लिव इन तथा विवाह पूर्व सेक्स का मसला एक बार फिर से चर्चा में तब आ गया जबकि उच्चतम न्यायालय द्वारा दक्षिण भारतीय अभिनेत्री खुशबू के मामले में यह टिप्पणी की गयी कि जब दो लोग साथ रहना चाहते हैं तो इसमें अपराध क्या है. लेकिन न्यायालय द्वारा आगे यह जोड़ दिए जाने से कि “माइथोलॉजी के मुताबिक भगवान कृष्ण और राधा भी साथ रहे थे” ने भारत के अंतर्मन को झकझोर डाला है.
हर समाज या समुदाय की कुछ निहित विशेषताएं होती हैं और उसी के अनुसार वहॉ प्रतीक गढ़ लिए जाते हैं. समाज का संयुक्तीकरण इन्हीं लक्षणों या प्रतीकों के मूल्य स्थापित किए जाने के क्रम में होता रहता है. जो समाज इन्हें अस्वीकार कर देता है उसका वजूद एक इकाई के रूप में खत्म होने लगता है.
भारतीय समाज सदा से एक मर्यादित, मानवीय मूल्यों और नैतिक संहिताओं पर आधारित समाज रहा है. परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी परंपरा और जीवन पद्धति का प्रवाह एक निश्चित गति से होता रहा है. समाज को एकीकृत रखने और तनाव मुक्त जीवन जीने देने में इसका मुख्य योगदान है.
अब यदि अपेक्स कोर्ट या अन्य कोई संगठन या संस्था इस जीवन पद्धति और इसके प्रतीकों का मजाक बनाए तो बात बेहद गंभीर हो जाती है. भारत की पावन भूमि पर ऐसे खयालात लाना और सोचना भी जघन्य अपराध की श्रेणी में आता है. तब कैसे कोई न्यायाधीश या सरकार का कोई अन्य अंग राधा-कृष्ण को सामान्य मानवीय मुद्दे के बीच घसीट लेता है जो ना सिर्फ हमारी आस्था के प्रतीक हैं बल्कि हमारी जीवन पद्धति के प्रमुख आयाम भी हैं.
न्यायालय हो या कोई और किसी सामाजिक मुद्दे पर विचार व्यक्त करने के पूर्व उसे इस बिन्दु पर जरूर सोचना चाहिए कि क्या भारत में अनैतिक रिवाजों को मान्यता मिल सकेगी? क्या हमारा समाज इतना नंगा हो चुका है कि उसे अनियंत्रित स्वतंत्रता की जरूरत है?
आखिर इतनी अराजक स्वतंत्रता की जरूरत किसे है?
समाज के ऐसे भोगी जो तमाम तरह के दुष्कृत्यों में लिप्त रहते हुए भोग के नए-नए साधनों की खोज में रहते हैं बस उन्हें ही चाहिए ऐसी स्वतंत्रता. मेट्रोज़ में जीवन की एक नई शैली विकसित हो रही है, जिसमें घर-परिवार से दूर लड़के-लड़कियां जॉब कर रहे हों या पढ़ाई, उन्हें अपनी शारीरिक-मानसिक भूख को मिटाने के लिए ऐसे अनैतिक संबंधों की जरूरत पड़ रही है. तमाम लड़कियां नासमझी में और कुछ तो अपनी भौतिक आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए लिवइन का सहारा लेती हैं.
कुल मिलाकर यह मसला किसी नैसर्गिक आवश्यकता से नहीं जुड़ा है बल्कि भोगवाद का अतिरेक है कि सार्वजनिक मंच पर इस तरह की बातें सुनने को मिल रही हैं कि लिवइन रिलेशनशिप वक्त और हालात की जरूरत है.
मैं कई बार लिवइन रिलेशन का समर्थन करने वालों से पूछता हूं कि यदि उनके घर-परिवार की लड़कियां इस प्रकार का संबंध रखना चाहें तो उन्हें खुशी होगी? जवाब हमेशा नहीं में ही मिला. तब क्या समझा जाए? यानी यदि मामला अपने घर का हो तो खराब बात है और यदि दूसरों के घर का हो तो फिर मजा लेने में हर्ज कैसी?
अगर बात करें संविधान की तो वह तो स्वयं ही अनियंत्रित स्वतंत्रता को अस्वीकार करता है. यानी ऐसी कोई भी स्वतंत्रता जो दूसरों को हानि पहुंचाती हो उसे तो खुद ही निरस्त हो जाना चाहिए. तब लिवइन जैसी स्वच्छंदता जो समाज की सुस्थापित व्यवस्था को हानि पहुंचाने में सक्षम है, को मानवाधिकार के रूप में परिभाषित करना या इसे वक्त-हालात की जरूरत बताकर प्रोत्साहित करना कहॉ तक ठीक है.
Saturday, July 16, 2011
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