Sunday, July 24, 2011

भारतीय हितों की अनदेखी

भारतीय हितों के लिहाज से अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के दौरे को निराशाजनक बता रहे हैं राजीव शर्मा
19 जुलाई को द्वितीय भारत-अमेरिकी सामरिक वार्ता में अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारतीय समकक्ष एसएम कृष्णा को परमाणु आपूर्ति समूह के ईएनआर (संवर्धन और पुन‌र्प्रसंस्करण) प्रौद्योगिकी पर कड़े रुख के बारे में भारत का आश्वस्त नहीं कर पाईं, जिस कारण परमाणु समझौते के क्रियान्वयन पर सवालिया निशान लग गया है। साथ ही उन्होंने आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान को आड़े हाथों लेने से भी परहेज किया, जबकि इससे पहले अपने दौरों पर ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन और फ्रांसिसी राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ऐसा कर चुके हैं। यह आधे खाली गिलास की तस्वीर है। दूसरी तरफ, क्लिंटन ने भारत के साथ मिलकर आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की प्रतिबद्धता जाहिर की। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान को साफ-साफ बता दिया गया है कि हर प्रकार के आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई खुद इस्लामाबाद के हित में है। उन्होंने यह बात एसएम कृष्णा के साथ संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में कही। क्लिंटन ने कहा कि हमने पाकिस्तान को बार-बार कहा है कि आतंकवाद दोनों देशों के लिए खतरा है और आतंकवादियों ने मस्जिदों, पुलिस स्टेशनों और सरकारी इमारतों पर हमला कर अमेरिकियों से अधिक पाकिस्तानियों को मारा है। हमारा मानना है कि पहले पाकिस्तान खुद अपने स्तर पर आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करे, अपने भूभाग को आतंकियों के कब्जे में जाने तथा पाकिस्तान के लोगों को मरने से बचाए। हमने पाकिस्तान को स्पष्ट बता दिया है कि हम उसके साथ दीर्घकालीन द्विपक्षीय संबंध चाहते हैं और हम कहीं भी आतंकवादियों को सुरक्षित पनाह मिलना बर्दाश्त नहीं करेंगे। अगर हमें आतंकवादियों के ठिकाने का पता चलता है तो उनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए दोनों को साथ मिलकर चलना होगा। इस तस्वीर में आधा गिलास भरा नजर आ रहा है। हालांकि, जब उन्होंने कहा कि अमेरिका और भारत की इस विषय पर एक सीमा है, तो उनके लहजे में पराजय की झलक दिख रही थी। उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिका और भारत ने आतंकवाद से लड़ने और खुफिया जानकारी साझा करने में द्विपक्षीय सहयोग को प्रगाढ़ किया है। इस पर कृष्णा ने कहा कि क्षेत्रीय शांति और स्थिरता के लिए पाकिस्तान में आतंकी शरणस्थलियों को खत्म करने की जरूरत है। भारत-अमेरिका परमाणु करार के पूर्ण क्रियान्वयन पर क्लिंटन अनिश्चित नजर आईं और इस संबंध में भारतीय चिंताओं को लेकर उनकी प्रतिक्रिया निराशाजनक थी। भारत के परमाणु दायित्व संबंधी कानूनों को लेकर उन्होंने वाशिंगटन की नाखुशी को जाहिर करते हुए कहा कि भारत अगर इस करार से पूरा फायदा उठाना चाहता है तो उसे अंतरराष्ट्रीय दायित्व मापदंडों के अनुरूप अपने कानून में इस साल के अंत तक बदलाव कर लेना चाहिए। उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत को अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आइएईए) से बातचीत कर अपने कानूनों में संशोधन करना चाहिए, जबकि अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत यह जरूरी नहीं है। भारतीय संदर्भ में बुरी खबर यह है कि हाल ही में 46 देशों के परमाणु आपूर्ति समूह द्वारा संवर्धन व पुन‌र्प्रसंस्करण प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण पर भारत के खिलाफ लगाए गए नए प्रतिबंधों के संबंध में उन्होंने कोई आश्वासन नहीं दिया। उन्होंने भारत-अमेरिका परमाणु करार के पूर्ण क्रियान्वयन के लिए बचे हुए मुद्दों को भी जल्द सुलझाने को कहा। हालांकि, साथ ही उन्होंने आश्वस्त भी किया कि अमेरिका परमाणु करार को पूरी तरह क्रियान्वित करेगा। असल में परमाणु आपूर्ति समूह द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के आलोक में क्लिंटन चाहती हैं कि भारत अपने उत्तरदायित्व कानूनों को हलका करे। यह भारत सरकार के लिए राजनीतिक रूप से सही नहीं होगा। संप्रग सरकार दक्षिणपंथियों और वामपंथियों, दोनों के जबरदस्त दबाव में है कि उत्तरदायित्व कानूनों को हलका करने के बजाए इन्हें और कड़ा करने और अमेरिका के ब्लैकमेल के आगे न झुकने की मांग से जूझ रही है। यद्यपि क्लिंटन ने भारत के क्षेत्रीय और वैश्विक शक्ति के रूप में उभरने का स्वागत किया, किंतु उन्होंने ऐसी किसी योजना का खुलासा नहीं किया जिससे पता चले कि अमेरिका इस प्रयास में भारत को कैसे सहयोग कर सकता है। इस संबंध में एक महत्वपूर्ण मुद्दा है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का पुनर्गठन और इसमें भारत को स्थायी सदस्यता दिलाने में सहयोग। उन्होंने इस मुद्दे से पूरी तरह कन्नी काट ली। हालांकि, क्लिंटन का दिल्ली दौरा विश्व के दो महत्वपूर्ण लोकतंत्रों के बीच सामरिक साझेदारी में प्रगति के रूप में देखा जा रहा है। इस दौरे में भारत और अमेरिका ने चीन के मद्देनजर नई वैश्विक साझेदारी को और मजबूत करने का नया लक्ष्य निर्धारित किया है। जल्द ही भारत-अमेरिका-जापान त्रिपक्षीय वार्ता के आयोजन की बात भी क्लिंटन ने की है। क्लिंटन ने एक ऐसा मुद्दा भी उठाया जो भारत आने वाले हर विदेशी नेता की पहली वरीयता होता है-भारत द्वारा सैन्य खरीदारी। उनका जोर इस बात पर था कि भारत सैन्य आयात में बढ़ोतरी कर किस प्रकार अमेरिकी नागरिकों को रोजगार प्राप्त करने और अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार में अपना योगदान दे सकता है। इसके लिए उन्होंने अधिकाधिक द्विपक्षीय व्यापार और निवेश समझौतों की जरूरत बताई। यह ध्यान देने की बात है कि उन्होंने यह तो पूछा कि भारत अमेरिका के लिए क्या कर सकता है, लेकिन यह नहीं बताया कि अमेरिका भारत के लिए क्या कर सकता है? उन्होंने अपने राष्ट्रीय हितों को ऊपर रखा और भारत की चिंताओं को दरकिनार कर दिया। भारत की चिंताएं वीजा, ईएनआर प्रौद्योगिकी, अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भारत को आगे बढ़ाना और आतंक के मुद्दे पर पाकिस्तान पर दबाव डालना शामिल हैं। क्लिंटन ने अविश्वसनीय कीमत पर भारत को अत्याधुनिक एफ 35 लड़ाकू विमान बेचने की पेशकश की। उन्होंने इसके बेसिक मॉडल की कीमत 6।5 करोड़ डॉलर बताई है, जो फ्रांसिसी राफेल की 8.5 करोड़ डॉलर और यूरोफाइटर टाइफून की 12.5 करोड़ डॉलर की तुलना में काफी कम है। अमेरिकी पेशकश से संकेत मिलता है कि वह भारत के भारी-भरकम रक्षा बाजार से बड़ा हिस्सा हासिल करना चाहता है, खासतौर पर दो शीर्ष अमेरिकी फाइटर निर्माता लॉकहीड (एफ-16) और बोइंग (एफ-18) के भारत के 10.4 अरब डॉलर के एमएमआरसीए करार से निकाल दिए जाने के बाद। (लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
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