Monday, July 18, 2011

मीडिया और सत्ता का नाता

मीडिया का कैमरा शिव की तीसरी आंख की तरह है। वह सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों को देखता है और पलक तक नहीं झपकाता। वास्तव में वह दोधारी तलवार की तरह है। टेलीविजन ध्वनियों और छवियों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाता है, लेकिन वह उनका स्वरूप बिगाड़ भी सकता है।

एक कुशल सरकार मीडिया की ताकत को तो समझेगी, लेकिन वह उसका उपयोग अपने हित में करेगी। इसके विपरीत आत्मविश्वास की कमी से जूझ रही सरकार मीडिया की ताकत से हतप्रभ रह जाएगी और केवल उस पर प्रतिक्रिया ही करेगी।

यूपीए 2 इस बात का बेहतरीन उदाहरण है कि जब टेलीविजन ‘पाइड पाइपर’ बन जाता है और सरकार पिछड़ जाती है तो क्या होता है, क्योंकि तब सर्वव्यापी टेलीविजन छवियां रोज हाई डेफिनेशन में एक गैरमौजूद सरकार को दिखाती रहती हैं।

हाल के कुछ हफ्तों में जब टीवी पर अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलनों की छवियां लगातार दिखाई जा रही थीं तो ऐसा लगा जैसे सरकार में खलबली मच गई हो। योगगुरु को मनाने के लिए चार केंद्रीय मंत्री हवाई अड्डे पर जा पहुंचे।

अन्ना के अनशन के दौरान भी सरकार ने बिना राय-मशविरा लिए लोकपाल समिति के गठन के औपचारिक आदेश दे दिए थे। इन दोनों ही मामलों में सरकार मीडिया को दोष देती है कि उसके द्वारा किए गए कवरेज के कारण ही उसे अविवेकपूर्ण कदम उठाने को विवश होना पड़ा।

इस तरह के आरोप समकालीन मीडिया की प्रकृति पहचान नहीं पाने के कारण लगाए जाते हैं। 24 घंटे खबरिया चैनलों को लगातार खुराक की दरकार होती है। देश की राजधानी में ‘मेड फॉर टेलीविजन’ आंदोलन करने वाले रामदेव और हजारे इसे बखूबी समझते हैं।

मीडिया के कैमरों को अपनी तरफ खींचने के लिए रंगारंग कार्यक्रम की तरह आयोजित किए गए आमरण अनशन, जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध बढ़ते जनाक्रोश को फूटने का अवसर मुहैया कराते हों, से बेहतर और क्या हो सकता था। इसके विपरीत सरकार सत्ता की किलेबंदी में छुपकर बैठी रहती है।

प्रधानमंत्री कभी-कभार कुछेक शब्द कह देते हैं, राहुल गांधी यदा-कदा सुप्रबंधित बैठकों में नजर आ जाते हैं और लगता है सोनिया गांधी तो पूरी तरह 10 जनपथ के बैरिकेड्स के पीछे शरण ले चुकी हैं। अगर यूपीए 2 के तीन सबसे ताकतवर व्यक्ति ही मीडिया को उपलब्ध न हों तो चौबीसों घंटे चलने वाले खबरिया चैनलों की क्षुधा कौन शांत करेगा?

अलबत्ता यह भी कहा जा सकता है कि खबरिया चैनलों, खासतौर पर अंग्रेजी चैनलों का चुनावी राजनीति पर कोई खास असर नहीं पड़ता। मिसाल के तौर पर मायावती लगातार मीडिया के प्रति अवमाननापूर्ण रुख अख्तियार किए रहती हैं। वे पत्रकारों को इंटरव्यू नहीं देतीं।

उन्हें पूरा भरोसा है कि बसपा के मतदाता मीडिया के आधार पर अपनी राय नहीं बनाते हैं। लेकिन कम से कम मायावती अपने रवैये पर अडिग तो हैं। यूपीए के साथ दिक्कत यह है कि एक तरफ उसे मीडिया से समर्थन चाहिए, वहीं दूसरी तरफ वह उसे लेकर सशंकित भी बना रहता है।

ये दोनों चीजें एक साथ नहीं हो सकतीं। या तो सरकार मीडिया के प्रति बराक ओबामा की तरह मैत्रीपूर्ण रवैया अख्तियार करे (क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति मीडिया से बतियाने का कोई मौका नहीं चूकते, फिर चाहे वह ओप्रा विन्फ्रे के शो पर आत्मीय बातचीत हो या फिर नेटवर्क टेलीविजन पर हार्ड टॉक इंटरव्यू) अन्यथा उसे इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि हाईडेसिबल टेलीविजन उसके लिए एजेंडा तय करे।

टेलीविजन खाली जगहों को पसंद नहीं करता। यदि सरकार सूचनाओं के ब्लैकहोल को नहीं भरेगी तो उस खाली जगह को ऊंचे स्वर में बोलने वाले न्यूज एंकरों द्वारा भर दिया जाएगा। भ्रष्टाचार पर जारी बहस को ही लें। डॉ मनमोहन सिंह के सार्वजनिक जीवन में उनकी सबसे बड़ी पूंजी रही है उनकी व्यक्तिगत शुचिता।

लेकिन इसके बावजूद हमने कितनी बार डॉ सिंह को भ्रष्टाचार के मसले पर आलोचकों का सामना करते देखा है? यूपीए 2 के दो सालों में उन्होंने केवल दो लाइव प्रेस कांफ्रेंस की हैं और एकल इंटरव्यू तो एक भी नहीं।

शायद डॉ सिंह की छवि बनाने वालों को यह डर है कि टेलीविजन के लैंस एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में उनकी सीमाओं को उजागर कर देंगे। या शायद उन्हें यह डर सताता हो कि आसपास हो रही चिल्ल-पौं में उनकी आवाज दबकर रह जाएगी। लेकिन यह भी मीडिया को गलत समझना है।

जिस तरह कैमरा शोरगुल को दर्शाता है, ठीक उसी तरह वह गंभीरता और शालीनता को भी साफ-साफ दिखा सकता है। एक ऐसे समय में, जब दर्शक बेनतीजा बहसों से थक चुके हैं, प्रधानमंत्री के लिए यह अवसर है कि वे स्वयं को विवेक और तर्कसंगतता के प्रवक्ता के रूप में प्रस्तुत करें। चुप रहकर तो वे अपने आलोचकों के इस आरोप को लगभग साबित ही करते हैं कि वे ऑफिस में जरूर हैं, लेकिन सत्ता में नहीं।

सोनिया गांधी का मीडिया के प्रति रवैया भी इतना ही हैरान करने वाला है। 2004 के आम चुनाव से पहले उनके रोड शो ने उन्हें एक ऐसी करिश्माई राजनीतिक प्रचारक के रूप में स्थापित कर दिया था, जिन्हें मीडिया का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करना आता था।

लेकिन अब मीडिया से कतराकर वे यह संदेश दे रही हैं कि वे ऐसी नेत्री हैं, जो अपनी सरकार की गलतियों की जवाबदेही नहीं लेना चाहतीं। जहां तक राहुल का सवाल है तो क्या हमने कभी उन्हें राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर अपने विचार व्यक्त करते हुए सुना है? या क्या मायावती की ही तरह वे भी यही मानते हैं कि मीडिया एक ऐसी महामारी है, जिससे दूर रहना ही उचित है?

पुनश्च: आत्ममंथन की जरूरत मीडिया को भी है। ऐसा क्यों है कि हम हजारे या रामदेव के आंदोलन को इतनी प्रमुखता से दिखाते हैं, लेकिन मणिपुरी एक्टिविस्ट इरोम शर्मिला की कहानी पर ध्यान भी नहीं देते, जो आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर्स एक्ट के उन्मूलन के लिए एक दशक से भी अधिक समय से अनशनरत हैं? या क्या देश के 180 न्यूज चैनलों को इम्फाल इतना दूर मालूम होता है कि उन्हें उसकी खबर सुनाने की जरूरत नहीं महसूस होती?

http://www.bhaskar.com/article/ABH-media-and-power-connection-2193635.html

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