Monday, July 18, 2011

राष्ट्र, राष्ट्रीयता और हम लोग

देश के स्वाधीनता आंदोलन की गवाह रही बुजुर्ग विदुषियों - कलावेत्ता कपिला वात्स्यायन, अर्थशास्त्री देवकी जैन, वरिष्ठ बाल चिकित्सक डॉ शांति घोष, गांधीवादी राधा बहन और अडयार में कलाक्षेत्र की निदेशक नृत्यांगना लीला सैमसन ने मीडिया से परे एक बहुत सीधी-सादी गोष्ठी में अपने समय की तेजस्विनी महिला नेताओं - कमला देवी चट्टोपाध्याय, रुक्मिणी देवी अरुंडेल, अरुणा आसफ अली और सरला बहन के जीवन और कृतित्व से जुड़े अंतरंग और दुर्लभ संस्मरण नई पीढ़ी से साझा किए। यह एक न भुलाया जाने वाला अनुभव था, जिसने श्रोताओं को पिछले साठ सालों में देश के माहौल और नेतृत्व के स्तर में आए बदलावों पर सोचने पर बाध्य कर दिया।

पहली बात जो इन संस्मरणों से उभरी, वह यह थी कि गांधी, नेहरू, तिलक और गोखले सरीखे नेताओं ने पहले अपने आंदोलन को आधार देने वाला एक मजबूत ढांचा जनता के बीच पैठकर उनके साथ गढ़ा और तब उनको सिविल नाफरमानी को प्रेरित किया। इनमें से कई नेता विदेशों से ऊंची तालीम लेकर स्वदेश आए थे और भारत ही नहीं, विश्व राजनीति की भी गहरी समझ रखते थे। वापसी के बाद उन्होंने अपना सुविधामय जीवन और पारिवारिक दाय त्यागकर छोटे शहरों और गांवों के आमजन का भरोसा हासिल किया। तभी वे सदियों से राजनीति की मुख्यधारा से कटे हुए हाशिये के समूहों में भी नए लोकतंत्र का सपना जगाने और अन्याय को दमदार चुनौती देने लायक हिम्मत जगा सके।

बयालीस का आंदोलन जब सड़कों पर आया तो वह एक भावनात्मक उफान ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय रूप से संगठित मोर्चा था, जिसके नेता या जनता के बीच अपने साध्य और साधनों की पवित्रता पर कोई आपसी शक या मतभेद नहीं था। दूसरी बात, जो नेता शीर्ष पर थे, उन्होंने समाज को सिविल सोसायटी और शेष के अलग-अलग खांचों में नहीं बांटा। हर वर्ग, हर समूह बार-बार जेल जाने और निजी जीवन में तमाम टूट-फूट झेलने के लायक माना गया। महिला हों या पुरुष, उन लोगों ने भी आंदोलन को अपने हक की लड़ाई या आजादी के बाद सत्ता में अपनी और अपने गुट की भागीदारी से नहीं जोड़ा।

इसी अहसास के चलते सरोजिनी नायडू और फिर कमला देवी ने दांडी यात्रा में महिलाओं को शामिल न करने की बापू की जिद के खिलाफ अपनी जिद बेझिझक भिड़ा दी और महिलाओं को नमक सत्याग्रह से तो जुड़वाया ही, बाद में मुंबई में घर और सरकारी दफ्तरों में घुसकर ‘पवित्र’ आजादी नमक की थैलियां बेचकर राशि हरिजन फंड में भी जमा कराई। ताकलाकोट के गांव में काम कर रही ब्रिटिश मूल की गांधीवादी सरला बहन ने भारतीय कलेक्टर को उसी की अदालत में बुरी तरह फटकार दिया कि वह हिंदुस्तानी होकर भी ब्रिटिश सरकार की तरफ से अपने लोगों की धर-पकड़ क्यों करवा रहा है और नतीजे में नजरबंद की गईं।

उसके बाद भी वे निर्भीकता से जंगलों में रात भर यात्रा कर पहाड़ी इलाके के भूमिगत आंदोलनकारियों के परिवारों तक जरूरी खर्चा-पानी पहुंचाती रहीं। इसी तरह कबायली हमले के बाद सीधे कश्मीर जाकर कमला देवी और सत्यवती मलिक ने घुसपैठ में मारे गए लोगों तक जब तक सरकारी मदद नहीं पहुंची, लगातार अपने स्रोतों से मदद पहुंचाई और दिल्ली में मेयर अरुणा आसफ अली ने नेहरू सरकार से शरणार्थियों के लिए जमीन हासिल ही नहीं की, उनको खुद अपनी अगुवाई में श्रमदान कर फरीदाबाद में नई बस्ती बसाने को प्रोत्साहित भी किया। आज विज्ञान ने भले ही आंदोलनकारी नेताओं और मीडिया को जनसंपर्क साधने या आंदोलनों की सचित्र खबरें पूरी दुनिया तक पहुंचाने में सक्षम बना दिया हो, लेकिन दूरियां पाटने वाले पुराने नि:स्वार्थ व बहुमुखी राष्ट्रीय-मानवीय सरोकार धीरे-धीरे चले गए हैं। संगीत की भाषा में कहें तो आर्केस्ट्रा युग बिखर गया है और साज (या ढपली) पर अपना-अपना राग गाया जा रहा है।

उधर, नया मीडिया भले ही विश्वबंधुता और लोकतांत्रिक पारदर्शिता का पैरोकार बनकर उभरा हो, पर मीडिया उद्योग और सत्ता हर कहीं क्षुद्र आग्रहों तले दमनकारिता और तानाशाही की तरफ ही लुढ़क रहे हैं। नतीजा यह कि हर कहीं जवानी छटपटा रही है, लेकिन भरोसेमंद नेता उसे नजर नहीं आ रहे। जंतर-मंतर पर दिखी भावनाओं का उफान बिला रहा है और नेताओं के खिलाफ शक और कानाफूसी का अप्रिय दौर शुरू हो गया है। यह सब साबित करता है कि आज जनांदोलनों का संकट दो धड़ों के नेताओं के बीच चुनाव का नहीं, बल्कि जो सतत विश्वास पर कायम हो, ऐसे व्यापक जनजुड़ाव की अनुपस्थिति का है। पर फिर भी फौजी तानाशाही से बचने और जनता की उम्मीदों को पूरा करने के लिए राजनीतिक संस्थानों और निर्वाचित जननेताओं का लोकतंत्र में कोई विकल्प नहीं तो आज का बड़ा सवाल यह है कि नए नेतृत्व और राजनीतिक संस्थानों पर भरोसा बहाली कैसे सुनिश्चित हो?

जवाब सीधा है, जंतर-मंतर की बजाय जनता के बीच जाकर नेताओं को फिर से दलितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, कलाकारों, विस्थापितों के मूक बेतरतीब दुखों का शिव धनु उठाना होगा। स्वतंत्रता आंदोलन के लघुतर नेता और नेत्रियां भी बड़ी सहजता से उस पर प्रत्यंचा चढ़ाकर बेझिझक शीर्ष नेतृत्व के आगे जा खड़े होते थे। यह ठीक है कि पुरानी विचारधाराएं दुनिया भर में मिट रही हैं, इसलिए विचारधारा से विहीन राजनीतिक दल अब ताकत के छोटे-बड़े पुंज भर हैं, जिनके बीच अलग-अलग तरह के वैचारिक आग्रह नहीं, बल्कि राजनेताओं और शासक वर्ग के कथित घोटाले और चुनाव काल या संसदीय सत्र के दौरान बिलों पर मतदान के लिए साधे गए जोड़-तोड़ ही महत्व रखते हैं। पर यह नाकाफी है।

मीडिया में थुलथुल दलालों के भौंडे चुटकुलों के साथ भ्रष्टाचार पर बॉलीवुड के स्वयंभू ज्ञानियों तथा दलालों से शर्मनाक भाव-ताव करने में धरे गए खबरचियों की जिरहों को सुन रहे देश को याद दिलाना जरूरी है कि दिल्ली की पहली महिला मेयर अरुणाजी, हस्तशिल्पियों को राष्ट्रीय पहचान दिलाने वाली कमला देवी और सुदूर हिमालयीन अंचल में कस्तूरबा के नाम से स्त्री शिक्षा की ज्योति ले जाने वाली विदेशिनी सरला बहन के पास अंतिम समय अपनी कहने को कोई संपत्ति, यहां तक कि सिर पर अपनी छत तक नहीं थी।
http://www.bhaskar.com/article/ABH-jantar-mantar-instead-public-leaders-dalits-2053742.html

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