Source: शुभ मुद्गल Last Updated 05:57(02/01/11)
गुजर गया 2010। एक सफर खत्म हुआ। पड़ाव आया, चला गया। चलिए अब दूसरे सफर पर चलते हैं। दूसरा सफर शुरू करते हुए भी निगाहें बार-बार पीछे की ओर मुड़ती हैं, गुजरे पड़ाव की ओर। पीछे मुड़कर देखती हूं तो मुझे कतई यह नहीं लगता कि गुजरा साल उसके पहले गुजरकर खत्म हो गए सालों से कहीं अलग था। 2010 भी 2009 की तरह था और 2009 भी 2008 की तरह। लेकिन फिर भी यह यकीन करने को जी चाहता है और मुझे यह यकीन है कि 2011 जरूर कुछ नई सौगातें, उम्मीदें और सपने लेकर आएगा।
लगता है कि गुजरते वक्त के साथ साहित्य, कला, सिनेमा यानी कला की समस्त विधाओं पर बस एक ही चीज हावी होती जा रही है और वह है - बॉलीवुड। चारों ओर सिर्फ बॉलीवुड, बॉलीवुड की हस्तियों का ही बोलबाला है। किसी को ठहरकर यह सोचने की जरूरत नहीं कि कला का कोई और रूप भी हो सकता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बन रही है, लेकिन सिर्फ सिनेमा की और वह भी बॉलीवुड सिनेमा की। बराक ओबामा आते हैं तो भी बॉलीवुड के गाने बजते हैं। कोई नई फिल्म रिलीज होते ही फिल्मी कलाकार टेलीविजन के पर्दे पर आकर समाचार पढ़ने लगते हैं। हर जगह सिर्फ उन्हीं सितारों को महत्व दिया जाता है। हम यह स्वीकार ही नहीं करते कि शास्त्रीयता भी कला का रूप हो सकती है और वह भी उतने ही सम्मान और महत्व की हकदार है।
बड़े मीडिया हाउसों में भी बॉलीवुड ही कला का प्रतिनिधित्व करता है। यह स्थिति चिंतनीय है। अभी हमारे दो महत्वपूर्ण कलाकारों का ग्रैमी अवॉर्ड के लिए नामांकन हुआ। एक हैं मशहूर तबला वादक संदीप दास और दूसरे सारंगी वादक ध्रुव घोष। इतनी महत्वपूर्ण उपलब्धि के बाद भी उनका कहीं जिक्र भी नहीं है। क्या हम एक ऐसा समाज रच रहे हैं, जहां संगीत, कला सिर्फ मुन्नी बदनाम हुई तक ही सीमित होगी। क्या संस्कृति और आत्मिक गहनता के नाम पर हम अपने बच्चों को सिर्फ यही दे पाएंगे? क्या हमारी सांस्कृतिक समझ या हमारे कला चिंतन का दायरा इसके आगे नहीं जाता?
हम बच्चों को बचपन से ही सिखाते हैं कि ये कैमरा बहुत महंगा है, इसे संभालकर रखना। महंगे मोबाइल को संभलकर इस्तेमाल करना। लेकिन क्या हमने उन्हें कभी यह सिखाया कि दादी जो गाना गाती हैं, वह बहुत कीमती है। उसे भूल मत जाना। संभालकर रखना। नानी त्योहार पर जो गीत सुनाती हैं, उसे भी हमेशा याद रखना। हम कभी अपने बच्चों को उन सांस्कृतिक धरोहरों का महत्व नहीं समझाते और न कहते हैं कि इन्हें सहेजकर, बचाकर रखना। हमें बस वही बचाना है, जिसमें पैसा लगा है। सिर्फ धन को सहेजना है।
किसी भी समाज के विचारों और चिंतन की ऊंचाई उस समाज की सांस्कृतिक गहराई से तय होती है। और गुजरे सालों में यह गहराई कम होती गई है। सन् 2005 और 2006 में सरकार को बच्चों के पाठ्यक्रम में कला को अनिवार्य करने का सुझाव दिया गया था और उस पर सहमति भी बन गई थी। लेकिन वह अब तक लागू नहीं हो पाया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस वर्ष यह संभव हो पाएगा। यदि यह लागू होता है तो हमें परफॉर्मिग आर्ट से ज्यादा कला के शास्त्रीय पक्ष पर जोर देना चाहिए। यह बहुत जरूरी है कि बच्चों और आने वाली पीढ़ियों को बचपन से ही कला को समझने और उसका सम्मान करने का संस्कार दिया जाए। उनके लिए संगीत का अर्थ सिर्फ फिल्मी संगीत भर न हो। वह अच्छे चित्र, अच्छे संगीत और गंभीर अर्थपूर्ण सिनेमा को समझें और उसके साथ जिएं।
वर्ष 2011 में कुछ ऐसे बदलाव होने जा रहे हैं, जिससे मुझे काफी उम्मीदें हैं। सरकार कॉपीराइट कानून में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन करने जा रही है, जो इस वर्ष लागू होंगे। यदि कॉपीराइट कानून बदल गया तो कलाकारों की स्थिति थोड़ी मजबूत होगी। दूसरी महत्वपूर्ण चीज है इंडिपेंडेंट पब्लिशिंग की। इसके पहले किसी कलाकार को अपनी कला को लोगों को तक पहुंचाने के लिए किसी बड़ी म्यूजिक कंपनी का मोहताज होना पड़ता है। लेकिन इंटरनेट ने इसे मुमकिन बना दिया है कि किसी कंपनी के आसरे बैठे रहने के बजाय कलाकार खुद इंटरनेट के माध्यम से अपनी कला को जन-जन तक पहुंचा सकते हैं। यह आत्मनिर्भरता बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी, ऐसी मुझे उम्मीद है। नया वर्ष भारतीय कला-संगीत के क्षेत्र में विविधता का भी वर्ष होगा। कव्वाली और गजल जैसी विधाएं जो लगभग विलुप्त होती जा रही थीं, अब उनकी भी रिकॉर्डिग हो रही है और उन्हें जिंदा रखने का प्रयास किया जा रहा है।
कला जीवन के लिए ठीक वैसे ही अनिवार्य और हमारे अस्तित्व का हिस्सा हो, जैसेकि हमारी सांसें हैं। निश्चित ही इसी राह से बेहतर मनुष्यों का निर्माण किया जा सकता है और बेहतर मनुष्य ही मिलकर बेहतर समाज बनाते हैं। जीवन की हर गति बाजार, धन और मुनाफे से नहीं तय होती। जीवन इसके आगे भी बहुत कुछ है। वह सिर्फ देह नहीं, आत्मा भी है।
लेखिका प्रख्यात शास्त्रीय गायिका हैं।
http://www.bhaskar.com/article/ABH-music-was-bad-munni-mean-1714694.html
Monday, July 18, 2011
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