Tuesday, July 26, 2011

खतरे में संसद का सम्मान

नोट के बदले वोट कांड में लीपापोती होने पर संसद की गरिमा की रक्षा हो पाना मुश्किल मान रहे हैं राजीव सचान
यदि यह सच है कि ए। राजा, कनीमोरी और सुरेश कलमाड़ी को संसद के मानसून सत्र में भाग लेने के लिए निमंत्रण भेजा गया है अथवा उनके भाग लेने पर संसद को एतराज नहीं तो यह आघातकारी है। जब संसद को ऐसे सांसदों के खिलाफ अपने स्तर पर कार्रवाई करने के बारे में विचार करना चाहिए तब यह ठीक नहीं कि वह उन्हें सादर निमंत्रित कर रही है। यदि संसद यह मान रही है कि दोष सिद्ध न होने तक ये सांसद निर्दोष हैं तो यह न्याय की भावना के अनुकूल तो है, लेकिन आखिर ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि ऐसे सांसद जब तक निर्दोष न सिद्ध हो जाएं तब तक संसद से दूर रखे जाएं? हो सकता है कि संसद के नियम-कानून और सांसदों के अधिकार राजा, कनीमोरी, कलमाड़ी सरीखे सांसदों को संसद की कार्यवाही में भाग लेने की अनुमति प्रदान करते हों, लेकिन अब वक्त आ गया है कि इन उदार नियम-कानूनों पर नए सिरे से विचार किया जाए। वैसे भी इन उदार नियम-कानूनों का नियमन करते समय संविधान निर्माताओं ने यह नहीं सोचा होगा कि एक समय ऐसा भी आएगा जब सांसद ऐसा हीन आचरण करेंगे। संसद को इसका आभास होना चाहिए कि दागी सांसद उसकी गरिमा गिराते हैं। हालांकि राजा, कनीमोरी और कलमाड़ी पर लगे आरोप सिद्ध होना बाकी हैं, लेकिन इन आरोपों से संसद कलंकित हुई है। आखिर अपने अपयश में भागीदार लोगों के प्रति संसद इतनी उदार कैसे हो सकती है? अदालत की दृष्टि में जो सांसद जमानत के हकदार नहीं वे संसद की दृष्टि में उसकी कार्यवाही में भाग लेने के हकदार क्यों होने चाहिए? यह पहली बार नहीं जब संसद दागी सांसदों के प्रति अनावश्यक उदारता का परिचय देती नजर आ रही हो। वह इसके पहले भी ऐसा करती रही है। कई बार ऐसे सांसद संसद में नजर आए हैं जिनकी तलाश पुलिस को होती थी। इसमें संदेह नहीं कि संसद सर्वोच्च है, लेकिन उसकी सर्वोच्चता की आड़ में दागी सांसदों को राहत मिलने का कोई औचित्य नहीं। दुखद यह है कि संसद केवल दागी सांसदों के प्रति ही उदारता नहीं बरतती, बल्कि वह सच को छिपाने और लीपापोती करने का काम भी करती है। नोट के बदले वोट कांड में यही सब कुछ हुआ। संसद की एक समिति ने इस कांड की सच्चाई सामने लाने के बजाय मामले पर पर्दा डालने का काम किया। जब ऐसा हुआ तो सारे देश ने महसूस किया कि संसद और लोकतंत्र को शर्मिदा करने वाले इस मामले को जानबूझकर दबाया गया है, लेकिन संसद मौन रही। नोट के बदले वोट कांड की जांच करने वाली समिति ने इस कांड में शामिल माने जा रहे संबंधित सांसदों से पूछताछ करने की जरूरत तक नहीं समझी। चूंकि उसका इरादा किसी नतीजे तक पहुंचने का नहीं था इसलिए उसने यह कहकर कर्तव्य की इतिश्री कर ली कि मामले की आगे जांच होनी चाहिए। यह आश्चर्यजनक है कि किसी ने भी इसकी सुधि नहीं ली कि आगे की जांच हो रही है या नहीं? न तो सरकार को अपने दायित्व का भान हुआ, न सत्तापक्ष को, न विपक्ष को और न ही सांसदों के किसी समूह और समिति को। परिणाम यह हुआ कि दिल्ली पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। यदि सुप्रीम कोर्ट दिल्ली पुलिस को फटकार नहीं लगाता तो यह तय था कि अन्य कोई इस शर्मनाक कांड की अधूरी जांच का संज्ञान लेने वाला नहीं था। केंद्र सरकार के नियंत्रण वाली दिल्ली पुलिस जिस तरह इस मामले की जांच कर रही है उससे यही लगता है कि उसे आगे भी फटकार सुनने का मन है। जांच पूरी करने के बजाय वह बलि का बकरा खोजती नजर आ रही है। संसद, सांसदों और सरकार को दिल्ली पुलिस के रवैये पर एतराज होना चाहिए, लेकिन पता नहीं क्यों ऐसा नहीं है। यदि दिल्ली पुलिस ऐसे किसी नतीजे पर पहुंचती है कि नोट के बदले वोट कांड महज बिचौलिये बताए जा रहे कुछ सांसदों के करीबियों की दिमाग का उपज था तो इससे सबसे ज्यादा जगहंसाई संसद की ही होगी। कोई शेखचिल्ली ही इस पर भरोसा कर सकता है कि इस कांड में सांसदों और राजनीतिक दलों की कोई भूमिका नहीं रही होगी। आखिर यह कैसे मान लिया जाए कि किसी को संसद की गरिमा की परवाह है? जो संसद अपनी गरिमा की रक्षा के लिए खुद सजग-सक्रिय नहीं हो सकती उसकी सर्वोच्चता के ढोल पीटने का क्या मतलब? अभी हाल ही में ऐसे ढोल तब पीटे गए थे जब लोकपाल विधेयक का मुद्दा गर्म था। राजनीतिक दलों की ओर से कहा जा रहा था कि कानून बनाने का काम संसद का है, न कि किसी सिविल सोसाइटी का। इससे इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन क्या कोई राजनीतिक दल इस सवाल का जवाब देगा कि पिछले 43 सालों में कोई लूला-लंगड़ा लोकपाल विधेयक भी पारित क्यों नहीं हो सका? संसद की सर्वोच्चता, सक्रियता, सजगता राजनीतिक दलों की मोहताज है। वे जैसे चाहें वैसे संसद को चलाने या न चलाने में समर्थ हैं। चूंकि न तो सत्ता पक्ष को संसद की गरिमा की परवाह है और न ही विपक्ष को इसलिए उन्हें आगे आना चाहिए जो इससे चिंतित हैं कि संसद की गरिमा से खिलवाड़ हो रहा है। लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा सभापति और साथ ही राष्ट्रपति को यह देखना चाहिए कि संसद की गरिमा बनी रहे। यदि अरबों रुपये के घोटाले के आरोपी सांसद संसद की कार्यवाही में भाग लेते हैं तो इससे संसद का मान बढ़ने वाला नहीं है। इसी तरह यदि नोट के बदले वोट कांड में लीपापोती होती है, जिसके आसार बढ़ गए हैं तो संसद की प्रतिष्ठा की रक्षा हो पाना मुश्किल होगा। किसी को भी यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि सरकार संसद की गरिमा की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध होगी। उसका अब तक का आचरण यही बताता है कि उसे न तो अपने सम्मान की परवाह है और न ही संसद के सम्मान की। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
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