Tuesday, July 19, 2011

प्रधानमंत्री की प्राथमिकताएं

आतंकवाद और भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मुद्दे केंद्र सरकार की प्राथमिकता सूची से बाहर देख रहे हैं राजीव सचान
मुंबई बम विस्फोटों के बाद केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण, कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह के विचित्र, विवादास्पद और बेहूदा बयान तो बहस का विषय बने, लेकिन किसी ने भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने की जरूरत नहीं समझी कि सरकार भविष्य में इस तरह के हमलों को रोकने के लिए वह सब कुछ करेगी जो उसके अधिकार क्षेत्र में है। इसके पीछे जो अनेक कारण हो सकते हैं उनमें एक यह भी हो सकता है कि अब उनके आश्वासनों का कोई मूल्य नहीं रह गया है। यदि आम जनता यह महसूस करने लगी है कि प्रधानमंत्री के कहने-बोलने का कोई अर्थ नहीं तो इसके लिए वह किसी और को दोष नहीं दे सकते। 2008 में मुंबई में भीषण आतंकी हमलों के बाद जब देश का मान-सम्मान भी लहूलुहान हो गया था तो प्रधानमंत्री ने दोषियों को दंडित करने की घोषणा की थी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उसके नाकारापन के चलते वह कसाब भी अभी तक दंड से दूर है जिसे रंगे हाथ पकड़ा गया था। देश को यह भी अच्छी तरह पता है कि संसद पर हमले के आरोपी अफजल को फांसी की सजा देने में सरकार के पसीने छूट रहे हैं। उसे फांसी न मिले, इसके लिए खुद गृहमंत्री तरह-तरह के बहाने बना रहे हैं। कभी कहा जाता है कि उसकी फाइल अमुक मंत्रालय में है और कभी यह कि वह कतार में हैं। अब इसमें संदेह नहीं कि एक समय काबिल समझे जाने वाले चिदंबरम ने खुद को नाकाम मंत्रियों की श्रेणी में खड़ा कर लिया है। मंुबई जाकर उन्होंने कहा कि आतंकी हमले की कोई भनक तो नहीं लगी, लेकिन यह खुफिया एजेंसियों की विफलता नहीं है। यह कुछ वैसा ही है जैसे कोई यह कहे कि धूप तो निकली है, लेकिन आसमान में सूरज का नामोनिशान नहीं। आतंक के मुद्दे पर जब चिदंबरम की आलोचना होती है और खास तौर पर भाजपा उन्हें निशाने पर लेती है तो उनके साथ-साथ कांग्रेस के प्रवक्ता भी उसे कंधार कांड के बाद रिहा आतंकियों की याद दिलाते हैं। खुद की कमजोरी ढकने के लिए दूसरे की कमजोरी की आड़ लेने में इस सरकार का कोई सानी नहीं। ऐसा नहीं है कि केंद्र सरकार केवल आतंकवाद से ही लड़ने में अक्षम है। वह इतनी ही अक्षम भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में भी है। यदि सुप्रीम कोर्ट दिल्ली पुलिस को फटकार नहीं लगाता तो नोट के बदले वोट कांड में वह हरकत में आने वाली नहीं थी। इस कांड के बाद किसी और ने नहीं, खुद प्रधानमंत्री ने कहा था कि इस मामले की तह तक जाया जाएगा, लेकिन केंद्रीय शासन के नियंत्रण में रहने वाली दिल्ली पुलिस तीन साल तक हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। ऐसा क्यों हुआ, यह या तो चिदंबरम बता सकते हैं या फिर मनमोहन सिंह। क्या संसद और लोकतंत्र को शर्मसार करने वाले इतने गंभीर मामले को कोई प्रधानमंत्री भूल सकता है? आखिर देश यह क्यों न समझे कि केंद्रीय सत्ता इस मामले को दबाए रखना चाहती है? ऐसा ही एक मामला काले धन की जांच का है। पिछले वर्ष मार्च में खुद प्रधानमंत्री ने काले धन की जांच कराने का आश्वासन दिया था, लेकिन उसके बाद उनकी सरकार कान में तेल डालकर बैठ गई। वह तब भी नहीं चेती जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी एजेंसियों को फटकार लगानी शुरू की। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने आजिज आकर एक विशेष जांच दल का गठन कर दिया। सुप्रीम कोर्ट की इस पहल के साथ ही सरकार को अपने अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण दिखाई देने लगा। क्या वह वह चाहती है कि उसकी तरह न्यायपालिका भी आंख मूंदकर बैठ जाए? यदि नहीं तो वह कालेधन के कारोबार के प्रति इतनी उदार क्यों है? प्रधानमंत्री की मानें तो यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था में भी 25 प्रतिशत कालाधन है। आखिर क्या मतलब है इसका? क्या यह कि इतना या इससे कुछ कम या ज्यादा कालाधन भारतीय अर्थव्यवस्था का भी हिस्सा बनना चाहिए? राष्ट्रमंडल खेलों, 2जी स्पेक्ट्रम और आदर्श सोसाइटी में घोटालों के कारण जब कांग्रेस और केंद्र सरकार के लिए मुंह छिपाना मुश्किल हो रहा था तब बुराड़ी अधिवेशन के दौरान प्रधानमंत्री ने खुद को सीजर की पत्नी जैसा बताते हुए भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने का आश्वासन दिया था। तब से छह महीने बीत चुके हैं और भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए कोई प्रतीकात्मक कदम भी नहीं उठाया गया। उलटे जन लोकपाल विधेयक में एक-एक करके खोट निकाली गई और फिर उसे पूरी तरह खारिज कर दिया गया। किसी को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि भ्रष्ट तत्वों को संरक्षण देने वाली इस सरकार के रहते एक सक्षम लोकपाल विधेयक पारित होगा। न तो कांग्रेस ऐसा कोई इरादा रखती है और न ही प्रधानमंत्री। यह खुद प्रधानमंत्री के इस कथन से स्पष्ट होता है कि केवल लोकपाल से भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लगने वाली। नि:संदेह यह एक हद तक सही है, लेकिन आखिर भ्रष्टाचार नियंत्रित करने वाले अन्य उपायों को अमल में लाने से कौन रोक रहा है? क्या सोनिया गांधी के भ्रष्टाचार रोधी पांच सूत्रीय उपाय इतने गूढ़ हैं कि छह महीने में भी उन्हें समझा नहीं जा सका है? दरअसल भ्रष्टाचार और आतंकवाद से लड़ना प्रधानमंत्री के एजेंडे में ही नहीं नजर आता। उनकी प्राथमिकताएं क्या हैं, यह उनकी ओर से शीला दीक्षित को हाल में लिखी गई एक चिट्ठी से जाहिर होता है। इस चिट्ठी में उन्होंने लिखा कि जनपथ स्थित विंडसर पैलेस का नामकरण अंग्रेज शासकों के समय दिल्ली के बिल्डर रहे शोभा सिंह के नाम पर किया जाए। शोभा सिंह उन लेखक खुशवंत सिंह के पिता हैं जिन्हें मनमोहन सिंह नेहरू के बाद सबसे काबिल प्रधानमंत्री नजर आते हैं। शोभा सिंह का एक परिचय यह भी है कि उन्होंने शहीद भगत सिंह के खिलाफ गवाही दी थी। अनेक इतिहासकार उन्हें अंग्रेजों का पिट्ठू भी मानते हैं। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)

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