Monday, July 18, 2011

दिग्गी के ‘संन्यास’ के मायने

संन्यास का अर्थ अलग-अलग लोगों के लिए अलग होता है। वर्ष 2003 में मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव हारने के फौरन बाद दिग्विजय सिंह ने नाटकीय रूप से एलान कर दिया था कि उन्होंने आगामी एक दशक के लिए राजनीतिक संन्यास लेने का निर्णय कर लिया है। आठ साल गुजर गए। परित्याग का जीवन बिताना तो दूर, वे आजकल हर दूसरे दिन सुर्खियों में नजर आते हैं।

उन्हें उनके संन्यास की घोषणा की याद दिलाएं तो वे शरारतभरी मुस्कराहट के साथ कहते हैं : ‘संन्यास से मेरा आशय यह था कि मैं दस साल तक किसी शासकीय पद पर नहीं रहूंगा। क्या मैं इतने सालों में किसी मंत्री पद पर रहा या मैंने सरकार में कोई आधिकारिक दायित्व संभाला?’

दिग्विजय सिंह भले ही मंत्री न हों, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि यूपीए-कांग्रेस के जटिल समीकरण में वे एक शक्ति केंद्र हैं। एक मायने में दो बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके दिग्विजय सिंह यूपीए-२ के लिए उसी भूमिका में हैं, जिसमें पहले लेफ्ट हुआ करता था, यानी पक्ष के भीतर एक विपक्ष।

यूपीए की पहली पारी में लेफ्ट किसी भी ऐसे मसले पर खुलेआम लाल झंडा फहरा देता था, जिसके बारे में उसे लगता था कि इससे उसकी विचारधारा को क्षति पहुंच रही है, फिर चाहे वह एटमी डील हो या सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण।

यूपीए-2 में यह भूमिका दिग्विजय सिंह निभा रहे हैं, लिहाजा चाहे मसला नक्सल नीति का हो, भूमि अधिग्रहण का हो या आतंकरोधी कानूनों का हो, कांग्रेस महासचिव लगातार पूरी निष्ठा के साथ यूपीए सरकार के समक्ष एक प्रतिकूल किस्म का एजेंडा प्रस्तुत करते आ रहे हैं। इससे अक्सर सत्तारूढ़ व्यवस्था में कुछ विवादी स्वर पैदा हो जाते हैं। क्षुधातुर मीडिया को इससे जो मसाला मिलता है, उसकी बात तो खैर रहने ही दें।

और इसके बावजूद लगता है कि दिग्विजय की इस भूमिका के पीछे कोई सुविचारित प्रणाली है। कई पारंपरिक कांग्रेसियों के लिए मनमोहन सिंह आज भी ‘आउटसाइडर’ हैं : एक ऐसे व्यक्ति, जिनकी मार्केट-फ्रेंडली अर्थशास्त्री की छवि के साथ जनप्रियता पर आधारित पार्टी तंत्र सहज नहीं हो पाता। दिग्विजय की वाकपटुता उन्हें ज्यादा प्रभावित करती है, जो नीतिगत विवरणों के स्थान पर नारों से ज्यादा सुपरिचित हैं।

मिसाल के तौर पर बाबा रामदेव और अन्ना हजारे पर दिग्विजय द्वारा की गई टिप्पणियों को लें। रामदेव को उन्होंने ‘ठग’ कह डाला। हजारे के बारे में यह संकेत देते हुए कि वे आरएसएस एजेंट हैं, उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को ही ‘भगवा’ रंगत दे दी।

योग गुरु की आवभगत करने के लिए हवाई अड्डे पर कैबिनेट मंत्रियों को भेजे जाने के सरकार के निर्णय पर सवाल खड़े करते हुए उन्होंने एक तरह से धार्मिक बाबाओं के प्रति समझौतापूर्ण रवैया अख्तियार करने के लिए सरकार को दोषी ही ठहराया। इस तरह उन्होंने ‘धर्मनिरपेक्ष रूढ़िवादी’ की अपनी छवि को और मजबूत कर लिया।

नतीजा यह रहा कि आज दिग्विजय भगवा भ्रातृत्व के लिए गांधी परिवार के बाद दूसरे सबसे पसंदीदा शिकार बन गए हैं। चाहे आतंकी हरकतों के लिए मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी पर सवाल उठाना हो या ‘हिंदू आतंकवाद’ की खुलेआम लानत-मलामत करना, वे हमेशा अपने आलोचकों के निशाने पर रहे हैं। अलबत्ता दिग्विजय ने यह कहते हुए अपना बचाव किया है कि वे हर तरह के धार्मिक चरमपंथ का विरोध करते हैं और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में जहां उन्होंने विहिप नेता प्रवीण तोगड़िया को गिरफ्तार करवाया था, वहीं अल्पसंख्यक चरमपंथी समूहों के विरुद्ध भी कार्रवाई की थी। इसके बावजूद वे उस प्रचलित मध्यवर्गीय धारणा से बच नहीं सकते, जो उन्हें अल्पसंख्यकों का ‘तुष्टीकरण’ करने वाला नेता बताती है। आखिर यदि कोई साध्वी प्रज्ञा के विरुद्ध मोर्चा खोल ले, लेकिन ओसामा को ओसामाजी कहकर संबोधित करे तो छद्म धर्मनिरपेक्षता का लेबल तो लगना ही है।

शायद मौजूदा राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में यह छवि दिग्विजय पर फबती भी है। चुनावों में विजय पताका फहराने के लिए कांग्रेस की क्लासिक विश्वदृष्टि यही रही है कि अल्पसंख्यकों का कड़ा समर्थन करो, फिर चाहे वे मुस्लिम हों, दलित हों या आदिवासी। पिछले दो दशकों से यदि कांग्रेस उत्तर भारत में संघर्ष कर रही है तो इसकी एक वजह यह भी है कि वह इन सामाजिक समूहों का समर्थन गंवा रही है।

दिग्विजय को उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य की जिम्मेदारी सौंपी गई है। वे अच्छी तरह जानते हैं कि कांग्रेस की वापसी की किसी भी तरह की संभावनाओं की बुनियाद दलित-मुस्लिम गठजोड़ पर ही होगी। जहां मायावती ने दलितों के सशक्तीकरण के लिए महत्वपूर्ण काम किया है, वहीं मुस्लिम अब भी उनकी व्यग्रताओं और असुरक्षाओं को संबोधित करने वाली भावनात्मक अपील के प्रति संवेदनशील हैं।

संघ परिवार को चुनौती देकर दिग्विजय ठीक इन्हीं संवेदनाओं को सहलाने का प्रयास कर रहे हैं। इस तरह वे मध्यप्रदेश के ही एक अन्य कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह की राह पर चल रहे हैं, जिन्होंने ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘सामाजिक न्याय’ का नारा बुलंद करते हुए अल्पसंख्यकों और पिछड़े वर्ग को लुभाने का प्रयास किया था। लेकिन आठ फीसदी विकास दर के इस दौर में मुस्लिम-मंडल जैसी ‘आइडेंटिटी पॉलिटिक्स’ की अपनी सीमाएं हैं।

हम धीरे-धीरे आक्षेप की राजनीति से आकांक्षा की राजनीति की ओर बढ़ रहे हैं। सामुदायिक सशक्तीकरण आधारित राजनीति अब सुप्रशासन और बिजली-सड़क-पानी जैसे मुद्दों के सामने घुटने टेक रही है। शायद दिग्विजय यह जानते हैं, लेकिन वे यह भी जानते हैं कि इसे स्वीकार लेने का मतलब होगा अपनी राजनीतिक ‘यूएसपी’ को गंवा देना।

पुनश्च : दिग्विजय सिंह की राजनीतिक महत्वाकांक्षा में एक ‘एक्स फैक्टर’ भी है। वह व्यक्ति, जिन्हें उन्होंने देश का अगला नेता बताया है : राहुल गांधी। हम राहुल की राजनीति के बारे में ज्यादा नहीं जानते, लेकिन वह दिग्विजय की ‘लेफ्ट ऑफ सेंटर’ दृष्टि के समांतर ही जान पड़ती है। यदि 2014 में राहुल कांग्रेस का नेतृत्व करने से इनकार कर देते हैं तो क्या वे अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए अपने किसी मनमोहन की तरफ देखेंगे? वैसे भी 2014 तक दिग्गी राजा के ‘संन्यास’ को दस साल पूरे हो चुके होंगे।


http://www.bhaskar.com/article/ABH-diggys-retirement-sense-of-2230991.html

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