़बड़ी में एफडीआइ को पहले स्वीकृति देने की तैयारी कर ली। हमारे कुल विदेशी मुद्रा भंडार के 22 से 23 प्रतिशत के बराबर लिए गए अल्पकालिक ऋणों के भुगतान की समयसीमा 2012 में पूरी हो रही है और देश के वर्तमान राजनीतिक व आर्थिक माहौल में विदेशी निवेशकों का विश्वास डगमगा रहा है। ऐसे में यदि उन्होंने अपना पैसा वापस मांग लिया यानी रोलओवर न किया तो देश के सामने एक बड़ा संकट खड़ा हो सकता है। सरकार इस बात को समझ रही है। 1991 के संकट को हम भूले नहीं हैं। यही कारण है कि जहां एक ओर चुनाव जीतने के लिए लोकलुभावन नीतियां बनाई जा रही हैं, वहीं दूसरी ओर विदेशी निवेशकों को खुश करने के लिए आर्थिक सुधारों की दिशा में आगे बढ़ने का संकेत दिया जा रहा है। सरकार का यह कहना भी सही नहीं है कि अर्थव्यवस्था की खराब होती हालत के लिए अंतरराष्ट्रीय हालात जिम्मेदार हैं। सच्चाई यह है कि हमारी घरेलू नीतियां व सरकार के अदूरदर्शितापूर्ण कदम हालात को अधिक जटिल बना रहे हैं। आखिर किसने सरकार को आर्थिक सुधार करने से रोक रखा है? रास्ता यही है कि सरकार अपनी नीतियों की प्राथमिकता फिर से तय करे, लोकधन की लूट को रोकने के लिए समुचित कदम उठाए और जनसांख्यिकीय बढ़त का फायदा उठाने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य तथा विकास कार्यक्रमों पर अधिक ध्यान दे ताकि हमारे युवा देश के विकास का इंजन बन सकें। आज इस बात की भी आवश्यकता है कि खर्च किए जा रहे सार्वजनिक धन का लाभ आम लोगों को वास्तविक रूप में मिले। इसके लिए फरवरी 2005 में सरकार ने आउटकम बजट का प्रावधान किया था जिस पर अमल भी हो रहा है, लेकिन प्रभावी न होने से यह लगभग विफल हो चुका है। इसलिए जरूरत सही नीतियों के निर्माण के साथ ही उनके सही क्रियान्वयन की भी है। (लेखक आइआइएम, अहमदाबाद में अर्थशास्त्र के सीनियर प्रोफेसर रहे हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

महत्वाकांक्षाओं का टकराव

राजनीति में सिद्धांतों और मूल्यों में आ रही गिरावट पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं निशिकान्त ठाकुर

पंजाब में विधानसभा चुनाव के लिए पर्चे भरने का दौर संपन्न हो गया। चुनाव की घोषणा के बाद से लेकर इस बीच तक जितनी तरह की जद्दोजहद देखी गई, उसमें कुछ भी किसी के लिए नया नहीं है। निर्वाचन आयोग की सख्ती के कारण कुछ प्रवृत्तियों पर रोक लगी है तो कुछ नई प्रवृत्तियां पनपी भी हैं। पहले जैसा शोरगुल और धूम-धड़ाका अब चुनावों के दौरान नहीं देखा जा रहा है, इसे एक शुभ संकेत के रूप में देखा जा सकता है। सबसे अच्छी बात यह है कि निरर्थक मुद्दे और असंभव वादे भी इस बार चुनाव में दिखाई नहीं दे रहे हैं। आयोग की सख्ती इसके पीछे एक वजह है, लेकिन दूसरे कारण भी हो सकते हैं। शायद राजनेताओं को इस बात का एहसास हो गया है कि मतदाता अब पहले जैसे भोले-भाले नहीं रहे। आम नागरिक अब पहले की तुलना में बहुत ज्यादा जागरूक और सचेत हो गया है। इसीलिए राज्य का विकास ही मुख्य मुद्दे के रूप में उभरा है। विकास कितना हुआ, कितना नहीं हुआ, किन मसलों पर काम करने की जरूरत है और राज्य की दिशा क्या हो, ये सवाल ही चर्चा के केंद्र में हैं। इसके बावजूद राजनीति और उसके जरिये विकास के प्रति आश्वस्त होने जैसा माहौल अभी दिखाई नहीं देता है। इसके मूल में केवल चुनावी मैदान में पार्टियों और उम्मीदवारों के बीच चल रही जंग एवं उसके तौर-तरीके ही नहीं, परदे के पीछे चली लड़ाई भी है। पार्टियों के भीतर जिस तरह का संघर्ष हुआ है, उसका अंदाजा मैदान में आए विद्रोही उम्मीदवारों की तादाद से लगाया जा सकता है। कांग्रेस यहां अकेले चुनावी मैदान में है, जबकि शिरोमणि अकाली दल (बादल) और भाजपा एक गठबंधन के रूप में मिल कर जोर आजमा रहे हैं। दोनों प्रमुख पक्षों के लोगों में यह प्रवृत्ति देखी जा रही है कि कई उम्मीदवार अपनी-अपनी पार्टी से विद्रोह कर बागी के तौर पर मैदान में आ गए हैं। यह अलग बात है कि किसी का उद्देश्य खुद जीतना है तो किसी का इरादा किसी दूसरे उम्मीदवार को हराने भर का है। जो लोग खुद जीतने और विधानसभा में पहुंचकर जनता की सेवा को अपना उद्देश्य बता रहे हैं, वे भी अपनी जीत के प्रति कितने आश्र्वस्त हैं, यह बात लगभग साफ है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इनमें से कुछ जीत भी सकते हैं। ऐसा प्राय: होता रहा है कि कुछ बागी उम्मीदवार निर्दल या दूसरे दलों के प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीतते रहे हैं और बाद में वे राज्य की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते रहे हैं। लेकिन यह बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। वास्तव में यह संकेत है राजनीति में मूल्यों और सिद्धांतों के कमजोर होने का। जहां तक बात पंजाब की है, विधानसभा की यहां कुल मिलाकर 117 सीटें हैं। अगर एक पार्टी के टिकट के दावेदारों की ही असली सूची बनाई जाए तो वह एक हजार से कम पर नहीं रुकेगी। एक अनार सौ बीमार की यह स्थिति हर चुनाव में हर पार्टी के सामने होती है। इससे सबसे पहली बात जो जाहिर होती है, वह यह है कि राजनीति में अब आकर्षण का कारण जनसेवा और विचार तो रहे ही नहीं। सबके लिए आकर्षण का केंद्र पद, प्रतिष्ठा और उससे जुड़े अधिकार एवं लाभ हो गए हैं। पार्टियों में लोग आ ही इस इरादे से रहे हैं कि ज्वाइन करते ही उन्हें पार्टी में कोई महत्वपूर्ण पद मिल जाए और चुनाव आते ही लोकसभा या विधानसभा का टिकट। इस महत्वाकांक्षा को मूर्त रूप देने के लिए क्षेत्र में मेहनत कोई नहीं करना चाहता है। न तो कोई आम जनता के दुख-दर्द से रूबरू होना चाहता है और न पार्टी के कार्यक्रमों-आयोजनों में ही योगदान करना चाहता है। सबसे बड़ी योग्यता अब गणेश परिक्रमा मानी जाती है और इसी पर पूरा जोर दिया जाता है। इसका नतीजा यह हुआ है कि पार्टियों के भीतर आपसी संघर्ष बहुत बढ़ गया है। गलाकाट प्रतिस्पर्धा की इस स्थिति के चलते न केवल मानवीय मूल्य, बल्कि सिद्धांत और प्रमुख राजनीतिक घरानों के आपसी रिश्ते तक सभी छीजते दिख रहे हैं। विभिन्न दल एक-दूसरे के भीतर मचे इस संघर्ष से कोई सीख लेने की स्थिति में भी नहीं हैं। क्योंकि एक तो उनके यहां भी हालात वही हैं और दूसरे सभी एक-दूसरे की कमजोरियों से सिर्फ फायदा उठाने की ताक में हैं, खुद अपनी उन्हीं कमजोरियों का इलाज किए बगैर। गणेश परिक्रमा को खुद पार्टियों के जिम्मेदार नेता ही बढ़ावा दे रहे हैं। आमतौर पर यह देखा जाता है कि बड़े नेता स्वयं अपने हित में भी अपने मन के खिलाफ कोई बात सुनना नहीं चाहते हैं। वे सिर्फ उन्हीं लोगों को अपने निकट रखते हैं जो उनके मन की बात करें, भले ही वह उनके तथा पार्टी के लिए नुकसानदेह साबित हो। नतीजा यह हो रहा है कि बड़े नेताओं के इर्द-गिर्द चाटुकारों की फौज जुटती जा रही है और योग्य लोग उनसे दूर होते जा रहे हैं। चुनावों के दौरान जब टिकटों का बंटवारा होना होता है, उस वक्त भी यही आधार पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर हावी हो जाता है। बड़े राजनेता इस मामले में सबसे पहले अपने परिजनों-रिश्तेदारों को तरजीह देते हैं। इसके बाद उनके निकट के दूसरे लोग आते हैं। फिर पार्टी के वरिष्ठ लोग और वे लोग जिनके जीतने की उम्मीद होती है, चाहे जीत कैसे भी क्यों न मिले। ऐसा नहीं है कि उम्मीदवारों के चयन के लिए कोई वैज्ञानिक आधार पार्टियों के पास हैं ही नहीं। वैज्ञानिक आधार हैं और अगर उन पर कायदे से काम किया जाए तो शायद उम्मीदवारों, पार्टियों और देश की स्थिति ही कुछ और हो। दुर्भाग्य यह है कि उन आधारों को अक्सर दरकिनार कर दिया जाता है और दूसरी तरफ उम्मीदवारों की महत्वाकांक्षाएं भी उबलने लगती हैं। फिर जो घमासान मचता है उसमें नीतियों-सिद्धांतों से लेकर जनहित और विवेक तक सभी तिरोहित हो जाते हैं। सच तो यह है कि इसके चलते आम जनता से राजनीतिक पार्टियों का संपर्क और जुड़ाव ही खत्म होता जा रहा है। ज्यादातर पार्टियों के पास अब सिर्फ नेता बचे हैं, कार्यकर्ता दिखते ही नहीं हैं। इसीलिए चुनाव में धनबल की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती जा रही है। हालांकि सभी जानते हैं कि यह स्थिति बहुत दिनों तक चल नहीं पाएगी। इसके बावजूद आत्मविश्लेषण का समय किसी के भी पास नहीं है। बेहतर यह होगा कि पार्टियां और राजनेता इस सोच से उबरें और पहले के नेताओं की तरह जनसेवा को महत्व दें। निजी महत्वाकांक्षा कोई खराब बात नहीं है, लेकिन इस मामले में थोड़े धैर्य और संयम से काम लें। अपने एवं अपने लोगों के साथ-साथ दूसरों की योग्यता का भी सम्यक मूल्यांकन करें और यथोचित महत्व दें। यह न केवल समाज के हित है बल्कि दीर्घकालिक राजनीति में स्वयं को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए भी जरूरी है। (लेखक दैनिक जागरण के स्थानीय संपादक हैं
साभार:-दैनिक जागरण

अप्रिय प्रसंग

यह असामान्य और अभूतपूर्व है कि थलसेनाध्यक्ष की उम्र से जुड़ा विवाद अदालत की चौखट तक पहुंच गया। थलसेनाध्यक्ष वीके सिंह का सुप्रीम कोर्ट जाना इसलिए चकित करता है, क्योंकि अभी तक उनके साथ-साथ सरकार भी यही संकेत दे रही थी कि इस विवाद को तूल नहीं पकड़ने दिया जाएगा। जहां जनरल वीके सिंह यह कह रहे थे कि वह इस विवाद पर रक्षामंत्री एके एंटनी की ओर से दिए गए भरोसे की सराहना करते हैं वहीं रक्षामंत्री के साथ-साथ अन्य केंद्रीय मंत्री भी यह संकेत दे रहे थे कि इस मामले का सहज तरीके से समाधान कर लिया जाएगा। जनरल वीके सिंह के सुप्रीम कोर्ट जाने से न केवल यह स्पष्ट हो गया कि सरकार सहज समाधान खोजने में नाकाम रही, बल्कि यह भी साफ हुआ कि अपने स्वभाव के अनुरूप उसने एक और विवादास्पद मामले को लटकाए रखा। सुप्रीम कोर्ट की ओर से इस विवाद का निपटारा चाहे जैसे किया जाए, हर कोई यह महसूस करेगा कि शीर्ष स्तर के सैन्य अधिकारी की उम्र को लेकर एक तो कोई विवाद उपजना नहीं चाहिए था और यदि वह उपजा तो उसका समाधान सद्भावपूर्ण तरीके से होना चाहिए था। यह निराशाजनक है कि ऐसा नहीं हो सका। जनरल वीके सिंह के सुप्रीम कोर्ट जाने पर इस तर्क को महत्ता देना कठिन है कि आम भारतीय नागरिक की तरह वह भी अदालत जा सकते हैं, क्योंकि यह मामला थलसेनाध्यक्ष द्वारा सरकार को सुप्रीम कोर्ट में खींचने का बन गया है। यह शोभनीय प्रसंग नहीं कि जन्मतिथि को लेकर ही सही, थलसेनाध्यक्ष और सरकार सुप्रीम कोर्ट में आमने-सामने होंगे। भले ही यह रेखांकित करने की कोशिश की जाए कि वीके सिंह आम नागरिक की हैसियत से अदालत गए हैं, लेकिन इस तथ्य की अनदेखी नहीं हो सकती कि वह 13 लाख सैन्य कर्मियों का नेतृत्व कर रहे भारतीय थलसेना के सर्वोच्च अधिकारी हैं। अपनी उम्र को लेकर उपजे विवाद के समाधान के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की जनरल वीके सिंह की पहल से जाने-अनजाने देश को यही संदेश जा रहा है कि सरकार ने अपने ही थलसेनाध्यक्ष के दावे पर यकीन नहीं किया। वैसे किसी के लिए भी यह कहना कठिन है कि सेना के दस्तावेजों में दर्ज जनरल वीके सिंह की दो जन्म तिथियों में से कौन सी सही मानी जानी चाहिए, लेकिन क्या कोई बताएगा कि आखिर सरकारी फाइलों में दो जन्म तिथियां दर्ज क्यों बनी रहीं? इससे भी जटिल सवाल यह है कि 36 वर्ष के सेवाकाल के बावजूद इस विवाद को क्यों नहीं सुलझाया जा सका? क्या सरकार की यह जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वह जनरल वीके सिंह को थलसेनाध्यक्ष पद पर लाने के पहले उनकी उम्र से जुड़े विवाद का समाधान कर लेती? यदि वह किन्हीं कारणों से तब ऐसा नहीं कर सकी तो फिर उसे उनकी सेवानिवृत्ति का समय नजदीक आने के पहले ही समाधान तक पहुंच जाना चाहिए था? इसलिए और भी, क्योंकि वीके सिंह थलसेनाध्यक्ष बनने के पहले ही अपनी अलग-अलग जन्म तिथियों का मामला सतह पर ले आए थे। सरकार को यह अच्छे से पता होना चाहिए था कि यह अनसुलझा विवाद उसके समक्ष सिर उठाएगा। यह तो सबको ज्ञात है कि सरकार छोटे-छोटे मुद्दों पर ध्यान नहीं देती, लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि वह बड़े मुद्दों की भी उपेक्षा करती है।
साभार:-दैनिक जागरण

चुनाव, धनबल और कानून

चुनावों में धनबल पर अंकुश लगाने के चुनाव आयोग के प्रयासों पर राजनीतिक दलों को पलीता लगाते देख रहे हैं सुधांशु रंजन

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहां मतदाताओं की कुल संख्या 72 करोड़ से ज्यादा है जो बहुत से देशों की कुल आबादी से भी अधिक है। इतनी बड़ी आबादी के लिए चुनाव की व्यवस्था करना कोई आसान काम नहीं है। फिर भी यहां का चुनाव काफी हद तक स्वतंत्र तथा निष्पक्ष माना जाता है। 1952 का प्रथम चुनाव पूरी तरह स्वतंत्र एवं निष्पक्ष था जिसमें धनबल, बाहुबल या जाति की कोई भूमिका नहीं थी, किंतु धीरे-धीरे बाहुबल एवं धनबल का प्रदर्शन बढ़ने लगा। टीएन शेषन के नेतृत्व में चुनाव आयोग की सक्रियता के कारण बाहुबल का प्रयोग तो लगभग समाप्त हो गया, लेकिन धनबल की भूमिका अभी भी काफी सशक्त है। इधर कुछ वषरें से चुनाव आयोग की तत्परता के कारण प्रशासन करोड़ों की धनराशि चुनाव के वक्त जब्त कर रहा है। लेकिन चुनाव में खपने वाली भारी-भरकम धनराशि की तुलना में जब्त की जाने वाली यह राशि ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। अब तो चुनाव में नकद राशि के साथ-साथ शराब तक बांटी जाने लगी है। इस पर अंकुश लगाने की दिशा में उच्चतम न्यायालय एवं चुनाव आयोग लगातार प्रयास कर रहे हैं किंतु सफलता पूरी तरह नहीं मिल पाई है। दरअसल, राजनीतिक दलों ने उन प्रयासों को निष्प्रभावी करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। विभिन्न याचिकाओं के माध्यम से अदालतों के समक्ष यह प्रश्न उठता रहा है कि राजनीतिक दल, दोस्तों एवं संबंधियों द्वारा किए गए खर्च को भी उम्मीदवार के खर्च में शामिल माना जाना चाहिए या नहीं। प्रारंभ में अदालत इसे प्रत्याशी के खर्च में शामिल करने के पक्ष में नहीं थी। रणंजय सिंह बनाम बैजनाथ सिंह (1954) से लेकर बीआर राव बनाम एनजो रंजा (1971) मामलों में उच्चतम न्यायालय ने खर्च के बारे में यही रवैया अपनाया। किंतु 1975 में कंवरलाल बनाम अमरनाथ में व्यवस्था दी कि अत्यधिक संसाधन की उपलब्धता किसी उम्मीदवार को दूसरों के मुकाबले अनुचित लाभ प्रदान करती है जो अलोकतांत्रिक है। अदालत ने एक चेतावनी भी दी, चुनाव के पहले दिया गया चंदा चुनाव के बाद के वादे के रूप में काम करेगा जिससे आम आदमी के हितों पर कुठाराघात होगा। इसलिए उच्चतम न्यायालय ने राजनीतिक दल, दोस्तों एवं रिश्तेदारों द्वारा किए गए खर्च को उम्मीदवार के चुनावी खर्च का हिस्सा माना। अदालत के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए 1974 में जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 77 में संशोधन कर एक व्याख्या जोड़ दी कि ऐसे खर्च को उम्मीदवार के खर्च से अलग माना जाएगा। इस तरह चुनाव में ऊलजुलूल खर्च करने को वैधानिकता प्रदान की गई। 1994 में उच्चतम न्यायालय ने गडक वाईके बनाम बालासेह विखे पाटिल मामले में इस व्याख्या को खत्म करने पर जोर दिया। फिर गंजन कृष्णाजी बापट मामले में उच्चतम न्यायालय ने राजनीतिक दलों द्वारा प्राप्त एवं खर्च की गई राशि का सही हिसाब रखने के लिए नियम बनाने की जरूरत पर जोर दिया। 1996 में कॉमन कॉज मामले में उच्चतम न्यायालय ने जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 77 की व्याख्या कंपनी अधिनियम, 1956 के आलोक में की। कंपनी अधिनियम की धारा 293-ए के तहत कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा देना वैध है तथा आयकर अधिनियम की धारा 13-ए के अंतर्गत इस पर कर में छूट है, किंतु ऐसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं है, जो राजनीतिक दलों को सही खाता रखने को मजबूर करे। इसलिए अदालत ने निर्णय दिया कि जो राजनीतिक दल आयकर रिटर्न नहीं भर रहे हैं वे आयकर कानून का उल्लंघन कर रहे हैं और केंद्रीय वित्त सचिव को इसकी जांच करने का निर्देश दिया। इस तरह अदालत ने लगातार स्वतंत्र चुनाव सुनिश्चित करने के लिए धनबल की भूमिका को कम करने का प्रयास किया। आयोग ने पिछले कई दशकों से अपनी महती जिम्मेदारी का निर्वाह सराहनीय ढंग से किया है, किंतु उसे राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त नहीं होता है। आज भी कई राजनेता चुनावी कदाचार के लिए चुनाव आयोग की सख्ती को जिम्मेदार मानते हैं। उनका तर्क है कि चूंकि आयोग ने प्रचार पर इतनी तरह की पाबंदियां लगा दीं कि लाचार होकर उम्मीदवारों ने नोट और शराब बांटनी शुरू कर दीं। दिक्कत यह है कि निरक्षर या कम शिक्षित लोग अपने मत की महत्ता नहीं समझते और शिक्षित लोग कतार में खड़े होकर मतदान करना अपना अपमान समझते हैं; इसलिए उनके लिए मतदान का दिन मुफ्त का अवकाश होता है। कई बार यह सुझाव दिया गया कि राज्य चुनाव खर्च को वहन करे। यानि प्रत्याशियों को कोई खर्च नहीं करना होगा और केवल सरकार उनके प्रचार की व्यवस्था करेगी। शायद यह भी समाधान नहीं है। अगर ऐसा हो भी जाता है तो क्या जरूरी है कि सभी उम्मीदवार साधु हो जाएं। मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी ने भी इसका विरोध इसी आधार पर किया है। वैसे कुछ हद तक तो राज्य चुनाव का खर्च वहन करता ही है। मसलन, उम्मीदवारों को रियायती दरों पर कई सुविधाएं देना और आकाशवाणी-दूरदर्शन पर विभिन्न दलों को प्रचार का समय दिया जाना इसमें शामिल है। लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों में तो फिर भी आयोग काफी हद तक धनबल पर रोक लगा पाता है, किंतु राज्यसभा चुनाव में थैलीशाह खुलकर विधायकों की खरीद-फरोख्त करते हैं और राज्यसभा में प्रवेश करते हैं। अभी तो कई राज्यसभा सदस्य ऐसे हैं जो उन राज्यों से निर्वाचित हुए हैं जहां चुनाव लड़ने से पहले वे कभी गए तक नहीं। धनबल के इस्तेमाल को रोकना भी असंभव नहीं है। आज चुनाव हिंसा मुक्त हो चुके हैं क्योंकि अपराधी समझ गए कि गुंडागर्दी करने पर वे कानून की गिरफ्त में होंगे। ऐसा ही संदेश धनबल के बारे में जाना चाहिए। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

छल-कपट की राजनीति

निर्वाचन आयोग की नोटिस और नाराजगी के बाद केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद के नौ प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण संबंधी बयान को उनका निजी विचार बताने के 24 घंटे के अंदर ही कांग्रेस ने जिस तरह पलटी खाते हुए यह कहा कि वह अल्पसंख्यक आरक्षण बढ़ाने के पक्ष में है उससे यह साफ हो गया कि उसके सिर सांप्रदायिक राजनीति का भूत सवार हो गया है। कांग्रेस ने सलमान खुर्शीद के कथित निजी विचार को जिस तरह गले लगाया उससे इसकी आशंका और बढ़ गई है कि यह राष्ट्रीय दल उन राजनीतिक दलों को भी मात दे सकता है जो बिना किसी संकोच जाति और संप्रदाय की राजनीति करते हैं। उस देश की राजनीति के पतन का अनुमान अच्छे से लगाया जाता है जहां मुख्यधारा के राजनीतिक दल खुलकर जाति-मजहब की राजनीति करते हों। इस पर आश्चर्य नहीं कि कांग्रेस की ओर से अल्पसंख्यक अर्थात मुस्लिम आरक्षण में बढ़ोतरी के संकेत देते ही समाजवादी पार्टी ने 18 प्रतिशत आरक्षण की पेशकश कर दी। कांग्रेस चुनाव जीतने के लिए जैसे हथकंडे अपनाने पर उतर आई है उससे यह और अच्छे से स्पष्ट हो रहा है कि देश का सबसे बड़ा और पुराना राजनीतिक दल जानबूझकर अपनी गरिमा से खिलवाड़ करने पर आमादा है। नि:संदेह यह समझ आता है कि कांग्रेस पांच राज्यों और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में अपना खोया हुआ जनाधार पाने के लिए बुरी तरह बेचैन है, लेकिन इसकी उम्मीद नहीं थी कि इसके लिए वह समाज का मजहबी आधार पर ध्रुवीकरण करने की कोशिश करेगी। उसकी यह कोशिश विभाजन पैदा करने वाली राजनीति का पर्याय है। पहले साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण का फैसला लेने और फिर उसे बढ़ाकर नौ फीसदी करने के पीछे कांग्रेस सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशों के साथ-साथ 2009 के अपने घोषणा पत्र के कथित वायदे की आड़ ले रही है। यह और कुछ नहीं, अल्पसंख्यक समाज सहित पूरे देश को धोखा देने की कोशिश है, क्योंकि सब जानते हैं कि उक्त सिफारिशें सामने आए वर्षो बीत चुके हैं और उसका घोषणा पत्र भी करीब तीन वर्ष पुराना पड़ चुका है। कांग्रेस और साथ ही उसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता को पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के ठीक दो दिन पहले जिस तरह सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशें याद आईं उससे यह स्वत: स्पष्ट हो जाता है कि वह 2009 से लेकर अब तक हाथ पर हाथ धरे बैठे मुस्लिम समाज की दुर्दशा देखती रही। यदि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करना उसके लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनता तो वह मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन की परवाह अभी भी नहीं करती। पता नहीं मुस्लिम समाज कांग्रेस के इस चुनावी हथकंडे को समझ सकेगा या नहीं, लेकिन अब जब सलमान खुर्शीद का निजी विचार कांग्रेस की आधिकारिक नीति बन गया है तब फिर चुनाव आयोग को कुछ सख्ती दिखानी ही होगी। यदि यह आयोग चुनाव जीतने के लिए की जाने वाली मनमानी घोषणाओं पर कठोर रवैये का परिचय नहीं देता तो उसके लिए अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा कर पाना मुश्किल होगा। यह ठीक नहीं कि चुनाव आयोग सलमान खुर्शीद के नौ प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण संबंधी अपने विचार पर अडिग रहने के बावजूद उनके खिलाफ कार्रवाई करने के मामले में हिचकिचाहट का परिचय दे रहा है।
साभार:-दैनिक जागरण