Friday, July 22, 2011

अनेक फैसले जो रुके हुए हैं






पिछले सप्ताह की खबरों से जाहिर है कि आतंकी हमला होने पर हकबका जाना और होश संभलने पर कहना कि देश की सुरक्षा में कोई खामी सहन नहीं होगी, बेहतर गुप्तचरी के लिए अमुक-तमुक संस्थान के हाथ मजबूत किए जाएंगे और वारदात करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाएगी, हमारे शिखर नेतृत्व की वैसी ही आदत बन गई है, जैसे कि नागरिकों, मीडिया और विपक्ष द्वारा हताशा और कड़वाहट के साथ शिखर नेताओं, सुरक्षा एजेंसियों तथा नापाक मंसूबे पालने वाले पड़ोस को जिम्मेदार ठहराना। जल्द ही सब अपने-अपने धंधे से लग लेंगे, बस अगली बरसी पर मोमबत्ती जलाते परिजनों, बॉलीवुड सितारों की कुछ छवियां गलदश्रु भावुकता सहित मीडिया बुलेटिनों में पंद्रह सेकंड को दिखा दी जाएंगी।

राजनीतिक आरोपों-प्रत्यारोपों की झड़ियों के बावजूद ठोस आतंकवाद निरोधी कदमों के कार्यान्वयन की कसौटी पर हमारे सब सत्तारूढ़ दल और गठजोड़ एक ही थैली के चट्टे-बट्टे प्रमाणित हुए हैं। सन् 2004 में विपक्ष की तीखी आलोचना से हिली सरकार ने आतंकवाद निरोध के लिए अमेरिकी डिपार्टमेंट ऑफ होमलैंड सिक्योरिटी सरीखी राष्ट्रीय संस्था का खाका बनाया था। इसके तहत केंद्रीय गृह मंत्रालय की निगरानी में एक राष्ट्रीय सूचना चक्र (नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड) का गठन किया जाना था, जिसका समेकित डाटाबेस देश के बैंकिंग, रेलवे और आव्रजन सरीखे विभागों के 21 डेटा बैंकों को एक साथ गूंथ देता।

यदि यह चक्र (संक्षिप्त नाम ‘नेट ग्रिड’) बन गया होता, तो कई वारदातें घटने से पहले रोकी जा सकती थीं। आतंकी वारदात घटने पर खुफिया एजेंसियों के बीच एक जगह पर जमा की गई ढेरों महत्वपूर्ण सुरक्षा संबंधी सूचनाओं का एक जखीरा भी हर राज्य में पुलिस प्रशासन को हर समय ऑनलाइन उपलब्ध होता।

लेकिन अपने मंत्रालय को निजी जागीर मानने और अपने विभागीय अमले की जुटाई गोपनीय सूचनाओं पर कुंडली मारकर बैठने के आदी नेताओं-बाबुओं ने नेट ग्रिड द्वारा फोन टैपिंग से नागरिकों की प्राइवेसी के हनन की संभावना और सूचनाओं के निरंतर आदान-प्रदान के दौरान परम संवेदनशील विभागीय सूचनाएं लीक होने के खतरों का हौवा खड़ा कर दिया। इस तरह एक व्यावहारिक और उम्दा प्रस्ताव का कार्यान्वयन काबीना की सुरक्षा समिति की हरी झंडी के बावजूद लगातार स्थगित होता गया।

नतीजा यह कि मुंबई धमाकों के बाद फिर अफरातफरी देखने में आई और तमाम फोन लाइनें जाम होने से मुख्यमंत्रीजी का भी पूरे पंद्रह मिनट तक पुलिस प्रमुख से संपर्क नहीं हो सका। जानकारी यह भी मिली है कि 26/11 की घटनाओं के बाद केंद्र सरकार से 64 करोड़ रुपए मिलने के बावजूद राज्य में अब तक न तो पुलिस बलों के लिए जरूरी शस्त्र और सुरक्षा उपकरण खरीदे जा सके हैं, न ही ट्रेनिंग की व्यवस्था हो सकी है। अंतिम समय तक फैसले टालने में निष्णात प्रशासन अब भी फाइलों पर अंडा सेती मुर्गियों की तरह बैठा है।

नवंबर 2008 के मुंबई हमले के बाद, जिसमें 160 से अधिक लोगों ने जान गंवाई थी, गृह मंत्रालय की कमान पी चिदंबरम को सौंप दी गई थी। उन्होंने इस पद पर आते ही खुफिया एजेंसियों के बीच जरूरी तालमेल की घातक और शर्मनाक कमी घटाने के लिए कुछ महत्वपूर्ण फैसले लिए। इनमें से एक था प्रस्तावित राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधी केंद्र और उसकी सहायक संस्था नेट ग्रिड को जल्द से जल्द चालू करना। दूसरा, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, हैदराबाद तथा भोपाल को एनएसजी के कमांडो दस्तों के लिए धुरियां बनाना।

तीसरा, समुद्री रास्ते से आतंकी घुसपैठ रोकने तथा तटीय सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के स्तर के एक अधिकारी (मैरिटाइम सिक्योरिटी एडवाइजर) की नियुक्ति के साथ सभी भारतीय मछुआरों को पहचान पत्र देना और उनकी नौकाओं का अनिवार्य पंजीकरण कराना और चौथा, लोकल नागरिकों को आसपास की किसी तरह की शंकास्पद गतिविधियों की जानकारी मिलने पर उसे सुरक्षा एजेंसियों तक तुरंत पहुंचाने का प्रशिक्षण देना। पर इस 13 जुलाई को मुंबई एक बार फिर धमाकों से हिली, तो बताया गया कि इनमें से किसी भी योजना ने पूरा आकार नहीं लिया है।

हमारे अड़ंगेबाज सरकारी-गैरसरकारी तर्कालंकार अक्सर आतंकवाद से निजी तौर से अप्रभावित लोग हैं। संविधान के हर बाल की खाल निकालना उनका प्रिय शगल होता है। उनको इससे मतलब नहीं कि जब उपभोक्ताओं की आदतों, बैंक खातों और टेलीफोनों के रिकॉर्ड बीसियों निजी कंपनियां जब चाहे खंगालकर हमको तमाम गैरजरूरी एसएमएस संदेशे दिन-रात भेजती रहती हों और पैसा देकर निजी जासूसी कंपनियां हैकिंग और खुफिया कैमरों की मदद से नागरिकों और सांसदों के घरों तक में स्टिंग ऑपरेशन चलाने को बुक की जा सकती हों, तब गोपनीय सूचना लीक होने या निजता के हनन की संभावना के कारण आतंकवाद निरोधी शीर्ष संस्थाओं का गठन रोकना मूर्खता ही होगी।

समेकित शीर्ष संस्थाएं न बनने से आतंकी घुसपैठ, अंतरराष्ट्रीय तस्करी और सीमा पार से आतंकी कामों के लिए वित्तीय मदद मिलने पर तुरंत रोक लगाना तो नामुमकिन हो ही जाता है, दबिश और पूछताछ को भेजी गई राज्य पुलिस द्वारा आतंक प्रभावित इलाकों में कभी भी किसी को भी हिरासत में ले जाकर भेद उगलवाने के नाम पर उसको अमानवीय यातनाएं देने की वे वारदातें बढ़ने लगती हैं, जो अंतत: आतंकी गुटों के ही हाथ मजबूत करती हैं। सुरक्षा के नाम पर राज्य को बड़ी रकम और पुलिस या सुरक्षा बलों को पोटा या मकोका का डंडा सौंप देने भर से देश की सुरक्षा मजबूत हो सकती है, यह तो खुद सेना और सशस्त्र बलों के अनुभवी कमांडर भी नहीं मानते।

अगर मनमोहन सिंह और उनके काबीना सहयोगी अब भी बदलती हवा के इशारे समझ लें तो उनका स्वागत है। लेकिन अगर वे फिर आने वाले महीनों में हालात को फिसलने देंगे, हरी झंडी पा चुकी परियोजनाओं और विकास नीतियों के कार्यान्वयन पर दुविधा और बेईमानी की हथकड़ी-बेड़ी लगने देंगे और भ्रष्टाचारी तथा आतंकी कानून से खिलवाड़ करते छुट्टे घूमते रहे, तो जनता हताश और अराजक बनकर उनको बाहर धकियाने पर उतारू हो सकती है।

Source: मृणाल पाण्डे
http://www.bhaskar.com/article/ABH-many-decisions-which-are-waiting-2276584.html

No comments: