Monday, July 18, 2011

हिंदी को हिंगलिश बनाएंगे?

हिंदी के कई स्वयंभू भविष्यवक्ता आने वाले समय में हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने या फिर अंग्रेजी के महानद में गायब होकर मिट जाने की भविष्यवाणियां करते हुए अपनी दुकानदारी लगातार और खूब अच्छे से चलाते रहे हैं। इधर जब से हिंदी पट्टी का बाजार भाव तेजी से ऊपर उछला है, वे ही नहीं, तमाम मीडिया, फिल्मकार और टीवी चैनल सभी अपने-अपने चमड़े के सिक्के हिंदी पट्टी में चलाने को आतुर हो उठे हैं। इसका उनके पास दो चरणों का नुस्खा है। पहले अंग्रेजी में भरपूर ब्रांडिंग करवाना ताकि अंग्रेजीभाषी बाजार के अंधे संप्रभुओं के बीच हिंदी का काना राजा बना जा सके। और फिर हिंदीवालों के बीच खड़े होकर उनसे कहना कि असली जनभाषा हिंदी नहीं हिंगलिश है, जिसे हम बना रहे हैं। हिंदी हिंगलिश बनेगी तो ही चलेगी।

उनको लगता है कि जो भाषा विज्ञापन जगत और बाजार के नियंता अंग्रेजी वालों को समझ में आ जाए, उसे हिंदीवाले हाथोंहाथ अपनाने में संकोच नहीं करेंगे। सो वे ‘हिंदी में कविता या उपन्यास मर रहा है’, या ‘राजभाषा हिंदी’ जैसे पुरनिया विषयों की बजाय, ‘ऐसी हिंदी कैसी हिंदी’, ‘हिंदी बदलेगी तो ही चलेगी’ जैसे बैनर लगाकर ग्लैमरस गोष्ठियां प्रायोजित करा रहे हैं, जिनके ब्योरों से लगता है कि दुनिया के किसी भी भाषायी इलाके को सायास अपने आपसे इतना असंतुष्ट नहीं बनाया जा रहा है, जैसे कि हिंदी पट्टी को। जितना अधिक उसका सामथ्र्य बढ़ रहा है, उतनी ही तेज हुंकारें उठती हैं कि वह जैसी है, वैसी क्यों है? क्यों उसके शब्दकोश में अंग्रेजी माध्यम से पले-बढ़े आम शहरी युवा की अकल में बिना डिक्शनरी की मदद के न समझे जा सकने वाले इतने सारे शब्द हैं? वह इतनी शुद्ध क्यों है? क्यों नहीं वह बोलियों या संस्कृत की बजाय अंग्रेजी का अधिक प्रयोग कर बाबा-बेबी लोग के दिमागों को राहत दिलवाती? मजे की बात यह कि जो अभिभावक और मीडिया मालिक हिंगलिश के पक्षधर हैं और आकाशवाणी या पाठ्यक्रम की ‘शुद्ध’ हिंदी पर कई लतीफे सुनाते रहते हैं, वे ही अंग्रेजी के साहित्य या मीडिया में अप्रचलित और कठिन अंग्रेजी लफ्ज आने पर उनका मतलब धीरज से डिक्शनरी उठाकर खोजने की सलाह अपने बच्चों-मातहतों को देते हैं।

हाल में दिल्ली की एक संगोष्ठी में बोलते हुए गीतकार जावेद अख्तर ने इस बात पर गहरा क्षोभ जताया कि हिंदी फिल्मों की तरफ बड़ी तादाद में खिंचे चले आ रहे मुंबई के नए फिल्मकारों और शीर्ष युवा अभिनेताओं में से अधिकतर साहित्यिक तो छोड़िए, सामान्य बोलचाल की हिंदी या उर्दू से भी कतई अपरिचित हैं। वे अपने लिए पटकथा लेखन और डायलॉग सब अंग्रेजी में करवा रहे हैं। और यही वजह है कि आज पटकथा लेखकों और संगीतकारों के लिए मुगल-ए-आजम, शोले या साहिब बीवी और गुलाम सरीखी हिट फिल्में और कालजयी संगीत रचना लगभग नामुमकिन बन गया है। हिंदी फिल्में लगातार हॉलीवुड से कहानियां चुराकर गानों को हिट बनाने के लिए मुन्नी बदनाम या माय नेम इज शीला के स्तर पर उतर रही हैं। एक बड़े चर्चित अभिनेता को जब उन्होंने बताया कि शब्दबहुल शेक्सपीयर की झोली में तकरीबन अढ़ाई हजार से ज्यादा ही अंग्रेजी शब्द होंगे तो उनकी प्रतिक्रिया थी कि अरे, मैं तो हिंदी के सिर्फ अढ़ाई सौ के करीब शब्द जानता हूं, फिर भी बढ़िया हिंदी फिल्में बना चुका हूं।

पर इस तस्वीर का दूसरा पहलू हिंदी के वे स्वघोषित साधक हैं, जो कपड़ाफाड़ किस्म की गालियां बकते हुए अंग्रेजी का कतई चक्काजाम करा हिंदी प्रचार को एक समाजवादी जिहाद की शक्ल देना चाहते हैं। हिंदी को वे बुद्धिमान जीवंत तर्क नहीं, बल्कि पुराने विचारों की राख से शोध कर बाधाहरण ताबीज की तरह संसद से सड़क तक सरकारी जजमानों की कलाई पर बांधते आए हैं। शेष भाषाओं के भले लोग चुपचाप अपनी भाषा में लिखते-पढ़ते-रचते हैं, लेकिन हिंदी में काम करना राष्ट्रसेवा है और उसके तमाम लेखक हिंदी सेवी या साधक। सच तो यह है कि हिंदी को उस तरह की राष्ट्रीयता के दिव्य जोश का प्रतीक मानने-मनवाने के दिन अब लद चुके हैं। हिंदी का गौरव इससे नहीं बढ़ेगा कि वह कितने बड़े भूखंड की भाषा है, बल्कि इससे बढ़ेगा कि वह किस हद तक औसत भारतीय के लिए ताजगी भरी मौलिकता की वाहक है।

अगर बड़े सितारों और चकरा देने वाले बजट के बावजूद काइट्स या गुजारिश सरीखी हिंदी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरीं और छोटे बजट की ओये लक्की लक्की ओये या बैंड बाजा बारात हिट रहीं तो वजह यह थी कि मिडीयॉकर और जड़विहीन निर्माताओं की अटपटी हिंदी में अंग्रेजी फिल्मों की बुद्धिहीन नकल दर्शकों को नहीं जमी, जबकि ओये लक्की या बैंड बाजा जैसी फिल्मों की भाषा और तेवर उनको ताजगीभरे लगे। संभव है कि महानगरों में पले और बड़ा पैसा कमाने की ललक से भरे युवा फिल्मकार जब हॉलीवुड की फिल्मों के आगे खड़े होते हैं तो उनको बौनेपन का अहसास होता हो। पर इस चुनौती का सही जवाब यह है कि वे उन फिल्मों को अपनी निजी पहचान के हथियारों से पछाड़ें, जैसा दूसरी भारतीय भाषाओं में सत्यजित राय, ऋत्विक घटक, गिरीश कासरवल्ली या अडूर गोपालकृष्णन ने सफलतापूर्वक किया है। यह तर्क कि उनकी फिल्में अनिवासी भारतीयों के बीच हिट हुई हैं और जानकारों के बीच उनके फिल्मांकन की भी गजब सराहना हुई है, सिर्फ पलायनवाद है और उनके रचनाकारों की आत्मसंतुष्टि खोखली है।

यही बात साहित्य पर भी लागू होती है। दुनिया में उच्च अध्ययन की शर्त यह है कि लोग-बाग एकाधिक भाषाएं पढ़ें। इससे बाहर देखने के कई नए दरवाजे खुलते हैं और क्षितिजों का विस्तार होता है। लेकिन बाहरी भाषा और साहित्य के असर को बुद्धिमत्तापूर्ण तरीके से अपने भीतर जज्ब कर पाना भी उतना ही जरूरी है। हिंदी में यह बहुत कम हो रहा है। आज हिंदी का अधिकतर काम बड़े विदेशी प्रकाशकों, लेखकों के नाम, उद्धरण और हवाले चेपे बिना मौलिक दृष्टि के बूते पढ़े-लिखों के बीच भी अधिक दूर नहीं जाता। बुद्ध, तुलसीदास या कबीर सरीखी मौलिक सूझ और समकालीन चलन की हिम्मतभरी उपेक्षा का जोखिम उठाए बिना हिंदी सचमुच की जनधरोहर कैसे बनेगी?

मृणाल पाण्डे
लेखिका जानी-मानी साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार हैं।

http://www.bhaskar.com/article/ABH-will-make-hindi-to-hinglish-1973650.html

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