Thursday, February 16, 2012

अशुभ संकेत

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश विवादास्पद बयान के लिए जाने जाते हैं। कई मसलों पर उनकी राय खुद कांग्रेस के नेताओं को भी अखरती है, लेकिन जयराम रमेश की बातों को राजनीतिक गलियारे में गंभीरता से लिया जाता है। मंगलवार को रांची दौरे के क्रम में उन्होंने इशारों-इशारों में ही एक बड़ी बात कह दी। उनका संकेत था कि झारखंड में बढ़ती नक्सलियों की गतिविधि के पीछे माओवादियों से राजनीतिक दलों की साठगांठ एक बड़ा कारण है। यह संकेत झारखंड के लिए अशुभ ही है। पहले भी ऐसी खबरें आती रही हैं कि चंद नेताओं के संपर्क नक्सलियों से हैं और वे चुनाव जीतने के लिए उनका सहयोग लेते हैं। जयराम रमेश बड़े स्पष्ट लहजे में यह भी स्वीकार करते हैं कि आदिवासियों को जो सुविधाएं आज दी जा रही हैं, वे उन्हें 50 साल पहले ही मिलनी चाहिए थी। यानी कहीं न कहीं वे अपनी पार्टी कांग्रेस को भी इसके लिए कटघरे में खड़ी करने से नहीं चूकते। उनका आकलन है कि सुदूर इलाकों में राजनीतिक गतिविधियां ठप हुई हैं, जिसका फायदा माओवादी उठा रहे हैं। उनकी सलाह है कि नए सिरे से राजनीतिक गतिविधियां शुरू कर उन युवकों को जोड़ा जा सकता है, जो विकल्प के अभाव में बंदूक उठा लेते हैं। वैसे नक्सली समस्या सिर्फ झारखंड का ही सिरदर्द नहीं, बल्कि माओवादियों ने देश के दस से ज्यादा राज्यों में अपनी जड़ जमा ली है, लेकिन झारखंड के 24 में से 17 जिले केंद्र सरकार के रिकार्ड में धुर नक्सल प्रभावित जिले हैं। इन जिलों को अलग ग्रांट दिया जाता है, ताकि विकास के काम में तेजी लाई जा सके। वैसे राज्य के 22 जिलों में नक्सलियों का असर है और वे जब चाहें जनजीवन को ठप कर देते हैं। कोई ऐसा माह नहीं गुजरता जब ये हिंसक गतिविधियों को अंजाम न देते हो। सिर्फ बंदूक के बल पर इनसे निपटना संभव नहीं। राजनीतिक सक्रियता और सामाजिक सरोकार से अगर सुदूर इलाकों के लोगों को गंभीरता से जोड़ा जाए तो बात बन सकती है।
साभार :- दैनिक जागरण

ग्लेशियरों के पिघलने की भविष्यवाणी

ग्लेशियरों के पिघलने की भविष्यवाणी पर मुकुल व्यास के विचार ग्लेशियरों की ¨चता (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
पर्यावरण चिंतकों को इस खबर से जरूर राहत मिली होगी कि दुनिया की सबसे बड़ी हिमाच्छादित चोटियों ने पिछले दस साल से अपनी बर्फ को संभाल कर रखा है। हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने की पिछली रिपोर्टो के बीच नई खबर अविश्वसनीय लगती है। इससे उन वैज्ञानिकों को भी बहुत हैरानी हुई होगी जो यह मान रहे थे कि इन ग्लेशियरों से हर साल 50 अरब टन बर्फ पिघल रही है और नए हिमपात से इसकी पूर्ति नहीं हो रही है। नई रिपोर्ट दुनिया की समस्त बर्फीली चोटियों और ग्लेशियरों के विस्तृत सर्वे पर आधारित है जो उपग्रह से मिले आंकड़ों की वजह से संभव हो पाया है। सर्वे से एक बात साफ हो गई है कि ग्रीनलैंड और अंटाकर्टिका के चोटियों और ग्लेशियरों से पिघलने वाली बर्फ का योगदान अब तक लगाए जा रहे अनुमानों से बहुत कम है। हिमालय और एशिया की दूसरी चोटियों से बर्फ का नुकसान लगभग नहीं के बराबर है। हिमालय के ग्लेशियरों के बारे में संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पैनल की रिपोर्ट से 2009 में एक बहुत बड़ा विवाद खड़ा हो गया था, जिसमें गलती से कह दिया गया था कि हिमालय के ग्लेशियर 2350 के बजाय 2035 तक गायब गायब हो जाएंगे। नए अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों ने साफ कर दिया है कि एशिया की सबसे बड़ी चोटियों की बर्फ सही सलामत रहने के बावजूद दुनिया में ग्लेशियरों के पिघलने का खतरा खत्म नहीं हुआ है। यूनिवर्सिटी ऑफ कोलेराडो के वैज्ञानिक प्रो. जॉन वार का कहना है कि हमारे निष्कर्षो और दूसरे रिसर्च से साफ है कि बर्फीली चोटियों से हर साल पानी की बहुत बड़ी मात्रा समुद्र में मिल रही है। अत: लोगों को दुनिया की बर्फीली चोटियों के पिघलने के बारे में अपनी चिंता को कम नहीं करना चाहिए। अध्ययन की रिपोर्ट प्रतिष्ठित नेचर पत्रिका में भी प्रकाशित हुई है, जिसके मुताबिक समुद्र का स्तर हर साल करीब 1.5 मिलीमीटर की दर से बढ़ रहा है। इसके अलावा गर्म होते समुद्र के कारण भी प्रति साल इसका जल स्तर 2 मिलीमीटर ऊंचा हो रहा है। वैज्ञानिकों की मानें तो हिमालय में कम ऊंचाई पर स्थित ग्लेशियरों की बर्फ भी पिघल रही है। उपग्रहों से लिए गए चित्रों से भी इसकी पुष्टि हुई है। 2003 से 2010 तक की अवधि के अध्ययन से भी पता चलता है कि बर्फीली चोटियों से खोई बर्फ के बाद नई बर्फ भी जुड़ी है। रिपोर्ट के मुताबिक हिमालय के ग्लेशियरों से हर साल 4 अरब टन बर्फ गायब हो रही है। प्रो. वार ने चेतावनी दी है कि उनकी टीम की रिसर्च के आधार पर कोई बड़ा निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए। नए अध्ययन से बर्फ के पिघलने की प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलेगी, लेकिन आठ साल का आंकड़ा तुलनात्मक रूप से बहुत कम अवधि का है। आठ साल के रिकॉर्ड को आधार मान लेना या अगले आठ साल की अवधि के लिए कोई भविष्यवाणी करना खतरनाक होगा। एशिया की चोटियों से बर्फ के पिघलने के बारे में देखे गए जबरदस्त अंतर की मुख्य वजह यह है कि पिछले अध्ययनों और ताजे अध्ययन में अलग तरीके अपनाए गए थे। अभी तक हमारे पास दुनिया के दो लाख ग्लेशियरों के बारे में जो आंकड़े उपलब्ध हैं वे कम ऊंचाई पर स्थित कुछ ग्लेशियरों के अध्ययन पर ही आधारित हैं। वैज्ञानिकों के लिए ऐसे ग्लेशियरों तक पहुंचना आसान होता है। यही वजह है कि अध्ययन में इन्हें बार-बार शामिल किया जाता है। हजारों ऐसे ग्लेशियर हैं जो बहुत ऊंचाई पर होने की वजह से पिछले अध्ययनो में शामिल नहीं किए गए थे। नए अध्ययन में ग्रेस नामक उपग्रहों का इस्तेमाल किया गया। ये उपग्रह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों को रिकॉर्ड करते हैं। चोटियों और ग्लेशियरों की बर्फ के पिघलने पर गुरुत्वाकर्षण कुछ कम हो जाता है जिसकी जानकारी उपग्रह को मिल जाती है। नया अध्ययन दुनिया के ग्लेशियरों के बारे में अब तक का सबसे ज्यादा विश्वसनीय अनुमान है।
साभार :- दैनिक जागरण

सरोकारों का सवाल

उत्तराखंड में गंगा रक्षा का संकल्प लेकर हरिद्वार में अनशन पर बैठे स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद (प्रो. जीडी अग्रवाल) के गिरते स्वास्थ्य को लेकर प्रशासन चिंतित है तो दूसरी ओर उक्रांद-पी के अल्टीमेटम ने उसकी मुश्किलें और भी बढ़ा दी हैं। इतना ही नहीं गंगा को लेकर चल रही सियासी बयानबाजी से स्थिति लगातार विकट होती प्रतीत हो रही है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि गंगा देश की आस्था और अस्मिता से जुड़ा मसला है। यह नदी न केवल करोड़ों लोगों की प्यास बुझाती है, बल्कि उनके जीविका उपार्जन का साधन भी है। जाहिर है ऐसे में गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक स्थानीय सरोकारों की अवहेलना नहीं की जा सकती। दरअसल, पूरा मामला आस्था के साथ ही रोजगार और विकास से भी जुड़ा है। देश की धमनियों में प्राणवायु का संचार करने वाले उत्तराखंड को पर्यावरण शुद्ध रखने की खासी कीमत चुकानी पड़ रही है। यूं भी यहां दो तिहाई भूभाग पर वन होने के कारण विकास के अवसर पूरी तरह से सीमित हैं। थोड़े-बहुत अवसर ऊर्जा के क्षेत्र में थे तो पर्यावरण के नाम पर केंद्र सरकार ने कई महत्वपूर्ण जल विद्युत परियोजनाएं बंद कर दीं। प्रदेश के दूरस्थ गांवों को सड़कों का लाभ सिर्फ इसलिए नहीं मिल पा रहा है कि दिल्ली में पर्यावरण मंत्रालय इसकी इजाजत नहीं देता। इन हालात में स्थानीय लोगों के पास अपना घर-गांव छोड़ने के अलावा चारा भी क्या है? गंगा का महत्व उत्तराखंड के लिए किसी से कम नहीं, यहां तक कि दूसरों से ज्यादा ही है। वे तो जन्म से लेकर मृत्यु तक गंगा की गोद में ही रहते हैं। गंगा उनकी सुख-दुख की साथी है। दूसरा, यहां यह तथ्य भी गौर करने लायक है कि स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद की मांग वास्तव में केंद्र सरकार से जुड़ी हुई है।
साभार :- दैनिक जागरण

प्रेम की नई संस्कृति

वेलेंटाइन डे की बढ़ती लोकप्रियता पर डॉ. विशेष गुप्ता की टिप्पणी (लेखक समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं)
वेलेंटाइन डे यानि प्रेम की एक दिवसीय संस्कृति का बहुरंगी बाजार अपने शबाब पर है। आर्चीज के का‌र्ड्स, गुलाब के फूलों का संसार, होटल, रेस्तरां, पब यहां तक कि सार्वजनिक स्थान भी अब प्रेम के बाजार की कहानी स्वत: ही बयां कर रहे हैं। इस दिवस के जश्न में मीडिया भी पीछे क्यों रहे? बहरहाल, इस वेलेंटाइन डे पर युवा वर्ग मादक बसंती हवाओं में मदमस्त है। वह रूमानी स्वप्नलोक में खोया है। आप चाहें इसे पसंद करें या न करें, यह दिवस सभी वगरें के युवाओं के लिए एक विशाल उत्सव बन चुका है। इस उत्सव का कड़वा सच यह है कि अब यह दिवस केवल उपहारों के आदान-प्रदान तथा प्रेम के मासूम पलों की साझेदारी का ही बहाना नहीं है, बल्कि यौन आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने का दिवस बन रहा है। हर वर्ष 14 फरवरी आते ही वेलेंटाइन डे के पक्ष में वैश्विक युवा संस्कृति का खुमार एवं विपक्ष में समाज की भौंहें चढ़नी शुरू हो जाती हैं। परंतु हम कभी उस विचारधारा को समझने का प्रयास नहीं करते जो इस प्रकार के दिवसों का प्रेरणाश्चोत है। यह वह विचारधारा है जो लोगों में घटते प्रेम व वात्सल्य के एहसास को उदारीकृत बाजार से प्राण वायु लेकर विस्तार देने का प्रयास करती है। 14 फरवरी के साथ सीधे तौर पर एक मान्यता यह जुड़ी है कि वेलेंटाइन नामक पादरी को उस समय के यूनानी शासक क्लाउडियस ने ईसा के मत के प्रचार के अपराध में जेल में डाल दिया और इस दिन उसे मृत्युदंड देते हुए उसका सिर धड़ से अलग कर दिया था। ऐसा माना जाता है कि जिस दिन उसे मौत के घाट उतरा गया उसी रात उसकी मृत्यु से पहले उसने जेलर की बेटी को अलविदा कहते हुए पत्र लिखा था, जिसके अंत में उसने लिखा था तुम्हारा वेलेंटाइन। तभी से दंडित किए गए सेंट वेलेंटाइन के मार्मिक और अपूर्ण प्रेम की स्मृति में यह दिवस मनाया जाता है। इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि वेलेंटाइन डे जैसे उत्सव हमारी स्वदेशी संस्कृति से मेल नहीं खाते। परंतु इस बेमेल संस्कृति को भारत में लाने के लिए उन्हीं नीति निर्धारकों का महत्वपूर्ण हाथ रहा है जो आज इससे बचने का प्रयास कर रहे हैं। अर्थात इसके लिए हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं। आज के बच्चे यदि अब संस्कृति को अपनाने, रेव पार्टियां आयोजित करने अथवा वेलेंटाइन डे के प्रति समर्पण करने में जो भूमिका निभा रहे हैं, उसमें परिवारों की घटती भूमिका प्रमुख रूप से उत्तरदायी है। हालांकि इसमें सेवा क्षेत्र का विस्तार भी उतना ही भागीदार है। कड़वा सत्य यह है कि बच्चों के व्यक्तित्व के विकास में परिजनों की घटती भूमिकाएं, बच्चों के मध्य पारिवारिक साझेदारी एवं उनसे प्रेम करने की भावना बच्चों में प्रेममय सुख एवं सुरक्षा की भावना का संचार करती है। घर का प्रेम व वात्सल्य बच्चों में एक प्रकार की सुरक्षा का आवरण प्रदान करता है। परंतु अफसोस की बात यह है कि परिवार की भावमयी एवं वात्सल्य से ओत-प्रोत संकल्पना के पीछे छूट जाने से किशोर मन की संवेदनाएं मर रही हैं। व्यावसाियक सिनेमा व टीवी धारावाहिकों में पात्रों के चरित्र का तीन-चौथाई भाग भी प्रेम प्रसंगों से ही भरा रहता है। यही कारण है कि उन पात्रों के प्रेम प्रसंग किशोरों के जीवन को सीधे रूप में प्रभावित कर रहे हैं। इससे किशोर मन की वर्जनाएं टूट रही हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता बढ़ रही है, विवेक लुप्त हो रहा है और प्रेम के प्रसंग उनको तात्कालिक सुख की अनुभूति करा रहे हैं। यह मीडिया क्रांति का भी प्रभाव है कि इससे यौनगत आजादी का प्रसार तेजी से हुआ है तथा विवाह पूर्व यौन संबंधों की अवधारणा निरंतर विस्तार ले रही है। निश्चित ही वेलेंटाइन डे की भावना में कोई दोष नहीं है। दोष तो केवल एक दिवसीय मदनोत्सव की संस्कृति में है, जो सारी वर्जनाओं को ध्वस्त करके बाजार की संस्कृति का हिस्सा बनकर आक्रामक स्वरूप अपना रही है।
साभार :- दैनिक जागरण

नौकरशाही पर सवाल

उत्तर प्रदेश में रायबरेली की जिलाधिकारी सहित लगभग एक दर्जन अधिकारियों को उनके पद से हटाए जाने की कार्रवाई यह बताती है कि निर्वाचन आयोग की तमाम हिदायतों के बावजूद नौकरशाही में ऐसे लोग हैं जो राजनीतिक दलों के एजेंट के रूप में काम करने से बाज नहीं आ रहे हैं। यह सामान्य बात नहीं कि निर्वाचन आयोग अब तक दो दर्जन से अधिक ऐसे अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई कर चुका है जो स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव में बाधक बन रहे थे। यह स्वागत योग्य है कि निर्वाचन आयोग ने उन अधिकारियों को चुनाव प्रक्रिया से विरत कर दिया जो राजनीतिक दलों के एजेंट के रूप में काम कर रहे थे, लेकिन आश्चर्य नहीं कि चुनाव के बाद इनमें से अनेक अधिकारी महत्वपूर्ण पदों पर काम करते नजर आएं। बेहतर यह होगा कि ऐसी कोई व्यवस्था की जाए जिससे जो अधिकारी स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव में बाधक माने गए हैं उनकी चुनाव के बाद महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति न होने पाए। यह निराशाजनक है कि चुनाव प्रक्रिया संपन्न होने के बाद अधिकारियों के पक्षपातपूर्ण आचरण को भुला दिया जाता है। चुनाव के समय पक्षपातपूर्ण आचरण के लिए पद से हटाए जाने वाले अधिकारियों की संख्या में जिस तरह वृद्धि होती जा रही है उससे इसकी पुष्टि होती है कि उत्तर प्रदेश में नौकरशाही का राजनीतिकरण बढ़ता चला जा रहा है। यह सिलसिला तब तक नहीं रुकने वाला जब तक सभी दल और विशेष रूप से सत्तारूढ़ दल नौकरशाही को अपने मोहरे के रूप में इस्तेमाल करना बंद नहीं करेंगे। चूंकि इसकी उम्मीद कम ही है कि राजनीतिक दल ऐसा कुछ करेंगे इसलिए यह आवश्यक है कि नौकरशाही ऐसी कोई पहल करें जिससे उसका राजनीतिक इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लग सके। यह निराशाजनक है कि उत्तर प्रदेश में ऐसे नौकरशाहों की संख्या बढ़ती जा रही है जो खुशी-खुशी राजनीतिक दलों का मोहरा बनने से संकोच नहीं करते।
साभार :- दैनिक जागरण

कांग्रेस के खोखले दावे

कांग्रेस पर उत्तर प्रदेश की सत्ता पाने के लिए संवैधानिक मर्यादाएं तोड़ने का आरोप लगा रहे हैं बलबीर पुंज
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री राहुल गांधी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। जहां एक तरफ वह स्वयं, उनकी बहन और उनके बच्चे कांग्रेस के लिए वोट मांग रहे हैं वहीं कांग्रेस के अन्य नेता गांधी परिवार के प्रति अपनी स्वामिभक्ति व्यक्त करने के लिए एक-दूसरे से होड़ लेने में लगे हैं। प्रतिस्पद्र्धा में लगे इन नेताओं के ऐसे बयान सामने आ रहे हैं जो न केवल संवैधानिक मर्यादाओं को तोड़ते हैं, बल्कि लोकतंत्र के लिए भी खतरे की घंटी हैं। विधि एवं अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद द्वारा पिछड़े वर्ग के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत कोटे में से मुसलमानों के लिए 9 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा को चुनाव आयोग ने गंभीरता से लिया। आयोग ने खुर्शीद को आचार संहिता का पालन करने का निर्देश देते हुए सावधानी बरतने के लिए चेताया था, किंतु पिछले दिनों उन्होंने एक और चुनाव रैली को संबोधित करते हुए कहा, चुनाव आयोग भले ही मुझे फांसी पर चढ़ा दे, मैं मुसलमानों के अधिकारों के लिए लड़ता रहूंगा। खुर्शीद केंद्रीय विधि मंत्री हैं, इसलिए स्वाभाविक तौर पर उनसे संवैधानिक निकायों के प्रति सम्मान प्रकट करने की अपेक्षा की जाती है। उन्हें चुनाव आयोग की मर्यादा और प्रतिष्ठा की रक्षा करनी चाहिए। इससे पूर्व जब आयोग ने भारतीय जनता पार्टी की शिकायत पर आचार संहिता उल्लंघन करने का संज्ञान लिया था तब भी उन्होंने अमर्यादित टिप्पणी करते हुए कहा था कि आयोग को चुनाव के बेसिक फंडे की जानकारी ही नहीं है। चुनाव आयोग का बार-बार इस तरह उपहास उड़ाए जाने पर भी प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का मौन रहना यह दर्शाता है कि खुर्शीद को उनका समर्थन प्राप्त है। कांग्रेस में चाटुकारिता का बहुत महत्व है। केंद्रीय कोयला एवं खान मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल का हालिया बयान इसे रेखांकित करता है। पिछले दिनों पत्रकारों से बात करते हुए जायसवाल ने कहा, राहुल जब चाहें, देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने का सवाल कहां खड़ा होता है। वह इस राज्य में जो भी शासन देंगे उसके रिमोट कंट्रोल का सेंसर बहुत मजबूत होगा। केंद्र में स्थापित रिमोट कंट्रोल वाली व्यवस्था के कारण देश जिस बदहाली के दौर से गुजर रहा है उसको देखते हुए उत्तर प्रदेश का भविष्य सहज ही समझा जा सकता है। संविधान में रिमोट की कोई व्यवस्था नहीं है। 2004 के जनादेश के बाद संवैधानिक अड़चनों के कारण जब सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा टूटी तो पिछवाड़े से सत्ता की कमान थामे रखने के लिए इस तरह की अलोकतांत्रिक बुनियाद डाली गई। सोनिया के विदेशी मूल के कारण 2004 में कांग्रेस को समझौता करना पड़ा और एक नौकरशाह प्रधानमंत्री बने। लोकतंत्र के साथ किए गए इस नए प्रयोग का दुष्परिणाम यह हुआ कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास पद तो है, पर शक्तियां नहीं। सोनिया गांधी संप्रग समन्वय समिति का अध्यक्ष बन सत्ता का रिमोट अपने पास रखे हुए हैं। इस विरोधाभास के कारण ही आज हमारे चारो ओर अव्यवस्था-कुशासन फैला है। सरकार में कायम नेतृत्वहीनता के कारण अर्थव्यवस्था दिशाहीन हो गई है। महंगाई बेलगाम है। नामचीन उद्योगपति सरकारी स्तर पर व्याप्त नेतृत्वहीनता को दूरकर अर्थव्यवस्था को संभालने की अपील कर रहे हैं। सरकार भ्रष्टाचार में डूबी है। यदि न्यायपालिका ने हस्तक्षेप नहीं किया होता तो न तो 2जी घोटाले के आरोपी तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा और न ही राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में लूट के कसूरवार कलमाड़ी सलाखों के पीछे पहंुचते। सीएजी की रिपोर्ट में दिल्ली की मुख्यमंत्री पर भी अनियमितता बरतने के आरोप हैं, किंतु सरकार ने उन्हें संरक्षण प्रदान कर रखा है। नेता प्रतिपक्ष के विरोध के बावजूद सरकार ने एक दागदार व्यक्ति को केंद्रीय सतर्कता आयुक्त बनाया था, जिसे अदालत के आदेश के बाद हटाना पड़ा। कैसी सरकार है यह और इसकी प्राथमिकताएं क्या हैं? आर्थिक, औद्योगिक और कृषि, तीनों क्षेत्रों में विकास की दर मंद है। राहुल गांधी पांच साल में उत्तर प्रदेश की सूरत बदल देने का दावा कर रहे हैं। वह विकास की आंधी से रोजगार के अवसरों की बाढ़ लाएंगे ताकि उत्तर प्रदेश के युवाओं को उनके बयान के अनुसार मुंबई और अन्य महानगरों में भीख मांगने के लिए नहीं जाना पड़े। जरा, केंद्रीय परियोजनाओं पर नजर डालें। आधारभूत संरचनाओं का विकास किए बिना किसी भी क्षेत्र में प्रगति करना संभव नहीं है। सरकार ने प्रतिदिन बीस किलोमीटर हाईवे बनाने का लक्ष्य रखा था, जबकि जमीनी वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। चालू केंद्रीय परियोजनाओं में से 65 प्रतिशत योजनाओं में इतनी देरी हो चुकी है कि तय लक्ष्य प्राप्त कर पाना सरकार के लिए असंभव हो गया है। देरी के कारण निर्माण सामग्री के दाम बढ़ जाने से सरकारी खजाने को 1800 करोड़ रुपये का चूना अलग लगा है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के प्रचार अभियान में आक्रामक तेवर लिए घूम रहे कांग्रेस के प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री राहुल गांधी उत्तर प्रदेश की बदहाली के लिए गैर-कांग्रेसी दलों को भले ही कोस रहे हों, किंतु क्या इसके लिए कांग्रेस की जवाबदेही अन्य दलों से बड़ी नहीं है? प्राय: समूचे देश में आजादी के बाद के चार दशक तक कांग्रेस का एकछत्र राज रहा है। व्यवस्था क्यों नहीं बदली? आज कांग्रेस मुसलमानों का मसीहा बनने का स्वांग कर रही है। पिछड़े वर्ग के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत कोटे में से 4.5 प्रतिशत अल्पसंख्यक वर्ग के लिए तय करने की घोषणा कर कांग्रेस एक बार फिर मुसलमानों को ठगना चाहती है। मुसलमानों के कल्याण के लिए सच्चर कमेटी के बाद रंगनाथ मिश्र आयोग ने जो संस्तुतियां की थीं उनमें से कितनों को सरकार पूरा कर पाई? राहुल और सोनिया गांधी ने दावा किया है कि चुनाव बाद किसी भी दल से गठबंधन नहीं करेंगे, किंतु केंद्र में गठबंधन करने से परहेज क्यों नहीं किया? प्रधानमंत्री सरकार की अक्षमता के पीछे गठबंधन दलों का दबाव बताते आए हैं। एक जनहितैषी पार्टी होने का दावा करने वाली कांग्रेस राजनीतिक अवसरवाद को ज्यादा प्राथमिकता क्यों देती है? वस्तुत: जैसा कि स्वयं राहुल गांधी ने भी पिछले दिनों कहा, कांग्रेस की नजर इन दिनों धनुर्धर अर्जुन की तरह सिर्फ सत्ता पर केंद्रित है। पिछले 22 सालों से यूपी ने कांग्रेस को हाशिए पर डाल रखा है। उस खोए जन विश्वास को वापस पाने के लिए कांग्रेस जिस तरह संवैधानिक निकायों पर हमला कर रही है और संविधान की मूल भावना के खिलाफ जाकर वोट बैंक की राजनीति कर रही है उससे चुनावों में लाभ होना तो शायद संभव न हो, किंतु राष्ट्रहितों को क्षति पहुंचने का खतरा अवश्य है।
(लेखक राज्यसभा सदस्य हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

जीवन की अबूझ गुत्थी

अनुपम खेर के विचारों पर रोशनी डाल रहे हैं खुशवंत सिंह
भारत में अनुपम खेर की पहचान बॉलीवुड के एक सितारे के रूप में है जिन्होंने 450 से ज्यादा फिल्मों में काम किया है। भारत को मालूम नहीं है उनका एक दूसरा पक्ष भी है, वह एक विचारक भी हैं। उन्होंने अपने विचारों को कोई 200 पन्नों की एक किताब में छापा है जिसमें आकर्षक प्राकृतिक दृश्यों के चित्र हैं। उन्होंने अपनी किताब का नाम-द बेस्ट थिंग अबाउट यू इज यू (हे हाउस) रखा है। उनके सामने कुछ प्रश्न थे जैसे हम कहां से आए? हमें क्या करना चाहिए और हमें मृत्यु के बाद कहां जाना है? कोई नहीं जानता कि हम कहां से आए थे सिवाय इसके कि माता-पिता के शारीरिक संबंधों से उत्पन्न हुए। न ही हम जानते हैं कि मृत्यु के बाद हमें कहां जाना है? धर्म उपदेशकों के जवाब आज के विचारकों को स्वीकार्य नहीं हैं। उन्हें ज्यादा चिंता इस बात की है कि हम अपनी जिंदगी से क्या हासिल करें? अनुपम खेर इस बात की व्याख्या करते हैं। उन्होंने यह अपनी थीसिस के आखिरी पैरा में कहा है। इसमें लिखा है उम्मीद केवल चार अक्षरों का शब्द नहीं है। यह शायद, प्रेम सहित, हमारी सबसे अधिक शक्तिशाली भावना है। यदि प्रेम दुनिया को घुमा सकता है तो उम्मीद हमें हमेशा जीवित रख सकती है। बुरे से बुरे समय में उम्मीद ही है जो हमे जिंदा रखती है। उम्मीद हमें बेहतर कल में विश्वास दिलाती है और यह उम्मीद ही है जो सभी विपरीत परिस्थितियों का सामना करने का हमें साहस देती है। बॉलीवुड तमाशा जैसाकि मुहावरा है हिंदी फिल्मों के बारे में मेरी जानकारी एक डाक टिकट के पीछे लिखी जा सकती है। पिछली फिल्म मैंने फूलन देवी पर देखी थी। मैं इससे बहुत प्रभावित हुआ। इसमें कोई नाच-गाना नहीं था फिर भी यह मुझे अच्छी लगी, क्योंकि यह वास्तविकता पर आधारित थी। उसके बाद से गाने और शारीरिक कसरत जिसे कि डांस का नाम दिया जाता है बॉलीवुड प्रोडक्शन की आम खुराक हो गए हैं। मेरे पास इन तमाशों के लिए वक्त नहीं है। एक घटना मुझे अभी भी याद है। जब मैं इलेस्ट्रेटिड वीकली ऑफ इंडिया के संपादक के रूप में मुंबई में रह रहा था तो मेरे मित्र रफीक जकारिया जोकि तब महाराष्ट्र सरकार में मंत्री थे और उनकी पत्नी फातिमा मुझे एक सिनेमा दिखाने ले गए। मेरे बराबर में एक बहुत ही सुंदर महिला बैठी थी। यह सोचकर कि मैं उसे जानता होउंगा मुझे उससे नहीं मिलवाया गया। इंटरवल में मैंने उस महिला से पूछा आप करती क्या हैं? उसने जवाब देने के बजाय सिगरेट सुलगा ली (उस जमाने में सिनेमाघरों में सिगरेट पी जा सकती थी) शो खत्म होने के बाद मैंने रफीक और फातिमा से उस महिला के अभद्र व्यवहार की शिकायत की और पूछा कि वह कौन थी? रफीक को गुस्सा आ गया और उसने मुझे गधा बताते हुए कहा, वह मीना कुमारी हैं। लाखों दिलों की धड़कन और तुम्हें उसका नाम भी नहीं पता, तुम किस तरह के संपादक हो? मैंने फैसला किया कि हिंदी फिल्में मेरे बस की बात नहीं हैं फिर भी जब भाईचंद पटेल ने मुझे बॉलीवुड सुपर स्टार ऑफ इंडियन सिनेमा (पेंग्विन वाईकिंग) की एक प्रति दी तो मैंने उसे देखने और अपनी प्रतिक्रिया देने पर सहमति दी। सबसे पहले मैंने मीना कुमारी पर पवन वर्मा को पढ़ा और बहुत सी बातों का ज्ञान हुआ जो मुझे उनके बारे में पता नहीं थी। फिर विक्रम संपत को गायक अभिनेता केएल सहगल के बारे में पढ़ा। मैं देवानंद से भी मिला हूं जो कॉलेज में मुझसे दो एक साल जूनियर थे और अमिताभ बच्चन से जिन्होंने मेरे एक उपन्यास के विमोचन की अध्यक्षता की थी। मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि वह एक सांसद के रूप में असफल रहे। मैंने उन्हें सांसदों की एक उपसमिति की बैठक में बोलते हुए सुना है, मैं बहुत प्रभावित हुआ। मैं कह सकता हूं कि फिल्मी सितारों के इस संग्रह का लेखन बहुत ही अच्छा है और जो लोग हिंदी फिल्मों में रुचि रखते हैं इसके लिए सिफारिश करता हूं।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

सच्ची राह

श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-इस अनित्य और सुख रहित शरीर को प्राप्त कर। तू मेरा भजन कर। अनित्य और सुख रहित इस शरीर को पाकर हम जीते रहें और सुख भोगते रहें-ऐसी कामना को छोड़कर भगवान का भजन करते रहें। संसार में सुख है ही नहीं, केवल सुख का भ्रम है। ऐसे ही जीने का भी भ्रम है। हम जी नहीं रहे हैं, हर क्षण मर रहे हैं। इसलिए भगवान कहते हैं कि हमें क्षणिक विषय-वासनाओं के दल-दल में नहीं फंसना चाहिए। हम एक सुख के पीछे भागते हैं, परंतु उससे अनेक दुख पीछे लग जाते हैं। जो समदर्शी है, जो संसार के परिवर्तन को जानता है-सही मायने में वही ज्ञानी है, ज्ञाता है। जो भक्त है-वह जानता है कि यह संसार दुखरूप है। पीड़ा भी तभी तक है, जब तक परमात्मा हमारे जीवन में नहीं है। पीड़ा परमात्मा का अभाव है और आनंद परमात्मा की उपस्थिति का भाव। यदि जीवन में शांति है, प्रसन्नता है-तो समझ लेना चाहिए कि परमात्मा की करुणा बह रही है। यदि हम उस एक की शरण ले लें, तो सारी दरिद्रता मिट जाएगी। वह परमात्मा होता है अर्थात् दाता है। देता है तो हजारों हाथों से और लेता है तो भी हजारों हाथों से। वह चाहता है कि हम छल अथवा कपट रूपी चादर को ओढ़कर जीवन न बिताएं। वह चाहता है कि हम सरलता को साधें। वह चाहता है कि हमारे जीवन में प्रेम के फूल खिलें, करुणा की धारा बहे, क्षमा का भाव उपजे। जीवन में श्रेष्ठता लाएं, लोगों के काम आएं। देखिएगा, जीवन में आनंद कैसे नहीं आता है। परमात्मा का ध्यान हमेशा हमारे अंतर्मन में बना रहे, यह प्रार्थना की जानी चाहिए। आदि शंकराचार्य और भगवान बुद्ध ने कहा कि इस संसार में दुख ही दुख है, यह संसार अनित्य है, यहां जो आया है उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। परंतु जो जीवन कीक्षणभंगुरता को समझ जाते हैं और अपने जीवन को मुक्त करने हेतु लक्ष्य साध लेते हैं-वे इस सागर को पार कर जाते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण भी जीवन की यथार्थता को समझते हुए सचेत व सजग होते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। इसी में मानव कल्याण निहित है।
आचार्य अनिल वत्स
साभार :- दैनिक जागरण

सत्ता के अहंकार का प्रदर्शन

चुनाव आयोग से टकराने वाले सलमान खुर्शीद के मामले में प्रधानमंत्री की चुप्पी पर हैरत जता रहे हैं प्रदीप सिंह
एक पक्षी होता है फ्लेमिंगो। उसमें एक खास प्रवृत्ति होती है जो शायद किसी और जीव में नहीं होती। फ्लेमिंगो में सामूहिक आत्महत्या की प्रवृत्ति होती है। कांग्रेस पार्टी में भी यह प्रवृत्ति जोर मारती रहती है। ऐसा न होता तो कोई कारण नहीं था कि पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव से ठीक दो दिन पहले पिछड़ा वर्ग को मिलने वाले 27 फीसदी आरक्षण में अल्पसंख्यकों के लिए साढ़े चार फीसदी आरक्षण की व्यवस्था करने के बाद देश के कानून मंत्री एक चुनाव सभा में घोषणा करते कि इस आरक्षण को बढ़ाकर नौ फीसदी कर दिया जाएगा। उनकी इस घोषणा में पार्टी और सरकार को कुछ भी अनुचित नजर नहीं आता। सलमान खुर्शीद की इस घोषणा को चुनाव आयोग ने आचार संहिता का उल्लंघन माना और उन्हें नोटिस भेज दिया। सलमान खुर्शीद ने कानून मंत्री होने के बावजूद आचार संहिता के उल्लंघन पर अफसोस जाहिर करने की बजाय चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था को चुनौती देते हुए कहा कि चाहे मुझे फांसी पर लटका दो मैं तो पसमांदा मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग करता रहूंगा। सलमान ने जो किया उसे उनकी निजी राजनीति का हिस्सा मानकर उन्हें संदेह का लाभ दिया जा सकता था अगर कांग्रेस पार्टी और सरकार उन्हें ऐसा बोलने से रोकती और उनकी बात का समर्थन न करती। सलमान जब केंद्र में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री बने तो कांग्रेस समर्थक मुसलमानों में एक मुहावरा चल पड़ा था कि मांगा था मुसलमान, मिला सलमान। इसकी वजह यह थी कि उनकी छवि कट्टरपंथी मुसलिम नेता की नहीं थी। मंत्री बनने के तुरंत बाद उन्होंने कहा कि मुसलमानों को आरक्षण के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। आरक्षण की मांग दुधारी तलवार की तरह है। उत्तर प्रदेश का चुनाव आते-आते सलमान मुसलमान बनने की कोशिश करने लगे और पार्टी उनके साथ खड़ी हो गई। सत्ता का अहंकार सबसे पहले व्यक्ति का विवेक हर लेता है। सलमान खुर्शीद के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। देश के कानून मंत्री को लगता है कि चुनाव आयोग भले ही एक संवैधानिक संस्था हो पर सरकार नहीं है। सरकार तो हम हैं। और उनकी पार्टी इस मामले में उनके साथ है, फिर डर काहे का। चुनाव आयोग ने कानून मंत्री के इस रवैये को आयोग की अवमानना माना। आयोग ने स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार एक केंद्रीय मंत्री के खिलाफ कार्रवाई के लिए राष्ट्रपति को पत्र लिखा। पत्र में मांग की गई कि कानून मंत्री केखिलाफ तत्काल प्रभावी कार्रवाई की जाए। आयोग ने यह भी कहा कि सलमान खुर्शीद केइस बयान से चुनाव में दूसरे दलों को समान अवसर नहीं मिल रहा जो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए जरूरी है। राष्ट्रपति ने यह पत्र आवश्यक कार्रवाई के लिए प्रधानमंत्री को भेज दिया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने स्वभाव के अनुरूप चुप्पी लगाकर बैठ गए हैं। उन्हें इंतजार है पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के संदेश का। क्योंकि यह ऐसा मुद्दा है जिस पर प्रधानमंत्री फैसला लेने में सक्षम नहीं हैं। कांग्रेस पार्टी और सरकार ने अपना पुराना खेल शुरू कर दिया है। हर संकट की तरह इस संकट से भी पार्टी ने पल्ला झाड़ लिया है। पार्टी के वरिष्ठ महासचिव और मीडिया प्रभारी जनार्दन द्विवेदी ने एक निरापद सा बयान जारी कर दिया कि कांग्रेसजनों को कानून और संविधान की मर्यादा में रहकर काम करना चाहिए। यह भी कि कांग्रेस संवैधानिक संस्थाओं की इज्जत करती है। सलमान खुर्शीद ने जो किया वह गलत था ऐसा बोलने के लिए कोई तैयार नहीं है। सलमान के समर्थन में तो कांग्रेसी नेताओं के बयान आए हैं पर खिलाफ एक भी नहीं। सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस का राजनीतिक प्रबंधन खराब है या यह उसकी रणनीति का हिस्सा है? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी क्या चुनाव आयोग के नोटिस के बाद सलमान को रोक नहीं सकते थे। दोनों की चुप्पी से लगता है कि सलमान खुर्शीद ने जो कहा और किया उसमें सरकार और पार्टी दोनों की सहमति थी। दोनों को चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की गरिमा की बजाय चुनावी फायदे की ज्यादा चिंता है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने तय कर लिया है कि सलमान खुर्शीद के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करनी है। इसीलिए उनसे आयोग को पत्र लिखवाया गया। सलमान ने पत्र में कहा है कि उन्हें अफसोस है कि उनके बयान पर इतना विवाद हुआ। उनका इरादा आयोग की अवमानना का नहीं था। उसके बाद उन्होंने मीडिया से कहा कि अब इस मामले को खत्म समझा जाए। साफ संदेश है कि बहुत हो गया चुनाव आयोग अब बस करे। सवाल यह है कि प्रधानमंत्री ने क्या किया? चुनाव आयोग के पास कई विकल्प थे। उसके पास कांग्रेस पार्टी से लेकर सलमान के खिलाफ कार्रवाई का अधिकार था। चुनाव आयोग जिस हद तक जा चुका था वहां से लौटना उसकी छवि के लिए अच्छा नहीं। पता नहीं क्यों वह ठिठक गया? रायबरेली में चुनाव पर्यवेक्षक के तबादले के मामले में आयोग की निष्पक्षता पर वैसे भी सवाल उठ चुका है। चुनाव आयोग को अपने आचरण से आम मतदाता को यह भरोसा दिलाना पड़ेगा कि उसके सामने मंत्री और आम राजनीतिक कार्यकता की हैसियत एक जैसी है। यह किसी पार्टी, किसी मंत्री या किसी नेता का सवाल नहीं है। यह पिछले छह दशकों में बनी चुनाव आयोग की साख का सवाल है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

नाजुक फैसले की घड़ी

ईरान पर प्रतिबंधों के संदर्भ में भारत को अमेरिका का पिछलग्गू बनने के बजाय अपने हितों की रक्षा करने की नसीहत दे रहे हैं ब्रह्मा चेलानी
विश्व की बड़ी शक्तियों की भूराजनीति ने भारत की कूटनीतिक दुविधा को बढ़ा दिया है। उन्होंने अरब विद्रोह के माध्यम से अनेक तेल समृद्ध देशों को अपने वश में कर लिया है और दो पश्चिम विरोधी शक्तियों-ईरान व सीरिया पर दबाव बढ़ा दिया है। ईरान और अमेरिका मनोवैज्ञानिक युद्ध में उलझे हुए हैं। अमेरिकी रक्षामंत्री लिओन पैनेटा की इजरायल द्वारा ईरान पर हमले की चेतावनी के जवाब में तेहरान ने धमकी दी है कि ऐसा होने पर वह विश्व के सबसे महत्वपूर्ण तेल मार्ग को बंद कर देगा। इन धमकियों में निहित खतरा सैन्य टकराव में बदल सकता है। यह ईरान के खिलाफ अमेरिका के अप्रत्यक्ष युद्ध की घोषणा से रेखांकित हो जाता है। अमेरिका ने ईरान की आर्थिक रीढ़ तोड़ने के लिए उस पर तेल व्यापार संबंधी प्रतिबंध लगाए हैं। यह देखते हुए कि ईरान की विदेशी मुद्रा का 80 फीसदी तेल के निर्यात पर निर्भर करता है, तेल निर्यात पर प्रतिबंध और ईरान के सेंट्रल बैंक की संपत्तियों को जब्त करने की कार्रवाई से ईरान-अमेरिका सैन्य टकराव की आशंका बढ़ जाती है। विडंबना यह है कि ये प्रतिबंध इसी टकराव को रोकने के लिए लागू किए गए हैं। इतिहास गवाह है कि तेल प्रतिबंध और सैन्य टकराव में सीधा संबंध है। अमेरिका को हिला देने वाले 1941 के पर्ल हार्बर हमले का एक कारण यह भी था कि अमेरिका, ब्रिटेन और हालैंड की तिकड़ी ने 1939 में जापान पर तेल व्यापार प्रतिबंध लगा दिए थे, जिसके कारण जापान की हालत पतली हो गई थी। इस पृष्ठभूमि में भारत के भी इस भूराजनीतिक जंग में फंस जाने या फिर इस अप्रत्यक्ष लड़ाई का खामियाजा भुगतने का खतरा बढ़ता जा रहा है। इजरायल के त्वरित आरोप कि दिल्ली कार बम विस्फोट के पीछे ईरान का हाथ है, को इस खतरे की आहट माना जा सकता है। एक अहम सवाल कोई नहीं उठा रहा है कि जब विश्व भारत पर ईरान से तेल न खरीदने का दबाव बढ़ा रहा है, तो ऐसे में ईरान भारत की भूमि पर आतंकी हमला क्योंकर करेगा। यह संभवत: सबसे खराब समय होगा जब ईरान अपनी आखिरी आर्थिक जीवनरेखा-भारत के साथ संबंध तोड़ने के बारे में सोचेगा, जबकि आज से पहले कभी ईरानी आतंकवाद की कोई घटना भारत में नहीं हुई है। सवाल यह भी है कि इजरायली खुफिया एजेंसी द्वारा ईरान के अंदर ही ईरानी परमाणु वैज्ञानिकों की कथित हत्याएं करने के बाद ईरान महज एक इजरायली दूत की पत्नी पर हमला क्यों करना चाहेगा? दिल्ली कार विस्फोट को सिर्फ एक बचकानी हरकत कहा जा सकता है? अगर ईरान इन विस्फोटों के पीछे होता तो यह हमला इतना हलका और लापरवाही भरा नहीं होते। कुल मिलाकर इस घटना से भारत पर ईरान के साथ ऊर्जा संबंध तोड़ने का दबाव बढ़ा है। यह दुखद है कि अल्पकालिक लाभ के लोभ में अमेरिका फारस की खाड़ी में दीर्घकालिक समस्याएं पैदा कर रहा है। अरब जगत में लोकतांत्रिक पारगमन को प्रोत्साहन देकर दीर्घकालीन लाभ उठाने के बजाय अमेरिका सामंती शासन वाले तेल शेखों के साथ संबंध प्रगाढ़ कर रहा है। इनमें सऊद घराना और कतर के शाही घराने शामिल हैं। इसके अलावा उसने बहरीन में लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के क्रूर दमन को लेकर भी अपनी आंखें मूंदे रखीं। इससे आंशिक रूप से व्याख्या होती है कि अरब विद्रोह के बावजूद तेल शेखशाही के एकछत्र राज में कोई बदलाव नहीं आया। ईरान के खिलाफ अमेरिका के ऊर्जा व्यापार प्रतिबंधों के कारण तेल की बढ़ती कीमतों से इन शेखों का खजाना और बड़ा होता जा रहा है। पिछली आधी शताब्दी के अनुभव से पता चलता है कि शेखों को तेल से जितनी अधिक कमाई होती है, उतना ही अधिक ये कट्टरता और उग्रवाद को बढ़ावा देते हैं। वास्तव में, ये जितनी संपदा अर्जित करते हैं, इस क्षेत्र में स्वतंत्रता का उतना ही अधिक मोल बढ़ जाता है। इस आलोक में, अमेरिका द्वारा ईरान प्रतिबंध कानूनों का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी करने के प्रयास से भारत के लिए दोहरी मुसीबत खड़ी हो गई है। पहली मुसीबत यह कि भारत की ऊर्जा आयात विविधिकरण नीति को झटका लगने का नतीजा यह होगा कि भारत की इस्लामिक कट्टरता को बढ़ावा देने वाले शेखों पर निर्भरता बढ़ जाएगी। पिछले कुछ सालों से भारत के कुल कच्चे तेल निर्यात में ईरान की हिस्सेदारी घट कर 11 फीसदी रह गई है। इस हिस्सेदारी के और गिरने से भारत के तेल शोधक कारखानों के सामने नया संकट आ जाएगा। दरअसल, कच्चे तेल के मूल तत्वों-गुरुता और सल्फर की मात्रा की दृष्टि से तेल शोधक कारखाने तैयार किए जाते हैं। ईरान से आयातित तेल घटने से तेलशोधक कारखानों में बड़े पैमाने पर परिवर्तन करने होंगे, जो काफी महंगा पड़ेगा। दूसरे, अमेरिका अफगानिस्तान से वापसी की हड़बड़ाहट में है और इसके लिए भारतीय हितों की अनदेखी कर तालिबान के साथ समझौता करना चाहता है। ऐसे में अमेरिकी प्रतिबंधों के घोड़े पर सवार होने से भारत एक ऐसे देश के साथ अपने संबंध खराब कर लेगा जो अफगानिस्तान संकट के आड़े दिनों में भारत के काम आ सकता है। अमेरिका की अफगानिस्तान से विदाई के बाद भारत के लिए ईरान की भूराजनीतिक भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाएगी। यह नहीं भूलना चाहिए कि ईरान-अमेरिका में लंबे समय से जारी छद्म युद्ध में अनेक मुद्दों पर अमेरिका का साथ देकर भारत पहले ही भारी नुकसान झेल चुका है। इसके बावजूद अमेरिका भारत-चीन और भारत-पाक मामलों में भारत का साथ नहीं देता। बुश प्रशासन ने भारत पर दबाव डालकर ईरान के साथ दीर्घकालीन तेल समझौते नहीं करने दिए और न ही ईरान-भारत गैस पाइपलाइन को सिरे चढ़ने दिया। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में 2005 और 2006 में ईरान के खिलाफ मतदान करके भारत ने ईरान के साथ 22 अरब डॉलर की तरल प्राकृतिक गैस संधि रद करवा डाली, जिसकी शर्ते भारत के हित के अनुकूल थीं। आज, जो देश ईरान के खिलाफ तेल व्यापार प्रतिबंध लागू करना चाहते हैं, वे ईरान से या तो तेल खरीदते ही नहीं हैं या फिर नामचारे का तेल खरीदते हैं। दूसरी तरफ, जिन देशों जैसे भारत, चीन, दक्षिण कोरिया और जापान आदि पर ईरान के खिलाफ प्रतिबंधों के लिए दबाव डाला जा रहा है, वे ईरानी तेल के महत्वपूर्ण आयातक हैं। भरोसेमंद विकल्प सुझाए बिना ही अमेरिका ईरान से तेल के आयात को लेकर भारत पर गैरजरूरी दबाव डाल रहा है। ईरान का मामला भारत के लिए कूटनीतिक परीक्षण बन गया है। अब देखना है कि भारत अपनी ऊर्जा और भूराजनीतिक हितों की सुरक्षा के उपाय करता है या फिर अमेरिका और इजरायल के अल्पकालिक हितों के लिए अपने हितों की बलि चढ़ा देता है।
(लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

एक नई रार

यह आश्चर्यजनक है कि हाल ही में गठित राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र के काम शुरू करने के पहले ही कुछ राज्यों ने उसके खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी है। आतंकवाद निरोधक केंद्र आगामी एक मार्च से सक्रिय होगा, लेकिन पश्चिम बंगाल और ओडि़शा को अभी से यह लगने लगा है कि यह संस्था उनके अधिकारों का अतिक्रमण कर सकती है। जहां ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार को चिट्ठी भेज कर यह पूछा है कि उसने आतंकवाद निरोधक केंद्र का गठन और उसके अधिकार तय करते समय राज्यों से विचार-विमर्श क्यों नहीं किया वहीं नवीन पटनायक ने इस मुद्दे पर अन्य राज्यों को एकजुट करना शुरू कर दिया है। आसार इसी बात के हैं कि कुछ और राज्य राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर सकते हैं। हालांकि इस संस्था के गठन में अहम भूमिका निभाने वाले केंद्रीय गृह मंत्रालय ने यह सफाई दी है कि एक स्थायी परिषद राज्यों से तालमेल करने का काम करेगी और इस परिषद में राज्यों के आतंकवाद निरोधक दस्ते के मुखिया भी शामिल होंगे, लेकिन यह समझना कठिन है कि इस मसले पर राज्यों से विचार-विमर्श करना जरूरी क्यों नहीं समझा गया? यह राज्यों से विचार-विमर्श न करने का ही दुष्परिणाम है कि ऐसे सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या आतंकवाद निरोधक केंद्र को राज्य सरकारों की मंजूरी बिना भी उनके यहां हर तरह की कार्रवाई का अधिकार होगा? इन सवालों का जवाब सामने आना ही चाहिए। इस संदर्भ में यह कोई तर्क नहीं हुआ कि आतंकवाद निरोधक केंद्र के काम शुरू करने पर ही यह पता चलेगा कि कहां क्या समस्याएं आ रही हैं? केंद्रीय सत्ता कितनी भी समर्थ हो, उसके लिए यह उचित नहीं कि वह राज्यों को विश्वास में लिए बिना संघीय ढांचे को प्रभावित करने वाले कदम उठाए। जहां केंद्र सरकार के लिए यह आवश्यक है कि वह उन मामलों में राज्यों को विश्वास में ले जिनमें उनके सक्रिय सहयोग की आवश्यकता है वहीं राज्यों के लिए भी यह जरूरी है कि वे अपने अधिकारों के मामले में अति संवेदनशीलता न दिखाएं। नि:संदेह कानून एवं व्यवस्था राज्यों का विषय है, लेकिन नक्सलवाद और आतंकवाद जैसे खतरों का सामना तभी किया जा सकता है जब उनके खिलाफ कोई सक्षम संघीय तंत्र बने। ऐसे किसी तंत्र की आवश्यकता इसलिए और बढ़ गई है, क्योंकि अब यह स्थापित हो चुका है कि राज्य सरकारें आंतरिक सुरक्षा के समक्ष उपस्थित खतरों का सही तरह से सामना नहीं कर पा रही हैं। वे केंद्र सरकार से ज्यादा से ज्यादा मदद तो चाहती हैं, लेकिन उसका सहयोग लेने और उसे अपने यहां सक्रियता दिखाने का कोई भी अवसर देने में आनाकानी करती हैं। राज्यों के इस रवैये के रहते आंतरिक सुरक्षा का तंत्र कभी भी मजबूत नहीं होने वाला। आंतरिक सुरक्षा को जितना बड़ा खतरा आतंकवाद से है उतना ही नक्सलवाद से भी। विगत दिवस केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने झारखंड के 17 जिलों में नक्सलियों की समानांतर सरकार चलने का दावा करते हुए राज्य सरकार पर यह आरोप भी लगाया कि वह माओवादियों का सहयोग ले रही है। पता नहीं इस आरोप में कितनी सच्चाई है, लेकिन इससे इंकार नहीं कि आंतरिक सुरक्षा के मामले में केंद्र-राज्यों में जिस सहयोग की आवश्यकता है वह नजर नहीं आ रहा है और इसके लिए दोनों ही जिम्मेदार हैं।
साभार :- दैनिक जागरण

सच्चा पथ

ऋग्वेद में ईश्वर का आदेश है-यच्छुभं याथना नर: अर्थात् हे मानव जो शुभ है उस पर चलो। इस भौतिक संसार में रहते हुए हम भौतिक उपलब्धि प्राप्ति का ध्येय बनाते हैं। अपने परिश्रम के अनुसार लक्ष्य प्राप्त भी कर लेते हैं। धन की प्रचुरता होने पर यश मिलने पर मानव अहंकारी हो जाता है। धन का मद न हो, यह कठिन स्थिति है और जब धन या भौतिक उपलब्धियों की प्राप्ति के मद में हम धरातल पर नहीं रहते तो इस स्थिति में विवेक की नहीं सुनते और असत्य की राह पर चलने लगते हैं। कहते हैं-धतूरे को तो खाकर मानव पागल होता है, किंतु सोना तो पाकर ही मानव पागल हो जाता है। अत: ऐश्वर्य संपन्न होकर हमें अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है। यथार्थ के धरातल का हम हर क्षण अहसास करें कि हमें हमारा विवेक व धैर्य ही सत्पथ की ओर ले जाएगा। कोई निंदा करे अथवा प्रशंसा, लक्ष्मी आए अथवा चली जाए, मृत्यु आज हो या युगों पश्चात, न्याय पर चलने वाले कभी विचलित नहीं होते। यजुर्वेद में लिखा है- कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजी विषेच्छत् समा अर्थात सत्कर्म करता हुआ मनुष्य सौ वर्ष जीने की इच्छा करे। वेदों में दीर्घायु की कामना की गई है, किंतु सत्कर्म करते हुए। जीवन एक तप है। जीवन एक ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी राह है जो सत्पथ पर चलने वालों के लिए तलवार की धार पर चलने के सदृश है। जीवन की कठिन राह में कई राहें इतनी टेढ़ी आती हैं कि मानव को अत्यंत संभलकर चलना होता है। असत्य की खाई में गिरने के लिए उसमें कूदना नहीं पड़ता है बस थोड़ा सा विवेक छूटा, असत्य की ओर थोड़ा सा पैर खिसका और मानव खाई में जा गिरा। यदि ऐसा हो तो मानव को अपने उस कर्म का प्रायश्चित करते हुए भविष्य में संभलकर रहने का कठोर संकल्प लेना होगा और उस संकल्प पर डटे रहना होगा। अन्यथा वह खाई दलदल का रूप ले लेगी, जिसमें मानव स्वमेव धंसता जाएगा। तब वह सत्पथ से बहुत पीछे छूट जाएगा। यह सत्य है सत्पथ पर चले बगैर ईश्वर तक कदापि नहीं पहुंचा जा सकता, जो मानव का अंतिम ध्येय है।
सरस्वती वर्मा
साभार :- दैनिक जागरण

कठघरे में दो प्रधानमंत्री

भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों को लेकर दोनों देशों के सुप्रीम कोर्ट के रुख का विश्लेषण कर रहे हैं कुलदीप नैयर
भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों के पास रास्ते की पहचान के लिए दो अलग-अलग प्रकाशपुंज हैं। एक देश के सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री को बचा लिया है, जबकि दूसरे देश के सुप्रीम कोर्ट ने वहां के प्रधानमंत्री को अवमानना के मामले में कोर्ट में हाजिर होने को कहा है। हालांकि इन दोनों मामले में कोई समानता नहीं है, फिर भी कोर्ट का संदेश एक जैसा है। संदेश है कि न्यायपालिका स्वतंत्र है। वह किसी दबाव में नहीं आती। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से चूक हुई है। चूक यह है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा के अभियोजन की अनुमति 16 महीने तक नहीं दी। राजा मनमाने एवं गैरकानूनी तरीके से मोबाइल कंपनियों को 2 जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस देने के आरोपी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में मनमोहन सिंह को दोषमुक्त करार दिया है। कोर्ट का कहना है कि प्रधानमंत्री खुद हर मामले को विस्तार से नहीं देख सकते। प्रधानमंत्री उपयुक्त कार्रवाई तभी कर सकते थे जब उनके सलाहकार मंत्री के खिलाफ लगे आरोपों की गंभीरता से उन्हें अवगत कराते, लेकिन इस मामले में यह विश्वास करना कठिन है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने मनमोहन सिंह को राजा के खिलाफ मामला दर्ज करने की मंजूरी के बारे में सूचना नहीं दी होगी और वह भी तब जब यह 16 महीने से लंबित था। हकीकत तो यह है कि लगातार याद दिलाए जाने पर भी प्रधानमंत्री कार्यालय का जवाब यही होता था कि मामला सीबीआइ के पास भेजा हुआ है, जबकि मंजूरी के लिए किसी जांच की जरूरत नहीं थी। जाहिर है, कुछ दूसरे कारणों से विलंब हुआ। नि:संदेह इस प्रकरण में प्रधानमंत्री की किरकिरी हुई है, क्योंकि मामला उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी से जुड़ा हुआ है। सफाई देने मात्र से मामला धुल नहीं गया है। यह सही है कि प्रधानमंत्री साझा सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं और उन्हें अपने सहयोगी द्रमुक की संवेदनशीलता के प्रति सजग रहना चाहिए था। राजा और प्रधानमंत्री के बीच हुए पत्राचार से यह स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री कार्यालय को यह जानकारी थी कि राजा किस तरह सभी नियमों को दरकिनार कर कुछ खास कंपनियों की मदद कर रहे थे। इसके बावजूद प्रधानमंत्री कार्यालय ने कुछ नहीं किया। मतलब साफ है, या तो कोई कार्रवाई नहीं करने का निर्देश था या फिर प्रधानमंत्री कार्यालय खुद उलझन में था। प्रधानमंत्री कार्यालय का लचर रवैया हो या फिर राजनीतिक मजबूरियां, इससे न तो प्रधानमंत्री और न ही द्रमुक के साथ गठबंधन की अध्यक्षता करने वाली सोनिया गांधी की नैतिक जिम्मेदारी कम होती है। मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री कार्यालय का इतना अधिक विस्तार कर दिया गया है कि इससे दायित्वों को लेकर उलझन और एक ही काम कई जगह होने की स्थिति बन गई है। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के सिर्फ एक सचिव थे-त्रिलोक सिंह। वह ही शरणार्थियों के पुनर्वास का काम भी देखा करते थे। जब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने एलके झा को अपना सचिव बनाया। उस वक्त तक प्रधानमंत्री कार्यालय छोटा था। प्रधानमंत्री कार्यालय का वास्तविक विस्तार इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद हुआ। उन्होंने इसे समानांतर सरकार में तब्दील कर दिया। सभी मंत्रालयों का एक-एक अधिकारी प्रधानमंत्री कार्यालय में तैनात कर दिया गया। इस तरह यह एक तरह से मिनी सरकार बन गया। मनमोहन सिंह ने इसे यथावत बनाए रखा। नतीजा है कि आज प्रधानमंत्री कार्यालय का सीधा दखल सभी मंत्रालयों में है। प्रधानमंत्री कार्यालय पर एक और आघात सुप्रीम कोर्ट द्वारा 122 लाइसेंसों को रद किए जाने से लगा है। ये सारे लाइसेंस राजा ने जारी किए थे। कोर्ट ने अब इनकी नीलामी का निर्देश दिया है। कोर्ट के संकेत के अनुसार 2001 के भाजपा शासनकाल के समय से लेकर अब तक जारी किए गए लाइसेंसों की जांच होनी चाहिए। जिस वक्त प्रमोद महाजन संचार मंत्री थे उस समय मैं राज्यसभा का सदस्य था। तब महाजन के बारे में भी तरह-तरह की चर्चाएं होती थीं। यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी जैसे बड़े कद वाले प्रधानमंत्री भी उन पर लगाम कसने में असमर्थ थे। पाकिस्तान में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी को राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों को फिर से खोलने के लिए स्विस सरकार को लिखने का निर्देश दिया था। जनरल परवेज मुशर्रफ ने जरदारी और उनकी पत्नी बेनजीर भुट्टो के खिलाफ इन मामलों को नेशनल रिकंसिलिएशन ऑर्डिनेंस के जरिए बंद कर दिया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस अध्यादेश को संविधान की भावनाओं के विपरीत करार दिया है। इसके बचाव में गिलानी का कहना है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति को संविधान के तहत छूट हासिल है यानी उनके खिलाफ मुकदमा नहीं चल सकता। इस तरह दोनों देशों-भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों के सामने नैतिक सवाल खड़ा है। अवमानना के लिए गिलानी की खिंचाई हो सकती है और उन्हें अपना पद गंवाना पड़ सकता है। प्रधानमंत्री कार्यालय की चूक की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार कर मनमोहन सिंह इस्तीफे की पेशकश कर सकते हैं। लोकतंत्र में ये सब सामान्य बातें हैं। फिर भी, भारत में इस संबंध में अंतिम निर्णय तो संसद के निर्वाचित सदस्य ही करेंगे। पाकिस्तान में निर्वाचित नेशनल असेंबली का एक लोकतांत्रिक कोना तो है, लेकिन वास्तविक शक्ति सेना के हाथों में है। हालांकि, पाकिस्तान में एक तीसरी शक्ति के रूप में सुप्रीम कोर्ट का उदय हुआ है। यह संयोग है कि सेना इस सुप्रीम कोर्ट का साथ दे रही है। सेना ने ही गिलानी के मामले को आगे बढ़ाया है। गिलानी ने मेमोगेट से सेना को नाराज कर दिया था। दरअसल, जरदारी सरकार ने सेना की बगावत के खतरे को लेकर अमेरिका से हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया था। इस मामले की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जो आयोग बनाया है वह राष्ट्रपति जरदारी या प्रधानमंत्री गिलानी की पसंद नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस इफ्तिखार चौधरी ने बहुत हद तक पाकिस्तान की न्यायपालिका की स्वतंत्रता को फिर से बहाल किया है। लेकिन आज भी सैन्य कोर्ट और यहां तक कि अभियोजन के दौरान असैनिक अधिकारियों के खिलाफ याचिका स्वीकार करने का अधिकार हाइकोर्ट को नहीं है। भारत में इस तरह की समस्या नहीं है, लेकिन भ्रष्टाचार ने तमाम संस्थाओं को अशक्त बना दिया है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आस बंधती है-भारत में भी और पाकिस्तान में भी।
(लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

असुरक्षित सुरक्षा तंत्र

इजरायली दूतावास की कार के आतंकियों का निशाना बनने के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से दिल्ली पुलिस को दिए गए इस निर्देश में उसकी सुस्ती ही झलकती है कि राजधानी के सभी चौराहों पर क्लोज सर्किट टीवी कैमरा लगाने की योजना तैयार की जाए। इसका मतलब है कि अभी तक दिल्ली पुलिस ने ऐसी कोई योजना ही नहीं बना रखी थी और वह भी तब जब दिल्ली उच्च न्यायालय परिसर में हुए आतंकी हमले के बाद इसे लेकर खूब शोर-शराबा हुआ था। स्पष्ट है कि उच्च न्यायालय परिसर में विस्फोट के बाद दिल्ली के महत्वपूर्ण ठिकानों को सीसीटीवी कैमरे से लैस करने का जो तथाकथित आश्वासन दिया गया था वह नितांत खोखला था। आखिर सुस्ती की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है कि सघन सुरक्षा वाले इलाके में भी सीसीटीवी कैमरे नहीं लगाए जा सके? यदि प्रधानमंत्री आवास के आस-पास के इलाके में भी सुरक्षा को लेकर इतनी लापरवाही बरती जा सकती है तो फिर सामान्य इलाकों की सुरक्षा के स्तर के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। भले ही गृह मंत्रालय ने सीसीटीवी कैमरों के संदर्भ में दिल्ली पुलिस को दिए गए निर्देश में यह कहा हो कि इस काम में धन की कमी आड़े नहीं आने दी जाएगी, लेकिन इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि शीघ्र ही दिल्ली की सीसीटीवी कैमरों से निगरानी पुख्ता हो जाएगी। आखिर यह एक तथ्य है कि बार-बार आतंकी हमलों का शिकार बनने वाली मुंबई में भी अभी तक ऐसा नहीं हो सका है। इससे अधिक निराशाजनक और कुछ नहीं हो सकता कि हर आतंकी हमले के बाद यह सामने आता है कि सुरक्षा तंत्र को मजबूत करने के लिए जो उपाय बहुत पहले हो जाने चाहिए थे वे नहीं किए गए। चिंताजनक यह है कि महानगरों की सुरक्षा के मामले में भी हर स्तर पर ढिलाई दिख रही है। इससे भी अधिक चिंताजनक यह है कि सुरक्षा एजेंसियों के बीच आपसी तालमेल का अभी भी अभाव नजर आ रहा है। कभी-कभी तो यह अभाव अविश्वास की हद तक नजर आता है। इससे अधिक शर्मनाक और क्या होगा कि जिस समय आतंकी इजरायली दूतावास की कार को निशाना बना रहे थे, लगभग उसी समय दिल्ली पुलिस महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते के एक दल से उलझी हुई थी। दिल्ली पुलिस और महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते के बीच की तनातनी नई नहीं है। यह पहले भी अनेक बार सामने आ चुकी है और विगत दिवस का घटनाक्रम यही बताता है कि उसमें कहीं कोई कमी नहीं आई है। बात केवल दो राज्यों की पुलिस के बीच अविश्वास की ही नहीं, सुरक्षा एजेंसियों में समन्वय न होने की भी है। भले ही राष्ट्रीय जांच एजेंसी का गठन कर दिया गया हो, लेकिन वह अभी भी पूरी क्षमता से काम नहीं कर पा रही है और इसका एक प्रमुख कारण पुलिस एवं सुरक्षा एजेंसियों से उसे पर्याप्त सहयोग न मिलना है। एनआइए को जिन असहयोगपूर्ण स्थितियों में काम करना पड़ रहा है उन्हें देखते हुए यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह संघीय पुलिस की तर्ज पर काम कर सकेगी। यह निराशाजनक है कि आतंकी खतरा बढ़ता जा रहा है, लेकिन संघीय पुलिस का कोई स्वरूप नहीं उभर पा रहा है। इसके लिए केंद्र से अधिक राज्य सरकारें उत्तरदायी हैं, जो एक ओर संसाधनों का रोना रोती हैं और दूसरी ओर कानून एवं व्यवस्था के मामले में केंद्र का सहयोग लेने से भी इंकार करती हैं।
साभार :- दैनिक जागरण

प्रेम रसामृत

स्वयं की इंद्रियों को सुख पहुंचाने की इच्छा काम है और प्रेमास्पद को सुख देने वाली प्रीति प्रेम। काम विष है, और प्रेम अमृत। काम अग्नि है और प्रेम रस। मन में कामना आते ही प्रेम का रस सूखने लगता है। देवर्षि नारद के अनुसार प्रेम गुणरहित, कामनारहित, प्रतिक्षण बढ़ने वाला, कभी न टूटने वाला एवं अनुभवस्वरूप है। उन्होंने ब्रज-गोपियों के कृष्ण-प्रेम को सर्वोच्च आदर्श माना है। प्रियतम में दोष होने पर भी सच्चा प्रेम कभी घटता नहीं। श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती कृत प्रेम-सम्पुट ग्रंथ में कथानक है कि कृष्ण गोपी-वेष धारण कर बरसाने गए और राधा से बोले-नंदलाल गोपियों से बहुत छेड़छाड़ करते हैं। तुमको तनिक प्रेम नहीं करते। तब राधा ने कहा- सख्री! यह तो उनका गुण है, दोष नहीं। मुझसे अपने अतिशय प्रेम को छिपाने के लिए ही वे दूसरों से छेड़छाड़ करते हैं। सांसारिक लोग प्राय: बाहरी रूप-सौंदर्य पर आसक्त होकर स्वार्थ-प्रेरित मोह को ही प्रेम मान लेते हैं। वैराग्य शतक में महाराज भतर्ृहरि ने कहा- मोहरूपी मदिरा का पान करके संसार मतवाला हो रहा है। भक्त-प्रवर श्रीरामानुजाचार्यजी ने श्रीरंगम् में धनुर्दास नामक व्यक्ति को अप्रतिम रूप-सौंदर्य पर आसक्त होकर एक वेश्या के आगे-आगे उसकी ओर मुख किए पीछे की ओर उलटा चलते देखा। उन्होंने उसे आरती के समय मंदिर बुलाया। भगवान की मनोहर रूप-माधुरी के दर्शन कर वह वेश्या का दैहिक सौंदर्य भूल गया और प्रभु को अपना हृदय दे बैठा। प्रेम में प्रेमास्पद को प्रेमी के अधीन कर देने की अद्भुत साम‌र्थ्य है। तभी तो श्रीजयदेव गोस्वामी विरचित श्रीगीतगोविंदम् में परमात्मा श्रीकृष्ण प्राण-प्रियतमा श्रीराधा के समक्ष नत-मस्तक होकर काम रूपी विष का दमन करने वाले उनके चरण-कमलों को अपने सिर पर आभूषण की भांति धारण कराने के लिए दीनतापूर्वक याचना करते हैं। नि:संदेह प्रेम मानव जीवन की अनुपम निधि एवं महानतम उपलब्धि है। विशेषकर वेलेंटाइन डे के रूप में प्रेम-दिवस मनाने के लिए प्रेम का मर्म भली-भांति समझना अत्यावश्यक है। डा. मुमुक्षु दीक्षित
साभार :- दैनिक जागरण

सक्षम शासन के 44 दिन

खुद कांग्रेसजनों के आचरण से सक्षम और ईमानदार सरकार देने का प्रधानमंत्री का संकल्प टूटता देख रहे हैं राजीव सचान
नव वर्ष की पूर्व संध्या पर प्रधानमंत्री ने देश को यह भरोसा दिलाया था कि अब वह ईमानदार और सक्षम शासन देंगे। हालांकि यह एक रस्मी शुभकामना संदेश था, फिर भी आम जनता को यह आभास हुआ कि प्रधानमंत्री शासन के तौर-तरीकों में कुछ बदलाव लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। ऐसी अनुभूति इसलिए हुई, क्योंकि 2011 में केंद्र सरकार और साथ ही प्रधानमंत्री की छवि भी बुरी तरह प्रभावित हुई थी। केंद्र सरकार के लिए सबसे शर्मनाक क्षण वह था जब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के रूप में पीजे थॉमस की नियुक्ति की अवैध करार दी। इसके बाद प्रधानमंत्री को तब असहज होना पड़ा जब ए.राजा के मामले में प्रधानमंत्री कार्यालय को हलफनामा देने के लिए कहा गया। अन्ना हजारे के आंदोलन से निपटने के तौर-तरीकों ने भी केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री की छवि को खासा नुकसान पहुंचाने का काम किया। हालांकि नए वर्ष ने अभी 44 दिन का ही सफर पूरा किया है, लेकिन इस काल खंड को देख कर किसी के लिए भी यह उम्मीद लगाना मुश्किल होता जा रहा है कि प्रधानमंत्री अपने आश्वासन के अनुरूप एक ईमानदार और सक्षम शासन देने में समर्थ होंगे। यदि इस तथ्य को भूल भी जाया जाए कि घोटालेबाज ए. राजा के मामले में प्रधानमंत्री को एक बार फिर यह सुनना पड़ा कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने उन्हें सही सलाह नहीं दी तो भी पिछले डेढ़ माह का घटनाक्रम इस संभावना को ध्वस्त करता है कि केंद्रीय सत्ता अपनी छवि का निर्माण करने में समर्थ होगी। एंट्रिक्स-देवास सौदे में इसरो के पूर्व प्रमुख माधवन नायर समेत चार वैज्ञानिकों पर जिस तरह पाबंदी लगाई गई उससे देश को यही संदेश गया कि केंद्र सरकार ने एक पक्ष के लोगों के खिलाफ ही कार्रवाई की। खुद प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष ने वैज्ञानिकों के खिलाफ की गई कार्रवाई पर सवाल खड़े किए हैं। यह मामला वैज्ञानिकों के खिलाफ कार्रवाई से ज्यादा उनके मान-सम्मान से खेलने का बन गया है। हो सकता है कि पाबंदी के शिकार वैज्ञानिकों की एंट्रिक्स-देवास सौदे में कोई संदिग्ध भूमिका रही हो, लेकिन हर कोई यह महसूस कर रहा है कि उनके खिलाफ कार्रवाई का तरीका सही नहीं। भले ही उम्र विवाद पर सरकार को कठघरे में खड़ा करने वाले सेनाध्यक्ष को सुप्रीम कोर्ट से राहत न मिली हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि इस मामले में सरकार का रवैया भी सही नहीं रहा। सेनाध्यक्ष अपने पद पर बने रहें या न रहें, किसी के लिए भी ऐसा दावा करना मुश्किल होगा कि उनके और सरकार के रिश्ते मधुर हैं। कुछ ऐसा ही मामला चुनाव आयोग और केंद्र सरकार के रिश्तों का भी है। किसी भी सरकार के लिए इससे अधिक शर्मनाक बात और कोई नहीं हो सकती कि उसका कानून मंत्री चुनाव आयोग को चुनौती दे-और वह भी तब जब इसके लिए उसे चेताया जा चुका हो। यह शायद पहली बार है जब चुनाव आयोग ने किसी केंद्रीय मंत्री और विशेष रूप से कानून मंत्री की शिकायत राष्ट्रपति से की हो। इस पर भी गौर करें कि इसके पहले चुनाव आयोग प्रधानमंत्री से भी कानून मंत्री की शिकायत कर चुका है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक न तो सलमान खुर्शीद ने माफी मांगी है और न ही प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति की उस चिट्ठी पर कोई कार्रवाई की है जो चुनाव आयोग ने उन्हें भेजी थी। प्रधानमंत्री चाहते तो इस चिट्ठी पर तत्काल कार्रवाई कर सकते थे, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सके। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि आम जनता इस तरह के कयास लगाए कि मनमोहन सिंह या तो कानून मंत्री के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करना चाहते या अपने स्तर पर ऐसा करने में सक्षम नहीं। यदि प्रधानमंत्री अपने कानून मंत्री के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करते तो राष्ट्रपति की प्रतिष्ठा भी दांव पर होगी। इसी तरह यदि चुनाव आयोग अपनी शिकायत पर सुनवाई न होने के बाद भी हाथ पर हाथ रखकर बैठा रहता है तो उसकी भी साख पर बन आएगी। बेहतर होता कि वह राष्ट्रपति के समक्ष रोना रोने के बजाय खुद ही सलमान खुर्शीद के खिलाफ कार्रवाई करता। चुनाव आयोग को चुनौती देने वाले सलमान खुर्शीद सोनिया गांधी के आंसू निकालने के लिए भी चर्चा में हैं। हालांकि फजीहत से डरे खुर्शीद बाद में अपने बयान से मुकर गए और कुछ कांग्रेसियों ने भी उन्हें गलत ठहराया, लेकिन अभी तक खंडन सिर्फ इस बात का हुआ है कि सोनिया गांधी के आंसू फूट पड़े थे, इसका नहीं कि उन्होंने संदिग्ध आतंकियों के फोटो देखे थे। देश के लिए यह समझना मुश्किल है कि सोनिया गांधी को बाटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए संदिग्ध आतंकियों के फोटो देखने की आवश्यकता क्यों पड़ गई थी? क्या सोनिया गांधी मुठभेड़ में मारे गए सभी संदिग्ध आतंकियों के फोटो देखती हैं या फिर उन्होंने केवल बाटला हाउस में मारे गए आतंकियों के ही फोटो देखे? क्या सलमान खुर्शीद ने हुकूमत में रहते या न रहते हुए कभी सोनिया गांधी को आतंकी हमलों में मारे गए आम लोगों अथवा उनके परिजनों के फोटो भी दिखाए? खुर्शीद ने केवल सोनिया गांधी और चुनाव आयोग की ही प्रतिष्ठा से खिलवाड़ नहीं किया। उन्होंने बाटला मुठभेड़ पर विलाप कर परोक्ष रूप से गृहमंत्री को भी चुनौती दी है, जो लगातार कहते रहे हैं कि यह मुठभेड़ असली थी। क्या यह ईमानदार और सक्षम शासन की निशानी है कि कानून मंत्री उस मुठभेड़ पर सवाल खड़े करें जिसे गृहमंत्री ही नहीं, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी असली मानता है? क्या मनमोहन सरकार के लिए इससे अधिक लज्जाजनक और कुछ हो सकता है कि उसका एक केंद्रीय मंत्री चंद वोटों के लालच में पहले पार्टी अध्यक्ष और गृहमंत्री की प्रतिष्ठा से खिलवाड़ करता है और फिर चुनाव आयोगके मान-सम्मान से खेलता है? क्या यह मान लिया जाए कि कांग्रेस को सलमान खुर्शीद के हाथों अपनी और अपने नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता की फजीहत मंजूर है?
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

आदर्श जीवन

शास्त्रों ने ब्रंाचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम के अनुसार आदर्श जीवन बिताने का निर्देश दिया है। इन आश्रमों में गृहस्थाश्रम की अवधि भी पच्चीस वर्ष तक निर्धारित की गई थी जब हम शतेन् जीवेम् शरद: का लक्ष्य रखते थे। वर्तमान समय में औसत आयु सौ सालों की नहीं है, अत: बहुत कुछ विचार-विमर्श के उपरांत 21 वर्ष वर के विवाह की और 18 वर्ष कन्या की आयु वैध मानी गई है। ब्रंाचर्याश्रम अब कन्या के लिए 18 वर्ष और वर के लिए 21 वर्ष मानना व्यावहारिक है, लेकिन समाज में इतनी फिसलन है कि अब बाल्यावस्था शैशवावस्था से शुरू हो जाती है और हम किशोरावस्था में अतिक्रमण करने लगते हैं। रोगों की जानकारी देना शिक्षा के लिए आवश्यक माना जाता है। प्रकारांतर से हमें ब्रंाचर्य का महत्व समझाने की आवश्यकता है। गृहस्थाश्रम का महत्व रोमन पादरी संत वैलेंटाइन ने स्वीकार किया और सैनिकों को भी विवाह करने की प्रेरणा दी। राजा क्लाडियस द्वितीय ने इसे राजद्रोह माना और संत वैलेंटाइन को मृत्यु-दंड दिया। गृहस्थाश्रम और परिवार समर्थक उस संत के मृत्योपरांत लोगों ने इसे प्रेमदिवस केरूप में मनाना आरंभ कर दिया और खुशियां मनाई। इस प्रेमदिवस को बाजारवाद ने बढ़ावा दिया और गृहस्थी बसाने के बजाय इस संत की मान्यता के विपरीत आचरण करने लगे। यह परिवार दिवस है। पुरुष में बुद्धि को संतुलित और संयमित करने के लिए हमें परिवार का महत्व समझना चाहिए और इसके द्वारा ही जीवन के अभीष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति हो सकती है, ऐसा मानकर गृहस्थाश्रम में यथा वैध अवस्था में ही प्रवेश करना चाहिए। इक्कीस साल से अधिक अवस्था हो जाने पर गृहस्थाश्रम में अनेक पारिवारिक समस्याएं सामने आती हैं। पारिवारिक दायित्वों कोपूरा करने के लिए दान, त्याग और संयमित जीवन बिताने की अर्हता बताई गई है। अत: यह आवश्यक है कि अन्य आश्रमों की व्यवस्था के लिए हम गृहस्थाश्रम को मजबूत बनाएं।
डा. राष्ट्रबंधु
साभार :- दैनिक जागरण

महत्वपूर्ण मोड़ पर मोदी

एसआइटी से राहत मिलने की स्थिति में नरेंद्र मोदी के लिए राष्ट्रीय राजनीति की राह आसान होती देख रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता
इसकी कतई संभावना नहीं लगती कि 2002 दंगों के संदर्भ में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने को लेकर अहमदाबाद की स्थानीय अदालत में दायर अपील पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल (एसआइटी) की क्लोजर रिपोर्ट ही निर्णायक होगी। अगर अतीत को संकेत मानें तो गोधरा के बाद हुई हिंसा के शिकार मुसलमानों की त्रासदी को अब तक चर्चा में बनाए रखने वाली एक प्रतिबद्ध टोली इस मुद्दे को जिंदा बनाए रखने के लिए किसी भी कानूनी नुक्ते को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। इस बात की संभावना बहुत कम है कि ये लोग मोदी के खिलाफ एफआइआर दर्ज करा पाने में कामयाब हो जाएंगे। हालांकि इसके बावजूद वे अदालत में किसी न किसी दलील पर मुद्दे को जिंदा रखने से बाज आने वाले नहीं हैं। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि एक दशक के अथक कानूनी दांवपेंच के बाद भी कोई भी अदालत यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय भी मौतों के लिए व्यक्तिगत तौर पर मोदी को जिम्मेदार नहीं ठहरा पाया है। हां, उनकी निंदा जरूर होती रही है, जैसे कि हाल ही में गुजरात उच्च न्यायालय ने प्रशासन को ढिलाई का दोषी माना था। एक तरह से यह सही ही है, क्योंकि साबरमती एक्सप्रेस में आगजनी के बाद ही व्यापक पैमाने पर दंगे फैले थे और कड़ी कार्रवाई के अभाव में सरकार इन पर समय से काबू नहीं कर सकी थी। ऐसे में सरकार पर उंगली उठना स्वाभाविक ही है। हालांकि नागरिकों के जान-माल की रक्षा करने में राज्य की विफलता और इस आरोप में बड़ा अंतर है कि प्रशासन (जिसमें मुख्यमंत्री से लेकर पुलिस प्रमुख और थानेदार तक आते हैं) मुसलमानों को सबक सिखाने के लिए आपराधिक षड्यंत्र का दोषी था। इस अंतर से ही मोदी का राजनीतिक जीवन बचा है। मौतों को रोकने में सरकार की नाकामी पर नागरिक दो रूपों में प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं। पहला, वे प्रशासन पर दबाव बना सकते हैं कि हिंसा के तमाम दोषियों को चिह्नित किया जाए और उन पर मामला दर्ज किया जाए। ऐसा बेस्ट बेकरी और कुछ अन्य मामलों में हो चुका है। दूसरे, नागरिकों और राजनीतिक दलों को प्रशासनिक विफलता को प्रतिस्पर्धी राजनीति के अखाड़े में ले जाने का हक है। यह भी हो चुका है। 2002 के चुनाव में दंगे सभी दलों का प्रमुख मुद्दा बने थे और 2007 के चुनाव में भी उन पर खासा जोर था। इन दोनों अवसरों पर मोदी को लोकतंत्र की उच्चतम अदालत (आम जनता) से जबरदस्त समर्थन मिला। असल में यह भी आभास होता है कि चुनावी अखाड़े में मोदी को पटकनी देने के लिए जिस राजनीतिक कौशल और क्षमता की आवश्यकता है वह कांग्रेस के पास नहीं है। इसीलिए कांग्रेस मोदी को अदालत में शिकस्त देने को प्रयासरत है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि सामाजिक कार्यकर्ता उन लोगों को दंडित करने के इच्छुक नहीं हैं जो गुलबर्ग हाउसिंग सोसाइटी पर हमला करने वाली उन्मादी भीड़ में शामिल थे। इसके बदले वे मोदी के पीछे पड़े हैं। इस मामले का यह पहलू बड़ी आसानी से भुला दिया गया है। वे किसी भी तरह यह सिद्ध करना चाहते हैं कि जाफरी की हत्या मुख्यमंत्री द्वारा दिए गए आदेश का परिणाम थी। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उन्होंने सारी तिकड़में भिड़ा ली हैं। उन्होंने एक पुलिस अधिकारी भी जुटा लिया है, जो एक बैठक की काल्पनिक बातें सुना रहा है। एसआइटी रिपोर्ट में इसे मनगढ़ंत बताया गया है। उन्होंने विशेष जांच दल के सदस्यों के खिलाफ भी विद्वेषपूर्ण अभियान चलाया है और उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठाए हैं। ये कार्यकर्ता नरेंद्र मोदी को दोषी ठहराने के अपने अंतिम लक्ष्य में तो सफल नहीं हुए, किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि वे समाज के एक तबके को प्रभावित करने में जरूर सफल रहे हैं। उदाहरण के लिए, मोदी को व्यक्तिगत रूप से दोषी ठहराने के इस टोली के प्रयासों का भारत और अन्य देशों के शक्तिशाली उदार प्रतिष्ठान पर असर पड़ा है और वे मुख्यमंत्री को एक प्रकार के क्रूर शासक की श्रेणी में रख रहे हैं। इस पूरे प्रकरण से इस तथ्य से ध्यान हट गया है कि 2002 के बाद गुजरात में एक भी सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ है। गुजरात का पिछला दशक शांति और तीव्र आर्थिक विकास का साक्षी रहा है। सुशासन के मामले में मोदी की उपलब्धियां भारी हैं। गुजरात के लोग एक अरसा पहले दंगों को भूल चुके हैं और वे नहीं चाहते कि कोई उन्हें उनकी याद दिलाए। यह बात स्थानीय कांग्रेस भी समझती है, किंतु कार्यकर्ताओं की मेहरबानी से राज्य को असहिष्णुता और प्रतिगामी विचार की प्रयोगशाला के रूप में चित्रित किया जाता है। एक घाघ राजनेता के रूप में मोदी ने इस अनावश्यक विषवमन को क्षेत्रीय गौरव की भावना जगाने में बखूबी इस्तेमाल किया है, किंतु दुष्प्रचार के कारण न मोदी को और न ही गुजरात को असाधारण विकास का श्रेय मिला है। अब सवाल यह है कि मोदी द्वारा एक और बाधा पार करने के बाद क्या इस रुख में कोई बदलाव आएगा? इसका पूरा जवाब 2012 के अंत में गुजरात में होने वाले चुनाव के परिणाम पर ही निर्भर नहीं करता। मोदी को निशाना बनाने का असल कारण यह नहीं है कि वह एक राष्ट्रीय दल के क्षेत्रीय बॉस हैं। उनके निंदकों का भी मानना है कि वह राज्य में और भी लंबी पारी खेल सकते हैं। उनका भय और साथ ही मेरा अनुमान यह है कि कुछ भाजपा नेता भी मोदी विरोधियों की तरह भयभीत हैं। उनका भय यह है कि अब मोदी हर लिहाज से एक राष्ट्रीय नेता हैं। अगर मोदी पर कानूनी हमला बेअसर हो जाता है तो मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश के रास्ते में कोई नहीं आ पाएगा। राष्ट्रीय स्तर पर मोदी एक प्रेरक नेतृत्व की भूमिका निभा सकते हैं, वर्तमान फीके और निराशावादी नेताओं के विपरीत वह एक उत्साही व जोशीले नेता के रूप में मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को अपने पीछे लाने में सक्षम हैं। इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि मोदी की लोकप्रियता में अभी काफी बढ़ोतरी होगी। वह राजनीति से बाहर रहने वाले और चुनावी लोकतंत्र को काजल की कोठरी मानने वाले एक बड़े तबके को प्रेरित करने की क्षमता रखते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर मोदी संप्रग के सबसे प्रबल विरोधी सिद्ध हो सकते हैं। 2014 के चुनाव में राहुल गांधी-नरेंद्र मोदी मुकाबला बेहद दिलचस्प होगा। मोदी में जबरदस्त ऊर्जा है। आवश्यकता है तो रणनीति और दांवपेंच की।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

जटिल चुनौती

यह स्वागत योग्य है कि 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उपजीं समस्याओं का समाधान करने के लिए खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कमान संभाल ली है, लेकिन उनके लिए इन समस्याओं का समाधान करना आसान नहीं होगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कई पहलू हैं और इस फैसले का प्रभाव अनेक पक्षों पर पड़ा है। सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से 2 जी स्पेक्ट्रम के सभी 122 लाइसेंस रद कर दिए उससे देसी और विदेशी कंपनियां तो प्रभावित हुई ही हैं, इन कंपनियों में काम करने वाले तमाम कर्मचारी भी प्रभावित हुए हैं। केंद्र सरकार के सामने सबसे बड़ी समस्या विदेशी कंपनियों के निवेश को सुरक्षित रखने और अंतरराष्ट्रीय उद्योग-व्यापार जगत को यह भरोसा दिलाने की है कि भारत में उनके लिए अभी भी उपयुक्त परिस्थितियां हैं। निश्चित रूप से विदेशी कंपनियों को ऐसा कुछ भरोसा तभी दिलाया जा सकता है जब केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उपजीं परिस्थितियों का सामना सही तरीके से करेगी। अभी तो केंद्र सरकार के लिए यही तय करना मुश्किल हो रहा है कि वह सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को चुनौती दे या नहीं? यदि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्वीकार करती है, जैसे कि प्रारंभ में संकेत दिए गए थे तो उसके सामने समस्या यह होगी कि 2 जी स्पेक्ट्रम की नए सिरे से नीलामी में सभी मोबाइल कंपनियों को आमंत्रित करे या फिर केवल उन्हीं कंपनियों को जिनके लाइसेंस रद किए गए हैं? इस संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि लाइसेंस गंवाने वाली कंपनियों में भागीदारी करने वाली विदेशी कंपनियों का यह आग्रह है कि नए सिरे से स्पेक्ट्रम का आवंटन कुछ इस तरह से किया जाए जिससे उनका निवेश सुरक्षित रहे। भारत सरकार उनके इस आग्रह को स्वीकार करे या न करे, लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि ए. राजा की मनमानी के कारण जो हालात पैदा हुए उनके लिए विदेशी दूरसंचार कंपनियों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। भारत सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह विदेशी कंपनियों के वैध तरीके से किए गए निवेश की रक्षा करे। आखिर यह एक तथ्य है कि विदेशी कंपनियों ने केंद्रीय सत्ता की जानकारी में देसी कंपनियों के साथ भागीदारी की थी। केंद्र सरकार ए. राजा की मनमानी के लिए केवल उन्हें ही दोषी ठहराकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर सकती है, लेकिन वह ऐसा कुछ कहने की स्थिति में नहीं है कि विदेशी कंपनियों के समक्ष जो समस्याएं आ खड़ी हुई हैं उनके लिए वह जिम्मेदार नहीं। केंद्र सरकार को स्पेक्ट्रम आवंटन के साथ-साथ अन्य अनेक मामलों में भी ऐसी नीतियों का निर्धारण करना होगा जिससे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय उद्योग जगत का भारत पर भरोसा बढ़े। यह इसलिए और अधिक आवश्यक है, क्योंकि केंद्र सरकार की निर्णयहीनता और नीतिगत अस्पष्टता के चलते राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय उद्योग जगत सशंकित है। यदि संशय के इस माहौल को दूर करने के उपाय नहीं किए जाते तो इससे विदेशी पूंजी निवेश का प्रवाह प्रभावित हो सकता है और यह स्थिति भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष मौजूद चुनौतियों को बढ़ाने का ही काम करेगी।
साभार :- दैनिक जागरण

जीवन के आयाम

हर्बर्ट स्पेंसर ने जीवन के दो आयामों की चर्चा की है-लंबाई और चौड़ाई। दीर्घजीवी होना जीवन की लंबाई है। यदि लंबा जीवन प्रमाद में बीत गया तो समझो व्यर्थ गया। पद-संपदा के इर्द-गिर्द लंबे समय तक नाचते रहना जीवन की श्रेष्ठता नहीं है। संयम के साथ अपने भीतर सद्गुणों का विकास करते हुए जीना जीवन की चौड़ाई है। ऐसा अल्पजीवी जीवन दीर्घजीवी जीवन से बेहतर है। जीवन की सार्थकता इस बात में है कि भीतर सद्गुण जीते और दुर्गुण हारे। जब भीतर राम जीतते हैं और रावण हारता है तो जीवन की चौड़ाई बढ़ती है। समझो कि आत्मत्याग ही आत्मपरिष्कार है, आत्मपरिष्कार ही आत्मविजय है और आत्मविजय ही विश्वविजय है। जिसने अपने को जीत लिया उसने सारी दुनिया को जीत लिया। यह आत्मबल से संभव है। यह आत्मबल योग-साधना का उपहार है। अत: जीवन के हर पल को योग बनने दो। योगी की तरह जीवन को होश में जिया जाए। होश में जिया गया जीवन उत्सवी जीवन है। बेहोशी का लंबा जीवन तो बोझ है। एक क्षण भी योग से विरत होना मानवता की तौहीन है। यह शरीर कच्चा घड़ा है। इसे तप से तपाना होगा, तभी वह अनंत चेतना को धारण करने में समर्थ होगा। चेतना शरीर में दिव्यता भरती है। दिव्य शरीर ही सत्कर्मो के सहारे लोककल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। यही जीवन की चौड़ाई है। हमने अध्यात्म छोड़ दिया और जिंदगी को धन से संवारने के चक्कर में खंडहर हो गए। नैतिक चौड़ाई घटती गई और भौतिक लंबाई बढ़ती गई। अब वैज्ञानिक बुद्धि का उपयोग सत्य, शिव और सुंदर की तलाश में करनी होगी। आज इसी समग्र योग की मांग है। जब योग साधक के बीच जज्ब होता है तो उसके भीतर छिपी प्रेम की खुशबू बाहर आ ही जाती है और सहज ही सत्कर्म होने लगते हैं। सर्वत्र ईश्वर की छवि निहारते रहना ज्ञानयोग है। निश्छल भाव से अपने को ईश्वरार्पित कर देना भक्तियोग है। प्रभुभाव से सभी प्राणियों की सेवा करना कर्मयोग है। इस त्रिवेणी का संगम समग्र योग है। यही जीवन की समृद्धि है और चौड़ाई का मंतव्य भी।
डॉ. दुर्गादत्त पांडेय
साभार :- दैनिक जागरण

राजनीति का मकड़जाल

जाति-मजहब की राजनीति से प्रभावित उत्तर प्रदेश के चुनावों को मतदाताओं के लिए एक परीक्षा मान रहे हैं संजय गुप्त

पंजाब, उत्तराखंड और मणिपुर में मतदान संपन्न होने के बाद अब देश की निगाहें उत्तर प्रदेश पर टिकी हुई हैं। उत्तर प्रदेश में दो दौर का मतदान हो चुका है। अच्छी बात यह है कि इन दोनों चरणों में मतदाताओं ने बढ़-चढ़कर मतदान किया। चुनाव आयोग और साथ ही राजनीतिक दलों को इस पर प्रसन्नता होनी चाहिए कि देशवासी बड़ी संख्या में अपने मताधिकार का प्रयोग करने के लिए आगे आ रहे हैं। एक समय था जब पचास प्रतिशत से भी कम मतदान होता था। इसके चलते कम प्रतिनिधित्व वाले राजनीतिक दल भी सत्ता में आ जाते थे। अब स्थितियां बदलती दिख रही हैं। इसका एक कारण चुनाव आयोग की ओर से मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए की जाने वाली पहल भी है और युवा मतदाताओं की भागीदारी भी। चुनाव आयोग निष्पक्ष तरीके से चुनाव कराने में सफल रहने के बावजूद चुनाव में धनबल का इस्तेमाल समाप्त नहीं कर पा रहा है। राजनीतिक दल भी इस मामले में शुतुरमुर्गी रवैया अपनाए हुए हैं। चुनाव आयोग ने पंजाब और उत्तर प्रदेश में करोड़ों रुपये की ऐसी धनराशि जब्त की है जिसका चुनावों में इस्तेमाल होने की आशंका थी। बड़े पैमाने पर धन की इस जब्ती के बाद भी चुनाव आयोग को यह अंदेशा है कि चुनावों में धनबल का इस्तेमाल पूरी तौर पर रोकना संभव नहीं हो पाएगा। बावजूद इसके अभी तक चुनाव आयोग ने धनबल के इस्तेमाल पर किसी भी राजनीतिक दल के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं की है। राजनीतिक दलों की समस्या यह है कि निर्धारित खर्च सीमा में उनके लिए चुनाव लड़ना नामुमकिन है, जबकि रैलियों और चुनाव प्रचार में खर्च बढ़ता जा रहा है। भले ही इस खर्च को नियंत्रित करना संभव हो, लेकिन धन के जरिये मतदाताओं को खरीदने की प्रवृत्ति पर रोक लगाना मुश्किल होता जा रहा है। राजनीतिक दल मतदाताओं को रिझाने के लिए धन भी खर्च करते हैं और शराब भी बांटते हैं। विडंबना यह है कि देश में तमाम मतदाता ऐसे हैं जो प्रलोभन में आकर अपने वोट का इस्तेमाल करते हैं। इन मतदाताओं में जागरूकता आने में अभी समय लगेगा। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक चुनाव आयोग को सतर्कता बरतनी होगी, लेकिन चुनाव आयोग और राजनीतिक दल चाहें तो चुनाव के वाजिब खर्च पर नए सिरे से विचार कर सकते हैं। हालांकि इस मुद्दे पर चर्चा तो बहुत हुई है, लेकिन किसी निर्णय पर नहीं पहुंचा जा सका है। परिणाम यह है कि जब भी चुनाव होते हैं तब धनबल का इस्तेमाल देखने को मिलता है। जब राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए अनुचित रूप से धन का इस्तेमाल करते हैं तो इससे कहीं न कहीं कालेधन और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। एक ऐसे समय जब भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना कथित तौर पर राजनीतिक दलों की प्राथमिकता है तब फिर यह आवश्यक है कि वे चुनाव खर्च सीमा को वाजिब बनाएं। ऐसा न करना एक प्रकार से चुनाव सुधारों से बचना और कालेधन की राजनीति को बढ़ावा देना है। उत्तर प्रदेश में चुनाव जीतने के लिए विभिन्न दलों के नेता जैसे बयान देने में लगे हुए हैं वे हकीकत से परे हैं। भले ही नेतागण खुद को जाति-मजहब की राजनीति से परे बता रहे हों, लेकिन यथार्थ यह है कि वे इसी आधार पर मतदाताओं का धु्रवीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं। सभी दलों ने अपने प्रत्याशियों का चयन भी इसी आधार पर किया है। एक तरह से राजनीतिक दलों के खाने के दांत और हैं तथा दिखाने के और। जाति-मजहब की इस राजनीति के लिए एक हद तक मतदाता भी जिम्मेदार हैं। उत्तर प्रदेश की तमाम समस्याओं के लिए यही राजनीति जिम्मेदार है। जाति-मजहब की इसी राजनीति के जरिये सपा-बसपा के साथ-साथ कांग्रेस और भाजपा भी चुनाव जीतने के लिए पूरा जोर लगाए हुए हैं। ज्यादातर सीटों में चतुष्कोणीय मुकाबला होने के कारण किसी नतीजे पर पहुंचना मुश्किल हो रहा है। सभी दल मतों के बंटवारे में खुद के लाभ में होने का दावा कर रहे हैं, लेकिन बढ़े मतदान प्रतिशत ने इन दावों पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। भाजपा का मानना है कि कांग्रेस की मजबूती सपा-बसपा के वोटों में कटौती का कारण बनेगी और इसका लाभ उसे मिलेगा। कांग्रेस राहुल गांधी के आक्रामक प्रचार के जरिये यह मान रही है कि पिछले 22 सालों से राज्य की जनता सपा-बसपा और भाजपा को परख चुकी है, इसलिए इस बार उसकी दावेदारी मजबूत है। दूसरी ओर सपा-बसपा का यह दावा है कि क्षेत्रीय दल होने के नाते मतदाताओं के बीच उनकी ही पकड़ सबसे मजबूत है। आम धारणा है कि पहले नंबर की लड़ाई सपा-बसपा के बीच है। एक आकलन यह भी है कि बसपा को सत्ताविरोधी प्रभाव का सामना करना पड़ेगा। उत्तर प्रदेश के बारे में किसी भी आकलन को अंतिम इसलिए नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यहां की राजनीति जाति और मजहब के इर्द-गिर्द घूम रही है। इस बार जाति के आधार पर भी लोगों को रिझाने की कोशिश की जा रही है और मजहब के आधार पर भी। सपा, बसपा और कांग्रेस में मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने की जबरदस्त होड़ इसलिए है, क्योंकि यह वर्ग थोक रूप में वोट देता है। कांग्रेस ने मुसलमानों को रिझाने के लिए पहले साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की घोषणा की, फिर केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद ने इस आरक्षण को नौ प्रतिशत तक बढ़ाने का वायदा किया। जब चुनाव आयोग ने इसके लिए उनकी निंदा की तो उन्होंने बाटला कांड भुनाने की कोशिश की। 2008 में दिल्ली में हुए इस कांड को लेकर कांग्रेस के अंदर दो मत हैं। जहां प्रधानमंत्री और गृहमंत्री पुलिस की कार्रवाई को सही मानते हैं वहीं दिग्विजय सिंह और सलमान खुर्शीद इस कार्रवाई को फर्जी करार दे रहे हैं। यह चुनाव बाद ही पता चलेगा कि कांग्रेस मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने में सफल रही या नहीं? इसी तरह चुनाव परिणाम ही यह तय करेंगे कि किस राजनीतिक दल ने जातीय समीकरणों को अच्छी तरह समझा? पिछले चुनाव में बसपा की जीत में जातीय समीकरणों की बड़ी भूमिका रही थी। दलित और सवर्ण मतदाताओं को अपने पक्ष में करके उसने अकेले दम सरकार बनाई थी। इस बार भी वह इसी कोशिश में है, लेकिन ऐसी ही कोशिश अन्य दल भी कर रहे हैं। जब सभी दल जातियों को गोलबंद करने में लगे हुए हैं तब फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचना मुश्किल है कि उत्तर प्रदेश के मतदाता जाति-मजहब से ऊपर उठकर अपने वोट का इस्तेमाल करेंगे। वैसे उन्हें यह समझना होगा कि उनके द्वारा चुना जा रहा प्रत्याशी जाति-मजहब का नहीं, बल्कि सत्तापक्ष-विपक्ष का प्रतिनिधित्व करेगा। उनके लिए यह जरूरी है कि वे राजनीतिक दलों के तौर-तरीकों, नीतियों और शीर्ष नेतृत्व के आधार पर वोट दें। इस सबके अतिरिक्त उन्हें प्रत्याशी विशेष की छवि को भी ध्यान में रखना होगा। यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनके लिए राजनीतिक दलों के मकड़जाल से निकलना और उत्तर प्रदेश को विकास के रास्ते पर ले जाना मुश्किल होगा।
साभार :- दैनिक जागरण

चुनाव आयोग को चुनौती

बाटला कांड का जिक्र करके कथित तौर पर सोनिया गांधी के आंसू निकालने वाले केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने चुनाव आयोग को चुनौती देते हुए जिस तरह पिछड़े मुसलमानों का हक दिलाने का दम भरा उससे यह और स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस मुस्लिम समुदाय को बरगलाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। नि:संदेह उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की प्रतिष्ठा दांव पर है और विधानसभा चुनाव उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गए हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह एक समुदाय विशेष का तुष्टीकरण करने के लिए चुनाव आयोग को भी चुनौती देने पर आमादा हो जाए। सलमान खुर्शीद जिस तरह यह साबित करना चाहते हैं कि चुनाव आयोग पिछड़े मुसलमानों को उनका हक दिलाने में बाधक बन रहा है उससे यह स्पष्ट है कि वह मुस्लिम समुदाय की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश कर रहे हैं। इसी कोशिश के चलते उन्होंने आजमगढ़ में अपनी सभा में जुटे लोगों को यह यकीन दिलाने की कोशिश की थी कि बाटला मुठभेड़ फर्जी थी। हालांकि इसके पहले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह भी बाटला मुठभेड़ को फर्जी साबित करने के लिए जमीन-आसमान एक कर चुके हैं और इस क्रम में गृह मंत्री के साथ-साथ प्रधानमंत्री पर भी निशाना साध चुके हैं, लेकिन सलमान खुर्शीद का उनके रास्ते पर चलना इसलिए आपत्तिजनक है, क्योंकि वह केंद्रीय मंत्री भी हैं। वह केवल अल्पसंख्यक मामलों के ही मंत्री नहीं, बल्कि विधि मंत्री भी हैं। क्या इससे अधिक अनुचित और अस्वाभाविक और कुछ हो सकता है कि मुठभेड़ के किसी मामले में देश का कानून मंत्री गृह मंत्री को गलत साबित करने की कोशिश करे? चुनाव प्रचार के दौरान बाटला कांड की जानबूझकर गलत तरीके से व्याख्या करना और पिछड़े मुस्लिम तबके के हित की बात करना राजनीतिक अवसरवादिता का भी एक उदाहरण है। यदि कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता को बाटला कांड फर्जी नजर आता है तो फिर उसकी जांच कराने से किसने रोक रखा है? यही सवाल पिछड़े मुसलमानों को उनके अधिकार दिलाने के संदर्भ में भी लागू होता है। क्या कांग्रेस के पास इस सवाल का कोई जवाब है कि पांच राज्यों और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले उसे पिछड़े मुसलमानों की याद क्यों नहीं आई? यदि कांग्रेस ने 2009 के अपने घोषणापत्र में पिछड़े मुसलमानों के कल्याण का वायदा किया था तो अभी तक वह हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठी रही? कांग्रेस के इस रवैये को देखते हुए मुस्लिम समुदाय को यह अहसास हो जाना चाहिए कि उसके वोट हासिल करने के लिए उसके साथ सुनियोजित तरीके से फरेब किया जा रहा है। उसे न केवल गुमराह किया जा रहा है, बल्कि उसका भावनात्मक शोषण करने की भी कोशिश हो रही है। यह कोशिश कांग्रेस के साथ-साथ अन्य राजनीतिक दल भी कर रहे हैं। चुनाव के दौरान मुसलमानों को बरगलाने का यह सिलसिला तब तक समाप्त नहीं होने वाला जब तक यह समुदाय इस या उस दल को थोक रूप में वोट देने की प्रवृत्ति का परित्याग नहीं करता। यदि मुस्लिम समुदाय अपना हित चाहता है तो उसे खुद को गुमराह करने वाले दलों से सचेत होना होगा।
साभार :- दैनिक जागरण

संशय से बचें

भगवान श्रीकृष्ण गीता में मानव मात्र को सावधान करते हुए कहते हैं-संशयात्माविनश्यति अर्थात संशय मनुष्य का नाश करता है। संशय मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा अवरोधक है। संशय का अर्थ है-किसी वस्तु के न होने पर भी उसके होने की आशंका से भयभीत होना। सच पूछें तो संशय का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता, क्योंकि यह होता ही नहीं है। दरअसल, यह एक प्रकार की काल्पनिक भावना है, जो हमारी आंखों पर धुएं की तरह छा जाता है। संशय एक प्रकार से मनुष्य के जीवन का विकार है। मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य स्वयं इस कल्पना का निर्माण कर लेता है और फिर उससे भयातुर होकर कांपने लगता है। अब सवाल उठता है कि आखिर संशय से मुक्ति का उपाय क्या है? दरअसल, इसका सबसे सरल उपाय यही है कि मानव मात्र प्रभु की शरण में समर्पित हो जाए। सच्चे मन से उनकी आराधना करें। जो परमात्मा को शरणागत हो जाता है वह काम-क्रोध-भय-संशय आदि सबसे मुक्त हो जाता है। प्रश्न यह भी उठता है कि मनुष्य कितनी आस्था और श्रद्धा से परमात्मा के श्रीचरणों में अपने को प्रणत् करता है। उसकी कृपा होते ही मनुष्य के सारे प्रश्न अथवा प्रतिप्रश्न समाप्त हो जाते हैं। उसकी खोई हुई शक्ति उसे पुन: वापस मिलने लगती है। रामचरितमानस की एक चौपाई है-गई बहोरि गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।। रामजी की कृपा से वह सब कुछ वापस मिलने लगता है, जो किसी कारणवश मनुष्य खो चुका होता है। मनुष्य के समस्त योग-क्षेम का वहन भगवान स्वयं करने लगते हैं। संशय शरीर में निहित प्राणशक्ति को कंपित करता है, जिससे जीवन में निराशा आती है और मनुष्य जीवन में हताश होकर अकर्मण्यता की स्थिति में पहुंच जाता है। संशय संपूर्ण मानव शरीर को निष्कि्रय कर देता है। देखते ही देखते सब कुछ उसके हाथ से चला जाता है। विवेकी पुरुष संशय करने से बचते हैं और जीवन को सार्थक बनाने में लगे रहते हैं।
आचार्य सुदर्शन जी महाराज
साभार :- दैनिक जागरण

सुधार का उपेक्षित क्षेत्र

चुनाव सुधार की चर्चा के बीच राजनीतिक दलों से संबंधित सुधारों की अनदेखी पर निराशा जता रहे हैं नृपेंद्र मिश्र
चुनाव सुधार केंद्र सरकार के एजेंडे में शीर्ष स्थान पर हैं। कानून मंत्रालय ने एक कोर समिति का गठन किया है, जो भारत में चुनाव सुधार पर सुझाव पेश करेगी। महत्वपूर्ण सुधारों पर राष्ट्रीय स्तर पर सर्वसम्मति बनने के इंतजार के बीच हम निर्वाचन तंत्र में सुधार के लिए पहल कर सकते हैं। राजनीतिक दल संबंधी सुधार नाजुक हैं और इस दिशा में जल्द से जल्द कार्रवाई की जानी चाहिए। भारतीय संविधान में राजनीतिक दलों के संबंध में एकमात्र संदर्भ संविधान की दसवीं अनुसूची में ही दिखाई पड़ता है, जिसे 1985 में 52वें संशोधन के जरिए संविधान में जोड़ा गया। यह लोकसभा व राज्यसभा तथा विधानसभा व विधानपरिषद के सदस्यों को दल बदलने के आधार पर अयोग्य घोषित कर सकता है। राजनीतिक दलों से संबंधित कायदे-कानून बनाने का मुख्य दायित्व मुख्य चुनाव आयुक्त का है। यह शक्ति चुनाव आयोग के पास ही है कि वह किसी समूह और व्यक्तियों की इकाई को एक राजनीतिक दल के रूप में पंजीकरण और इसी के साथ इसे भारत की राजनीतिक पार्टी की मान्यता प्रदान करता है या नहीं। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (आरपीए) के अनुच्छेद 29 ए (1) और (2) के अनुसार कोई भी संगठन या व्यक्तियों की इकाई खुद को राजनीतिक पार्टी कह सकती है अगर वह गठन के तीस दिनों के भीतर चुनाव आयोग के पास राजनीतिक दल के रूप में पंजीकरण के लिए आवेदन करे। अनुच्छेद ए (5) के अनुसार आवेदन के साथ संगठन या इकाई की नियमावली की कॉपी लगाना जरूरी है। इसमें पार्टी के लिए भारत के संविधान का पालन करना और समाजवाद, पंथनिरपेक्षता और लोकतंत्र के सिद्धांतों का पालन करना जरूरी है। इस संबंध में चुनाव आयोग का फैसला अंतिम है। आरपीए के अनुच्छेद 29सी के अनुसार पंजीकृत राजनीतिक दलों को वार्षिक रिपोर्ट चुनाव आयोग को देना जरूरी है। राजनीतिक दल को आयकर से छूट तभी मिलेगी जब वह बीस हजार रुपये से अधिक के सभी अंशदान का विवरण चुनाव आयोग को दे। दूसरा महत्वपूर्ण प्रावधान है कि सभी राजनीतिक दल वार्षिक वित्तीय लेखा-जोखा चुनाव आयोग को पेश करेंगे। तीसरा प्रावधान यह है कि चुनाव आयोग किसी भी विवरण की मांग कर सकता है, जो राजनीतिक पार्टी के पंजीकरण के आवेदन की शर्तो के दायरे में आता हो। एक गैरसरकारी संगठन पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन (पीआइएफ) ने आरटीआइ के माध्यम से कुछ सूचनाएं मांगी, जिनके जवाब चौंकाने वाले थे। वार्षिक रिपोर्ट में बीस हजार रुपये से अधिक प्राप्तियों के संबंध में चुनाव आयोग ने बताया कि कुल पंजीकृत 1196 राजनीतिक दलों में से मात्र 98 ने ही वार्षिक रिपोर्ट में 20 हजार रुपये से अधिक के अंशदान का ब्यौरा दिया है। यह संख्या कुल पंजीकृत राजनीतिक दलों का करीब आठ प्रतिशत ही है। यही नहीं, चुनाव आयोग ने इन राजनीतिक दलों के खिलाफ आयकर विभाग को कोई निर्देश नहीं दिए। आयोग ने सिर्फ इतना किया कि दलों से प्राप्त वार्षिक रिपोर्ट की कॉपियां आयकर विभाग को भेज दीं। अन्य आरटीआइ में पीआइएफ ने वार्षिक वित्तीय विवरण के संबंध में जानकारी मांगी। वित्तीय वर्ष खत्म होने के छह माह के भीतर चुनाव आयोग को यह जानकारी देना प्रत्येक राजनीतिक दल के लिए जरूरी है। इसके जवाब में चुनाव आयोग ने बताया कि महज 174 दलों ने 2010-11 का वित्तीय स्टेटमेंट भेजा है। यानी करीब 85 फीसदी दलों ने अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा नहीं किया और चुनाव आयोग ऐसे राजनीतिक दलों को बस स्मरण-पत्र भेजकर चुप बैठ गया। इन नियमों का पालन न करने वाले दलों को दंडित करने का प्रावधान न होने के कारण चुनाव आयोग लाचार नजर आता है। चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों को पंजीकृत करने का तो अधिकार है, किंतु एक बार पंजीकरण हो जाने के बाद आयोग के पास दलों के पंजीकरण पर पुनर्विचार करने का कोई अधिकार नहीं है। केवल एक सूरत में आयोग किसी दल का पंजीकरण रद कर सकता है। अगर आयोग को पता चले कि राजनीतिक दल ने गलत सूचनाओं और तथ्यों के आधार पर पंजीकरण कराया था या फिर कोई राजनीतिक दल खुद ही आयोग को सूचित करे कि उसने काम करना बंद कर दिया है अथवा उसने अपना संविधान बदल लिया है अथवा वह कानून के प्रावधान के मुताबिक काम नहीं कर पाएगा। इन प्रतीकात्मक शक्तियों से लैस चुनाव आयोग ने जुलाई 1998 में पार्टियों का पंजीकरण करने और पंजीकरण रद करने संबंधी प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। अभी तक सरकार ने आयोग को इन जरूरी शक्तियों से लैस नहीं किया है। अगर राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी के संबंध में सरकार के पास कोई कानून नहीं है तो जवाबदेही से मुक्त राजनीति ही सामने आएगी। कानून में राजनीतिक दलों के न केवल पंजीकरण करने व पंजीकरण रद करने संबंधी प्रावधान होने चाहिए, बल्कि राजनीतिक दलों की गतिविधियां और नियमन भी इसके दायरे में आने चाहिए। सेंटर फॉर स्टैंड‌र्ड्स इन पब्लिक लाइफ ने भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एमएन वेंकटचलैया के मार्गदर्शन में पालिटिकल पार्टीज (रजिस्ट्रेशन एंड रेगुलेशन ऑफ अफेयर्स) एक्ट, 2011 का मसौदा तैयार किया है। इसमें राजनीतिक दलों के गठन से लेकर पंजीकरण, संचालन, जवाबदेही, नियमन और कार्यो के बारे में स्पष्ट प्रावधान किए गए हैं। इसमें संचालन की शर्ते और 20 हजार रुपये से अधिक के अंशदान के संबंध में सूचना देने के बाध्यकारी प्रावधान हैं। विद्यमान कानूनों के विपरीत, जहां गैरपंजीकृत दल भी चुनाव लड़ सकता है, तमाम दलों के लिए यह अनिवार्य हो जाएगा कि वे चुनाव लड़ने से पहले चुनाव आयोग में पंजीकरण करवाएं। यही नहीं, इस बिल के माध्यम से रजिस्ट्रार को किसी भी दल का किसी भी समयावधि के हिसाब-किताब के अंकेक्षण का अधिकार मिल जाएगा। मसौदे में स्पष्ट व्यवस्था है कि प्रावधानों का अनुपालन न करने वाले दलों पर दस हजार रुपये प्रतिदिन जुर्माना लगाया जा सकता है और तीन साल तक की सजा और पंजीकरण रद किया जा सकता है। इस विषय पर सरकार की उच्च स्तरीय रिपोर्टो में शामिल हैं लॉ कमीशन की चुनाव सुधार पर 170वीं रिपोर्ट (1999), नेशनल कमीशन फॉर रिव्यू ऑफ द वर्किग ऑफ द कंस्टीट्यूशन रिपोर्ट (2002) और चुनाव सुधार पर चुनाव आयोग की अनुशंसाएं (2004)। इन रिपोर्टो में राजनीतिक दलों के नियमन की वकालत तो की गई है, किंतु इसके लिए अलग से अधिनियम पारित करने के बजाए विद्यमान कानूनों में संशोधन करना ही पर्याप्त माना गया है।
(लेखक ट्राई के पूर्व अध्यक्ष हैं और यह लेख पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन में शोध सहायक तन्नू सिंह के सहयोग के साथ लिखा गया है)
साभार :- दैनिक जागरण

नए सिरे से लीपापोती

कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग की ओर से विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों को भेजे गए इस निर्देश में कुछ भी नया नहीं है कि वे भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की अनुमति देने में देर न करें। यह निर्देश सिर्फ इसलिए दिया गया है, क्योंकि पिछले सप्ताह सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे लोकसेवकों के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति देने का फैसला अधिकतम चार माह में अवश्य कर लिया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला स्पेक्ट्रम घोटाले के लिए जिम्मेदार ए. राजा के खिलाफ कार्रवाई में हुई देरी के संदर्भ में दिया। यह जानना दुखद है कि यह देरी प्रधानमंत्री कार्यालय के स्तर पर हुई। जब शासन के शीर्ष स्तर पर भ्रष्ट लोकसेवकों के खिलाफ कार्रवाई करने के मामले में हीलाहवाली हो सकती है तब अन्य स्तरों पर इससे भी अधिक खराब स्थिति होना स्वाभाविक ही है। इसमें संदेह है कि कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग की ओर से भेजे गए दिशा-निर्देश से कुछ बेहतर हासिल हो सकेगा। यह निर्देश सिर्फ यह दिखाने के लिए भेजा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद केंद्रीय सत्ता भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई के मामले में गंभीर है। आखिर कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग अभी तक क्या कर रहा था? यह ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्ट लोकसेवकों के खिलाफ कार्रवाई का फैसला चार माह में करने की समयसीमा अभी हाल में तय की है, लेकिन क्या वह इससे अवगत नहीं कि इसी मामले में प्रधानमंत्री कार्यालय को न केवल कठघरे में खड़ा होना पड़ा था, बल्कि हलफनामा भी देना पड़ा था। यह भी एक तथ्य है कि भ्रष्ट लोकसेवकों के खिलाफ कार्रवाई का फैसला करने की अवधि बहुत पहले तय कर दी गई थी। विनीत नारायण बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया था कि भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई का फैसला तीन माह में कर लिया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की इस व्यवस्था से कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के साथ-साथ पूरी केंद्रीय सत्ता भी अवगत थी और केंद्रीय सतर्कता आयोग भी। सच तो यह है कि केंद्रीय सतर्कता आयोग ऐसे अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की अनुमति न मिलने का मुद्दा बार-बार उठाता रहा, लेकिन केंद्र सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा। कई मामलों में तो केंद्रीय जांच ब्यूरो ने भी इस पर लाचारी प्रकट की थी कि उसे भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे लोकसेवकों के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी जा रही है। केंद्र सरकार को इससे अच्छी तरह अवगत होना चाहिए कि भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई के बजाय लीपापोती करने की उसकी प्रवृत्ति के चलते ऐसे अधिकारियों की सूची लंबी होती चली जा रही है। भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति न देने के मामले में आश्चर्यजनक रूप से सभी केंद्रीय मंत्रालयों और विभागों की स्थिति एक जैसी ही है। केंद्र सरकार को यह अहसास होना ही चाहिए कि जब तक भ्रष्ट अधिकारियों को संरक्षण प्रदान करने की यह प्रवृत्ति समाप्त नहीं होती तब तक घपले-घोटालों पर अंकुश लगाने की उसकी प्रतिबद्धता पर प्रश्नचिह्न लगता ही रहेगा।
साभार :- दैनिक जागरण

सात्विकता

मानव मन की नकारात्मक वृत्तियां सदैव उसे घेरकर पतन की ओर धकेलती हैं। वह अपने को अशक्त एवं असहाय अनुभव करने लगता है। ये नकारात्मक वृत्तियां हैं-राग-द्वेष, भय, क्रोध, संशय। इनके उपस्थित रहने से मनुष्य निश्चयहीनता की स्थिति को प्राप्त होता है। वह समझ नहीं पाता कि क्या करूं। इस नकारात्मकता के घेराव से मुक्ति पाने के लिए अपने आप में प्रतिरोधी ऊर्जा का संचार परम आवश्यक है। अपने अंदर आत्मविश्वास जागृत करना ही इस नकारात्मकता को दूर करने का प्रथम सोपान है। आत्मविश्वास, धन एवं अन्य संपन्नता का स्थायित्व एवं सदुपयोग हेतु ज्ञान एवं विवेक अति आवश्यक है। इन्हीं सबको सात्विकता कहते हैं मनुष्य में यही सात्विक भाव यदि है तो नकारात्मक विचार पास नहीं फटकते हैं। शास्त्रों में वर्णित असुर मधुकैटभ, शुंभ-निशुंभ व महिषासुर नकारात्मक वृत्रियों के प्रतीक हैं। मां के तीन स्वरूप दुर्गा, लक्ष्मी एवं सरस्वती इन्हीं मानव दुष्प्रवृत्तियों की विनाशक शक्ति एवं सुख समृद्धि की दाता हैं। इन तीनों देवियों की आराधना का अभिप्राय है कि इनके द्वारा स्थापित किए जाने वाले सभी गुण उस व्यक्ति में उपस्थित हैं। इन आसुरी नकारात्मक वृत्तियों को जो मनुष्य अपने आचरण से बाहर रखता है वह अपने भीतर सत्य, शांति, संतोष एवं सुख की अनुभूति करता है। कभी ये नकारात्मक शक्तियां अनुवांशिक भी होती हैं जो हमें वंशानुगत प्राप्त होती हैं। हमारा व्यवहार हमारे नियंत्रण में नहीं रह पाता। मानव जीवन तमस, राजस एवं सात्विक में से किसी एक के विकल्प को अपनाने के आधार पर बढ़ता है। अपनी चेतना शक्ति के आधार पर मनुष्य तमस और राजस से निकलकर सात्विक मार्ग अपना ले तो उसका जीवन स्वर्ग बन जाता है। आज के भौतिक जीवन में तनाव का रोग जो बढ़ता ही जा रहा है। परेशान व्यक्ति चिकित्सक की शरण में जाता है और उसके शरीर को अन्य बीमारियां घेर लेती हैं। इस तनाव को दूर भगाने के लिए सात्विकता का व्यवहार ही राम-बाण औषधि है। सात्विकता ही मनुष्य की जीवनी शक्ति है।
डॉ. कन्हैयालाल पांडेय
साभार :- दैनिक जागरण

Sunday, February 5, 2012

महंगे पड़ते सस्ते हथकंडे--चुनावों में सफलता हासिल करने के लिए अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की हदें पार होती देख रहे हैं राजीव सचान

यह देखना जितना निराशाजनक है उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण भी कि केंद्र सरकार और उसका नेतृत्व कर रही कांग्रेस उत्तर प्रदेश में चुनाव जीतने के लिए किस तरह के हथकंडों का सहारा ले रही है? मुस्लिम समुदाय के तुष्टीकरण के लिए जो काम प्रधानमंत्री रहते समय राजीव गांधी ने किया वही काम भावी प्रधानमंत्री माने जा रहे राहुल गांधी कर रहे हैं। राजीव गांधी ने शाहबानो के गुजारा भत्ता मामले में अदालत के फैसले को दरकिनार करने के लिए संविधान संशोधन किया तो उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की उम्मीदों को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार ने संविधान में धर्म आधारित आरक्षण का निषेध होने के बावजूद ऐसा ही किया। यदि केंद्र सरकार को ऐसा करना ही था और सच्चर समिति, रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशों तथा 2009 के अपने घोषणा पत्र के बहाने करना था तो फिर दिसंबर 2011 तक वह हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठी रही? धर्म आधारित आरक्षण संविधान में निषेध हो सकता है, लेकिन इसके आधार पर निर्धन मुस्लिम तबके की अनदेखी भी नहीं की जा सकती। खुद को मुसलमानों का हितैषी साबित करने वाली केंद्र सरकार ऐसा तब तक करती रही जब तक उत्तर प्रदेश के चुनाव सिर पर नहीं आ गए। चुनाव की पूर्व संध्या पर मुस्लिम आरक्षण की घोषणा इस समाज को बरगलाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं। केंद्र सरकार ऐसा जाहिर कर रही है जैसे उसने साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर कोई बड़ा फैसला किया है। सच्चाई इसके विपरीत है। अभी पिछड़े मुसलमानों को 27 प्रतिशत आरक्षण में से करीब तीन प्रतिशत का लाभ मिल रहा था। अब उनके साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण में पिछड़े बौद्ध, सिख और ईसाई भी साझीदार होंगे। जाहिर है कि अब मुसलमान और घाटे में रहेंगे। बावजूद इसके कांग्रेस यह प्रचारित कर रही है कि वही मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी हितैषी है। कुछ ऐसा ही प्रचारित करने के लिए पिछले दिनों राहुल गांधी ने उर्दू अखबारों के संपादकों को यह समझाया कि मुस्लिमों का भला इसलिए नहीं हो पा रहा है, क्योंकि प्रशासन में संघ समर्थक अफसर बैठे हैं और वे रोड़े अटका रहे हैं। अगर यह सरासर झूठ नहीं है तो फिर राहुल गांधी को यह भी पता होगा कि ऐसे अफसर कहां पर तैनात हैं और उनकी संख्या कितनी है? उन्हें यह भी बताना चाहिए कि उन्होंने इतनी सनसनीखेज जानकारी देश से और यहां तक कि अपनी सरकार से क्यों छिपाए रखी? इसके पहले सारी दुनिया ने यह देखा कि राजस्थान और केंद्र सरकार ने किस तरह सलमान रुश्दी पर रोक लगाकर अपनी भद पिटवाई। आम भारतीयों में बहुत कम ऐसे होंगे जिन्होंने सलमान रुश्दी की कृतियों को पढ़ा होगा, लेकिन वे सभी इससे परिचित होंगे कि सैटनिक वर्सेस में ऐसा कुछ लिखा गया था जिससे मुस्लिम समाज की भावनाएं आहत हुईं। कोई भी नहीं चाहेगा कि मुस्लिमों को आहत करने वाली इस पुस्तक को अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर प्रतिबंध मुक्त कर दिया जाए, लेकिन इस पुस्तक के लेखक सलमान रुश्दी को भारत आने से रोकने का समर्थन सिर्फ कट्टरपंथी ही कर सकते हैं। किसी को इससे हैरान नहीं होना चाहिए कि राजस्थान सरकार के साथ-साथ केंद्रीय सत्ता ने इन मुट्ठी भर कट्टरपंथियों के समक्ष बेहद शर्मनाक तरीके से समर्पण कर दिया और वह भी इसलिए ताकि कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों के वोट हासिल करने में कोई अड़चन न आने पाए। उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की प्रतिष्ठा दांव पर हैं। यह जानना कठिन है कि रुश्दी के भारत न आने देने और यहां तक कि उनके वीडियो संबोधन पर रोक लगाने में उनकी कोई भूमिका है या नहीं, लेकिन इसमें शायद ही किसी को संदेह हो कि केंद्र सरकार ने राजस्थान सरकार को कट्टरपंथियों के आगे खुशी-खुशी नतमस्तक हो जाने दिया। यदि केंद्र सरकार राजस्थान सरकार को कोई निर्देश देने के बजाय मौन बनी रही अथवा वह ऐसा कोई दावा करती है कि इस मामले में उसकी कोई भूमिका नहीं तो फिर उसके अस्तित्व में होने का कोई मतलब नहीं रह जाता। यह शर्मनाक है कि राजस्थान और साथ ही केंद्र सरकार ने मुट्ठी भर कट्टरपंथियों के समक्ष हथियार डाल दिए। सलमान रुश्दी को भारत आने से रोकने के लिए राजस्थान सरकार ने कुछ मनगढं़त सूचनाओं का सहारा लिया। इसके बाद वीडियो संबोधन रोकने के लिए राजस्थान पुलिस ने आयोजकों को यह कहकर डराया कि यदि यह संबोधन हुआ तो आयोजन स्थल और आसपास मौजूद प्रदर्शनकारी हिंसा पर उतर आएंगे। यह शायद पहली बार है जब देश की पुलिस ने डरे हुए लोगों को सुरक्षा का आश्वासन देने के बजाय उन्हें और डराने का काम किया। आयोजकों के मुताबिक पुलिस ने उन्हें सूचना दी कि लोग कार्यक्रम में बाधा डालने और हिंसा करने के लिए आयोजन स्थल तक आ चुके हैं। पुलिस की कायरता की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है कि उसके सामने कुछ लोग आयोजकों को हिंसा करने की धमकी दें। पहले सलमान रुश्दी के भारत न आ पाने और फिर उनके वीडियो संबोधन पर रोक लगने से भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मुंह दिखाने के काबिल नहीं रह गई है। एक पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और कानून के शासन वाले देश के रूप में भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाक कटी है और इसके लिए राजस्थान सरकार से अधिक जिम्मेदार केंद्र सरकार है। रुश्दी के वीडियो संबोधन पर रोक से भारत की प्रतिष्ठा जिस तरह मिट्टी में मिली उस पर सरकार को सफाई देनी चाहिए, लेकिन वह ऐसा शायद ही करे और केंद्रीय सत्ता की शक्ति के मूल स्रोत सोनिया गांधी-राहुल गांधी से किसी स्पष्टीकरण की उम्मीद करना व्यर्थ है। एकाध अपवाद को छोड़कर ये दोनों नेता उन मुद्दों पर भूले-भटके ही विचार प्रकट करते हैं जो देश को उद्वेलित कर रहे होते हैं। सबसे निराशाजनक यह है कि कांग्रेस से ज्यादा राहुल गांधी का चिंतन दूषित होता जा रहा है? क्या यह दिग्विजय सिंह की संगत का असर है? (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

अभिव्यक्ति की अधूरी आजादी

सलमान रुश्दी मामले से भारत में अभिव्यक्ति की आजादी पर नए सवाल उभरते देख रहे हैं एनके सिंह
वही समारोह और वही समारोह-स्थल, पर 2007 में सलमान रुश्दी स्वीकार्य थे, तब एक पत्ता भी नहीं खड़का था। फिर क्या वजह है कि इस बार वह स्वीकार्य नहीं हुए? सैटेनिक वर्सेस कल नहीं लिखी गई थी। क्या वजह है कि कांग्रेस की राजस्थान सरकार और दिल्ली में बैठे उनके आका अबकी बार अपने छहों अंगों पर धराशायी हो गए और वह भी साफ छिपते भी नहीं सामने आते भी नहीं के भाव से। अन्ना और लाखों-लाख देश की जनता एक लोकपाल बिल चाहती थी, लेकिन देश की पार्लियामेंट ने पारित नहीं होने दिया। व्यापक जनभावना जिस सरकार व राजनीतिक वर्ग को झुकाने में असफल रही उसे देवबंद के एक फतवे ने झुका दिया। पांच राज्यों के चुनाव में भ्रष्टाचार तो मुद्दा नहीं बन पाया, लेकिन 23साल पहले अपनी लिखी हुई किताब की वजह से सलमान रश्दी जयपुर साहित्यिक मेला में आएंगे कि नहीं आएंगे, एक मुख्य मुद्दा बन गया। अगर हम राज्य की सर्वमान्य परिभाषाओं को देखें तो उन सबमें एक जो सबसे प्रमुख बात नजर आती है वह है-एक सफल राज्य वह है जिसमें प्रजा संप्रभु के प्रति एक आदतन निष्ठा रखती है और वह ऐसा इसलिए करती है, क्योंकि उसको विश्वास होता है कि राज्य उनकी बेहतरी के लिए बगैर किसी भेद-भाव के काम कर रहा है। लिहाजा जितना ही जनहित के लिए राज्य उद्यम करेगा, उसी के अनुरूप जनता का विश्वास राज्य व उसकी संस्थाओं में बढ़ता है या घटता है। जयपुर साहित्य समारोह के पूरे घटनाक्रम को लें। जिस तरह राज्य की कांग्रेस सरकार ने अपने दिल्ली के आकाओं के इशारे पर सलमान रुश्दी को आने से रोका, वह न केवल बचकाना था, बल्कि राज्य के प्रति प्रजा की निष्ठा को झकझोरता है। ऐसा लगा मानो अगर चुनाव नजदीक हों तो सत्ता में बैठे लोगों को किसी हद तक झुकाया जा सकता है। पहले राज्य के पुलिस के गुर्गो ने संदेशा भेजा कि सलमान रुश्दी को मारने के लिए मुंबई से आतंकवादियों ने दो लोगों को जयपुर रवाना किया है। रुश्दी डर के मारे रुक गए, क्योंकि इतने बड़े देश की लाखों-करोड़ों पुलिस शायद उन दो हत्यारों को रोक पाने में सक्षम नहीं थी। उसके बाद आयोजकों ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए रुश्दी का भाषण कराने का आयोजन किया। सरकार फिर घुटनों पर आई और बताया गया कि कुछ लोग समारोह स्थल में पहुंचे हैं और कुछ भी गड़बड़ी कर सकते हैं। साहित्य के आयोजनकर्ता एके-47 की जुबान नहीं समझते, अगर समझते हैं तो पुलिस का इशारा। आयोजन रद्द कर दिया गया। इसी बीच प्रेस कांउसिल के अध्यक्ष मार्कडेय काटजू का एक लेख आता है जिसमें उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि सलमान रुश्दी कितने घटिया दर्जे के लेखक हैं। प्रश्न यह है कि क्या किसी घटिया दर्जे के लेखक का अन्य देश के साहित्यिक समारोह में भाग लेना मना है? क्या ऐसे घटिया लेखक को दो लोग मारने आएं तो राज्य का कार्य उनकी सुरक्षा करना नहीं है? इसके अलावा अगर समारोह स्थल पर वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए घटिया लेखक की तस्वीर भी दिखाई जा रही हो तब आयोजन में आए साहित्यकारों और उनके बच्चों की सुरक्षा राज्य की जिम्मेदारी नहीं है? सलमान रुश्दी को घटिया बताने वाले लोगों से यह भी जानना होगा कि क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लेखक का उम्दा होना भी कोई शर्त है? क्या संविधान के अनुच्छेद 19(1) क में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में अनुच्छेद 19(2) में वर्णित आठ प्रतिबंधों में एक भी लेखक के घटिया होने के बारे में है? आइए हम आपको कुछ तथ्य बताते हैं। सलमान रुश्दी ने यह किताब 1988 में लिखी थी। दुनिया के मुसलमानों के एक वर्ग ने इस पर आपत्ति जतायी। भारत में इस किताब पर पाबंदी नहीं लगाई गई, बल्कि इसके आयात पर पाबंदी लगाई गई। उधर ब्रिटेन में जो ईश-निंदा कानून है वह सिर्फ इसाई धर्म का संज्ञान लेता है। किताब प्रकाशित होने के बाद ब्रिटेन के कुछ मुसलमानों ने जब वहां की सरकार से अपील की कि इस कानून का दायरा सभी धर्मो तक बढ़ाया जाए तब व्हाइट हॉल (वह बिल्डिंग जहां से सत्ता संचालित होती है) में बैठी सरकार ने साफ मना कर दिया। याद रखिए कि ब्रिटेन दुनिया में उदारवादी प्रजातंत्र होने के लिए विख्यात है और ब्रिटेन की संसद दुनिया की तमाम संसदों की जननी मानी जाती है। सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि अपने को उदारवादी कहने वाले वह लेखक जो अपनी कलम से देश में आंदोलन की आग लगाया करते हैं वह भी जयपुर की घटना पर पूरी तरह चुप्पी साधे हुए हैं। एक न्यूज चैनल ने जब देश के सभी प्रख्यात साहित्यकारों से बात करनी चाही तब उन्होंने यह कहते हुए साफ मना कर दिया कि हम इस वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहते। यहां तक कि समारोह स्थल पर भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटा जा रहा था, तब एक भी बुद्धिजीवी तन कर खड़ा नहीं हुआ और गांधीवादी तरीके से भी विरोध करने की ताकत नहीं जुटा पाया। उस पर से तुर्रा यह कि सलमान रुश्दी के पास पासपोर्ट था, वीजा था, उनको आने का निमंत्रण था, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दम भरने वालों ने अब सलमान रुश्दी को ही घटिया दर्जे का साहित्यकार बताना शुरू कर दिया है। सत्ता का सुख भोगने वाला एक बड़ा वर्ग है जो कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से बेहद चिंतित है। यह वर्ग इस अधिकार के सभी उपादानों को चाहे वह मीडिया हो, सोशल नेटवर्किग हो, अन्ना हजारे का आंदोलन हो, इसे खत्म करने में लगा हुआ है। वह हजारे को ट्रक ड्राइवर बताकर, मीडिया को बे-पढ़ा लिखा बताकर और सोशल नेटवर्किग को लंपटों का कामुक मनस-विलास बताकर कानून लाना चाहता है। सलमान रुश्दी की घटना को भी इसी प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए। (लेखक ब्राडकास्ट एडीटर्स एसोसिएन के महासचिव हैं)
साभार:-दैनिक जागरण