Monday, July 18, 2011

क्या सिविल सोसायटी देश नहीं?

चार जून की रात दिल्ली के रामलीला मैदान में की गई पुलिस ज्यादतियों का विरोध करने वाले तमाम धर्माचार्य, योगाचार्य, संन्यासी और स्वयंसेवी संगठन अगर आने वाले समय में एक मंच पर एकत्र होकर अन्ना हजारे और बाबा रामदेव की मांगों का समर्थन करने का तय कर लें और गांव-गांव और शहरों में फैले अपने करोड़ों समर्थकों से सरकार का विरोध करने का आह्वान कर दें तो कैसी परिस्थितियां बनेंगी?

तब क्या कोई बहस करेगा कि इन गैर-राजनीतिक लोगों से सरकार को बातचीत नहीं करनी चाहिए? तब भी क्या वही तर्क दिए जाएंगे, जो प्रणब मुखर्जी दे रहे हैं? केंद्र में बनने वाली सरकारें जिस तरह से सहयोगी दलों की बैसाखियों पर निर्भर होकर लगातार कमजोर होती जा रही हैं और सम्मिलित विपक्षी नेतृत्व अपनी विश्वसनीयता और धार खो रहा है, संदेह है कि सिविल सोसायटी की बढ़ती ताकत को संवैधानिक ढांचे और संसदीय अनिवार्यताओं के डंडे बताकर लंबे समय तक डराया जा सकता है।

टच्यूनीशिया और मिस्र के बाद मध्य-पूर्व और अफ्रीका के कुछ देशों में परिवर्तन की मांग को लेकर जिस तरह का आक्रोश फूटा है और लोग जीवन की बाजी लगा रहे हैं, वह वहां की सिविल सोसायटी की ही उपज है, विपक्षी पार्टियों की नहीं।

हमारे यहां का सत्ता प्रतिष्ठान भी अगर सिविल सोसायटी के माध्यम से व्यक्त हो रहे जनता के आक्रोश से भयभीत नजर आ रहा है तो उसके तनावों को समझा जा सकता है। अन्ना और उनके चार साथियों को लोकपाल की संयुक्त मसौदा समिति में शामिल करने वाली सरकार के ही एक स्तंभ और बाबा रामदेव की अगवानी के लिए अन्य तीन मंत्रियों के साथ हवाई अड्डे पर पहुंचने वाले वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी जब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों को लोकतंत्र को खोखला करने की साजिश करार देते हैं तो अंदाज लगाया जा सकता है कि सरकार सिविल सोसायटी की ताकत को कमजोर करने के लिए किस हद तक जा सकती है।

सही पूछा जाए तो सरकार सिविल सोसायटी से भी उतना नहीं डरती। उसे असली भय यह है कि अंततोगत्वा सिविल सोसायटी के आंदोलनों का लाभ विपक्षी दलों के ही खातों में दर्ज होगा। यह भी गौरतलब है कि अगर अन्ना और रामदेव को सत्ता की राजनीति नहीं करनी है, चुनाव नहीं लड़ना है और न ही अपने उम्मीदवार खड़े करने हैं तो फिर कांग्रेस के खिलाफ व्यक्त होने वाले जनता के गुस्से का लाभ कौन बटोरेगा?

सरकार को पता है कि जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले बिहार आंदोलन का अंतिम परिणाम क्या हुआ था? भ्रष्टाचार के मुद्दे पर प्रारंभ हुए बिहार के छात्रों के एक गैर-राजनीतिक आंदोलन ने अंतत: केंद्र में सत्ता परिवर्तन को जन्म दिया था। देश में पहली बार जनता पार्टी के रूप में गैर-कांग्रेसी सरकार की स्थापना हुई।

जयप्रकाश नारायण का कोई राजनीतिक दल नहीं था, न ही उनके स्वयं के कोई उम्मीदवार थे। वे तो वास्तव में देश में एक पार्टीविहीन प्रजातंत्र की स्थापना का सपना देखते थे। पहले गुजरात में चले नवनिर्माण आंदोलन और बाद में बिहार आंदोलन, दोनों को ही जेपी का आशीर्वाद प्राप्त था और दोनों के ही परिणामों का रूपांतरण सत्ता परिवर्तन की राजनीति में हुआ।

1975 में लगाए गए आपातकाल के बाद दूध की जली सरकार अपनी सत्ता खोने के लिए सिविल सोसायटी की छाछ को माध्यम नहीं बनने देना चाहती। सरकार जानती है कि अन्ना के आंदोलन का कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं है, पर उसके लिए यह भी जरूरी है कि वह सिविल सोसायटी के उद्देश्यों को राजनीति से प्रेरित और लोकतंत्र को खोखला करने वाला साबित कर उसके नेतृत्व को जनता के समक्ष शर्मिदा करने की पुरजोर कोशिश करे।

आश्चर्य नहीं कि सिविल सोसायटी की मांगों को लेकर विपक्षी दलों ने भी अपने पत्ते ईमानदारी के साथ नहीं खोले हैं। अन्ना और रामदेव के प्रति समर्थन व्यक्त कर जनता की सहानुभूति बटोरने वाले विपक्षी दलों ने आंदोलनकारियों की मांगों को लिखित में स्वीकार कर कोई आश्वासन अभी तक नहीं दिया है कि सत्ता में आने पर उन्हें अक्षरश: क्रियान्वित किया जाएगा।

यदि विपक्षी दलों को अन्ना की मांगें मंजूर हैं तो राज्यों में काम कर रही उनकी सरकारें केंद्र की चिट्ठी पर सकारात्मक राय भेजने से क्यों कतरा रही हैं? संसद में विपक्षी नेताओं ने क्या अन्ना की मांगों को शब्दश: स्वीकार कर लिखित जवाब सरकार को भेज दिया है? निश्चित ही ऐसा नहीं हुआ है। होने भी नहीं वाला। अन्ना और रामदेव इसे जानते भी हैं।

सिविल सोसायटी के आंदोलनों के लिए यह खतरा लगातार बना रहने वाला है कि राजनीतिक दल जनता के आक्रोश को अपने उद्देश्यों के लिए ‘हाइजैक’ करने की कोशिशों में लगे रहें। आजादी की लड़ाई के बाद गांधीजी ने सलाह दी थी कि कांग्रेस का काम चूंकि अब समाप्त हो गया है, उसे लोक सेवक संघ में परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए। पर कांग्रेस ने वैसा नहीं किया।

वह ऐसा करना भी नहीं चाहती थी। यह आरोप तो निश्चित ही नहीं लगाया जा सकता कि गांधीजी कांग्रेस नामक राजनीतिक दल के चवन्निया सदस्य थे। पर इस आरोप की तो अवश्य ही समीक्षा की जा सकती है कि कांग्र्रेस ने आजादी की लड़ाई के मिशन को सत्ता प्राप्ति के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और पांच दशक से अधिक समय तक राज भी किया। आज भी कर रही है।

जनता का संदेह यकीन में बदलता जा रहा है कि सरकार भ्रष्टाचार और काले धन के मुद्दों पर कठोर कार्रवाई करने से कतरा रही है। सिविल सोसायटी के आंदोलनों पर राजनीतिक दोषारोपण कर उनकी विश्वसनीयता को जनता के बीच कमजोर करने का सरकार का प्रयास भी इसी आनाकानी का हिस्सा है।

सरकार की नीयत साफ होती तो वह सिविल सोसायटी के आंदोलनों को देशहित में मानते हुए उन्हें और ताकत प्रदान करती, पर उसके सिपहसालार इस कदर भयभीत हैं कि अपने आरोपों से भाजपा और संघ को ही मजबूती प्रदान करने में जुटे हैं। उन्हें गलतफहमी यह भी है कि सिविल सोसायटी के आंदोलनों को कमजोर करने में सफलता मिल रही है।

सिविल सोसायटी से चुनौती वास्तव में वर्तमान राजनीति को है, किसी सरकार को नहीं। जहां तक भ्रष्टाचार के खिलाफ सिविल सोसायटी की व्यापक मांगों का संबंध है, जनता के लिए तो विपक्षी दल भी सरकार के ही पीछे खड़े हैं।

Sharwan Garg
http://www.bhaskar.com/article/ABH-what-civil-society-not-the-country-2184870.html

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