Saturday, July 16, 2011

आतंकियों को अभयदान



वोट बैंक की राजनीति के चलते आतंकियों को प्रोत्साहन मिलता देख रहे हैं अरुण जेटली




मुंबई में हालिया बम धमाके हमें स्मरण दिलाते हैं कि हम आतंकी निशाने पर सबसे ऊपर हैं। हम इस दलील पर संतुष्ट नहीं हो सकते और अपनी तैयारियों को ढीला नहीं छोड़ सकते कि मुंबई पर 31 माह बाद आतंकी हमला हुआ है। बार-बार मुंबई पर ही क्यों आतंकी हमले किए जाते हैं? कारण स्पष्ट है। मुंबई पर हमले भारतीय अर्थव्यवस्था पर आघात हैं। इनकी दुनिया भर में चर्चा होती है। मुंबई पर बड़े आतंकी हमलों का सिलसिला 1993 से शुरू हुए। ट्रेन धमाके और 26/11 के आतंकी हमलों के बाद यह सिलसिला अब तक जारी है। मुंबई शहर की मूलभावना उद्यमिता है। यह समावेशी है और लचीली भी। किंतु इसका यह मतलब नहीं कि आतंक के विरुद्ध मुंबई का रवैया नरम है। मुंबई एक हमले के बाद दूसरे हमले का इंतजार नहीं कर सकती। मुंबई पर बार-बार होने वाले हमले पूरे देश को चेताते हैं कि हमें एक कारगर खुफिया, निरोधात्मक और दंडात्मक व्यवस्था तैयार करनी होगी। इसके तहत देश में कहीं भी किसी के भी खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने की तैयारी करनी होगी। अगर कोई आतंक के माध्यम से भारत पर हमला करने की जुर्रत करता है तो हमें सुनिश्चित करना होगा कि उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़े। अमेरिका में 9/11 हमले के बाद कोई भी उसके खिलाफ आतंकी हमला करने का दुस्साहस नहीं कर पाया। मुंबई को भी इसी भावना के साथ चलना होगा कि इस पर यह अंतिम हमला है। भारत उपद्रवी पड़ोसियों से घिरा है। यद्यपि हालिया हमले से संबंधित तथ्यों की पड़ताल जारी है और ऐसे में यही उचित है कि कोई भी अभी अंतिम निष्कर्ष तक न पहुंचे। फिर भी इसमें कोई शक नहीं है कि सीमा पार के प्रोत्साहन पर ही लश्करे-तैयबा और इस जैसे अनेक आतंकी संगठन खड़े किए गए हैं। इनका लक्ष्य भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अस्थिरता फैलाना है। कसाब और शिकागो मामले से मिले साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं। पश्चिमी सीमा पर हमारे पड़ोसी ने आतंकवाद को राष्ट्र नीति के औजार के तौर पर इस्तेमाल किया है। पाकिस्तानी से जुड़े सूत्रों के बिना विश्व में कहीं भी कोई बड़ा आतंकी हमला नहीं हुआ है। पाकिस्तान को उचित ही वैश्विक आतंक की धुरी बताया जाता है। विश्व के सर्वाधिक कुख्यात आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को विश्व में अगर कहीं पनाह मिली तो केवल पाकिस्तान में। इंडियन मुजाहिद्दीन का गठन इसलिए किया गया ताकि घरेलू आतंकियों को संगठित किया जा सके। हालिया वर्षो में भारत पर हुए अनेक आतंकी हमलों के सूत्र इंडियन मुजाहिद्दीन से जुड़े हैं। बड़ी संख्या में इसके सदस्यों की गिरफ्तारी के कारण यह पिछले कुछ वर्षो से शांत पड़ा था। लगता है अब ये फिर से संगठित हो रहे हैं। आतंकी घटनाओं के सिलसिले के प्रति भारत की प्रतिक्रिया क्या है? जाहिर है, हम इनकी भ‌र्त्सना की रस्मअदायगी करते हैं। हम हादसों के शिकार लोगों की मौत पर विलाप करते हैं और घायलों को राहत प्रदान करते हैं। किंतु इस सबसे भारतीय समाज को क्या संकेत मिलता है, खासतौर पर उन लोगों के संबंध में जो सरकार में हैं और आतंकवाद के खिलाफ समर्पण कर रहे हैं। आतंकी घटनाओं की पड़ताल और आतंकियों को दंडित करने के लिए राजीव गांधी ने टाडा लागू किया था। कुछ राज्यों ने किसानों के खिलाफ इसका दुरुपयोग किया किंतु इसे रद नहीं किया गया। जब 1993 के विस्फोट करने वाले आतंकियों के खिलाफ इसका सही इस्तेमाल किया जा रहा था, तो इसे रद करने का एक अभियान छेड़ दिया गया और टाडा को रद कर दिया गया। इसके बाद पोटा को इस आधार पर रद किया गया कि हमें आतंक के खिलाफ विशेष कानून की आवश्यकता नहीं है। जो लोग आतंक के खिलाफ विशेष कानून लाने की आवश्यकता नहीं समझते, वे अब सांप्रदायिक हिंसा से निपटने के लिए एक बेहद पक्षपाती कानून लाने की सोच रहे हैं, जिसके तहत केवल एक समुदाय को ही दंडित किया जा सकेगा। जब आतंकवादी बटला हाउस में शरण पाते हैं तो कुछ वरिष्ठ राजनेता हमारे सुरक्षा बलों पर सवाल खड़े करते हैं जो बटला हाउस मुठभेड़ में शामिल थे। वोट बैंक की राजनीति के चलते कुछ राजनेता आजमगढ़ में संदिग्धों के घर जाकर उनसे सहानुभूति प्रकट करने को मजबूर हो जाते हैं। एक कांग्रेसी राजनेता तो आतंक के शिकार लोगों के परिजनों से मिलने के बजाए आरोपी के परिजनों से मिलने पहुंच जाते हैं। संसद हमले के दोषी की फांसी की सजा टालने के पीछे भी वोट बैंक और सिर्फ वोट बैंक की राजनीति ही जिम्मेदार है। सितंबर 2009 तक जिस नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर के गठन का वादा किया गया था, उसे अब तक पूरा नहीं किया गया। मुख्यधारा के कुछ राजनीतिक दलों ने आतंकियों को स्पष्ट संदेश दे दिया है कि आप आतंकी हमले करके साफ बच सकते हैं। इन हालात में हम सुनिश्चित नहीं हो सकते कि मुंबई पर फिर आतंकी हमले नहीं होंगे। माओवादी विद्रोह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती है। जब गृहमंत्री ने इसके खिलाफ कड़े कदम उठाने की कोशिश की तो उन्हीं की पार्टी ने कहा कि केंद्र सरकार को वैकल्पिक कदम उठाने चाहिए। जब माओवादी भारत के लोकतंत्र पर हमला करते हैं तो उनके खिलाफ कड़े कदम उठाने के बजाए आपको लचर दलीलें सुनने को मिलती हैं कि लोग माओवादी क्यों बनते हैं। क्या सिविल समाज के अलंबरदारों या राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के एजेंडे में राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा रहा है? मुंबई की भावना एक राष्ट्रीय हल की दिशा में कदम बढ़ाने की मांग करती है, ताकि तमाम राजनीतिक, प्रशासनिक और सुरक्षा संबंधी बाधाओं को दूर करते हुए आतंक का खात्मा किया जा सके। मुंबई की भावना को बार-बार होने वाले आतंकी हमलों से जख्मी नहीं किया जा सकता। जो लोग पाकिस्तान के साथ वार्ताओं के पक्षधर हैं, उन्हें स्मरण होना चाहिए कि आज पाकिस्तान में हालात बेकाबू हैं और वहां अराजकता फैली है। दिखावे के रूप में वहां आतंक के खिलाफ युद्ध चल रहा है। किंतु पाकिस्तान के उन लोगों से गहरे संबंध हैं जो आतंकवाद फैलाते हैं। जब तक पाकिस्तान कट्टरता को त्यागने, पारदर्शिता लाने, लोकतंत्र के पथ पर चलने और एक राष्ट्र के तौर पर खुद को आतंक से अलग करने का संकल्प नहीं लेता, इसके साथ किसी भी प्रकार के संबंध संदेहास्पद होंगे। पाकिस्तान के संबंध में सरकारी और गैरसरकारी तत्वों के बीच की विभाजन रेखा मिट चुकी है। भारत की विदेश नीति को जनवरी 2004 के उस संयुक्त बयान पर लौटना होगा कि वार्ता इस शर्त पर हो सकती है कि पाकिस्तान के भूभाग को भारत के खिलाफ आतंक के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। (लेखक राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं)


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