Monday, July 18, 2011

अमीरों का विकास यानी देश का विकास?

देश में एक ही वाद चारों ओर फैल रहा है- पूंजीवाद। हिंदुस्तान की राजनीति में भी अनेक वाद हैं, लेकिन ये सब पूंजीवाद से ही नियंत्रित हो रहे हैं। कोई भी राजनीतिक पार्टी हो, लेकिन वह इस वाद का सबसे ज्यादा असर लेकर चल रही है। और यह पूंजीवाद किसी भी मायने में हिंदुस्तान के लिए हितकर नहीं है।

देश के तकरीबन ढाई लाख किसानों के आत्मघात के मूल में पूंजीवाद ही है। इसके चलते ही भारतीय गांव की प्रकृति नष्ट हो रही है। नदियां सूख रहीं, पहाड़ तोड़े, तो जंगल काटे जा रहे हैं। सामाजिक व सांस्कृतिक संवेदनशीलता छोड़कर व्यक्तिगत तरक्की पर सबकी नजर है, लोग येनकेन प्रकारेण अमीर बनना चाहते हैं।

जाहिर है इस पूरी क्रिया का भविष्य में भयानक असर होगा। कुल मिलाकर यह तबाही का वाद है। जहां तक सवाल क्रांति का, है तो उसके सबके अपने अर्थ हैं। आदिवासियों-किसानों और मजदूरों के हमदर्द समझते हैं कि पूंजीवाद का अंत होकर एक शोषणमुक्त मानवीय समाज व्यवस्था का निर्माण ही क्रांति है।

वहीं सत्ता के केंद्र में बैठे दूसरे ऐसे लोग भी हैं, जो झूठ और लूट की राजनीति करते हुए अमीरों के विकास को ही देश का विकास कहते हैं। इसका प्रमाण यह है कि जिस समय ढाई लाख किसानों की आत्महत्या का मामला आया, उसी समय अनेक करोड़पति-अरबपति बने।

केंद्र और राज्य सरकारें कहती रहीं कि भारत विकास कर रहा है। यानी, उनके लिए परिवर्तन का मतलब पूंजीवाद का विकास। इसी तरह सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे, रामदेव बाबा जैसे लोग, भ्रष्टाचार- लूट के खात्मे को परिवर्तन मानते हैं।

मेरा भी यही मानना है कि शोषणमुक्त, लोकतांत्रिक और बेहतर मानवीय व्यवस्था की ओर ले जाने वाली क्रांति ही सच्ची क्रांति है। वैसे बदलाव की जरूरत कई क्षेत्रों में है। यूं तो हिंदी साहित्य में अच्छे प्रयास हो रहे हैं, लेकिन बौद्धिक विलक्षणता दिखाने की कवायद भी ज्यादा हो रही है।

इन दिनों ऐसे साहित्य की भरमार है। मजे की बात यह है कि बौद्धिक आतंकवाद फैलाने वाले लोग ही साहित्य के पराभव का, लोगों में पढ़ने की रुचि कम होने का राग अलाप रहे हैं। सच तो यह है कि समय और समाज की समस्याओं, वास्तविकताओं, चिंताओं, द्वंद्व और आकांक्षाओं से जुड़ा, सरल-सुबोध भाषा वाला साहित्य ही लोगों को पढ़ने के लिए प्रेरित करता है।

एक दौर था, जब प्रेमचंद का साहित्य ग्रामीण महिलाएं भी चाव से पढ़ती थीं। उनकी किताबों में तेल-मसाला हल्दी के दाग तक लगे मिलते थे। इसी तरह हिंग्लिश के प्रयोग से हिंदी, भाषा से बोली में बदलती जा रही है।

हिंदी का स्वभाव, उसकी प्रकृति नष्ट हो रही है और इसके लिए मीडिया (इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट दोनों) भी एक हद तक जिम्मेदार है।

http://www.bhaskar.com/article/ABH-the-development-of-the-rich-development-of-the-country-2234141.html

No comments: