Monday, July 18, 2011

सोच बदले तो सरकार बदलेगी

क्या हम भ्रष्टाचार के अधिक गहरे कारणों की उपेक्षा नहीं कर रहे हैं? मेरा दृढ़ विश्वास है कि हम ऐसा ही कर रहे हैं। हम उथलेपन की अपनी मौजूदा संस्कृति में इतने रचे-बसे हैं कि थोड़ी देर को ठहरकर यह भी नहीं सोचते कि भ्रष्टाचार से संबंधित कानूनों और संस्थाओं में हमारे द्वारा इतने सारे बदलाव और संशोधन करने के बावजूद वे विफल क्यों साबित हुए और क्या प्रस्तावित लोकपाल इनसे किन्हीं मायनों में अलग होगा।

इसमें कोई शक नहीं कि हमारे संस्थागत तंत्र में सुधार की जरूरत है। लेकिन तंत्र आखिर तंत्र ही होता है। एक मशीन। सबसे महत्वपूर्ण हैं वे लोग, जो मशीन को संचालित करते हैं। यदि वे कार्यकुशल नहीं हैं या उनके इरादे और उनकी प्रेरणाएं गलत हैं, तो वे अच्छी से अच्छी मशीन को भी बरबाद कर देंगे। कोई मशीन किन परिस्थितियों में कार्य कर रही है, यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है। जाहिर है कि ईमानदार व्यक्तियों के बिना ईमानदार प्रशासन की स्थापना करना संभव नहीं है। भारतीय इतिहास के अनेक दशकों का संदेश एकदम स्पष्ट है : हमारे तंत्र में भीतर तक पैठा भ्रष्ट आचरण ही कई बुनियादी समस्याओं की जड़ है। इसी कारण केंद्र और राज्य में गैरजिम्मेदार राजनेता और अधिकारी अपनी जगह बना लेते हैं। भ्रष्ट व्यक्ति अपने संपर्क में आने वाली हर चीज पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।

इतिहास भी हमें यही सबक सिखाता है। इतिहास गवाह है कि किसी भी सभ्यता के विकास में तब तक बुनियादी रूप से बदलाव नहीं आता है, जब तक उसके लोगों के विचार न बदल जाएं। यूरोप ने मध्ययुग से आधुनिकता तक एक लंबा सफर तय किया था। यूरोपीय पुनर्जागरण ने लोगों की बौद्धिक क्षमताओं और उनके दृष्टिकोण का विकास किया। साथ ही उनकी सांस्कृतिक संवेदना और सामाजिक स्थिति भी परिष्कृत हुई। नवजागरण के इसी दौर में वैज्ञानिक चेतना का विकास हुआ। अन्वेषण की प्रवृत्ति विकसित हुई।

विकासशील विचारों ने चर्च और राज्य की रूढ़ियों को चुनौती देना प्रारंभ किया। समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आदर्श ने फ्रांसीसी क्रांति का सूत्रपात किया, जिसका यूरोपीय राष्ट्रों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ढांचे पर गहरा असर पड़ा। लेकिन फ्रांसीसी क्रांति से पहले रूसो, वोल्तेयर और थॉमस पेन के लेखन ने अपने समय के बौद्धिक और सांस्कृतिक परिवेश को गहराई तक प्रभावित किया था। लोगों के दिमागों में स्थित रूढ़ियां खत्म होने के बाद पुरातनपंथी शासन तंत्र कब तक अपना अस्तित्व बचाए रख सकता था? लोगों के विचार बदले तो समाज में एक नए शासनतंत्र का मार्ग प्रशस्त हुआ।

यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी है। मुझे अपने सार्वजनिक जीवन में विभिन्न क्षेत्रों में देश के लिए काम करने का मौका मिला। मैंने दस साल तक लेफ्टिनेंट गवर्नर/गवर्नर के रूप में काम किया। चौदह साल संसद सदस्य की भूमिका निभाई। साढ़े पांच साल कैबिनेट मंत्री के रूप में कार्य करने का अवसर मिला, जिसमें मैंने संचार, शहरी विकास, गरीबी उन्मूलन, संस्कृति और पर्यटन आदि विभागों का काम देखा। अपने लंबे सार्वजनिक जीवन के दौरान मैंने मौजूदा भारतीय समाज को नजदीक से देखा। तरह-तरह के लोगों से मेरी मुलाकात हुई, जिनमें झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोगों से लेकर देश के प्रधानमंत्री, फुटकर विक्रेता से लेकर शीर्ष बिजनेसमैन और सीधे-सरल-समर्पित लोकसेवकों से लेकर सत्ता के मद में चूर नौकरशाह तक शामिल हैं।

मैंने विभिन्न दृष्टिकोण से कई परिस्थितियों को देखा और उनका आकलन किया। मैंने पाया कि एक आम भारतीय अपने मन में कई अवरोधों का अनुभव करता है। ये बाधाएं और अवरोध उसने अपनी सभ्यता के लंबे इतिहास के दौरान प्राप्त किए हैं। मेरा मानना है कि जब तक भारतीय मन को उसकी बाधाओं से मुक्त नहीं किया जाता, तब तक देश गैरजिम्मेदार नागरिकों, स्वार्थी नेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों से त्रस्त रहेगा। किसी भी तरह के प्रशासनिक, आर्थिक या राजनीतिक सुधार तब तक कारगर साबित नहीं हो सकते, जब तक कि भारतीय मानस और चेतना का ‘रूट एंड ब्रांच’ स्तर पर सुधार नहीं किया जाए, अन्यथा आर्थिक दुनिया के महज कुछ क्षेत्रों की अस्थायी चमक-दमक हमारे मन में झूठी उम्मीदें जगाए रखेंगी।

1947 के बाद भारतीय मानस के पुनरुत्थान के किसी भी प्रयास के पूर्णत: अभाव और लोगों के मन व समाज के तौर-तरीकों को बदलने वाले किसी भी उल्लेखनीय सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन का उदय न होने के कारण हमारा समाज संविधान के वास्तविक अर्थो और आदर्शो से वंचित रह गया है। चिंतनीय बात यह भी है कि अपने घर का कचरा बुहारने के स्थान पर हमने पश्चिमी सभ्यता के कचरे को भी एकत्र करना शुरू कर दिया। हमने पश्चिम से भौतिकवादी दर्शन तो सीख लिया, लेकिन अनुशासन व नागरिक बोध नहीं सीख पाए। नतीजा यह रहा कि हमारा समाज दोनों सभ्यताओं के खराब गुणों का प्रतिनिधि बनकर रह गया।

कभी-कभी मैं यह भी सोचता हूं कि हमारी समस्याओं की जड़ें इतनी गहरी हैं कि क्या किसी भी तरह की क्रांति उनका निदान कर सकती है? भारत का इतिहास और उसकी विरासत यह बताती है कि हमारा समाज क्रांतियों की तुलना में पुनर्जागरण के प्रति अधिक ग्रहणशील है। क्रांति और पुनर्जागरण में एक बुनियादी फर्क होता है। क्रांति आंधी की तरह होती है, जो पुराने मूल्यों, तौर-तरीकों, संस्थाओं और संरचनाओं को उखाड़ फेंकती है। लेकिन क्रांतियां सृजन से अधिक विध्वंस करती हैं। इसके स्थान पर पुनर्जागरण ताजी हवा के झोंके की तरह होता है, जो हमें घुटन भरे माहौल से मुक्त करता है। आज हमें एक और महान पुनर्जागरण की जरूरत है, जो विचारों के एक नए भूगोल का निर्माण कर सके और अतीत की सदियों पुरानी बाध्यताओं से हमें मुक्त कर सके। वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला ऐसा नया मुक्त मानस ही नैतिक रूप से सक्षम राज्यतंत्र की नींव रख सकता है। केवल इसी तरह के राष्ट्र का प्रशासनिक तंत्र स्वच्छ, विवेकशील और भ्रष्टाचार से मुक्त हो सकता है।

जगमोहन
लेखक जम्मू और कश्मीर के पूर्व राज्यपाल हैं।

http://www.bhaskar.com/article/ABH-instead-of-thinking-the-government-will-change-2069802.html

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