Friday, September 2, 2011

गांधीजी वाली गलती

टीम अन्ना को बुखारी जैसे नेताओं को महत्व देने के बजाय सामान्य मुस्लिम जनता के विवेक पर भरोसा करने की सलाह दे रहे हैं एस। शंकर

दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम बुखारी ने अन्ना के आंदोलन को इस्लाम विरोधी बताया, क्योंकि इसमें वंदे मातरम और भारत माता की जय जैसे नारे लग रहे थे। उन्होंने मुसलमानों को अन्ना के आंदोलन से दूर रहने को कहा। ऐसी बात वह पहले दौर में भी कह चुके हैं, जिसके बाद अन्ना ने अपने मंच से भारत माता वाला चित्र हटा दिया था। दूसरी बार इस बयान के बाद अन्ना के सहयोगी अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी बुखारी से मिल कर उन्हें स्पष्टीकरण देने गए। इन प्रयत्नों में ठीक वही गलती है जो गांधीजी ने बार-बार करते हुए देश को विभाजन तक पहुंचा दिया। जब मुस्लिम जनता समेत पूरा देश स्वत: अन्ना को समर्थन दे रहा है तब एक कट्टर इस्लामी नेता को संतुष्ट करने के लिए उससे मिलने जाना नि:संदेह एक गलत कदम था। अन्ना का आंदोलन अभी लंबा चलने वाला है। यदि इस्लामी आपत्तियों पर यही रुख रहा तो आगे क्या होगा, इसका अनुमान कठिन नहीं। बुखारी कई मांगें रखेंगे, जिन्हें कमोबेश मानने का प्रयत्न किया जाएगा। इससे बुखारी साहब का महत्व बढ़ेगा, फिर वह कुछ और चाहेंगे। बाबासाहब अंबेडकर ने बिलकुल सटीक कहा था कि मुस्लिम नेताओं की मांगें हनुमान जी की पूंछ की तरह बढ़ती जाती हैं। अन्ना, बेदी और केजरीवाल या तो उस त्रासद इतिहास से अनभिज्ञ हैं या अपनी लोकप्रियता और भलमनसाहत पर उन्हें अतिवादी विश्वास है, किंतु यह एक घातक मृग-मरीचिका है। बुखारी का पूरा बयान ध्यान से देखें। वह अन्ना के आंदोलन को समर्थन देने के लिए और शतरें के साथ-साथ आंदोलन में सांप्रदायिकता के सवाल को भी जोड़ने की मांग कर रहे हैं। इसी से स्पष्ट है कि उन्हें भ्रष्टाचार के विरोध में चल रहे आंदोलन को समर्थन देने की नहीं, बल्कि आंदोलन को इस्लामी बनाने, मोड़ने की फिक्र है। यदि इतने खुले संकेत के बाद भी अन्ना और केजरीवाल गांधीजी वाली दुराशा में चले जाएं तो खुदा खैर करे! जहां एक जिद्दी, कठोर, विजातीय किस्म की राजनीति की बिसात बिछी है वहां ऐसे नेता ज्ञान-चर्चा करने जाते हैं। मानो मौलाना को कोई गलतफहमी हो गई है, जो शुद्ध हृदय के समझाने से दूर हो जाएगी। जहां गांधीजी जैसे सत्य-सेवा-निष्ठ सज्जन विफल हुए वहां फिर वही रास्ता अपनाना दोहरी भयंकर भूल है। कहने का अर्थ यह नहीं कि मुस्लिम जनता की परवाह नहीं करनी चाहिए, बल्कि यह कि मुस्लिम जनता और उनके राजनीतिक नेताओं में भेद करना जरूरी है। मुस्लिम जनता तो अपने आप में हिंदू जनता की तरह ही है। अपने अनुभव और अवलोकन से आश्वस्त होकर वह भी अच्छे और सच्चाई भरे लोगों और प्रयासों को समर्थन देती है। बशर्ते उसके नेता इसमें बाधा न डालें। रामलीला मैदान और देश भर में मुस्लिम भी अन्ना के पक्ष में बोलते रहे, किंतु मुस्लिम नेता दूसरी चीज होते हैं। वे हर प्रसंग को इस्लामी तान पर खींचने की जिद करते हैं और इसके लिए कोई दांव लगाने से नहीं चूकते। हालांकि बहुतेरे जानकार इसे समझ कर भी कहते नहीं। उलटे दुराशा में खुशामद और तुष्टीकरण के उसी मार्ग पर जा गिरते हैं जिस मार्ग पर सैकड़ों भले-सच्चे नेता, समाजसेवी और रचनाकार राह भटक चुके हैं। इस्लामी नेता उन्हें समर्थन के सपने दिखाते और राह से भटकाते हुए अंत में कहीं का नहीं छोड़ते। बुखारी ने वही चारा डाला था और अन्ना की टीम ने कांटा पकड़ भी लिया। आखिर अन्ना टीम ने देश भर के मुस्लिम प्रतिनिधियों में ठीक बुखारी जैसे इस्लामवादी राजनीतिक को महत्व देकर और क्या किया? वह भी तब जबकि मुस्लिम स्वत: उनके आंदोलन को समर्थन दे ही रहे थे। एक बार बुखारी को महत्व देकर अब वे उनकी क्रमिक मांगें सुनने, मानने से बच नहीं सकते, क्योंकि ऐसा करते ही मुस्लिमों की उपेक्षा का आरोप उन पर लगाया जाएगा। बुखारी जैसे नेताओं की मांगे दुनिया पर इस्लामी राज के पहले कभी खत्म नहीं हो सकतीं यही उनका मूलभूत मतवाद है। दुनिया भर के इस्लामी नेताओं, बुद्धिजीवियों की सारी बातें, शिकायतें, मांगें, दलीलें आदि इकट्ठी कर के कभी भी देख लें। मूल मतवाद बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा। रामलीला मैदान में वंदे मातरम के नारे लगने के कारण बुखारी साहब भ्रष्टाचार विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन से नहीं जुड़ना चाहते, यह कपटी दलील है। सच तो यह है कि सामान्य मुस्लिम भारत माता की जय और वंदे मातरम सुनते हुए ही इसमें आ रहे थे। वे इसे सहजता से लेते हैं कि हिंदुओं से भरे देश में किसी भी व्यापक आंदोलन की भाषा, प्रतीक और भाव-भूमि हिंदू होगी ही जैसे किसी मुस्लिम देश में मुस्लिम प्रतीकों और ईसाई देश में ईसाई प्रतीकों के सहारे व्यक्त होगी। लेकिन इसी से वह किसी अन्य धमरंवलंबी के विरुद्ध नहीं हो जाती। 1926 में श्रीअरविंद ने कहा था कि गांधीजी ने मुस्लिम नेताओं को जीतने की अपनी चाह को एक झख बना कर बहुत बुरा किया। पिछले सौ साल के कटु अनुभव को देख कर भी अन्ना की टीम को फिर वही भूल करने से बचना चाहिए। उन्हें सामान्य मुस्लिम जनता के विवेक पर भरोसा करना चाहिए और उनकी ठेकेदारी करने वालों को महत्व नहीं देना चाहिए। यदि वे देश-हित का काम अडिग होकर करते रहेंगे तो इस्लामवादियों, मिशनरियों की आपत्तियां समय के साथ अपने आप बेपर्दा हो जाएंगी। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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कांग्रेस के तीन तिगाड़े

अन्ना आंदोलन से निपटने में सरकार की फजीहत का जिम्मेदार कांग्रेस नेताओं के दंभ को बता रहे हैं ए। सूर्यप्रकाश

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान संप्रग सरकार की साख पर लगा बट्टा और इसकी दयनीय दशा के जिम्मेदार वे तीन वकील से राजनेता बने व्यक्ति हैं, जिन्होंने बड़े दंभ से लोकतांत्रिक मर्यादाओं का उल्लंघन किया और राष्ट्रव्यापी आक्रोश को भड़काया। ये तीनों अकसर टीवी चैनलों पर उग्र तेवरों के साथ दिखाई देते रहे हैं। अगर अगस्त के उत्तरार्ध में सरकार में शामिल लोग सिरकटे मुर्गो की तरह इधर-उधर दौड़ रहे थे, तो इसका कारण था सत्तारूढ़ गठबंधन के टीवी शेरों- कपिल सिब्बल, पी चिदंबरम और मनीष तिवारी के कारनामे। पिछले एक साल के दौरान एक के बाद एक घोटाले उजागर होने के बावजूद सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगी और इसने किसी भी भ्रष्टाचारी के खिलाफ कार्रवाई करने की इच्छा नहीं दिखाई। अगर पूर्व संचार मंत्री ए राजा और राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी जेल में गए तो इसका श्रेय उच्चतम न्यायालय की कड़ी निगरानी को जाता है। सरकार घोटालेबाजों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर रही थी और ये तीनों नेता भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार की निष्कि्रयता का बचाव करते फिर रहे थे। हैरत की बात यह है कि शुरू से ही मनमोहन सिंह और उनके साथी बड़ी ढिठाई से अपना काम करते रहे जैसे इन घटनाओं का सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि अगला लोकसभा चुनाव मई 2014 में होना है। भ्रष्टाचार को लेकर राष्ट्रीय आक्रोश के संदर्भ में सरकार और कांग्रेस पार्टी के गलत आकलन का यही एक कारण है। अगस्त 2010 से देश का मूड बदलने लगा था जब राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार की खबरें आनी शुरू हुई थीं। भ्रष्टाचार के साथ-साथ समय पर परियोजनाएं पूरी न होने से पूरे विश्व में भारत की भद पिटी थी। अभी लोग राष्ट्रमंडल घोटाले को हजम भी नहीं कर पाए थे कि 2जी स्पेक्ट्रम का पिटारा खुल गया। जब नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया कि तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा ने राष्ट्रीय खजाने को 1।76 लाख करोड़ रुपये की चपत लगा दी है तो लोगों को जबरदस्त झटका लगा। फिर भी सरकार बड़ी निर्लज्जता से घोटाले से ही इनकार करती रही। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर अनेक कांग्रेसी नेताओं ने दलील दी कि भ्रष्टाचार के इन आरोपों को बढ़ाचढ़ाकर पेश किया गया है। इन्होंने हैरानी जताई कि मीडिया इन मुद्दों को इतना तूल क्यों दे रहा है। कपिल सिब्बल जैसे कुछ मंत्रियों ने जो समाचार चैनलों के स्टुडियो में बैठकर लोकप्रियता के हवाई घोड़े पर सवार हो जाते हैं, बड़े घमंड से न केवल सीएजी जैसे संवैधानिक संस्थानों पर सवाल उठाए, बल्कि मीडिया को भी नहीं बख्शा। कपिल सिब्बल ने हास्यास्पद बयान जारी किया कि 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में सरकारी खजाने को एक पैसे का भी नुकसान नहीं हुआ। यह कहकर उन्होंने इस सिद्धांत को पुष्ट ही किया कि राजनीतिक सत्ता अकसर सच्चाई से कट जाती है। ऐसा उन लोगों के साथ होता है जो मंत्री बनते हैं, किंतु कपिल सिब्बल जिस तेजी से फिसले वह हैरान करने वाला है। जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे के पहले अनशन के बाद कानून मंत्री वीरप्पा मोइली मंत्रियों और सिविल सोसाइटी प्रतिनिधियों की संयुक्त समिति के संयोजक थे, फिर भी मीडिया से बात कपिल सिब्बल ही करते थे। उनकी प्रेस वार्ताओं से स्पष्ट होता गया कि बातचीत सिरे नहीं चढ़ रही है। इस समिति के कुछ सदस्यों ने यहां तक महसूस किया कि कपिल सिब्बल द्वारा खड़े किए गए विवादों के कारण ही समिति किसी सार्थक नतीजे पर नहीं पहुंची। टीम अन्ना के प्रस्तावों पर सरकार को कुछ गंभीर असहमतियां थीं और इनमें कुछ सही भी थीं। उदाहरण के लिए, सरकार प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में नहीं लाना चाहती थी। सरकार के बाहर भी बहुत से लोगों और संस्थानों की यही राय है। किंतु हर कोई चाहता था कि सरकार अन्ना आंदोलन की भावना को समझे और इसकी सराहना करे। दुर्भाग्य से सरकार ने जिन प्रवक्ताओं को चुना, उनमें लोकतांत्रिक तौरतरीकों का अभाव था, जो जनता के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत के लिए जरूरी थे। उनकी अपराजेयता की कल्पना कर बहुत से कांग्रेस नेताओं और केंद्रीय मंत्रियों ने अन्ना के प्रस्तावित अनशन से पहले ही उन पर हमला बोल दिया। क्योंकि वे सालभर से ऐसे लोगों का बचाव करने में लगे थे, जो बचाव के काबिल नहीं हैं, इसलिए वे नागरिकों के मूल लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन करते हुए अन्ना हजारे के चरित्र हनन का दुस्साहसिक प्रयास करने में जुट गए। लोगों को मनीष तिवारी का विषवमन कि अन्ना हजारे तो सिर से लेकर पैर तक भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, घिनौना लगा। उन्होंने यहां तक कहा कि अन्ना हजारे के प्रति काफी सहनशीलता दिखाई जा चुकी है। कोई भी राजनेता किसी नागरिक के बारे में इस तरह नहीं बोल सकता। उन्होंने अन्ना टीम को फासीवादी और माओवादी तक करार दिया। इसी के साथ कपिल सिब्बल ने कुटिलता से सरकार को संसद के समान रखते हुए दावा किया कि अन्ना का सत्याग्रह संसद विरोधी है। उन्होंने और उनके साथियों ने दलील रखी कि अन्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन संविधान के प्रति खतरा है। इन तर्को से इंदिरा गांधी द्वारा जयप्रकाश नारायण के 1974-77 के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के खिलाफ लगाए गए आरोपों की याद ताजा हो गई। कपिल सिब्बल, पी चिदंबरम और मनीष तिवारी को सुनते हुए लगा कि इतिहास खुद को दोहरा रहा है। दिल्ली पुलिस ने अन्ना को अनशन के लिए छोटे पार्क की पेशकश करते हुए 22 शर्ते थोप दीं। फिर पी चिदंबरम ने लोगों को जैसे उकसाते हुए घोषणा की कि अन्ना को सत्याग्रह के लिए स्थान मुहैया कराने के लिए शर्ते लगाना दिल्ली पुलिस का विषय है। केवल वह मंत्री ही ऐसे बयान जारी कर सकता है जो जनता को मूर्ख समझता हो कि वह इस प्रकार की बचकानी दलील पर यकीन कर लेगी। पर जल्द ही हमें पता चल गया कि इन तीनों नेताओं का प्रेरणाश्चोत कौन है। प्रधानमंत्री ने बड़े तिरस्कार के साथ अन्ना को सलाह दी कि वह स्थल और शर्ते तय करने के लिए दिल्ली पुलिस से संपर्क करें। तब 16 अगस्त को पी चिदंबरम ने भयावह घोषणा की कि शांतिभंग के अंदेशे में अन्ना को गिरफ्तार किया गया। आखिरकार, सरकार तब ही हालात पर कुछ काबू कर पाई जब टीवी के इन तीनों शेरों को पिंजरे में बंद कर दिया गया और अपेक्षाकृत गंभीर व संयत नेताओं को टीम अन्ना से बातचीत के लिए आगे किया। इन तीन चेहरों के प्रति जनता की चिढ़ के कारण ही सरकार ने छोटे परदे पर इनकी अनुपस्थिति को सुनिश्चित किया। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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खेल संघों की मनमानी

केंद्रीय खेल मंत्री अजय माकन की यह दलील बिलकुल सही है कि क्रिकेट संघ और विशेष रूप से भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की जनता के प्रति जवाबदेही बनती है। यह दयनीय है कि राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक का विरोध इस कुतर्क के जरिये किया जा रहा है कि क्रिकेट संगठनों को सरकार से पैसा नहीं मिलता इसलिए वे सूचना अधिकार के दायरे में आने को बाध्य नहीं। तथ्य यह है कि वे सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाने के साथ आयकर में छूट भी पाते हैं। क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड और अन्य खेल संघों ने जिस तरह खेल विकास विधेयक का विरोध किया उससे उनके इरादों पर संदेह होना स्वाभाविक है। सरकार से पैसा पाने वाले खेल संघों को इस विधेयक का विरोध करने का अधिकार इसलिए नहीं, क्योंकि एक तो वे सरकारी अनुदान पाते हैं और दूसरे हर स्तर पर मनमानी भी करते हैं। यदि खेल संघ और उनके पदाधिकारी अपने दायित्वों का निर्वाह सही तरह कर रहे होते तो अंतरराष्ट्रीय खेल जगत में भारत इतना पीछे नहीं होता। यदि केंद्रीय खेल मंत्री यह चाहते हैं कि खेल संघों के पदाधिकारी आजीवन अपने पदों पर न बने रहें तो इसमें कुछ भी अनुचित नहीं। इस मामले में अंतरराष्ट्रीय नियम-कानूनों की आड़ में छिपने का कोई मतलब नहीं। यह अच्छा नहीं हुआ कि कैबिनेट में खेल विकास विधेयक पर चर्चा शरद पवार, सीपी जोशी, फारूक अब्दुल्ला सरीखे मंत्रियों की मौजूदगी में हुई। अच्छा होता कि प्रधानमंत्री यह सुनिश्चित करते कि इस विधेयक पर चर्चा के दौरान खेल संघों से जुड़े मंत्री अनुपस्थित रहते। अगर खेल विधेयक को लेकर मंत्रियों का कोई समूह गठित होता है तो उसमें खेल संघों से जुड़े मंत्रियों के लिए जगह नहीं होनी चाहिए, अन्यथा नीर-क्षीर ढंग से फैसला होने के बजाय हितों का टकराव होगा। खेल मंत्री को क्रिकेट संगठनों एवं अन्य खेल संघों के काम-काज को पारदर्शिता के दायरे में लाने के साथ यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इन संगठनों की स्वायत्तता बनी रहे। खेल विकास विधेयक के जरिये खेल संघों पर सरकार का नियंत्रण नहीं होना चाहिए, क्योंकि सभी जानते हैं कि सरकारी हस्तक्षेप के कारण ही भारतीय हाकी दुर्दशा से ग्रस्त है। दरअसल इस मामले में बीच का रास्ता निकालने की जरूरत है, जिससे खेल संघ सरकारी हस्तक्षेप से बचे रहें और साथ ही स्वायत्तता के नाम पर मनमानी भी न करने पाएं। उन्हें अपनी ही चलाने की छूट नहीं दी जा सकती, क्योंकि यह जग जाहिर है कि राष्ट्रमंडल खेलों में घपलेबाजी खेल संघों की मनमानी का ही दुष्परिणाम है। अपनी ही चलाने की छूट क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड एवं अन्य क्रिकेट संगठनों को भी नहीं मिलनी चाहिए। नि:संदेह क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड इस खेल को नई ऊंचाइयों पर ले गया है, लेकिन यह भी एक तथ्य है कि उसके आय-व्यय के तौर-तरीकों के बारे में जनता को कुछ पता नहीं। जब क्रिकेट प्रशासकों की मनमानी से टीम खराब प्रदर्शन करती है तो देश का नाम भी खराब होता है और इस नाते आम जनता को उनसे सवाल-जवाब करने का अधिकार है। सभी खेल संघों का नियमन इसलिए समय की मांग है, क्योंकि खेलों के प्रति युवाओं का रुझान बढ़ाने की जरूरत है। इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि युवाओं की ऊर्जा खेलों में खपे। इससे न केवल युवाशक्ति को दिशा मिलेगी, बल्कि देश का बेहतर निर्माण भी होगा।
साभार:-दैनिक जागरण
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भ्रष्टाचार का दायरा

अन्ना हजारे के आंदोलन का मकसद इस अर्थ में पूरा हो गया कि भ्रष्टाचार के विरोध में राष्ट्रीय चेतना बनी। वैसे लोग भी मैं अन्ना हूं् मुद्रित टोपी पहन कर घूम रहे हैं जो जनलोकपाल विधेयक के बारे में शायद ही कुछ जानते हैं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनता में इतना व्यापक आक्रोश है, इसका अनुमान सरकार को नहीं था, किंतु अन्ना की उंगलियां जनता की नब्ज पर थीं। संघर्ष तथा आंदोलन का व्यापक अनुभव उनके पास था। इसलिए बाबा रामदेव की तरह वह गिरफ्तारी से भयभीत नहीं हुए। बाबा रामदेव ने जहां नैतिक दुर्बलता का परिचय दिया वहीं अन्ना ने नैतिक साहस दिखाया, किंतु अन्ना के साथ भी एक संकट है कि वे कुछ व्यक्तियों द्वारा बंदी बना दिए गए हैं और उन्हें किसी से न तो बात करने और न ही मिलने दिया जाता है। अन्ना की टीम द्वारा पेश विधेयक में न सिर्फ निजी क्षेत्र को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा गया है, बल्कि उनकी टीम के सदस्य सरकारी विधेयक में गैर-सरकारी संगठन को शामिल किए जाने का भी विरोध कर रहे हैं। प्रशांत भूषण एक टीवी चैनल पर एक बहस के बीच कह रहे थे कि कारपोरेट सेक्टर को लोकपाल के दायरे में इसलिए शामिल नहीं किया जा सकता, क्योंकि भ्रष्टाचार की परिभाषा निजी लाभ के लिए सरकारी पद का दुरुपयोग है, किंतु परिस्थितियां बदलने पर कानून में संशोधन की आवश्यकता होती है। आज आर्थिक उदारीकरण के जमाने में निजी क्षेत्रों की भूमिका इस कदर बढ़ गई है कि स्वास्थ्य सेवाओं से लेकर शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए आम आदमी को निजी क्षेत्र की शरण में जाना पड़ रहा है। कारपोरेट अस्पतालों में लोगों को इस तरह लूटा जा रहा है कि मामूली बीमारियों में भी लाखों का बिल बनता है और कई बार तो परिजनों को शव सौंपने के लिए बकाए लाखों रुपये के भुगतान की शर्त रखी जाती है। इसी तरह निजी विद्यालयों की ट्यूशन फीस एवं अन्य मदों में मोटी रकम वसूली जाती है और कई बार तो प्रवेश के लिए मोटी रिश्वत देनी पड़ती है। अगर निजी क्षेत्र को बाहर रखने का तर्क यह है कि उसके लिए अलग कानून हैं तो फिर सरकारी भ्रष्टाचार के नियंत्रण के लिए भी भ्रष्टाचार निरोधक कानून है। एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि मंत्रियों एवं सरकारी पदाधिकारियों को भ्रष्ट करने में कारपोरेट सेक्टर की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भ्रष्टाचार की क्या परिभाषा हो, इस पर पूरे विश्व में कोई मतैक्य नहीं है। कई विद्वान इस मत के हैं कि इसे परिभाषित करने का प्रयास निरर्थक है। इसलिए भ्रष्टाचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन 2003 में भ्रष्टाचार शब्द तो कई जगह आया है, किंतु इसे कहीं परिभाषित नहीं किया गया है। हालांकि इसमें घूसखोरी, मनी लांड्रिंग, सत्ता के दुरुपयोग एवं हेराफेरी को भ्रष्टाचार की श्रेणी में रखा गया, इससे बहुराष्ट्रीय निगमों, व्यापारिक घरानों एवं गैर-सरकारी संगठनों जैसे निजी क्षेत्रों का बाहर रखा गया है। इसे बाहर रखने के पीछे मुख्य तर्क यह दिया जाता है कि सरकारी भ्रष्टाचार शासन के लिए चुनौती पैदा करता है और न्याय तक जनता की पहुंच को रोकता है, जिससे मानवाधिकार प्रभावित होता है, जबकि निजी क्षेत्र के भ्रष्टाचार से यह खतरा पैदा नहीं होता। इसके विपरीत एशियाई विकास बैंक ने भ्रष्टाचार में निजी क्षेत्रों की भूमिका को भी पहचाना है। भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए इसने कई कार्यक्रम बनाए हैं। 1998 से ही इसकी भ्रष्टाचार विरोधी नीति में यह स्पष्ट किया गया है कि एक संस्था के रूप में वह उस बोझ को कम करना चाहती है जो एशिया-प्रशांत क्षेत्र की सरकारों एवं अर्थव्यवस्थाओं में भ्रष्टाचार के कारण पैदा होता है। विश्व बैंक के विपरीत एशियाई विकास बैंक ने निजी क्षेत्र को भ्रष्टाचार से लड़ने में शामिल किया है। इसलिए इसके अनुसार, भ्रष्टाचार सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों के अधिकारियों का वह व्यवहार है जिसमें वे अनुचित तथा अवैध तरीके से धनार्जन करते हैं तथा/या वे लोग जो उनके निकट हैं, उन्हें लाभ पहुंचाते हैं या अपने पद के दुरुपयोग से दूसरों को ऐसा करने के लिए प्रलोभन देते हैं। यह भ्रष्टाचार की ज्यादा समावेशी परिभाषा है। आज निजी क्षेत्र के भ्रष्टाचार को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इसके लिए कानून में आवश्यक संशोधन करने होंगे। साथ ही सरकारी भ्रष्टाचार में भी ऊंचे तथा नीचे पदों के विरुद्ध कार्रवाई का प्रावधान भेदभावपूर्ण है। बडे़ अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई में सबसे बड़ी बाधा है अपराध प्रक्रिया विधान अर्थात सीआरपीसी की धारा 197 तथा भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा 19। अंग्रेजों के द्वारा बनाए गए कानून में जो भेदभाव किया गया था वह स्वाधीन भारत में अभी भी लागू है। भ्रष्टाचार निरोधक कानून के संदर्भ में केंद्र सरकार ने एकल निर्देश जारी किया था, जिसके अनुसार संयुक्त सचिव एवं उससे ऊपर के अधिकारियों के विरुद्ध मुकदमा बिना पूर्वानुमति के नहीं चलाया जाएगा। उच्चतम न्यायालय ने इसे विनीत नारायण मामले में खारिज कर दिया, किंतु संसद ने इसे कानून बनाकर बहाल कर दिया। इसके अलावा यह भी सुनिश्चित करना होगा कि कोई अधिकारी यदि अपना काम न करे और इससे किसी को नुकसान होता है या उसके प्रति अन्याय होता है तो इसे षड्यंत्र मानकर भ्रष्टाचार के आरोप में उसे दंडित किया जाना चाहिए। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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संविधान की आड़ में राजनीति

गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति को मोदी दुर्ग को ढहाने की कांग्रेस की कोशिश के रूप में देख रहे हैं प्रदीप सिंह

पिछले करीब एक दशक में गुजरात राजनीति, सांप्रदायिकता, विकास, केंद्र-राज्य संबंध और न जाने किन-किन विषयों की प्रयोगशाला बन गया है। यह राज्य भारतीय जनता पार्टी का ऐसा अभेद्य किला बन गया है जिसे ढहाने के लिए कांग्रेस नए-नए प्रयोग करती रहती है। लोकायुक्त की नियुक्ति कांग्रेस के इसी प्रयोग का हिस्सा है। कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि 2002 के गुजरात दंगों के बाद से उसने नरेंद्र मोदी पर जब भी हमला किया है वह और ताकतवर होकर उभरे हैं। राजभवन का इस्तेमाल अपनी राजनीति के लिए करना कांग्रेस की पुरानी आदत है। राज्यपाल अगर चुनाव जिता सकते तो कांग्रेस किसी राज्य में कभी न हारती। लेकिन मौजूदा विवाद देश के दोनों राष्ट्रीय दलों की राजनीतिक शैली पर सवाल खड़े करता है। गुजरात में पिछले सात साल से कोई लोकायुक्त नहीं है। यह सुशासन का दावा करने वाली नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए कोई गर्व की बात तो नहीं ही हो सकती। नरेंद्र मोदी देश के उन थोड़े से मुख्यमंत्रियों में हैं जिन पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं है। फिर उनके राज्य में लोकायुक्त क्यों नहीं है, यह न केवल मुख्यमंत्री बल्कि भारतीय जनता पार्टी को भी सोचना चाहिए। गुजरात के लोकायुक्त कानून के मुताबिक राज्य हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए नाम की सिफारिश करते हैं और राज्यपाल मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता से राय-मशविरा करने के बाद फैसला करते हैं। मुख्य न्यायाधीश ने हाईकोर्ट के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश आरए मेहता के नाम की सिफारिश की। राज्य सरकार ने इस नाम पर आपत्ति जताई। मोदी सरकार का कहना था कि मेहता राज्य सरकार के खिलाफ कई प्रदर्शनों में शिरकत कर चुके हैं। जो व्यक्ति पहले से ही राज्य सरकार के खिलाफ हो उससे निष्पक्षता की उम्मीद कैसे की जा सकती है। मुख्य न्यायाधीश ने सरकार के इस एतराज को खारिज कर दिया। उसके बाद राज्यपाल कमला बेनीवाल ने एक दिन अचानक आरए मेहता की नियुक्ति की घोषणा कर दी। राज्य सरकार राज्यपाल की इस कार्रवाई को संविधान विरोधी बताते हुए इसके खिलाफ अदालत चली गई है। मंगलवार को भाजपा ने संसद के दोनों सदनों में इस मामले को उठाया और सदन की कार्यवाही नहीं चलने दी। इस मामले में दोनों पक्षों के अपने तर्क हैं। कांग्रेस और केंद्र सरकार गुजरात के लोकायुक्त कानून के प्रावधानों का हवाला देकर राज्यपाल के फैसले को सही बता रही है। उसका कहना है कि इस कानून में मुख्यमंत्री या मंत्रिपरिषद से मंत्रणा करने की कोई व्यवस्था नहीं है। भाजपा का तर्क है कि राज्यपाल कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करने के लिए संवैधानिक रूप से बाध्य हैं। यह भी सच है कि राज्यपाल मौजूदा कानून के रहते 2003 तक (गुजरात में लोकायुक्त कानून 1986 में बना था) लोकायुक्त की नियुक्ति में मुख्यमंत्री से मशविरा करते रहे हैं। राज्यपाल, केंद्र सरकार और कांग्रेस एक ही पाले में खड़े हैं। कानून और संविधान के नजरिए से किसका पक्ष सही है और किसका गलत यह तो अब अदालत तय करेगी। लेकिन एक सवाल का जवाब तो केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी को देना पड़ेगा। संसद इस समय लोकपाल विधेयक का प्रारूप तय कर रही है। क्या उसमें ऐसी व्यवस्था होगी कि लोकपाल की नियुक्ति में प्रधानमंत्री या केंद्रीय मंत्रिपरिषद से कोई सलाह नहीं ली जाएगी। क्या ऐसे किसी प्रावधान की मांग को कांग्रेस पार्टी स्वीकार करेगी। क्या सरकार लोकपाल कानून में ऐसी व्यवस्था से सहमत होगी जो लोकपाल की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति को दे। जाहिर है कि कांग्रेस ऐसी किसी व्यवस्था के लिए तैयार नहीं होगी। पार्टी और उसकी सरकार को पता है कि एक चुनी हुई सरकार के रहते हुए उसकी उपेक्षा करके राज्य में इस तरह की नियुक्ति का देश के संघीय ढांचे पर क्या असर पड़ेगा। इसके बावजूद अगर वह ऐसा कर रही है तो सिर्फ इसलिए कि राजनीतिक रूप से उसे फायदेमंद नजर आता है। दरअसल नियम-कानून, संविधान और परंपरा तो बहाना हैं। कांग्रेस और केंद्र सरकार के कुछ मंत्री नरेंद्र मोदी को घेरना चाहते हैं। कांग्रेस कभी सोनिया गांधी से उन्हें मौत का सौदागर कहलवाती है तो कभी राहुल गांधी को उनके मुकाबले उतारती है। राज्य में इतने बड़े सांप्रदायिक दंगे के बावजूद गुजरात की जनता मोदी के खिलाफ कुछ सुनने को तैयार ही नहीं है। भाजपा और संघ परिवार में मोदी विरोधियों की मदद करके और भाजपा से निकले शंकर सिंह वाघेला को मोदी के मुकाबले पार्टी की कमान सौंपकर भी आजमा चुकी है। राजनीति के मैदान में सारे उपाय करके कांग्रेस देख चुकी है। कोई उपाय काम नहीं कर रहा। इसीलिए केंद्र सरकार ने राज्यपाल कमला बेनीवाल के कंधे का इस्तेमाल किया है। कांग्रेस द्वारा राज्यपालों के राजनीतिक इस्तेमाल का रामलाल ठाकुर, बूटा सिंह, हंसराज भारद्वाज और अब कमला बेनीवाल तक लंबा इतिहास है। कांग्रेस के हर हमले को नरेंद्र मोदी एक अवसर में बदल देते हैं और उसका मुकाबला चुनौती समझकर करते हैं। अब तक वह ऐसा हर मुकाबला जीतते रहे हैं। मोदी अदालत के फैसले का इंतजार करने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने युद्ध की घोषणा कर दी है। भाजपा की राज्य इकाई ने पूरे प्रदेश में राज्यपाल को वापस बुलाने के लिए आंदोलन का ऐलान कर दिया है। राज्य सरकार विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाने जा रही है। गुजरात विधानसभा के इतिहास में यह पहला मौका होगा जब राज्यपाल के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आएगा। मोदी के खिलाफ एक आरोप भाजपा के पूर्व नेता राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के मुखिया गोविंदाचार्य ने लगाया है। उनका आरोप है कि नरेंद्र मोदी सत्ता का केंद्रीयकरण कर रहे हैं। यह ऐसा आरोप है जिससे भाजपा के बहुत से नेता सहमत होंगे पर सार्वजनिक रूप से कोई बोलने को तैयार नहीं है। क्या गुजरात में पिछले सात साल से कोई लोकायुक्त इसीलिए नहीं है कि मुख्यमंत्री नहीं चाहते कि उनकी सत्ता को चुनौती देने वाली कोई संस्था हो। पार्टी और संघ परिवार में तो उन्हें निर्देश देने की स्थिति में कोई नहीं है। राज्यपाल कमला बेनीवाल के इस कदम के पीछे केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी खड़ी है और नरेंद्र मोदी जो करने जा रहे हैं उसके साथ भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व। इस टकराव को रोकने के लिए किसी ओर से कोई पहल होती नहीं दिख रही है। मोदी यह लड़ाई हार गए तो कांग्रेस के लिए यह बड़ी मनोवैज्ञानिक विजय होगी। लेकिन और यह लेकिन बहुत बड़ा है, मोदी जीत गए तो? क्या कांग्रेस इसके लिए तैयार है? (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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न्यायिक सुधार

न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक के लिए विधि एवं न्याय मामलों की स्थायी समिति की सिफारिशें सामने आने के बाद देखना यह है कि उन्हें किस हद तक स्वीकृति मिलती है? यह प्रश्न इसलिए, क्योंकि कुछ सिफारिशें व्यापक बहस की मांग करती हैं। स्थायी समिति के अनुसार न्यायाधीशों को फैसले से पहले टिप्पणियां करने से रोकने की जरूरत है। पहली नजर में यह सिफारिश सही नजर आती है, क्योंकि कई बार न्यायाधीशों की टिप्पणियों से जो कुछ ध्वनित होता है वह उनके फैसले में नजर नहीं आता। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब न्यायाधीशों को अपनी टिप्पणियों के आधार पर छपी खबरों और उनके कारण समाज में निर्मित हुई धारणा को लेकर स्पष्टीकरण देना पड़ा है, लेकिन यदि ऐसे प्रसंगों के चलते स्थायी समिति यह चाहती है कि न्यायाधीश फैसले से पहले टिप्पणी ही न करें तो इससे मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। यह संभव नहीं कि न्यायाधीश चुपचाप सुनवाई करते रहें। वादी-प्रतिवादी की ओर से दलीलें देते समय कई बार ऐसे मौके आते हैं जब न्यायाधीशों के लिए टिप्पणी करना आवश्यक हो जाता है। बेहतर होगा कि स्थायी समिति की इस सिफारिश के संदर्भ में खुद न्यायाधीशों से विचार-विमर्श किया जाए ताकि ऐसा कोई रास्ता निकाला जा सके जिससे फैसले के पहले की उनकी टिप्पणियों से भिन्न निष्कर्ष न निकले। वैसे भी स्थायी समिति का उक्त सुझाव कुछ ऐसा संकेत कर रहा है जैसे न्यायाधीशों पर अनावश्यक अंकुश लगाने की कोशिश हो रही है। हालांकि समिति के अध्यक्ष ने इस संदर्भ में सफाई दी है, लेकिन उससे सब कुछ स्पष्ट नहीं होता। विधि एवं न्याय मंत्रालय की स्थायी समिति ने न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक के लिए जो अन्य सिफारिशें की हैं उन पर अमल समय की मांग है, क्योंकि एक ओर जहां न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर सवाल उठ रहे हैं वहीं दूसरी ओर आम जनता को यह संदेश भी जा रहा है कि भ्रष्ट न्यायाधीशों के खिलाफ कार्रवाई करना टेढ़ी खीर हो गया है। यह ठीक नहीं कि न्यायाधीशों की नियुक्ति वे खुद करें। न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में न्यायपालिका के बाहर के लोगों को शामिल करने से पक्षपात की आशंका से भी निजात मिलेगी और पारदर्शिता भी बढ़ेगी। नि:संदेह यह भी समय की मांग है कि न्यायाधीशों के लिए संपत्ति की घोषणा का कोई प्रभावी तंत्र बने और साथ ही उनके खिलाफ शिकायतों की सुनवाई भी नीर-क्षीर ढंग से हो। यह समय बताएगा कि न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक कब तक कानून का रूप ले सकेगा और वह उन सभी समस्याओं का समाधान कर सकेगा या नहीं जिनसे आज न्यायपालिका दो-चार है, लेकिन संसद और सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस विधेयक का उद्देश्य न्यायिक तंत्र में पारदर्शिता लाने के साथ-साथ उसे और सक्षम बनाना ही होना चाहिए, न कि न्यायिक सक्रियता पर अंकुश लगाना। न्यायिक सुधारों के नाम पर ऐसा कुछ भी नहीं होना चाहिए जिससे न्यायपालिका की स्वायत्तता पर अंकुश लगे। अब जब न्यायिक सुधारों का चक्र आगे बढ़ता नजर आ रहा है तब फिर सरकार को यह भी देखना होगा कि अन्य क्षेत्रों में सुधार में और देरी न हो। उसे इसकी अनुभूति होनी ही चाहिए कि राजनीतिक और प्रशासनिक सुधारों में देरी से खुद उसकी और देश की भी समस्याएं बढ़ रही हैं।
साभार:-दैनिक जागरण
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समाज के आगे सिमटती सियासत

भारतीय राजनीति को इतना खौफजदा, बदहवास और चिढ़ा हुआ पहले कब देखा था? सियासत तो यही माने बैठी थी कि सारे पुण्य-परिवर्तनों के लिए राजनीतिक दल जरूरी हैं और देश की अगुआई का पट्टा सिर्फ सियासी पार्टियों के नाम लिखा है, मगर स्वयंसेवी संगठनों (सिविल सोसाइटी) के पीछे सड़क पर आए लाखों लोगों ने भारत की राजनीतिक मुख्यधारा को कोने में टिका दिया। अन्ना के आंदोलन से सियासत को काठ मार गया और नेता ग्यारह दिन बाद संसद में ही बोल पाए। संसद की बहस क्या, सियासत की बेचैनी की बेजोड़ नुमाइश थी। हर नेता मानो कह देना चाहता था कि यह अचानक क्या हो गया, जनादेश की ताकत तो उनके पास है। लीक में बंधी और जड़ों से उखड़ी राजनीति एक गैर-राजनीतिक आंदोलन के साथ जनसमर्थन देखकर भौंचक थी। अन्ना के आंदोलन ने राजनीति की पारंपरिक डिजाइन को सिर के बल खड़ा कर दिया है। नेताओं और राजनीतिक चिंतकों को अपने चश्मों से धूल पोंछ लेनी चाहिए। इस आंदोलन के दौरान तर्क उभरे थे कि अन्ना हजारे बदलाव चाहते हैं तो उन्हें चुनाव जीतकर संसद में आना चाहिए अर्थात बदलाव के लिए सत्ता हथियाना जरूरी है, मगर पूरी दुनिया में सिविल सोसाइटी की सियासत तो सत्ता बदले बिना व्यवस्था बदलने पर ही आधारित है। जनता को यह नई सूझ समझ में भी आती है, क्योंकि दशकों से लोकशाही देख रहे लोग संसदीय लोकतंत्र के पैटर्न से वाकिफ हैं जहां राजनीतिक दल सिर्फ सत्ता के लिए लड़ते हैं। बड़े बदलावों की मुहिम के लिए संसदीय लोकतंत्र अनिवार्य हैं, मगर तेज परिवर्तन के लिए, कुर्सी लपकने और कुर्सी खींचने के इस बोरियत भरे खेल से बाहर निकलना जरूरी है। सिविल सोसाइटी ने लोगों की इस ऊब को पकड़ा और उन मुद्दों पर मुहिम शुरू की, राजनीतिक दल जिन्हें छूना ही नहीं चाहते। नागरिक अधिकारों, न्याय और सामाजिक विकास की दुनियावी लड़ाई, सियासी दल नहीं छोटे-बड़े स्वयंसेवी संगठन लड़ते हैं। इसलिए यह गैर राजनीतिक और गैर सरकारी मोर्चा पूरी दुनिया में लोगों को भा रहा है। भारत की सियासत से दो टूक सवाल पूछे जा सकते हैं। हमारे यहां लोगों को साक्षर व शिक्षित बनाने की लड़ाई कौन सी पार्टी लड़ रही है। पीडि़तों को न्याय दिलाने की मुहिम किसके हाथ है। पर्यावरण बचाने में कौन सा सियासी दल आगे है। आदिवासी हितों की जंग किस राजनीतिक दल के एजेंडे पर है। आम लोग किसी भी मुद्दे में राहुल गांधी की अचानक इंट्री से प्रभावित नहीं होते। उन्हें मालूम है कि निजी कंपनी के खिलाफ नियामगिरी के आदिवासियों की लड़ाई स्वयंसेवी संगठनों ने लड़ी और सुप्रीम कोर्ट से न्याय लिया। दिल्ली की आबोहवा को सियासत ने नहीं स्वयंसेवी संगठनों की मुहिम ने दुरुस्त किया। कोई सियासी पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं लड़ती। भारत में राजनीतिक दल विकास व न्याय के मुद्दों पर संसद में कायदे से चर्चा भी नहीं करते। इसलिए जनता को यह राजनीति चिढ़ाती है और जब उन्हें सियासत में भ्रष्टाचार भी दिखता है तो यह चिढ़ गुस्से में बदल जाती है। लोकपाल पर बहस के दौरान स्वयंसेवी संगठनों को बिसूर रहे नेता कुछ अंतरराष्ट्रीय सच्चाइयों को नकार रहे थे। आर्थिक उदारीकरण के बाद दुनिया ग्लोबल गवर्नेस की तरफ मुड़ी है। डब्लूटीओ, ओईसीडी, विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र, आसियान, आइएमएफ, एडीबी, जी20 जैसे संगठन हर देश की नीतियों को प्रभावित करते हैं। यह बहुपक्षीय संस्थाएं राजनीतिक दलों को नहीं, बल्कि सिविल सोसाइटी को हमसफर बना रही हैं, क्योंकि सियासत सत्ता से बाहर नहीं सोच ही नहीं सकती। सीधी लड़ाई से लेकर सरकारों को प्रभावित करने और छोटे-छोटे मुद़दों को ग्लोबल मंचों तक ले जाने में सक्षम सिविल सोसाइटी दुनिया की राजनीति का नया चेहरा है, जो भारत की परंपरा व परिवारवादी सियासत को नहीं दिखता। बर्न डिक्लेयरेशन (स्विस स्वयंसेवी संगठन समूह) और शेरपा (अफ्रीकी एनजीओ) नाइजीरिया, अंगोला, कांगो, सिएरा लियोन, गैबन के भ्रष्ट शासकों की लूट को स्विस व फ्रेंच बैंकों से निकलवाकर वापस इन देशों की जनता तक पहुंचा देते हैं। वीगो व एसडीआइ जैसे संगठन भारत के घरों में काम करने वाली महिलाओं और झुग्गी बस्ती वालों का दर्द दुनिया के मंचों तक ले जाते हैं। इसी असर व कनेक्ट के चलते नई राजनीति पारंपरिक राजनीति पर भारी पड़ रही है। भारत की सियासत आज भी महानायकों के खुमार में है। आजादी के बाद के राजनीतिक दशक भले ही करिश्माई व्यक्तित्वों ने गढ़े हों, लेकिन अब जनता के पास तजुर्बे हैं, जो करिश्मों पर भारी पड़ते हैं। अन्ना का आंदोलन अलग इसलिए था, क्योंकि अन्ना कतई गैर करिश्माई स्वयंसेवी हैं, उन्होंने लोगों को नहीं जोड़ा, बल्कि लोग खुद उनसे जुड़ गए है। स्वयंसेवी संगठनों में भ्रष्टाचार के सवाल छोटे नहीं है, लेकिन उनके बहाने बदलाव को नकारना खुद को धोखा देना है। हमारे नेताओं को रेत से सिर निकाल कर इस नई सियासत का मर्म समझना चाहिए। स्वयंसेवी संगठन उनकी पारंपरिक जमीन पर ही उग रहे हैं, क्योंकि उनकी उंगलियां जनता की नब्ज से फिसल गई हैं। एक असंगत चुनाव व्यवस्था के सहारे संसद तक पहुंचना अलग घटना है और जनता के भरोसे पर राजनीति करना एक दूसरा ही परिदृश्य है। अन्ना के आंदोलन ने देश की सियासत को जनादेश और जनसमर्थन का फर्क कायदे से समझा दिया है। भारत के सियासी दल उम्मीदों की राजनीति में बुरी तरह असफल हैं। (लेखक दैनिक जागरण के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख हैं)

साभार:-दैनिक जागरण

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चुनाव सुधारों पर नई बहस

एक सक्षम और कारगर लोकपाल के लिए अनशन पर बैठकर देश को हिला देने वाले अन्ना हजारे की इस गर्जना पर हलचल मचनी ही थी कि अब अन्य अनेक समस्याओं के साथ चुनाव सुधार भी उनके एजेंडे पर होंगे। यह उचित ही है कि चुनाव सुधारों के संदर्भ में उनकी ओर से उठाए गए मुद्दों पर बहस शुरू हो गई है। यह बहस गति पकड़नी चाहिए, क्योंकि भ्रष्टाचार के मूल में खर्चीली होती चुनावी राजनीति है। यह एक तथ्य है कि बड़ी संख्या में उम्मीदवार चुनाव लड़ने के लिए तय राशि से कहीं अधिक धन खर्च करते हैं। अब तो मतदाताओं के बीच रुपये बांटकर चुनाव जीतने की कोशिश की जाने लगी है। आम तौर पर यह धन अवैध तरीके से अर्जित किया जाता है। दरअसल इसी कारण कालेधन के कारोबार पर अंकुश लगाने के लिए कोई ठोस पहल नहीं हो रही है। चुनाव प्रक्रिया को काले धन से मुक्त करने के लिए तरह-तरह के सुझाव सामने आ चुके हैं। इनमें से एक सुझाव यह है कि चुनाव खर्च का वहन सरकारी कोष से हो। अभी हाल में राहुल गांधी ने भी यही सुझाव दिया, लेकिन निर्वाचन आयोग को भय है कि इससे समस्या और विकराल हो जाएगी। मुख्य चुनाव आयुक्त इस सुझाव को इसलिए खतरनाक विचार मानते हैं, क्योंकि उन्हें आशंका है कि तब उम्मीदवार सरकारी कोष से मिले धन के साथ-साथ अपने धन का भी इस्तेमाल करेंगे। इस आशंका को निराधार नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह भी एक वास्तविकता है कि चुनाव खर्च की सीमा में प्रस्तावित वृद्धि भी समस्या का समाधान करती नहीं दिखती। चुनाव सुधार के अन्य अनेक मुद्दों पर भी अलग-अलग राजनीतिक दलों और विशेषज्ञों के भिन्न-भिन्न विचार हैं। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने और उम्मीदवारी खारिज करने के मामले में दोनों राष्ट्रीय दलों-कांग्रेस और भाजपा के विचार अलग-अलग हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति अन्य अनेक मुद्दों पर भी है। इन स्थितियों में बेहतर यह होगा कि चुनाव सुधारों को लेकर जो बहस शुरू हुई है उसे गति प्रदान की जाए ताकि उसे अंजाम तक पहुंचाया जा सके। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि एक लंबे अर्से से चुनाव सुधार अटके पड़े हुए हैं। नि:संदेह इसके लिए राजनीतिक दल ही जिम्मेदार हैं। वे उन मुद्दों पर भी एक मत नहीं हो पा रहे हैं जो अपेक्षाकृत कम जटिल हैं। चुनाव आयोग एक अर्से से यह मांग कर रहा है कि जिन लोगों के खिलाफ अदालत ने आरोप तय कर दिए हैं उन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति न दी जाए, लेकिन राजनीतिक दल इसके लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। वे प्रत्याशियों के चयन में मतदाताओं को किसी तरह की भागीदारी देने के लिए तैयार नहीं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि राजनीतिक दल चुनाव सुधारों के संदर्भ में आम सहमति कायम न करने पर सहमत हैं। चुनाव सुधारों के संदर्भ में अंतहीन खोखली चर्चा का कोई मतलब नहीं। बेहतर हो कि राजनीतिक दल मौजूदा माहौल को समझें और चुनाव सुधारों की दिशा में आगे बढ़ें, क्योंकि भ्रष्टाचार की तरह से आम जनता इसे भी लंबे अर्से तक सहन करने वाली नहीं कि देश को दिशा देने वाली राजनीति अनुचित साधनों पर आश्रित हो। जब राजनीति ही साफ-सुथरी नहीं होगी तो फिर वह देश का भला कैसे कर सकेगी?
साभार:-दैनिक जागरण
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बहरेपन का बढि़या इलाज

जब ट्यूनीशिया, मिश्च और कुछ अन्य अरब देशों के लोग अपने-अपने यहां की व्यवस्था से आजिज आकर सड़कों पर उतरे तो दुनिया के साथ-साथ भारत भी हैरत से यह देख और सोच रहा था कि क्या ऐसा ही कुछ उसके यहां हो सकता है? जब अन्ना हजारे अप्रैल में जंतर-मंतर पर धरने पर बैठे और उनके समर्थकों की भारी भीड़ उमड़ी तो कई लोग खुद को यह कहने से नहीं रोक पाए कि जंतर-मंतर तहरीर चौक बन गया है। जब अन्ना गिरफ्तार होने के बाद रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे और उनके समर्थन में देश भर में लोग एकजुट हो गए तो किसी को याद नहीं रहा कि अरब देशों में क्या और कैसे हुआ था, लेकिन 16 अगस्त से लेकर 27 अगस्त तक दिल्ली और शेष देश में जो कुछ हुआ वह अगर क्रांति नहीं तो उसके असर से कम भी नहीं। गांधी के देश में क्रांति का ऐसा ही स्वरूप हो सकता था। व्यवस्था परिवर्तन की यह पहल देश में एक नए जागरण की सूचक है। इसे सारी दुनिया ने महसूस किया। वह चकित और चमत्कृत है तो भारत के लोग एक नए अहसास से भरे हुए हैं। यह तब है जब यथार्थ के धरातल पर कुछ भी नहीं बदला। लोगों को सिर्फ संसद का यह संदेश मिला है कि वह एक कारगर लोकपाल बनाने के लिए अन्ना के तीन बिंदुओं पर सिद्धांतत: सहमत है। इस सबके बावजूद बहुत कुछ बदल गया है। सबसे बड़ा बदलाव यह है कि राजनीतिक नेतृत्व को यह समझ में आ गया कि वह जनता के सवालों का सामना करते समय संसद की आड़ में नहीं छिप सकता। देश ने यह अच्छी तरह देख लिया कि राजनीतिक नेतृत्व जानबूझकर बहरा बना हुआ था। उसने यह भी देखा कि कारगर लोकपाल के सवाल पर पहले सरकार ने संसद की आड़ ली और फिर विपक्ष भी उसके साथ हो लिया। इसी कारण अन्ना के आंदोलन पर बुलाई गई सर्वदलीय बैठक नाकाम हो गई। संसद ने देश को सिर्फ यह भरोसा दिया है कि वह लोकपाल कानून में अन्ना की ओर से उठाए गए तीन बिंदुओं को यथासंभव समाहित करेगी, लेकिन कुछ नेताओं और दलों की ओर से ऐसी प्रतीति कराई जा रही है जैसे संसद से कोई गैर कानूनी काम जबरन करा लिया गया। यदि संसद वैसा प्रस्ताव पारित नहीं कर सकती जैसा 26 अगस्त को पारित किया गया तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि वह जन भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती है? अन्ना के आंदोलन को खारिज करने के लिए राजनीतिक और गैर-राजनीतिक लोगों की ओर से तरह-तरह के कुतर्क दिए गए। किसी ने कहा कि अन्ना का आंदोलन केवल मध्यवर्ग के लोगों का आंदोलन है। क्या मध्यवर्ग इस देश का हिस्सा नहीं? क्या वह अवांछित-अराजक तबका है? किसी ने यह सवाल उछाला कि अन्ना अन्य मुद्दों पर क्यों नहीं बोल रहे? क्या सरकार या संसद ने अन्ना को यह जिम्मेदारी सौंप रखी है कि वह सभी ज्वलंत मुद्दों पर समान रूप से ध्यान देंगे? यदि सभी मुद्दों पर बोलने की जिम्मेदारी अन्ना की है तो राजनीतिक दल किसलिए हैं? कुछ लोगों ने कहा कि अन्ना की कोर कमेटी में दलित-पिछड़े नहीं हैं। क्या कांग्रेस और अन्य सभी दलों की कोर कमेटियों में दलित-पिछड़े हैं? किसी ने कहा अन्ना गांधीवादी नहीं हैं, क्योंकि गांधीजी अपनी बात मनवाने के लिए अनशन नहीं करते थे। तथ्य यह है कि गांधीजी ने अपने जीवनकाल में कई बार अपनी न्यायसंगत बातें मनवाने के लिए ही अनशन किए। जिस मामले को 42 साल से टाला जा रहा हो उसे और टलते हुए देखकर यदि अन्ना अनशन पर बैठ गए तो यह कोई अपराध नहीं। अन्ना के आंदोलन को यह कहकर भी खारिज करने की कोशिश की गई कि ओमपुरी, किरण बेदी ने तो नेताओं पर कुछ ओछे आरोप लगाए ही, आंदोलनकारियों ने भी उनके खिलाफ भद्दे नारे लगाए। नि:संदेह ये आरोप और नारे अरुचिकर थे और उनकी आलोचना उचित है, लेकिन क्या मुद्दा यह था कि अन्ना समर्थक लोग नेताओं के प्रति कैसे नारे लगा रहे हैं? अन्ना की पहल को खारिज करने का काम राहुल गांधी ने भी किया। उन्होंने जिस तरह गलत समय पर अपने सही सुझाव रखे उससे देश को गहरी निराशा तो हुई ही, प्रधानमंत्री की पहल भी खटाई में पड़ती दिखी। आखिर वह अपने सुझाव अपनी ही सरकार को तब क्यों नहीं दे सके जब लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार हो रहा था? बेहतर होता कि टीम अन्ना अपने आलोचकों के प्रति सहिष्णु होती, क्योंकि ऐसा नहीं है कि अन्ना के आंदोलन में कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे असहमत न हुआ जा सकता हो। उन्होंने अपनी मांग सामने रखने के साथ ही जिस तरह समय सीमा तय कर दी वह उनके आंदोलन का अलोकतांत्रिक पक्ष था। हालांकि उनके समर्थकों का तर्क है कि यदि वह ऐसा नहीं करते तो शायद सरकार एक बार फिर उन्हें धोखा देती। पता नहीं ऐसा होता या नहीं, लेकिन यह तथ्य है कि संसद से पारित किए जाने वाले प्रस्ताव को आखिरी समय तक कमजोर करने की कोशिश की गई। यदि अन्ना की ओर से अपनी मांगों के संदर्भ में समय सीमा तय करने के बावजूद जनता उनके समर्थन में उतर आई तो इसका मतलब है कि उसे सरकार की नीयत पर भरोसा नहीं रह गया था। अब इस भरोसे की बहाली होनी चाहिए। सत्तापक्ष के साथ-साथ विपक्ष के लिए भी यह आवश्यक है कि वह जानबूझकर ऊंचा सुनने की प्रवृत्ति छोड़े, क्योंकि जनता को इस मर्ज का इलाज पता चल गया है। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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नए संघर्ष की शुरुआत

जनलोकपाल आंदोलन को कांग्रेस के अलोकतांत्रिक आचरण के खिलाफ संघर्ष का आगाज मान रहे हैं बलबीर पंुज

अंतत: जननायक अन्ना हजारे और उनके साथ जुड़े करोड़ों भारतीयों के प्रबल समर्थन के कारण कांग्रेसनीत संप्रग सरकार को अपनी अधिनायकवादी मानसिकता त्यागने के लिए मजबूर होना पड़ा। सरकार अन्ना हजारे द्वारा जनभावनाओं के अनुरूप सुझाए गए तीन बिंदुओं-जनशिकायत व सिटिजन चार्टर, राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति और निचले स्तर की नौकरशाही को लोकपाल कानून के दायरे में लाने पर सहमत हो गई है। भारतीय जनतंत्र में यह जन की तंत्र पर निश्चित विजय है। लोकपाल संस्था के निर्माण का रास्ता भले साफ हो गया हो, किंतु संप्रग-2 के रहते क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई प्रभावी कदम उठाए जा सकते हैं? अभी हाल की ही तीन घटनाएं लीजिए। वामपंथी दलों द्वारा समर्थन वापस लिए जाने के कारण 22 जुलाई, 2008 को सरकार को सदन में विश्वास मत हासिल करना था। तब भाजपा के तीन सांसदों-अशोक अर्गल, फगन सिंह कुलस्ते और महावीर भगोरा ने सदन में नोटों की गड्डियां दिखाते हुए नोट फोर वोट कांड का खुलासा किया था। विपक्षी दलों के दबाव में मामले की जांच के लिए कृष्णचंद्र देव समिति गठित की गई, जिसने अपनी रिपोर्ट में सांसदों को घूस दिए जाने को झूठा बताया। यह विषय दिल्ली पुलिस के पास जांच के लिए आया, किंतु पिछले तीन साल से इस दिशा में कुछ नहीं किया गया। हाल में न्यायालय का चाबुक पड़ने के बाद दिल्ली पुलिस हरकत में आई, किंतु इससे सत्ता में होते हुए कांग्रेस द्वारा संवैधानिक निकायों के दुरुपयोग की पुष्टि भी हुई है। जिन लोगों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई, उन्हें ही आरोपी बना दिया गया। इस कांड का खुलासा करने में अहम भूमिका निभाने वाले सुधींद्र कुलकर्णी को भी कठघरे में खड़ा किया गया है। वोट के लिए नोट के सूत्रधार अमर सिंह तो मुखौटा मात्र हैं। इसके असली लाभार्थियों के बारे में दिल्ली पुलिस खामोश है। नोट के बदले वोट संप्रग सरकार बचाने के लिए था। फिर सरकार पापमुक्त कैसे हो गई? ऐसे तंत्र पर जनता का विश्वास कैसे रहे? अपने क्षुद्र राजनीतिक लाभों के लिए संवैधानिक निकायों के दुरुपयोग का नवीनतम उदाहरण आंध्र प्रदेश और गुजरात से है। आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी के पुत्र जगनमोहन रेड्डी ने जब से कांग्रेस से किनारा कर अलग पार्टी बनाई है, वह कांग्रेस की आंखों में चुभ रहे हैं। कांग्रेस जगनमोहन रेड्डी को कानूनी शिकंजे में कसने की फिराक में है। सीबीआइ द्वारा दर्ज एफआइआर में वाईएसआर रेड्डी और जगनमोहन रेड्डी पर बेनामी संपत्ति जमा करने और भ्रष्टाचार में लिप्त होने का आरोप लगाया है। यदि कांग्रेस भ्रष्टाचार उन्मूलन के प्रति इतनी गंभीर है तो उसने दूसरी बार जनादेश मिलने के बाद वाईएसआर रेड्डी को मुख्यमंत्री क्यों बनाया? इसके विपरीत हमारे सामने देश के सबसे बड़े कर चोर हसन अली का उदाहरण है। वषरें पूर्व आयकर और प्रवर्तन निदेशालय को हसन अली के कारनामों की भनक लग चुकी थी, किंतु राजनीतिक आकाओं ने उसका बाल भी बांका नहीं होने दिया। भाजपा शासित गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति कांग्रेसी अधिनायकवाद का ज्वलंत उदाहरण है। गुजरात की राज्यपाल कमला बेनीवाल ने विगत 25 अगस्त को राज्य सरकार की अनदेखी करते हुए सेवानिवृत्त न्यायाधीश आरए मेहता को गुजरात का लोकायुक्त नियुक्त कर दिया। गुजरात लोकायुक्त अधिनियम, 1986 के अनुसार लोकायुक्त की नियुक्ति से पहले गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और नेता प्रतिपक्ष से मंत्रणा के बाद सरकार मंत्रिमंडल से प्रस्तावित लोकायुक्त का नाम राज्यपाल के पास अनुमोदन के लिए भेजती है। बेनीवाल ने इस पूरी प्रक्रिया की अनदेखी की है। गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति सन 2006 से ही लटकी हुई है। सरकार ने तब सेवानिवृत्त न्यायाधीश क्षितिज आर व्यास को लोकायुक्त के लिए नामित किया था। इस पर आपत्ति करते हुए कांग्रेस ने बैठक का बहिष्कार किया था। बाद में स्वयं कांग्रेस शासित महाराष्ट्र में व्यास को महाराष्ट्र मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। स्पष्ट है कि व्यास से कांग्रेस का कोई वैचारिक मतभेद नहीं था। वह इसे राजनीतिक दृष्टि से देख रही थी। कांग्रेस जनतांत्रिक पार्टी होने का दावा तो करती है, किंतु उसका आचरण अधिनायकवादी और लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है। अन्ना हजारे के अनशन के दौरान कांग्रेस का निकृष्ट चेहरा जनता के सामने उजागर हुआ। पी। चिदंबरम, कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद, वीरप्पा मोइली, मनीष तिवारी जैसे वकीलों की टीम भारी पड़ रही है, जो जनतांत्रिक व राजनीतिक समस्याओं को केवल कानूनी चाबुक से सुलझाना चाहते हैं। सरकार और अन्ना के बीच कायम गतिरोध तोड़ने के लिए प्रधानमंत्री द्वारा अन्ना हजारे को दिए गए आश्वासन के बाद सरकार का पलटना और उसके बाद संसद में कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी के भाषण के बाद स्पष्ट हो गया था कि एक सशक्त लोकपाल बिल लाने के लिए सरकार गंभीर नहीं है और वह मामले को लटकाने की फिराक में है। जनाक्रोश जब संसद की देहरी तक जा पहुंचा तो सरकार अपना हठ त्याग कर जनलोकपाल बिल पर चर्चा कराने को तैयार हुई, किंतु वह इस पर मतदान कराने को राजी नहीं हुई। लोकपाल बिल पिछले 42 सालों से लंबित है और इसे संसद में विचार के लिए नौ बार पेश किया जा चुका है। राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में यह अब तक अधर में लटका हुआ था। पिछले कुछ समय से बड़े-बड़े घोटालों के प्रति सरकार की उदासीनता और सत्ता के शिखर स्तर पर तटस्थता के भाव से जनता ऊब चुकी थी। सार्वजनिक धन की लूट पर सीएजी और पीएसी की रिपोर्ट को सरकार ने मानने से इंकार किया। घोटालों का खुलासा करने वाले मीडिया को उसकी कथित अति सक्रियता के लिए लताड़ा गया। विदेशों में जमा काले धन की वापसी को लेकर आंदोलन करने वाले स्वामी रामदेव का पुलिसिया जुल्म के बल पर दमन किया गया। अन्ना हजारे की गिरफ्तारी के बाद जनता का सब्र टूट गया। हद तो तब हो गई, जब संसद में खड़े होकर प्रधानमंत्री ने इन आंदोलनों के पीछे विदेशी तत्वों का हाथ साबित करने की कोशिश की। गत शनिवार को संसद के विशेष सत्र में सर्वानुमति से पारित प्रस्ताव और उसके परिणामस्वरूप अन्ना के 12 दिन पुराने अनशन का टूटना वास्तव में देश को भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था और सुशासन देने की परिणति के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। उपरोक्त घटनाओं से सिद्ध होता है कि सत्ता अधिष्ठान का बदला रवैया उसके हृदय परिवर्तन का नहीं, बल्कि एक रणनीति का हिस्सा था। यह तो संघर्ष का आरंभ है, अंत नहीं। स्वच्छ भारत के लिए वास्तविक समर तो अभी शेष है। (लेखक भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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निम्नतम स्तर की राजनीति

यह जितना आपत्तिजनक है उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण कि राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी देने का समय जैसे-जैसे नजदीक आता जा रहा है वैसे-वैसे राजनीतिक संकीर्णता का प्रदर्शन तेज हो रहा है। अभी तक तो कुछ स्थानीय संगठन ही राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी देने का विरोध कर रहे थे, लेकिन अब डीएमके प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि भी ऐसे संगठनों के साथ खड़े हो गए हैं। उन्होंने केंद्र सरकार से जिस तरह यह अपील की कि यदि इन हत्यारों को छोड़ दिया जाए तो तमिल लोग खुश होंगे उससे यही स्पष्ट होता है कि वह राज्य के लोगों की भावनाएं भड़काने की कोशिश कर रहे हैं। यह निकृष्ट किस्म का क्षेत्रवाद है। इससे विधि के शासन का निरादर तो होता ही है, क्षेत्रीय संकीर्णता को भी बल मिलता है। यह शर्मनाक है कि राजीव गांधी के हत्यारों को तमिलवाद का प्रतीक बनाने की कोशिश हो रही है। इसका हर स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए। हालांकि मुख्यमंत्री जयललिता ने दो टूक कहा है कि उनके पास राष्ट्रपति के उस आदेश को बदलने की कोई शक्ति नहीं है जिसके तहत राजीव गांधी के हत्यारों-मुरुगन, पेरारिवलन और संतन की दया याचिकाएं खारिज कर दी गई हैं, लेकिन यह शुभ संकेत नहीं कि राज्य सरकार का सहयोगी दल डीएमडीके भी करुणानिधि की तरह भाषा बोल रहा है। एक अन्य दल पीएमके भी यह प्रचारित करने में लगा हुआ है कि अगर मुख्यमंत्री में इच्छाशक्ति है तो तीन लोगों की जान बचाई जा सकती है। यह और कुछ नहीं बेहद खतरनाक किस्म की देशविरोधी राजनीति है। यह राजनीति का निम्नतम स्तर है कि अब दुर्दात हत्यारों का बचाव किया जा रहा है। इस तरह की राजनीति यही बताती है कि राजनीतिक दलों को न तो राष्ट्रीय हितों की परवाह है और न ही संवैधानिक मूल्यों और मान्यताओं की। यह चिंताजनक है कि फांसी की सजा पाए हत्यारों का बचाव अब क्षेत्र और मजहब के आधार पर किया जा रहा है। यदि इस तरह की राजनीति को तनिक भी महत्व दिया जाएगा तो किसी भी अपराधी को फांसी देना संभव नहीं होगा। इस संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कुछ समय पहले पंजाब के आतंकवादी को फांसी की सजा दिए जाने का विरोध उसके पंजाबी होने के आधार पर किया गया। इसकी पहल कुछ राजनीतिक और गैर-राजनीतिक संगठनों के साथ-साथ खुद राज्य सरकार ने भी की। इसके पहले संसद पर हमले के दोषी पाए गए कश्मीर के आतंकी अफजल को फांसी की सजा न देने की दलील इस आधार पर दी गई कि ऐसा करने से राज्य के हालात खराब हो सकते हैं। यह दलील किसी और ने नहीं, कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता की ओर से दी गई और फिर धीरे-धीरे अन्य अनेक राजनीतिक दल भी इसी राह पर चल पड़े। जब राष्ट्रीय हितों की दुहाई देने और देश को दिशा देने वाले राजनीतिक दल इस तरह की क्षुद्रता दिखाते हैं तो वह एक तरह से समाज को भी संकीर्णता का पाठ पढ़ाने का काम करते हैं। फांसी की सजा पाए अपराधियों के मामले में यह ओछी राजनीति तत्काल प्रभाव से बंद होनी चाहिए। नि:संदेह ऐसा तब होगा जब केंद्र सरकार फांसी की सजा पाए अपराधियों के मामले में अपने ढुलमुल रवैये का परित्याग करेगी। राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी की सजा का मामला और तूल पकड़े, इससे पहले केंद्र सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए।
साभार:-दैनिक जागरण
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बड़े संघर्ष की शुरुआत

अन्ना हजारे के आंदोलन पर शशांक द्विवेदी की टिप्पणी

इतिहास अपने आपको फिर से दोहरा रहा है। फिर से सत्य और अहिंसा के एक पुजारी अन्ना हजारे ने पूरे तंत्र को हिला दिया है। जनलोकपाल बिल के आंदोलन से हम सभी की उम्मीदें बढ़ी हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई आसन नहीं है। देश में फैला भ्रष्टाचार आसानी से खत्म होने वाला नहीं है। जनलोकपाल बिल बड़े स्तर पर इसे कम करने में सहायक जरूर हो सकता है पर भ्रष्टाचार से निजात पाने के लिए हम सबको जागरूक होना पड़ेगा। हमें एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए की अगर हम समाधान का हिस्सा नहीं हैं तो हम ही समस्या हैं। अन्ना के आंदोलन को समर्थन देने के लिए हमें अपनी कथनी और करनी एक करनी होगी, शुद्ध आचार, शुद्ध विचार रखने होंगे। तभी हम मै अन्ना हूं का नारा बुलंद कर सकेंगे क्योंकि अन्ना सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचार है। अन्ना हजारे ने अपना अनशन तोड़ते समय कहा कि सिर्फ मै अन्ना हूं की टोपी लगाने, टीशर्ट पहनने से कुछ नहीं होगा। परिवर्तन लाने के लिए हमें अपने आप को बदलना होगा तथा खुद भी भ्रष्टाचार से दूर रहना होगा। तभी हम एक नए भारत का निर्माण कर सकते हैं। देशवासियों को यह ध्यान रखना होगा की मैं अन्ना हूं का अपमान न होने पाए। देश में जो माहौल बना है उसे कायम रखने के लिए हमें और भी ज्यादा जिम्मेदार बनना होगा। तभी भ्रष्टाचार मुक्त भारत का हमारा सपना साकार होगा। जनलोकपाल पर जिस तरह से देश की जनता घरों से निकल कर सड़कों पर आ गई, उससे लगता है कि अब जनता जाग रही है और परिवर्तन चाहती है। इस भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ लोग एक बेदाग नेतृत्व चाहते थे, जो उन्हें अन्ना हजारे के रूप में मिला। सरकार ने जितना इस आंदोलन को दबाने की कोशिश की यह उतना ही बढ़ता गया। मनीष तिवारी, कपिल सिब्बल जैसे लोगो ने अन्ना पर जितना कीचड़ उछाला, देश के लोगों का अन्ना पर विश्वास उतना ही बढ़ता गया। इस भ्रष्ट तंत्र की वजह से पिछले 44 सालों से लोकपाल बिल संसद में अटका पड़ा है पर किसी सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। देश में लगातार घोटाले होते रहे और हमारी संसद मौन रही। कभी इस पर मजबूत कानून बनाने की नहीं सोची। अब जब देश की जनता जाग गई है तो फिर भी नेतागण इस पर राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे हैं। अभी भी ये लोग इसे आसानी से कानून नहीं बनने देंगे। जनलोकपाल बिल पर प्रस्ताव पारित होना अहम कदम है, लेकिन बिल कब तक पारित होगा, कहना मुश्किल है। संसद में पारित प्रस्ताव को लोकपाल पर बनी स्थायी समिति के पास भेजा जाएगा। समिति उपयुक्त संशोधन और सुझाव के साथ हरी झंडी देगी। फिर इसे संसद के पटल पर रखकर बहुमत से पारित करवाना होगा। शायद इसीलिए अन्ना ने कहा कि यह आधी जीत है, पूरी जीत बाकी है। आजादी के बाद पहली बार एसा हुआ है जब लोग इतने बड़े पैमाने पर एकजुट हुए हैं और सरकार को जनता के सामने झुकना पड़ा है। इसलिए अब हमें अपनी एकजुटता को बनाए रखना है। इन नेताओं के मंसूबों को पूरा नहीं होने देना है और सड़क से संसद तक संघर्ष करना पड़े तो वह भी करना है। मैं आजादी के आंदोलन के दौरान तो नहीं था पर मैंने देश में, युवाओं में राष्ट्रीयता की इतनी भावना कभी नहीं देखी, इतने तिरंगे कभी सड़कों पर नहीं देखे, देश के प्रति इतना सम्मान, जोश, नेताओं के प्रति गुस्सा कभी नहीं देखा। वास्तव में ये लोग किसी पार्टी के नहीं थे। ये तो आम आदमी थे जिनमें गुस्सा था इस भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ। यह तो एक बड़े संघर्ष की शुरुआत भर है क्योंकि अभी जनलोकपाल को पारित करने के लिए बड़ी लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी। राजनेता इसे आसानी से पास होने नहीं देंगे। अभी बिल स्थायी कमेटी में जाएगा, जिसके सदस्य लालू यादव, अमर सिंह जैसे लोग हैं। इस आंदोलन से एक बात और साफ हो गई है कि गांधीजी की विचारधारा आज भी प्रासंगिक है। अहिंसा से बड़ा कोई हथियार नहीं हो सकता। इस आंदोलन में पूरे देश में कहीं कोई हिंसा नहीं हुई। यह हमारे समाज की, जनता की सबसे बड़ी जीत है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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सतह पर राजनीति की विकृति

आपातकाल के दौरान भारत के नागरिक केवल इंदिरा गांधी के 20 सूत्रीय कार्यक्रम से ही प्रताडि़त नहीं हुए। उन्हें अतिरिक्त प्रताड़ना युवा नेता संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रम से भी मिली। संजय गांधी का एक मंत्र था-ज्यादा काम, बातें कम। मुझे याद है उन दिनों दिल्ली के कनॉट प्लेस में एक होर्डिंग पर लिखा था-नेता सही है, भविष्य उ”वल है। संजय के विचारों की गहराई में कुछ राष्ट्रविरोधियों और अफवाहों के सौदागरों ने अपनी कलम से यह भी जोड़ दिया था-बातें कम करें और समझदारी की करें। इतिहास का एक अध्याय तब कहीं गुम हो गया जब समकालीन युवा प्रेरणा ने कहा कि मैं पहले सोचता हूं, फिर बोलता हूं। कांग्रेस के युवराज से पूछा गया था कि उन्होंने इतने लंबे समय तक अन्ना प्रकरण पर चुप्पी क्यों साधे रखी? लोकतांत्रिक भारत के प्रत्यक्ष कांग्रेसी उत्तराधिकारी ने अपनी गुमनामी से ध्यान हटाते हुए लोकसभा के जीरो ऑवर में मेरा यह स्वप्न है जैसा भाषण देकर बड़ी राहत महसूस की होगी। इससे पता चलता है कि कुछ कमियों के बावजूद अन्ना हजारे के आंदोलन ने राजनीतिक दर्जे को खतरे में डाल दिया है और बाबा ब्रिगेड के हेड ब्वॉय को प्रतिक्रिया देने को बाध्य कर दिया, किंतु इससे कांग्रेस की वंशज परंपरा के लाभार्थियों के माथे पर ही बल नहीं पड़े, शरद यादव को भी लोकसभा में अपनी हाजिरजवाबी के लिए मजबूर होना पड़ा, जब उन्होंने देश से बाईस्कोप डब्बे के मोहपाश से निकलने की अपील की। न्यूज चैनलों के बारे में उनकी टिप्पणी भरपूर मनोरंजन से भी आगे निकल गई। जनता दल (यू) नेता, जो पूर्व में आंदोलनों में भाग ले चुके हैं और अब छोटे दिखने वाले समाजवादी आंदोलन के पुरोधा रह चुके हैं, इस बात पर खफा थे कि अन्ना का आंदोलन बिल्कुल अलग मुहावरे पर चल रहा है। जैसे वह सवाल उठा रहे हों कि परंपरागत छात्र राजनीति को नकारते हुए नौजवान रामलीला मैदान की ओर क्यों खिंचे चले जा रहे हैं? वे एनएसयूआइ, एबीवीपी, एसएफआइ या इसी प्रकार के अन्य छात्र संगठनों से क्यों नहीं जुड़ रहे हैं? वे विशुद्ध गैरराजनीतिक अन्ना से क्यों जुड़ाव महसूस कर रहे हैं? अन्ना आंदोलन जनलोकपाल बिल की मांग से आगे जाकर विद्यमान राजनीति और राजनेताओं के नकार पर मुहर लगाता है। इससे भारत के सांसद गुस्से में हैं। गुस्सा वाजिब है। अगर भारत की बेहतरी की चिंता करने वाले लोग गैरसरकारी संगठनों, खंडित जन आंदोलन में सुकून पाते हैं तो चुनावी राजनीति विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के बच्चों के लिए खत्म हो जाएगी और वे अपनी जाति और पंथ का लाभ नहीं उठा पाएंगे। हर व्यवस्था को पुनर्जीवन के लिए नया खून चाहिए। अतीत में, यह आंदोलन की राजनीति से मिल जाता था। इंदिरा गांधी की सिंडिकेट के खिलाफ लड़ाई, जयप्रकाश नारायण आंदोलन, राम आंदोलन, अनेक छात्र प्रदर्शन ऐसे ही आंदोलन हैं। इसके अलावा, विचारधारा की बौद्धिक अपील से पार्टियों को जिंदा रखा जाता था। यहां तक कि आपातकाल के दौरान संजय गांधी की अतिसक्रियता ने भी कार्यकर्ताओं की नई पीढ़ी पैदा की, जिनमें से बहुत से कांग्रेस में महत्वपूर्ण पदों पर हैं। जब नि:स्वार्थी लोगों का टोटा पड़ गया तो राजनीतिक आंदोलन भी सूख गए। समाजवादी आंदोलन इसका नमूना है। इस समस्या का सबसे अधिक राहुल गांधी सामना कर रहे हैं। राहुल का रवैया इस तथ्य से समझा जा सकता है कि कांग्रेस, गांधी वंश के दिल्ली पर नियंत्रण को दैवीय अधिकार मानती है, गांधी वंश की राष्ट्रीय परंपरा के पूरक के तौर पर प्रांतीय वंश परंपरा को आगे बढ़ा रही है। दो-तीन अपवादों को छोड़ दें तो कांग्रेस के सभी युवा सांसद राजनेताओं के बेटे-बेटियां हैं। इनमें से लगभग सभी के पास देश और इसके भविष्य के बारे में कहने को कुछ नहीं है। उनके लिए राजनीति अधिकार का एक जरिया है। अगर कांग्रेस की बंद दुकान की छवि बन गई है तो भाजपा की छवि भी इससे बहुत अलग नहीं है। भगवा पार्टी में वंश परंपरा तो इतना बड़ा मुद्दा नहीं है, किंतु आरएसएस से बाहर का जो भी व्यक्ति इसमें प्रवेश करता है देर-सबेर उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। जिस तरह कांग्रेस में वंशों के सदस्य प्रमुखता पाते हैं, उसी तरह भाजपा में आरएसएस के छुटभैये भी महत्वपूर्ण भूमिका में आ जाते हैं। इस प्रकार आरएसएस की सदस्यता विशिष्ट सदस्यता बन गई है, जो सामान्य को विशुद्ध से अलग करती है। इसे हिंदू लेनिनवाद भी कहा जा सकता है। अन्ना आंदोलन ने प्रमुख राजनीतिक दलों से देश के युवा व मध्यम वर्ग के मोहभंग को उजागर किया है। देश की एक-तिहाई आबादी या तो मध्यम वर्गीय है या फिर इसमें पहुंचने को लालायित है। अन्ना आंदोलन को इसलिए इतना जनसमर्थन मिला है, क्योंकि यह व्यापक धारणा बनी है कि राजनीतिक तुच्छता के कारण भारत की पूरी क्षमता का दोहन नहीं हो रहा है और भारत को कुशल और ईमानदार सरकार की जरूरत है। भारत की त्रासदी यह है कि इन दोनों पार्टियों में विकृतियां हैं, जो विशेषाधिकार प्राप्त को पुरस्कृत करती हैं और अवसरों को ठुकराती हैं। मेरे विचार में यह भी भ्रष्टाचार का एक प्रकार है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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तंत्र के मन में जन का खौफ पैदा हुआ

जनलोकपाल आंदोलन के असर के संदर्भ में जागरण के सवालों के जवाब दे रहे हैं टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल
अन्ना हजारे का अनशन समाप्त हो गया है, लेकिन आंदोलन अभी जारी है। अन्ना हजारे के बेहद करीबी व सिविल सोसाइटी के सदस्य अरविंद केजरीवाल जनलोकपाल विधेयक के लिए हो रहे आंदोलन को लोकतंत्र में मील का पत्थर मानते हैं। उनका मानना है कि इससे तंत्र के मन में जन का खौफ पैदा होगा। विशेष संवादताता मुकेश केजरीवाल के साथ उन्होंने आंदोलन व उसके भविष्य से जुड़े सवालों पर खुल कर बात की। प्रस्तुत हैं चर्चा के प्रमुख अंश- आंदोलन का देश के राजनीतिक विमर्श पर क्या असर पड़ता देख रहे हैं? अन्ना का यह आंदोलन जनतंत्र की जड़ों को बेहद गहरा करेगा। यह पहला मौका है, जब किसी कानून पर इतने व्यापक स्तर पर चर्चा हुई है। जन-जन के बीच से इसकी मांग उठी है। यह आंदोलन भले ही एक बिल की मांग को लेकर था, लेकिन आप देख सकते हैं कि इसने देश के करोड़ों लोगों को भ्रष्टाचार को सीधी चुनौती देने की ताकत दे दी है। तंत्र के मन में जन का खौफ पैदा किया है। इसने यह भी दिखाया है कि हमारी मौजूदा व्यवस्था में गंभीर खामियां हैं। सिर्फ पांच साल में एक बार आपने वोट डाल दिया और जिम्मेदारी खत्म। यह ठीक नहीं। सतत भागीदारी चाहिए। संसद सिर्फ चुनाव में ही जनता की क्यों सुनेगी? हर कानून बनने से पहले क्यों नहीं गांवों की ग्राम सभा और शहरों की मोहल्ला सभा से सलाह ली जाए। जनता को डेली बेसिस पर शामिल किया जाना चाहिए। अनशन पर बैठे अन्ना को अपने उद्देश्य में कहां तक कामयाब माना जा सकता है? आंदोलन ने सिर्फ एक और चरण पूरा किया है। पहला चरण था पांच अप्रैल का अनशन। दूसरा चरण था साझा मसौदा समिति। तीसरा चरण रामलीला मैदान पहुंचना। अब चौथा चरण पूरा हुआ संसद में प्रस्ताव पारित होने से। आगे किस तरह चलेगा आंदोलन? अन्ना ने साफ कर दिया है कि जन लोकपाल बिल पारित होने तक यह आंदोलन चलता रहेगा। हमारी कोर कमेटी की बैठक होगी और आगे की रूप-रेखा तय की जाएगी। अन्ना ने यह भी साफ कर दिया है कि यह आंदोलन सिर्फ जनलोकपाल तक सीमित नहीं रहने वाला। इसके अलावा हम चुनाव सुधार, न्यायिक सुधार और सत्ता के विकेंद्रीकरण पर भी लड़ेंगे। इन मुद्दों को लेकर हम जनता के बीच बने रहेंगे। विरोधियों का कहना है कि आप जनतंत्र को भीड़तंत्र में तब्दील कर रहे थे? जनता अगर इकट्ठी होकर किसी भावना की अभिव्यक्ति करे तो उसे भीड़तंत्र कहना कहां तक उचित है? क्या जनतंत्र का मतलब ही जनता की अधिकतम सहभागिता नहीं? क्या यह जनता शांतिपूर्ण और कानूनसम्मत तरीके से लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए अपनी आवाज नहीं रख सकती? सरकार तो कह रही थी कि आप कनपटी पर अनशन की बंदूक सटाकर बिल पास करवाना चाहते हैं? अनशन का फैसला अन्ना ने कोई शौक से नहीं किया था। 74 साल के एक बुजुर्ग को इसके लिए मजबूर होना पड़ा। 42 साल से तो जनता इस तंत्र से उम्मीद लगाए बैठी ही थी कि वह खुद कुछ करे। कम से कम दस महीने से अन्ना ने अनेक बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिख-लिख कर मांग की। मगर सरकार ने जैसे आंख, कान बंद कर लिए थे। भ्रष्टाचारियों को यह देश कब तक खुली लूट की छूट देता रहेगा? लेकिन कानून बनाने का काम तो संसद को दिया गया है? ऐसा कहने वालों को अपनी सोच और उसकी दिशा के बारे में फिर से विचार करना चाहिए। क्या कानून बनाने का काम सिर्फ कुछ मुट्ठी भर लोगों के हाथ में सीमित रखना असली लोकतंत्र है? हम कहते हैं कि असली लोकतंत्र तो वह है जिसमें कानून बनाने से पहले उस पर चर्चा हर गली-मोहल्ले में हो। जैसा जनता चाहे, वही कानून बने। लेकिन हो क्या रहा है, राय लेना तो दूर, वे उनकी भावनाओं के बारे में सोचते भी नहीं, बल्कि पार्टी हाईकमान के इशारे पर नाचते हैं। इसका ताजा उदाहरण है जब वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने लोकपाल साझा मसौदा समिति के अध्यक्ष के नाते राज्यों के मुख्यमंत्रियों से छह मुद्दों पर राय मांगी थी। हमें यह देखकर शर्म आ रही थी कि कांग्रेस शासित राज्यों ने बाकायदा पत्र लिखकर कहा कि जैसा पार्टी हाईकमान कहेगा, वही करेंगे। यहां तक कि कुछ माननीय मुख्यमंत्रियों ने तो सीधा यही लिखा कि हम पार्टी हाईकमान की राय से अलग सोच भी कैसे सकते हैं। क्या मुख्यमंत्रियों का फर्ज सिर्फ उस पार्टी हाईकमान के प्रति ही है। अपने राज्य की जनता के प्रति नहीं। आपने एक मसौदा रखा और कहा कि एकमात्र यही रास्ता है॥? हम सब जनता का यह हक है कि हम अपने मुताबिक सरकार को चलाने के लिए दबाव बनाएं। हमने कभी नहीं कहा कि हमारे मसौदे में कोई बदलाव नहीं हो सकता। हमने जगह-जगह और तरह-तरह से जनता की राय ली। दस बार हमने अपने प्रारूप बदले। फिर भी अप्रैल में जब अनशन किया था तो यही शर्त थी कि बैठकर मसौदे पर चर्चा करें, मगर सरकार की नीयत ठीक नहीं रही। सात बैठकों तक छोटे मसलों पर बात करते रहे। फिर एकाएक मेज उछाल दी। कहा, बैठक खत्म। सार्वजनिक तौर पर बहस कर लें। क्या यह सही है कि आपका आंदोलन नेताओं के खिलाफ है? आंदोलन के दौरान बहुत से लोग बहुत तरह की बातें बोलते हैं। हो सकता है कि एक-दो लोगों ने राजनेताओं और राजनीतिक दलों के बारे में ऐसी टिप्पणी की हो, लेकिन आंदोलन के नेतृत्व ने कभी ऐसा नहीं कहा कि सभी नेता बेईमान हैं। आंदोलन के दौरान नेतृत्व कर रही कोर कमेटी में सार्वजनिक तौर पर मतभेद दिखे। ऐसा लग रहा था कि आप सबसे हार्डलाइनर हैं? यह कुछ जड़ या स्थिर विचार वाले लोगों का समूह नहीं है। जब भी हमने बैठक की, मिलकर आम राय से फैसले किए। आंदोलन के दौरान हर वक्त कुछ नया और अहम हो रहा था, तो संभव है कि किसी नई परिस्थिति पर अलग-अलग विचार हो। न तो किसी के बोलने पर रोक थी, न ही एक जैसा बोलने का कोई आग्रह। आपके विरोधी कहते हैं, आपने अन्ना का इस्तेमाल किया..? (ठहाका लगाते हुए) अन्ना तो देश भर के हैं। जो चाहे देशहित में उनका लाभ ले ले। आपकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं तो होंगी ही? हम सब राजनीति में तो हैं ही। यह पूरा आंदोलन राजनीतिक है। हां, दलगत राजनीति का कोई इरादा कतई नहीं है। न ही कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा है।
साभार:-दैनिक जागरण
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आधी जीत के बाद

लोकपाल संबंधी तीन प्रमुख मुद्दों पर संसद की सहमति को आधी जीत बताने वाले अन्ना हजारे ने अपना अनशन तोड़ने के बाद गांवों और किसानों, शिक्षा एवं पर्यावरण के साथ चुनाव प्रक्रिया से जुड़े सवालों का समाधान करने की जो बात कही उससे असहमति जताने का कोई मतलब नहीं। एक ओर जहां भ्रष्टाचार पर प्रभावी ढंग से अंकुश लगाने के लिए अन्य अनेक उपायों के साथ चुनाव सुधार अनिवार्य हो गए हैं वहीं दूसरी ओर देश के समग्र एवं संतुलित विकास के लिए यह अनिवार्य हो गया है कि कृषि, किसान एवं जमीन से जुड़े मामलों को अविलंब सुलझाने की कोई ठोस पहल की जाए। यह इसलिए और आवश्यक है, क्योंकि भले ही भारत एक कृषि प्रधान देश हो, लेकिन सच्चाई यह है कि कृषि से जुड़े मसले ही सर्वाधिक उपेक्षित हैं। इसके अतिरिक्त यह भी एक सच्चाई है कि अन्ना हजारे के आंदोलन ने मुख्य रूप से शहरी भारत में ही चेतना जागृत की है। जितनी जरूरत ग्रामीण भारत में चेतना जागृत करने की है उतनी ही उसकी समस्याओं का समाधान करने की भी है। चूंकि तमाम उपायों के बावजूद कृषि की स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हो पा रहा है इसलिए ग्रामीण भारत शहरी भारत से कदमताल नहीं कर पा रहा है। हमारी राजनीति इस सबसे अच्छी तरह परिचित है, लेकिन वह बुनियादी बदलाव लाने वाले कोई कदम नहीं उठा पा रही है। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि एक अदद भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन में अनावश्यक देरी हो रही है। जब राजनीतिक दल किसानों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गए मुद्दे को नहीं सुलझा पा रहे हैं तब फिर यह अपेक्षा कैसे की जाए कि गांवों और किसानों के मुद्दे उनकी प्राथमिकता में हैं? अन्ना हजारे ने संकेत दिया है कि वह भ्रष्टाचार समेत अन्य अनेक समस्याओं का समाधान करने के लिए फिर से अनशन-आंदोलन कर सकते हैं। क्या राजनीतिक दल यह सुनिश्चित करेंगे कि उन्हें ऐसा करने की जरूरत न पड़े? राजनीतिक दलों को यह अहसास हो जाना चाहिए कि अन्ना हजारे के आंदोलन ने उनकी पोल खोलकर रख दी है। अन्ना हजारे के आंदोलन के तौर-तरीकों से तर्कपूर्ण असहमति दर्शाने के बावजूद वे इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते कि राजनीति आम जनता के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर सकी। इस आंदोलन ने यह अच्छी तरह साबित किया कि राजनीति को जो काम करने चाहिए थे वे उसने चेताए जाने के बावजूद नहीं किए। कम से कम अब तो राजनीतिक दलों को अन्ना हजारे और साथ ही आम जनता के आंदोलन से उपजे संदेश को सुन लेना चाहिए। इस आंदोलन के जरिए जनता ने न केवल अपनी ताकत पहचान ली है, बल्कि वह अपने अधिकारों के प्रति भी जागरूक हो गई है। ऐसे में यह समय की मांग है कि ऐसी परिस्थितियां न पैदा होने दी जाएं कि जनता को सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर होना पड़े। अन्ना हजारे का अनशन टूटने की घोषणा के साथ देश में जनतंत्र की जीत का जो उत्सव मनाया जा रहा है उसके उल्लास की अनदेखी किसी को भी नहीं करनी चाहिए और कम से कम राजनीतिक नेतृत्व को तो बिल्कुल भी नहीं।
साभार:-दैनिक जागरण
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सही दिशा में सिर्फ एक कदम

लोकपाल पर सहमति बनने के साथ चुनावी भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी पहल को जरूरी मान रहे हैं संजय गुप्त

यह सचमुच ऐतिहासिक है कि संसद में आम जनता की आकांक्षा और विशेष रूप से अन्ना हजारे के आग्रह पर लोकपाल के कुछ अहम बिंदुओं पर चर्चा हुई और उन पर सत्तापक्ष और विपक्ष ने करीब-करीब सहमति जताई। इस सहमति के अनुरूप प्रस्ताव पारित होने के बाद यह सर्वथा उचित है कि उन्होंने अनशन तोड़ने की घोषणा कर दी। संसद के दोनों सदनों में हुई चर्चा के बाद देश को यह भरोसा हुआ है कि अंतत: लोकपाल का निर्माण होगा और जैसा कि सभी मान रहे हैं कि भ्रष्टाचार पर कुछ न कुछ तो लगाम लगेगी ही। इस संदर्भ में राहुल गांधी ने यह सही कहा कि केवल लोकपाल से भ्रष्टाचार रुकने वाला नहीं है और इस संस्था को संवैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए। यह समय बताएगा कि किस तरह की लोकपाल व्यवस्था का निर्माण होगा और उससे भ्रष्टाचार पर किस हद तक अंकुश लगेगा, लेकिन लोकपाल विधेयक के प्रमुख बिंदुओं पर बहस के दौरान संसद के दोनों सदनों में भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के जिन अन्य अनेक उपायों पर चर्चा हुई वे केवल चर्चा तक ही सीमित नहीं रहने चाहिए। यदि राजनीतिक दल भ्रष्टाचार पर वास्तव में अंकुश लगाना चाहते हैं तो उन्हें उसके मूल कारणों की तह तक जाकर उनका निदान करना होगा। राजनीतिक दलों को भ्रष्टाचार के मूल कारणों का संज्ञान अच्छी तरह होना चाहिए, क्योंकि राजनीति के तौर-तरीकों ने ही भ्रष्टाचार को व्यापक बनाने और उस पर अंकुश न लगने देने का काम किया है। दरअसल यह राजनीति है जो भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्रोत और साथ ही संरक्षक बन गई है। राजनीति के तौर-तरीकों और विशेष रूप से चुनावी राजनीति ने भ्रष्टाचार को व्यापक रूप प्रदान किया है। जिस तरह संसद ने यह महसूस किया कि आम जनता का भरोसा बनाए रखने के लिए लोकपाल व्यवस्था का निर्माण करना जरूरी हो गया है उसी तरह उसे यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि राजनीतिक और चुनावी सुधारों का भी समय आ चुका है। यह ठीक नहीं कि न केवल राजनीतिक सुधार अटके पड़े हुए हैं, बल्कि चुनावी सुधारों की भी अनदेखी की जा रही है। चुनाव तंत्र में धनबल की भूमिका इतनी बढ़ गई है कि लोकतंत्र के लिए खतरा बढ़ता जा रहा है। आज सभी नेता यह भली-भांति जानते हैं कि चुनाव चाहे वह लोकसभा का हो या विधानसभा का या अन्य किसी निकाय का, वह धनबल के बिना जीतना लगभग नामुमकिन है। चुनावों में धन का इस्तेमाल बेरोकटोक बढ़ता जा रहा है। हाल में तमिलनाडु विधानसभा चुनावों के दौरान सारे देश ने जाना कि किस तरह बोरियों में रुपये ले जाए जा रहे थे। चुनाव आयोग धनबल की भूमिका से परिचित है और वह उस पर रोक लगाने की कोशिश भी करता है, लेकिन मौजूदा स्थितियों में वह एक सीमा तक ही कार्रवाई करने में सक्षम है। चुनाव आयोग यह अच्छी तरह जान रहा है कि प्रत्याशी चुनाव खर्च सीमा से अधिक धन खर्च करते हैं और गलत शपथ पत्र भी देते हैं, लेकिन वह ऐसे लोगों का चुनाव रद्द करने में समर्थ नहीं। नियमानुसार तय सीमा से अधिक खर्च करने वालों का चुनाव रद्द होना चाहिए। यदि ऐसा होने लगे तो देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को चलाना मुश्किल होगा। स्पष्ट है कि चुनावी भ्रष्टाचार लोकतंत्र को चुनौती दे रहा है। अगर भ्रष्टाचार के इतिहास को देखा जाए तो वह आजादी के बाद ही चुनाव प्रक्रिया में घर कर गया था। पहले चुनावों में धन के अवैध इस्तेमाल की एक सीमा थी, लेकिन आज राजनीतिक दलों को चुनाव जीतने के लिए अरबों रुपये की जरूरत पड़ती है। यह धन कैसे एकत्रित होता है, यह अब किसी से छिपा नहीं है। जब राजनेता चुनाव जीतने के लिए अवैध रूप से धन लेते हैं तो वे भ्रष्टाचार के सारे द्वार खोल देते हैं। आज स्थिति यह है कि चुनावी राजनीति के वही तौर-तरीके पंचायतों और स्थानीय निकायों के चुनाव में आजमाए जा रहे हैं जो लोकसभा और विधानसभा चुनाव में प्रचलित हैं। कोई भी उन पर रोक लगाने में समर्थ नहीं। स्थानीय निकायों और पंचायतों की विभिन्न योजनाओं के लिए आवंटित धन की मात्रा जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है, चुनाव जीतने के लिए छल-कपट भी बढ़ता जा रहा है। संसद इस सबसे अनजान नहीं हो सकती। उसे इस पर तो आपत्ति है कि राजनीति शब्द हेय बन रहा है, लेकिन उसे उन तौर-तरीकों पर आपत्ति क्यों नहीं जिनके चलते जनता राजनीति के प्रति अविश्वास से भर उठी है? लोकपाल के मुद्दे पर चर्चा के दौरान भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के विभिन्न तरीकों पर तो खूब चर्चा हुई, लेकिन उन मुद्दों पर सार्थक चर्चा अभी शेष है जिनके कारण देश में भ्रष्टाचार निरंकुश होता गया। इसमें दोराय नहीं कि अन्ना हजारे ने जनलोकपाल के जरिये चेतना जाग्रत की और उसके चलते पूरा देश आंदोलित हो उठा। इस आंदोलन के पीछे छिपे आक्रोश को राजनीतिक दलों ने पहचाना तो, लेकिन देर से। यह अच्छा नहीं हुआ कि अन्ना के अनशन पर बैठने और देश की जनता के सड़कों पर उतरने के बाद ही सत्तापक्ष, विपक्ष और संसद चेती। यह काम पहले ही हो जाना चाहिए था। यह भी अच्छा नहीं हुआ कि प्रारंभ में अन्ना हजारे को खारिज और लांछित करने की कोशिश की गई। इसकी भी सराहना नहीं की जा सकती कि निरर्थक आरोपों का सहारा लेकर लोकपाल के मुद्दे को कमजोर करने की कोशिश की गई। इस कोशिश से राजनीति के संवेदनहीन चरित्र की ही झलक मिली। यदि राजनीतिक दल और संसद देश की जनता की आवाज नहीं सुनेंगे तो कौन सुनेगा? क्या कोई इस पर विचार करेगा कि संसद को जनता की आवाज सुनने में इतनी देर क्यों हुई? अन्ना हजारे के अनशन के बाद उत्पन्न हुए हालात जिस तरह यकायक उलझ गए उस पर भी सत्तापक्ष और विपक्ष को चिंतन-मनन करना होगा। यही काम अन्ना हजारे और उनके साथियों एवं समर्थकों को भी करना होगा। लोकपाल के लिए अनशन-आंदोलन में कुछ भी अनुचित नहीं। आग्रह, मांग, शर्ते आंदोलन का हिस्सा हैं, लेकिन ऐसे रवैये की पक्षधरता नहीं की जा सकती कि हमारे विचार ही सही हैं और उन्हें ही अमुक तिथि तक स्वीकार कर किसी व्यवस्था का निर्माण किया जाना चाहिए। टीम अन्ना से एक भूल यह भी हुई कि वह लोकपाल लागू कराने के आग्रह के बाद अपनी तीन शर्तो तक सीमित हो गई। परिणाम यह हुआ कि आखिर में सारी बहस इन तीन शर्तो तक केंद्रित होकर रह गई। आवश्यकता इसकी थी कि सक्षम लोकपाल व्यवस्था का निर्माण होने के साथ भ्रष्टाचार के मूल कारणों का भी निवारण हो। यह राहतकारी है कि लोकपाल के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ, लेकिन यह देखना शेष है कि राजनीतिक और चुनावी भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के उपायों पर कब अमल होता है? क्या संसद यह सुनिश्चित करेगी कि इन उपायों पर अमल में उतनी देर न हो जितना लोकपाल के कुछ बिंदुओं पर आम सहमति कायम करने में हुई?
साभार:-दैनिक जागरण
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अद्भुत और ऐतिहासिक

यह ऐतिहासिक ही नहीं अद्भुत भी है कि जनता के प्रबल आग्रह पर तैयार एक प्रस्ताव पर संसद में न केवल बहस हुई, बल्कि उसे पारित भी किया गया। नि:संदेह ऐसा करने के लिए जनता का भारी दबाव था और उसके साथ एक समय सीमा भी नत्थी थी, लेकिन बावजूद इस सबके इससे संसद का मान बढ़ा और यह भी साबित हुआ कि वह जनता की आकांक्षाओं की सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था है। इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि संसद ने जनता की आवाज सुनी, लेकिन अब जब लोकपाल का हिस्सा बनने वाले तीन प्रस्तावों पर मुहर लग गई तब राजनीतिक दलों को इस पर विचार करना होगा कि ऐसी नौबत क्यों आई कि देश की जनता को अपने नए नायक अन्ना हजारे के नेतृत्व में सड़कों पर उतरना पड़ा और तमाम नेताओं के घरों को घेरने के लिए विवश होना पड़ा? विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में आम जनता को न्याय पाने के लिए इस रास्ते पर क्यों चलना पड़ा? ये वे प्रश्न हैं जिनके उत्तर सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों को देने ही होंगे? यह अन्ना हजारे का काम नहीं था कि वे जनता को भ्रष्टाचार से निजात दिलाने के लिए एक उपाय लेकर सड़कों पर उतरते, लेकिन उन्हें इसके लिए बाध्य होना पड़ा। उनकी इस बाध्यता में समस्त राजनीतिक नेतृत्व की असफलता छिपी है। क्या पक्ष-विपक्ष के नेताओं को यह अहसास हो पा रहा है कि जनता के वोट लेकर उसे उसके हाल पर छोड़ देना उसके साथ किया जाने वाला विश्वासघात है? यदि जनता को अपने छले जाने का अहसास नहीं होता तो वह इस तरह सड़कों पर क्यों उतरती-और वह भी उन अन्ना हजारे के नेतृत्व में जिन्हें कुछ महीने पहले तक महाराष्ट्र के बाहर कुछ ही लोग जानते थे। देश के नेताओं को यह समझ लेना चाहिए कि वे भाड़े की भीड़ अथवा पैसे के बल पर नेता नहीं बन सकते। असली नेता तो अन्ना हजारे हैं। संसद जिस तरह जनता के आग्रह को मानने के लिए मजबूर हुई उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है। संसद के दोनों सदनों में लोकपाल संबंधी अन्ना हजारे के तीन प्रस्तावों पर बहस के दौरान भ्रष्टाचार पर तो खूब भाषण हुए, लेकिन किसी भी नेता ने यह स्वीकार नहीं किया कि राजनीति में भ्रष्टाचार किस तरह बेरोकटोक बढ़ता जा रहा है। कोई भी नेता यह कहने का साहस नहीं जुटा सका कि आज प्रत्येक राजनीतिक दल भ्रष्ट तौर-तरीकों से संचालित हो रहा है और उसके चलते ही भ्रष्टाचार ने सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में अपनी जड़ें जमा ली हैं। राजनीति भ्रष्टाचार का न केवल एक बड़ा Fोत है, बल्कि उसकी संरक्षक भी है। यदि राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के मूल कारणों पर आत्ममंथन करने के लिए तैयार नहीं होते तो उन्हें आगे चलकर वैसे ही प्रचंड जन आंदोलन का फिर से सामना करना पड़ सकता है जैसे आंदोलन से वे दो-चार हुए और यदि ऐसा हुआ तो राजनीति पूरी तरह प्रतिष्ठाहीन हो सकती है। उन्हें सचेत हो जाना चाहिए, क्योंकि यह एक तथ्य है कि लोकपाल संस्था के गठन मात्र से भ्रष्टाचार पर पर्याप्त अंकुश नहीं लगने वाला। भ्रष्टाचार पर प्रभावी नियंत्रण के लिए राजनीति को साफ-सुथरा होना ही होगा। वह राजनीति न तो खुद का भला कर सकती है और न ही देश का जो भ्रष्ट तौर-तरीकों से संचालित हो रही हो।
साभार:-दैनिक जागरण
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भ्रष्टाचार की बुनियाद

भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए चुनाव सुधार की प्रक्रिया तेज करने की जरूरत बता रहे हैं जसवीर सिंह

जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि भ्रष्ट राजनेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों के बीच मिलीभगत है। राजनेताओं को चुनाव लड़ने के लिए पैसा चाहिए। नौकरशाही राजनेताओं के भ्रष्टाचार में उनका साथ देकर उपकृत होती है। इस पूरी कवायद में अगर किसी को खामियाजा भुगतना पड़ता है तो ईमानदार करदाता और आम आदमी। अब जेपी के समय के हालात बद से बदतर हो चुके हैं। हमारी संसद में आपराधिक मामलों के आरोपी 162 सांसदों की उपस्थिति ने अधिकांश लोगों की नजर में संसद को हॉल ऑफ शेम बना दिया है। सांसदों द्वारा दिए गए शपथपत्रों के अनुसार 15वीं लोकसभा के 76 सांसद हत्या, दुष्कर्म, डकैती, अपहरण जैसे जघन्य अपराधों में आरोपी हैं। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि कैबिनेट मंत्रियों में से नौ के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। इन लोगों पर ही देश की आंतरिक और वाह्य सुरक्षा की जिम्मेदारी है। क्या हम ऐसे राजनेताओं में भरोसा कायम कर सकते हैं जिनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और चरित्र न केवल संदेहास्पद है, बल्कि आपराधिक भी है? क्या यह हमारे संवैधानिक और लोकतांत्रिक ढांचे को प्रभावित नहीं कर रहा है? क्या लोकतंत्र को तुच्छ विघटनकारी गठबंधन राजनीति और निहित स्वार्थो की भेंट चढ़ा देना चाहिए? आज नागरिक भ्रष्टाचार से मुक्ति पाने के लिए लोकपाल के मुद्दे पर आंदोलित हैं। ऐसे में लंबे समय से चुनाव प्रक्रिया में लंबित सुधारों पर ध्यान दिया जाना चाहिए, जो सभी भ्रष्टाचारों की जननी है। भारत में निर्वाचन प्रक्रिया से नैतिक मूल्यों का लोप हो गया है। मतदाताओं के बजाय असामाजिक तत्व चुनाव का भाग्य तय करते हैं। राजनीतिक ताकत हासिल करने के लिए बाहुबल और धनबल की जरूरत पड़ती है। अगर आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग विधायिका में भेजे जाएंगे तो कुछ बेहतर की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसके लिए मुख्य रूप से राजनीतिक दल ही जिम्मेदार हैं। तुच्छ राजनीतिक लाभ के लिए वे कुख्यात अपराधियों को अपने प्रतिनिधि के तौर पर विधायिका में भेजने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। वे समाज को क्षेत्रवाद, जातिवाद, पंथवाद के मुद्दों पर विभाजित करते हैं। चुनाव सुधार की पहली आवश्यकता यह है कि चुनाव तंत्र में धनबल पर रोक लगाई जाए। उद्योगपति और अन्य धनवान लोग चुनाव में मोटा चंदा देते हैं और बाद में राजनेताओं से अपनी शर्तो पर नीतियां बनवाते हैं। राजनेताओं और राजनीतिक दलों को गैरकानूनी रूप से चंदा दिया जाता है। इस प्रकार चुनावों के माध्यम से राजनीतिक भ्रष्टाचार लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा रहा है। मात्र चेक से चंदा लेने का नियम बनाया जाना चाहिए। इसके अलावा, बेहद कम मत प्रतिशत के आधार पर चुनाव जीतने से भी लोकतंत्र का मखौल उड़ता है। 2007 में देवरिया क्षेत्र से दीनानाथ कुशवाहा मात्र 7।3 प्रतिशत वोट पाकर ही उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुन लिए गए। 13वीं संसद में 99 फीसदी सांसद ऐसे थे, जिन्हें 50 फीसदी वोट नहीं मिले थे। 10-15 फीसदी वोट हासिल कर चुनाव जीतने वालों की संख्या 7-8 प्रतिशत थी। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि कम से कम 50 प्रतिशत वोट हासिल करने वाले उम्मीदवार को ही विजेता घोषित किया जाए। देश में औसतन 50 प्रतिशत लोग ही अपने मतदान का इस्तेमाल करते हैं। प्लूटो ने कहा था-जो सरकार के गठन में भागीदारी नहीं करते वे दुष्टों द्वारा शासित किए जाएंगे। इस परंपरा को तोड़ने के लिए अनिवार्य मतदान की व्यवस्था लागू की जानी चाहिए। 2009 में लोकसभा में अनिवार्य मतदान को लेकर एक बिल पेश किया गया था। इस कदम से निश्चित तौर पर मतदाताओं की संख्या में वृद्धि होगी। इसके तहत मतदान न करने वाले पर अर्थदंड के साथ-साथ दो दिनों की जेल का भी प्रावधान होना चाहिए। इस समय विश्व में 33 देश ऐसे हैं, जहां अनिवार्य मतदान का प्रावधान है। गलत तत्वों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए। बहुत से उम्मीदवार नामांकन पत्र में अपनी शैक्षिक योग्यता, संपत्तियों और आपराधिक रिकॉर्ड के कॉलम खाली छोड़ देते हैं। रिटर्निग ऑफिसर को ऐसे नामांकन पत्रों को सख्ती से निरस्त करने के निर्देश देने की आवश्यकता है। अगर इन कॉलम को भरने के नियम का सख्ती से पालन किया जाता तो वर्तमान लोकसभा के 130 सांसदों का चुनाव न हो पाता। तमिलनाडु में हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों और आंध्र प्रदेश में उपचुनाव के दौरान भारी मात्रा में नोट पकड़े गए थे। इस रकम का इस्तेमाल मतदाताओं को घूस देने के लिए किया जाना था। इस मामले में चुनाव आयोग को दोषी उम्मीदवार का नामांकन रद करना चाहिए था, लेकिन इसने ऐसा कुछ नहीं किया और इस घटना की तरफ से आंखें मूंद लीं। मुख्य चुनाव आयुक्त का पद राजनीतिक हितसाधन की पूर्ति नहीं बनना चाहिए। जो अधिकारी सरकार की तरफदारी करते हैं उन्हें ऐसे पदों पर स्थापित कर दिया जाता है, जहां से उनके पिछले काले कारनामों का दंड मिलने से उनका बचाव हो जाता है। इस पद के लिए नियुक्ति सरकार के हाथों से बाहर होनी चाहिए। प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और मुख्य न्यायाधीश की एक कमेटी चुनाव आयुक्त की नियुक्ति कर सकती है। वोट के लिए नोट कांड में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद दिल्ली पुलिस ने तीन सांसदों के खिलाफ एफआइआर दाखिल की है। ऐसे मामलों में चुनाव आयोग को मूकदर्शन बने रहने के बजाए दोषी सांसदों व विधायकों के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। मतदाता सूची बनाने का काम भी निष्पक्ष और उचित तरीके से होना चाहिए। यह काम भारत के चुनाव आयुक्त की निगरानी में होना चाहिए। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव से पहले ही मतदाता सूची को पंचायत/वार्ड स्तर पर सार्वजनिक स्थानों पर चस्पा कर देना चाहिए और कमियों को समय से दूर करना चाहिए। भारतीय दंड संहिता के तहत दोषी व्यक्ति को ताउम्र चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर देना चाहिए। राजनेताओं के खिलाफ दर्ज मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट या विशेष अदालतों में होनी चाहिए और एक साल के भीतर इन पर अंतिम फैसला आ जाना चाहिए। जन प्रतिनिधित्व एक्ट 1951 की धारा 8 की उपधारा 4 में तत्काल संशोधन किया जाना चाहिए। राजनेताओं पर नियमित निगरानी लोकतंत्र की सफलता के लिए बेहद जरूरी है। अन्यथा जॉर्ज वाशिंगटन की उक्ति चरितार्थ हो जाएगी कि हम उन भेड़ों से अलग नहीं हैं जिन्हें काटने की तैयारी की जा रही है। (लेखक आइपीएस अधिकारी हैं और लेख में दिए गए विचार उनके निजी हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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संसद में संकीर्णता

एक कारगर और सक्षम लोकपाल के लिए 11 दिनों से अनशन पर बैठे अन्ना हजारे के तीन सूत्रीय प्रस्ताव पर संसद में बहस न होने से यह साबित हो गया कि सत्तापक्ष के साथ-साथ विपक्ष भी मूल मुद्दे से किनारा कर अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थो को पूरा करने में लगा हुआ है। सत्तापक्ष ने अन्ना हजारे के तीन मुद्दों पर संसद में चर्चा कराने के प्रति न केवल संकेत दिए, बल्कि यह आभास भी कराया कि इसमें कोई परेशानी नहीं, लेकिन जब समय आया तो लोकसभा में प्रस्ताव के बजाय राहुल गांधी प्रकट हो गए। उन्होंने अन्ना हजारे के आंदोलन और लोकपाल पर जिस तरह चुप्पी तोड़ी उससे देश का चकित होना स्वाभाविक है। राहुल गांधी ने अपने जोश भरे लिखित भाषण में यह सही कहा कि एक अकेला लोकपाल भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लगा सकता और उसके अतिरिक्त कई अन्य प्रभावकारी उपाय करने होंगे।उनके इस सुझाव की भी सराहना होना लाजिमी है कि लोकपाल चुनाव आयोग की तरह संसद के प्रति जवाबदेह संस्था बने। इसी तरह उनकी यह बात भी सही है कि किसी भी रूप में लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर नहीं होनी चाहिए, लेकिन इन नेक सुझावों के संदर्भ में अहम सवाल यह है कि आखिर वह अभी तक कहां थे? उन्हें अपने विचार व्यक्त करने में इतना समय क्यों लग गया? वह लोकपाल के संदर्भ में अपने सुझावों से अपनी ही सरकार को अवगत क्यों नहीं करा सके? क्या उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि उनकी सरकार लोकपाल विधेयक तैयार कर उसे संसद के इसी सत्र में पेश करने जा रही है? संसद में अपने वक्तव्य के बाद राहुल गांधी ने अपने विचारों को बाजी पलटने वाला बताया, लेकिन उन्हें यह अहसास होना चाहिए कि उन्होंने बाजी पलटने के साथ-साथ उस मुहिम को भी पटरी से उतारने का काम किया है जो अन्ना हजारे ने छेड़ रखी है। उन्होंने अन्ना हजारे को धन्यवाद देते हुए जिस तरह उनके लोकपाल को खारिज किया और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए जो तमाम उपाय सुझाए वे एक लंबी योजना का हिस्सा अधिक हैं। यह निराशाजनक है कि वह उस समस्या के समाधान के बारे में कुछ भी नहीं कह सके जो सरकार और संसद के सिर पर खड़ी है और जिसके चलते आम जनता राजनीतिक नेतृत्व के प्रति अविश्वास से भर उठी है। जब यह सरकार एक कानून नहीं बना पा रही तब फिर इसमें संदेह है कि वह संविधान में संशोधन करके राहुल गांधी के विचारों के अनुरूप लोकपाल संस्था का निर्माण कर सकेगी। राहुल गांधी के वक्तव्य के बाद अन्ना हजारे के प्रस्तावों पर बहस को लेकर जिस तरह विपक्ष ने आपत्ति दर्ज कराई और हंगामा मचाया उससे स्पष्ट हुआ कि वह इस बहस का श्रेय सत्तापक्ष के खाते में दर्ज होता हुआ नहीं देखना चाहता। सत्तापक्ष जिस तरह आधा-अधूरा प्रस्ताव लेकर आया उससे उसके इरादों पर संदेह पैदा होना स्वाभाविक है। अब जब राजनीति का इतना अधिक जनविरोधी और विकृत रूप सामने आ गया है तब फिर उचित यही होगा कि अन्ना हजारे अपने अनशन का परित्याग करें। वैसे भी उनके लिए यह उचित नहीं कि अपने आग्रह को लेकर अडि़यल रवैया अपनाएं। इसके अतिरिक्त इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उनके लिए अब अपने आंदोलन को संभालना मुश्किल हो रहा है और उन्हें यह संदेह नहीं रह जाना चाहिए कि आम जनता ने भारतीय राजनीति के असली चेहरे की पहचान कर ली है।
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साभार:-दैनिक जागरण