Wednesday, July 27, 2011

आतंकवाद का राजनीतिकरण

मुंबई पर एक और हमले को आतंकवाद के खिलाफ लचर तैयारियों का नतीजा मान रहे हैं कुलदीप नैयर

मैं मुंबई में कभी नहीं रहा। मैं वहां तीन दिन से ज्यादा समय तक कभी ठहरा भी नहीं। इसलिए मेरे लिए अनुमान लगा पाना कठिन है कि जहां बम विस्फोट का भय बना रहता है वहां लोग किस तरह रहते हैं। मुझे इस बात ने बेहद प्रभावित किया है कि आतंकवादियों के खतरे और शिव सेना द्वारा गैर-मराठी लोगों को धमकियों के बावजूद देश के विभिन्न भागों से आए दो करोड़ लोग एक समुदाय के रूप में मिल-जुलकर रहते हैं। गत 18 वर्षो में मुंबई पर 16 हमले हो चुके हैं। लोगों ने उस असुरक्षा को झेलते हुए रहना सीख लिया है, जो उनके समक्ष उपस्थित रहती है। वे केंद्र और राज्य सरकारों की आलोचना करते हैं कि बार-बार होने वाले बम विस्फोटों से उनकी रक्षा नहीं कर पा रहीं। फिर भी वे भयाक्रांत नहीं हैं। इसे ही मुंबई की भावना कहते हैं। कुछ सप्ताह पहले मैं कराची में था। मैंने देखा कि लोगों ने कैसे कठिन हालात में रहना सीख लिया है। जातीय दंगों के अलावा वहां आए दिन बम विस्फोट होते रहते हैं। वहां भी मुंबई सरीखी नि:सहायता का अहसास होता है। मुझे भी दंगों और मृत्यु के भय का अहसास हुआ। अपने गृह नगर स्यालकोट से भारत में वाघा सीमा तक की यात्रा के दौरान मैं आशंकित रहा था कि किसी आतंकी हमले में मैं मारा जा सकता हूं। मैंने अपने सामने लोगों को एक-दूसरे को मारते देखा है। यह असंभव लग रहा था कि सरकार की सहायता के बिना हम अपनी जिंदगी का सफर फिर से कैसे शुरू कर सकेंगे, किंतु हमने ऐसा किया। पूर्वी पंजाब में लोगों ने सब कुछ गंवाकर भी खुद को संभाला और इसमें उन्हें लंबा अरसा नहीं लगा। वह हमारे प्रतिरोध की सोच थी या संकल्प शक्ति? मैंने पाया कि मुंबई में रहने वाले लोगों की भी यही मन:स्थिति है। वे उठे, गिरे और फिर अपने पैरों पर खड़े हो गए। वे अनेक बार ऐसा कर चुके हैं और फिर चुनौती मिली तो फिर ऐसा ही करेंगे। दरअसल, उन ताकतों से संघर्ष करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प भी नहीं है, जो उन्हें पराजित करना चाहती हैं। मैं कोलाबा में रह रही एक महिला की यह टिप्पणी भूला नहीं हूं कि जब सुबह मेरे पति कार्यालय जाते हैं तो मैं प्रार्थना करती हूं कि वह शाम को सुरक्षित लौट आएं। दिल्ली में अभी हालात इतने नहीं बिगड़े हैं, किंतु कभी भी ऐसा हो सकता है। भारत में जो सबसे घटिया बात हो रही है वह है आतंकी हमलों का राजनीतिकरण। देश में दो प्रमुख राजनीतिक दल हैं- कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी। मुंबई में विस्फोटों के चौबीस घंटों के भीतर भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी मुंबई पहुंचे और उन्होंने नई दिल्ली को पाकिस्तान के साथ वार्ता नहीं करने की सलाह दे डाली। मीडिया में या कहीं से भी इन हमलों में पाकिस्तान की संबद्धता का संकेत नहीं था। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह भी बीच में आ कूदे और उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संबद्धता की संभावना जता दी। दंगों के राजनीतिकरण का ही नतीजा है कि सरकार को यह स्पष्ट नहीं करना पड़ता कि पुलिस को पूरी तरह चुस्त-चौकस और सही ढंग से प्रशिक्षित क्यों नहीं रखा गया? तीन वर्ष पूर्व हुए मुंबई हमलों के बाद ऐसा क्यों हुआ? महाराष्ट्र के गृहमंत्री को 2008 के हमले के बाद हटा दिया गया था। वह वापस आ गए हैं। इस तरह सरकार गलत संकेत दे रही है। मुंबई पर 2008 में हुआ हमला एक बड़ी चेतावनी था। इसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि वह फिर ऐसा नहीं होने देंगे। फिर भी खुफिया असफलता जैसी बुनियादी भूल हुई। यह सरकार पर एक धब्बा है। हमें अमेरिका से यह पता लगाना चाहिए कि उसने 9/11 के बाद से एक भी वारदात कैसे नहीं होने दी। उस देश में भी एक बड़ी जातीय आबादी है। जार्ज बुश ने पैट्रियाटिक एक्ट जैसे कानून लागू किए। इस एक्ट के तहत तब तक हर अमेरिकी से एक अपराधी के तुल्य व्यवहार किए जाने की व्यवस्था है, जब तक कि वह अपने आपको उसके विपरीत साबित न कर दे। हमें ऐसी गलती नहीं करनी चाहिए। हमारी सरकार के भंडार में कानूनों की कमी नहीं है। जिस चीज की आवश्यकता है वह है कानून और व्यवस्था तंत्र को चुस्त-दुरुस्त करना ताकि वह समुचित ढंग से त्वरित कार्रवाई कर सके। देश 1861 के पुराने पुलिस अधिनियम से क्यों शासित हो, जो उस ब्रिटिश सत्ता ने बनाया था, जो जनता और पुलिस को अलग-थलग रखना चाहती थी। अमेरिका और यूरोपीय देशों ने पुलिस द्वारा कानून व व्यवस्था को कायम रखने के लिए उठाए जाने वाले कदमों में जनता की सहभागिता के मार्ग खोजे हैं। 2009 में बड़ी धूमधाम से राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) का गठन किया गया था, किंतु अब तक इसका परिणाम निराशाजनक ही रहा है। संघर्ष प्रबंधन संस्थान के निदेशक डॉ। अजय साहनी का कहना है कि गुप्तचर जानकारी संग्रहण और सिरे से जांच क्षमताओं में सुधार के लिए कोई वास्तविक सुधार नहीं हुआ। वह बताते हैं कि यदि उसे फीड करने के लिए आपके पास कोई ठोस डाटा नहीं है, तो कोई कंप्यूटर किसी केस को हल करने में सहायक नहीं हो सकता। जांचकर्ताओं का विचार है कि सभी पांचों हमलों में इंडियन मुजाहिदीन के सदस्यों का हाथ है, जो पाकिस्तान स्थित लश्करे-तैयबा से प्रेरित हैं। इंडियन मुजाहिदीन 2006 और 2008 के बीच अनेक भारतीय नगरों में हुए हमलों के लिए जिम्मेदार हैं, मगर इन आरोपों के समर्थन में साक्ष्य कोई खास नहीं हैं। आतंकी हमले इंडियन मुजाहिदीन के भीतर से ही जन्मे एक नए समूह का कारनामा बताए जाते हैं। मुंबई समस्या नहीं है। यह प्रशासनिक कमियों का प्रतिफल है। देश की वित्तीय राजधानी पर बेहतर ढंग से ध्यान दिया जाना अपेक्षित है और यह केंद्र के राडार से बाहर नहीं जाना चाहिए। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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