Sunday, July 17, 2011

नरम और लापरवाह राष्ट्र

मुंबई में एक और आतंकी हमले के बाद भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि गर्त में जाती देख रहे हैं संजय गुप्त

मंुबई में आतंकियों ने एक बार फिर कायरता दिखाते हुए बम धमाके कर निर्दोष लोगों की जान लेने के साथ ही भारतीय लोकतंत्र पर जबरदस्त आघात किया। इससे यह स्पष्ट हुआ कि भारतीय लोकतंत्र चुनिंदा नेताओं के हाथों में गिरवी होकर रह गया है और वे ऐसी घटनाओं को सहज भाव से ले रहे हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो राहुल गांधी यह नहीं कहते कि हर आतंकी हमला रोकना संभव नहीं। विडंबना यह है कि कांग्रेस राहुल के बचाव में खड़ी होकर यह साबित करने की कोशिश कर रही है कि वह बिलकुल सही कह रहे हैं और एक-दो हमले तो होते ही रहेंगे। कांग्रेसी नेताओं और विशेष रूप से उसके महासचिव दिग्विजय सिंह को इसकी चिंता अधिक है कि राहुल के बयान की आलोचना न हो। उन्होंने मुंबई बम विस्फोटों में संघ का हाथ होने की आशंका जताकर उन सभी संकीर्ण राजनीतिक कारणों को उजागर कर दिया जिनके चलते भारत आतंकवाद के समक्ष पस्त है। इस तरह के बयान देश को गुमराह करने के साथ-साथ पुलिस और जांच एजेंसियों की दशा-दिशा को प्रभावित करने वाले हैं। कांग्रेसी नेता यह महसूस करते नहीं दिख रहे कि आतंकियों ने आंतरिक सुरक्षा तंत्र की धज्जियां उड़ा दी हैं। यह भी विचित्र है कि गृहमंत्री पी. चिदंबरम खुफिया एजेंसियों की विफलता के बावजूद उसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं। वह इस तरह से पल्ला नहीं झाड़ सकते, क्योंकि मुंबई में आतंकी हमले ने सुरक्षा एजेंसियों के कथित तालमेल की पोल खोलने के साथ ही केंद्रीय गृह मंत्रालय को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है। 26/11 के बाद मंुबई की सुरक्षा व्यवस्था मजबूत करने के लिए जो तमाम वायदे खुद उन्होंने किए थे उनमें से अनेक अभी कागजों पर ही हैं। मुंबई में न तो सभी महत्वपूर्ण ठिकानों पर सीसीटीवी कैमरे लग सके हैं, न आतंकवाद निरोधक केंद्र स्थापित हो सका है और न ही समुद्र तटीय सुरक्षा दुरुस्त हो सकी है। नवंबर 2008 में जब आतंकियों ने मुंबई के अनेक महत्वपूर्ण ठिकानों पर हमला किया था और जिसमें करीब 170 लोग मारे गए थे तब केंद्र सरकार ने वादा किया था कि आंतरिक सुरक्षा का ऐसा तंत्र विकसित किया जाएगा जिससे आतंकियों के मंसूबे ध्वस्त होंगे, लेकिन ऐसा उस मुंबई में भी नहीं हो सका जहां आतंकी हमले का खतरा सबसे अधिक है। यह सही है कि इतने बडे़ देश में चप्पे-चप्पे पर पुलिस नहीं तैनात की जा सकती, लेकिन आखिर जैसी सजगता सीमाओं की रक्षा करने वाले जवानों में है वह पुलिस और आंतरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेदार खुफिया एजेंसियों में क्यों नहीं दिखती? यह आवश्यकता न जाने कब से महसूस की जा रही है कि पुलिस और खुफिया एजेंसियों को सक्षम बनाया जाए, लेकिन वे करीब-करीब पहले की तरह बदहाल हैं और कोई भी नेता यह बताने के लिए तैयार नहीं कि ऐसा क्यों है? हालांकि सभी जानते हैं कि जब तक पुलिस और खुफिया एजेंसियों का राजनीतिक इस्तेमाल नहीं रुकता तब तक हालात सुधरने वाले नहीं हैं, फिर भी सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग कोई पहल करने के लिए तैयार नहीं। यदि पुलिस और खुफिया एजेंसियां चुस्त-दुरुस्त हों तो न केवल आम जनता का मनोबल बढ़ेगा, बल्कि शैतानी ताकतों को हतोत्साहित करने में भी मदद मिलेगी। अभी ऐसा नहीं है और इसी कारण आतंकी हमले रुकने का नाम नहीं ले रहे। आतंकी पिछले लगभग दो दशकों से मुंबई को जिस तरह बार-बार निशाना बनाने में लगे हुए हैं उससे यह साफ है कि आंतरिक सुरक्षा का तंत्र चरमरा गया है। मुंबई पुलिस की हीलाहवाली से वहां अंडरव‌र्ल्ड फिर से पनपने लगा है। मुंबई में कई बार अंडरव‌र्ल्ड की मिलीभगत अथवा शह से धमाके हो चुके हैं। बावजूद इसके मुंबई पुलिस उसकी कमर तोड़ने में नाकाम है। भारत सरकार जिस दाऊद इब्राहिम को पाकिस्तान से मांग रही है वह अपने गुगरें के जरिये करोड़ों रुपये का गैर कानूनी साम्राज्य मुंबई में ही चला रहा है। कुछ अन्य माफिया सरगना भी ऐसा ही करने में सक्षम हैं। आखिर यह मजाक नहीं तो क्या है? क्या प्रधानमंत्री, केंद्रीय गृहमंत्री अथवा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री इससे अनभिज्ञ हैं कि मुंबई में अंडरव‌र्ल्ड फल-फूल रहा है और उसकी आतंकियों से साठगांठ भी है? मुंबई में ताजा बम धमाकों के बाद किसी भी सत्तारूढ़ नेता ने अभी तक पाकिस्तान की ओर उंगली नहीं उठाई है। इसका कारण कोई पुख्ता सबूत न होना हो सकता है और यह भी कि वे पाकिस्तान से होने वाली बातचीत नहीं तोड़ना चाहते। जो भी हो, यह एक तथ्य है कि भारत में फैले आतंकवाद की जड़ें पाकिस्तान में हैं। चूंकि पाकिस्तान के मामले में भारतीय कूटनीति अस्पष्ट और अस्थिर है इसलिए पाकिस्तान हर मंच पर यही प्रलाप करता है कि भारत में हो रहे आतंकी हमले उसकी आंतरिक समस्या हैं या फि रकश्मीर में जारी आजादी की कथित लड़ाई का नतीजा। यह सब सच्चाई से कोसों दूर है, फिर भी भारत सरकार असहाय है। देश के नेताओं को इस पर गहराई से विचार करना चाहिए कि आतंकियों का दुस्साहस क्यों बढ़ता जा रहा है, लेकिन वे ऐसा करने से इंकार कर रहे हैं। शायद इसी कारण अमेरिका पाकिस्तान के खिलाफ जो भी कड़ाई बरत रहा है वह केवल अपने हितों को ध्यान में रखकर। वह पाकिस्तान प्रेरित-प्रायोजित भारत विरोधी आतंकी गतिविधियों को गंभीरता से लेने के लिए तैयार नहीं। भारत को सोचना होगा कि आखिर ऐसा क्यों है? आतंकवाद से लड़ने के भारत के ढुलमुल तौर-तरीकों से दुनिया को यह संदेश भी जा रहा है कि भारतीय शासक आतंकवाद को जड़ से समाप्त करने की इच्छाशक्ति नहीं रखते। अब तो इसके प्रमाण भी उपलब्ध हैं। भारत दो दशकों से आतंकी हमलों से जूझ रहा है, लेकिन चंद मामलों को छोड़कर किसी में भी आतंकियों को सजा नहीं सुनाई जा सकी है। जिन मामलों में सजा सुनाई भी गई है उनमें उस पर अमल मुश्किल से हो पा रहा है। सरकार के पास इसका कोई ठोस जवाब नहीं कि संसद पर हमले में दोषी पाए गए आतंकी अफजल को सजा क्यों नहीं दी जा रही और कसाब की सजा में देर क्यों हो रही है? उसके पास इस सवाल का भी जवाब नहीं कि पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों को आधुनिक ढंग से प्रशिक्षित करने और आवश्यक संसाधनों से लैस करने में क्या कठिनाई है? चूंकि ये प्रश्न अनुत्तरित हैं इसलिए विश्व मंचों पर भारत को शर्मिदगी उठानी पड़ रही है। अब तो अनेक देश भारत को नरम राष्ट्र के साथ-साथ सुस्त और लापरवाह भी मानने लगे हैं। वे यह भी मानते हैं कि भारतीय नेता काम कम और बयानबाजी अधिक करते हैं। आंतरिक सुरक्षा के मामले में लापरवाही का परिचय देने वाली केंद्र सरकार आलोचना से बच नहीं सकती। यदि वह आंतरिक सुरक्षा को दुरुस्त नहीं कर सकती तो फिर उसे सत्ता छोड़ देनी चाहिए।

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