Wednesday, March 28, 2012

एनजीओ का काला सच

विकास परियोजनाओं में अड़ंगे लगा रहे और मतांतरण में लिप्त एनजीओ पर सख्ती की जरूरत जता रहे हैं बलबीर पुंज
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की आपाधापी और रेल बजट प्रस्तुत होने के बाद उपजे राजनीतिक बवाल के बीच एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम दब-सा गया। पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखते हुए उस सच को स्वीकार किया है जो कल तक भारत में मतांतरण गतिविधियों में संलग्न चर्च और अलगाववादी संगठनों की ढाल बनने वाले स्वयंभू मानवाधिकारी गुटों के संदर्भ में राष्ट्रनिष्ठ संगठन उठाते आए हैं। यह वह कड़वा सच है जिसे सेक्युलर दल भाजपा का सांप्रदायिक एजेंडा बताकर अब तक नकारते आए थे। प्रधानमंत्री ने कहा था कि तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु परियोजना और कृषि क्षेत्र में वृद्धि के लिए जेनेटिक इंजीनियरिंग के प्रयोग का विरोध करने के पीछे विदेशों से वित्तीय सहायता पाने वाले गैर सरकारी संगठनों का हाथ है। पिछले दिनों सरकार ने राज्यसभा में बताया था कि 2007 से 2010 के बीच भारत में सक्रिय 65,500 एनजीओ को विदेशों से 31,000 करोड़ रुपये से अधिक की वित्तीय सहायता दी गई। यह राशि किन कायरें में खर्च होती है? महाराष्ट्र के जैतापुर और तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु बिजली परियोजना का विरोध करने वाले संगठन वस्तुत: भारत के विकास को बाधित करने वाली अंतरराष्ट्रीय शक्तियों के मुखौटे हैं। पिछले कुछ दशकों के घटनाक्रमों का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ऊर्जा के क्षेत्र में भारत द्वारा किए जा रहे प्रयासों को लगातार बाधित करने की कोशिश की गई है। अस्सी के दशक में पनबिजली परियोजना का विरोध तो नब्बे के दशक में इसी मंशा से ताप विद्युत परियोजनाओं का विरोध किया गया। करीब दो दशकों तक नर्मदा बचाओ के नाम पर सरदार सरोवर बांध परियोजना को अधर में लटकाने का प्रयास किया गया, जिसके कारण परियोजना लागत व्यय में तीन सौ गुना वृद्धि हुई, किंतु गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने हार नहीं मानी। आज गुजरात और राजस्थान के मरुस्थल के आसपास रहने वाले लाखों लोगों की आर्थिक स्थिति में उस परियोजना के कारण क्रांतिकारी बदलाव आया है। अब कुछ विकसित देशों के इशारे पर परमाणु बिजली परियोजनाओं को ठप करने का प्रयास किया जा रहा है। इस देशघाती गतिविधि में संलग्न संगठन वस्तुत: अलगाववादी ताकतों के सतह पर दिखाई देने वाले चेहरे हैं। गृह मंत्रालय द्वारा प्रधानमंत्री को भेजी गई एक रिपोर्ट में बताया गया है कि कुछ एनजीओ विकलांग लोगों की मदद और कुष्ठ रोग उन्मूलन जैसे सामाजिक सेवा के कायरें के लिए विदेशों से धन प्राप्त करते हैं और उसका उपयोग कुडनकुलम जैसी परियोजना के खिलाफ अभियान चलाने में किया जाता है। एक अनुमान के अनुसार मिशनरी गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए 10,000 करोड़ से अधिक की धनराशि प्रतिवर्ष भारत भेजी जाती है। मिशनरी संगठनों के पितृ संगठन-इवेंजेलिकल फेलोशिप ऑफ इंडिया से ऐसे 35,000 चर्च सूचीबद्ध हैं, किंतु नए चचरें की वास्तविक संख्या आंक पाना कठिन होने के कारण विदेशों से भेजी जाने वाली राशि का अनुमान भी दुष्कर है। विदेशों से धन प्राप्त करने वाले करीब 75 प्रतिशत से अधिक संगठन ईसाई संगठन हैं। चर्च से संबद्ध ऐसे संगठन सामाजिक सेवा के नाम पर वस्तुत: मतांतरण अभियान के सहायक ही हैं। सीबीआइ कुडनकुलम में सक्रिय जिन चार एनजीओ-तूतीकोरिन डायासेसन एसोसिएशन, रूरल अपलिफ्ट सेंटर, गुडविजन चैरिटेबल ट्रस्ट और रूरल अपलिफ्ट एंड एजुकेशन की जांच कर रही है उन्हें सन 2006 से 2011 के बीच विदेशों से 36-37 करोड़ रुपये मिले थे। कुडनकुलम में चर्च के कार्डिनल और बिशपों द्वारा जो जन विरोध खड़ा किया गया वह वस्तुत: चर्च की घबराहट को रेखांकित करता है। उन्हें भय है कि कुडनकुलम जैसी बड़ी परियोजना से न केवल स्थानीय लोगों का भला होगा, बल्कि आसपास के दूरदराज के इलाकों के लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बेहतर होगी। पिछड़ों और वंचितों को कथित स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा देने के नाम पर देश के पिछड़े इलाकों में सक्रिय चर्च के कार्यो पर सरकार द्वारा समय-समय पर गठित की गई समितियों ने गंभीर प्रश्न खड़े किए हैं, किंतु सेक्युलर सत्ता अधिष्ठान चर्च के मतांतरण अभियान पर लगाम लगाने के बजाए राष्ट्रनिष्ठ संगठनों को ही कठघरे में खड़ा करता आया है। कुछ साल पूर्व गुजरात के डांग जिले में जब चर्च के इस तरह के मतांतरण का खुलासा हुआ तो सेक्युलरिस्टों ने भारतीय जनता पार्टी पर चर्च के उत्पीड़न का आरोप मढ़ने में देर नहीं की। ऐसी मानसिकता भारत की बहुलतावादी संस्कृति के लिए घातक है। हाल ही में कश्मीर घाटी में मुसलमानों का मत परिवर्तन कराने वाले पादरियों को शरीयत अदालत के आदेश पर प्रशासन ने गिरफ्तार किया था, किंतु विडंबना यह है कि देश के अन्य हिंदू बहुल भागों में सक्रिय चर्च के इस मतांतरण अभियान पर प्रश्न खड़ा होता है तो सेक्युलरिस्ट और स्वयंभू मानवाधिकारी संगठन चर्च के समर्थन में खड़े हो जाते हैं और उपासना के अधिकार का प्रश्न खड़ा किया जाता है। ग्राहम स्टेंस के कथित हत्यारे दारा सिंह की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने भी चर्च के मतांतरण अभियान को लेकर बहुत कटु टिप्पणी की थी। मध्य प्रदेश में मिशनरी गतिविधियों की शिकायतों को देखते हुए इन आरोपों की जांच के लिए 14 अप्रैल, 1955 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने पूर्व न्यायाधीश डॉ. भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी। समिति की प्रमुख संस्तुतियां मतांतरण के उद्देश्य से आए विदेशी मिशनरियों को बाहर निकालने और उनके प्रवेश पर पाबंदी लगाने की थी। उन्होंने कहा था कि बल प्रयोग, लालच, धोखाधड़ी, अनुचित श्रद्धा, अनुभवहीनता, मानसिक दुर्बलता का उपयोग मतांतरण के लिए नहीं हो। न्यायमूर्ति रेगे समिति (1954), न्यायमूर्ति वेणुगोपाल आयोग (1982) और न्यायमूर्ति वाधवा आयोग (1999) ने भी नियोगी आयोग की संस्तुतियों को उचित ठहराया है। बाहरी शक्तियों की कठपुतली बन भारत की विकास परियोजनाओं का विरोध करने वाले गैर सरकारी संगठनों व स्वनामधन्य मानवाधिकारियों के वित्तीय श्चोतों की जांच स्वागत योग्य है, किंतु सरकार को आत्मा के कारोबार में लीन चर्च और उसके सहयोगी संगठनों पर भी लगाम लगानी चाहिए। इसके लिए छलकपट और प्रलोभन के बल पर होने वाले मतांतरण पर प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है।
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

राजनीति का कृष्ण पक्ष

मध्यावधि चुनाव की चर्चाओं के बीच राजनीति की दिशा-दशा पर निगाह डाल रहे हैं डॉ. गौरीशंकर राजहंस
जब से उत्तर प्रदेश में सपा को विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत मिला है, पूरे देश में यह चर्चा हो रही है कि क्या इस मौके का फायदा उठाकर समाजवादी पार्टी देश में मध्यावधि चुनाव करा सकती है? सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह ने पहले तो राम मनोहर लोहिया की जन्म शताब्दी के अवसर पर कहा कि उनके कार्यकर्ता इसके लिए तैयार रहें कि मध्यावधि चुनाव 2014 के पहले भी हो सकते हैं। इसके ठीक बाद उन्होंने कहा कि सपा को केंद्र में सरकार बनाना है और यह तभी संभव है जब उत्तर प्रदेश की सारी सीटें सपा जीत ले। इसमें अधिक संदेह नहीं कि यदि उत्तर प्रदेश की तीन-चौथाई लोकसभा की सीटें भी सपा को मिल गई तो अन्य पार्टियों के साथ जोड़-तोड़ करके वह केंद्र में सरकार बना सकती है। आखिर इस देश में देवगौड़ा और गुजराल भी तो प्रधानमंत्री हुए हैं जिनकी पार्टियों को कोई मजबूत आधार प्राप्त नहीं था। अब ऐसा प्रतीत होता है कि चाहे मध्यावधि चुनाव हों या नियत समय पर 2014 में, किसी भी पार्टी को इतना बहुमत नहीं मिल सकता है कि वह अकेले सरकार बनाए। उसे निश्चित रूप से गठबंधन की सरकार बनानी होगी और गठबंधन सरकार में अलग-अलग पार्टियों के अलग-अलग एजेंडे होते हैं। मध्यावधि चुनाव के पक्ष और विपक्ष में कई तर्क दिए जा रहे हैं। कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि यदि कुछ महीनों के अंदर मध्यावधि चुनाव हो जाएं तो सपा को विधानसभा चुनाव में जो लोकप्रियता हासिल हुई है उसका लाभ उठाकर उसे लोक सभा में अधिक से अधिक सीटें मिल सकती हैं। देर होने पर सपा की लोकप्रियता घटने लगेगी और बहुत संभव है कि उसे उतनी भी सीटें नहीं मिलें जितनी उसे पहले मिली थीं। चुनाव में जाने के पहले सपा ने ऐसी घोषणाएं कर दीं जिसको पूरा करने के लिए हजारों करोड़ चाहिए। उत्तर प्रदेश सरकार का खजाना खाली है, फिर वह आखिर इतना पैसा कहां से लाएगी? दूसरी बात है कि जब से उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव हुआ है, पूरे राज्य में जगह-जगह सपा और बसपा के कार्यकर्ताओं में मारपीट हो रही है। इस कारण आम जनता को यह डर हो रहा है कि कहीं फिर से उत्तर प्रदेश में गुंडा राज कायम नहीं हो जाए। राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि आम जनता को रोजी-रोटी और मकान चाहिए। वह लैपटॉप और टैबलेट लेकर क्या करेगी? यह बात विशेषकर युवा वर्ग के लोगों के बारे में कही जाती है। सपा ने चुनाव के पहले यह घोषणा की थी कि बेरोजगार युवकों को 1000 रुपये महीना बेरोजागरी भत्ता दिया जाएगा। यह खबर आई है कि इस बेरोजगारी भत्ते के लिए जगह-जगह आवेदकों ने हंगामा मचा दिया और कई जगह तो उनकी अधिकारियों से मारपीट भी हो गई। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या का घनत्व बहुत अधिक है। ऐसे में लाखों लोगों को नियमित रूप से बेरोजगारी भत्ता सरकार कैसे दे पाएगी? यह योजना निश्चित रूप से फेल हो जाएगी और उस स्थिति में पहुंचने के पहले ही सपा चाहेगी कि मध्यावधि चुनाव हो जाए। साथ ही यह भी सही है कि तृणमूल का संबंध कांग्रेस के प्रति सौहार्दपूर्ण नहीं रह गया है। ऐसे में यदि किसी दिन सपा और बसपा ने समर्थन वापस ले लिया तो सरकार निश्चित रूप से गिर जाएगी। गठबंधन सरकार की मजबूरियां साफ झलक रही हैं। श्रीलंका से भारत का संबंध हाल तक निकटतम था। वहां गृहयुद्व में बुनियादी ढांचे का जो नुकसान हुआ था उसके पुनर्निर्माण में भारत जी जान से जुटा हुआ है, परंतु इस मामले में चीन भारत से कहीं आगे निकल गया है। श्रीलंका में चीन के बढ़ते हुए प्रभुत्व के कारण भारत सरकार पहले से चिंतित थी। अब द्रमुक और अन्नाद्रमुक के दबाव में श्रीलंका के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान कर भारत ने श्रीलंका को अप्रसन्न कर दिया है। गठबंधन सरकार की मजबूरियों के कारण केंद्र सरकार कई महत्वपूर्ण आर्थिक मामलों में कोई साहसपूर्ण कदम नहीं उठा पा रही है। संसार के कई देशों में गठबंधन सरकारें चल रही हैं, परंतु वहां जनता बार-बार सरकार पर दबाव डाल रही है कि वह ऐसा कोई काम नहीं करें जिससे मध्यावधि चुनाव की नौबत आ जाए। दूसरी ओर अपने देश में दुर्भाग्यवश हमारे राजनेता इस सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। वे जल्दी से जल्दी मध्यावधि चुनाव कराकर सत्ता में आना चाहते हैं। यदि मध्यावधि चुनाव हुए तो काला धन पानी की तरह बहेगा और देश में इतनी भयानक महंगाई आ जाएगी जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। गत रविवार को जंतर मंतर पर अन्ना हजारे ने केंद्र के खिलाफ हल्ला बोल दिया है और यह भी ऐलान किया है कि यदि उनके अनुसार 14 दागी केंद्रीय मंत्रियों पर एफआइआर दर्ज नहीं किया गया तो वे अगस्त से जेल भरो आंदोलन शुरू कर देंगे। उन्होंने और उनके समर्थकों ने जनलोकपाल बिल और चुनाव सुधारों की भी चर्चा की, परंतु सबसे अधिक खेद का विषय यह है कि अन्ना तो अपने भाषण में शालीन भाषा का प्रयोग करते रहे, परंतु उनके समर्थकों ने बदजुबानी की और राजनेताओं के खिलाफ ऐसी टिप्पणियां कर दीं जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। अनुभव यह बताता है कि लोगों को उभारना बहुत आसान होता है, परंतु उनको उभारने से अराजकता आ जाएगी। बाद में उन पर नियंत्रण पाना बहुत ही कठिन है। जेपी आंदोलन में भी 1977 में यही हुआ था। जनता की भावनाओं को उभार दिया गया था, लेकिन जो नेता जेपी आंदोलन की उपज थे उनमें से अधिक जब सत्ता में आए तब उन्होंने दोनों हाथों से जनता को लूटा। इसलिए जनभावना को उत्तेजित करने के पहले अन्ना को अपने समर्थकों को यह सीख देनी चाहिए कि वे अपनी जुबान पर नियंत्रण रखें और देश में कोई ऐसी स्थिति नहीं पैदा कर दें जिससे देश अराजकता के भंवर में फंस जाए। (लेखक पूर्व सांसद एवं पूर्व राजदूत हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

निर्धनता की शर्मनाक अनदेखी

गरीबी के संदर्भ में योजना आयोग के आंकड़ों के आधार पर नीति-नियंताओं की नीयत पर सवाल खड़े कर रहे हैं डॉ. निरंजन कुमार
योजना आयोग द्वारा गरीबी रेखा के नए निर्धारण से उठे ताजा विवाद को पूरे परिप्रेक्ष्य में समझने के पहले गरीबी और गरीबी के अनुभव की कथा से इस लेख की शुरुआत करना चाहता हूं। दो पक्षों की इस कथा में एक तरफ भारतीय मूल के दो युवक हैं, जिन्होंने अमेरिका में उच्च शिक्षा प्राप्त की और देश की सेवा के लिए वापस आते हैं। वे गांधीजी का अनुकरण करते हुए उस भारत को समझना चाहते हैं जो असली भारत की तस्वीर है। गांधीजी ने कहा था कि लोगों की सेवा के लिए सिर्फ सहानुभूति ही नहीं समानुभूति भी जरूरी है। इसीलिए अमेरिका रिटर्न दो भारतीय नौजवान तुषार वशिष्ठ और मैथ्यू चेरियन गरीबी रेखा के लिए निर्धारित अत्यल्प पैसे में जीवन गुजारने का प्रयोग करते हैं। दूसरी तरफ गगनचुंबी अट्टालिकाओं के एयर कंडीशनर में बैठे हुए योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे हमारे नीति-निर्धारक हैं, जिन्हें देश की गरीबी और गरीबों पर इतनी शर्म आ रही है कि गरीबी हटाने के लिए जैसे गरीबों को ही हटाने का कार्यक्रम बना लिया है। अहलूवालिया ने कहा कि कुछ लोग देश को जानबूझकर गरीब दिखाना चाहते हैं, जबकि देश में गरीबों की संख्या तो बहुत कम हो गई है। वर्तमान विवाद योजना आयोग के इस दावे से उठा कि 2004-05 से 2009-10 में गरीबी में पर्याप्त कमी आई है और यह 7.4 प्रतिशत घटकर अब 29.8 प्रतिशत तक रह गई है और इस नकली कमी को दिखाने के लिए गरीबी रेखा की सीमा को ही शर्मनाक रूप से बहुत कम कर दिया। यह सीमा रेखा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति 22.42 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 28.65 रुपये तय की गई। अहलूवालिया जैसे हमारे नीति-निर्धारकों को शायद सपने में भी नहीं अहसास है कि गरीबी क्या होती है। अभी कुछ ही महीनों पहले सुप्रीम कोर्ट और सामजिक कार्यकर्ताओं के साथ- साथ सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के कुछ सदस्यों की फटकार से योजना आयोग और सरकार तब बैकफुट पर आ गई थी जब मोंटेक सिंह ने गरीबी रेखा को 32 और 26 (वर्तमान से कुछ ज्यादा ही) रुपये तय किया था, लेकिन लगता है कि सरकार उस घटना से सबक नहीं लेना चाहती है। उस समय की गरीबी रेखा के निर्धारण के बाद तुषार और मैथ्यू ने इतने कम रुपये में जीवन जीने का प्रयोग किया। शुरुआत उन्होंने 100 रुपये प्रतिदिन खर्च से की। एक महीने इस जिंदगी के बाद उन्होंने महसूस किया कि 100 रुपये में सिर्फ खाने, पहनने, रहने के साथ अति साधारण जीवन ही जिया जा सकता है। उत्तम शिक्षा, स्वास्थ्य, अच्छा जीवन स्तर और उच्च सामजिक गतिशीलता फिर भी एक सपना ही है। फिर इन दोनों ने एक गांव में जाकर 26 रुपये प्रतिदिन में जीने का प्रयोग किया। एक महीने का यह अनुभव अत्यंत मर्मातक सिद्ध हुआ। इन्होंने पाया कि इस पैसे में वे सिर्फ 1100 से 1200 कैलोरी का भोजन कर सकते थे। एक सामान्य इंसान को 2100 से 2400 कैलोरी भोजन की जरूरत होती है (जबकि मेहनतकश लोगों को तो 3000 से भी ज्यादा कैलोरी चाहिए)। इनका न केवल ग्लूकोज स्तर घट गया, बल्कि जीवन की बुनियादी सुविधाएं खाने-रहने-पहनने को वे तरसने लगे थे। सारा समय वे सिर्फ खाने के बारे में सोचते थे। उत्तम शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, अच्छे जीवन की कल्पना और जीवन में आगे बढ़ने की तमन्ना तो सपने में भी नहीं आती थी। मेहनत करने की क्षमता नहीं के बराबर रह गई थी। शायद कुछ ऐसी ही है भारत के गरीबों के लिए हमारे योजना आयोग की योजना, जिसे बहुसंख्य भारतीयों की समस्याओं से जैसे कोई मतलब ही न हो। संप्रग सरकार के ही द्वारा गठित अन्य आयोगों और समितियों के निष्कर्ष कुछ और ही हैं। अप्रैल 2009 में आई अर्जुनसेन गुप्ता रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 77 प्रतिशत से ज्यादा लोग प्रतिदिन 20 रुपये से कम पर जिंदगी बसर कर रहे हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित एनसी सक्सेना समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि भोजन कैलोरी के आधार पर 50 प्रतिशत से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। इसी तरह ऑक्सफोर्ड पावर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनिशिएटिव ने 2010 में यूनाइटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम के लिए मल्टी डाइमेंशनल पावर्टी इंडेक्स तैयार किया, जिसमे बताया गया है कि 53.7 प्रतिशत भारतीय लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं। आज सरकार का समर्थन कर रहे सपा जैसे दल भी योजना आयोग के आंकड़ों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। सरकार और योजना आयोग पिछली बार फटकारे जाने के बाद भी फिर ऐसा क्यों कर रहे हैं? इसके कई कारण हैं। एक तो यह कि गरीबों की कम संख्या दिखाकर ये वाहवाही लूटना चाहते हैं तो दूसरी तरफ विभिन्न योजनाओं के तहत गरीबों पर खर्च की जाने वाली राशि, खास तौर से प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के माध्यम से होने वाले व्यय में सरकार कटौती करना चाहती है। तीसरे, इस तरह सरकारी धन को बचाकर आर्थिक सुधार के नाम पर कारपोरेट जगत को दी जाने वाली सब्सिडी में वृद्धि करना चाहती है और अंतत: गरीबी दूर करने में असफलता के लिए जिम्मेदार विभिन्न घोटालों, भ्रष्टाचार, नीतिगत नाकामियों, नेताओं और अफसरों के निकम्मेपन और देश के संसाधनों के दुरुपयोग आदि पर पर्दा डालना चाहती है, लेकिन इन्हें अहसास नहीं कि उनके इन कदमों से क्या सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक दुष्परिणाम हो रहे हैं। एक तरफ यह सामाजिक असंतोष को जन्म दे रहा है और देश में बढ़ते हुए अपराध, नैतिक गिरावट आदि के लिए एक हद तक जिम्मेदार है तो दूसरी तरफ आर्थिक रूप से भी यह नुकसानदेह है। तीसरे, राजनीतिक रूप से भी यह स्थिति खतरनाक है। देश में चल रहे नक्सलवादी जैसे विभिन्न उग्रपंथी आंदोलनों की जड़ में भी ऐसी ही जनविरोधी नीतियां हैं। (लेखक दिल्ली विवि में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

सनसनीखेज

थलसेना प्रमुख जनरल वीके सिंह का यह कथन सनसनीखेज अवश्य है कि उन्हें एक सौदे को मंजूरी देने के एवज में 14 करोड़ रुपये की रिश्वत की पेशकश की गई थी, लेकिन अविश्वसनीय नहीं। नि:संदेह जनरल वीके सिंह की ओर से यह स्पष्ट करने की जरूरत है कि वह तत्काल ही इस मामले को सामने क्यों नहीं लाए, लेकिन उनका खुलासा इसलिए सच के करीब और सामान्य सा नजर आता है, क्योंकि रक्षा संबंधी सौदों में दलाली के लेन-देन की सुगबुगाहट जारी ही रहती है। यह हथियारों, उपकरणों से लेकर अन्य सामग्रियों की खरीद को लेकर भी सुनाई देती रहती है। यह तब है जब पारदर्शिता और जवाबदेही का ढोल पीटने के साथ यह दावा भी किया जाता है कि रक्षा संबंधी सौदों में बिचौलियों की भूमिका खत्म कर दी गई है। क्या यह माना जाए कि बिचौलियों की भूमिका केवल दूसरे देशों से किए जाने वाले रक्षा सौदों में ही खत्म की गई है? यह घोर लज्जाजनक है कि स्वतंत्रता के तुरंत बाद यानी 1948 में जीप घोटाले से दो-चार होने वाले देश को अब यह सुनने को मिल रहा है कि किसी की ओर से ट्रक घोटाले को अंजाम देने की कोशिश की गई। इससे साफ पता चलता है कि उन तौर-तरीकों को दूर करने के लिए कहीं कोई कोशिश नहीं की गई जिससे घपलों-घोटालों को रोका जा सके। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि जनरल वीके सिंह के बयान के बाद रक्षा मंत्री एके एंटनी ने उन्हें रिश्वत की पेशकश किए जाने के मामले की जांच सीबीआइ को सौंपने के आदेश दिए हैं, क्योंकि यह प्रश्न अनुत्तरित है कि जब सेनाध्यक्ष ने उसी समय रक्षा मंत्री को इस प्रकरण से अवगत करा दिया था तो फिर जांच कराने का निर्णय अब क्यों लिया जा रहा है? क्या रक्षा मंत्री इसका इंतजार कर रहे थे कि सेना प्रमुख मामले को सार्वजनिक करें? सवाल यह भी है कि सेना प्रमुख ने रिश्वत की पेशकश के इस मामले को यूं ही क्यों छोड़ दिया था? इन सवालों का जवाब चाहे जो हो, यह स्पष्ट है कि हमारा सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार से निपटने की कोई इच्छाशक्ति नहीं रखता। यह शर्मनाक है कि देश में ऐसे हालात हैं कि सीधे सेनाध्यक्ष को रिश्वत की पेशकश की जा सकती है। जिस तरह सेनाध्यक्ष के सामने उपस्थित होकर रिश्वत की पेशकश की गई उससे घोटालेबाजों के दुस्साहस का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। क्या कोई यह भरोसा दिलाने के लिए तैयार है कि सेना की जरूरतों को पूरा करने के लिए समय-समय पर जो तमाम सौदे होते रहते हैं वे ऐसे घोटालेबाजों के बगैर ही होते हैं? यह विचित्र है कि थलसेना प्रमुख के आरोप सार्वजनिक होने के बाद संसद के दोनों सदनों में हंगामा हुआ। आखिर यह हंगामा किस कारण? क्या संसद सदस्य यह नहीं जानते हैं कि सरकारी तंत्र घोटालेबाजों से घिरा हुआ है और इसका एक प्रमुख कारण उन्हें हतोत्साहित और साथ ही दंडित करने के लिए उपयुक्त नियम-कानूनों का अभाव है। यदि केंद्र सरकार सेना प्रमुख के आरोपों को वास्तव में गंभीर मान रही है तो तात्कालिक सक्रियता दिखाकर मामले को शांत करने के बजाय कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि उन कारणों का निवारण किया जाए जिनके चलते घपले-घोटाले थम नहीं पा रहे हैं। रक्षा सौदों में घपले-घोटालों को रोकने के लिए तो विशेष प्रयास होने चाहिए, क्योंकि कई बार कुछ सामान्य प्रकरण भी गोपनीयता के आवरण में ढके रहते हैं।
साभार :- दैनिक जागरण

खोखली प्रतिबद्धता का प्रदर्शन

बजट में शिक्षा के लिए किए गए आवंटन के आधार पर केंद्र सरकार की प्राथमिकता पर सवाल खड़े कर रहे हैं जगमोहन सिंह राजपूत
देश में यह बोर्ड परीक्षाओं का समय है। कपिल सिबल भले ही कहते रहें कि उन्होंनें बच्चों में परीक्षाओं का भय ग्रेड प्रणाली लागू कर समाप्त कर दिया है, बच्चे तथा उनके माता-पिता आज भी परीक्षाओं के दबाव तथा भय से उबर नहीं पाए हैं। सरकारी तंत्र तो आदेश देने के बाद निश्चिंत हो जाता है और मान लेता है कि मई 2009 के बाद शिक्षा से जुड़ी सभी समस्याओं का समाधान उसने कर लिया है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के 13 बिल लंबित हैं और आगे भी स्थिति सुधरने की कोई संभावना नहीं है। शिक्षा की प्राथमिकता कितनी पीछे है, इसका पहला उदाहरण था कपिल सिब्बल को एक अत्यंत जटिल मंत्रालय का भी अतिरिक्त भार। दूसरा और उससे भी सटीक उदाहरण है 2012-13 का बजट। आंकड़ों में यह कितना लुभावना लग सकता है कि वित्तमंत्री ने शिक्षा का बजट 61,427 करोड़ तक पहुंचा दिया है-यानी पिछले वर्ष के मुकाबले 18 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी। 22 करोड़ बच्चे स्कूलों में हैं और एक करोड़ के आसपास ऐसे हैं जो नामांकन तक नहीं पहुंच पाते हैं। यह है वह स्थिति जिसमें शिक्षा के मूल अधिकार का अधिनियम लागू किया गया है। संविधान में दिए हुए वायदों के अनुसार सरकार का सभी बच्चों को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा तथा आवश्यक जीवन-कौशल प्रदान करने है। सामान्य धारणा यह है कि सरकारी स्कूलों की बदहाली बढ़ती ही जा रही है। प्राइवेट पब्लिक स्कूलों की संख्या जिस तेजी से बढ़ रही है उसी तेजी से सरकारी स्कूलों की साख गिरती जा रही है। सरकारी दस्तावेजों में अब गुणवत्ता सुधार का जिक्र लगातार आने लगा है, मगर वह कागजों में ही सिमट कर रह जाता है। सरकारी स्कूलों में संख्याओं का बढ़ना ही प्रगति का द्योतक मान लिया जाता है। इस सोच में स्कूली शिक्षा में बजट आवंटन को 45,969 करोड़ पर पिछले वर्ष के 38957 के मुकाबले लाना क्या प्रगति का परिचायक है? क्या यह व्यावहारिक रूप में यथास्थिति ही नहीं बनाए रखेगा? शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के दो वर्ष बाद भी उसका प्रभाव दिखाई नहीं पड़ रहा है। आशा थी कि इस दिशा में विशेष प्रयास किया जाएगा और अनेक बड़े राच्यों की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए बजट आवंटन को उचित अनुपात में बढ़ाया जाएगा। ऐसा कुछ भी शायद सरकार के जेहन में भी नहीं आया है। पिछले कुछ महीनों में प्रथम नामक संस्था तथा एक अंतरराष्ट्रीय मूल्यांकन अध्ययन के नतीजों पर बड़ी चर्चा चली। कक्षा पांच के आधे से अधिक विद्यार्थी कक्षा 2 के स्तर पर भी नहीं पाए गए। देश में 70 प्रतिशत बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हंै या यो कहें कि पढ़ने को बाध्य है। उन्हें अपेक्षित स्तर से नीचे की शिक्षा ही मिलती है। देश में लगभग 15 लाख स्कूल अध्यापकों के पद रिक्त हैं। इसकी बड़ी जिम्मेदारी राच्यों की है, मगर क्या केंद्र सरकार इस भयावह स्थिति से आंख मूंद सकती है। लगता तो यही है कि बजट का सारा ध्यान यथास्थिति बनाए रखने तक ही सीमित हो गया है। यदि ऐसा न होता तो केंद्र सरकार उच्च शिक्षा से लगातार अपना हाथ पीछे नहीं खींचती जाती, जैसा कि पिछले दशक में बेहिचक किया गया है। कपिल सिब्बल बार-बार दोहराते हैं कि उच्च शिक्षा में उपयुक्त आयु वर्ग की वर्तमान में 10-11 प्रतिशत की भागीदारी को 2020 तक दो गुने से ज्यादा करना है। इसका खोखलापन पूरी तरह उजागर होता है जब उच्च शिक्षा का आवंटन जो पिछले वर्ष 13,103 करोड़ था, केवल 15,458 करोड़ तक ले जाया जाता है। इससे क्या सुधार होंगे, क्या गुणवत्ता बढ़ेगी और क्या उच्च शिक्षा में युवाओं की भागीदारी दो गुनी से अधिक बढ़ाने की त्वरित आवश्यकता की आंशिक पूर्ति की तरफ कदम बढ़ सकेंगे? आश्चर्य और भी है। राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा मिशन के लिए 3124 करोड़ के आवंटन से शिक्षा की गुणवत्ता कैसे सुधर पाएगी या लगातार बढ़ रहे प्रवेशार्थियों को कैसे समाहित कर सकेगा। माध्यमिक शिक्षा वह स्तर है जहां कौशलों को लाना आवश्यक है-वे जीवन कौशल जो जीवन को सार्थकता, सृजनात्मकता तथा सहजता से जीने के लिए नई पीढ़ी को तैयार करते हैं। सरकार इसे केवल जीविकोपार्जन की तैयारी मानती है और उसमें भी कोताही करने में हिचकती नहीं है। वह केवल एक हजार करोड़ का आवंटन राष्ट्रीय कौशल विकास कोष के नाम पर करती है और यह अपेक्षा करती है कि इससे शिक्षा तथा कार्य जगत में प्रवेश के बीच की खाई पट जाएगी। जैसे-जैसे शिक्षा अधिक लोगों तक पहुंची है, लोगों में शैक्षिक भेदभाव को विश्लेषणात्मक ढंग से देखने की क्षमता बढ़ी है। लोग अब कठिन प्रश्न पूछने लगे हैं। जब नवोदय विद्यालय लगभग हर जिले में हैं या केंद्रीय विद्यालय हैं तो अब 6000 मॉडल स्कूल ब्लाक स्तर पर बनाने का औचित्य समझ पाना आसान नहीं है। सरकार जिस बिंदु पर चुप्पी साधे है वह यह है शिक्षा के लिए 6 प्रतिशत जीडीपी का आवंटन। कोठारी कमीशन के वाद 1968 में बनी शिक्षा नीति के बाद से लगातार हर सरकार यह आश्वासन देती रही है कि शिक्षा के आवंटन को इस प्रतिशत पर लाया जाएगा। केवल 2001 में यह चार प्रतिशत से कुछ ऊपर गया था अन्यथा सदा ही चार प्रतिशत से नीचे ही रहा है। इस समय सरकार की नीतिगत तथा कार्यगत शिथिलता निम्नतम स्तर पर है और ऐसे में भविष्यदृष्टी समझ की अपेक्षा तो उससे की ही नहीं जा सकती थी। फिर यह बजट शिक्षा में किसी भी प्रगति का कोई संकेत तक नहीं देता है। जब शिक्षा में एक और वर्ष की शिथिलता जारी रहने दी जाती है तो उसका नकारात्मक प्रभाव पीढि़यों तक दिखाई देता है।
(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

नए भंवर में भाजपा

अंशुमान मिश्रा मामले से भाजपा के सामने साख और नैतिकता का संकट उभरता देख रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता
पिछले सप्ताह भाजपा संसदीय दल की बैठक में यशवंत सिन्हा के भड़कने पर भाजपा को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए। अगर सिन्हा का गुस्सा नहीं फूटता तो इसकी पूरी संभावना थी कि एनआरआइ व्यवसायी अंशुमान मिश्रा और पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व के एक तबके के घालमेल से झारखंड पर एक बार फिर अवसरवाद का दाग लग जाता। इस बार दोषी भाजपा होती। पिछले कुछ दिनों से, खासतौर पर जब से भाजपा को पिछले दरवाजे से अंशुमान मिश्रा को राज्यसभा में भेजने से पीछे हटने को मजबूर होना पड़ा है, बौखलाए हुए अंशुमान मिश्रा अनेक समाचार चैनलों के स्टूडियो में अपनी भड़ास निकाल रहे हैं। उनकी बयानबाजी बेहद चौंकाने वाली है और केंद्रीय भाजपा नेतृत्व के संबंध में होने वाली अफवाहों की पुष्टि कर रही है। सर्वप्रथम, अंशुमान मिश्रा की निर्दलीय उम्मीदवारी को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और कुछ अन्य नेताओं का सक्रिय समर्थन हासिल था। मिश्रा के निर्वाचन पत्रों पर भाजपा विधायकों के हस्ताक्षर के अलावा, झारखंड और उड़ीसा के पूर्णकालिक संगठन मंत्री पर्चा भरवाने उनके साथ गए थे। पार्टी के आलाकमान से संकेत मिले बिना ये दोनों काम संभव ही नहीं थे। दूसरे, अंशुमान मिश्रा की उम्मीदवारी का भाजपा संसदीय बोर्ड ने अनुमोदन नहीं किया था। यह सब निजी व्यवस्था के तहत हो रहा था। इससे सवाल उठता है कि अंशुमान मिश्रा में ऐसी क्या खूबी थी कि उन्हें किसी भी तरह से राज्यसभा में भेजने का प्रयास किया जा रहा था, यहां तक कि चोरी-छिपे भी। तीसरे, अंशुमान मिश्रा के शुरुआती विचार के विपरीत कि वह भाजपा में युवा भावनाओं के संवाहक हैं, अब उन्होंने खुद ही स्वीकार कर लिया है कि वह राजनीतिक वरदहस्त के इच्छुक व्यापारियों और भाजपा नेतृत्व के बीच की कड़ी के रूप में सक्रिय थे। उनका यह दावा राजनीतिक तूफान खड़ा करने की सोची-समझी चाल है कि उन्हें टेलीकॉम कंपनियों और 2जी स्पेक्ट्रम मामले की जांच कर रही लोकलेखा समिति के अध्यक्ष के बीच बैठक आयोजित कराने के लिए कहा गया था। भाजपा के शीर्ष नेता को निशाना बनाने को मिले इस नायाब अवसर को कांग्रेस हाथ से नहीं निकलने देने वाली। अंशुमान मिश्रा का कहना है कि वह लंदन से टपके कोई अजनबी नहीं हैं, बल्कि सालों से पार्टी को पैसा देते आ रहे हैं। यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि यह धनराशि भाजपा को चंदे के रूप में दी गई या फिर कुछ नेताओं की जेब गरम करने को? यह एक महत्वपूर्ण अंतर है। इस राशि का श्चोत क्या था? अपनी विचारधारात्मक परिकल्पाओं की पूर्ति के लिए उनके पास कोई भारी-भरकम उद्योग नहीं है, जहां से उनके पास मोटा पैसा आता हो। अंशुमान की खूबी व्यावसायियों को भाजपा के राजनेताओं के करीब लाना है। पश्चिम में इस प्रकार के बिचौलियों को लॉबिस्ट कहा जाता है। भारत में इस प्रकार के बिचौलियों को दलाल के नाम से संबोधित किया जाता है। इन सब सवालों के जवाब हमेशा अपुष्ट रहेंगे और अकसर काफी हद तक काल्पनिक भी। हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अगर अंशुमान मिश्रा जैसे व्यक्तियों को राज्यसभा में भेजने के लिए राष्ट्रीय राजनीतिक दल प्रयास करेंगे तो इससे भारतीय राजनीति की गुणवत्ता में सुधार नहीं होने वाला। अंशुमान को राज्यसभा में भेजने के प्रयास से भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के मूल्यों के बारे में पता चलता है। क्या उन्हें नहीं पता है कि चंदे के बदले राज्यसभा में भेजना उन लाखों लोगों के विश्वास को तोड़ना है, जो पार्टी से जुड़े हुए हैं। अंशुमान मिश्रा ने खुद को अनावृत कर दिया है। उनकी भावनाओं को ठेस लगी है कि जिस क्लब की सदस्यता के लिए वह पैसा दे चुके हैं उसकी सदस्यता से उन्हें वंचित कर दिया गया है, किंतु जिन्होंने राजनीतिक जगत में अंशुमान मिश्रा जैसे लोगों के प्रवेश की अनुमति दी है अब खुद को निर्दोष सिद्ध करने का कपटी प्रयास कर रहे हैं। वे अंशुमान मिश्रा को राज्यसभा में भेजने के प्रयास के आरोप से पल्ला झाड़ रहे हैं। अंशुमान मिश्रा जैसे जीवों के प्रायोजकों को इस कृपादृष्टि का जवाब देना होगा। स्मरण रहे कि कुछ साल पहले ही भाजपा ने चोरी-छिपे अपने एक नेता के उम्मीदवार को उत्तर प्रदेश से निर्दलीय के रूप में राज्यसभा में भेजने का प्रयास किया था। इस व्यक्ति ने विधायकों का समर्थन हासिल करने के लिए उन्हें प्रलोभन देने का प्रयास किया था। यह प्रयास तो विफल हो गया, किंतु वह महानुभाव भाजपा में बने रहे और चुनाव के दौरान महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संभालते रहे हैं। राजनीतिक पतन पर केवल भाजपा का ही एकाधिकार नहीं है। कांग्रेस इस दौड़ में काफी आगे है, किंतु यह तथ्य चौंकाने वाला है कि भाजपा भी अपनी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पार्टी की भाषा बोल रही है। कभी भाजपा साफ-सुथरी छवि की बातें करती थी, जो सार्वजनिक जीवन में मूल्यों की स्थापना के इच्छुक लोगों को काफी आकर्षित करती थी। जैसाकि लालकृष्ण आडवाणी कहा करते हैं, भाजपा राजनीति की एके हंगल है। खुद को कांग्रेस की बराबरी पर लाने के प्रयास में भाजपा अनैतिक लोकप्रियता की शिकार बन गई है। आज नेतृत्व के कुछ विशेषाधिकार हो गए हैं। अगर उन्होंने ईमानदारी की आमदनी के बल पर शानशौकत वाली जीवनशैली अपनाई हो तो किसी को कोई शिकायत नहीं होगी, किंतु वे इन सुविधाओं पर खुद का पैसा नहीं लगाते, बल्कि यह अपेक्षा रखते हैं कि कोई और आकर उनकी सेवा-सत्कार करेगा। ऐसे प्रायोजकों की कमी नहीं है। व्यवस्था में फिक्सरों की अहमियत तोहफों और मुफ्त की चार्टर्ड हवाई यात्राओं तक बढ़ गई है, किंतु चूंकि मुफ्त में कुछ नहीं मिलता इसलिए नेताओं को तब परेशान नहीं होना चाहिए जब राज्यसभा के चुनाव से पहले ही उनके समक्ष मांग रख दी जाती है। राजनीतिक सत्ता के विखंडन के दुष्परिणामों में एक यह है कि दलाल केवल सत्तारूढ़ दल तक ही सीमित नहीं रह गए हैं। विपक्षी दलों के पास भी अपनी उपस्थिति दर्शाने के लिए पर्याप्त ताकत है। इसीलिए एक चुनाव में हार से राजनेताओं की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे पता चलता है कि भाजपा में क्यों सत्ता की भूख मरती जा रही है? आखिर विपक्ष में रहकर भी तो लोगों पर कृपा की जा सकती है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

अधूरे आश्वासन

भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने वालों की सुरक्षा के लिए सक्षम कानून बनाने को लेकर अन्ना हजारे के एक दिनी अनशन पर दिल्ली और शेष देश की प्रतिक्रिया कुछ भी हो, इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि उन कानूनों के निर्माण में अनावश्यक विलंब हो रहा है जो भ्रष्ट तत्वों को हतोत्साहित करने में सहायक हो सकते हैं। अन्ना हजारे के इस एक दिनी अनशन पर कांग्रेस प्रवक्ता के इस कथन का कोई मतलब नहीं कि कानून बनाना संसद का काम है। क्या किसी ने यह कहा है कि संसद को कानून नहीं बनाना चाहिए? सच तो यह है कि हर कोई इससे परिचित है कि कानून बनाना विधायिका का काम है, लेकिन बेहतर हो कि जो लोग विधायिका का हिस्सा हैं उन्हें यह अहसास हो कि वे अपना काम सही तरह से नहीं कर पा रहे हैं और इसका सबसे बड़ा उदाहरण लोकपाल विधेयक का पारित न हो पाना है। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि संसद में इस विधेयक को पारित करने का देश को जो आश्वासन दिया गया था वह पूरा नहीं हो सका? निराशाजनक यह है कि संसद का एक और सत्र शुरू हो जाने के बावजूद यह कहना कठिन है कि आने वाले दिनों में देश का राजनीतिक नेतृत्व एक कारगर लोकपाल व्यवस्था का निर्माण करने में सक्षम हो सकेगा। व्हिसल ब्लोअर एक्ट के संदर्भ में इस तथ्य का उल्लेख करने मात्र से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं कि सरकार भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने वालों की हिफाजत के लिए एक प्रभावी तंत्र बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। देश जानना चाहेगा कि आखिर यह प्रतिबद्धता कब पूरी होगी? यह सवाल इसलिए, क्योंकि व्हिसल ब्लोअर एक्ट को पारित कराना उतना जटिल नहीं जितना लोकपाल विधेयक को पारित कराना हो गया है। यह समझना कठिन है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने में सबसे आगे रहने का दावा करने वाली कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता उन नियम-कानूनों के संदर्भ में इतनी सुस्त क्यों है जो घपले-घोटालों पर अंकुश लगाने के लिए आवश्यक माने जा रहे हैं? निश्चित रूप से प्रतिबद्धता निष्कि्रयता का पर्याय नहीं हो सकती, लेकिन केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता और निष्कि्रयता में फर्क करना मुश्किल होता जा रहा है। वह जो कुछ कहती है उसे अमल में नहीं ला पाती। दुर्भाग्य से यह स्थिति केवल भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के कानूनों के निर्माण के मामले में ही नहीं, बल्कि अन्य अनेक मामलों में भी नजर आ रही है। केंद्र सरकार की निष्कि्रयता के चलते देश-दुनिया को यही संदेश जा रहा है कि वह निर्णयहीनता से इतनी अधिक ग्रस्त हो चुकी है कि उसे कुछ सूझ ही नहीं रहा है। निश्चित रूप से मुद्दा यह नहीं है कि भ्रष्टाचार की रोकथाम के मामले में अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों के विचार क्या हैं? मुद्दा तो यह है कि उन सवालों को उठाने के लिए अन्ना हजारे, उनके साथियों और समर्थकों को बार-बार आगे क्यों आना पड़ रहा है जो कथित तौर पर केंद्रीय सत्ता की प्राथमिकता सूची में हैं? केंद्र सरकार को यह अधिकार है कि वह अन्ना हजारे, उनकी गतिविधियों और उनके बयानों की अनदेखी कर सकती है, लेकिन इसकी उपेक्षा नहीं कर सकती कि उसने देश को जो आश्वासन दिए थे वे पूरे नहीं हो पा रहे हैं।
साभार :- दैनिक जागरण