Monday, July 18, 2011

जी हां! सतयुग के बीज फूट रहे हैं





बचपन में चित्रकारी का अर्थ प्रेम था, लेकिन बड़े होने पर यह एक सुंदर वस्तु हो गई। जब और बड़े हुए, और चित्रकारी से पैसा आने लगा, तो यह गर्व का विषय बन गई, लेकिन सच यह है, चित्र बनाना अध्यात्म है। मैंने छह साल धर्मशाला के बौद्ध मठों में बैठकर अध्यात्म का सुख भोगा है, लेकिन दुनिया उस सुख से बेखबर है। लोग सुकून और शांति खोज रहे हैं, जबकि जीवन उतना ही नारकीय होता जा रहा है। यह दुख का विषय है कि रिश्वत, बेईमानी और घोटाला सिर्फ कुछ विभागों की पहचान थे, लेकिन अब फर्जी अध्यात्म भी शुरू हो गया है। अध्यात्म भी भला पैसा लेकर बांटने वाली कोई वस्तु है? लेकिन बेचने और खरीदने वालों का रेला देखते बनता है। अफसोस कि लोगों के पास उन्हें देखने और पाने की नजर कमजोर है। मुझे सबसे ज्यादा शिकायत 40 से 80 आयुवर्ग के उन लोगों से है, जिन्होंने अपने बच्चों को कला और साहित्य सृजन का सबक नहीं सिखाया। आज हम अपनी गुम हो रही संस्कृति और ढहती परंपराओं से बेखबर हैं।

तुर्की लेखक ओरहन पमुक इस्तांबुल के एक रेस्तरां में जाते हैं। वहां बैठे श्रोता किसी एक शब्द का जिक्र करते हैं, जिस पर पमुक कहानियां सुनाते हैं। इस्तांबुल में किसी शब्द पर कहानी सुनाने की कोई परंपरा नहीं है, फिर भी पमुक पूरी जिम्मेदारी के साथ उस रेस्तरां में जाते हैं और श्रोता उतनी ही तन्मयता के साथ उन्हें सुनते हैं। इस्तांबुल में प्रौढ़ हो रही यह परंपरा दरअसल हमारी मिट्टी की उपज है। गांव में चौपाल लगाकर कथा सुनने-सुनाने की परंपरा हमारे पूर्वजों की देन है जो कि अब सिमट चुकी है। हालांकि पंजाब और राजस्थान में बहुतेरे ऐसे गांव हैं, जहां अभी भी चौपालें लगती हैं और देर रात तक कहानी सुनाने का सिलसिला चलता है। बावजूद इसके, मैं कहना चाहता हूं कि हमने अपनी कला और संस्कृति को अहमियत नहीं दी है।

मैं पिछले चार साल से गाय पर शोध कर रहा हूं। धरती और गाय को देशवासी मां का दर्जा देते हैं, लेकिन हमने इसकी क्या गत बनाकर रख दी है। यह धरती हमारे लिए अनाज पैदा करती है और गाय दूध। और अगर यही दूध-रोटी विलुप्त हो जाए, तो फिर जीवन कैसा रह जाएगा? हम अपना पानी, पेड़, पहाड़ सबकुछ खो चुके हैं और अब खोने के लिए कुछ बचा नहीं है। जब डॉक्टर, वकील और अध्यापक बेईमान हो जाएं, तो फिर किस बात का गम करें। मेरे लिए यही खुशी का कारण है, क्योंकि आज हर कोई देश में फैली गंदगी के बारे में सोच रहा है और यह सतयुग शुरू होने की निशानी है। हमारी मिट्टी में सतयुग के बीज फूट रहे हैं। देश के नौजवान बच्चे काबिल और होनहार हैं, जो इस दर्द को समझते हैं। ये बच्चे देश की बिगड़ती तस्वीर को देख सवाल कर रहे हैं और जवाब लेकर रहेंगे।

सिद्धार्थ,प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय चित्रकार से शाहनवाज मलिक की बातचीत पर आधारित।

शाहनवाज मलिक Last Updated 00:31(27/02/11)
http://www.bhaskar.com/article/ABH-yes-golden-age-of-the-seeds-are-split-1888228.html

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