Thursday, July 28, 2011

आज़ाद भारत की अदालतों में गुलाम भारत की बोली

तमिलनाडु में इस समय उच्च न्यायालय में तमिल भाषा में बहस करने की सुविधा के लिए जबर्दस्त आंदोलन चल रहा है। अधिवक्ताओं को मुख्य न्यायाधीश के इस आश्वासन से संतोष नहीं है कि तमिल भाषा में बहस करने पर कोई रोक नहीं है। आंदोलनकारियों को कहना है कि अदालत में तमिल के प्रयोग का अधिकृत आदेश ही नहीं है। उच्च न्यायालयों में राज्य की भाषा के प्रयोग के संदर्भ में जो स्थिति तमिलनाडु में है, वही प्रायः सभी राज्यों में है। हिंदी भाषी राज्यों में तो कई न्यायाधीशों ने हिंदी में निर्णय भी लिखे हैं। लेकिन किसी भारतीय भाषा को उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में प्रयोग की विधिक मान्यता नहीं है। किसी भी भारतीय भाषा में दिए गए निर्णय या दस्तावेज को सर्वोच्च न्यायालय में तब तक अधिकृत नहीं माना जाता, जब तक उसका अंगरेजी अनुवाद संलग्न न किया जाए। हमारे संविधान में राजकाज के लिए हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया था तथा दस वर्ष के लिए अंगरेजी को सहायक भाषा के रूप में प्रचलित रखने का निश्चय किया गया था। दस साल कब के बीत गए। इस बीच संविधान में संशोधन भी कर दिया गया कि जब तक देश के सभी राज्य अंगरेजी को हटाकर राजभाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग के लिए सहमत नहीं होते, तब तक अंगरेजी का प्रयोग जारी रहेगा। कई राज्य ऐसे भी हैं, जो अपनी भाषा से अधिक अंगरेजी को महत्व देते हैं। केरल में विधानसभा की कार्यवाही मलयालम के बजाय अंगरेजी में ही अधिक होती है। हमारे देश में बांग्ला और तमिल दो ऐसी भाषाएं हैं, जो अंतरराष्ट्रीय होने के गौरव से मंडित हैं। शायद ही कोई ऐसी भारतीय भाषा हो, जिसका साहित्य और कोष अंगरेजी से टक्कर न लेता हो, फिर भी देश की सत्ता के नियंत्रक औपचारिक अवसरों पर वैकल्पिक भाषा बोलने में गर्व अनुभव करते हैं। महात्मा गांधी ने हिंदी को स्वदेशी अभियान का मूलाधार बनाया। पंडित राज गोपालाचारी ने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समाज की स्थापना की। आजादी के लिए समर्पित विभिन्न गैर हिंदीभाषी राज्यों में हिंदी प्रचार के संगठन बने। कांग्रेस अधिवेशन की कार्यवाही हिंदी में ही होती थी। लेकिन आजादी के बाद स्वार्थी वर्ग परिदृश्य पर उभरा, उसने भारतीय भाषाओं के बीच वैमनस्य का ऐसा बीज बोया कि अंगरेजों के चले जाने के बाद भी वे अंगरेजी की चेरी बनकर रह गईं। हालांकि अंगरेजी की अपरिहार्यता का आग्रह अब कमजोर पड़ रहा है। देश भर में प्रकाशित होने वाले समाचारपत्रों में से प्रथम दस में एक-दो अखबार ही स्थान पाते हैं। अंगरेजी के स्थान पर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में टेलीविजन प्रसारण ज्यादा हो रहा है। फिर भी दबदबा अंगरेजी का ही कायम है। आज भी सबसे ज्यादा विज्ञापन अंगरेजी समाचार पत्रों को ही उपलब्ध है, क्योंकि वह सक्षम लोगों की भाषा है। राजभाषा और राष्ट्रभाषा के अंतर को समझकर सभी राष्ट्रीय भाषाओं को राजभाषा के रूप में प्रयोग करने का अभियान चलाने का एक सुअवसर तमिलनाडु के अधिवक्ताओं ने प्रदान किया है। अगर उन्हें मद्रास उच्च न्यायालय में तमिल के प्रयोग का अधिकृत अधिकार प्राप्त हो जाता है, तो अन्य उच्च न्यायालयों में भी वहां की राजभाषा अधिकृत भाषा हो सकेगी और सर्वोच्च न्यायालय भी केंद्र की स्वीकृत राजभाषा के प्रयोग को वैधता प्रदान करने के लिए बाध्य होगा।
(साभार अमर उजाला)
Posted by राजनाथ सिंह ‘सूर्य’ on Jul 3 2010. Filed under ब्लॉग

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