Monday, July 18, 2011

गाली की गलियों में भटकी भाषा

Source: मृणाल पांडे Last Updated 00:11(19/01/11)


हिंदी के मीडिया में ही नहीं, सिनेमा और साहित्य में भी गालियों के खुले इस्तेमाल का चलन इन दिनों लगातार बढ़ रहा है। नए यानी साइबर मीडिया में तो ब्लॉग जगत गालीयुक्त हिंदी का जितने बड़े पैमाने पर प्रयोग कर रहा है, उससे लगता है कि गाली दिए बिना न तो विद्रोह को सार्थक स्वर दिया जा सकता है, न ही प्रेम को। गालियों को अभूतपूर्व रूप से पुरुषों ही नहीं, बिंदास जीवन जीने वाली युवतियों की बातचीत में भी फिल्मों से लेकर साहित्य तक में छलकता देखा जा सकता है, जिसे कुछ समालोचक पुरानी सामाजिक और राजनीतिक वर्जनाओं और गुटबंदियों के टूटने का लक्षण और खूब स्वागतयोग्य बता रहे हैं। अंग्रेजी के अनेक स्वयंभू फिल्म समालोचक बोलियों से उपजी गालियों को हिंदी फिल्मों के टाइटिल से डायलॉग तक में गूंथना युवा दर्शकों के बीच आइटम नंबर की तरह हिट होने का एक आजमूदा नुस्खा मान रहे हैं।

सच तो यह है कि आज हिंदी पट्टी फिर से उस युगसंधि के समक्ष खड़ी है, जहां पारंपरिक समाज और उसकी भाषा को भीतर और बाहर दोनों तरफ से कई मोर्चो पर चुनौती मिल रही है। आज का हिंदी भाषा-भाषी समाज एक अजानी और नई सभ्यता की आहट सुन रहा है, जिसमें नई सूचना संचार तकनीकी की चुनौती है और अंग्रेजी के मार्फत खुलने वाले विदेशी बाजारों तथा समृद्ध बाहरी भाषाओं से अनूदित साहित्य की गर्वीली हुंकार भी। पिछले सौ सालों में बनी हिंदी की मुख्यधारा के सामने अब सात सौ साल पुरानी अंग्रेजी एक तकनीकी समृद्ध सुसंगठित विश्वभाषा बनी खड़ी है और हर ठीकठाक तरह से प्रयोग करने वाले को विश्व साहित्य और विश्व ज्ञानकोष की चाभी देकर बौद्धिक तथा भौतिक रूप से मस्त करने का वादा कर रही है। यह अंग्रेजी हर जाति और धर्म के भारतीय को समान बनाती है और हिंदी के सवर्ण बनाम दलित, शास्त्रीय बनाम लोकधर्मी द्वैत को एक सरीखी सुथरी अंग्रेजी में ढालकर दुनियाभर में पहुंचाने की तकनीकी सामथ्र्य रखती है। उसके पक्ष में यह बात भी जाती है कि जहां फोहश शब्दों से लैस देशज भाषा रूपों की मदद से नए फिल्मकार डिजिटल तकनीक को अपनाकर मुंबई से कनाडा तक बॉक्स ऑफिस लूटे ले रहे हैं, वहीं शुद्ध हिंदी या उर्दू के डायलॉग समझने, लिखने और बोलने वाले अस्त हो रहे हैं। पर मुंबइया फिल्मों तथा नेट ने एक नई हिंदी की रचना के लिए हिंदी पट्टी के आधी-अधूरी भाषाई समझ वालों को मानो एक विशाल श्यामपट्ट थमा दिया है।

तकरीबन हर वाक्य में इस्तेमाल हो रही यह गालियां भाषा में नई उपज या लोकधर्मिता का नहीं, बल्कि असली नए चिंतन की गैरहाजिरी का ही लक्षण हैं। गालियां बताती हैं कि लेखक के भीतर अपने खयालात को तर्क के बूते स्थापित कर पाने की क्षमता नहीं है, इसलिए वह बिगड़ैल बच्चे की तरह जबरन चौंकाने वाले विशेषणों से ध्यानाकर्षण कराने पर तुल गया है। गाली क्यों? पूछने पर अक्सर जवाब मिलता है - लेखक या वक्ता का सड़ी व्यवस्था के प्रति क्रोध या पुरातनपंथी विचारवालों को चौंकाने-डराने का इरादा। लेकिन विश्लेषण करने पर दिखाई देता है कि गाली-गलौज के पीछे (लिंग, जाति या धर्म से जुड़े) शर्मनाक पूर्वग्रह या झूठा साहस या फिर अपने से कमजोर या हीन मानते हुए अगले पर अपना वर्चस्व कायम करने की असभ्य इच्छा ही प्रमुख है। उनका भाषा की दृष्टि से कोई तकनीकी महत्व नहीं। वे तो बस उसी तरह का लटका-झटका हैं, जैसे इश्किया में विद्या बालन के डायलॉग, जो अंग्रेजी के अभ्यस्त दर्शकों को क्यूट भले लगें, पर अंतत: बोलने वाली की ही स्त्री छवि को बदरंग बनाते हैं।

आज सच्चाई तो यह है कि पहले आजादी की लड़ाई, फिर सरकारी राजभाषा समितियों और इसके बाद वोटार्थी नेताओं द्वारा पुचकारी-दुलारी गई हिंदी की अकादमिक धारा ने सही मायनों में अभी तक समाज में सहज किनारे नहीं काटे हैं। तिस पर नई सूचना संचार तकनीकी ने दुनिया की इस तीसरी सबसे बड़ी भाषा के आगे एक नई चुनौती भी डाल दी है कि वह अपनी विशाल बिरादरी के अनुपात में साइबर हिंदी के प्रयोगकर्ता सामने लाए ताकि उनकी इच्छानुरूप सॉफ्टवेयर, की-बोर्ड और सर्च इंजिन तैयार किए जाएं। गालियों की ही तरह अभी हमारी अकादमिक हिंदी भी एक नकाब है, जो हमने बाहर वालों के आगे ओढ़ रखी है क्योंकि भीतरखाने तमाम तरह के जातिवादी, क्षेत्रीयतावादी और बाजारवादी आग्रहों ने पीट-पीटकर संवाद की भाषा का चेहरा सपाट कर डाला है। हमारे अकादमिक नेता और मानव संसाधन मंत्रालय तो बहुत करके एक तरह की प्लास्टिक सर्जरी की बात ही सोच पाते हैं, जो एकाध साल के भीतर ही हिंदी का मानकीकरण कर देगी जैसे कभी फोर्ट विलियम वाले अंग्रेज पादरियों ने किया था। पर हमको जरूरत है वैचारिक अभियान की, जो गाली-गलौज की चमत्कारप्रिय मानसिकता से ऊपर उठाकर हिंदी समाज को अपनी बुनियादी ताकत और महत्व से रू-ब-रू करे। जनभाषा के रूप में हिंदी की ऐसी सफाई का काम अकादमिक जगत नहीं, साहित्य ही कर सकता है। सातवीं-आठवीं सदी में भी हमारे यहां जैसे-जैसे संस्कृत का मोल घटा और जनभाषाओं ने सिर उठाया, निगरुण मार्गी भक्तिधारा के तांत्रिकों और हठयोगियों के अखाड़ों में ब्राrाणवाद व उसके देवी-देवताओं को गाली देना एक लोकप्रिय शगल-सा बन बैठा था। जो बात वेदबाह्य और आर्येतर जातियां संस्कृत के माध्यम से नहीं कह पाई थीं, उन्हें जनभाषा में खूब जोर-शोर से कहा जाने लगा। लेकिन अभद्रता का स्वर साधना को मलिन करता इससे पहले संत कवि गुरु गोरखनाथ ने अपने साथी साधकों को चेताया - ‘यंद्री (इंद्रिय) का लडबडी भाषा का फूहडा, गोरख कहे ते परतषि (प्रत्यक्ष) चूहडा।’

सच्चाई को स्थगित कर सतही असभ्यता को वैध बनाने वाली इस फूहड़ हिंदी से हमारे साहित्य साधकों या वैचारिक मंचों, किसी का भला नहीं होने वाला। यह बात हम जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही अच्छा। हमारे लिए तो यह शर्म का विषय होना चाहिए कि दुनिया की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली इस भाषा की जगह आज न तो नेट जगत की 10 सबसे अधिक उपयोग की जा रही भाषाओं में है और न ही यह उन 20 भाषाओं में से एक बन सकी है, जिसकी सामग्री अनूदित होकर दुनिया भर में छा रही है।

http://www.bhaskar.com/article/ABH-bhatqui-language-abuse-on-the-streets-of-1767347.html

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