Sunday, July 31, 2011

तथाकथित आधुनिकता पता नहीं भारत को कहाँ पहुँचा कर छोड़ेगी ?

बेशर्मी मोर्चा छोटे कपड़ों को गलत नहीं मानता .मैं इन तथाकथित समाजसुधारकों जैसे नफीसा अली आदि से पूछना चाहूँगा जिस प्रकार से हानिकारक गैस वातावरण को प्रदूषित करके प्राणियों पर मानसिक व शारीरिक दुष्प्रभाव डालती हैं.ऊँची ध्वनियों से ध्वनि प्रदूषण होता है.जिस प्रकार से किसी बच्चे के अबोध मन मस्तिष्क पर अश्लील चित्र गलत असर डालते हैं.अगर आप अपने किसी भी मकान दूकान ,वाहन,वस्तु,रुपये पैसे या अन्य भौतिक संशाधन को उचित देखरेख व सुरक्षा में नहीं रखोगे तो हरेक व्यक्ति का हौंसला बढ़ जाता है कि वह मौका मिलते ही उपरोक्त चीजों पर हाथ साफ़ करदे.छेड़खानी की घटनाओं में अभिवृद्धि के पीछे गलत कपड़ों का पहनना भी एक कारण है.सही सोच वाला पुरुष भी यदि छोटे कपड़ों में महिलाओं को बार बार देखेगा तो कभी न कभी उसकी मानसिक कलुषिता इतने खतरनाक स्तर पर पहुँच जायेगी कि वह कोई दुर्व्यवहार कर बैठेगा.जब मुनि विश्वामित्र जैसे तपस्वी ऋषियों का तप भंग हो सकता है तो आज के वातावरण में,जहाँ विभिन्न माध्यमों से वैचारिक प्रदूषण चरम पर है, इसकी सम्भावना कई गुणा बढ़ जाती है.मोर्चा के संयोजकों का एक और बेहूदा तर्क कि हम क्यों नहीं पुरुषों की तरह अपनी छाती को खुला रख सकते,हमें भी पुरुषों की तरह अपने शरीर पर पूरा अधिकार है.समाज और परिवार में इसप्रकार आपस में कोई तुलना या प्रतिस्पर्धा नहीं होती,फिर तो बच्चे,नौजवान व बूढ़े हरेक यह सवाल उठा सकता है कि अमुक काम वह क्यों नहीं कर सकता.विश्व की प्राचीन मानव सभ्यताओं का निर्माण इसप्रकार की बेतुकी प्रतिस्पर्धा से नहीं हुआ है.तदुपरान्त इससे एक कदम और आगे यह भी कहने में कोई बुराई नहीं है कि यदि पशु पक्षी जीव जन्तु स्वच्छंद जीवन शैली जीते हैं तो हम क्यों नहीं .हम तो सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ हैं..इस प्रकार की तथाकथित आधुनिकता पता नहीं भारत को कहाँ पहुँचा कर छोड़ेगी ?
(राजेश तोशामिया,भिवानी 9215923655)..

Saturday, July 30, 2011

ओबामा की चली तो आरएसएस पर चलेगा अमेरिकी कानून का डंडा

अमेरिका एक बार फिर दूसरे देशों के अंदरूनी मामलों में दखल देने की योजना बना रहा है। इस बार उसके निशाने पर भारत समेत पूर्व और दक्षिण मध्य एशिया के देश हैं। अमेरिका इन देशों में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और उनके अधिकारों की खुद निगरानी करने के लिए एक विशेष दूत की नियुक्ति की योजना बना रहा है।

अमेरिका के सांसद फ्रैंक वॉल्फ और अन्ना ईशू ने अमेरिकी कांग्रेस (संसद) की मंजूरी के लिए एक बिल पेश किया है। इस विधेयक का मकसद है पूर्व और दक्षिण मध्य एशिया के देशों में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और उनके अधिकारों पर नज़र रखना। प्रस्तावित विधेयक में भारत का खास तौर पर जिक्र है। बिल के मुताबिक अमेरिका भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति पर निगाहें रखेगा। अमेरिका इसे कितनी अहमियत दे रहा है, इसका अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि वह विशेष दूत के कामकाज पर हर साल चार करोड़ रुपये से ज़्यादा खर्च करेगा।

जानकार मानते हैं कि अगर कानून बना तो अमेरिका विशेष दूत के जरिए भारत में संघ (राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ) परिवार से जुड़े संगठनों की गतिविधियों पर भी नज़र रख सकता है। संघ परिवार से जुड़े कई लोगों पर आतंकवादी और अल्‍पसंख्‍यक विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप लगे हैं और मुकदमे चल रहे हैं। हालांकि आरएसएस खुद को राष्‍ट्रवादी संगठन बताता है और यह कह चुका है कि वह मुसलमानों के खिलाफ नहीं है।

अमेरिकी संसद में मंजूरी के लिए पेश बिल का नाम है ‘टु प्रोवाइड फॉर द इस्टैब्लिशमेंट ऑफ द स्पेशल ऑनवॉय टू प्रमोट फ्रीडम ऑफ रिलीजियस माइनॉरिटीज इन द नियर ईस्ट एंड साउथ सेंट्रल एशिया’। इस बिल को अमेरिका की दोनों पार्टियों- डेमोक्रैटिक और रिपब्लिकन - का समर्थन हासिल है। खास कर ईसाई परंपरावादी इस बिल को जोरदार समर्थन दे रहे हैं। जानकार मान रहे हैं कि यह बिल जल्द ही कानून की शक्ल ले लेगा। इस बिल में यह कहा गया है कि अमेरिकी विदेश मंत्रालय में विशेष दूत का पद बनाया जाए। इस बिल में जिन देशों में अल्पसंख्यकों पर निगरानी रखने की योजना तैयार की गई है, उनमें भारत के अलावा पाकिस्तान भी शामिल है। जबकि चीन ने वेटिकन के उस अधिकार को खुले आम चुनौती दी है, जिसके तहत वेटिकन चीन में मौजूद गिरिजाघरों में पदाधिकारियों की नियुक्ति करता है।

क्या करेगा और कौन होगा दूत
प्रस्तावित बिल के मुताबिक अमेरिका का विशेष दूत धार्मिक रूप से अल्पसंख्यकों के धर्म से जुड़े अधिकारों को बढ़ावा देगा। अल्पसंख्यकों के अधिकारों में हनन होने पर दूत अमेरिकी सरकार को उचित कार्रवाई के लिए सिफारिश करेगा। विशेष दूत धार्मिक असहिष्णुता को रोकने और उस पर नज़र रखने का काम करेगा। इसके अलावा धार्मिक तौर पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा भड़काने की कोशिशों पर भी नज़र रखेगा। ऐसे समुदायों की आर्थिक और सुरक्षा संबंधी जरूरतों को पूरा कराने के लिए यह दूत काम करेगा। वहीं, अल्पसंख्यकों से भेदभाव की गुंजाइश वाले भारतीय कानूनों के मुद्दों को गैर सरकारी भारतीय संगठनों के साथ मिलकर सरकार के सामने उठाएगा। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस गंभीर मुद्दे को उठाएगा। बिल के मुताबिक विशेष दूत के लिए यह जरूरी है कि वह मानवाधिकार और धार्मिक आज़ादी के लिए काम करने वाल जाना पहचाना चेहरा हो। यह दूत अमेरिकी राजदूतों के समकक्ष होगा।

भारत के बारे में भ्रामक है अमेरिकी रिपोर्ट
धार्मिक आज़ादी को लेकर जारी ताज़ा रिपोर्ट में अमेरिका का मानना है कि भारत में धार्मिक आज़ादी को संविधान के तहत मान्यता दी गई है। लेकिन कुछ राज्यों में कानून और नीतियां इस हक का हनन करते हैं। संघीय ढांचे वाले भारत में कानून व्यवस्था राज्य का मसला है। ऐसे में दो कानून का तर्क बिल्कुल गलत है। इस रिपोर्ट में भारत गृह मंत्रालय के आंकड़ों का हवाला देकर सांप्रदायिक दंगों के बारे में बताया गया है।
साभार:-दैनिक भास्कर

पाकिस्‍तान में 'शामत' से घबराए हिंदू भारत को बनाना चाहते हैं घर

इस्लामाबाद. पाकिस्तान के बलूचिस्‍तान प्रांत में रहने वाले हिंदुओं की सुरक्षा में सरकार नाकाम साबित हुई है। नतीजतन हिंदू मुल्‍क छोड़ कर भारत में बसना चाह रहे हैं।
बलूचिस्‍तान के 100 हिंदू परिवार भारत में शरण लेने का प्रयास कर रहे हैं। बलूचिस्तान में हिंदू परिवार के सदस्यों के साथ बड़े पैमाने पर अपहरण और फिरौती वसूलने की घटनाएं हो रही हैं। प्रशासन से भी पर्याप्त सुरक्षा न मिलने के कारण, अब वे भारत जाने और वहीं रहने का प्रयास कर रहे हैं। कुछ दिन पहले एक अधिकारी के हवाले से खबर आई थी कि ऐसे परिवारों की संख्‍या मात्र 27 है, लेकिन यहां के एक अखबार 'द एक्सप्रेस ट्रिब्यून' के अनुसार ऐसे परिवारों की संख्‍या सौ से भी ज्‍यादा है।
बलूचिस्तान के दक्षिणी पश्चिमी हिस्से में हाल में हिंदुओं के अपहरण की कई वारदात हुई हैं। पिछले साल करीब 291 व्यक्तियों का अपहरण किया गया, जिसमें अधिकांश हिंदू थे। अकेले राजधानी क्वेटा में एक साल में 8 व्यक्तियों का अपहरण हुआ है, जिनमें से 4 हिंदू थे। नसीराबाद जिले में भी हालात काफी खराब हैं। यहां 2010 में 28 व्यक्तियों का अपहरण किया गया, जिसमें से आधे अल्पसंख्यक समुदाय के थे।
बलूचिस्तान के मस्तांग क्षेत्र के पांच हिंदू परिवार भारत में शरण ले चुके हैं और बाकी भी भारत आने की कोशिश कर रहे हैं। यहां रहने वाले विजय कुमार ने कहा यहां रहना हिंदुओं के लिए सुरक्षित नहीं है। एक अन्य व्यक्ति सुरेश कुमार ने कहा कि यहां कानून-व्यवस्था नहीं के बराबर है और हिंदुओं को परेशान किया जा रहा है।
अखबार में छपी रिपोर्ट के अनुसार अपहरण किए गए अधिकांश पीड़ित भारी रकम चुका कर ही रिहा हुए हैं। लेकिन पीड़ित परिवार इस बात का खुलासा नहीं कर रहे कि उन्होंने कितनी रकम चुकाई क्योंकि उन्हें डर है कि वे फिर से अपराधियों का निशाना बन सकते हैं।
करीब 16 महीने पहले यहां के जाने-माने व्यापारी जुहारी लाल का अपहरण कर लिया गया, लेकिन आज तक उनका कुछ पता नहीं चला है। हाल ही में पाकिस्तान में धार्मिक गुरु लख्मीचंद गर्जी का अपहरण कर लिया गया, जिनका अभी तक कुछ अता पता नहीं है। सरकार बस चिंता भर जता रही है। बलूचिस्तान के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री बसंतलाल गुलशन के अनुसार इन घटनाओं से सरकार चिंतित है।
बलूचिस्तान में हुआ था हिंदुओं का नरसंहार
बलूचिस्‍तान में हिंदुओं पर जुल्‍म की दास्‍तां पुरानी है। यहां मार्च 2005 में सुरक्षा बलों ने हिंदुओं पर गोलियां चलाकर 33 हिंदुओं को मार दिया था। मरने वालों में अधिकांश महिलाएं और बच्चे थे। इसके बाद कई हजारों अल्पसंख्यकों ने अपने घर छोड़ दिए थे। और तो और, यह घटना पूरी तरह दबा गई। नरसंहार का खुलासा जनवरी 2006 में हुआ, जब पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग के प्रतिनिधि वहां पहुंचे। आयोग को स्थानीय निवासियों ने वीडियो टेप भी उपलब्ध कराए, जिसमें इस हत्याकांड के सबूत थे।
1947 में बंटवारे के वक्‍त बलूचिस्तान में हिंदू जनसंख्या 22 फीसदी थी, जो अब घटकर केवल 1.6 फीसदी रह गई है। अल्पसंख्यक आयोग की 2003 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार हिंदुओं के मुस्लिम बस्तियों से गुजरने पर आपत्ति व्यक्त की जाती है। हिंदू छात्राओं को जबरिया मुस्लिम बनाया जा रहा है। हिंदुओं के धर्मस्थल तोड़े जा रहे हैं। कुछ समय पहले तक हिंदू इस इलाके में आर्थिक रूप से काफी संपन्न होते थे, लेकिन मुस्लिम कट्टरपंथियों के कारण, अधिकांश अब यहां से जा चुके हैं। सरकारी नौकरियों में हिंदुओं की संख्या काफी कम है, लेकिन जो भी हैं, वे भी परेशान किए जा रहे हैं।
पाकिस्तान में हिंदू, सिख और ईसाई जैसे अल्पसंख्यक समुदायों के साथ बहुसंख्यक अच्छा बर्ताव नहीं करते हैं। कई हिंदू परिवारों को अपना पुश्तैनी घर छोड़ने और मंदिर को तोड़े जाने के फरमान जारी होते रहते हैं। पेशावर जैसे कई शहरों में ऐसे फरमान जारी हो चुके हैं। हिंदु लड़कियों का अपहरण करके उनके साथ जबर्दस्ती शादी करने और धर्म परिवर्तन की कई घटनाएं हो चुकी हैं। यही वजह है कि १९४८ में पाकिस्तान में जहां हिंदुओं की आबादी करीब १८ फीसदी थी, वही अब घटकर करीब दो फीसदी हो गई है।
पाकिस्तान में तालिबानी कट्टरपंथियों का कहर पिछले कुछ सालों से हिंदू परिवारों पर भी टूट रहा है। हिंदू परिवार की लड़कियों का अपहरण और उनका जबरन धर्म परिवर्तन अब आम बात हो गई है। सरकारी तंत्र ने भी कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक दिए हैं।
हजारों हिंदू खटखटा रहे भारत का दरवाजा
एक आकलन के मुताबिक पिछले छह वर्षो में पाकिस्तान के करीब पांच हजार परिवार भारत पहुंच चुके हैं। इनमें से अधिकतर सिंध प्रांत के चावल निर्यातक हैं, जो अपना लाखों का कारोबार छोड़कर भारत पहुंचे हैं, ताकि उनके बच्चे सुरक्षित रह सकें।
2006 में पहली बार भारत-पाकिस्तान के बीच थार एक्सप्रेस की शुरुआत की गई थी। हफ्ते में एक बार चलनी वाली यह ट्रेन कराची से चलती है भारत में बाड़मेर के मुनाबाओ बॉर्डर से दाखिल होकर जोधपुर तक जाती है। पहले साल में 392 हिंदू इस ट्रेन के जरिए भारत आए। 2007 में यह आंकड़ा बढ़कर 880 हो गया। पिछले साल कुल 1240 पाकिस्तानी हिंदू भारत जबकि इस साल अगस्त तक एक हजार लोग भारत आए और वापस नहीं गए हैं। वह इस उम्मीद में यहां रह रहे हैं कि शायद उन्हें भारत की नागरिकता मिल जाए, इसलिए वह लगातार अपने वीजा की मियाद बढ़ा रहे हैं।
पाकिस्‍तान में हिंदू:-
पाकिस्‍तान की आबादी का करीब 2.5 फीसदी हिस्‍सा यानी 26 लाख हिंदुओं का है।
हिंदू समुदाय करीब पूरे पाकिस्‍तान में फैला हुआ है और 95 फीसदी हिंदू सिंध प्रांत रहते हैं।
सिंध का थारपरकर जिला ही ऐसा है जहां हिंदू बहुमत (51 फीसदी) हैं। इस प्रांत के कुछ अन्‍य जिलों में भी हिंदुओं की आबाद है जिसमें मीरपुर खास (41 फीसदी), संगहार (35 फीसदी), उमरकोट (43 फीसदी)।
पाकिस्‍तान में रहने वाले हिंदुओं में करीब 82 फीसदी पिछड़ी जाति से संबंधित हैं। इनमें अधिकतर खेतीहर मजदूर हैं।
थारपरकर में हिंदुओं की अपनी जमीन भी है।
पाकिस्‍तान की नेशनल असेंबली में हिंदू सदस्‍य हैं- किशन भील, ज्ञान चंद और रमेश लाल।
कराची, हैदराबाद, जकोबाबाद, लाहौर, पेशावर और क्‍वेटा जैसे कुछ शहरों में भी हिंदुओं की आबादी रहती है।
फोटो कैप्‍शन: पाकिस्‍तान में उजाड़े गए हिंदुओं के घर की फाइल तस्‍वीर।
साभार:-दैनिक भास्कर

Friday, July 29, 2011

घोटालों के निष्कि्रय संरक्षक

संवैधानिक दायित्व के पालन में लापरवाही को प्रधानमंत्री का मूल स्वभाव बता रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित

संप्रग सरकार पर भ्रष्टाचार को संस्थागत बनाने के आरोप थे ही, रही-सही कसर पूर्व संचारमंत्री ए राजा ने पूरी कर दी। राजा ने शीर्ष न्यायपीठ के सामने संचार घोटाले के मामले में प्रधानमंत्री को भी शामिल बताया है। गृहमंत्री पी चिदंबरम भी लपेटे में हैं। कांग्रेस ने इसे एक अभियुक्त के बचाव की बयानबाजी बताकर पल्ला झाड़ लिया है। सर्वोच्च न्यायपीठ के सामने प्रधानमंत्री को सहअभियुक्त जैसा प्रस्तुत किया गया है, बावजूद इसके प्रधानमंत्री चुप हैं। आखिरकार राजा के आरोपों पर प्रधानमंत्री का स्पष्टीकरण क्यों नहीं आया? प्रधानमंत्री के मौन का अर्थ स्वीकृति लगाया जा रहा है। ए राजा ने प्रधानमंत्री को साजिश व कर्तव्यपालन में लापरवाही का दोषी ठहराया है। कर्तव्यपालन में लापरवाही मनमोहन सिंह का मूल स्वभाव है। लेकिन प्रधानमंत्री के विरुद्ध साजिश का आरोप संगीन मामला है। राजा के तर्क में दम है। स्पेक्ट्रम आवंटन के पूरे मामले का परीक्षण करने के लिए प्रधानमंत्री ने मंत्रिसमूह का गठन क्यों नहीं किया? राजा के अनुसार प्रधानमंत्री ने ही मंत्रिसमूह गठित न करने का निर्णय लिया। कायदे से प्रधानमंत्री को अपनी चुप्पी तोड़कर सत्य का पर्दाफाश करना चाहिए। उन्हें अपनी गलती स्वीकार करनी चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय में चल रही कानूनी कार्यवाही में सहयोग करना चाहिए। ए राजा साधारण अभियुक्त नहीं हैं। वह उनके विश्वासपात्र मंत्री रहे हैं। यह मुकदमा भी असाधारण प्रकृति का है। केंद्र सरकार सीधे भ्रष्टाचार के लपेटे में है। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री भी इस कांड से बाहर नहीं दिखाई देते। राजा के वकील ने कोर्ट से गृहमंत्री को भी गवाह बनाने की मांग की है। पी चिदंबरम पहल करें, कोर्ट के सामने जाएं, न्यायिक कार्यवाहियों में उठे प्रश्नों का उत्तर दें। संविधान निर्माताओं ने ही सरकारी जवाबदेही को संसदीय जनतंत्र का मुख्य आदर्श बताया था। प्रधानमंत्री से कोई अपेक्षा करना बेकार है। वह प्रधानमंत्री पद के वास्तविक प्राधिकार से वंचित हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री की तरह कभी कोई काम नहीं किया। राष्ट्रमंडल घोटाले से देश की अंतरराष्ट्रीय बदनामी हुई। भ्रष्टाचार और लूट के महोत्सव उनकी जानकारी में थे, लेकिन वह लाचार होकर टुकुर-टुकुर ताकते रहे। दूरसंचार घोटाले से वह अवगत थे। ए राजा का वक्तव्य पर्याप्त साक्ष्य है। मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति धांधली में वह शामिल थे। उन्होंने गलत काम को रोकने में कभी कोई हस्तक्षेप नहीं किया। कर्तव्यपालन में ऐसी लापरवाही किसी भी जनतांत्रिक देश के प्रमुख ने नहीं की। उन्होंने अपनी तरफ से भी कभी कोई सही काम नहीं किया। वास्तविक सत्ता सोनिया गांधी ने चलाई, जिम्मेदार वह बने। अच्छाई का श्रेय सोनिया, राहुल ले गए और सारे गलत कामों के जिम्मेदार प्रधानमंत्री बने। उन्होंने सक्रिय, जिम्मेदार और जवाबदेह प्रधानमंत्री होने का कोई प्रयास नहीं किया। पूंजीवादी अर्थशास्त्र की विद्वता व्यावहारिक सत्ता संचालन में काम नहीं आती। वह हरेक मोर्चे पर विफल रहे और वीतरागी संन्यासी की तरह पद से हटने की प्रतीक्षा करते रहे। प्रधानमंत्री करें तो क्या करें? कांग्रेस 1947 से ही ऐसी है। पंडित नेहरू बेशक कामकाजी प्रधानमंत्री थे, लेकिन सत्ता में भ्रष्टाचार की शुरुआत उसी समय हुई। 1949 में नेहरू के खास मंत्री कृष्णमेनन पर 216 करोड़ रुपये के जीप घोटाले का आरोप लगा। लोक लेखा समिति ने दोषी पाया। कुछ दिन बाद वह फिर से मंत्री बने। 1957 में मूंदडा कांड हुआ। फिरोज गांधी ने सवाल उठाया। वित्तमंत्री टीसी कृष्णमाचारी का त्यागपत्र हुआ। बवाल रुका, वह भी फिर से मंत्री हो गए। कांग्रेस की यही परंपरा आगे चली। इंदिरा गांधी के विरुद्ध नागरवाला कांड राष्ट्रीय चर्चा का विषय बना। इंदिरा गांधी के शासन में ही भ्रष्टाचार को सार्वजनिक स्वीकृति मिली। प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बोफोर्स ने घेरा। उन्हीं के कृपापात्र क्वात्रोचि का साथ वर्तमान केंद्रीय सत्ता ने भी दिया। प्रधानमंत्री नरसिंहा राव भी पीछे नहीं रहे। रिश्वत देकर संसद में वोट, लक्खूभाई पाठक कांड और हर्षद मेहता कांड सहित तमाम घोटालों के जरिए उन्होंने कांग्रेस की परंपरा को बढ़ाया, बखूबी सरकार भी चलाई। कांग्रेसी परंपरा के सभी पूर्व प्रधानमंत्री घपलो-घोटालों के सक्रिय संरक्षक थे। लेकिन मनमोहन सिंह ऐसे सभी मामलों के निष्कि्रय संरक्षक हैं। दरअसल निष्कि्रयता ही उनकी पूंजी है। सोनिया गांधी ने उन्हें निष्कि्रय रहने का ही काम सौंपा है। राजनीतिक सक्रियता उनका काम नहीं। चुनाव उन्हें लड़ना नहीं। चुनाव अभियान में उनका उपयोग नहीं। उनका कहीं कोई जनाधार भी नहीं। कांग्रेसी जीत का श्रेय उन्हें मिलना नहीं। हार की जिम्मेदारी के लिए उनसे अच्छा कोई दूसरा बलि का बकरा नहीं। वह सोनिया, राहुल और उनके सहयोगियों की अच्छी बुरी सक्रियता को निर्बाध चलाते रहने की जिम्मेदारी ही निभाते हैं। बेशक भ्रष्टाचार रोकना प्रधानमंत्री की ही जिम्मेदारी है। आतंकवाद, आंतरिक सुरक्षा, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, किसान उत्पीड़न आदि समस्याओं से निपटना भी उनका ही प्राथमिक संवैधानिक कर्तव्य है। सारा देश उनसे सक्रियता की अपेक्षा करता है, उनकी ही ओर टकटकी लगाए रहता है, लेकिन वह सिर्फ एक ही परिवार के प्रति निष्ठावान हैं। वह खुश हैं कि वह परिवार उनसे खुश है। उनकी निष्कि्रयता ही उनकी विद्वता और विनम्रता है। संसदीय जनतंत्र का मुख्य गुण है-जवाबदेही। शीर्ष भ्रष्टाचार के लिए प्रधानमंत्री जिम्मेदार हैं, लेकिन उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोप में किसी मंत्री को नहीं हटाया। कोर्ट ने पहल की तभी कार्रवाई हुई। ए राजा ने सीधे उन पर, गृहमंत्री और सोलीसिटर जनरल पर उंगली उठाई है। बावजूद इसके वह चुप हैं। हाईकमान ने उन्हें चुप रहने को ही कहा है। जाहिर है, कांग्रेस और केंद्र सरकार जनता के प्रति जवाबदेही के संवैधानिक सिद्धांत को नहीं मानते। (लेखक उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं)
साभार:- दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111717418674083552

Thursday, July 28, 2011

आज़ाद भारत की अदालतों में गुलाम भारत की बोली

तमिलनाडु में इस समय उच्च न्यायालय में तमिल भाषा में बहस करने की सुविधा के लिए जबर्दस्त आंदोलन चल रहा है। अधिवक्ताओं को मुख्य न्यायाधीश के इस आश्वासन से संतोष नहीं है कि तमिल भाषा में बहस करने पर कोई रोक नहीं है। आंदोलनकारियों को कहना है कि अदालत में तमिल के प्रयोग का अधिकृत आदेश ही नहीं है। उच्च न्यायालयों में राज्य की भाषा के प्रयोग के संदर्भ में जो स्थिति तमिलनाडु में है, वही प्रायः सभी राज्यों में है। हिंदी भाषी राज्यों में तो कई न्यायाधीशों ने हिंदी में निर्णय भी लिखे हैं। लेकिन किसी भारतीय भाषा को उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में प्रयोग की विधिक मान्यता नहीं है। किसी भी भारतीय भाषा में दिए गए निर्णय या दस्तावेज को सर्वोच्च न्यायालय में तब तक अधिकृत नहीं माना जाता, जब तक उसका अंगरेजी अनुवाद संलग्न न किया जाए। हमारे संविधान में राजकाज के लिए हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया था तथा दस वर्ष के लिए अंगरेजी को सहायक भाषा के रूप में प्रचलित रखने का निश्चय किया गया था। दस साल कब के बीत गए। इस बीच संविधान में संशोधन भी कर दिया गया कि जब तक देश के सभी राज्य अंगरेजी को हटाकर राजभाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग के लिए सहमत नहीं होते, तब तक अंगरेजी का प्रयोग जारी रहेगा। कई राज्य ऐसे भी हैं, जो अपनी भाषा से अधिक अंगरेजी को महत्व देते हैं। केरल में विधानसभा की कार्यवाही मलयालम के बजाय अंगरेजी में ही अधिक होती है। हमारे देश में बांग्ला और तमिल दो ऐसी भाषाएं हैं, जो अंतरराष्ट्रीय होने के गौरव से मंडित हैं। शायद ही कोई ऐसी भारतीय भाषा हो, जिसका साहित्य और कोष अंगरेजी से टक्कर न लेता हो, फिर भी देश की सत्ता के नियंत्रक औपचारिक अवसरों पर वैकल्पिक भाषा बोलने में गर्व अनुभव करते हैं। महात्मा गांधी ने हिंदी को स्वदेशी अभियान का मूलाधार बनाया। पंडित राज गोपालाचारी ने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समाज की स्थापना की। आजादी के लिए समर्पित विभिन्न गैर हिंदीभाषी राज्यों में हिंदी प्रचार के संगठन बने। कांग्रेस अधिवेशन की कार्यवाही हिंदी में ही होती थी। लेकिन आजादी के बाद स्वार्थी वर्ग परिदृश्य पर उभरा, उसने भारतीय भाषाओं के बीच वैमनस्य का ऐसा बीज बोया कि अंगरेजों के चले जाने के बाद भी वे अंगरेजी की चेरी बनकर रह गईं। हालांकि अंगरेजी की अपरिहार्यता का आग्रह अब कमजोर पड़ रहा है। देश भर में प्रकाशित होने वाले समाचारपत्रों में से प्रथम दस में एक-दो अखबार ही स्थान पाते हैं। अंगरेजी के स्थान पर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में टेलीविजन प्रसारण ज्यादा हो रहा है। फिर भी दबदबा अंगरेजी का ही कायम है। आज भी सबसे ज्यादा विज्ञापन अंगरेजी समाचार पत्रों को ही उपलब्ध है, क्योंकि वह सक्षम लोगों की भाषा है। राजभाषा और राष्ट्रभाषा के अंतर को समझकर सभी राष्ट्रीय भाषाओं को राजभाषा के रूप में प्रयोग करने का अभियान चलाने का एक सुअवसर तमिलनाडु के अधिवक्ताओं ने प्रदान किया है। अगर उन्हें मद्रास उच्च न्यायालय में तमिल के प्रयोग का अधिकृत अधिकार प्राप्त हो जाता है, तो अन्य उच्च न्यायालयों में भी वहां की राजभाषा अधिकृत भाषा हो सकेगी और सर्वोच्च न्यायालय भी केंद्र की स्वीकृत राजभाषा के प्रयोग को वैधता प्रदान करने के लिए बाध्य होगा।
(साभार अमर उजाला)
Posted by राजनाथ सिंह ‘सूर्य’ on Jul 3 2010. Filed under ब्लॉग

Short URL: http://www.janatantra.com/news/?p=12545

आरएसएस का हौवा

दिग्विजय सिंह के संघ विरोधी बयानों से कांग्रेस को कोई लाभ मिलता हुआ नहीं देख रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य
भारतीयता ही राष्ट्रीयता और राष्ट्रीयता ही मंत्रिधर्म है। इस विचारधारा में आस्था रखने वालो को कांग्रेस महामंत्री दिग्विजय सिंह के प्रति आभार व्यक्त करना चाहिए। उन्होंने इस अवधारणा से लोगों को जोड़ने के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के काम को आसान कर दिया है। जनसंघ की स्थापना 1951 में हुई थी। 1952 में पहले लोकसभा चुनाव में जनसंघ को आधे निर्वाचन क्षेत्रों में उम्मीदवार भी नहीं मिले थे। दक्षिण भारत के राज्यों में तो स्थिति और भी खस्ता थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सारे देश में विशेष कर दक्षिण भारत में जनसंघ की मुखर आलोचना की। यहां तक कि इसे नाजी और फासिस्ट जर्मनी तथा इटली से प्रेरणा लेने वाला संगठन बताया। तब जनसंघ अध्यक्ष डॉ। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि नेहरू हमारे सबसे बड़े प्रचारक हैं। उन्होंने देशभर में हमारी पहचान बनाई है। नेहरू वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थे। उनके नेतृत्व में जिस सरकार ने 1948 में गांधीजी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगाया उसी ने 1962 में चीनी हमले के बाद संघ को गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने का निमंत्रण दिया। संघ के स्वयंसेवक अपने गणवेश में उसमें शामिल हुए थे। तबसे लेकर आज तक संघ को तीन बार प्रतिबंधित किया गया। पहले प्रतिबंध को उसने अपने संगठन की शक्ति के बल पर नाकाम किया। इसके बाद जब 1975 में इंदिरा गांधी ने प्रतिबंधित किया तो 1977 में संघ ने कांग्रेस को चुनावी शिकस्त देकर उसका मुकाबला किया। इसी प्रकार जब नरसिम्हा राव के कार्यकल में 1992 में प्रतिबंध लगा तो अदालत ने सारे आरोपों को निराधार करार देते हुए प्रतिबंध हटाने का आदेश दिया। शिक्षा, सामाजिक सद्भाव तथा स्वावलंबन के आधार पर विकास के क्षेत्र में संघ ने उल्लेखनीय काम किया है। आजादी के समय कांग्रेस के अलावा देश में समाजवादी और साम्यवादी पार्टियां ही थीं, जिनकी नीतियों में कोई मतभेद नहीं था। जनसंघ की स्थापना से एक वैचारिक भिन्नता मिली और नई राजनीतिक शक्ति का उदय हुआ। आज कांग्रेस से भी अधिक राज्यों में भाजपा सत्तासीन है। साम्यवादी विचारधारा के संगठन सभी क्षेत्रों में ध्वस्त हो चुके हैं। भ्रष्टाचार और कुशासन की पहचान बनने से हताश कांग्रेस को लगता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हौवा खड़ा कर वह देश के मुसलमानों के वोट के सहारे चुनावी नैया पार लगा लेगी। मुसलमानों में संघ के प्रति भय का जो कृत्रिम माहौल है उसको भड़काकर सभी गैर भाजपाई दल भयदोहन की राजनीति कर रहे हैं। अब तो मुसलमान भी इस भ्रामक प्रचार से ऊबने लगा है। बिहार में मुस्लिम गुमराह नहीं हुआ और गुजरात में भी निष्पक्ष व विकासोन्मुखी कामों ने उन्हें भ्रमित होने से रोका है। मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की छवि विकृत हो रही है। कांग्रेस में इससे बेचैनी है। मंत्रिमंडल के सदस्य प्रधानमंत्री के निर्देश की निरंतर अवहेलना कर रहे हैं। आतंकी वारदातों में पाकिस्तानी हमलावरों के पकड़े जाने पर संतुलन बनाने के लिए हिंदू आतंकवाद का हौवा खड़ा किया जाता है। अब सोनिया गांधी की सुपर कैबिनेट हिंदू विरोधी सांप्रदायिकता विरोधी विधेयक पास कराना चाह रही है। यह आश्चर्य की बात है कि जो कांग्रेस दिग्विजय सिंह की राय को उनकी निजी राय कहकर अपना पल्ला झाड़ रही है वही एक ऐसा विधेयक लाने जा रही है जिसमें किसी संस्था अथवा व्यक्तिगत विचारों की अभिव्यक्ति या कृत्य के लिए गिरफ्तारी का प्रावधान है। दिग्विजय सिंह की नवीनतम सोच है संघ बम बनाने की फैक्टरी है। जो पिया मन भावै वही सुहागिन उक्ति के अनुसार वह सोनिया गांधी की नजरों में अहमद पटेल के बाद सबसे विश्वस्त समझे जाते हैं। दिग्विजय सिंह को मध्य प्रदेश में दो स्थानों पर काले झंडे दिखाए गए। टीवी पर उन्हें जिस तरह भागते हुए दिखाया गया उससे उनके हिम्मती होने की छवि की चिंता उन्हें भी करनी चाहिए। जिस तरह उन्होंने बिना छानबीन के राजस्थान के पत्रकार को संघी घोषित कर उत्तेजना पैदा करने की कोशिश की और बाद में गलत साबित हुए वही हाल उनके बाकी आरोपों का भी है। केंद्र सरकार आरोपों के संबंध में छानबीन में बड़ी तेजी दिखाती है। क्या उसे दिग्विजय सिंह से संघ को बम बनाने की फैक्ट्री बताने की जानकारी नहीं लेनी चाहिए? वह आतंकी घटनाओं में संघ का हाथ होने का दावा करते हैं, लेकिन जानकारी नहीं देते। जिन्हें बेवजह फंसाया जा रहा है उनके खिलाफ प्रतिनिधिमंडल को प्रधानमंत्री से मिलवाते हैं। प्रत्येक विस्फोट के बाद जांच एजेंसियां जिस दिशा में सक्रिय होती हैं उसके विपरीत बयान देना दिग्विजय सिंह का एकमात्र कार्यक्रम रहता है। अब तो वह भ्रष्टाचार के आरोप में पद से हटाए गए अथवा जेल में डाले गए लोगों की भी सार्वजनिक रूप से वकालत कर रहे हैं। दिग्विजय सिंह की इन हरकतों से मनमोहन सिंह की सरकार को परेशान होना चाहिए न कि हिंदुत्व के प्रति निष्ठावान लोगों को। कांग्रेसी तो परेशान हैं इसमें कोई संदेह नहीं है, क्योंकि अपने भावी प्रधानमंत्री के जिस चमत्कारी संचालन से उनको कुछ आस बंधी है उसे वह धूमिल करते जा रहे हैं। इसलिए जो लोग यह चाहते हैं कि देश की व्यवस्था का संचालन समाज को भय, भूख और भ्रष्टाचार से मुक्त करने वालों के हाथ में आना चाहिए, उन्हें दिग्गी राजा का अभिनंदन करना चाहिए। वह उसी काम में लगे हुए हैं। जहां तक संघ का सवाल है वह ऐसे सभी कपोकल्पित आरोपों के बाद समाज में और अधिक पैठ बनाने के लिए अनुकूलता पाता जा रहा है। (लेखक पूर्व सांसद हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111717346274139096

Wednesday, July 27, 2011

शब्द सीमा से स्मृति शेष होते विचार

भाई साब! एक अच्छा-सा पीस तो भिजवा दीजिए। बस शब्द सीमा का ध्यान रखिएगा। आपको पता ही है, स्पेस ज्यादा नहीं है।

स्पेस की झंझट है हर कहीं। अखबारों में, मैगजीन में, रिश्तों और जिंदगी में तो खैर है ही, शाश्वत समस्या की तरह। और हमारी समस्या है कि हम दिए गए स्पेस में कह और रह दोनों ही नहीं पाते हैं।

लेखन जगत में अपनी बात कहने के लिए बड़ी फिक्स-सी जगह होती है। यानी स्पेस का ताबूत पहले से बना होता है, अब विचारों की लाश भी इसी साइज में चाहिए। न लंबी! न छोटी! बिल्कुल फिट साइज की।

ऐसा न हो तो विचारों की उन्मुक्त उड़ान को कैंची मारकर धड़ाम से जमीन पर गिरा दिया जाता है। फिर बेचारा घायल विचार फड़फड़ाता रहता है। इन घायल विचारों के कारण पूरी सोसाइटी ही दिशाशून्य-सी हो रही है। कई बार आपने विचार लिया।

उसे दिमाग की देग में पकाना शुरू ही किया था कि पता चला शब्द सीमा समाप्त। विचार असमय ही दिवंगत। अच्छे भले थे, एकाएक हॉर्टअटैक आया। नहीं रहे। स्पेस की कमी से जाम हो गईं धमनियां। कालजयी दिशा में जाता एक विचार असमय स्मृति शेष हो गया।

स्पेस का दबाव ही ऐसा है। मितव्ययिता चाहिए सोचने में। विस्तार का तंबू मत तानिए। सीधे अपनी बात कह दीजिए। वरना फिर टांगें छांटनी पड़ेंगी। तब फिट हो पाएंगे ताबूत में। भले ही कटी-फटी शक्ल निकले, विषय भी पहचानने में न आए!

और अलंकार! अनुप्रास! शब्द सामथ्र्य! भाषा सौष्ठव! भाड़ में जाने दीजिए। टुंडा विचार भी चलेगा! मिसाल भैंगी हो रही है जनाब। कोई बात नहीं भैंगी ही चलेगी! अरे भाई अभी तो माहौल ही नहीं खेंच पाए थे। मिट्टी डालिए माहौल पर, आप तो सीधे-सीधे द एंड पर पहुंच जाइए! पाठक समझदार हैं, बीच का माहौल खुद ही बना लेंगे।

अभी तो पार्क में छोरा-छोरी मिले ही थे। प्यार की पींगे बढ़ा ही रहे थे कि स्पेस के विलेन ने झाड़ियों से लात मार दी। औंधे मुंह गिर पड़े कालजयी रचना के विचार। सो अब हर तरह का लेखक माहौल नहीं खेंच पा रहा है। जल्दी में सब निपटा देता है।

लेखन में दम नहीं बचा है? सुनने में आ रहा है इन दिनों। क्योंकि! विचारों का अधकच्च फल लद्द से जमीन पर गिरता है। लेखक पर स्पेस का दबाव था। विचार कृत्रिम तरीके से पकाना पड़ा। अधकच्च ही मार्केट में चला दिया। रंग-रूप-स्वाद में पुरानी बात नहीं रही, जैसी शिकायतें आने लगती हैं।

स्वाद कहां से आएगा? स्पेस का दबाव रहा। विचारों का नवजात अठमासा ही बाहर आ गया। कई बीमारियां लेकर। रचना के बाप और साख दोनों पर भी अलग ही संकट खड़ा कर गया।
हैं! बहन जै का भया है?

ऐसी आवाजें प्रसूति की कमजोरी झेल रहे लेखक का मनोबल और तोड़ देती हैं। फिर लेखक हिम्मत नहीं जुटा पाता है अपना जाया देखने की। दूसरे लेखक का जाया यूं भी कोई लेखक देखता नहीं है। तो फिर? पैदा होते हैं टुंडे विचार! आती है सोसाइटी में दिशाशून्यता! बौरायापन!

हालांकि स्पेस में कमी तो खैर हर जगह आ रही है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। दायरे सिकुड़ रहे हैं। रिश्ते सिमट-से गए हैं। हम-तुम के स्पेस में मां-बाप तक नहीं समा पा रहे हैं।

यहीं देख लीजिए, अपनी बात कहने का ढंग से माहौल भी नहीं बना पाया कि लीजिए खर्च हो गई जगह। मुंह की मुंह में रह गई बात। हालांकि इतने के बाद भी उम्मीद है, वो दिन कभी तो आएगा, जब हम खाल में रहना और स्पेस में कहना सीख पाएंगे।
Source: अनुज खरे
http://www.bhaskar.com/article/ABH-term-limits-are-considered-relic-2295921.html

पश्चिम में पसरता दक्षिणपंथ

जैसे न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमलों की विभीषिका ने सारी दुनिया में हड़कंप मचा दिया था, वैसे ही ओस्लो के भीषण नरसंहार ने समूची दुनिया को दहला दिया है। लेकिन इन दोनों घटनाओं में एक बुनियादी फर्क है।

फर्क यह है कि नॉर्वे की राजधानी ओस्लो में किसी इस्लामी जिहादी आतंकवादी ने यह कुकृत्य नहीं किया है। लगभग एक सौ लोगों को मौत के घाट उतारने वाला वह 32 वर्षीय युवक ईसाई है और उसने अपने इस घृणित कर्म को सही सिद्ध करने के लिए ईसाइयत की ओट ली है।

एंडर्स बेहरिंग ब्रेविक नामक इस युवा ने पहले ओस्लो में प्रधानमंत्री कार्यालय के पास एक बम विस्फोट किया और उसके दो घंटे बाद 35 किलोमीटर दूर उतोया नाम के एक टापू पर जाकर अंधाधुंध गोलियां चलाईं। गोलियां उन 600 लोगों पर चलाई गई थीं, जो एक बहुजातीय या बहुसांस्कृतिक सम्मेलन में भाग लेने आए थे।

इनमें कई एशियाई मूल के लोग भी थे, जिनमें हिंदुओं, बौद्धों और मुस्लिमों का होना स्वाभाविक है। इस तरह का युवा सम्मेलन इस रमणीक द्वीप पर हर साल होता है और इसका आयोजन नॉर्वे के सत्तारूढ़ दल लेबर पार्टी द्वारा करवाया जाता है।

इस तरह की घटना भारत, पाकिस्तान या अफगानिस्तान में होती तो दुनिया का ध्यान उस पर भी जाता, लेकिन वह शीघ्र ही हाशिये पर चली जाती, क्योंकि ऐसी घटनाएं यहां होती ही रहती हैं। लेकिन नॉर्वे तो शांति और स्वतंत्रता का स्वर्ग माना जाता है।

नॉर्वे स्कैंडिनेविया में है और इस क्षेत्र के देशों को सबसे अधिक सुरक्षित और शांत होने की मिसाल के तौर पर बताया जाता है। इन देशों की पुलिस को हथियार रखने की जरूरत ही नहीं पड़ती। ऐसे किसी देश में कोई युवक लगभग सौ लोगों को मौत के घाट उतार दे और अपने कुकृत्य को सही ठहराने के लिए सिद्धांत और तर्क झाड़ने लगे तो मानना होगा कि यह बेहद खतरनाक घटना है। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। यह किसी पागल या सिरफिरे व्यक्ति द्वारा अचानक अंजाम दिया हुआ हादसा नहीं है।

ब्रेविक ने अपनी वेबसाइट पर अपना घोषणा पत्र पहले से ही डाल रखा था। 1500 पृष्ठों के इस घोषणा पत्र को उसने 2003: ए यूरोपियन डिक्लेरेशन ऑफ इंडिपेंडेंस’ शीर्षक से प्रचारित किया है। इसमें उसने 2086 तक यूरोप को पूरी तरह आजाद करने की बात कही है।

आजाद किससे? उनसे जो बहुसंस्कृतिवाद, जातीय विविधता, स्त्री मुक्ति आदि ‘मूर्खतापूर्ण’ बातों का समर्थन करते हैं। ब्रेविक के मुताबिक इस लक्ष्य की प्राप्ति हिंसा और आतंक के बिना नहीं हो सकती। उसका अनुमान था कि कम से कम 45 हजार लोग मारे जाएंगे। सारे गैर-यूरोपियन और गैर-ईसाई तत्वों को यूरोप से खदेड़ दिया जाएगा और प्राचीन ईसाई योद्धाओं की तरह तलवार के जोर पर सत्ता हथिया ली जाएगी।

ब्रेविक घनघोर मार्क्‍सवाद विरोधी है, लेकिन वह नाजी और फासीवादी विचारधारा को भी रद्द करता है। तो क्या वह सचमुच किसी ईसाई विचारधारा का समर्थन या प्रतिपादन करता है? नहीं, बिल्कुल नहीं। ईसा तो शांति के मसीहा थे। ईसाई धर्म में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। ब्रेविक बिल्कुल वैसे ही ईसाइयत की ओट ले रहा है, जैसे जिहादी इस्लाम की ओट लेते हैं। कुछ यूरोपियन विद्वानों का कहना है कि ब्रेविक प्रेम में असफल होने पर चिड़चिड़ा और असंतुलित हो गया।

प्रतिशोध की भावना से भर गया। वरना वह तो बहुत ही शांत और सामान्य-सा युवक था। उसके इस कुकर्म की कोई वैचारिक व्याख्या न की जाए और इसे यूरोप में उभरे नए दक्षिणपंथ से भी नहीं जोड़ा जाए। लेकिन उनका यह तर्क गले नहीं उतरता है।

पहली बात तो यह कि नॉर्वे की घोर दक्षिणपंथी ‘प्रोग्रेस पार्टी’ के सदस्य के तौर पर ब्रेविक 1999 से 2006 तक अत्यंत सक्रिय रहा। वह उग्रवादी युवा मंच के नेता के तौर पर काम करता रहा। दूसरा, पिछले एक-डेढ़ दशक में यूरोप में प्रवास करने वाले एशियाई और अफ्रीकी मूल के लोगों के खिलाफ जो लहर उठ रही है, ब्रेविक उसका खुला समर्थन करता रहा है।

उसने अपने घोषणा पत्र में लिखा है कि अगर मुस्लिमों को यूरोप से खदेड़ा नहीं गया तो वहां दर्जनों पाकिस्तान उठ खड़े होंगे। उसने पाकिस्तानी समाज की भी कड़ी निंदा की है। वह अपने राजनीतिक विचारों के बारे में इतना कट्टर है कि उसने ओस्लो की कोर्ट से कहा है कि सुनवाई खुले में हो ताकि उसके विचारों का बड़े पैमाने पर प्रचार हो। शायद इसीलिए उसने यह हत्याकांड रचाया हो।

असली बात तो यह है कि जो उग्र विचार ब्रेविक ने उछाले हैं, वे सब बीज रूप में पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर, जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल, फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी और अन्य यूरोपियन नेता पहले ही कह चुके हैं।

ज्यादातर यूरोपियन नागरिक इस बात से सहमत हैं कि मिली-जुली संस्कृति की बात विफल हो चुकी है। यूरोप में धीरे-धीरे दो अलग-अलग समाज बनते चले जा रहे हैं। इसीलिए यूरोप के कई प्रमुख देशों में यूरोपवादी उग्रपंथी दक्षिणपंथी पार्टियां या तो सत्तारूढ़ हो गई हैं या फिर प्रमुख विपक्षी पार्टियां बन गई हैं। ब्रेविक जैसे नरपशुओं का जन्म इसी तरह के माहौल में होता है।

यूरोप की हालत देखकर हमें भारत पर गर्व होता है। भारत का समाज कितना सहिष्णु और सर्वसमावेशी है। यूरोप अपनी जमीन पर उन लोगों को भी जरा बर्दाश्त करने को तैयार नहीं, जिनका खून पी-पीकर वह समृद्ध और शक्तिशाली बना है।

गोरों और ईसाइयों की नब्बे फीसदी से अधिक जनसंख्या पांच-दस प्रतिशत विजातीय जनसंख्या को नहीं पचा सकती तो उसके बारे में क्या माना जाए? क्या दो-दो महायुद्धों के आयोजक यूरोप को हम सचमुच एक सभ्य और सशक्त समाज मान सकते हैं? सारे संसार पर अपना औपनिवेशिक जाल बिछाने वाला यूरोप पिछले पांच दशक से अपने हथियारों की बिक्री द्वारा हिंसा फैलाता आ रहा है। अब वह खुद हिंसा की चपेट में आ गया है।
Source: वेदप्रताप वैदिक
http://www.bhaskar.com/article/ABH-west-pasrta-right-2295927.html

असलियत का आईना

मणिशंकर अय्यर का अंदाज आक्रामक है। इसलिए अक्सर उनके बयान विवादास्पद बन जाते हैं। ठीक ऐसा ही कांग्रेस के बारे में उनकी ताजा टिप्पणी से हुआ है। लेकिन अगर उनकी बातों पर ध्यान दें, तो उसमें सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, बल्कि अपनी पूरी राजनीतिक संस्कृति का असली चेहरा नजर आता है।

अय्यर ने दिल्ली के जिन ठिकानों का जिक्र अपने भाषण में किया, उनकी जगह आप दूसरी पार्टियों के ठिकानों को लिख दें तो हर जगह आपको वही तस्वीर नजर आएगी, जो अय्यर ने कांग्रेस के संदर्भ में बताई है।

जिन नेताओं को पार्टी में आगे बढ़ना है, या अपना कोई काम करवाना है, उन्हें आलाकमान के आगे-पीछे घूमते हर पार्टी में देखा जा सकता है। गुजरते दशकों के साथ राजनीतिक दलों में केंद्रीकरण की प्रवृत्ति इस हद तक बढ़ गई है कि आज कोई नेता कार्यकर्ताओं के समर्थन या अपने क्षेत्र में जनाधार की ताकत से आगे बढ़ने की अधिक उम्मीद नहीं रखता।

उसे राजधानी में वरदहस्त चाहिए। अगर हम ब्रिटेन या अमेरिका जैसे देशों पर गौर करें तो वहां के लोकतंत्र में चाहे जो खामियां हों, बड़े नेताओं की चरणवंदना की ऐसी संस्कृति तो वहां नजर नहीं आती। ऐसा इसलिए है कि वहां उम्मीदवारों का चयन चुनाव क्षेत्रों या राज्यों में कार्यकर्ताओं के मतदान से होता है।

पार्टी में आगे बढ़ने के लिए पहले आपको उन कार्यकर्ताओं में लोकप्रिय होना पड़ता है। भारत में जब चुनाव सुधारों पर चर्चा तेज है, तब यह पहलू विचार-विमर्श से बिल्कुल गायब है। नेता और नीतियों का उभार जब तक नीचे से नहीं होगा, तब तक कार्यकर्ता पार्टी मुख्यालय को ‘मंदिर’ मान उसे दास भाव से देखते रहेंगे।

उनकी दिल्ली की दौड़ लगी रहेगी। इसी रुझान ने राजनीतिक पार्टियों को ‘सर्कस’ बना दिया है। मणिशंकर अय्यर की बातें खारिज करने की नहीं, बल्कि गौर करने की हैं।
Source: भास्कर न्यूज
http://www.bhaskar.com/article/ABH-mirror-of-reality-2295904.html

आतंकवाद का राजनीतिकरण

मुंबई पर एक और हमले को आतंकवाद के खिलाफ लचर तैयारियों का नतीजा मान रहे हैं कुलदीप नैयर

मैं मुंबई में कभी नहीं रहा। मैं वहां तीन दिन से ज्यादा समय तक कभी ठहरा भी नहीं। इसलिए मेरे लिए अनुमान लगा पाना कठिन है कि जहां बम विस्फोट का भय बना रहता है वहां लोग किस तरह रहते हैं। मुझे इस बात ने बेहद प्रभावित किया है कि आतंकवादियों के खतरे और शिव सेना द्वारा गैर-मराठी लोगों को धमकियों के बावजूद देश के विभिन्न भागों से आए दो करोड़ लोग एक समुदाय के रूप में मिल-जुलकर रहते हैं। गत 18 वर्षो में मुंबई पर 16 हमले हो चुके हैं। लोगों ने उस असुरक्षा को झेलते हुए रहना सीख लिया है, जो उनके समक्ष उपस्थित रहती है। वे केंद्र और राज्य सरकारों की आलोचना करते हैं कि बार-बार होने वाले बम विस्फोटों से उनकी रक्षा नहीं कर पा रहीं। फिर भी वे भयाक्रांत नहीं हैं। इसे ही मुंबई की भावना कहते हैं। कुछ सप्ताह पहले मैं कराची में था। मैंने देखा कि लोगों ने कैसे कठिन हालात में रहना सीख लिया है। जातीय दंगों के अलावा वहां आए दिन बम विस्फोट होते रहते हैं। वहां भी मुंबई सरीखी नि:सहायता का अहसास होता है। मुझे भी दंगों और मृत्यु के भय का अहसास हुआ। अपने गृह नगर स्यालकोट से भारत में वाघा सीमा तक की यात्रा के दौरान मैं आशंकित रहा था कि किसी आतंकी हमले में मैं मारा जा सकता हूं। मैंने अपने सामने लोगों को एक-दूसरे को मारते देखा है। यह असंभव लग रहा था कि सरकार की सहायता के बिना हम अपनी जिंदगी का सफर फिर से कैसे शुरू कर सकेंगे, किंतु हमने ऐसा किया। पूर्वी पंजाब में लोगों ने सब कुछ गंवाकर भी खुद को संभाला और इसमें उन्हें लंबा अरसा नहीं लगा। वह हमारे प्रतिरोध की सोच थी या संकल्प शक्ति? मैंने पाया कि मुंबई में रहने वाले लोगों की भी यही मन:स्थिति है। वे उठे, गिरे और फिर अपने पैरों पर खड़े हो गए। वे अनेक बार ऐसा कर चुके हैं और फिर चुनौती मिली तो फिर ऐसा ही करेंगे। दरअसल, उन ताकतों से संघर्ष करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प भी नहीं है, जो उन्हें पराजित करना चाहती हैं। मैं कोलाबा में रह रही एक महिला की यह टिप्पणी भूला नहीं हूं कि जब सुबह मेरे पति कार्यालय जाते हैं तो मैं प्रार्थना करती हूं कि वह शाम को सुरक्षित लौट आएं। दिल्ली में अभी हालात इतने नहीं बिगड़े हैं, किंतु कभी भी ऐसा हो सकता है। भारत में जो सबसे घटिया बात हो रही है वह है आतंकी हमलों का राजनीतिकरण। देश में दो प्रमुख राजनीतिक दल हैं- कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी। मुंबई में विस्फोटों के चौबीस घंटों के भीतर भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी मुंबई पहुंचे और उन्होंने नई दिल्ली को पाकिस्तान के साथ वार्ता नहीं करने की सलाह दे डाली। मीडिया में या कहीं से भी इन हमलों में पाकिस्तान की संबद्धता का संकेत नहीं था। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह भी बीच में आ कूदे और उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संबद्धता की संभावना जता दी। दंगों के राजनीतिकरण का ही नतीजा है कि सरकार को यह स्पष्ट नहीं करना पड़ता कि पुलिस को पूरी तरह चुस्त-चौकस और सही ढंग से प्रशिक्षित क्यों नहीं रखा गया? तीन वर्ष पूर्व हुए मुंबई हमलों के बाद ऐसा क्यों हुआ? महाराष्ट्र के गृहमंत्री को 2008 के हमले के बाद हटा दिया गया था। वह वापस आ गए हैं। इस तरह सरकार गलत संकेत दे रही है। मुंबई पर 2008 में हुआ हमला एक बड़ी चेतावनी था। इसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि वह फिर ऐसा नहीं होने देंगे। फिर भी खुफिया असफलता जैसी बुनियादी भूल हुई। यह सरकार पर एक धब्बा है। हमें अमेरिका से यह पता लगाना चाहिए कि उसने 9/11 के बाद से एक भी वारदात कैसे नहीं होने दी। उस देश में भी एक बड़ी जातीय आबादी है। जार्ज बुश ने पैट्रियाटिक एक्ट जैसे कानून लागू किए। इस एक्ट के तहत तब तक हर अमेरिकी से एक अपराधी के तुल्य व्यवहार किए जाने की व्यवस्था है, जब तक कि वह अपने आपको उसके विपरीत साबित न कर दे। हमें ऐसी गलती नहीं करनी चाहिए। हमारी सरकार के भंडार में कानूनों की कमी नहीं है। जिस चीज की आवश्यकता है वह है कानून और व्यवस्था तंत्र को चुस्त-दुरुस्त करना ताकि वह समुचित ढंग से त्वरित कार्रवाई कर सके। देश 1861 के पुराने पुलिस अधिनियम से क्यों शासित हो, जो उस ब्रिटिश सत्ता ने बनाया था, जो जनता और पुलिस को अलग-थलग रखना चाहती थी। अमेरिका और यूरोपीय देशों ने पुलिस द्वारा कानून व व्यवस्था को कायम रखने के लिए उठाए जाने वाले कदमों में जनता की सहभागिता के मार्ग खोजे हैं। 2009 में बड़ी धूमधाम से राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) का गठन किया गया था, किंतु अब तक इसका परिणाम निराशाजनक ही रहा है। संघर्ष प्रबंधन संस्थान के निदेशक डॉ। अजय साहनी का कहना है कि गुप्तचर जानकारी संग्रहण और सिरे से जांच क्षमताओं में सुधार के लिए कोई वास्तविक सुधार नहीं हुआ। वह बताते हैं कि यदि उसे फीड करने के लिए आपके पास कोई ठोस डाटा नहीं है, तो कोई कंप्यूटर किसी केस को हल करने में सहायक नहीं हो सकता। जांचकर्ताओं का विचार है कि सभी पांचों हमलों में इंडियन मुजाहिदीन के सदस्यों का हाथ है, जो पाकिस्तान स्थित लश्करे-तैयबा से प्रेरित हैं। इंडियन मुजाहिदीन 2006 और 2008 के बीच अनेक भारतीय नगरों में हुए हमलों के लिए जिम्मेदार हैं, मगर इन आरोपों के समर्थन में साक्ष्य कोई खास नहीं हैं। आतंकी हमले इंडियन मुजाहिदीन के भीतर से ही जन्मे एक नए समूह का कारनामा बताए जाते हैं। मुंबई समस्या नहीं है। यह प्रशासनिक कमियों का प्रतिफल है। देश की वित्तीय राजधानी पर बेहतर ढंग से ध्यान दिया जाना अपेक्षित है और यह केंद्र के राडार से बाहर नहीं जाना चाहिए। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111717287774095576

राजनीतिक प्रयोग का समय

राष्ट्र स्तरीय नेतृत्व की कमी पूरी करने के लिए राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन आवश्यक मान रहे हैं आर। विक्रम सिंह
आखिर हमारे देश में राष्ट्रस्तरीय नेतृत्व का अकाल क्यों है? सवाल यह भी बनता है कि आज राष्ट्र स्तरीय नेतृत्व की आवश्यकता ही किसे है? जवाबों की तलाश हमें हमारी राजनीतिक व्यवस्था की ओर ले जाती है। हमारी राजनीति आज अगर राष्ट्रीय स्तर के नेता नहीं पैदा कर रही है तो कहीं इसके लिएहमारी व्यवस्था तो जिम्मेदार नहीं है? हमारे राष्ट्रीय नेता तो आजादी के आंदोलन की उपज थे। राष्ट्रीय नेताओं की जाति का खत्म हो जाना एक बड़ा सरोकार है। कारण? क्षेत्रीयता, राष्ट्रीयता पर हावी हो चली है। हमने अनेक प्रधानमंत्री देखे हैं जिनको देश की जनता ने प्रधानमंत्री के रूप में सोचा ही नहीं था। सांसदगण द्वारा चुना गया नेता मूलत: सांसद होता है। अत: मात्र एक संसदीय क्षेत्र हमारे नेतृत्व की स्वत: सीमा बन जाता है। चूंकि संपूर्ण राष्ट्र किसी का चुनाव क्षेत्र नहीं बनता इसलिए राष्ट्रीय नेताओं की संभावनाएं समाप्त होती गई हैं। विकास की ओर अग्रसर इस देश में लीक से हटकर परिवर्तन के बारे में सोचना जरूरी हो गया है। गठबंधन की मजबूरियां हमें अपंग कर कहीं गुलाम न बना दें। अमेरिका में गवर्नर का सीधे जनता द्वारा चुनाव होता है। प्रतिनिधि सभाओं के चुने हुए प्रतिनिधि एक्ट पास कराने, बजट व्यवस्थाओं में महत्वपूर्ण भूमिका तो निभाते हैं, लेकिन वे गवर्नर को हटा नहीं सकते। चार वषरें तक स्थिरता का वातावरण गवर्नर को विकास की सोच का अवसर देता है। इस कारण अमेरिका में राज्यपालों पर राजनीतिक दबाव की संभावनाएं बहुत कम हो जाती हैं। प्रतिनिधिगण कानून बनाने के दायित्वों का निर्वहन करते हैं। चूंकि प्रतिनिधि की मुख्यत: भूमिका विधिक होती है, अत: दबंगों, माफियाओं, दादाओं का प्रतिनिधि सभा में कोई काम ही नहीं है। इसलिए अमेरिका में कोई माफिया किस्म का आदमी चुनाव लड़ता नहीं दिखता। अमेरिकी राष्ट्रपति कोई भी हो, बराबर का शक्तिशाली होता है और हमारा प्रधानमंत्री? नेहरू बहुत शक्तिशाली थे लेकिन कुछ अन्य के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता? अब व्यवस्थाओं के बदलने से हमारी स्थितियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? जैसे कि किसी राच्य की राजनीति में खनन माफियाओं की बड़ी भूमिका है। उनकी सशक्त लॉबी के सामने सरकारें, मुख्यमंत्री तक असहाय हो जाते रहे हैं। ऐसी स्थिति में नैतिक-अनैतिक, स्याह-सफेद प्रश्नों को दरकिनार कर सत्ताधारी दल येन-केन-प्रकारेण अपनी सरकार का अस्तित्व बचाने में लगा रहता है। नतीजन, बिना किसी जिम्मेदारी, जवाबदेही के एक अनैतिक सत्ता केंद्र का जन्म हो जाता है। वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था का प्रतिफल यह है कि हमें दिन-रात 24 घंटे की वह राजनीति झेलनी पड़ती है, जो 5 वर्ष के अंतराल में एक बार होनी चाहिए। फर्ज करें कि एक पुलिस अधीक्षक है, जो अपराध नियंत्रण के मोर्चे पर अच्छा कार्य कर रहा है। उसका अच्छा होना राज्य के तो हित में है, लेकिन हो सकता है कि यह बात स्थानीय मठाधीश के हित के विपरीत हो। वह किसी थानेदार को उसकी अकर्मण्यता के कारण हटाना चाहता है तो अक्सर हटा नहीं पाता। दबावों, समीकरणों से प्रभावित प्रशासन में प्राय: राच्यों के लक्ष्यों के प्रति समर्पण में कमी हो जानी स्वाभाविक है। राच्यों के शीर्ष नेतृत्व के लिए स्थानीय सत्ता समीकरणों में प्रभावी बन चुके नेता को दरकिनार कर सकना संभव नहीं होता। हमारी राजनीति सत्ता की दहलीज तक पहुंच कर आगे लक्ष्यहीन हो जाती है। राजनीतिक बाध्यताओं के कारण बहुत से नीति-नियामक महत्वपूर्ण पदों को समझौतों में दे देना पड़ता है। हमने देखा है कि विकास का ककहरा भी न जानने वाले प्रदेशों के नेता बन बैठे हैं। वर्तमान लोकतंत्र ने जन जागरूकता, गरीब और उपेक्षित समाज तक सत्ता को पहुंचाने का काम बखूबी किया है, लेकिन अब से आगे के लिए राष्ट्रपति या अध्यक्षीय शासन प्रणाली ही अधिक उपयुक्त होगी। समझना जरूरी है कि देश का सबसे शक्तिशाली पद असहाय क्यों हो रहा है? क्षेत्रीय पार्टियों, छोटे राच्यों, जातीय-भाषिक समूहों को प्रश्रय मिलता दिख रहा है। इसके विपरीत राष्ट्रपति, राच्यपाल प्रणाली में विभाजन के स्थान पर संयोजन को सत्ता का माध्यम बनाना मजबूरी होगी। राष्ट्रपति के उम्मीदवार के लिए अनिवार्य होगा कि वह मणिपुर, पांडिचेरी जैसे छोटे राच्यों से भी आवश्यक मत प्राप्त करें। अगर आप राष्ट्रपति के उम्मीदवार हैं तो आप बांग्ला भी सीखेंगे और मराठी भी। यहां से राजनीति के राष्ट्रीय एकता की दिशा में उन्मुख होने की शुरूआत हो सकती है। संविधान समिति की कार्यवाहियों में 8 एवं 9 जून 1947 को राष्ट्रपति प्रणाली का बिंदु इमाम हुसैन, शिब्बन लाल सक्सेना द्वारा उठाया तो गया था, किंतु गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 की पृष्ठभूमि के कारण यह बिंदु गहन विचार का विषय नहीं बना। बाबा साहब ने 4 नवंबर 1948 को संविधान सभा में कहा था लोकतांत्रिक कार्यपालिका प्रथमत: स्थिर होनी चाहिए और फिर जिम्मेदार होनी चाहिए। अमेरिकी व्यवस्था स्थिर अधिक है, जबकि ब्रिटिश व्यवस्था जिम्मेदार अधिक है। आज की स्थितियों के रूबरू बाबा साहब के विचार क्या होते, इसकी कल्पना की जा सकती है। जब स्थिरता ही न होगी तो जिम्मेदारी का प्रश्न ही गौण हो जाता है। राजनीति में प्रयोगशालाएं नहीं होतीं, फिर भी प्रयोगधर्मिता के लिए सदैव संभावनाएं हैं। हिमाचल, उत्तरांखड, झारखंड, सिक्किम, गोवा, पांडिचेरी आदि छोटे राज्यों में मुख्यमंत्रियों के स्थान पर जनता द्वारा निर्वाचित राज्यपालों की व्यवस्था पर सहमति बनाने का प्रयास किया जा सकता है। स्थिरता विकास की चाभी है। स्थिरता के लिए यह राजनीतिक प्रयोग करके देखा जा सकता है। यदि यह सफल हुआ तो इससे छोटे राज्यों के तर्क को मजबूती मिलेगी। वे व्यवस्थाएं जो परिवर्तनों के अनुरूप ढलने से इंकार करती हैं उनका समूल नाश क्रांतियों से होता है। राजनीतिक व्यवस्था में भी विकास की अपेक्षा है। क्या हमारी व्यवस्था संविधान निर्माताओं की अपेक्षा के अनुरूप परिणामपरक रही हैं? 24 घंटे की राजनीति का उलझाव हमारी शक्तियों का इस हद तक अपव्यय करता है कि हम राष्ट्र के प्रति समर्पित दृष्टि विकसित ही नहीं कर सके हैं। हिलेरी क्लिंटन इस दौरे में कह गई हैं कि भारत के लिए यह एशिया के नेतृत्व का समय है। हम क्या करें? राष्ट्र का कद बढ़ रहा है और नेतृत्व का कद छोटा हो रहा है। हमारे पास प्रदेश और देश की जनता से सीधे संवाद कर सकने, उनमें प्रेरणा भर देने वाले नेताओं का सर्वथा अभाव है। वर्तमान व्यवस्था में आसान रास्ता लेने वाले ऐसे नेताओं की गुंजाइशें बन गई हैं जिन्होंने जन-संघर्ष, जन-आंदोलनों का चेहरा तक नहीं देखा है। राजनीतिक व्यवस्था कोई धर्म नहीं है कि जो लिख दिया गया वह कभी मिटेगा नहीं। वक्त के साथ चलना राजनीति की जरूरत है। यह परिवर्तन, नई सोच और नए चरित्र के नेताओं की राह बनाएगा। (लेखक पूर्व सैन्य अधिकारी हैं)
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111717274774065448

Tuesday, July 26, 2011

फाई मामले पर चुप क्यों है सरकार?

कश्मीर अमेरिकन काउंसिल और गुलाम नबी फाई द्वारा आयोजित की जाने वाले गोष्ठियों के मेहमानों की सूचि काफी लंबी और विशिष्ट है। यह किसी शक्तिशाली मीडिया समूह के कान्क्लेव के मेहमानों की सूचि हो सकती थी लेकिन यह एक ऐसी गोष्ठी थी जिसे आईआएसआई के पैसों से भारत विरोधी एजेंडे के तहत आयोजित किया गया था।

एफबीआई की चार्जशीट के अनुसार गुलाम नबी फाई को आईएसआई से करीब ४० लाख डॉलर (लगभग १७७ करोड़ रुपए) का फंड मिला ताकि वो अपनी गोष्ठियों के जरिए कश्मीर मुद्दे पर अमेरिका का रुख पाकिस्तान की ओर झुका सके। अमेरिका के कैपिटल हिल में आयोजित होने वाली इन गोष्ठियों के मेहमानों को सभी विशेष सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती थी। आइये नजर डालते हैं इन आलीशान कांफ्रेंसों के मेहमानों की सूचि पर।


दिलीप पडगांवकरः वरिष्ठ पत्रकार और कश्मीर मुद्दे पर सरकार के वार्ताकार।


हरीश खरेः प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार


वेद भूषणः कश्मीर टाइम्स के संपादक


सुब्रमण्यम स्वामीः जनता दल सेक्यूलर के अध्यक्ष


कुलदीप नैय्यरः ब्रिटेन में भारत के पूर्व राजदूत और वरिष्ठ पत्रकार


गौतम नवलखाः मानव अधिकार कार्यकर्ता।


इस सूचि में शामिल लोगों को मीडिया का एक समूह यूजफुल इडीयट (काम के बेवकूफ) कहकर संबोधित कर रहा है। गौरतलब है कि पश्चिम मुल्कों में सोवियत संघ के पक्षकारों को भी यही कहकर संबोधित किया जाता था। मजे की बात यह थी कि जहां ये लोग सोवियत संघ का पक्ष लेते थे वहीं सोवियत संघ का सीधे तौर पर उनसे कोई संबंध नहीं था। वो उन्हें सिर्फ अपने प्रोपागेंडा के लिए इस्तेमाल करता था।


चौंकाने वाली बात यह है कि इस सूचि में शामिल ज्यादातर लोग कश्मीर पर भारत की नीति को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं और इस बेहद गंभीर मुद्दे पर लोगों की राय को भी प्रभावित करते हैं। लेकिन जिस तरह से इन लोगों ने अपना बचाव किया है वो और ज्यादा चौंकाने वाला है।


दिलीप पडगांवकर कहते हैं कि उन्हें फाई के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। यदि उन्हें फाई के पीछले जीवन के बारे में जानकारी होती तो वो कभी भी इन सम्मेलनों में शामिल नहीं होते।


कुलदीप नैय्यर कहते हैं कि मेरी नजर में फाई एक रईस आदमी है जिस पर मैंने कभी भी आईएसआई का आदमी होने का शक नहीं किया। मैं काफी समय पहले उसके सम्मेलन में शामिल हुआ था। उन्होंने सम्मेलन में शामिल होने वाले लोगों के लिए जो व्यवस्था की थी वो सामान्य ही थी। उस सम्मेलन में पाकिस्तानी भी शामिल हुए थे लेकिन भारत के विरोध में कोई बात नहीं कही गई। मैंने भी पूरी स्वतंत्रता से अपने विचार रखे।


जहां प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हरीश खरे अब तक इस मुद्दे पर खामोश हैं वहीं सुब्रमण्यम स्वामी ने जनता पार्टी की वेबसाइट पर अपना रुख साफ कर दिया है। उनका कहना है कि सम्मेलन में शामिल होने से पहले उन्होंने भारतीय दूतावास से राय ली थी और सम्मेलन में उनके साथ भारतीय दूतावास का कर्मचारी भी मौजूद था जिसने इसके नोट्स भी तैयार किए थे। सम्मेलन में मैंने कहा था कि कानूनी रूप से कश्मीर भारत का अंग है। किसी भी व्यक्ति के बारे में यह जानना कि वो किसी विदेशी संस्था का गुप्तचर है तबतक नामुमकिन है जब तक उसके बारे में जानकारी न दी जाए।


लेकिन भारत के नागिरक होते हुए दुश्मन के साथ संबंध रखने वाले ये हाई प्रोफाइल भारतीय क्या इतनी आसानी से इस प्रकरण से पीछा छुटा सकते हैं? हालांकि इस मुद्दे पर पर्दा डालने के प्रयास लगातार हो रहे हैं लेकिन कई ज्वलंत सवाल है जो जवाब चाहते हैं।


१- खुफिया विभाग के सूत्रों के मुताबिक यह तथ्य साफ था कि फाई के पीछे आईएसआई का हाथ है और पिछले साल कश्मीर में हुई पत्थरबाजी की वारदातों के पीछे भी वो ही था। फिर इन विशिष्ठ भारतीयों ने फाई से संबंध बनाने से पहले उसके बारे में जानकारी लेना क्यों मुनासिब नहीं समझा? ये लोग अब सफाई दे रहे हैं कि उन्हें फाई और आईएसआई के संबंधों के बारे में जानकारी नहीं थी लेकिन यह तथ्य तो साफ था कि वो पाकिस्तान के लिए काम कर रहा एक संदिग्ध व्यक्ति है फिर क्यों वो उसके सम्मेलनों में शामिल हुए?



२. यदि यह भी स्वीकार कर लिया जाए कि यह सभी लोग फाई को पहचानने में सही फैसला नहीं ले पाये फिर भी अब जब फाई के कारनामे सामने आ चुके हैं तब यह लोग देश से माफी क्यों नहीं मांग रहे हैं। अब तक इनमे से किसी ने भी एक दुश्मन से संबंध रखने के बावजूद भी देश से माफी नहीं मांगी है। किसी भी देशभक्त भारतीय को जब यह पता चले कि वो देश के उस दुश्मन के साथ बैठकर खा रहा था जिसके मालिकों के इशारे पर कई बेगुनाह भारतीयों की जान गई है और भारत ने युद्ध के दंश को झेला है तो वह शर्म से डूबकर मर जाए। लेकिन इन्हें तो शर्म तक नहीं आ रही है, क्यों? क्या पाकिस्तानी पैसों की रोटियों ने देश के प्रति वफादारी को मार दिया है?


३. इन लोगों को प्यादों की तरह भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया गया। क्या अब सबसे पहले इन लोगों की हो जांच की मांग नहीं करनी चाहिए कि कहीं इनके कार्यों ने देश के लोगों की भावनाओं को ठेस तो नहीं पहुंचाई है? क्या अब तक दिलीप पडगांवकर को इस्तीफा नहीं दे देना चाहिए जबकि उनके साथी एमएम अंसारी ऐसा ही सोच रहे हैं?


४. सबसे शर्मनाक है पूरे मुद्दे पर सरकार की खामोशी। क्या सरकार बेबस है या अब ऐसे किसी भी मुद्दे पर बोलने के लिए उसने खुद पर ही पाबंदी लगा ली है? हालांकि सरकार ने इस मामले में कुछ भी गलत नहीं किया है फिर ऐसा क्या है जो सरकार को इन लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने से रोक रहा है?


५. सिर्फ सरकार ही नहीं बीजेपी तक पूरे मुद्दे पर खामोश है। यदि प्रकाश जावड़ेकर की एक टिप्पणी को छोड़ दिया जाए तो बीजेपी ने अभी तक इस मुद्दे पर कुछ नहीं कहा है? क्या कर्नाटक के घोटाले ने बीजेपी की बोलती बंद कर दी है?


६. हो सकता है यह अमेरिका की सीआईए और पाकिस्तान की आईएसआई के बीच एक दूसरे के प्यादों को पकड़ने के खेल का एक हिस्सा भर हो लेकिन यहां यह साफ कर देना जरूरी है कि अमेरिका को फाई के बारे में दशकों से पता था लेकिन उन्होंने अभी उसके खिलाफ कार्रवाई की क्योंकि अब कश्मीर को लेकर अमेरिका और पाकिस्तान के रोमांस के खात्मे की शुरुआत हो चुकी है। लेकिन इस मुद्दे पर अमेरिका से किसी भी मदद की आस लगाना ही बेवकूफी होगा। हेडली मामले में अमेरिका का 'सहयोग' भारत के लिए अच्छा सबक है। फिर भारत कब तक अमेरिका पर भरोसा कर सकता है?


७। लेकिन सबसे बड़ा और ज्वलंत सवाल यह है कि जितने ऊंचे कद के यह लोग है उसे देखते हुए इस बात पर आसानी से विश्वास नहीं होता कि सिर्फ अमेरिका की फ्री यात्रा ने ही इन्हें सम्मेलन में शामिल होने के लिए आकर्षित किया हो। प्रश्न यह है कि इन भारत विरोधी सम्मेलनों में शामिल होने का इन लोगों का उद्देश्य क्या था? वो क्यों वहां गए थे?

Comment

Posted by Rajesh (25th Jul 11 20:10:09)

फाई गद्दार और आईएसाअई का भाड़े का व्यक्ति है, या नहीं, यह तो जांच का विषय है। हो सकता है, कि इनके द्वारा आयोजित गोष्ठियों में भागीदारी करने वाले महानुभावों को इनकी जानकारी न भी हो, लेकिन यही मीडिया अफज़ल गुरू और अजमल कसाब के बारे में क्यों मुंह में दही जमाए बैठा है? वह क्यों नहीं पूछता कि इन सिद्ध आतंकवादियों की फाइल कौन से मंत्रालय में दबाकर रखी गई है, या किस चुनावी मौके के इंतजार में उसे दबा कर रखा गया है? इसे कहते हैं, कि रावण को घर में बिठाकर बिरयानी खिलाना और खयाली भूत का होहल्ला मचाना। अरे जिन्होंने तुम्हारे संसद भवन पर बम बरसा दिए, जिसने सरेआम दिन-दहाड़े भारतीय नागरिकों को कीड़े-मकोड़ों की तरह भून डाला उसपर 32 करोड़ खर्च कर, उसे पालने का क्या अर्थ है? पहले हमारे सत्तासीन उसे फांसी देने का कलेजा तो लाएं, बाद में किसी हाई-फाई की बात करें.

http://www।bhaskar.com/blog/252/?IKS-H=



खतरे में संसद का सम्मान

नोट के बदले वोट कांड में लीपापोती होने पर संसद की गरिमा की रक्षा हो पाना मुश्किल मान रहे हैं राजीव सचान
यदि यह सच है कि ए। राजा, कनीमोरी और सुरेश कलमाड़ी को संसद के मानसून सत्र में भाग लेने के लिए निमंत्रण भेजा गया है अथवा उनके भाग लेने पर संसद को एतराज नहीं तो यह आघातकारी है। जब संसद को ऐसे सांसदों के खिलाफ अपने स्तर पर कार्रवाई करने के बारे में विचार करना चाहिए तब यह ठीक नहीं कि वह उन्हें सादर निमंत्रित कर रही है। यदि संसद यह मान रही है कि दोष सिद्ध न होने तक ये सांसद निर्दोष हैं तो यह न्याय की भावना के अनुकूल तो है, लेकिन आखिर ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि ऐसे सांसद जब तक निर्दोष न सिद्ध हो जाएं तब तक संसद से दूर रखे जाएं? हो सकता है कि संसद के नियम-कानून और सांसदों के अधिकार राजा, कनीमोरी, कलमाड़ी सरीखे सांसदों को संसद की कार्यवाही में भाग लेने की अनुमति प्रदान करते हों, लेकिन अब वक्त आ गया है कि इन उदार नियम-कानूनों पर नए सिरे से विचार किया जाए। वैसे भी इन उदार नियम-कानूनों का नियमन करते समय संविधान निर्माताओं ने यह नहीं सोचा होगा कि एक समय ऐसा भी आएगा जब सांसद ऐसा हीन आचरण करेंगे। संसद को इसका आभास होना चाहिए कि दागी सांसद उसकी गरिमा गिराते हैं। हालांकि राजा, कनीमोरी और कलमाड़ी पर लगे आरोप सिद्ध होना बाकी हैं, लेकिन इन आरोपों से संसद कलंकित हुई है। आखिर अपने अपयश में भागीदार लोगों के प्रति संसद इतनी उदार कैसे हो सकती है? अदालत की दृष्टि में जो सांसद जमानत के हकदार नहीं वे संसद की दृष्टि में उसकी कार्यवाही में भाग लेने के हकदार क्यों होने चाहिए? यह पहली बार नहीं जब संसद दागी सांसदों के प्रति अनावश्यक उदारता का परिचय देती नजर आ रही हो। वह इसके पहले भी ऐसा करती रही है। कई बार ऐसे सांसद संसद में नजर आए हैं जिनकी तलाश पुलिस को होती थी। इसमें संदेह नहीं कि संसद सर्वोच्च है, लेकिन उसकी सर्वोच्चता की आड़ में दागी सांसदों को राहत मिलने का कोई औचित्य नहीं। दुखद यह है कि संसद केवल दागी सांसदों के प्रति ही उदारता नहीं बरतती, बल्कि वह सच को छिपाने और लीपापोती करने का काम भी करती है। नोट के बदले वोट कांड में यही सब कुछ हुआ। संसद की एक समिति ने इस कांड की सच्चाई सामने लाने के बजाय मामले पर पर्दा डालने का काम किया। जब ऐसा हुआ तो सारे देश ने महसूस किया कि संसद और लोकतंत्र को शर्मिदा करने वाले इस मामले को जानबूझकर दबाया गया है, लेकिन संसद मौन रही। नोट के बदले वोट कांड की जांच करने वाली समिति ने इस कांड में शामिल माने जा रहे संबंधित सांसदों से पूछताछ करने की जरूरत तक नहीं समझी। चूंकि उसका इरादा किसी नतीजे तक पहुंचने का नहीं था इसलिए उसने यह कहकर कर्तव्य की इतिश्री कर ली कि मामले की आगे जांच होनी चाहिए। यह आश्चर्यजनक है कि किसी ने भी इसकी सुधि नहीं ली कि आगे की जांच हो रही है या नहीं? न तो सरकार को अपने दायित्व का भान हुआ, न सत्तापक्ष को, न विपक्ष को और न ही सांसदों के किसी समूह और समिति को। परिणाम यह हुआ कि दिल्ली पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। यदि सुप्रीम कोर्ट दिल्ली पुलिस को फटकार नहीं लगाता तो यह तय था कि अन्य कोई इस शर्मनाक कांड की अधूरी जांच का संज्ञान लेने वाला नहीं था। केंद्र सरकार के नियंत्रण वाली दिल्ली पुलिस जिस तरह इस मामले की जांच कर रही है उससे यही लगता है कि उसे आगे भी फटकार सुनने का मन है। जांच पूरी करने के बजाय वह बलि का बकरा खोजती नजर आ रही है। संसद, सांसदों और सरकार को दिल्ली पुलिस के रवैये पर एतराज होना चाहिए, लेकिन पता नहीं क्यों ऐसा नहीं है। यदि दिल्ली पुलिस ऐसे किसी नतीजे पर पहुंचती है कि नोट के बदले वोट कांड महज बिचौलिये बताए जा रहे कुछ सांसदों के करीबियों की दिमाग का उपज था तो इससे सबसे ज्यादा जगहंसाई संसद की ही होगी। कोई शेखचिल्ली ही इस पर भरोसा कर सकता है कि इस कांड में सांसदों और राजनीतिक दलों की कोई भूमिका नहीं रही होगी। आखिर यह कैसे मान लिया जाए कि किसी को संसद की गरिमा की परवाह है? जो संसद अपनी गरिमा की रक्षा के लिए खुद सजग-सक्रिय नहीं हो सकती उसकी सर्वोच्चता के ढोल पीटने का क्या मतलब? अभी हाल ही में ऐसे ढोल तब पीटे गए थे जब लोकपाल विधेयक का मुद्दा गर्म था। राजनीतिक दलों की ओर से कहा जा रहा था कि कानून बनाने का काम संसद का है, न कि किसी सिविल सोसाइटी का। इससे इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन क्या कोई राजनीतिक दल इस सवाल का जवाब देगा कि पिछले 43 सालों में कोई लूला-लंगड़ा लोकपाल विधेयक भी पारित क्यों नहीं हो सका? संसद की सर्वोच्चता, सक्रियता, सजगता राजनीतिक दलों की मोहताज है। वे जैसे चाहें वैसे संसद को चलाने या न चलाने में समर्थ हैं। चूंकि न तो सत्ता पक्ष को संसद की गरिमा की परवाह है और न ही विपक्ष को इसलिए उन्हें आगे आना चाहिए जो इससे चिंतित हैं कि संसद की गरिमा से खिलवाड़ हो रहा है। लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा सभापति और साथ ही राष्ट्रपति को यह देखना चाहिए कि संसद की गरिमा बनी रहे। यदि अरबों रुपये के घोटाले के आरोपी सांसद संसद की कार्यवाही में भाग लेते हैं तो इससे संसद का मान बढ़ने वाला नहीं है। इसी तरह यदि नोट के बदले वोट कांड में लीपापोती होती है, जिसके आसार बढ़ गए हैं तो संसद की प्रतिष्ठा की रक्षा हो पाना मुश्किल होगा। किसी को भी यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि सरकार संसद की गरिमा की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध होगी। उसका अब तक का आचरण यही बताता है कि उसे न तो अपने सम्मान की परवाह है और न ही संसद के सम्मान की। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111717201774143512

असमानता पर उदासीनता

आर्थिक विकास के साथ-साथ अमीरों-गरीबों के बीच अंतर बढ़ते जाने के कारणों की तह में जा रहे हैं भरत झुनझुनवाला
संप्रग सरकार अति प्रसन्न है। हाल में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार गरीबी में गिरावट आई है। 2005 में 37 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे थे, जबकि 2010 में इनकी संख्या घटकर 32 प्रतिशत रह गई है। इसे खुले बाजार की आर्थिक नीतियों का परिणाम बताया जा रहा है, लेकिन दो समस्याएं हैं। पहली यह कि गरीबी में गिरावट की गति धीमी हुई है। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के प्रो। प्रणब बर्धन के अनुसार सत्तर और अस्सी के दशक में गिरावट की गति अधिक थी, जो आर्थिक सुधारों के बाद धीमी हुई है। दूसरी समस्या है कि असमानता में भारी वृद्धि हुई है। एशियाई विकास बैंक द्वारा किए गए अध्ययन में बताया गया है कि आर्थिक सुधारों से पहले असमानता घट रही थी। 1994 के बाद इसमें वृद्धि हो रही है। योजना आयोग के सदस्य प्रो। अभिजित सेन कहते हैं कि असमानता बढ़ रही है और संपत्ति के भद्दे संग्रह को रोकने के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है। चुनिंदा अमीर लोगों के पास निजी विमान जैसी विलासिता की महंगी वस्तुओं का भंडार बढ़ता जा रहा है, जबकि गरीब की हालत में मामूली सुधार हुआ है। कस्बे में मर्सिडीज कार दिखने लगे तो स्कूटर का सुख जाता रहता है। इसी प्रकार अमीरी में भारी बढ़त के सामने गरीब की स्थिति में जो सुधार हुआ है वह धूमिल पड़ जाता है। आर्थिक सुधारों के पूर्व असमानता नियंत्रण में थी, परंतु आर्थिक विकास दर न्यून थी। आर्थिक सुधारों के बाद आर्थिक विकास दर में वृद्धि हुई है, परंतु असमानता में भी उतनी ही तीव्रता से वृद्धि हो रही है। गरीबी की गिरावट की चाल भी घट रही है। अत: संप्रग सरकार को इस गिरावट से प्रसन्न होने का कोई कारण नहीं है। दरअसल, हम गरीबी के कुएं से निकल कर असमानता की खाई में गिर रहे हैं। असमानता का पहला कारण कल्याणकारी योजनाओं की घटती कार्यकुशलता है। वर्तमान समय में गरीब को आगे बढ़ाने में शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण है। गरीब सरकारी स्कूलों पर निर्भर हैं। इनमें फीस नहीं भरनी पड़ती, साथ ही मुफ्त में भोजन और किताबें भी मिल जाती हैं, पर इन स्कूलों के रिजल्ट खराब होते जा रहे हैं। फलस्वरूप गरीब अच्छी शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम का कहना है कि भारत के मानव विकास सूचकांक में शिक्षा की असमानता का संज्ञान लेने पर 43 प्रतिशत की गिरावट आती है। दूसरे देशों की तुलना में भारत में यह असमानता अधिक है। दूसरी तरफ रोजगार गारंटी एवं ऋण माफी से लाभ हुआ है। मेरा आकलन है कि शिक्षा एवं स्वास्थ्य कार्यक्रमों के घटिया क्रियान्वयन से जितना नुकसान हुआ है उसकी आंशिक भरपाई ही रोजगार गारंटी से हुई है। कुल मिलाकर यह घाटे का सौदा रही है। विशेष यह कि इन खचरें को वहन करने के लिए सरकार ने टैक्स अधिक वसूल किया है। दर घटाने के बावजूद टैक्स की अधिक वसूली का कारण है कि अमीरियत बढ़ी है। देश में बड़ी संख्या में अरबपति पैदा हो गए हैं। बड़ी कंपनियों के अधिकारियों को करोड़ों रुपये का वार्षिक पैकेज दिया जा रहा है। यानी कल्याणकारी खचरें में वृद्धि का आधार असमानता में बढ़ोतरी है। अमीरी बढ़ने पर ही अमीर लोग ज्यादा टैक्स अदा करेंगे और तब ही सरकारी कल्याणकारी खचरें में वृद्धि हो सकेगी। उदाहरण के तौर पर मजदूर के वेतन में दस रुपये की वृद्धि तब ही होती है जब मालिक को दस लाख रुपये का लाभ हो। असमानता बढ़ने का दूसरा कारण यह है कि खुले बाजार की नीति में शेयर बाजार, प्रापर्टी तथा सोने में निवेश करने वाले विशेष तौर पर लाभान्वित हुए हैं। कपड़ा उद्योग और चमड़ा उद्योगों के निर्यातों से कुछ अर्धकुशल श्रमिकों के वेतन में वृद्धि अवश्य हुई है, परंतु शेयर बाजार से हुई आय की तुलना में यह तुच्छ है। फरीदाबाद के निर्यात कारखानों में कार्यरत श्रमिक पिछले वर्ष चार हजार रुपये प्रतिमाह पाते थे तो इस वर्ष पांच हजार रुपये पाते हैं, परंतु प्रापर्टी में निवेश करने वाले को पिछले साल चार लाख का लाभ हुआ था तो इस साल दस लाख का। इसलिए आर्थिक विकास दर बढ़ने के साथ-साथ असमानता भी बढ़ रही है। असमानता में वृद्धि को वैश्वीकरण पर नहीं थोपना चाहिए। वैश्वीकरण के साथ-साथ बड़े औद्योगिक घरानों का वर्चस्व बढ़ना आर्थिक विकास की मौलिक प्रक्रिया है। वे और बड़े होने लगते हैं, परंतु श्रम की आपूर्ति लगभग असीमित रहने से श्रमिक के वेतनमानों में कम ही वृद्धि होती है। जैसे मजदूर दो मंजिला मकान बनाए या 21 मंजिला, उसका वेतन समान रहता है, जबकि बिल्डर के लाभ में भारी वृद्धि होती है। अत: बढ़ती असमानता के लिए संप्रग सरकार को जिम्मेदार बताना गलत होगा। संप्रग सरकार की गलती मात्र इतनी है कि असमानता में वृद्धि की मौलिक प्रकृति पर लगाम कसने के लिए कारगर प्रयास नहीं किए गए हैं। वैश्वीकरण का एक और प्रभाव पड़ा है। सॉफ्टवेयर आदि क्षेत्रों में शिक्षित कर्मियों की मांग बढ़ी है और उनके वेतन भी बढ़े हैं। आज सामान्य इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र को 3-4 लाख रुपये का वार्षिक पैकेज मिलना आम बात हो गई है। यह सुखद उपलब्धि है। इससे निचले मध्यम वर्ग के तमाम लोगों को अच्छे वेतन मिले हैं, परंतु इससे असमानता की मूल समस्या का हल नहीं होता है। वित्त मंत्रालय द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार निजी संगठित क्षेत्र में कुल श्रमिकों की संख्या में प्रति वर्ष लगभग चार लाख की वृद्धि हो रही है। इसके सामने श्रम बाजार में प्रवेश करने वालों की संख्या में प्रति वर्ष लगभग 40 लाख की वृद्धि हो रही है। अत: जितने व्यक्तियों को उच्चकोटि के रोजगार मिल रहे हैं, गरीबों की संख्या में उससे दस गुना वृद्धि हो रही है। ये रोजगार असमानता की समस्या का समाधान नहीं हैं। तथापि भविष्य इसी प्रकार के रोजगारों का है। इनमें तीव्र वृद्धि की जरूरत है। ऐसा आम जनता को अच्छी शिक्षा पहुंचाने से ही संभव होगा। इसमें मुख्य बाधा स्वार्थी सरकारी तंत्र की सशक्त लॉबी है। अंतिम आकलन इस प्रकार है। आर्थिक विकास की प्रक्रिया में असमानता का बढ़ना स्वाभाविक है। इस पर लगाम लगाने के प्रयास के प्रति सरकार उदासीन है। इससे समाज में विघटन बढ़ेगा। हल यह है कि अमीरों द्वारा अपनी संपत्ति के भद्दे प्रदर्शन पर रोक लगाई जाए। धन कमाना अच्छा है, परंतु उसके भद्दे प्रदर्शन से अमीर और गरीब, दोनों की हानि होती है। अमीर यदि सामाजिक आक्रोश से बचना चाहता है तो उसे सादगी से जीना सीखना पड़ेगा अन्यथा आने वाले समय में उसकी अमीरी पर संकट पैदा होगा। (लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111717174974077256

संदेह बढ़ाने वाली दलील

किसी भी घपले-घोटाले के अभियुक्त अपने बचाव में जो कुछ कहते हैं उस पर पूरी तरह भरोसा करना मुश्किल होता है, लेकिन यह भी मानकर नहीं चला जा सकता कि हर मामले में उनकी दलील खारिज ही कर देनी चाहिए। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के अभियुक्त ए।राजा ने गत दिवस यह जो आरोप लगाया कि स्पेक्ट्रम पाने वाली कंपनियों द्वारा शेयर बेचे जाने के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम के साथ चर्चा की गई थी वह केवल सनसनीखेज ही नहीं है। राजा की मानें तो स्पेक्ट्रम पाने वाली कंपनियों द्वारा अपनी हिस्सेदारी विदेशी कंपनियों को बेचने के फैसले को केंद्रीय वित्तमंत्री ने प्रधानमंत्री की उपस्थिति में मंजूरी दी थी। सत्तापक्ष राजा के इस आरोप को एक अभियुक्त का बयान बताकर अपना पल्ला झाड़ सकता है, लेकिन इतने मात्र से संदेह के बादल छंटने वाले नहीं हैं। इसलिए और भी नहीं, क्योंकि यह बात पहले भी सामने आ चुकी है कि राजा के फैसलों पर प्रधानमंत्री के साथ-साथ तब के वित्तमंत्री चिदंबरम ने भी एतराज जताया था। सच तो यह है कि इस संदर्भ में इन दोनों ने पत्र भी लिखे थे और इसके प्रमाण भी उपलब्ध हैं। आम जनता यह जानना चाहेगी कि आखिर राजा पर इस एतराज का कोई असर क्यों नहीं हुआ और उन्हें मनमानी करने से क्यों नहीं रोका जा सका? राजा ने अपने बचाव में अदालत के समक्ष जो कुछ कहा उस पर बहस तो शुरू हो गई है, लेकिन जरूरत यह जांचे जाने की है कि उनके आरोप में कोई सार है या नहीं? यह आश्चर्यजनक है कि इस दिशा में जांच होती नजर नहीं आ रही है। ए. राजा की ओर से लगाए गए आरोपों की जांच के कई आधार हैं और सबसे पहला तो यह कि उनकी गिरफ्तारी के पहले तक केंद्र सरकार उनका हर तरह से बचाव करने में लगी हुई थी। खुद प्रधानमंत्री ने स्पेक्ट्रम आवंटन में किसी तरह की गड़बड़ी से इंकार किया था। इतना ही नहीं, दोषपूर्ण और मनमाने तरीके से किए गए स्पेक्ट्रम आवंटन के चलते हुई राजस्व हानि को शून्य बताया गया था। इसके अतिरिक्त यह भी किसी से छिपा नहीं कि स्पेक्ट्रम हासिल करने वाली कंपनियों ने किस तरह अपनी हिस्सेदारी बेचकर अरबों रुपये अर्जित किए और यह तो जगजाहिर है कि स्पेक्ट्रम आवंटन के समय किस तरह नियम-कानूनों को ठेंगा दिखाया गया। इस पर सहज यकीन करना कठिन है कि कोई केंद्रीय मंत्री इस हद तक मनमानी कर सकता है। राजा की निरंकुशता के लिए गठबंधन राजनीति की कथित मजबूरियां उत्तरदायी हो सकती हैं, लेकिन इसका मतलब घोटाला करने की इजाजत देना नहीं हो सकता। दुर्भाग्य से स्पेक्ट्रम आवंटन में ऐसा ही हुआ। राजा के आरोप के बाद विपक्ष का हमलावर होना स्वाभाविक ही है। स्पेक्ट्रम आवंटन में हुई गड़बड़ी के संदर्भ में सत्तापक्ष विपक्ष के तर्को को दुष्प्रचार की संज्ञा दे सकता है, लेकिन इससे आम जनता के मन में घर कर रहे संदेह को दूर करना कठिन होगा। मौजूदा परिस्थितियों में बेहतर यह होगा कि इस बात की जांच हो कि राजा के आरोपों में कोई सत्यता है या नहीं?
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111717174974128984

Monday, July 25, 2011

एक नया आतंकवाद

जब नॉर्वे में दो लोमहर्षक हमलों की मानवीय त्रासदी से दुनिया सदमे में है, हमलावर के राजनीतिक रुझानों के बारे में सामने आ रही जानकारियां एक नए आतंकवादी खतरे की ओर इशारा कर रही हैं।

आंद्रेस बेहरिंग ब्रेयविक नाम के जिस शख्स पर पहले ओस्लो में विस्फोट और फिर सत्ताधारी लेबर पार्टी के युवा शिविर पर अंधाधुंध फायरिंग करने का आरोप है, वह कोई मानसिक विकृत व्यक्ति नहीं, बल्कि ईसाई कट्टरपंथी धारा से जुड़ा धुर दक्षिणपंथी राजनीतिक धारा का कार्यकर्ता है, जो एक समय बहु-सांस्कृतिक समाज और आव्रजन का विरोध करने वाली प्रोग्रेस पार्टी से भी जुड़ा था। वह घोर इस्लाम विरोधी है और उसने ओस्लो एवं उतोया द्वीपों में अपनी आतंकवादी कार्रवाइयों को सुनियोजित ढंग से अंजाम दिया।

उसने लेबर पार्टी की सरकार के दफ्तरों और फिर इसी पार्टी की युवा शाखा की बैठक को निशाना बनाया, जो आव्रजन एवं मिली-जुली संस्कृति पर आधारित समाज की समर्थक रही है। स्पष्टत: यह घटनाक्रम सियासी बहसों में नस्ल, मजहब, भाषा और जाति आधारित बहसों को चरम बिंदु तक ले जाने के खतरों को रेखांकित करता है।

ऐसे मुद्दों पर जब कुछ राजनीतिक धाराएं लगातार काल्पनिक या अनुमानित खतरों का शोर मचाती हैं, तो उसका कुछ नौजवानों पर यह असर हो सकता है कि वे खुद ‘न्याय करने’ की राह अख्तियार कर लें।

आरंभिक संकेतों से लगता है कि ब्रेयविक ने यही राह अपनाई। अनेक यूरोपीय देशों में आव्रजन - खासकर 9/11 के बाद से मुसलमानों की मौजूदगी राजनीतिक बहस एवं चुनाव का मुद्दा रहे हैं। धुर दक्षिणपंथी पार्टियां इस चर्चा को जुनून की हद तक ले जाती रही हैं। विचारणीय है कि क्या नॉर्वे को इसी की कीमत चुकानी पड़ी है?

ऐसी तमाम सियासी ताकतों के लिए यह सोचने का विषय है कि एक तरह के आतंकवाद का विरोध करते हुए वे कहीं दूसरे तरह के आतंकवाद की जमीन तो तैयार नहीं कर देती हैं?

Source: भास्कर
http://www.bhaskar.com/article/ABH-a-new-terrorism-2292288.html

Sunday, July 24, 2011

आतंक व मानवाधिकार

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा मानवाधिकार संगठन ह्यमून राइट्स वॉच (एचआरडब्ल्यू) की रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई करें, तो पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर को कठघरे में खड़ा होना पड़ेगा। उनके साथ पूर्व उप-राष्ट्रपति डिक चेनी, पूर्व रक्षा मंत्री डोनाल्ड रम्सफेल्ड और सीआईए के पूर्व निदेशक जॉर्ज टेनेट भी होंगे।

एचआरडब्ल्यू ने अपनी यह रिपोर्ट हाल में सार्वजनिक किए गए मेमो, कांग्रेस (अमेरिकी संसद) की सुनवाइयों एवं अन्य स्रोतों के आधार पर तैयार की है। इन दस्तावेजों से संकेत मिलता है कि बुश प्रशासन ने जानकर आतंकवाद के आरोपियों को यातना देने को मंजूरी दी।

ऐसे आरोपी वॉटरबोर्डिग (पानी में डुबाना या धार मारना) का शिकार बने, उनके लिए सीआईए ने विदेशों में गोपनीय जेलें बनाईं और कैदियों को अन्य देश ले जाकर यातना दी गई। ये बातें वर्षो से दुनिया को मालूम हैं।

बुश प्रशासन पर आरोप है कि उसने अपने देश के कानून को धता बताने के लिए ये तरीके अपनाए। अपने चुनाव अभियान के दौरान ओबामा और उनकी पार्टी ने भी इन तौर-तरीकों को मुद्दा बनाया था। मगर सत्ता में आने के बाद ओबामा ने आरोपी अधिकारियों पर यह कहकर मुकदमा चलाने से मना कर दिया कि अब पीछे नहीं, आगे देखने की जरूरत है।

अपनी ताजा रिपोर्ट के साथ एचआरडब्ल्यू ने आरोप लगाया है कि ऐसी नीति अपनाकर ओबामा प्रशासन ने संयुक्त राष्ट्र की यातना के खिलाफ संधि के प्रति अमेरिका की वचनबद्धताओं को भंग किया है। इस प्रकरण का संदेश यह है कि सच्चाई आखिरकार सामने आती है।

सत्ताधारी यातना जैसे तरीकों को भले अपराध के बजाय ‘दुर्भाग्यपूर्ण नीति चयन’ मानें, लेकिन जनमत उससे सहमत नहीं होता। इसलिए दुनिया भर की सरकारों के लिए उचित यही है कि आतंकवाद जैसे खतरों से लड़ते समय भी वे मानवाधिकारों और कानून के राज के प्रति अपनी बुनियादी जवाबदेहियों को न भूलें।
Source: भास्कर न्यूज
http://www।bhaskar.com/article/ABH-terror-and-human-rights-2276542.html

बेनकाब हुआ चेहरा

कश्मीर समस्या के ‘तीसरे विकल्प’(यानी कश्मीर की ‘आजादी’) के पैरोकारों का एक प्रमुख चेहरा बेनकाब हो गया है।

ये वो चेहरा है, जिसने दशकों तक अमेरिका में कश्मीर को मानवाधिकार और वहां के लोगों के ‘आत्म-निर्णय’ के अधिकार की समस्या के रूप में पेश किया, इस मसले के ‘शांतिपूर्ण’ हल की वकालत के नाम पर अमेरिकी राजनेताओं के बीच लॉबिंग की और इसके पक्ष में माहौल बनाने के लिए सेमिनार, जन-सभाएं आदि आयोजित करता रहा।

उसकी इन गतिविधियों में कश्मीर के अलगाववादी नेता और देश के कई ‘मानवाधिकार’ कार्यकर्ता एवं मशहूर पत्रकार भाग लेते रहे, जिनके आने-जाने एवं अमेरिका में रहने का पूरा खर्च उसी गुलाम नबी फई की संस्था ‘कश्मीर अमेरिकन काउंसिल’ (केएसी) उठाती थी।

अब एफबीआई ने खुलासा किया है कि फई पाकिस्तान का एजेंट है, जिसे आईएसआई से पैसे मिलते थे। फई ने खुद को अमेरिका में विदेशी एजेंट के रूप में पंजीकृत करवाए बगैर लॉबिंग की, इसलिए एफबीआई ने उसे गिरफ्तार कर उस पर मुकदमा दर्ज किया है।

उसके साथ ही जहीर अहमद नाम के एक शख्स पर भी मुकदमा दर्ज हुआ है, जिस पर केएसी के लिए ऐसे फर्जी दानदाताओं की व्यवस्था करने का आरोप है, जिनकी आड़ में आईएसआई पैसा देती थी। साफ है, केएसी की सारी गतिविधियां पाक रणनीति का हिस्सा थीं।

इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि भारत से कश्मीर को अलग कर उसे हड़पना और उसकी ‘आजादी’ की वकालत- ये दोनों विकल्प पाकिस्तान की व्यापक रणनीति का हिस्सा हैं।

इस हकीकत से सिर्फ वे ही आंख मूंद सकते हैं, जिन्हें या तो आधुनिक-सर्वसमावेशी भारत की अवधारणा से किसी वजह से बैर है या जो इस क्षेत्र की भू-राजनीतिक स्थितियों से अनजान हैं। फई के प्रकरण ने साबित किया है कि कश्मीर की ‘आजादी’ की बात करने वाले लोग दरहकीकत किसके गुलाम हैं।
Source: भास्कर न्यूज
http://www.bhaskar.com/article/ABH-exposed-face-2282235.html

भारतीय हितों की अनदेखी

भारतीय हितों के लिहाज से अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के दौरे को निराशाजनक बता रहे हैं राजीव शर्मा
19 जुलाई को द्वितीय भारत-अमेरिकी सामरिक वार्ता में अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारतीय समकक्ष एसएम कृष्णा को परमाणु आपूर्ति समूह के ईएनआर (संवर्धन और पुन‌र्प्रसंस्करण) प्रौद्योगिकी पर कड़े रुख के बारे में भारत का आश्वस्त नहीं कर पाईं, जिस कारण परमाणु समझौते के क्रियान्वयन पर सवालिया निशान लग गया है। साथ ही उन्होंने आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान को आड़े हाथों लेने से भी परहेज किया, जबकि इससे पहले अपने दौरों पर ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन और फ्रांसिसी राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ऐसा कर चुके हैं। यह आधे खाली गिलास की तस्वीर है। दूसरी तरफ, क्लिंटन ने भारत के साथ मिलकर आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की प्रतिबद्धता जाहिर की। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान को साफ-साफ बता दिया गया है कि हर प्रकार के आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई खुद इस्लामाबाद के हित में है। उन्होंने यह बात एसएम कृष्णा के साथ संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में कही। क्लिंटन ने कहा कि हमने पाकिस्तान को बार-बार कहा है कि आतंकवाद दोनों देशों के लिए खतरा है और आतंकवादियों ने मस्जिदों, पुलिस स्टेशनों और सरकारी इमारतों पर हमला कर अमेरिकियों से अधिक पाकिस्तानियों को मारा है। हमारा मानना है कि पहले पाकिस्तान खुद अपने स्तर पर आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करे, अपने भूभाग को आतंकियों के कब्जे में जाने तथा पाकिस्तान के लोगों को मरने से बचाए। हमने पाकिस्तान को स्पष्ट बता दिया है कि हम उसके साथ दीर्घकालीन द्विपक्षीय संबंध चाहते हैं और हम कहीं भी आतंकवादियों को सुरक्षित पनाह मिलना बर्दाश्त नहीं करेंगे। अगर हमें आतंकवादियों के ठिकाने का पता चलता है तो उनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए दोनों को साथ मिलकर चलना होगा। इस तस्वीर में आधा गिलास भरा नजर आ रहा है। हालांकि, जब उन्होंने कहा कि अमेरिका और भारत की इस विषय पर एक सीमा है, तो उनके लहजे में पराजय की झलक दिख रही थी। उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिका और भारत ने आतंकवाद से लड़ने और खुफिया जानकारी साझा करने में द्विपक्षीय सहयोग को प्रगाढ़ किया है। इस पर कृष्णा ने कहा कि क्षेत्रीय शांति और स्थिरता के लिए पाकिस्तान में आतंकी शरणस्थलियों को खत्म करने की जरूरत है। भारत-अमेरिका परमाणु करार के पूर्ण क्रियान्वयन पर क्लिंटन अनिश्चित नजर आईं और इस संबंध में भारतीय चिंताओं को लेकर उनकी प्रतिक्रिया निराशाजनक थी। भारत के परमाणु दायित्व संबंधी कानूनों को लेकर उन्होंने वाशिंगटन की नाखुशी को जाहिर करते हुए कहा कि भारत अगर इस करार से पूरा फायदा उठाना चाहता है तो उसे अंतरराष्ट्रीय दायित्व मापदंडों के अनुरूप अपने कानून में इस साल के अंत तक बदलाव कर लेना चाहिए। उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत को अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आइएईए) से बातचीत कर अपने कानूनों में संशोधन करना चाहिए, जबकि अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत यह जरूरी नहीं है। भारतीय संदर्भ में बुरी खबर यह है कि हाल ही में 46 देशों के परमाणु आपूर्ति समूह द्वारा संवर्धन व पुन‌र्प्रसंस्करण प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण पर भारत के खिलाफ लगाए गए नए प्रतिबंधों के संबंध में उन्होंने कोई आश्वासन नहीं दिया। उन्होंने भारत-अमेरिका परमाणु करार के पूर्ण क्रियान्वयन के लिए बचे हुए मुद्दों को भी जल्द सुलझाने को कहा। हालांकि, साथ ही उन्होंने आश्वस्त भी किया कि अमेरिका परमाणु करार को पूरी तरह क्रियान्वित करेगा। असल में परमाणु आपूर्ति समूह द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के आलोक में क्लिंटन चाहती हैं कि भारत अपने उत्तरदायित्व कानूनों को हलका करे। यह भारत सरकार के लिए राजनीतिक रूप से सही नहीं होगा। संप्रग सरकार दक्षिणपंथियों और वामपंथियों, दोनों के जबरदस्त दबाव में है कि उत्तरदायित्व कानूनों को हलका करने के बजाए इन्हें और कड़ा करने और अमेरिका के ब्लैकमेल के आगे न झुकने की मांग से जूझ रही है। यद्यपि क्लिंटन ने भारत के क्षेत्रीय और वैश्विक शक्ति के रूप में उभरने का स्वागत किया, किंतु उन्होंने ऐसी किसी योजना का खुलासा नहीं किया जिससे पता चले कि अमेरिका इस प्रयास में भारत को कैसे सहयोग कर सकता है। इस संबंध में एक महत्वपूर्ण मुद्दा है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का पुनर्गठन और इसमें भारत को स्थायी सदस्यता दिलाने में सहयोग। उन्होंने इस मुद्दे से पूरी तरह कन्नी काट ली। हालांकि, क्लिंटन का दिल्ली दौरा विश्व के दो महत्वपूर्ण लोकतंत्रों के बीच सामरिक साझेदारी में प्रगति के रूप में देखा जा रहा है। इस दौरे में भारत और अमेरिका ने चीन के मद्देनजर नई वैश्विक साझेदारी को और मजबूत करने का नया लक्ष्य निर्धारित किया है। जल्द ही भारत-अमेरिका-जापान त्रिपक्षीय वार्ता के आयोजन की बात भी क्लिंटन ने की है। क्लिंटन ने एक ऐसा मुद्दा भी उठाया जो भारत आने वाले हर विदेशी नेता की पहली वरीयता होता है-भारत द्वारा सैन्य खरीदारी। उनका जोर इस बात पर था कि भारत सैन्य आयात में बढ़ोतरी कर किस प्रकार अमेरिकी नागरिकों को रोजगार प्राप्त करने और अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार में अपना योगदान दे सकता है। इसके लिए उन्होंने अधिकाधिक द्विपक्षीय व्यापार और निवेश समझौतों की जरूरत बताई। यह ध्यान देने की बात है कि उन्होंने यह तो पूछा कि भारत अमेरिका के लिए क्या कर सकता है, लेकिन यह नहीं बताया कि अमेरिका भारत के लिए क्या कर सकता है? उन्होंने अपने राष्ट्रीय हितों को ऊपर रखा और भारत की चिंताओं को दरकिनार कर दिया। भारत की चिंताएं वीजा, ईएनआर प्रौद्योगिकी, अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भारत को आगे बढ़ाना और आतंक के मुद्दे पर पाकिस्तान पर दबाव डालना शामिल हैं। क्लिंटन ने अविश्वसनीय कीमत पर भारत को अत्याधुनिक एफ 35 लड़ाकू विमान बेचने की पेशकश की। उन्होंने इसके बेसिक मॉडल की कीमत 6।5 करोड़ डॉलर बताई है, जो फ्रांसिसी राफेल की 8.5 करोड़ डॉलर और यूरोफाइटर टाइफून की 12.5 करोड़ डॉलर की तुलना में काफी कम है। अमेरिकी पेशकश से संकेत मिलता है कि वह भारत के भारी-भरकम रक्षा बाजार से बड़ा हिस्सा हासिल करना चाहता है, खासतौर पर दो शीर्ष अमेरिकी फाइटर निर्माता लॉकहीड (एफ-16) और बोइंग (एफ-18) के भारत के 10.4 अरब डॉलर के एमएमआरसीए करार से निकाल दिए जाने के बाद। (लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111716936074179208

निर्धनता के साथ मजाक

सुप्रीम कोर्ट के इस सवाल पर हमारे नीति-नियंताओं को शर्मिदा होना चाहिए कि आखिर 10-20 रुपये में कोई पौष्टिक भोजन कैसे हासिल कर सकता है? सुप्रीम कोर्ट को योजना आयोग से यह सवाल इसलिए पूछना पड़ा, क्योंकि उसने एक हलफनामा दायर कर यह कहा था कि ग्रामीण क्षेत्र में 17 और शहरी इलाके में 20 रुपये में 2400 कैलोरी युक्त अर्थात पर्याप्त पौष्टिक भोजन हासिल किया जा सकता हैं। इसे निर्धन लोगों के साथ किए जाने वाले मजाक के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। चिंताजनक यह है कि ऐसा मजाक किसी और ने नहीं, बल्कि योजना आयोग ने किया और उसने इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देने में भी संकोच नहीं किया। योजना आयोग को कम से कम गरीबों के साथ तो आंकड़ेबाजी का खेल खेलने से बाज आना चाहिए। योजना आयोग का यह आकलन यही बताता है कि या तो वह जमीनी हकीकत से परिचित नहीं या फिर उसे निर्धन तबके की परवाह नहीं। यदि ऐसा कुछ नहीं है तो फिर यह बताया ही जाना चाहिए कि वह इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचा कि 17 अथवा 20 रुपये में 2400 कैलोरी का भोजन प्राप्त किया जा सकता है? हालांकि उसके पास आड़ लेने के लिए तेंदुलकर कमेटी की सिफारिश है, लेकिन सवाल यह है कि क्या वह हर तरह की सिफारिशों को आंख मूंदकर स्वीकार कर लेता है? आश्चर्य नहीं कि नीति-निर्माताओं के इसी रवैये के कारण देश में कुपोषित लोगों और विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों की संख्या कम होने का नाम नहीं ले रही है। देश के कुछ इलाकों में निर्धन तबके की महिलाओं और बच्चों में कुपोषण का स्तर अनेक अफ्रीकी देशों से भी गया बीता है। यह समझना कठिन है कि केंद्र सरकार ऐसे अविश्वसनीय आंकड़ों के जरिए क्या हासिल करना चाहती है? हो सकता है कि आंकड़ेबाजी का सहारा लेकर वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत वितरित किए जाने वाले खाद्यान्न में कटौती करने अथवा देश में कुपोषण के स्तर को कम करके दिखाने में सक्षम हो जाए, लेकिन इससे हालात बदलने वाले नहीं हैं। केंद्र और राज्य सरकारें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के संदर्भ में चाहे जो दावा करें, सच्चाई यह है कि वे उसमें सुधार करने के लिए गंभीर नहीं। इसका एक प्रमाण तो इससे ही मिल जाता है कि उच्चतम न्यायालय को सार्वजनिक वितरण प्रणाली की खामियों को दूर करने की पहल करनी पड़ रही है। यह आश्चर्यजनक है कि एक ओर खाद्य सुरक्षा विधेयक के जरिए ज्यादा से ज्यादा लोगों को सस्ती दरों पर खाद्यान्न देने की तैयारी की जा रही है और दूसरी ओर किसी को भी हजम न होने वाले आंकड़े पेश किए जा रहे हैं। यदि केंद्र सरकार खाद्य सुरक्षा विधेयक को लेकर तनिक भी गंभीर है तो उसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त करना ही होगा। यह तब होगा जब राज्य सरकारें अपने दायित्वों को समझने के लिए तैयार होंगी। राज्य सरकारें अपने यहां निर्धन तबके के लोगों की संख्या कम करने की केंद्र सरकार की पहल को लेकर तो ऐतराज कर रही हैं, लेकिन वे इसके लिए कोई ठोस कदम उठाने के लिए तैयार नहीं जिससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली दुरुस्त हो। ज्यादातर राज्य सरकारें जिस तरह इस प्रणाली की खामियों को लाइलाज बताने में जुटी हुई हैं उससे उनकी अगंभीरता का ही पता चलता है, क्योंकि तथ्य यह है कि तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में यह प्रणाली संतोषजनक ढंग से काम कर रही है।
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111717080371993688

घपले-घोटालों का देश

देश में प्रारंभिक स्तर पर ही घपले-घोटालों को रोक देने वाली व्यवस्था के अभाव पर हैरत जता रहे हैं संजय गुप्त
देश में एक के बाद एक घोटालों के पर्दाफाश होने का सिलसिला कायम है। ताजा घोटाले उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में सामने आए हैं। उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत केंद्र से भेजे गए धन का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हुआ। इस योजना में घोटाले के कारण दो मुख्य चिकित्सा अधिकारियों की हत्या हुई और एक उप मुख्य चिकित्साधिकारी की रहस्यमय परिस्थितियों में जेल के अंदर मौत हो गई। माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में पिछले पांच-छह वर्षों से घोटाला हो रहा था और इसके चलते करीब तीन हजार करोड़ रुपये की धनराशि इधर-उधर हो गई। कर्नाटक में भी अवैध खनन के रूप में पिछले कई वर्षो से घोटाला किया जा रहा था। लोकायुक्त की रपट के अनुसार इस घोटाले में मुख्यमंत्री येद्दयुरप्पा और उनके परिजन तथा बेल्लारी बंधुओं के नाम से चर्चित दो मंत्री भी शामिल थे। अवैध खनन को संरक्षण देने के कारण 1800 करोड़ रुपये की राजस्व क्षति का अनुमान लगाया जा रहा है। उत्तर प्रदेश और कर्नाटक के घोटालों की पूरी परतें खुलना अभी बाकी हैं। यह आश्चर्यजनक है कि हमारे देश में घोटालों का खुलासा आमतौर पर तब होता है जब करोड़ों-अरबों रुपये के वारे-न्यारे हो चुके होते हैं। यह भी एक तथ्य है कि घोटाले उजागर होने के बाद उनकी जांच में लंबा समय लगता है। इसके बाद संबंधित मामले न्यायपालिका में लटके रहते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि उत्तर प्रदेश और कर्नाटक के घोटालों के मामले में भी ऐसा हो। ध्यान रहे कि जब ऐसा होता है तो घोटाले के लिए दोषी लोगों को दंडित करना और कठिन हो जाता है। 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन और राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान हुए घोटाले यही बयान करते हंै कि समय रहते गड़बडि़यों को रोका नहीं जा सका। हालांकि दोनों मामलों में अनेक स्तरों पर यह बात उठी थी कि घोटाला हो रहा है, लेकिन कोई भी उसे रोकने में समर्थ नहीं साबित हुआ। इसका सीधा मतलब है कि हमारे देश में ऐसी व्यवस्था का निर्माण नहीं हो सका है जो घोटाला होने ही न दे अथवा प्रारंभिक स्तर पर ही उसे रोक दे। इसी तरह यह भी स्पष्ट है कि जटिल जांच और कानूनी प्रक्रिया के कारण घोटाले के दोषी लोगों को सजा देना भी मुश्किल है और यह तो जगजाहिर ही है कि घोटाले के कारण सार्वजनिक कोष को होने वाली क्षति की भरपाई कभी नहीं हो पाती। देश में जिस तरह रह-रहकर घोटाले होते रहते हैं उसी तरह सरकारी तंत्र की ओर से अकर्मण्यता का प्रदर्शन भी होता रहता है। बात चाहे खस्ताहाल सड़कों की हो अथवा लगातार बढ़ती अवैध झुग्गी-बस्तियों की या फिर सरकारी जमीन पर होने वाले अतिक्रमण की-ये सारे काम सरकारी तंत्र की आंखों के सामने होते हैं। यह भी एक यथार्थ है कि केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से चलाई जाने वाली जन कल्याणकारी योजनाओं में अनियमितताएं होती रहती हैं और कोई उन्हें रोकने के लिए तब तक सजग-सक्रिय नहीं होता जब तक कोई बड़ा घोटाला सामने नहीं आ जाता। बावजूद इसके योजनाओं को सही तरीके से लागू करने वाली व्यवस्था का निर्माण नहीं हो पा रहा है। यही कारण है कि अनेक घोटाले तब सामने आते हैं जब सरकारी खातों का ऑडिट होता है। सरकारी खातों के ऑडिट से घोटाला तो पकड़ में आ जाता है, लेकिन सरकारी पैसा हजम करने वाले आमतौर पर बच निकलते हैं। यह ठीक है कि इधर घोटालों में शामिल कुछ नेताओं, नौकरशाहों और कॉरपोरेट जगत के अधिकारियों को जेल भेजा गया है, लेकिन यह कहना कठिन है कि आगे से ऐसे घोटाले नहीं होंगे। ज्यादातर घोटालों में नेताओं का हाथ नजर आता है, फिर भी वे ऐसा कोई तंत्र बनाने के लिए तैयार नहीं दिखते जिससे घोटाले होने ही न पाएं। कर्नाटक में अवैध खनन में अपने मुख्यमंत्री येद्दयुरप्पा के शामिल होने के आरोपों के बाद भाजपा की परेशानी बढ़ गई है। देश की निगाहें भाजपा नेतृत्व पर हैं। अभी तक भाजपा घपलों-घोटालों को लेकर केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा कर रही थी। अब उसके सामने यह साबित करने की चुनौती है कि वह अपने नेताओं के भ्रष्टाचार के मामलों को सहन करने के लिए तैयार नहीं। फिलहाल भाजपा कर्नाटक के मुख्यमंत्री का बचाव करती दिख रही है, लेकिन चौतरफा दबाव को देखते हुए भाजपा नेतृत्व को घुटने टेकने पड़ सकते हैं। भाजपा को इसका अहसास होना चाहिए कि येद्दयुरप्पा की तरफदारी उसके लिए महंगी पड़ सकती है। भाजपा को यह स्मरण रखना चाहिए कि केंद्र सरकार राष्ट्रमंडल खेलों, 2जी स्पेक्ट्रम और आदर्श सोसाइटी से जुड़े घोटालों में जिस तरह पानी सिर से ऊपर गुजरने के बाद हरकत में आई उससे उसकी देश भर में किरकिरी हुई। खुद भाजपा यह कहती रही है कि विपक्ष, आम जनता और न्यायपालिका के दबाव में केंद्र सरकार ने इन घोटालों के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई की। आखिर ऐसा कहने वाली भाजपा येद्दयुरप्पा के खिलाफ स्वेच्छा से कोई कार्रवाई करने के लिए तैयार क्यों नहीं दिखती? भाजपा इसकी अनदेखी नहीं कर सकती कि लोकायुक्त ने येद्दयुरप्पा और उनके मंत्रियों पर बेहद गंभीर आरोप लगाए हैं। इसके अतिरिक्त विवादास्पद भूमि आवंटन के एक मामले में अदालत ने येद्दयुरप्पा और उनके परिजनों को राहत देने से इंकार कर दिया है। इन स्थितियों में येद्दयुरप्पा के लिए यही उचित है कि जब तक उन्हें आरोप मुक्त न किया जाए तब तक के लिए वह मुख्यमंत्री पद छोड़ दें। यदि वह ऐसा नहीं करते तो भाजपा नेतृत्व को उन्हें इसके लिए बाध्य करना चाहिए। एक सप्ताह बाद संसद का मानसून सत्र शुरू होने जा रहा है। संसद के इस सत्र में उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में हुई एक तरह की लूट के साथ-साथ कर्नाटक में अवैध खनन का मामला अवश्य उछलेगा। यह अच्छा नहीं होगा यदि सत्तापक्ष और विपक्ष एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार को संरक्षण देने का आरोप लगाकर संसद का समय बर्बाद करेंगे। बेहतर हो कि वे इस पर कोई सार्थक बहस शुरू करें कि हर किस्म के घोटालों पर रोक कैसे लगे? संसद के मानसून सत्र में घोटालों के साथ-साथ महंगाई और लोकपाल विधेयक संबंधी मुद्दे केंद्र सरकार के लिए मुसीबत खड़ी कर सकते हैं। चूंकि भाजपा खुद भ्रष्टाचार के आरोपों से घिर गई है इसलिए सत्तापक्ष-विपक्ष में तकरार की संभावना कम हो जाती है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं होना चाहिए कि घोटालों को रोकने के निर्णायक कदम न उठाए जाएं।
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111717080372058616



Friday, July 22, 2011

कौन कहता है वादे निभाए नहीं गए?

कल टेबल की सफाई करते वक्तएक पुराना रंगीन कागज मिला। उलट-पलटकर देखा, कुछ इबारतें और एक हवा में हाथ लहराती तस्वीर थी। चेहरा जाना-पहचाना था। हां, याद आया, तीन साल पहले ही तो वे हमारे घर आए थे। हमारे क्षेत्र के एमपी हैं।

कितना बदल गया तीन साल में जमाना! कैसे स्लिम हुआ करते थे सांसद महोदय और अब। खैर.. छोड़िए, क्यों किसी की अच्छी हेल्थ पर नजर लगाई जाए। और ये कागज था उनका चुनावी घोषणा पत्र यानी मैनिफेस्टो। एमपी साहब की हेल्थ से ध्यान हटाकर हमने अपना ध्यान केंद्रित किया मैनिफेस्टो पर।

लोग कहते हैं कि नेता वादे करके भूल जाते हैं, कुर्सी मिलते ही भ्रष्टाचार की चादर ओढ़ लेते हैं, लेकिन हमने ऐसी अफवाहों को दरकिनार कर इस मैनिफेस्टो की सच्चई का अपने साहित्यिक, सकारात्मक और सीधे मन से विश्लेषण करने की ठानी। सब तो ठीक है। आप यकीन मानेंगे? सारी घोषणाएं सही साबित हुईं, वक्त से पहले और उम्मीद से बढ़कर। लोगों का क्या है चिल्ल-पौं मचाते रहते हैं। मैंने एक-एक घोषणा का आकलन किया।

पहली घोषणा ही जोरदार थी कि हम गरीबी दूर करेंगे। पूरी तरह सही। गरीबी दूर हो गई, रिकॉर्ड समय में। हमारे नेताजी ने दो साल में ही तीन मंजिला बंगला, दो गाड़ी, एक फैक्टरी, नौकर-चाकर प्राप्त कर लिए। ऐसा नहीं है कि केवल उनकी गरीबी ही दूर हुई, वे चमचे जिनके पास साइकिल के पंक्चर बनवाने के पैसे नहीं होते थे, अब आल्टो मेंटेंन कर रहे हैं। कहां है गरीबी?

दूसरी घोषणा थी कि शिक्षा का स्तर उठाया जाएगा। सही तो है। सारा शहर जानता है कि नेताजी का बेटा अमेरिका में और बेटी बेंगलुरु में पढ़ रही है। कितना ऊंचा स्तर है शिक्षा का? तीसरी घोषणा थी स्वास्थ्य सुविधाओं को सुधारा जाएगा।

नेताजी के पिताजी, जो चुनाव के पहले तक सीनियर सिटीजन का कंसेशन कार्ड लिए सरकारी अस्पताल के बाहर लाइन में लगे दिखते थे, उनका इलाज आजकल मुंबई में हो रहा है। चौथी घोषणा थी सुरक्षा के व्यापक इंतजाम होंगे। सो तो चुनावी नतीजे आने के दूसरे दिन ही पूरी हो गई थी। तभी से उनके घर पर 24 घंटे एक-चार का गार्ड पहरा दे रहा है।

पांचवीं घोषणा थी कि सुरक्षा के लिए पुलिस की कार्यशैली में व्यापक परिवर्तन लाएंगे। सो भी आ ही गया। पहले जहां एफआईआर लिखवाने के लिए खासी लिखा-पढ़ी करनी पड़ती थी, वहीं पुलिस अब नेताजी के एक ही फोन पर किसी को भी उठा लेती है या किसी को भी छोड़ देती है।

ऐसी ही कई और घोषणाएं थीं, जो नेताजी ने महज तीन साल में पूरी कर दीं। अब लोग कहते हैं शहर को क्या फायदा हुआ? लोगों का क्या है, वो तो बोलेंगे ही। मेरा सवाल सारे बुद्धिजीवियांे से है, जो ये कहते फिरते हैं कि क्रांति की शुरुआत अपने घर से हो, भ्रष्टाचार पहले खुद से मिटाना शुरू करो, बुरी आदतों को पहले खुद छोड़ो। तो फिर अगर कोई देश का विकास अपने घर से शुरू करना चाहे तो हर्ज क्या है? इसमें आखिर गलत क्या है?

हे मेरे शहर, मेरे प्रदेश और मेरे देश के कर्णधार नेतागण, लोग आपको किसी भी तमगे से नवाजते रहें, मुझे तो आपसे कोई शिकायत नहीं है। आपके इस स्वविकास अभियान से भी मुझे कोई गिला-शिकवा नहीं है। लेकिन मुझे आप केवल इतना-सा दिलासा दे दीजिए कि आज नहीं तो कल, जिस तरह स्वविकास में आपने रिकॉर्डतोड़ कामयाबी हासिल की है, इस विकास की गंगा को मेरे शहर, मेरे प्रदेश और मेरे देश में भी बहा देंगे..।

Source: नितिन आर उपाध्यायhttp://http://www.bhaskar.com/article/ABH-who-says-the-promise-was-not-fulfilled-2260191.html
http://www.bhaskar.com/article/ABH-who-says-the-promise-was-not-fulfilled-2260191.html

गलत बात का विरोध करें और समर्थन में पीछे न हटें

सहमति और विरोध की जीवन में अलग-अलग स्थिति में जरूरत पड़ती है, लेकिन यदि गलत में सहमति हो जाए और सही का विरोध हो जाए तो नुकसान भी उठाना पड़ता है। कहां सहमति देना और कहां विरोध करना है, इसमें हनुमानजी बहुत जागरूक थे।

जब सुंदरकांड में वे लंका प्रवेश के समय लंका की सुरक्षा अधिकारी लंकिनी के सामने आते हैं, तो मच्छर के समान छोटा-सा आकार लेकर हनुमानजी लंका में प्रवेश कर रहे होते हैं और लंकनी उन्हें पकड़ लेती है। तुलसीदासजी ने लिखा है- जानेहि नहीं मरम् सठ मोरा। मोर अहार जहां लगि चोरा।।

हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना। जितने चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं। लंकिनी ने हनुमानजी को चोर बोला। बस, यहीं से हनुमानजी ने विरोध का स्वर प्रकट किया। उन्होंने लंकिनी से कहा- तुम मुझे क्या चोर बता रही हो, दुनिया का एक बड़ा चोर रावण हमारी मां सीता को चुरा लाया है।

जब सुरक्षा व्यवस्था चोरों की ही रक्षा करने लग जाए, तब हनुमान का विरोध आरंभ होता है। हनुमानजी ने लंकिनी को एक मुक्का मारा और उसके मुंह से रक्त निकल आया। यह उनका सीधा विरोध था। गलत के प्रति आवाज उठाना, अनुचित का प्रतिकार करना हनुमानजी के चरित्र में था।

हम उनसे सीखें कि जब गलत बात हो तो हम विरोध में आगे खड़े हों और सही बात के समर्थन में पीछे न हटें। आमतौर पर लोग तटस्थ हो जाते हैं, इसीलिए उनकी अच्छाई के नीचे भी बुराई पनप जाती है।

Source: पं. विजयशंकर मेहता
http://www.bhaskar.com/article/ABH-to-resist-the-wrong-thing-and-support-the-back-dodge-2274373.html

घोटाले की जड़

उत्तरप्रदेश में पहले एक चीफ मेडिकल ऑफिसर (सीएमओ) की हत्या और फिर उस हत्याकांड के आरोप में गिरफ्तार एक डिप्टी सीएमओ की हिरासत में संदिग्ध मौत (जो जांच के बाद हत्या बताई गई है) से फैली सनसनी ने उस बात से ध्यान हटा दिया, जो इस गड़बड़-घोटाले की जड़ है।

उप्र में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन से जुड़े घोटाले की सामने आ रही सच्चाइयां अवाक कर देने वाली हैं। केंद्रीय अधिकारियों द्वारा राज्य में इस मिशन के अमल की समीक्षा के निष्कर्ष बताते हैं कि यह घोटाला कितना गहरा और व्यापक है।

देहाती इलाकों में आम लोगों की सेहत की देखभाल के लिए केंद्र से भेजे हजारों करोड़ रुपए अधिकारियों ने लूट लिए। करोड़ों रुपए के ठेके बिना टेंडर के दिए गए, एजेंसियों को अग्रिम भुगतान किया गया, खर्च न हुई रकम को वापस लेने की कोई कोशिश नहीं की गई, निगरानी व क्वालिटी कंट्रोल की कोई व्यवस्था नहीं की गई।

जब इसके सुराग खुलने लगे तो बात हत्या तक जा पहुंची। सवाल यह है कि क्या इतने बड़े घोटाले को बिना सियासी छत्रछाया के अंजाम दिया जा सकता है? इसीलिए यह अब बात अति-प्रासंगिक हो गई है कि उप्र के स्वास्थ्य घोटाले की सारी चर्चा को सीएमओ बीपी सिंह और डिप्टी सीएमओ वाईएस सचान की मौत तक ही सीमित न कर दिया जाए, बल्कि कानून के हाथ उन बड़े लोगों तक पहुंचें, जो इस घोटाले के लिए जिम्मेदार हैं।

इस जांच को तार्किक परिणति तक पहुंचाना इसलिए भी जरूरी है कि उप्र में जो हुआ, पूरी संभावना है कि यह सिर्फ वहीं की कहानी नहीं हो। अधिकार आधारित कल्याण कार्यो के इस युग में, जब लाखों करोड़ रुपए केंद्रीय योजनाओं के तहत राज्यों को भेजे जा रहे हैं, ऐसे भ्रष्टाचार के प्रति शून्य सहिष्णुता होनी चाहिए।

उप्र के स्वास्थ्य घोटाले में यह बात साबित की जानी चाहिए, ताकि उसका सही संदेश हर जगह पहुंच सके।

Source: भास्कर न्यूज
http://www.bhaskar.com/article/ABH-scam-of-the-root-2279455.html

बेनकाब हुआ चेहरा

कश्मीर समस्या के ‘तीसरे विकल्प’(यानी कश्मीर की ‘आजादी’) के पैरोकारों का एक प्रमुख चेहरा बेनकाब हो गया है।

ये वो चेहरा है, जिसने दशकों तक अमेरिका में कश्मीर को मानवाधिकार और वहां के लोगों के ‘आत्म-निर्णय’ के अधिकार की समस्या के रूप में पेश किया, इस मसले के ‘शांतिपूर्ण’ हल की वकालत के नाम पर अमेरिकी राजनेताओं के बीच लॉबिंग की और इसके पक्ष में माहौल बनाने के लिए सेमिनार, जन-सभाएं आदि आयोजित करता रहा।

उसकी इन गतिविधियों में कश्मीर के अलगाववादी नेता और देश के कई ‘मानवाधिकार’ कार्यकर्ता एवं मशहूर पत्रकार भाग लेते रहे, जिनके आने-जाने एवं अमेरिका में रहने का पूरा खर्च उसी गुलाम नबी फई की संस्था ‘कश्मीर अमेरिकन काउंसिल’ (केएसी) उठाती थी।

अब एफबीआई ने खुलासा किया है कि फई पाकिस्तान का एजेंट है, जिसे आईएसआई से पैसे मिलते थे। फई ने खुद को अमेरिका में विदेशी एजेंट के रूप में पंजीकृत करवाए बगैर लॉबिंग की, इसलिए एफबीआई ने उसे गिरफ्तार कर उस पर मुकदमा दर्ज किया है।

उसके साथ ही जहीर अहमद नाम के एक शख्स पर भी मुकदमा दर्ज हुआ है, जिस पर केएसी के लिए ऐसे फर्जी दानदाताओं की व्यवस्था करने का आरोप है, जिनकी आड़ में आईएसआई पैसा देती थी। साफ है, केएसी की सारी गतिविधियां पाक रणनीति का हिस्सा थीं।

इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि भारत से कश्मीर को अलग कर उसे हड़पना और उसकी ‘आजादी’ की वकालत- ये दोनों विकल्प पाकिस्तान की व्यापक रणनीति का हिस्सा हैं।

इस हकीकत से सिर्फ वे ही आंख मूंद सकते हैं, जिन्हें या तो आधुनिक-सर्वसमावेशी भारत की अवधारणा से किसी वजह से बैर है या जो इस क्षेत्र की भू-राजनीतिक स्थितियों से अनजान हैं। फई के प्रकरण ने साबित किया है कि कश्मीर की ‘आजादी’ की बात करने वाले लोग दरहकीकत किसके गुलाम हैं।

http://www.bhaskar.com/article/ABH-exposed-face-2282235.html