Wednesday, March 31, 2010

आतंक पर दोहरे मानदंड

अमेरिका-पाकिस्तान में पक रही खिचड़ी से भारत की सुरक्षा पर खतरा मंडराता देख रहे हैं अरुण नेहरू
फिलहाल, सुरक्षा हमारी चिंता का विषय बना हुआ है। बाहरी खतरे और माओवादियों व अन्य उग्रवादी तत्वों द्वारा देश में मचाए जा रहे उत्पात को देखते हुए हमें भविष्य के लिए अपने लक्ष्य बिल्कुल स्पष्ट कर लेने चाहिए। मुंबई में आतंकी हमले पर अमेरिका का रवैया और आतंकवादी डेविड कोलमैन हेडली से पूछताछ की भारत की मांग पर बार-बार बयान बदलने से भ्रम फैल रहा है। हेडली डबल एजेंट था, जो अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के लिए काम कर रहा था। मेरे ख्याल से ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि भविष्य में अफगानिस्तान से विदाई में अमेरिका पाकिस्तान से सहयोग की अपेक्षा कर रहा है। इस संबंध में बातचीत पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी के नेतृत्व में होगी, किंतु इसमें जनरल एपी कियानी और आईएसआई प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल शुजा पाशा भी निर्णायक भूमिका निभाएंगे। इन परिस्थितियों से हमें बड़ी समझ-बूझ से निपटना होगा। पिछले एक साल में पाकिस्तान की निचली अदालतों में मुंबई हमलों के सूत्रधारों को सजा दिलाने के संबंध में खास प्रगति नहीं देखी गई है। आतंकवाद पर हाय-तौबा मचाने वाली अमेरिकी सरकार पाकिस्तान को अरबों डालर की सहायता राशि देने के बावजूद अपेक्षित सहयोग प्राप्त नहीं कर सकी है। इस राशि में आर्थिक मदद के साथ-साथ तालिबान से लड़ने के लिए हथियार और अन्य सैन्य साजोसामान भी शामिल है। पाकिस्तान ने बड़ी कुशलता से दोहरा खेल खेला है। पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने खंडित जनादेश का पूरा फायदा उठाया है। इस बातचीत के नतीजे से स्पष्ट संकेत मिल जाएंगे कि आतंकवाद से युद्ध समेत अन्य बहुत से मुद्दों पर अमेरिकी प्रशासन का रवैया क्या रहता है। जमीनी सच्चाई यह है कि अमेरिका और उसके सहयोगी देश इराक और अफगानिस्तान युद्ध में जबरदस्त दबाव में हैं। रोजाना आत्मघाती धमाकों और इस कारण बड़ी संख्या में अमेरिकी सैनिकों की मौत से वहां जनमत सरकार के खिलाफ है। इसके अलावा राष्ट्रपति बराक ओबामा की मध्यपूर्व नीति पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। अमेरिकी प्रशासन का 11 सितंबर को न्यूयार्क पर हुए आतंकी हमले और 26 नवंबर को मुंबई हमले पर दोहरे मानदंड अपनाना दुर्भाग्यपूर्ण है। डेविड हेडली अमेरिकी नागरिक है और अमेरिका व उसके बीच सौदेबाजी से मुंबई में नरसंहार के आरोपों से उसे बरी कैसे किया जा सकता है? उसका भारत में प्रत्यार्पण होना ही चाहिए। क्या अमेरिका से आतंकी गतिविधियां चलाने वाले आतंकवादियों पर अलग नियम लागू होते हैं। भारत में जनमत पाकिस्तानी सेना व आईएसआई का तुष्टिकरण स्वीकार नहीं कर सकता। पिछले तमाम अवसरों पर पाकिस्तान ने अमेरिकी हथियारों का भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया है। बराक ओबामा एक प्रभावशाली वक्ता हैं और सुहाने वाली बातें करते आए हैं। उन्हें शांति के नोबल पुरस्कार से नवाजा गया है। किंतु पाकिस्तान को आपूर्ति किए गए हथियारों के संबंध में क्या उनकी कथनी करनी से मेल खाती है? गलत कारणों से मायावती और बसपा सुर्खियों में छाए हुए हैं। मुलायम सिंह यादव को लोहिया की मूर्ति पर माल्यार्पण करने से रोकने का प्रयास करना एक शर्मनाक घटना है। इस तरह की हरकतें कांग्रेस का काम आसान कर रही हैं। उत्तर प्रदेश में चुनाव करीब आ रहे हैं। जनादेश किसी भी किस्म की गुंडागर्दी का लाइसेंस नहीं है। मायावती भी इस नियम की अपवाद नहीं हैं। इसी तरह महिला आरक्षण का विरोध करते हुए मुलायम सिंह यादव की अभद्र टिप्पणियां बेहद दुर्भाग्यपूर्ण हैं। स्पष्ट तौर पर अब उन्हें पार्टी में अन्य लोगों के लिए स्थान खाली कर देना चाहिए। किंतु इसमें वंश परंपरा आड़े आ सकती है क्योंकि उनके पुत्र अखिलेश सिंह में परिपक्वता नजर नहीं आती। समाजवादी पार्टी अपने वोट आधार का अच्छा-खासा हिस्सा गंवा चुकी है, जो कांग्रेस और बसपा ने झटक लिया है। अमर सिंह के जाने से इसे और झटका लगा है। केंद्रीय नेतृत्व के स्तर पर भाजपा स्थिर होती दिखती है किंतु उत्तर प्रदेश में वह अपना आधार नहीं बना पा रही है। यहां मुख्य मुकाबला कांग्रेस और बसपा में ही रहेगा। दक्षिण भी उत्तर के साथ कदमताल कर रहा है। द्रमुक में एमके अलगिरी और एमके स्टालिन के बीच संघर्ष चल रहा है। यह भी वंश राजनीति का एक हिस्सा है। वहां उत्तराधिकारी के बारे में स्पष्ट राय नहीं बन पा रही है। पार्टी के सुप्रीमो कमजोर पड़ गए हैं। तमिलनाडु में दो पत्‍ि‌नयों, उनके बेटों, बेटियों, भतीजों-भतीजियों के बीच भीषण संघर्ष छिड़ गया है। इस लड़ाई को बंद करने में कांग्रेस कोई दखल नहीं दे रही है। वह तो किनारे बैठकर भविष्य के विकल्पों पर विचार कर रही है। पीएमके किसी भी पक्ष की विश्वासपात्र नहीं है। डीएमडीके विजेता गठबंधन के साथ जुड़ सकती है। अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जयललिता आराम से तमाशा देख रही हैं। सत्ता संघर्ष का ज्वार द्रमुक को खतरे में डाल सकता है। शंकालु द्रमुक तमिलनाडु में कांग्रेस को अपना आधार मजबूत करते हुए देखेगा। वह राहुल गांधी के प्रयासों की उपेक्षा नहीं कर सकती। द्रमुक परिवार के बहुत से सदस्य मुख्यमंत्री के। करुणानिधि के जीवनकाल में ही उत्तराधिकारी का मसला हल कर लेना चाहते हैं। अगर स्टालिन को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया जाता है तो अगले कुछ माह में वहां के हालात का जायजा लगा पाना कठिन होगा। ऐसा होने पर तमिलनाडु में उथल-पुथल का दौर शुरू हो सकता है, जो द्रमुक के भीतर तथा गठबंधन सदस्यों के बीच होगा। (लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

पंथ के आधार पर आरक्षण

पंथ के आधार पर आरक्षण प्रदान करने के दुष्परिणामों की ओर इंगित कर रहे हैं संजय गुप्त
आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा अपने यहां के मुस्लिम समुदाय को चार प्रतिशत आरक्षण देने के फैसले को उच्चतम न्यायालय ने अंतरिम मंजूरी देने के साथ मामले को जिस तरह संविधान पीठ के हवाले किया उससे एक नई बहस का माहौल तैयार हो गया है। आंध्र प्रदेश सरकार पिछले कई वर्षों से अपने यहां की मुस्लिम आबादी को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण देने के लिए प्रयासरत थी, लेकिन उसके ऐसे हर प्रयास को आंध्र उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। वैसे तो देश के कुछ राज्यों में मुस्लिम समाज को अन्य पिछड़ा वर्ग घोषित करके आरक्षण की सुविधा दी गई है, लेकिन यह पहली बार है जब आंध्र प्रदेश सरकार ने पंथ के आधार पर इस समाज को आरक्षण प्रदान किया। यही कारण है कि उसे उच्च न्यायालय ने हर बार अमान्य किया। वैसे भी यह समझना मुश्किल है कि आंध्र प्रदेश का समस्त मुस्लिम समाज पिछड़ा कैसे हो सकता है? चूंकि भारतीय संविधान पंथ के आधार पर आरक्षण को अमान्य करता है इसलिए इस आधार पर आरक्षण देने की कोई भी कोशिश गंभीर परिणामों को जन्म दे सकती है। ऐसा आरक्षण भारतीय समाज के लिए अत्यन्त घातक भी साबित हो सकता है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में औसत मुस्लिम समाज शिक्षा के मामले में अन्य दूसरे समाजों से बहुत पीछे है। इसके चलते उसे गरीबी और अभावों से जूझना पड़ रहा है। आर्थिक रूप से पिछड़े होने के कारण मुस्लिम समाज देश की मुख्य धारा में शामिल नहीं हो पा रहा है। देश में अनेक राजनीतिक दल ऐसे हैं जो मुस्लिम समाज के हितों के प्रति खास तौर पर सचेत नजर आते हैं, लेकिन उनकी यह सजगता सिर्फ इस समाज के वोट थोक रूप में प्राप्त करने के लिए ही अधिक है। इन राजनीतिक दलों के रवैये के चलते मुस्लिम समाज एक प्रकार की असुरक्षा की भावना से ग्रस्त दिखता है। समस्या यह है कि खुद को उसका हितैषी बताने वाले राजनीतिक दलों की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं कि यह समाज असुरक्षा की भावना से मुक्त हो, क्योंकि ऐसा होने पर उनके लिए मुसलमानों को वोट बैंक के रूप में एकजुट रखना और इसी आधार पर अपनी राजनीति चलाना मुश्किल हो जाएगा। देश में लगभग 16 प्रतिशत आबादी मुस्लिम समाज की है। भारत में इंडोनेशिया के बाद सबसे अधिक आबादी मुसलमानों की है। मुस्लिम आबादी के इतने प्रतिशत को देखते हुए उन्हें अल्पसंख्यक नहीं कहा जा सकता, लेकिन विडंबना यह है कि आज अल्पसंख्यक और मुस्लिम एक-दूसरे के पर्यायवाची शब्द बन गए हैं। मुस्लिम समाज की एक समस्या यह भी है कि उसमें राष्ट्रीय नेतृत्व का अभाव है। इस अभाव के कारण यह समाज इस या उस राजनीतिक दल को अपना हितैषी मानने के लिए विवश होता रहता है। मुस्लिम समाज का शैक्षिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ा होना कोई शुभ संकेत नहीं, क्योंकि यह पिछड़ापन एक तो उन्हें तमाम रूढि़यों से जकड़ रहा है और दूसरे खुद उसे तथा देश को आर्थिक तौर पर पीछे ढकेल रहा है। मुस्लिम समाज की यह स्थिति सामाजिक विषमता को बढ़ाने वाली भी है। मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए कुछ ठोस कदम उठाए जाने आवश्यक हैं, लेकिन इसमंें संदेह है कि पंथ के आधार पर शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण देने से इस समाज की समस्याओं का समाधान हो जाएगा। मुस्लिम समाज आजादी के बाद से ही कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक रहा है। बावजूद इसके कांग्रेस इस समाज की दशा सुधारने में सहायक नहीं हो सकी। ऐसा तब हुआ जब आजादी के 40 वर्षो तक देश में कांग्रेस का ही शासन रहा। समय के साथ मुस्लिम समाज का कांग्रेस से कुछ मोह भंग हुआ और वे अन्य राजनीतिक दलों के निकट चले गए, लेकिन उनके लिए भी वे एक वोट बैंक ही रहे। वर्तमान में भाजपा और शिवसेना को छोड़कर जो भी राजनीतिक दल खुद को मुस्लिम समाज का हितैषी बताते हैं वे इस समाज को एक वोट बैंक ही अधिक मानते हैं। समाज के किसी वर्ग, समुदाय का आरक्षण के आधार पर उत्थान करने की किसी कोशिश के पहले इस प्रश्न पर गौर किया जाना चाहिए कि क्या आरक्षण से अनुसूचित जातियों-जनजातियों का वास्तव में उद्धार हुआ है? इस प्रश्न पर इसलिए भी विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि एक ओर जहां उच्चतम न्यायालय ने मुस्लिम समाज को चार प्रतिशत आरक्षण देने की आंध्रप्रदेश सरकार की मांग स्वीकार कर ली वहीं दूसरी ओर रंगनाथ मिश्र आयोग की उस रपट को लागू करने की मुहिम तेज होती दिख रही है जिसमें धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने की सिफारिश की गई है। पश्चिम बंगाल सरकार ने तो चुनावी लाभ लेने के लिए इस सिफारिश पर अमल की घोषण भी कर दी है। यह माना जा रहा है कि उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद केंद्र सरकार रंगनाथ मिश्र आयोग की रपट पर अमल की संभावनाएं तलाशेगी। इसके आसार इसलिए भी अधिक हैं, क्योंकि महिला आरक्षण विधेयक में मुस्लिम महिलाओं को अलग से आरक्षण देने की व्यवस्था नहीं है और इसी कारण सपा, बसपा, राजद और कुछ अन्य दल कांग्रेस को मुस्लिम विरोधी बताने में लगे हुए हैं। यदि उच्चतम न्यायालय के इस फैसले के बाद रंगनाथ मिश्र आयोग की रपट पर अमल होता है तो आरक्षण की राजनीति एक नया रूप ग्रहण करेगी। यह समय ही बताएगा कि आरक्षण की मौजूदा राजनीति से कांग्रेस को कितना राजनीतिक लाभ मिलेगा, लेकिन यह तय है कि देश को आरक्षण की अन्य अनेक मांगों का सामना करना पड़ेगा। यह मांग तो अभी से उठनी शुरू हो गई है कि ईसाई और मुस्लिम दलितों को भी आरक्षण दिया जाए। नि:संदेह ईसाई और मुस्लिम दलित आर्थिक रूप से कमजोर हैं, लेकिन इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि इन लोगों ने मुख्यत: आर्थिक पिछड़ेपन से छुटकारा पाने के लिए ही धर्मातरण किया था। यदि एक बार पंथ के आधार पर किसी समाज को आरक्षण दिया गया तो अन्य समाज भी इसी आधार पर आरक्षण अवश्य मांगेंगे। क्या यह सही समय नहीं जब राजनीतिक दल इस पर विचार करें कि आखिर आरक्षण की यह राजनीति कहां खत्म होगी और क्या सामाजिक समरसता के नाम पर की जा रही यह राजनीति भारतीय समाज को विभाजित नहीं कर रही? इस आवश्यकता से कोई इनकार नहीं कर सकता कि समाज के वंचित, विपन्न एवं पिछड़े तबकों का उत्थान प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए, लेकिन क्या इसके लिए कोई ऐसा तरीका नहीं हो सकता जिससे वोट बैंक की राजनीति को और बढ़ावा न मिले तथा आरक्षण की राजनीति भारतीय समाज को बांटने का काम न करे? समाज का समग्र विकास करने का यह कोई आदर्श तरीका नहीं कि जाति, पंथ, क्षेत्र, भाषा के आधार पर आरक्षण का सिलसिला तेज होता जाए।

साभार:-दैनिक जागरण

कांग्रेस का मुस्लिम कार्ड

आंध्र प्रदेश में पंथ आधारित आरक्षण को कांग्रेस की तुच्छ राजनीतिक अवसरवादिता करार दे रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता
पिछड़े मुसलमानों को चार प्रतिशत आरक्षण देने के आंध्र प्रदेश सरकार के फैसले पर सम्मति जताकर सुप्रीम कोर्ट ने शायद अनजाने में ही सामाजिक विप्लव के बीज बो दिए हैं, जिसके दूरगामी परिणाम होंगे और ये पूरी तरह भारत के हित में नहीं होंगे। सच है कि पंथ आधारित आरक्षण जिस पर 1950 में सर्वसम्मति नहीं बन पाई थी, सुप्रीम कोर्ट की पूर्ण संवैधानिक पीठ को सौंप दिया गया है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने में समय लग सकता है, फिर भी आंध्र प्रदेश को मिली अनुमति निश्चित तौर पर आरक्षण की नई महामारी का आधार बनेगी। सामाजिक इंजीनियरिंग का नया अखाड़ा पहले ही तैयार हो चुका है। रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट में मुसलमानों को 10 प्रतिशत और दलित ईसाइयों को अतिरिक्त कोटे की अनुशंसा पर कांग्रेस का ध्यान है, जो महिला आरक्षण विधेयक को लेकर मुसलमानों की तीखी प्रतिक्रिया को ठंडा करने के उपाय तलाश रही है। पार्टी की दोषपूर्ण नीतियों में नए समीकरण तैयार किए जा रहे हैं। कांग्रेस पिछड़ी जातियों और मुसलमानों की उभरती एकता को पहले से जारी पिछड़े कोटे में मुसलमानों की हिस्सेदारी के आधार पर खंडित करना चाहती है, क्योंकि पिछड़ी जातियों में, खासतौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार में, 1967 के बाद से कांग्रेस को समर्थन देने का रुझान नहीं रहा है, इसलिए सर्वश्रेष्ठ चुनावी रणनीति यही है कि आरक्षण के आधार पर मुसलमानों को लुभाया जाए। दक्षिण भारत में दलित ईसाई और मुस्लिम वोट कांग्रेस के लिए अतिरिक्त रूप से फायदेमंद होंगे। वस्तुत: जब महिला आरक्षण विधेयक से अनपेक्षित रूप में शक्तियों के नए समीकरण बन गए तो कांग्रेस ने इस मामले को ठंडे बस्ते में डालना उचित समझा। उसकी हिचक का कारण यह विश्वास है कि मुस्लिम कोटे से भाजपा में नई जान पड़ जाएगी और उच्च जातियां भाजपा की तरफ झुक जाएंगी। कांग्रेस मानती थी कि सामान्य परिस्थितियों में भाजपा के हाथ से उच्च जातियां और मध्यवर्ग फिसल जाएगा, विशेष तौर पर अगर कांग्रेस का पुनरुत्थान होता है। यह दिलचस्प है कि भाजपा के भय का अनेक मुस्लिम संगठनों को एहसास नहीं हुआ। उनका आकलन था कि आंतरिक तौर पर बंटी हुई भाजपा हिंदू वोटों को अपने पक्ष में नहीं रख पाएगी और इसलिए पंथ आधारित आरक्षण के लिए कांग्रेस पर दबाव बनाना चाहिए। महिला आरक्षण विधेयक और आंध्र प्रदेश फैसले के बाद मुस्लिम संगठन कांग्रेस की कमजोर नस पर हाथ रखकर उस पर दबाव बढ़ाना शुरू कर देंगे। जहां तक भाजपा का सवाल है, मुस्लिम गुट दीर्घकालीन Oास के अपने पुराने आकलन में संशोधन नहीं कर रहे हैं। घात-प्रतिघात के इस जटिल खेल से भारत की बदरंग तस्वीर उभर रही है। 2009 की चुनावी जीत को कांग्रेस जिस हक की राजनीति की उपज मान रही थी, अब वह पूरी तरह उन्माद में बदल गई। अगर महिला आरक्षण विधेयक असमान लैंगिक आधारित खामी के रूप में स्वीकारता है तो रंगनाथ रिपोर्ट देश को पंथिक खेमों में बांटती है। 1950 में संविधान लागू होने के बाद से सांप्रदायिक निर्वाचन और पंथ-आधारित आरक्षण का कोई दूसरा उदाहरण देखने को नहीं मिलता। संवैधानिक सभा का मानना था कि देश के बंटवारे के लिए पंथिक मतभेदों का संस्थानीकरण जिम्मेदार है और वह इस प्रक्रिया का दोहराव न होने देने के लिए प्रतिबद्ध थी। 28 अगस्त, 1947 को संविधान सभा में मुस्लिम लीग के बचे हुए सदस्यों को संबोधित करते हुए सरदार वल्लबभाई पटेल ने दोटूक कहा, अतीत को भूल जाओ। आप जो चाहते थे, आपने पा लिया। आपको एक अलग राष्ट्र मिल गया और याद रखें कि आप ही वे लोग हैं, जो इसके लिए जिम्मेदार हैं, वे नहीं जो पाकिस्तान में रह गए हैं..आपने देश का विभाजन कराया और मुझसे चाहते हैं कि अपने छोटे भाइयों का स्नेह प्राप्त करने के लिए मैं फिर से देश को विभाजित करूं। अगस्त 1947 में अलगाववादी शक्तियों के दबाव में न आने का कांग्रेस में जो सुस्पष्ट संकल्प दिखाई दे रहा था, अब वह मुर्झा गया है। इसका कारण अधिकारों की नई खोज नहीं है, बल्कि सीधा-सादा विचार है कि ठोस मुस्लिम वोट बैंक 75 से 120 लोकसभा सीटों के परिणाम पर असर डालता है किंतु कोई भी ऐसी सांगठनिक शक्ति नहीं है, जो इसका इस्तेमाल कर सके। जिस दिन ऐसी प्रतिरोधक शक्ति उभरकर सामने आएगी, उसी दिन कांग्रेस अलगाववादी दबाव के सामने और समर्पण कर देगी। 1947 में कांग्रेस आत्मविश्वास से लबरेज पार्टी थी, जिसका अपना जनाधार था। 2010 में कांग्रेस अन्य पार्टियों के समान हो गई है, जिसका अपना पक्का वोट बैंक नहीं है। एक तरह से यह आज के भारत की वास्तविक त्रासदी है। देश के राजनीतिक विखंडन में एक प्रतिबद्ध, सुसंगठित अल्पसंख्यक समुदाय मौके की नजाकत का फायदा उठा लेने की ताक में है, चाहे इसके लिए उसे संविधान को उलटना ही क्यों न पड़े। अगर संप्रग सरकार रंगनाथ मिश्रा के बताए रास्ते पर चलती है तो यह पूरे देश के लिए खतरनाक संदेश होगा। 2009 में मध्य वर्ग के मतदाताओं ने उकसाऊ राजनीति को नकार दिया और एक संयत, उदार व आधुनिक रुख का समर्थन किया। अगर कांग्रेस दुर्भाग्यपूर्ण अतीत के भूत को फिर से जगाती है और पंथिक आग्रहों को उभारती है तो यह जनादेश का मखौल होगा। आधुनिक भारतीय पहचान की चिंता न करें, सत्तारूढ़ दल हमें हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई बनने की नसीहत दे रहा है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

टर्मिनेटर बीजों का प्रयोग

देश में बीटी बैगन का विवाद थमा भी नहीं था कि बिहार में एक और बड़ा हादसा हो गया। मक्का यहां की प्रमुख फसल है। जिन किसानों ने पूसा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित बीज या अपने परंपरागत बीज बोए थे उनके पौधों में दाने भरपूर हैं। लेकिन लगभग दो लाख एकड़ भूमि में टर्मिनेटर सीड (निर्वश बीजों) का प्रयोग किया गया। इसके पौधे लहलहाए जरूर लेकिन उनमें दाने नहीं निकले। जिन किसानों ने टर्मिनेटर बीजों का प्रयोग किया, उनके खेतों में पौधों से दाने गायब थे। किसानों ने इन बीजों को 180 से 285 रुपये प्रति किलोग्राम की दर पर खरीदा था। खाद, बीज सिंचाई, मेहनताना सब मिलाकर प्रति एकड़ लगभग 10 हजार रुपये की लागत आई थी। यानी 25 हजार रुपये प्रति हेक्टेयर। 80 प्रतिशत किसानों ने महाजनों से पांच रुपये प्रति सैकड़ा/ महीना की दर पर कर्ज लेकर खेती की थी। बड़ी जद्दोजहद के बाद मुख्यमंत्री ने स्वीकार किया कि एक लाख उनसठ हजार एकड़ (63 हजार हेक्टेयर) में मक्के की फसल में दाने नहीं आए। सरकार ने प्रति हेक्टेयर 10 हजार रुपये (यानी प्रति एकड़ सिर्फ चार हजार रुपये) मुआवजा देने की घोषणा की है। यह रकम खेत में लगी लागत के आधे से भी कम है। मुआवजा तो लागत के अतिरिक्त फसल की संभावित उपज के आधर पर दी जानी चाहिए थी। फिर जो किसान दूसरों से बटाई पर जमीन लेकर खेती कर रहे थे उनको तो एक पाई भी नहीं मिलेगी। आज से सात साल पूर्व 2003 में भी बिहार में ऐसा ही हादसा हुआ था। तब टर्मिनेटर (निर्र्वश) बीजों के प्रयोग के कारण फसल में दाने नहीं आए थे। देश में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां टर्मिनेटर बीजों का व्यापार करती हैं। इन बीजों से उत्पादित मक्का, गेहूं, टमाटर या कपास को खेत में दोबारा नहीं उगाया जा सकता। आखिर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को किसने यह अधिकार दिया कि इस प्रकार किसानों को अंधेरे में रखकर बड़े पैमाने पर अपने बीजों का ट्रायल करें। इन कंपनियों को इस गफलत के लिए कानूनी घेरे में लिया जाना चाहिए और उनसे किसानों के हर्जाने की भरपाई करानी चाहिए। उन पर भारी जुर्माना लगाया जाना चाहिए। इसी तरह कृषि विभाग के जो अधिकारी इन बीजों के प्रयोग की छूट देने के लिए जिम्मेदार हैं उन्हें भी जेल भेजा जाना चाहिए। सन 2002 में मध्य प्रदेश में किसानों को प्रलोभन देकर दस हजार एकड़ में बीटी कपास की खेती करा‌र्‌र्र्ई ग‌र्‌र्र्ई। पूरी फसल बर्बाद हो ग‌र्‌र्र्ई। आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात तथा अन्य राज्यों में भी जीएम बीजों के कारण फसल बर्बाद हुई है और वहां के किसान लगातार इसका विरोध कर रहे हैं। टर्मिनेटर बीज बनाने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियां मूलत: रसायन बनाने वाली कंपनियां हैं। इन बड़ी कंपनियों की वैश्विक आय का आधा खरपतवार नाशकों तथा अन्य रसायनों से आता है। आज दुनिया भर के जेनेटिकली मोडिफायड बीजों के व्यापार का अधिकांश इन्हीं कंपनियों के हाथों में है। ये कंपनियां राजनेताओं, नौकरशाहों और कृषि वैज्ञानिकों को आर्थिक लाभ पहुंचाकर अपने पक्ष में फैसले करवाने के लिए कुख्यात हैं। यह ध्यान रहे कि पूरे विश्व में निर्वंश बीजों का विरोध हो रहा है। यूरोप के कई देशों में इन पर प्रतिबंध भी लगाया गया है। खेती में जहरीले रसायनों के प्रयोग से पंजाब में कैंसर तथा अन्य घातक बीमारियों को तेजी से प्रसार हुआ है। वहां के खेत ऊसर होते जा रहे हैं। अनाज का कटोरा कहे जाने वाले इस प्रदेश में किसानों की हालत बिगड़ती जा रही है और वे आत्महत्या के लिए विवश हो रहे हैं। बड़ी-बड़ी बीज कंपनियों की लोलुप नजरें विकासशील देशों की जैव विविधता पर लगी हैं। एक ओर ये जीएम बीज बनाकर उनका पेंटेंट करा रही हैं और दूसरी ओर बीजों का एकाधिकार कायम करने के लिए निर्वंश बीजों के द्वारा हमारे बीजों के भंडार तथा हमारी जैव विविधता को नष्ट कर रही हैं। जिन खेतों में निर्वंश बीजों का प्रयोग होता है उसके आस-पास की दूसरी फसलों पर भी इनके पराग फैल जाते हैं और उन फसलों के बीजों को भी निर्र्वश कर देते हैं। यह माना जा रहा है कि निर्वंश बीजों से उपजे पौधों में जहरीले रसायन उत्पन्न होते हैं, जो किसी खास कीट को तो नष्ट कर देते हैं लेकिन अन्य प्रकार के कीटों को मारने के लिए अन्य जहरीले रसायनों का प्रयोग करना पड़ता है। यही नहीं, रासायनिक फर्टिलाइजर तथा सिंचाई की भी इसमें भरपूर जरूरत पड़ती है। इनके पौधे जहरीले हो जाते हैं इसलिये चारे के रूप में इन्हें खा कर पशु बीमार पड़ते हैं और कई बार मरते भी हैं।
साभार:-दैनिक जागरण

विडंबनाओं से भरा देश

विश्व के सबसे धनी उद्योगपतियों और भूख से मरते लोगों के बीच टूटे सूत्रों को जोड़ रहे हैं महीप सिंह
भारत बड़ी तेजी से आर्थिक विकास की सीढि़यां चढ़ रहा है। संसार के दस सबसे धनवान व्यक्तियों में तीन भारत के हैं। हमारे देश के भगवान भी संपन्नता में किसी से पीछे नहीं हैं। संसार में शायद ही कोई ऐसा धर्मस्थल हो जो तिरुपति स्थित बालाजी मंदिर का मुकाबला कर सके। इस मंदिर में समृद्ध भक्तजनों द्वारा जो चढ़ावा चढ़ाया गया है, उसका मूल्य 30 से 50 हजार करोड़ रुपये है। पिछले वर्ष कर्नाटक के पर्यटन मंत्री और बेल्लारी खदानों के मालिक जी. जनार्दन रेड्डी ने इस मंदिर में 42 करोड़ रुपये मूल्य का हीरो-मोतियों से जड़ा मुकुट चढ़ाया था। इस तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। भारत में आज भी लगभग 40 करोड़ लोग गरीब हैं जिनकी आय 50 रुपये रोजाना भी नहीं है। इस देश के आधे से अधिक लोग कुपोषण के शिकार हैं। विश्व खाद्य कार्यक्रम के अनुसार संसार में भुखमरी की शिकार कुल आबादी का एक-चौथाई भारत में हैं। भारत गेहूं और चावल के उत्पादन में संसार में दूसरे स्थान पर है। सरकारी गोदामों में पांच करोड़ टन अनाज सदा जमा रहता है। इतने विशाल खाद्य भंडार के बावजूद भूख से मरने वालों के समाचार आए दिन समाचार पत्रों में आते रहते हैं। ताजा समाचार यह है कि आदिवासी बाहुल्य बस्तर संभाग के बीजापुर जिले से काम की तलाश में आंध्र प्रदेश गए पांच आदिवासियों की रास्ते में भूख-प्यास के कारण मौत हो गई। भूख से मरने वालों के ऐसे समाचार उड़ीसा, बिहार, आंध्र प्रदेश, बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों से यदा-कदा आते रहते हैं। क्या यह विडंबना नहीं है? एक ओर अमेरिका के बाद सबसे अधिक अरबपति भारत में हैं और दूसरी ओर संसार के सबसे अधिक गरीब और कुपोषण के शिकार भी इसी देश में हैं। यदि कुछ लोग भूख-प्यास से दम तोड़ दें तो इससे बड़ा कलंक और अपराध कोई हो ही नहीं सकता। इस देश में न कभी धन की कमी रही न धान्य की। मध्य एशिया के कबाइली आक्रांता सदैव इन दो चीजों को लूटने के लिए इस देश में आते थे। विदेशी आक्रमणकारी या तो यहां के छोटे-बड़े राजाओं को लूटते थे या मंदिरों को। अकूत धन इन दोनों के पास होता था। आज भी स्थिति लगभग वैसी ही है। देश का सारा धन तीन स्थानों पर केंद्रित है उद्योगपति, राजनेता और मठ-मंदिर। सामान्य जनता पहले भी लुटती थी, आज भी लुटती है। केंद्र सरकार में एक मंत्रालय है- गरीबी उन्मूलन मंत्रालय। प्रश्न यह है कि क्या इस मंत्रालय की योजनाएं उन क्षेत्रों तक पहुंच रही हैं जहां आज भी गरीबी सबसे बड़ी व्याधि बनी हुई है। यह असंतुलन कैसे दूर होगा? यह सही है कि अच्छी चिकित्सा सुविधाओं और स्वास्थ्य संबंधी बढ़ती जागरूकता के कारण देश के लोगों की औसत आयु बढ़ी है। किंतु क्या ऐसी सुविधाएं और जागरूकता उन लोगों तक भी पहुंच रही हैं, जिनकी गणना 40 करोड़ से अधिक है और जो उन भागों में रहते हैं जहां विकास का प्रकाश पहुंचने में लंबा समय लग रहा है। सरकार को एक घोषणा तुरंत करनी चाहिए कि इस देश में किसी को भूख से मरने नहीं दिया जाएगा। इसके लिए दंड विधान होना चाहिए। जिस भी क्षेत्र में किसी व्यक्ति की मृत्यु भूख-कुपोषण के कारण होती है तो वहां के जिलाधिकारी के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। देश के गोदामों में आज भी पांच करोड़ टन अनाज भरा हुआ है। यह भी आशा जताई जा रही है कि इस वर्ष अनाज की भरपूर पैदावार होगी। सरकार की ओर से यह चिंता व्यक्त की जा रही है कि इस भरपूर पैदावार को कहां रखा जाएगा क्योंकि सरकारी खाद्यान्न भंडारों में इतना स्थान नहीं है। यह भी कैसी विडंबना है कि एक ओर करोड़ों व्यक्ति अनाज के अभाव में भूखे हैं और दूसरी ओर गोदामों में अनाज भरा पड़ा है। कई बार तो अच्छे रख-रखाव के अभाव में बड़ी मात्रा में यह सड़ जाता है। क्या इस देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कही बहुत बड़ा दोष है? क्या इस क्षेत्र में फैला भ्रष्टाचार इतना व्यापक है कि थोड़े से अनाज के लिए त्राहि-त्राहि करते लोगों तक वह पहुंच नहीं पाता। मेरे मन में प्रश्न उठता है कि क्या हमारे देश के अरबपति और अत्यंत समृद्ध धर्म-स्थल देश के असंख्य लोगों की विपन्नता दूर करने में कुछ नहीं कर सकते? संकट यह है कि सभी करोड़पति और अरबपति मूलत: व्यापारी हैं। एक व्यापारी धन खर्च नहीं करता, वह धन का निवेश करता है। जहां कहीं भी वह दान करता है, वह आशा करता है कि भगवान उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उसकी समृद्धि में और बढ़ोतरी करेगा। जिस व्यक्ति ने बालाजी के लिए 42 करोड़ रुपये का मुकुट भेंट किया, उसके पास कितना धन होगा, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। किंतु वह भी संसार के गिने-चुने अरबपतियों में अपनी गणना करवाना चाहता होगा। उसका विश्वास हेागा कि तिरुपति के बालाजी की एक अनुकंपा भरी दृष्टि उसे गन्तव्य तक पहुंचा सकती है। जी. जनार्दन रेड्डी ने इस अनुकम्पा को पाने के लिए 42 करोड़ रुपये का निवेश कर दिया। जिस भगवान के संबंध में हम बचपन से सुनते आए हैं उसे दरिद्रनारायण कहा जाता है। यदि आज बालाजी के पास पचास हजार करोड़ की संपत्ति है तो क्या उसका उपयोग दरिद्रों और गरीबों के लिए नहीं होना चाहिए? उसे अनेक सुरक्षा कर्मियों की बंदूकों की छाया में बंद रखने की क्या आवश्यकता है? गरीबी उन्मूलन में स्वयंसेवी संगठन भी महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। लगता है कि इस देश की प्राथमिकताओं में कुछ गड़बड़ है। हम 25 करोड़ रुपये की लागत से अयोध्या में भव्य राम मंदिर अवश्य बनाना चाहते है किंतु यदि कुछ राम-भक्त भूख से तड़पते हुए मर जाएं, तो वह हमारी चिंता का विषय नहीं है। (लेखक जाने-माने साहित्यकार हैं)

कांग्रेस का नया कार्यक्रम

बच्चन परिवार को अवांछित करार देने के कांग्रेस के कृत्य को घटिया राजनीति बता रहे हैं राजीव सचान
यह लज्जास्पद ही नहीं, बल्कि घृणास्पद भी है कि देश का नेतृत्व कर रही कांग्रेस देश-दुनिया की समस्याओं से जूझने की बजाय यह सुनिश्चित करने में लगी हुई है कि हिंदी फिल्मों के अप्रतिम अभिनेता अमिताभ बच्चन और उनके परिवार को कैसे अपमानित और लांछित किया जाए? यदि कांग्रेस महज एक राजनीतिक दल के रूप में ऐसा क्षुद्र आचरण कर रही होती तो उसका किन्हीं तर्को-कुतर्को के साथ बचाव किया जा सकता था, लेकिन आखिर कांग्रेस शासित केंद्र एवं राज्य सरकारें किसी भारतीय नागरिक को अवांछित कैसे घोषित कर सकती हैं और वह भी तब जब उस नागरिक का नाम अमिताभ बच्चन हो? कांग्रेस को अमिताभ से असहमत होने और यहां तक कि उनका विरोध करने का अधिकार है, लेकिन उसके मंत्री और मुख्यमंत्री उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार कैसे कर सकते हैं? क्या अमिताभ बच्चन देशद्रोही हैं? यह संभव है कि कांग्रेस की ओर से जो राजनीतिक तुच्छता दिखाई जा रही है उससे अमिताभ बच्चन की सेहत पर फर्क न पड़े, लेकिन यह तथ्य आम भारतीयों को ग्लानि से भर देने वाला है कि विनम्र-विद्वान छवि वाले मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए आम कांग्रेसी नहीं, बल्कि उसके मंत्री-मुख्यमंत्री देश के सबसे लोकप्रिय अभिनेता की बेइज्जती कर रहे हैं? कांग्रेस अपने ऐसे आचरण के जरिये एक तरह से यह कहने में लगी हुई है कि आओ, हमसे सीखो कि अमिताभ बच्चन जैसे शख्स को कैसे बेइज्जत किया जा सकता है? यह सही है कि अमिताभ बच्चन गुजरात के ब्रांड एम्बेसडर बन गए हैं, लेकिन क्या यह कोई गुनाह है? क्या गुजरात देश के बाहर का कोई ऐसा हिस्सा है जहां से भारत विरोधी गतिविधियां चलाई जा रही हैं? हालांकि अमिताभ बच्चन यह स्पष्टीकरण दे चुके हैं कि वह गुजरात के ब्रांड एम्बेसडर हैं, नरेंद्र मोदी के नहीं, फिर भी अनेक लोगों को उनका फैसला रास नहीं आया है और वे उनकी आलोचना कर रहे हैं। इस आलोचना में कोई बुराई नहीं, बुराई इसमें है कि महाराष्ट्र, दिल्ली की सरकारों के साथ-साथ केंद्रीय सत्ता के प्रतिनिधि अमिताभ बच्चन को अवांछित बताने का काम कर रहे हैं। चूंकि अशोक चव्हाण के साथ-साथ कांग्रेस के एक प्रवक्ता साफ तौर पर कह चुके हैं कि सरकारी कार्यक्रमों में बच्चन की मौजूदगी मंजूर नहीं है इसलिए इस नतीजे पर पहुंचने के अलावा और कोई उपाय नहीं कि बिग बी को अपमानित करने का फैसला कांग्रेसी सरकारों का नीतिगत निर्णय है। आखिर ऐसा भी नहीं है कि गुजरात का ब्रांड एम्बेसडर बनना कोई गैर कानूनी कृत्य हो। अभी यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह गुजरात के ब्रांड एम्बेसडर के रूप में उसी तरह का काम करेंगे जैसा उन्होंने मुलायम सिंह के शासन में उत्तर प्रदेश का ब्रांड एम्बेसडर बनकर किया था। तब वह कहा करते थे कि यूपी में दम है..। हो सकता है कि वह गुजरात के बारे में भी ऐसा ही कुछ रहें या फिर केवल इस राज्य की प्राकृतिक-सांस्कृतिक विरासत का गुणगान करें। संभव है कि लोगों को उनकी ओर से गुजरात की तारीफ में जो कुछ कहा जाए वह पसंद न आए, लेकिन क्या इसके आधार पर उनके किसी राज्य के ब्रांड एम्बेसडर बनने के अधिकार पर कुठाराघात किया जा सकता है? दिल्ली में आयोजित अर्थ ऑवर शो प्रतीकात्मक ही सही, एक बड़े उद्देश्य के लिए था। कांग्रेसजनों को इस शो के ब्रांड एम्बेसडर अभिषेक बच्चन के पोस्टर हटाने अथवा हटवाने के पहले इस पर लाज क्यों नहीं आई कि कम से कम ग्लोबल वार्मिग के प्रति आम जनता को जागरूक बनाने के इस कार्यक्रम में संकीर्णता दिखाने से बचा जाए? अर्थ ऑवर शो में हुए अनर्थ पर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की इस सफाई पर आश्चर्य नहीं कि उन्हें नहीं पता कि अभिषेक इस कार्यक्रम के ब्रांड एम्बेसडर हैं। चूंकि बच्चन परिवार की बेइज्जती का कांग्रेसी कार्यक्रम शासनादेश जारी कर नहीं चलाया जा रहा इसलिए शीला दीक्षित को झूठ का सहारा लेना पड़ा। इसके पहले अमिताभ के भय से जयराम रमेश बाघ बचाओ अभियान के कार्यक्रम से गायब रहे। इसी तरह अशोक चह्वाण को पुणे में आयोजित एक साहित्यिक कार्यक्रम में एक दिन पहले हाजिरी बजानी पड़ी। इस पर गौर करें कि कांग्रेसजन कैसे कार्यक्रमों में अपनी ओछी राजनीति का परिचय दे रहे हैं-अर्थ ऑवर शो में, बाघ बचाओ अभियान में और मराठी साहित्य सम्मेलन में। कम से कम ऐसे कार्यक्रमों को तो घटिया राजनीति से दूर रखा ही जा सकता था। बीते दिनों कांग्रेस के आग्रह के बावजूद मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ने गांधी नगर में उस समारोह में शिरकत की जिसमें नरेंद्र मोदी भी थे। क्या अब कांग्रेस उनका भी अमिताभ बच्चन की तरह विरोध करेगी? बेहतर होगा कि कांग्रेस बच्चन परिवार को कानूनी रूप से अवांछित घोषित करा दे। तब कम से कम कांग्रेसी नेता अमिताभ-अभिषेक से कन्नी काटने के लिए झूठ का सहारा लेने से तो बच जाएंगे। माना कि कांग्रेस को नरेंद्र मोदी से चिढ़ है और वह उनके साथ खड़े होने वालों को भी बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं, लेकिन क्या इस तथ्य को झुठला दिया जाए कि वह भारत के एक प्रांत के मुख्यमंत्री भी हैं और उन्हें ठीक उसी तरह लोगों ने चुना है जैसे शीला दीक्षित और अशोक चह्वाण को? क्या अब कांग्रेस अमिताभ बच्चन की तरह रतन टाटा, मुकेश अंबानी आदि को भी अवांछित करार देगी, क्योंकि ये दोनों न केवल गुजरात में भारी निवेश कर रहे हैं, बल्कि मोदी की तारीफ भी कर रहे हैं? क्या मुख्यमंत्रियों के अगले सम्मेलन में कांग्रेसी राज्यों के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को घुसने से रोकेंगे या फिर उनके आते ही सम्मेलन छोड़कर चले जाएंगे? (लेखक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)

Thursday, March 25, 2010

सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुर्दशा

उच्चतम न्यायालय की एक समिति के इस निष्कर्ष पर तनिक भी आश्चर्य नहीं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली नितांत अक्षम और भ्रष्ट है। भले ही उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश डीपी वधवा की अध्यक्षता वाली केंद्रीय सतर्कता समिति ने यह न स्पष्ट किया हो कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत सब्सिडी पर सालाना 28000 करोड़ रुपये की जो भारी-भरकम राशि खर्च की जाती है उसमें कितना हिस्सा भ्रष्ट तत्वों की जेबों में चला जाता है, लेकिन इस प्रणाली में जिस तरह हर स्तर पर भ्रष्टाचार का बोलबाला है उसे देखते हुए पांच-दस प्रतिशत राशि का भी सदुपयोग होने की उम्मीद नहीं है। चूंकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में ऊपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार व्याप्त है इसलिए इसमें संदेह है कि कुछ कड़े कदम उठाने से अपेक्षित सुधार आ जाएगा। ऐसा होने की उम्मीद इसलिए और भी कम है, क्योंकि अफसरशाही, राशन दुकानदारों और दलालों के बीच गठजोड़ कायम हो चुका है। इसके चलते गरीबों का खाद्यान्न राशन दुकानों तक पहुंचे बगैर सीधे आटा मिलों तक पहुंच जाता है। यह शर्मनाक है कि यह काम दिल्ली तक में होता है। जब दिल्ली में यह हाल है तो इस पर सुनिश्चित हुआ जा सकता है कि शेष देश में और भी बुरी स्थिति होगी। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं कि राज्य सरकारें सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार के लिए बिलकुल भी गंभीर नहीं हैं। स्पष्ट है कि केंद्र सरकार निर्धन तबके को 28 हजार करोड़ रुपये की जो सब्सिडी देती है वह राज्य सरकारों की लापरवाही के चलते अफसरशाही, राशन दुकानदारों और दलालों के गठजोड़ को उपलब्ध हो रही है। एक तरह से केंद्र और राज्य सरकारें भ्रष्टाचार की एक सार्वजनिक प्रणाली चला रही हैं। यह समझना कठिन है कि गरीबों के नाम पर ऐसी प्रणाली चलाते रहने का क्या अर्थ जो सिर्फ भ्रष्ट तत्वों को मालामाल कर रही हो? वैसे तो राज्य सरकारें बात-बात में केंद्र को कठघरे में खड़ा करती रहती हैं, लेकिन सच यह है कि वे अपनी हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वाह करने में सर्वथा नाकारा हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के भ्रष्टाचार में जकड़ जाने के लिए राज्य सरकारें केंद्र को दोष नहीं दे सकतीं। उन्हें इसका पूरा-पूरा अधिकार है कि वे इस प्रणाली को प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए हर संभव उपाय करें। शायद ही कोई राज्य सरकार हो जिसने इस प्रणाली में कोई उल्लेखनीय सुधार किया हो। ऐसा लगता है कि केंद्र सब्सिडी बांट कर खुश है और राज्य राशन दुकानें खुलवाकर। वधवा कमेटी ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली की जो भयावह तस्वीर सामने रखी उसकी हकीकत से केंद्र और राज्य सरकारें पहले से अवगत थीं, लेकिन ऐसा लगता है कि वे उच्चतम न्यायालय के दखल के इंतजार में बैठी थीं। नि:संदेह यह न्यायपालिका का काम नहीं कि वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुर्दशा देखे, लेकिन उसे इसके लिए विवश होना पड़ा। उसकी विवशता शासनतंत्र के नाकारापन का एक और शर्मनाक उदाहरण है। यदि केंद्र एवं राज्य सरकारें सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार और गरीबों की मदद करने के लिए तनिक भी प्रतिबद्ध हैं तो उन्हें इस प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन करके दिखाना होगा। आवश्यकता पड़ने पर इस प्रणाली को खत्म कर निर्धनों को सीधे खाद्यान्न कूपन देने में भी संकोच नहीं किया जाना चाहिए।
सम्पादकीय दैनिक जागरण

हेडली से अमेरिकी प्रशासन का समझौता

पाकिस्तान मूल के आतंकी दाऊद गिलानी उर्फ डेविड कोलमेन हेडली से अमेरिकी प्रशासन का समझौता भारत के लिए एक आघात तो है ही, आतंकवाद के मामले में अमेरिका के दोहरे आचरणका एक और सबूत भी है। एक बार फिर अमेरिका ने वही किया जो सिर्फ उसके हितों की पूर्ति करने वाला था। हेडली से समझौता कर अमेरिका ने इस आशंका की पुष्टि कर दी कि यह आतंकी लश्कर का गुर्गा होने के साथ-साथ उसकी खुफिया एजेंसी एफबीआई का भेदिया भी था। यह ठीक है कि अमेरिका इस तथ्य पर पर्दा डालना चाहेगा, लेकिन यह निंदनीय है कि इस कोशिश में उसने एक ऐसे आतंकी से समझौता किया जो डेढ़ सौ से अधिक लोगों की हत्या के लिए जिम्मेदार है। इस पर गौर किया जाना चाहिए कि अमेरिकी प्रशासन और हेडली के बीच हुए समझौते की एक शर्त यह है कि उसे भारत और डेनमार्क प्रत्यर्पित नहीं किया जा सकता। चूंकि हेडली डेनमार्क के एक अखबार के दफ्तर में हमला करने की साजिश को अंजाम देने के पहले ही पकड़ा गया इसलिए यह देश शायद ही उससे पूछताछ करने का इच्छुक हो, लेकिन न्याय का तकाजा तो यह कहता है कि उसे भारत लाया जाना चाहिए। कम से कम अब तो हमारे नीति-नियंताओं को यह समझ आ जाना चाहिए कि अमेरिका ने अपने लिए अलग और शेष दुनिया के लिए अलग नियम बना रखे हैं। यह बेहद दयनीय है कि भारत अमेरिका के इस आश्वासन पर राहत महसूस कर रहा है कि उसे हेडली से पूछताछ करने का अवसर दिया जाएगा। इसमें संदेह है कि ऐसा हो पाएगा। हेडली से पूछताछ करने में अमेरिका इतने अड़ंगे लगा सकता है कि भारतीय अधिकारी उससे पूछताछ न करना ही बेहतर समझें। अमेरिका ने आतंकी हेडली के हितों की रक्षा के लिए जो तत्परता दिखाई उससे उसके और पाकिस्तान के आचरण में एक समानता सी नजर आने लगी है। आखिर अब अमेरिका किस मुंह से यह कहेगा कि कि मुंबई हमले के दोषियों को दंड मिलना चाहिए, क्योंकि एक दोषी को बचाने का काम तो वह खुद कर रहा है? क्या भारत सरकार अमेरिका से यह सवाल करेगी कि उसे हेडली की जान की इतनी परवाह क्यों है? यह शुभ संकेत है कि गृहमंत्री चिदंबरम कह रहे हैं कि भारत हेडली के प्रत्यर्पण की कोशिश जारी रखेगा, लेकिन यह ठीक नहीं कि विदेश मंत्री एसएम कृष्णा अमेरिकी सहयोग से संतुष्ट हैं। आखिर यह क्या बात हुई? विदेश मंत्री अमेरिका की तरफदारी क्यों कर रहे हैं- और वह भी तब जब अमेरिका आतंकवाद के मामले में दोहरे मानदंड दिखा रहा है? ऐसा लगता है कि हमारे नीति-नियंता यह अहसास नहीं कर पा रहे हैं कि अमेरिका ने अपने संकीर्ण स्वार्थो को पूरा करने के फेर में भारत को धोखा देने का काम किया है। शर्मनाक केवल यह नहीं है कि अमेरिका ने एक कुख्यात आतंकी से समझौता कर लिया, बल्कि यह भी है कि उसकी ओर से हेडली को इस बात का प्रमाण पत्र देने की भी कोशिश की जा रही है कि उसने ईमानदारी से अपने गुनाह कबूल किए हैं और वह सरकार के साथ सहयोग करने के लिए सहमत है। हेडली की यह ईमानदारी ओबामा प्रशासन को ही मुबारक हो। इसका कोई औचित्य नहीं कि भारत हेडली के मामले में अमेरिका के रवैये का प्रतिरोध न करे, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसी संभावना नहीं है कि भारतीय नेतृत्व अमेरिका से अपनी नाराजगी जताएगा।
सम्पादकीय दैनिक जागरण

सरकार की पराजय गाथा

सरकार पर आतंकवाद और विदेश नीति पर अमेरिकी दबाव में राष्ट्र विरोधी फैसले लेने का आरोप लगा रहे हैं तरुण विजय
26/11 के मुख्य षड्यंत्रकारियों में से एक डेविड कोलमैन हेडली से पूछताछ में भारत सरकार की असफलता की स्याही सूखी भी नहीं थी कि रेल मंत्रालय के उस विज्ञापन की चर्चा उभरकर आई, जिसमें दिल्ली को पाकिस्तान में दिखाया गया है। इस मामले पर भी उसी तरह लीपापोती की जा रही है जैसी कुछ दिन पहले समाज कल्याण मंत्रालय के विज्ञापन में पाकिस्तानी वायुसेना अध्यक्ष का चित्र छापने पर की गई थी। इसी बीच तमाम तरह की मक्कारियों और भारत विरोधी आक्रामकताओं के बावजूद पाकिस्तानी पक्ष को वार्ता के लिए बुलाकर भारत सरकार ने अमेरिकी दबाव का आरोप आमंत्रित किया था। उस वार्ता से भी कोई नतीजा नहीं निकला, बल्कि पाकिस्तानी विदेश मंत्री से यहां तक सुन लिया गया कि भारत ने घुटने टेककर पाकिस्तान को वार्ता के लिए बुलाया है। कसाब पर मुकदमा चलते हुए दो साल से अधिक समय हो गया है, परंतु मामला किसी नतीजे तक पहुंचता नहीं दिखता। उधर, अमेरिका ने तो हेडली पर छह महीने से भी कम समय में मुकदमा चलाकर और साक्ष्य जुटाकर निर्णय तक पहुंचने की अद्भुत चुस्ती दिखाई है, जो भारत के लिए एक सबक होना चाहिए। भारत में आम धारणा बन गई है कि अभी तक सरकार किसी भी आतंकवादी को सजा की परिणति तक नहीं पहुंचा पाई है। मुंबई दंगों के आरोपियों को भी 13 साल तक चले मुकदमों के बाद सजा सुनाई गई। अफजल को फांसी न दिए जाने की तो अलग ही कहानी बन चुकी है। कुल मिलाकर यह परिदृश्य उभर रहा है कि सरकार का शरीर भले ही दिल्ली में हो पर उसका मन भारत में नहीं है। इसलिए आतंकवादियों से बातचीत की जाती है, लेकिन देशभक्तों के शरणार्थी बनने पर भी सरकार के मन में दर्द नहीं उमड़ता। 5।5 लाख से अधिक कश्मीरी हिंदू शरणार्थी हैं। मुजफ्फराबाद और रावलपिंडी से 1947 में कश्मीर आए हिंदू शरणार्थियों की संख्या 3 लाख हो गई है। इन्हें अभी तक न कश्मीर की नागरिकता मिली है न ही मतदान करने का अधिकार है। इसके विपरीत पाक अधिकृत गुलाम कश्मीर में आतंकवाद की ट्रेनिंग लेने गए कश्मीरी मुस्लिम युवाओं को भारत के गृहमंत्री और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री द्वारा वापस श्रीनगर लौटने का न्योता दिया जाता है। यह किस मानसिकता का द्योतक है? हेडली का मामला तो सबसे शर्मनाक और आत्मघाती है। हेडली मुख्यत: भारत का अपराधी है। उस पर अमेरिका में मुकदमा चलाए जाने से अधिक न्यायसंगत भारत में मुकदमा चलाया जाना है। 26/11 का मुख्य युद्धस्थल भारत था। हेडली 12 बार भारत आकर षड्यंत्र की आधारभूमि तैयार कर गया था। कुछ अमेरिकियों के उस आक्रमण में मारे जाने के कारण अमेरिका हेडली पर मुकदमा चलाने का मुख्य नैतिक अधिकार नहीं प्राप्त कर लेता जैसे अमेरिका में 9/11 के हमले में कुछ भारतीयों के मारे जाने के परिणामस्वरूप भारत 9/11 के आरोपियों पर मुकदमा चलाए जाने का मुख्य नैतिक अधिकार प्राप्त नहीं कर सकता। लेकिन अमेरिका ने न केवल कसाब से भारत आकर पूछताछ का अधिकार प्राप्त किया, बल्कि जब भारत के गुप्तचर अधिकारी हेडली से पूछताछ के लिए अमेरिका गए तो उन्हें बैरंग वापस लौटा दिया। अमेरिका हेडली से पूछताछ के मामले में यह बात ढकने की कोशिश कर रहा है कि उसने हेडली को मुस्लिम नाम (दाऊद) बदलकर इसाई नाम रखने की अनुमति दी। हेडली अमेरिका के लिए डबल एजेंट का भी काम करता रहा है। ओबामा ने भारत को हेडली के मामले में पूरी तरह से निराश और विफल किया है तो दूसरी ओर भारत की दब्बू अमेरिकापरस्त सरकार ने भारतीय नागरिकों को असफल किया है। भारत सरकार को हेडली के मामले में अमेरिका सरकार के सामने जो आक्रामकता दिखानी चाहिए थी, उसका शतांश भी नहीं दिखाई। दुनिया में आतंकवाद का सबसे अधिक शिकार होने के बावजूद भारत दुनिया के किसी भी देश को प्रभावित करने या उसे अपने साथ आतंकवाद विरोधी मुहिम में जोड़ने में पूरी तरह नाकामयाब रहा है। वास्तव में अमेरिका की आतंकवाद विरोधी नीति पूरी तरह से एकांतिक और स्वार्थ केंद्रित है। यह मानना बड़ी भूल होगी कि ओबामा आतंकवाद विरोधी मुहिम में भारत की संवेदनाओं को समझेंगे या यहां की लोकतांत्रिक परंपरा का सम्मान करेंगे। पाकिस्तान को अमेरिका पूरी तरह से अपनी मुस्लिम विश्वनीति और अपनी दृष्टि के आतंकवाद विरोधी युद्ध में एक आवश्यक सहयोगी के नाते मान्य करता है। उसका स्वार्थ है कि पाकिस्तान अपने पश्चिमी मोर्चे पर अफगानी तालिबानी से लोहा लेता रहे। पाकिस्तान भारत के खिलाफ आतंकवादियों को बढ़ावा दे रहा है या नहीं, इससे अमेरिका को कोई सरोकार नहीं है। यही कारण है कि मुंबई 26/11 के हमले के संदर्भ में अमेरिका द्वारा पकड़े गए हेडली से भारत के अधिकारी प्रत्यक्ष पूछताछ से भी दूर रखे गए हैं। शक्तिहीन सत्ता केंद्र राष्ट्रीय भावनाओं के अभाव में युद्ध कैसे हारते हैं, वर्तमान सरकार उसका एक दयनीय उदाहरण है। ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति हैं, भारत की चिंता करना उनका काम नहीं है। वह अपनी दृष्टि से अपने देश का हित कर रहे हैं। सवाल उठता है कि भारत के नेता भारत के हित के संदर्भ में क्या कर रहे हैं? दोनों ओर से परमाणु शक्ति संपन्न शत्रु देशों से घिरा भारत आंतरिक तौर पर नक्सली आतंक से लहुलुहान है। लेकिन कहीं भी आतंक पर विजय प्राप्त कर नागरिकों को निर्भय बनाने की इच्छाशक्ति नहीं दिखती।
साभार:-दैनिक जागरण
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

आतंकी का साथी अमेरिका

लश्कर आतंकी डेविड हेडली के मामले में अमेरिका के आचरण को भारत विरोधी बता रहे हैं राजीव सचान

इस परिदृश्य पर शायद हर किसी ने विचार किया होगा कि तब क्या होता जब अमेरिका में किसी आतंकी वारदात में शामिल रहे व्यक्ति को भारत ने पकड़ा होता? इसमें किसी को संदेह नहीं कि अमेरिकी अधिकारियों ने भारत आकर न केवल उससे गहन पूछताछ की होती, बल्कि उसे अपने साथ अमेरिका ले भी गए होते, भले ही वह कुछ मामलों में भारत में वांछित होता। अमेरिका ने मुंबई हमले की साजिश रचने वाले पाकिस्तान मूल के अपने नागरिक दाऊद गिलानी उर्फ डेविड कोलमेन हेडली को भारत प्रत्यर्पित करना तो दूर रहा, उसकी शक्ल तक नहीं देखने दी। शिकागो में उसकी गिरफ्तारी के बाद उससे पूछताछ करने गए भारतीय अधिकारियों को बैरंग लौटा दिया गया और अब यह सुनिश्चित किया गया है कि उसे भारत न ले जाया जा सके। अमेरिकी न्याय प्रणाली में यह व्यवस्था है कि यदि कोई अपराधी अपना गुनाह कबूल करने को तैयार हो तो उसे सजा देने में नरमी बरती जाती है। माना जाता है कि इससे आपराधिक मामलों का निपटारा होने में आसानी होती है। इस व्यवस्था के अपने गुण-दोष हैं और उस पर भारत या अन्य किसी देश की आपत्ति का कोई मतलब नहीं, लेकिन यह कहां का न्याय है कि किसी अपराधी को उस देश की पहुंच से दूर कर दिया जाए जहां उसने जघन्य अपराध किया हो? अमेरिका ने ठीक यही किया है। उसने दाऊद गिलानी से उसकी सुविधानुसार समझौता कर लिया। उसे न केवल मृत्यु दंड से बचने का अवसर दिया गया, बल्कि भारत, डेनमार्क और पाकिस्तान को न सौंपने का वचन भी दिया गया। यह समझना मुश्किल है कि समझौते के लिए गिलानी लालायित था या अमेरिकी प्रशासन? एक आतंकी से समझौते के बावजूद भारत को कोई आपत्ति नहीं है और उल्टे भारतीय विदेश मंत्री एसएम कृष्णा कथित अमेरिकी सहयोग से संतुष्ट हैं। आखिर इसमें संतुष्ट होने जैसा क्या है और वह भी तब जब सहयोग का नामों-निशान तक नहीं दिखता। या तो यह भारतीय नेतृत्व का दीवालियापन है अथवा अमेरिका के समक्ष याचक मुद्रा में रहने की मानसिकता कि किसी ने इस पर मुंह खोलने का साहस नहीं किया कि दाऊद गिलानी से समझौता कर अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ जारी लड़ाई को कमजोर किया है और इस अनुचित समझौते से मुंबई हमले के गुनहगारों का पर्दाफाश करने में कठिनाई आएगी। दाऊद गिलानी और अमेरिकी प्रशासन के बीच हुआ समझौता इसलिए कहीं अधिक आपत्तिजनक है कि वह गिलानी की शर्ताें के हिसाब से हुआ। इस समझौते से यह साफ हो गया कि गिलानी अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई का भेदिया था, जो बाद में लश्कर का आतंकी बना। माना तो यह भी जा रहा है कि अमेरिकी अधिकारियों को इसकी जानकारी थी कि दाऊद गिलानी लश्कर की किसी साजिश को अंजाम देने के लिए ही बार-बार भारत के चक्कर लगा रहा है, लेकिन उन्होंने उसके खिलाफ समय रहते कोई कार्रवाई इसलिए नहीं की, क्योंकि वे उसे लश्कर के और करीब होते हुए देखना चाहते थे। तनिक गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि मुंबई हमला पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की सक्रियता के साथ-साथ अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई की निष्कि्रयता का भी नतीजा है। गौर करने वाली बात यह भी है कि भारत एक ओर पाकिस्तान पर दबाव बनाने में असमर्थ है तो दूसरी ओर अमेरिका से शिकायत करने में भी संकोच कर रहा है। क्या अमेरिका से नाराजगी जाहिर करने से वह नाराज हो जाएगा? क्या उसके नाराज होने से भारत का अहित हो जाएगा? क्या दाऊद गिलानी के साथ समझौता करने से भारत का हित हुआ? क्या अफगानिस्तान में भारत की भूमिका की अनदेखी करने से हमारा हित हो रहा है? क्या कश्मीर पर पाकिस्तान से सीधी बात करने के दबाव से भारत का हित हो रहा है? यह मनमोहन सिंह ही बता सकते हैं कि भारत अमेरिका के समक्ष इतना दीनहीन क्यों है, क्योंकि ओबामा प्रशासन पाकिस्तान को खुश करने में जुट गया है। इसके प्रबल आसार हैं कि वह पाकिस्तान के साथ भारत सरीखा नाभिकीय समझौता न सही, कुछ ऐसा करेगा जिससे पाकिस्तान को यह कहने का अवसर मिल जाए कि वह भारत से कम नहीं है। जार्ज बुश ने भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू पर तौलने की जिस नीति का परित्याग किया था, लेकिन ओबामा ऐसा कर रहे हैं कि जिससे दोनों देश फिर से एक ही तराजू पर दिखाई दें। मुंबई हमले की जमीन तैयार करने के दौरान दाऊद गिलानी भारत में जिन भी लोगों से मिला वे उसके दोस्ताना रवैये के कायल हो गए, लेकिन बाद में उन्हें पता चला कि वह तो आतंकी था। मनमोहन सिंह की पिछली अमेरिका यात्रा के दौरान ओबामा ने उनके प्रति जैसा दोस्ताना व्यवहार किया वह भारतीयों को मुग्ध कर गया। व्हाइट हाउस में मनमोहन सिंह की आवभगत से ऐसा लग रहा था कि ओबामा भारत के सबसे बड़े हित रक्षक हैं। अब आम भारतीय खुद को ठगा महसूस कर रहा है, खासकर इसलिए कि डेनमार्क दाऊद से पूछताछ कर चुका है। अमेरिका के इस आश्वासन पर मनमोहन सिंह संतुष्ट हो सकते हैं कि भारत को दाऊद गिलानी से पूछताछ करने की इजाजत मिलेगी। समस्या यह है कि इस सबके बावजूद मनमोहन सिंह अमेरिकी राष्ट्रपति से अगली मुलाकात में यह कह सकते हैं कि भारत के लोग आपको बहुत चाहते हैं। दरअसल यह कुछ भी नहीं, क्योंकि जब वह यूसुफ रजा गिलानी से बलूचिस्तान में भारत की भूमिका पर चर्चा के लिए राजी हो सकते हैं तो फिर दाऊद गिलानी का बचाव करने वाले ओबामा की सराहना भी कर सकते हैं।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)

अमेरिका और पाकिस्तान

अमेरिका और पाकिस्तान के बीच पनपता मैत्री भाव भारत के लिए खतरे की घंटी है। वैसे तो किन्हीं दो देशों के बीच बढ़ती मैत्री पर तीसरे देश की आपत्ति का मतलब नहीं, लेकिन अमेरिकी प्रशासन पाकिस्तान के कलुषित अतीत और वर्तमान की अनदेखी कर उसके प्रति जैसी दरियादिली दिखा रहा है वह अस्वाभाविक भी है और चिंताजनक भी। अमेरिका जिस तरह पाकिस्तान की मदद करने पर उतावला दिख रहा है उससे केवल भारत ही नहीं, दक्षिण एशिया और साथ ही विश्व समुदाय को भी चिंतित होना चाहिए। अमेरिका या तो पाकिस्तान का अंध समर्थन करने पर आमादा हो गया है या फिर वह इस अराजक एवं गैर जिम्मेदार राष्ट्र के प्रति किसी आसक्ति का शिकार है। यदि ऐसा नहीं है तो इसका कोई औचित्य नहीं कि पाकिस्तान आतंकवाद को पालने-पोसने और भड़काने की कीमत मांगे और अमेरिका उसे खुशी-खुशी देने के लिए तैयार भी दिखे। यह समझने के लिए अंतरराष्ट्रीय मामलों का विशेषज्ञ होने की आवश्यकता नहीं है कि पाकिस्तान यकायक सोते से जागकर अपने बदनाम परमाणु वैज्ञानिक एक्यू खान के खिलाफ कार्रवाई करने का इरादा जाहिर कर अमेरिका की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश कर रहा है, लेकिन शायद अमेरिकी प्रशासन को इस देश के हाथों धोखा खाने की आदत पड़ चुकी है। अमेरिका और पाकिस्तान के बीच होने वाली रणनीतिक वार्ता से पहले विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने जिस तरह इस्लामाबाद को यह प्रमाण पत्र देने की कोशिश की कि वह चरमपंथ से लड़ रहा है वह हास्यास्पद तो है ही, अमेरिकी विदेश नीति के दीवालियेपन का परिचायक भी है। इस पर आश्चर्य नहीं कि भारत की आपत्तियों के बावजूद हिलेरी ने यह स्पष्ट किया कि असैन्य परमाणु समझौते के पाकिस्तान के अनुरोध पर विचार किया जाएगा, क्योंकि अमेरिका ने खुद को ऐसी स्थिति में ला खड़ा किया है कि पाकिस्तान उसे आसानी से ब्लैकमेल कर सके। यह समय ही बताएगा कि ओबामा प्रशासन पाकिस्तान को असैन्य नाभिकीय सहायता देता है या नहीं, लेकिन इसमें संदेह नहीं रह गया है कि वह उसकी आंख मूंदकर सहायता करने के लिए तैयार है। यह लगभग तय है कि पाकिस्तान को अमेरिका से सैन्य-असैन्य सहायता की एक नई किश्त मिलने जा रही है। यह भी तय है कि वह इस सहायता का दुरुपयोग करेगा और वह भी भारत के खिलाफ। कम से कम अब तो भारत को यह अहसास हो जाना चाहिए कि अमेरिका अपने संकीर्ण हितों को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। अमेरिका इससे अनजान नहीं कि अब पाकिस्तान अफगानिस्तान में भी भारतीय हितों के खिलाफ चोट कर रहा है, लेकिन भारत की कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है। शायद आगे भी नहीं होने वाली। यह ठीक है कि भारत ऐसी स्थिति में नहीं कि वह अमेरिका को पाकिस्तान की अनुचित मदद करने से रोक सके, लेकिन क्या इसके खिलाफ जोरदार आवाज उठाने पर भी किसी ने रोक लगा रखी है? यदि भारत अपने हितों की रक्षा को लेकर ढिलाई का परिचय देगा तो फिर उसकी कठिनाई और बढ़ना तय है।
सम्पादकीय दैनिक जागरण

अंध मोदी-विरोध का मतलब

छद्म सेक्युलरों पर नरेंद्र मोदी के बहाने हिंदू भावना को कुचलने की साजिश रचने का आरोप लगा रहे हैं एस शंकर
साल भर भी नहीं हुआ जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त इसी विशेष जांच दल ने अपनी रिपोर्ट में कुख्यात मानवाधिकारवादी तीस्ता सीतलवाड को गुजरात के बारे में भयानक हत्याओं और उत्पीड़न की झूठी कहानियां गढ़ने, झूठे गवाहों की फौज तैयार करने, अदालतों में झूठे दस्तावेज जमा करवाने और पुलिस पर मिथ्या आरोप लगाने का दोषी ठहराया था। पर उस रिपोर्ट के बाद तीस्ता के विरुद्ध कुछ नहीं हुआ। अब उसी दल ने नरेंद्र मोदी को मात्र बयान देने के लिए बुलाया, तो इसी आधार पर उनसे इस्तीफा देने की मांग होने लगी! इस अंध मोदी-विरोध को कैसे समझा जाना चाहिए? पांच वर्ष पहले नाटककार विजय तेंदुलकर ने कहा था कि यदि वे पिस्तौल उठाएंगे तो सबसे पहले नरेंद्र मोदी को मारेंगे। देश के बौद्धिक-राजनीतिक वर्ग ने तेंदुलकर की निंदा नहीं की। उलटे मोदी को बुरा-भला कहा। इनमें वे भी थे जो मानवाधिकार और सामुदायिक सद्भाव के लिए आतंकियों को भी सुविधा व छूट देने की मांग करते हैं। मोदी लगातार तीन बार मुख्यमंत्री बने तो इसमें उनके अच्छे शासन का भी योग है। इसके बावजूद राजनीतिक वर्ग में उनके प्रति विद्वेष और उन्हें कानून या मीडिया द्वारा फांसने की कोशिशें भी कम नहीं हुई हैं। इसका अर्थ है कि आज भी मोदी अकेले हैं। यानी एक ऐसा व्यक्ति जो जाने-अनजाने हिंदू आत्मरक्षा का प्रतीक बना, जिसने एक छोटा-सा सच कहने की हिम्मत की, उसे भारत में राजनीतिक अछूत बना दिया गया है! उसकी ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, निष्पक्ष-प्रशासन और जन-समर्थन के बावजूद प्रभावी राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग में उसके लिए बोलने वाला कोई नहीं। यह एक खतरनाक स्थिति है। मोदी केवल चुनावी आधार पर विजयी रहे हैं, क्योंकि गुजराती जनता उनके पक्ष में है। इसके अलावा हर राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय मंच पर उनके खिलाफ जहर उगला जाता है। यह दुनिया भर के हिंदू-विरोधियों द्वारा हिंदुओं को दी जाने वाली चेतावनी है कि तुम्हें कुछ कहने का अधिकार नहीं! तुम्हें बराबरी का हक नहीं! तुम्हें अपने देश में भी दूसरे दर्जे के नागरिक के रूप में रहना है। इस अखंड मोदी-विरोध ने उन हिंदुओं को डराया है जो हिंदू चिंताओं को मुस्लिम चिंताओं के समान देखना उचित समझते हैं। यह संयोग नहीं कि जो बुद्धिजीवी, पत्रकार और राजनीतिकर्मी नरेंद्र मोदी के विरुद्ध जिहाद में लगे हैं, वे ऐसे एनजीओ के कर्ता-धर्ता हैं जिन्हें संदिग्ध विदेशी स्त्रोतों से धन, पुरस्कार मिलता है। तीस्ता सीतलवाड को निरंतर सम्मानित किया जा रहा है। उन्हें पुरस्कृत करने का संदेश यही है कि देश हिंदू-विरोधियों का है। इसलिए हिंदुओं में भी जो सेक्यूलर-वामपंथ, मानवाधिकारवाद, वैश्विक नागरिक, बहुंसस्कृतिवाद आदि के नाम पर व्यवहारत: हिंदू-विरोधी हो चुके हैं, उन्हीं को प्रश्रय मिलेगा। इसके अतिरिक्त जो सहज हिंदू भावना, न्याय भावना से बोलेंगे उन्हें लताड़ा जाएगा। मोदी-विरोध एक वृहत वैचारिक-राजनीतिक रणनीति का अंग है। वह अलग बिंदु नहीं, बल्कि एक असहिष्णु तानाशाही की अभिव्यक्ति है, जो मानो भारतीय हिंदुओं को चेतावनी दे रही है कि विश्व में हिंदू समुदाय या हित जैसी चीज नहीं। इसलिए उसके अधिकार तो क्या, सामान्य अभिव्यक्ति भी सांप्रदायिकता और दूसरों के अधिकारों का हनन है! मोदी को कदम-कदम पर अपमानित करना यही बताने का प्रयास है कि हिंदू भावनाओं की अभिव्यक्ति सख्त मना है। कि हिंदुओं को बराबरी की अनुमति नहीं। हिंदू को केवल पिटने, अपमानित होने और अन्य सभ्यताओं के समक्ष जी-हुजूरी की इजाजत है। वह स्वयं को हिंदू भी नहीं कह सकता। उसे केवल सेक्यूलर कहलाना है। उच्च-वर्गीय हिंदुओं ने यह हीन स्थिति स्वीकार कर ली है, जो ईसाई, इस्लामी और कम्युनिस्ट साम्राज्यवादियों ने लंबे समय से जबरन बना रखी है। यह हीन-भावना हिंदू नेताओं, बुद्धिजीवियों में इतनी गहरी बैठी हुई है कि हरेक संकट में वे इस्लामी, ईसाई या मा‌र्क्सवादी सहमतों के विरुद्ध एक होने के बदले उस हिंदू से ही कतराते हैं जिसने कुछ सच बोल दिया हो। असंख्य उच्च-पदस्थ हिंदुओं द्वारा मोदी की निंदा करने का यही अभिप्राय है। इसीलिए मूल गोधरा-कांड, जिसने प्रतिहिंसा पैदा की, कभी नाराजगी या न्याय का विषय नहीं बना। किंतु उसके बाद हुई हिंदू-प्रतिक्रिया अंतहीन विषवमन का स्थायी विषय बनी रही है। यह स्वत: नहीं हुआ, न इसे भारतीय जनता का समर्थन है। गुजरात के चुनाव परिणामों से भी इसे बहुत आसानी से समझा सकता है। लोकतंत्र, कानून, सामान्य बुद्धि आदि किसी निष्पक्ष कसौटी पर मोदी के विरुद्ध अभियान उचित नहीं ठहरता। किंतु अभिजात्य पंथनिरपेक्ष-वामपंथियों ने मोदी के बहाने हिंदू भावना को जान-बूझकर कुचलने की नीति अपनाई है। दोषी स्वयं हिंदू समाज है, जो राजनीति का पहला सूत्र भूल गया है कि जो समाज अपने लिए बोलने में समर्थ नहीं, उसके सद्भाव, नाराजगी या भावना का विशेष मूल्य नहीं होता। यदि हम हिंदू होकर भी दुनिया के सामने खुल कर हिंदुओं की चिंता रखने से बचते हैं, और सेक्युलर दिखना चाहते हैं तो निर्बलता स्पष्ट है। राजनीति में निर्बल नहीं, शक्तिशाली टिकता है। मोदी को ध्वस्त करने की चाह के पीछे हिंदुओं को दबाने और हिंदू दब्बूपन को यथावत रखने की रणनीति है। अब मोदी एक प्रतीक के रूप में हैं, व्यक्ति के रूप में नहीं।
साभार:-दैनिक जागरण
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

हुसैन पर हाय-तौबा

देवी-देवताओं की अश्लील पेंटिंगों को हुसैन की संकीर्ण सोच की उपज बता रहे हैं ए सूर्यप्रकाश
मकबूल फिदा हुसैन भारत में छद्म पंथनिरपेक्ष भीड़ के नायक रहे हैं। इसीलिए अंग्रेजी मीडिया का एक वर्ग उनके कतर देशांतर पर प्रलाप कर रहा है और हिंदुओं पर उनके पीछे पड़ने का आरोप मढ़ रहा है। कुछ टीवी एंकर हुसैन के भारत की नागरिकता छोड़ कर कतर की नागरिकता लेने पर चीत्कार मचा रहे हैं किंतु वे हुसैन की कलात्मक स्वच्छंदता की सच्चाई बताने के इच्छुक नहीं हैं। इसलिए अब समय है कि हुसैन के बारे में कुछ गरम पहलुओं से परदा उठाएं। श्रीमान हुसैन को भारत से भागने के लिए किसने मजबूर किया? एंटी हिंदूज पुस्तक के लेखक प्रफुल गोर्दिया और केआर पांडा कुछ महत्वपूर्ण सुराग और इस सवाल का विस्तार से उत्तर देते हैं। इस पुस्तक में न केवल संस्कार भारती के डीपी सिन्हा की प्रेस विज्ञप्ति प्रकाशित की गई है, बल्कि हुसैन की बेहद घिनौनी पेंटिगों की तस्वीरें भी छपी हैं। असलियत में, यह प्रेस विज्ञप्ति चित्रकार के खिलाफ विस्तृत आरोपपत्र ही है क्योंकि इसमें पेंटिंगों को एक से बढ़कर एक भौंडी और निंदनीय बताया गया हैं। यहां इस संगठन द्वारा आठ सर्वाधिक आपत्तिजनक पेंटिंगों की सूची जारी की गई है। पहली पेंटिंग का शीर्षक दुर्गा है, जिसमें दुर्गा देवी को एक टाइगर के साथ रति क्रिया रत दिखाया गया है। रेस्क्यूइंग सीता पेंटिंग में नग्न सीता को हनुमान की पूंछ पकड़े चित्रित किया गया है। हनुमान की पूंछ शालीनता की तमाम सीमाओं को लांघते हुए एक लैंगिग प्रतीक के रूप में प्रस्तुत की गई है। भगवान विष्णु को आम तौर पर चार हाथों के साथ चित्रित किया जाता है, जिनमें शंख, पद्म, गदा और चक्र होते हैं। किंतु हुसैन की पेंटिंग में विष्णु के हाथ काट दिए गए हैं। विकृत और थकेहारे विष्णु अपनी पत्नी लक्ष्मी और वाहन गरुड़ की ओर देख रहे हैं। भगवान विष्णु के हाथ-पैर काटना रचनात्मक स्वतंत्रता है या फिर हिंदू संवेदना का जानबूझ कर अपमान करना है? सरस्वती जिन्हें हिंदू एक देवी के रूप में पूजते हैं, श्वेत साड़ी में चित्रित की जाती हैं। इन्हें भी हुसैन ने अपनी पेंटिंग में नग्न दर्शाया है। एक अन्य पेंटिंग में नग्न देवी लक्ष्मी देव गणेश के सिर पर सवार हैं। इस दृश्य से भी कामुकता झलकती है। हनुमान-4 शीर्षक से एक पेंटिंग में तीन मुख वाले हनुमान और एक नग्न युगल चित्रित किया गया है। महिला की पहचान संदेह से परे है। हनुमान का जननांग महिला की ओर दिखाया गया है। इसमें अश्लीलता बिल्कुल स्पष्ट झलकती है। हनुमान-13 शीर्षक वाली पेंटिंग में बिल्कुल नग्न सीता नग्न रावण की जांघ पर बैठी हैं और नग्न हनुमान उन पर वार कर रहे हैं। एक अन्य पेंटिंग जार्ज वाशिंगटन एंड अर्जुन आन द चैरियट में महाभारत के प्रसिद्ध गीता प्रसंग की पृष्ठभूमि में भगवान कृष्ण का स्थान वाशिंगटन ने ले लिया है क्योंकि भगवान कृष्ण की आंखों में कोई देवत्व नहीं है और उनकी अवमानना करते हुए उन्हें महज एक मानव जार्ज वाशिंगटन के रूप में पेश किया गया है। क्या हुसैन का यह मूर्तिभंजन एकसमान है? ऐसा बिल्कुल नहीं है। बात जब गैर हिंदू विषयों की आती है तो हुसैन आदर और सम्मान के प्रतिमान स्थापित कर लेते हैं। वह पैगंबर मोहम्मद की बेटी फातिमा को पवित्रता और शिष्टता के साथ चित्रित किया है, जो कपड़े पहने हुए हैं। यहां चित्रकार कोई छूट नहीं लेता। वह तब भी कोई छूट नहीं लेता जब उनकी बेटी और माता का चित्रण करता है। हुसैन की मदर टैरेसा पेंटिंग कला का लाजवाब नमूना है, जिसमें मदर टैरेसा करुणा की प्रतिमूर्ति लगती हैं। अगर ऐसा है तो हुसैन ने हिंदू देवी-देवताओं को इस कदर घिनौने अंदाज में क्यों चित्रित किया? इसका जवाब एक और पेंटिंग में मिलता है। एक पेंटिंग में आइंस्टीन, गांधी, माओ और हिटलर चित्रित किए गए हैं, जिनमें से केवल हिटलर को नग्न दिखाया गया है। क्या हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जिन चरित्रों को हुसैन घिनौना मानते हैं उन्हें नग्न चित्रित करते हैं? इन निंदनीय कला कर्म को पुन‌र्प्रकाशित करने और संस्कार भारती की विस्तृत प्रेस विज्ञप्ति जारी करने वाले प्रफुल गोर्दिया और केआर पांडा एमएफ हुसैन को विकृत कामवासना से ग्रस्त व्यक्ति बताते हैं। इन पेंटिंग के फोटोग्राफ मौलिक रूप से एक ऐसी पुस्तक में प्रकाशित हुए थे, जिसे खुद हुसैन ने डिजाइन किया था। लेखकों ने सिन्हा द्वारा पेश किए गए आठ उदाहरणों में अपनी तरफ से भी तीन जोड़े हैं। इनमें एक पेंटिंग में सांड को पार्वती से सहवास करते दिखाया गया है, जबकि शंकर उनकी तरफ देख रहे हैं। दूसरी में हनुमान के जननांग को एक औरत की ओर दर्शाया गया है और एक पेंटिंग में नग्न कृष्ण के हाथ-पैर कटे हुए दिखाए गए हैं। लेखक नंग्नता, अश्लीलता और कामविकृति में भेद की तरफ ध्यान खींचते हैं। वे कहते हैं, जब अश्लीलता या कामविकृति के साथ देवी-देविताओं को चित्रित किया जाता है तो यह आस्था के साथ खिलवाड़ करने की श्रेणी में आता है। जैसाकि गोर्दिया और पांडा रेखांकित करते हैं, हुसैन को संदेह का लाभ देना बिल्कुल संभव नहीं है। आइंस्टीन, गांधी, माओ और हिटलर के चित्रण वाली पेंटिंग अकाट्स साक्ष्य है। पहले तीन के शरीर पर कपड़े हैं, जबकि हिटलर नग्न है। क्या इसका यह मतलब नहीं है कि जिनसे वह घृणा करते हैं, उन्हें नग्न चित्रित करते हैं? वे पूछते हैं, क्या हिंदू का सम्मान करने वाला कोई भी व्यक्ति हुसैन को माफ कर सकता है? इसका जवाब स्पष्ट तौर पर ना है। तो हुसैन की कला से प्रताडि़त किसी हिंदू को क्या करना चाहिए? कुछ ऐसे असभ्य लोगों को छोड़कर जिन्होंने कानून अपने हाथ में लेकर चित्रकार की कुछ पेंटिंग प्रदर्शनियों में तोड़फोड़ की, अधिकांश हिंदुओं की प्रतिक्रिया वही थी, जो एक लोकतंत्र में होनी चाहिए। उन्होंने अदालत की शरण ली और चित्रकार के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज कराए। उन्होंने कानून का सहारा लिया जो नागरिकों को अन्य नागरिकों की पंथिक संवेदनाओं पर आघात करने से रोकता है। उन्हें जान से मारने की धमकी नहीं दी गई और इस तरह के भद्दी घोषणाएं नहीं की गई जैसी उत्तर प्रदेश में एक मुसलमान ने डेनमार्क के काटूर्निस्ट का सिर कलम करने वाले को 51 करोड़ रुपए देने की पेशकश के रूप में की थी, जिसने पैगंबर मोहम्मद का कार्टून बनाया था। अगर आप कुछ टीवी एंकरों के हावभाव पर गौर करें तो इस ईश-निंदा के घटिया तरीके पर हिंदुओं की लोकतांत्रिक प्रतिक्रिया के लिए कोई सराहना नहीं की जानी चाहिए, बल्कि अदालत में खींचने के लिए इनकी भ‌र्त्सना की जानी चाहिए। हुसैन के मित्र और प्रशंसक जो भी कहें, सच्चाई यह है कि हिंदू भावनाओं के साथ इस प्रकार की घृणित खिलवाड़ के कारण वह कानूनी रूप से भगोड़ा घोषित हैं। जबसे उन पर मामले दर्ज किए गए हैं, वह फरार चल रहे हैं। बहुत से हिंदू जो हुसैन की इस घिनौनी कला से परिचित हैं, उन्हें कतरनाक पेंटर बताते हैं। इसलिए कहा जा रहा है कि उनके लिए कतर ही उनकी अंतिम मंजिल थी! किंतु अगर हम अपनी पंथनिरपेक्ष परंपरा को मान देते हैं तो हमें उन्हें बचकर भाग निकलने नहीं देना चाहिए। कानून की लंबी बांह को कतर तक जाना चाहिए। हमें उनका प्रत्यारोपण करके 80 करोड़ भावनाओं पर चोट पहुंचाने के लिए उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए।
saabhar:-dainik jagran
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)