Monday, July 18, 2011

देह अधूरी पर आत्मा तो पूरी है

ऐसा लगता है जैसे दुनिया उनकी पहुंच के बाहर हो। उनकी बहुत मामूली ख्वाहिशें, जैसे स्कूल जाना, ब्याह रचाना, पूजा-प्रार्थना करना भी पूरी नहीं हो पातीं। अपने मानवाधिकारों के निरंतर हनन के कारण देश के करोड़ों विकलांग पुरुष, महिलाएं और बच्चे सामाजिक और सार्वजनिक जीवन में हाशिये पर बने हुए हैं। ये वे लोग हैं, जो सामाजिक पूर्वग्रहों और निर्वासन के शिकार हैं।

सभी वंचित समूहों की तुलना में शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को राजनीतिक एजेंडों, मानवाधिकार के संघर्षो, विकास की नीतियों और समाज विज्ञान के अध्ययनों में सबसे कम जगह मिलती है। स्कूलों, खेतों, फैक्टरियों, खेल के मैदानों, सिनेमा, गलियों, बाजारों, देवस्थलों और पारिवारिक उत्सवों में भी ये लोग कम ही नजर आते हैं। हम ऐसे लोगों के अस्तित्वगत अनुभवों के बारे में लगभग कुछ नहीं जानते। विकलांग ग्रामीण महिलाओं और लड़कियों के बारे में तो हमें कुछ नहीं पता। उनकी जिंदगी कैसी है? उन्हें किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है? उनके सपने क्या हैं? कुछ साल पहले मैं एक ऐसे समूह से जुड़ा था, जिसमें अधिकतर शोधार्थी शारीरिक रूप से अक्षम थे। ये लोग राजस्थान और आंध्रप्रदेश के गांवों में इन्हीं सवालों का जवाब पाने का प्रयास कर रहे थे।

हमने पाया कि इन शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को अपने जीवन में लगभग अलंघ्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है। गांवों में सड़कों, पेयजल के स्रोतों और स्कूल भवनों की दूरी उनके लिए मुश्किल का कारण बन जाती है। मंदिर भी आमतौर पर ऊंचे स्थानों पर स्थित होते हैं। समाज का रवैया उनके प्रति बहुत मददगार नहीं होता। उन्हें मजाक का पात्र बनाया जाता है, जिसके कारण उन्हें शर्मिदगी का सामना करना पड़ता है। उनके परिवार के सदस्य भी उनके प्रति पर्याप्त संवेदनशील नहीं होते हैं। नतीजा यह रहता है कि विकलांगों में अकेलेपन की भावना घर कर जाती है। उन्हें लगता है वे दूसरों पर निर्भर हैं और इससे उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचती है। अक्सर यह भी देखा जाता है कि घर में कामकाजी कमाऊ लोगों का विशेष ध्यान रखा जाता है, जबकि विकलांगों की मूलभूत जरूरतें भी पूरी नहीं की जातीं।

शारीरिक रूप से अक्षम बच्चों की शिक्षा-दीक्षा की स्थिति भी चिंतनीय है। हमने अपने अध्ययन के दौरान एक भी ऐसा शिक्षक नहीं पाया, जो शारीरिक रूप से अक्षम बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित हो। किसी भी ग्रामीण स्कूल में विकलांग बच्चों की सुविधा के लिए रैम्प नहीं थे। मजदूरों और छोटे किसानों के विकलांग बच्चों की शिक्षा प्राप्त करने की संभावनाएं तो लगभग नगण्य हैं। जिन महिलाओं को अपने परिवार का पेट पालने के लिए मजदूरी करनी पड़ती है, वे अपने विकलांग बच्चे को पढ़ने नहीं भेज सकतीं। लड़कियों की स्थिति तो और चिंतनीय है, क्योंकि उन्हें घर का कामकाज संभालना पड़ता है और अपने छोटे भाई-बहनों का भी ध्यान रखना पड़ता है। यह भी विडंबना है कि काम के मामले में विकलांगता कोई मायने नहीं रखती। एक विकलांग लड़की को भी घर में उतने ही काम करने पड़ते हैं, जितने किसी सामान्य लड़की को।

विकलांगों के लिए सहायक उपकरण और सर्जरी बहुत मददगार साबित हो सकती हैं, लेकिन न्यूनतम लागत के उपकरण भी अधिकांश ग्रामीण विकलांगों की पहुंच के बाहर होते हैं। गांवों में अपने शोध के दौरान हमें एक भी ऐसे व्यक्ति का मेडिकल रिकॉर्ड नहीं मिला, जिसने सर्जरी करवाई हो या आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों का लाभ उठाया हो। हमने यह भी पाया कि कार्यक्षम आयु समूह के एक तिहाई से भी अधिक विकलांगों के पास कार्य के कोई अवसर नहीं थे। वे पूरी तरह अपने परिवार के सदस्यों पर निर्भर थे। इनमें कुष्ठरोगी, दृष्टिबाधित, मनोरोगी आदि शामिल थे। हालांकि इनमें से अधिकांश लोग कार्य करने में सक्षम थे, लेकिन उनके परिवार और समाज ने उन्हें इस योग्य नहीं समझा। अगर उन्हें काम मिलता भी है तो वह नियमित नहीं होता और उन्हें वेतन भी बहुत कम मिलता है। जिन लोगों को सुनने में कठिनाई आती है, उन्हें अधिकांश कार्यो के लिए अयोग्य समझा जाता है।

निम्न या अनियमित आय का एक अर्थ यह भी होता है कि शारीरिक रूप से अक्षम निर्धन लोगों और उनके परिवार को भूख का सामना करने को मजबूर होना पड़ता है। सर्वेक्षण में हमने पाया कि बहुत कम विकलांग ऐसे थे, जिन्हें विकलांगता पेंशन या खाद्य सुरक्षा मिलती हो। वृद्धों के लिए तो समस्या और विकट हो जाती है। अधिकांश ग्रामीण विकलांग महिलाओं को किसी वृद्ध, विधुर या तलाकशुदा व्यक्ति से विवाह करने को विवश होना पड़ता है। विकलांग लड़कियों, विशेषकर वे जिनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है, को आमतौर पर यौन र्दुव्‍यवहार का सामना करना पड़ता है।

विकलांगों के प्रति हमारे समाज का परंपरागत व्यवहार दया या तरस का रहा है। उन्हें हमारे परोपकार का पात्र मान लिया जाता है। परोपकार की यह भावना चाहे कितनी ही नेक क्यों न हो, लेकिन यह न केवल विकलांगों के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाती है, बल्कि उन्हें आत्मनिर्भरता का जीवन जीने के अवसरों से भी वंचित कर देती है। इससे समाज में अक्षमता और विकलांगता के बारे में प्रचलित पूर्वग्रहों की भी पुष्टि होती है। विकलांगों के हित में कार्य करने से पहले हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि शारीरिक रूप से अक्षम लोग भी हम सभी की तरह मनुष्य हैं और उनका अपना व्यक्तित्व, अपनी आकांक्षाएं, कौशल और क्षमताएं हैं। उन्हें सभी की तरह गरिमा के साथ अपना जीवन बिताने का अधिकार है। विकलांगों के लिए हमारे कार्यो का ध्येय यही होना चाहिए कि उन्हें समाज की मुख्यधारा में सम्मिलित होने का पूरा अवसर प्रदान किया जाए। हमें विकलांगों के प्रति अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा। हम केवल यही देखते हैं कि वे क्या नहीं कर सकते, लेकिन हमें यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि वे क्या करते हैं या वे क्या कर गुजरने में सक्षम हैं।

हर्ष मंदर
लेखक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं।

http://www.bhaskar.com/article/ABH-incomplete-body-the-soul-is-so-full-1979367.html

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