Monday, July 18, 2011

तन पर खादी, मन में हिंदी

अपनी जिस एक विशेषता के कारण मोरारजी देसाई औरों से भिन्न थे, वह थी उनकी अदम्य इच्छाशक्ति। उन्होंने अपने जीवनकाल में चार बार आमरण अनशन किया और हर बार इस निर्णय के पीछे एक महत्वपूर्ण प्रयोजन था। ऐसा ही एक अवसर वर्ष 1974 में आया था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गुजरात विधानसभा को भंग करने से इनकार कर दिया था, जिसके कारण राज्य में गैरराजनीतिक छात्र आंदोलन की स्थिति निर्मित हो गई थी। अनशन के चौथे दिन राज्यपाल के सलाहकार श्री सरीन यह सूचना देने के लिए आए कि विधानसभा भंग कर दी जाएगी। प्रसन्न बापूजी (मोरारजी को ‘बापू’ भी कहा जाता था) अपने कमरे से गुजरात विद्यापीठ गेस्ट हाउस तक पैदल गए और वहां एकत्र जनसमूह को यह अच्छी खबर सुनाई। लेकिन उनके उद्बोधन के बाद कुछ छात्रों ने यह मांग करनी शुरू कर दी कि वे सरीन से बात करना चाहते हैं। बापूजी को डर था कि यदि ये लोग सरीन तक पहुंच गए तो उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं। वे दरवाजे पर खड़े हो गए और डेढ़ घंटे तक लोगों को भीतर प्रवेश करने से रोके रहे।

मोरारजी देसाई के लिए लोकतांत्रिक और संवैधानिक स्वतंत्रता से बढ़कर कुछ नहीं था। आपातकाल के दिनों में मोरारजी देसाई को एक वर्ष तक एक शासकीय आवास में नजरबंद रखा गया था। आखिरकार इंदिरा गांधी ने उन्हें व अन्य राजनीतिक कैदियों को बंधनमुक्त करने का प्रस्ताव रखा, बशर्ते वे उनके विचारों का समर्थन करें। मोरारजी ने जवाब दिया, ‘इस प्रस्ताव के लिए धन्यवाद। लेकिन मैं स्वस्थ-प्रसन्न हूं और आपकी तुलना में अधिक दीर्घायु रहूंगा।’ यही हुआ भी।

वर्ष 1978 में जब वे प्रधानमंत्री थे, तब उनका विमान असम के जंगलों में दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। पायलट की मौके पर ही मौत हो गई। मोरारजी को भी चोटें आईं। कुछ ही दिनों में स्वास्थ्य सुधार के बाद उन्होंने राष्ट्र को संबोधित किया और कामकाज शुरू कर दिया। दुर्घटना के लगभग एक सप्ताह बाद मेरी दादीमां पद्माबेन को पता चला कि दुर्घटना में उनकी तीन पसलियां टूट गई थीं। वे 82 वर्ष के थे, लेकिन उन्होंने इस बारे में किसी को भी नहीं बताया था। ये ऐसी दिलचस्प कहानियां हैं, जो उनके व्यक्तित्व की दृढ़ता पर प्रकाश डालती हैं।

पूर्वी पाकिस्तान की स्वतंत्रता के बाद 70 के दशक में भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बहुत तनावपूर्ण हो गए थे। केन्या में जोमो केन्यात्ता की मृत्यु पर दोनों देशों के शीर्ष नेताओं की भेंट हुई। मोरारजी देसाई ने पाकिस्तानी राष्ट्रपति जिया उल हक को इस अवसर पर कहा था : ‘अगर हम एक-दूसरे के हित में कार्य करेंगे तो संघर्ष की स्थिति निर्मित ही नहीं होगी। हमें भाइयों की तरह व्यवहार करना चाहिए। मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूं।’ बापूजी ने पाकिस्तान से विश्वासपूर्ण संबंध निर्मित किए थे। उनके लिए पड़ोसी देशों से सौहार्दपूर्ण संबंधों का निर्माण करना महत्वपूर्ण जरूर था, लेकिन वे राष्ट्र की अखंडता के साथ किसी तरह का समझौता करने को तैयार नहीं थे। वे सॉफ्ट प्रधानमंत्री नहीं थे। वे सख्त रुख अख्तियार करना भी जानते थे। जो लोग 70 के दशक में मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्वकाल के साक्षी रहे हैं, वे बता सकते हैं कि उन्होंने खाद्य पदार्थो की कीमतों पर नियंत्रण रखा था ताकि आम आदमी को अधिक परेशानियों का सामना न करना पड़े। शक्कर और तेल की कीमतें खासतौर पर बहुत कम थीं। विकीपीडिया उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद करता है, ‘जिसने राशन की दुकानों को अप्रासंगिक बना दिया था।’ उनके कार्यकाल में शक्कर और तेल की बाजार कीमतें और राशन की दुकानों की कीमतें समान थीं। वे देश की पहली गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री थे। हालांकि उन्हें अपने अधिकांश सांसदों का समर्थन नहीं मिला। जनता पार्टी के 350 सांसद थे, लेकिन उनमें से अधिकतर चौधरी चरन सिंह के साथ थे, जो उनके बाद प्रधानमंत्री बने। मोरारजी केवल ढाई साल देश के प्रधानमंत्री रहे। मैं सोचता हूं, अगर उन्हें अपना कार्यकाल पूरा करने का मौका मिलता तो वे कितना काम करते।

जब हम मोरारजी देसाई को करीब से जानने की कोशिश करते हैं, तो हमारे मन में उनके संबंध में प्रचलित धारणाएं समाप्त होने लगती हैं। इस साल बापूजी की ११५वीं जयंती है। हालांकि उन्होंने अपने जीवनकाल में मात्र 24 जन्मदिन ही मनाए थे, क्योंकि उनकी जन्मतिथि 29 फरवरी थी। उन्होंने 99 वर्ष की लंबी आयु पाई थी। वे पहले और दूसरे विश्व युद्ध के साक्षी रहे थे। उन्होंने देश के लिए आजादी की लड़ाई लड़ी थी और उन्होंने अपने वित्त सचिव डॉ मनमोहन सिंह को देश की अर्थव्यवस्था को बदलते भी देखा था।

उनके बारे में यह आम राय थी कि एक बार वे अपना मन बना लेते थे तो उसे बदलना असंभव था। लेकिन उनके मंत्रिमंडल में कानून मंत्री रह चुके शांतिभूषण ने मुझसे चर्चा में कुछ और ही बताया था। उन्होंने बताया था कि यदि किसी कैबिनेट मंत्री से मोरारजी के विचार भिन्न होते थे तो वे उन्हें खारिज नहीं करते थे। यदि उनके विचार तर्कपूर्ण और उपयुक्त होते तो वे उनसे सहमत हो जाते थे। वास्तव में उनकी धारणाओं का निर्माण उनके मूलभूत आदर्शो के अनुसार हुआ था। महात्मा गांधी उनके प्रेरणास्रोत थे और ईश्वर में उनकी अटूट आस्था थी।

पत्रकार करन थापर ने एक बार लिखा था कि दून स्कूल में मोरारजी देसाई अलोकप्रिय व्यक्ति थे, क्योंकि वर्ष 1968 में जब वे वहां एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में गए थे तो उन्होंने हिंदी में ही भाषण दिया था और बच्चों से हाथ मिलाने के बजाय परंपरागत रूप से उनसे ‘नमस्ते’ किया था। बापूजी का यह दृढ़ विश्वास था कि हमें अपनी सांस्कृतिक परंपराओं से दूर नहीं होना चाहिए। वे खादी के कपड़े पहनते थे, जिसकी कताई खुद ही किया करते थे। घर पर वे केवल गुजराती ही बोलते थे। सादा शाकाहारी भोजन करते थे और नियमित योग करते थे। लेकिन उन्होंने कभी अपने विचारों को अपने परिवार के सदस्यों पर नहीं थोपा। देश के पहले गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री, उपप्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, बंबई स्टेट के मुख्यमंत्री जैसे पदों पर रहने के बाद उन्होंने अपनी सारी संपत्ति गुजरात विद्यापीठ को दान कर दी। उनके मूल्यों की प्रासंगिकता आज और बढ़ गई है।

मधुकेश्वर देसाई Last Updated 00:29(28/02/11)
http://www.bhaskar.com/article/ABH-khadi-on-body-mind-hindi-1891002.html


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