Tuesday, July 19, 2011

दिखावे की जांच-पड़ताल

नोट के बदले वोट कांड की जांच में सुस्ती दिखाने के कारण सुप्रीम कोर्ट की फटकार पड़ते ही दिल्ली पुलिस ने जिस तरह इस मामले में शामिल रहे एक संदिग्ध को गिरफ्तार किया उससे यह प्रमाणित हो गया कि अभी तक वह जानबूझकर हाथ पर हाथ धरे बैठी थी। क्या कोई देश को यह बताने का कष्ट करेगा कि केंद्र सरकार के अधीन काम करने वाली दिल्ली पुलिस किसके इशारे पर जांच के नाम पर उसे दबाए बैठी थी? यह जितना हास्यास्पद है उतना ही शर्मनाक भी कि दावे तो भ्रष्टाचार से लड़ने के किए जा रहे हैं, लेकिन काम उसे दबाने-छिपाने का किया जा रहा है। इससे भी शर्मनाक यह है कि ऐसा तब हो रहा है जब खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह आश्वासन दिया था कि देश को शर्मिदा करने वाले इस मामले में दोषी व्यक्तियों को छोड़ा नहीं जाएगा। आखिर यह आश्वासन खोखला क्यों साबित हुआ और सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में दखल क्यों देना पड़ा? क्या केंद्र सरकार का दिल्ली पुलिस पर कोई जोर नहीं चल पा रहा था या फिर उसका ऐसा कोई इरादा ही नहीं था कि इस मामले में दूध का दूध और पानी का पानी हो? ये वे सवाल हैं जिनका जवाब सिर्फ और सिर्फ केंद्र सरकार को देना है। उसके पास इन सवालों से बचने के लिए कोई बहाना इसलिए नहीं, क्योंकि नोट के बदले वोट कांड ने कुछ समय पहले तब भी केंद्र सरकार के लिए मुसीबत खड़ी की थी जब विकिलीक्स के जरिये यह सामने आया था कि 2008 में विश्वास मत प्रस्ताव के दौरान सांसदों को खरीदने के शर्मनाक खेल में बड़े कांग्रेसी नेता शामिल थे। इस कांड की जांच करने वाली संसदीय समिति की सिफारिश पर 2009 में दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा को मामला सौंपा गया था, लेकिन किन्हीं कारणों से वह सुप्रीम कोर्ट की फटकार का इंतजार करती रही। चूंकि केंद्र सरकार बड़े यत्नपूर्वक नोट के बदले वोट कांड को तीन साल तक दबाए रही इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि सुप्रीम कोर्ट इसकी निगरानी करे कि दिल्ली पुलिस अपना काम सही तरीके से कर रही है या नहीं? इस मामले में केंद्र सरकार की आपत्ति की परवाह नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि वह भ्रष्टाचार के मामलों में तब तक लीपापोती करती रहती है जब तक न्यायपालिका उसे फटकार नहीं लगाती। यह एक तथ्य है कि यदि 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में उच्चतम न्यायालय हस्तक्षेप नहीं करता तो जांच के नाम पर लीपापोती के अलावा और कुछ होने वाला नहीं था। इसी तरह सबने देखा कि काले धन की जांच के मामले में सरकार ने उच्चतम न्यायालय की फटकार के बावजूद गंभीरता प्रदर्शित नहीं की। यदि केंद्रीय सत्ता को संसद और अपनी साख की तनिक भी परवाह होती तो नोट के बदले वोट कांड की सच्चाई न जाने कब सामने आ जाती। नि:संदेह दिल्ली पुलिस इतनी नाकारा नहीं हो सकती कि दो वर्ष में उस शख्स से पूछताछ भी न कर पाती जिसके बारे में पहले दिन से यह स्पष्ट है कि उसने सांसदों को रिश्वत दी थी। आखिर आम जनता इस नतीजे पर क्यों न पहुंचे कि केंद्र सरकार दिल्ली पुलिस का अनुचित इस्तेमाल करने में लगी हुई थी? अब यह और अच्छे से स्पष्ट हो जाता है कि राज्य सरकारों की तरह केंद्रीय सत्ता भी पुलिस सुधारों की दिशा में आगे बढ़ने से क्यों इंकार कर रही है? सच तो यह है कि वह विभिन्न जांच एजेंसियों का भी मनमाना इस्तेमाल करना चाहती है और इसीलिए उन्हें स्वायत्तता देने और समर्थ बनाने से बच रही है।
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