Friday, July 22, 2011

बेतुकी बयानबाजी का दौर






लगता है कि मौजूदा सरकार हमारी अब तक की सबसे अनाड़ी और भ्रष्ट सरकारों में से एक है। लेकिन क्या यह सरकार वाकई इतनी ही खराब है या बात केवल इतनी ही है कि उसे यह बिल्कुल नहीं पता कि संकट के क्षणों में क्या किया जाए और क्या कहा जाए?

जब भी कोई संकट की घड़ी आती है (जैसा पिछले हफ्ते मुंबई में हुआ) तो देश अपने नेताओं की मूर्खतापूर्ण हरकतों को असहाय होकर देखता रहता है। मैं पिछले तीन दशकों से पत्रकारिता कर रहा हूं और मैंने इससे भी बदतर सरकारें देखी हैं, (हालांकि शायद उनमें से कोई भी सरकार इतनी भ्रष्ट नहीं थी) लेकिन मैंने ऐसे हालात पहले कभी नहीं देखे।

यूपीए के लिए बोलने वाले लगभग हर व्यक्ति का संवाद कौशल चिंतनीय है। मजे की बात तो यह है कि प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह से लेकर उनके मंत्रियों तक में से किसी ने भी अपने लिए ऐसे भरोसेमंद व्यक्तियों का चयन नहीं किया है, जो उनके स्थान पर बोल सकें।

उनके भाषण लिखने वाले तो और बदतर हैं। आमतौर पर हमारे नेता अपने बयानों से ही अनर्थ कर डालते हैं। पिछले हफ्ते मुंबई में हुए धमाकों का ही उदाहरण लें। सबसे पहले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के बयान पर गौर करते हैं। धमाकों के बाद उन्होंने कहा: ‘मैं समझता हूं इन धमाकों को खुफिया तंत्र की नाकामी बताना गलत होगा।

यदि कोई सुराग होता और हम उसे पकड़ने में नाकाम रहते, तब जरूर इसे खुफिया तंत्र की विफलता करार दिया जा सकता था। मौजूदा मामले में यह बात लागू नहीं होती।’ माननीय मुख्यमंत्री महोदय, आप आखिर कहना क्या चाहते हैं?

मुंबई में एक के बाद एक तीन धमाके होते हैं और हम अब भी यह नहीं जानते कि आखिर यह किसकी कारगुजारी है। यदि यह खुफिया तंत्र की नाकामी नहीं, तो और क्या है? इतनी दुखद मानवीय त्रासदी के मौके पर बेकार बयानबाजी करना सबसे खराब किस्म की प्रतिक्रिया है।

लेकिन पृथ्वीराज चव्हाण ने टीवी पर लाखों दर्शकों के सामने ठीक यही किया। और वह भी महज एक बार नहीं। यदि यह एक बार होता तो तनावपूर्ण स्थितियों के मद्देनजर उसे माफ किया जा सकता था। उन्होंने यह बात बार-बार दोहराई। जब भी बम विस्फोट जैसी कोई घटना होती है तो यह हमेशा खुफिया तंत्र की ही नाकामी होती है।

खुफिया तंत्र की जिम्मेदारी यह है कि इस तरह के हादसे होने से रोके, यह नहीं कि घटना हो चुकने के बाद सैद्धांतिक बातें करे। केंद्रीय गृह मंत्री की स्थिति भी इससे कुछ बेहतर नहीं थी। उन्होंने कहा: ‘जब भी हमें कोई सूचना मिलती है तो हम उसे संबंधित राज्य तक प्रसारित करते हैं।

दुर्भाग्य से इस बार चूक हो गई। खुफिया जानकारियां रोज संकलित की जाती हैं। बम धमाके खुफिया एजेंसियों की नाकामी नहीं हैं। जिन्होंने भी धमाकों को अंजाम दिया है, उन्होंने यह काम बहुत गुप्त रूप से किया है।’

माफ कीजिए, श्रीमान गृह मंत्रीजी! सभी आतंकवादी गुप्त रूप से ही काम करते हैं। उनके काम की प्रकृति ही यही है। इस तरह तो कभी किसी आतंकी वारदात को नहीं रोका जा सकता, क्योंकि आतंकवादी धमाके करने से पहले प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर अपने इरादे जाहिर नहीं करते हैं।

कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने यह कहते हुए और बेड़ा गर्क कर दिया कि ‘देश में होने वाली हर आतंकी घटना को रोकना नामुमकिन है। लेकिन 99 फीसदी हमलों को कड़ी सतर्कता और चौकस खुफिया तंत्र के कारण घटित होने से रोक लिया गया है।’ क्या मैं पूछ सकता हूं, कौन-से 99 फीसदी हमले?

यदि यह वास्तव में सच है तो खुफिया एजेंसियों ने अभी तक 9000 आतंकी हमलों को नाकाम कर दिया होगा। फिर इनमें से किसी के भी बारे में सूचना क्यों नहीं दी गई? पकड़ाए गए आतंकी जेल में क्यों नहीं हैं?

मुझे नहीं लगता कि श्री गांधी सहित भारत का कोई भी व्यक्ति इन आंकड़ों को भरोसेमंद पाएगा। कई लोगों की जान ले लेने वाले भीषण हमले के फौरन बाद इस तरह के बयान देशवासियों को निराश कर देते हैं। इससे सरकार में उनका भरोसा और डगमगा जाता है।

अब प्रधानमंत्री की बातों पर गौर करते हैं। उनका बयान तो सबसे अनोखा था। उन्होंने कहा: ‘आतंकवादियों के लिए फायदे की स्थिति यह थी कि वे हमें चौंका सकते थे। इस बार आतंकी हमले के कोई सुराग नहीं थे। अब हमारे सामने चुनौती यह है कि हम दोषियों को खोजें और उन्हें उपयुक्त सजा दिलवाएं।’

दुर्भाग्य से यह पहली बार नहीं है जब हमारे प्रधानमंत्री चौंके हों। राजा ने भी उन्हें चौंका दिया था, कलमाडी ने भी उन्हें हैरान कर दिया था, यहां तक कि दयानिधि मारन के कारण भी वे अचंभित रह गए थे। ऐसा लगता है कि कैबिनेट में शामिल लगभग हर व्यक्ति प्रधानमंत्री को हैरान कर सकता है।

वास्तव में यह हमारे लिए हैरानी की बात है। शायद अगली बार वे किसी ऐसे कम्युनिकेशन एक्सपर्ट की सेवाएं लें और हमें चौंका दें, जो उनकी प्रतिक्रियाओं के लिए सही शब्दों का चयन कर सके।

आतंकी हमले हमेशा अप्रत्याशित होते हैं। वे क्रूरतापूर्ण होते हैं और उनकी वजह से बेगुनाह लोगों को अकल्पनीय रूप से भयावह स्थितियों का सामना करना पड़ता है। जो लोग सत्ता में बैठे हैं, उन्हें सहानुभूति और करुणा की भाषा सीख लेनी चाहिए।

उन्हें ऐसी हास्यास्पद और घिसी-पिटी बातें नहीं करनी चाहिए, जो तकलीफ झेल रहे लोगों के जख्मों पर नमक की तरह हों। अगर हमारे नेतागण ठीक से अपनी बात नहीं कह सकते तो वे किन्हीं ऐसे व्यक्तियों को नियुक्त क्यों नहीं करते, जो ऐसा भलीभांति कर सकते हैं?

उनकी अनर्गल बयानबाजियों पर अंकुश क्यों नहीं लगाया जा सकता? जहां तक आधिकारिक प्रवक्ताओं और विपक्ष का सवाल है, तो उनके बारे में जितना कम कहें, उतना ही बेहतर। देश अपने नेताओं से तंग आ चुका है, जबकि प्रवक्तागण और विपक्ष तो उसके लिए पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुके हैं।


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