कमजोर नेतृत्व और लचर नीतियों को भारत पर बार-बार आतंकी हमलों का कारण मान रहे हैं ब्रह्मा चेलानी
यह महज संयोग नहीं है कि भारत की व्यावसायिक राजधानी मुंबई पर 1993 से बार-बार आतंकी हमले हो रहे हैं। मुंबई आतंकियों का पसंदीदा निशाना है, क्योंकि आतंकवाद के प्रायोजक भारत के उभरती शक्ति के दर्जे को गिराना चाहते हैं और विदेशी निवेशकों को हतोत्साहित करना चाहते हैं। भारत का आर्थिक उदय पाकिस्तान के पतन के उलट है, जहां आतंकवाद और अराजकता फैली हुई है। मुंबई पर हर हमला भारत की सुरक्षा को लेकर अंतरराष्ट्रीय चिंताओं को बढ़ा देता है। इस कारण बहुत से विदेशी पर्यटक या तो भारत की यात्रा का विचार छोड़ देते हैं या फिर स्थगित कर देते हैं। व्यावसायिक राजधानी पर बार-बार हमले कर भारत की ताकत को घटाना एक भूराजनीतिक लक्ष्य है, जिसे राष्ट्र प्रायोजित आतंकवाद ही अंजाम दे सकता है, गली-मोहल्ले के छुटभैये गिरोह या माफिया नहीं। हालिया सुनियोजित बम विस्फोट उन्हीं बाहरी शक्तियों का काम नजर आते हैं, जो 26/11 समेत पहले हुए हमलों में संलिप्त थीं। 26/11 के हमले से इन शक्तियों ने एक सबक जरूर सीख लिया कि कोई ऐसा सबूत न छोड़ा जाए जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि इनमें उनका हाथ है। इसलिए इस बात की खासी संभावना है कि इन हमलों को आपराधिक जगत के कारिंदों के माध्यम से अंजाम दिया गया हो। मुंबई में हुए हालिया हमलों के पीछे एक खास उद्देश्य नजर आता है-पाकिस्तान आधारित सूत्रधारों और षडयंत्रकारियों को सजा दिलाने के लिए भारत, अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय दबाव को हलका करना। वे हमलों के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय जगत का ध्यान बांटना चाहते हैं। अब भारत का ध्यान 26/11 हमले से बंटकर हालिया हमले की जांच में लग जाएगा। ऐसे नाजुक समय जब अमेरिका पाकिस्तानी सेना और आइएसआइ पर दबाव बढ़ा रहा है और इसके लिए उसने पाकिस्तान को मिलने वाली आर्थिक सहायता की किश्त भी रोक दी है, आतंकी हमलों के सूत्रधारों का एक और उद्देश्य हो सकता है-बिगड़ते पाक-अमेरिकी संबंधों से ध्यान हटाकर भारत-पाक संबंधों पर केंद्रित करना, किंतु आधिकारिक भारतीय सूत्रों ने, जो पाक नीति को लेकर जनता के आक्रोश से सरकार को बचाना चाहते हैं, इन हमलों का दोष इंडियन मुजाहिदीन गुट और अंडरवर्ल्ड पर थोप दिया है। यह अविश्वसनीय है कि इंडियन मुजाहिदीन या अंडरवर्ल्ड बिना बाहरी निर्देश और मार्गदर्शन के इन विस्फोटों को अंजाम दे सकते हैं। इसकी अधिक आशंका नजर आती है कि आइएसआइ के खुले संगठन लश्करे-तैयबा ने मुंबई में इस घटिया करतूत को अंजाम देने के लिए आतंकी समूहों या फिर अंडरवर्ल्ड को पैसा दिया होगा। 26/11 के हमले को भारत का 9/11 कहा जाता है। इन हमलों को पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के संदर्भ में भारत की सहनशीलता की आखिरी हद बताया गया था। हालांकि, हालिया विस्फोटों से स्मरण होता है कि कोई मूलभूत फर्क नहीं पड़ा है। पीछे हटते-हटते नई दिल्ली अब दीवार से सट गई है। सरकार ने पाकिस्तान से सभी मुद्दों पर सभी स्तरों की वार्ता शुरू करने का फैसला ले लिया-वह भी आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान की वचनबद्धता हासिल किए बिना ही। यहां तक कि 26/11 हमलों के जिम्मेदार पाकिस्तान स्थित आतंकियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है और पाकिस्तान में आतंकियों के प्रशिक्षण शिविर अभी भी निर्बाध रूप से जारी हैं। ऐसे में भारत ने राजनीतिक वार्ता शुरू करके पाकिस्तान को आतंकी कार्रवाइयों को अंजाम देने की छूट दे दी है। 26/11 के बाद भारत के पास कूटनीतिक, आर्थिक और राजनीतिक मोर्चो पर अनेक विकल्प मौजूद थे। निरर्थक बातचीत और युद्ध, इन दो विरोधी छोरों के बीच भारत पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक दबाव बढ़ाने का रास्ता अपना सकता था। इन उपायों में उच्चायुक्त को इस्लामाबाद से वापस बुलाना, संयुक्त आतंक-विरोधी तंत्र के प्रहसन को बंद करना और व्यापार प्रतिबंध लागू करना शामिल था, लेकिन कमजोर भारतीय नेतृत्व ने 26/11 हमले में पाकिस्तान की संलिप्तता पर आक्रोश जताने के लिए छोटे से छोटा कदम उठाना भी उचित नहीं समझा। इस परिप्रेक्ष्य में अमेरिकी उपमंत्री रॉबर्ट ब्लैक ने पाकिस्तान से वार्ता शुरू करने के लिए अपनी तमाम शर्तो को छोड़ देने पर भारत का शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि जो भी मुंबई हमले के लिए जिम्मेदार हैं उन्हें दंड मिलना चाहिए और फिर पाकिस्तान को सीमापार घुसपैठ रोकने के लिए ऐसे उपाय करने चाहिए जो नजर आएं। जहां 26/11 की पटकथा लिखने में पाकिस्तानी सरकारी एजेंसियों की संलिप्तता स्पष्ट है, वहीं इस मुद्दे पर पाकिस्तान को कठघरे में न खड़ा करने के लिए भारतीय नीति-निर्माताओं के दोष पर अधिक ध्यान नहीं गया है। असल में इस सिलसिले में भारत ने बड़ा अजीबोगरीब उपाय खोज निकाला-दस्तावेजी बमबारी। नियमित अंतराल पर पाकिस्तान को साक्ष्यों के भारी-भरकम पुलिंदे भेजे जाते रहे। नतीजा यह रहा कि पाकिस्तान का कुछ नहीं बिगड़ा और भारत को नीचा देखना पड़ा। चिर-परिचित निरर्थक प्रलाप फिर से दोहराया जा रहा है-बम विस्फोटों की भर्त्सना की औपचारिकता और आतंक को परास्त करने का संकल्प। बम विस्फोटों का खतरनाक राजनीतिक संदेश भी गया है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कद बढ़ने के बावजूद भारत में आतंकी हमले रोकने की शक्ति नहीं है। इन धमाकों से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की साख पर और बट्टा लगा है। मनमोहन सिंह एक कमजोर प्रधानमंत्री हैं। निर्णय लेने की उनकी अक्षमता के कारण भारत आतंकवाद के खिलाफ कोई दृढ़ और कारगर नीति नहीं अपना सका है। सरकार की मूलभूत गलती की सजा पूरा देश भुगत रहा है-पाकिस्तान नीति और आतंकरोधी रणनीति को अलग करना। ये दोनों अविभाजित नहीं हैं। सरकारी तंत्र आतंकवाद को कानून-व्यवस्था का मुद्दा मानता है, जिसका समाधान पुलिस बल में वृद्धि और दक्षता से हो सकता है। दरअसल, आतंकवाद को कानून-व्यवस्था की समस्या मान कर हम आतंकियों के हाथों में खेलते हैं। इससे हमारी ताकत घटती है। अगर आतंकी नेटवर्क और आतंकवाद के पनाहगारों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जाएगी तो कितनी भी पुलिस लगा लें, आतंकवाद पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता। यह कटु सच्चाई है कि अंतरदेशीय आतंकवाद भारत को आसान निशाने के रूप में इसलिए देखता है, क्योंकि हम आतंकियों और उनके प्रायोजकों से कोई कीमत वसूल नहीं करते हैं। (लेखक रक्षा मामलों के विशेषज्ञ हैं)
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