Monday, July 18, 2011

मुश्किलों के दौर में गठबंधन

डॉ महेश रंगराजन Last Updated 01:03(21/02/11)








किसी प्रधानमंत्री द्वारा प्रेस कांफ्रेंस आयोजित करना अब एक दुर्लभ घटना बन चुकी है। वरिष्ठ टीवी संपादकों के साथ बातचीत में डॉ मनमोहन सिंह ने क्या कहा और क्या नहीं कहा या उनके क्या आशय थे, इसकी विश्लेषकों और पाठकों द्वारा समान रूप से समीक्षा की जा रही है। प्रधानमंत्री के समक्ष एक चुनौती है और उन्होंने सभी को आश्वस्त किया है कि वे इस चुनौती का सामना करने के लिए तैयार रहेंगे। उन्होंने इस बात के कोई संकेत नहीं दिए कि वे अपना काम अधूरा छोड़ेंगे। इसके स्थान पर उन्होंने दृढ़ता के साथ यह कहा कि वे अपना कार्यकाल पूरा करेंगे।

पिछले पखवाड़े के दौरान वाकई इस बात के सबूत मिले कि जांच एजेंसियों को विभिन्न घोटालों के लाभार्थियों की तहकीकात करने की अनुमति मिल गई है। अनिल अंबानी जैसे व्यक्ति से भी सीबीआई द्वारा घंटों पूछताछ की गई। करुणानिधि परिवार के आधिपत्य वाली मुख्य टीवी कंपनियों के दफ्तरों पर छापा मारा गया। एक और घटना, जिस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया, वह यह थी कि महाराष्ट्र सरकार ने रिलायंस समूह द्वारा प्रस्तावित एक विशेष आर्थिक जोन के लिए कृषि भूमि के विक्रय पर रोक लगाने वाली अधिसूचना को फिर से जारी किया है। यह भी याद रखा जाना चाहिए कि पूर्व टेलीकॉम मंत्री ए राजा न्यायिक अभिरक्षा में हैं और पूर्व अधिकारियों द्वारा की गई चूकों पर सवालिया निशान लगाए जा रहे हैं।

लेकिन यह अब भी साफ नहीं हो पाया है कि क्या ये सभी कवायदें एक ऐसी स्थिर सरकार के गुणों को प्रदर्शित करती हैं, जो स्वयं को विभिन्न हितों से ऊपर रख पाने में सक्षम है। कांग्रेस इससे पहले भी कड़ा रुख अख्तियार करती रही है। ७क् के दशक के प्रारंभ में वामपंथ के प्रति अपने झुकाव के दौर में कांग्रेस के वित्त राज्य मंत्री केआर गणोश ने कालाबाजारियों और तस्करों के विरुद्ध एक मुहिम छेड़ी थी। वीपी सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में एसएल किलरेस्कर और एलएम थापर जैसे उद्योगपतियों को गिरफ्तार करवाया था। हालांकि इसके बाद उन्हें प्रतिरक्षा मंत्रालय में भेज दिया गया था।

इसमें शक नहीं कि २क्११ का भारत 70 या 80 के दशक के भारत से बहुत अलग है। गठबंधन सरकारों ने निश्चित ही नीति निर्माण की प्रक्रिया को पंगु बना दिया है। प्रधानमंत्री ने संकेत दिया है कि ए राजा और डी मारन का चयन उनके हाथ में नहीं था। लेकिन इससे एक और अहम सवाल यह खड़ा होता है कि क्या सरकार के मुखिया केवल अपने सहयोगियों की विफलता की ओर इशारा कर रहे थे या अपनी पार्टी के राजनीतिक प्रबंधकों की विफलता भी बता रहे थे? डॉ सिंह राजनीति के पक्के खिलाड़ी तो हैं नहीं। वे बहुत अच्छे अर्थशास्त्री हैं, जो राजनीति के मैदान में चले आए हैं। वे भले व्यक्ति हैं। फिर भी वे कुछ ज्यादा ही शिकायतें कर रहे हैं। आखिर अल्पमत और गठबंधन की सरकारों के इस दौर में उनसे पहले जिन दो अन्य प्रधानमंत्रियों ने अपना कार्यकाल पूरा करने में सफलता पाई, वे ‘कॅरियर पॉलिटिशियन’ थे: नरसिंह राव और अटलबिहारी वाजपेयी।

वास्तव में प्रधानमंत्री अपनी प्रेस कांफ्रेंस में आगे की रणनीति पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने के स्थान पर केवल उन्हीं कार्यो के लिए तर्क प्रस्तुत करते रहे, जो उनकी सरकार नहीं कर सकती। हम प्रधानमंत्री को राजनीतिक व्यवस्था की धुरी के रूप में देखने के अभ्यस्त हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि गठबंधन सरकार अब दिशाहीन हो चली है। लगता है प्रधानमंत्री खाद्य और ऊर्जा पर दी जा रही सब्सिडी की मात्रा को लेकर खिन्न हैं। जबकि उनकी पार्टी की प्रमुख ने ही नए खाद्य सुरक्षा कानून में सबसे अधिक दिलचस्पी ली है। इस महत्वाकांक्षी योजना से भी पहले यह अपेक्षा की जाती रही है कि वित्त मंत्री पेट्रोल और डीजल पर एक्साइज डच्यूटी में कटौती करेंगे ताकि उपभोक्ताओं और उत्पादकों को महंगाई से राहत दी जा सके।

भारत कोई कंपनी नहीं है, जिसे किसी सीओओ (मुख्य संचालन अधिकारी) द्वारा चलाया जा सकता है। चाहे कापरेरेट को नियंत्रित करने की चुनौतियां हों या छोटे व्यवसाय हों या यह निर्णय लेना हो कि निर्धनों के हित में बनाई गई योजनाओं का आर्थिक सुधारों पर विपरीत प्रभाव न हो, ये सभी अपने स्वरूप में राजनीतिक हैं। ऐसी स्थितियों में तकनीकी समाधानों को स्वीकारा नहीं जाता। अक्सर प्रभावी कदम उठाने के लिए किताबों के स्थान पर वास्तविक अनुभवों की सहायता लेनी पड़ती है।

अतीत में कांग्रेस अपने आधार को बढ़ाने के लिए शासकीय सत्ता का उपयोग कर बुद्धिमत्ता का परिचय देती रही है। नेहरू के कार्यकाल में नियोजित अर्थव्यवस्था ने देश के उभरते हुए मध्यवर्ग को बहुत प्रभावित किया था, जबकि निर्धन और वंचित मताधिकार के जरिये अपनी आकांक्षाओं को व्यक्त करते थे। इंदिरा गांधी ने भारत का एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया था, जहां गरीबी इतिहास का विषय थी। उन्होंने अपने इस दृष्टिकोण का मेल विश्व मंच पर एक सुनिश्चित राष्ट्र के संदेश के साथ किया। यह अक्सर भुला दिया जाता है कि नेहरू ने सरदार पटेल, आंबेडकर, जॉन मथाई जैसे विविधतापूर्ण व्यक्तित्वों के साथ काम किया था। 1969-71 के दौरान इंदिरा गांधी की सरकार के पास लोकसभा में बहुमत तक नहीं था। वास्तव में बहुमत या एकल पार्टी सरकार जैसी बातों का इतना महत्व नहीं है। महत्व है नेतृत्व कुशलता का, जो हालात को बेहतर बनाने के लिए अपनी क्षमताओं का परिचय देती है।

शायद आज कांग्रेस स्वयं को चौराहे पर पाती हो। शक्तियों और अधिकारों के विभाजन की जो व्यवस्था सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान इतनी उपयुक्त साबित हुई थी, वह अब अपना प्रभाव खोती जा रही है। संभव है कि सरकार बरकरार रहे, लेकिन बिखराव की स्थिति से बचने के लिए उसे ठोस शब्दों के साथ ही नीतियों की पारदर्शिता और सुस्पष्टता की भी खासी जरूरत होगी।

लेखक प्राध्यापक और राजनीतिक टिप्पणीकार हैं।

http://www.bhaskar.com/article/ABH-alliance-in-times-of-trouble-1868522.html

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